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________________ चतुर्थ भाग । फिर निगोद में उत्पन्न हो, उसको इतर निगोद कहते हैं । ४३ । पृथिवी, अपू, तेज वायु, नित्यनिगोद और इतर निगोद ये ६ बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकारके होते हैं । वाकीके सब जीव बादर ही होते हैं सूक्ष्म नहि होते | ર ४४ । पुलविपाकी शरीर अंगोपांग नामा-नामकर्मके उदयसे मनोवर्गणा, वचनवर्गणा, तथा कायवर्गणाके अवलंबनसे कर्म नोर्म ग्रहण करनेकी जीव की शक्तिविशेषको भावयोग कहते हैं इस ही भावयोग निमित्तसे आत्मप्रदेशके परिस्पंदको (चंचल होनेको ) द्रव्ययोग कहते हैं। योगके भेद पंद्रह है-मनोयोग ४ वचनयोग ४ और काययोग ७ । ४५ । नोकपायके उदयसे उत्पन्न हुई जीवके मैथुन करनेकी अभिलाषाको भाववेद कहते हैं और नामकर्मके उदयसे आविर्भूत जीवके चिह्नविशेषको द्रव्यवेद कहते हैं । वेद तीन प्रकारका होता है । स्त्रोवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । ४६ । जो आत्मा के सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र और यथास्यात चारित्र रूप परिणामोंको वातै, उसको कपाय कहते हैं कषाय ४ प्रकारके हैं-भनंतानुवधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्यास्थानावरण और संज्वलन । ४७ | ज्ञानमार्गणा - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल तथा कुमति, कुश्रुत, कुप्रवधि भेदसे आठ प्रकारकी है। ४८ । अहिंसादि पांच व्रत धारण करने, ईर्यापिय आदि पांच समितियों को पालने, कांधादि कपायोंके निग्रह करने, मनोयोगादि तीनों योगोंको रोकने, स्पर्शन आदि पांचों इन्द्रियोंके विजय
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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