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________________ १८४ जैनवालबोधक तसागर, हिमवान, विजय. अन्रल. धारण, पूरण, प्रभिचंद और वसुदेव ये दश पुत्र हुए और भोजकवृष्टिके उग्रसेन, महासेन और देवसेन हुये । भोजकवृष्टिसे फिर भोजवंश जुदा चला। अन्धकवृष्टि राजा अपने बड़े पुत्र समुद्रविजयको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर मोक्षको गये। समुद्रविजयके शिवादेवी पटराणी के गर्भ से हमारे बाईसवें तीर्थंकर भगवान् श्रोनेमिनाथ हुए और सबसे छोटे भाई वसुदेवके देवकीके गर्भ से नववें नारायण श्रीकृष्ण और रोहिणी देवीसे घनदेव उत्पन्न हुए । नेमिनाथसे उमर में श्रीकृष्ण से छोटे और वलदेव बड़े थे । बलदेव गौरवर्ण थे श्रीकृष्ण और नेमिनाथ कृष्णवर्ण अति मनोहर थे । 'श्रीकृष्णसे पहिले जरासिन्धु प्रतिनारायण था । उस समय तीनों खंडोंमें जरासिंधुका ही राज्य था । श्रीकृष्ण पश्चात् जरासिंधुको मारकर तीन खंडका राज्य लेकर नारायण पदको प्राप्त हुए। युधिष्ठरादि पांच पांडव श्रीकृष्णके परममित्र थे । एक दिन श्रीकृष्णकी अट्ठारह हजार स्त्रियों में से पट्टराणी सत्यभामाने जलक्रीड़ाके समय कुछ हास्यवचन कहे, उस परसे नेमिनाथजीने कृष्णकी आयुघशाला में जाकर नागशय्या दजमली, गांडीव धनुष्य चढ़ाया और शंखध्वनि की । जिसको सुनकर नारायणने जाना कि, यह शंखध्वनि आदि कार्य नेमिनाथने किये है, सो अपने मन में प्रतिशय चिन्तातुर हुआ और बलभद्र भ्राता से कहा कि, ऐसे बलिष्ठ भ्राता के सामने अपना राज्य करना ठीक नहीं है। ये जब चाहेंगे तब ही अपनेको राजगद्दीसे उठा सके हैं। बलभद्रने कहा कि भाई ! हम सरीखों को ऐसे राज्यकी इच्छा
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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