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________________ चतुर्थ भाग। . २४७ १६६ । अनंतानुवंधि कषायोदयजनित प्रविरतिसे आगे लिखी पचीस प्रकृतियोंका बंध होता है। अनंतानुवंधि क्रोध, मान. माया, लोभ, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला प्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अप्रशस्त विहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तियर गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, तिर्यगायु, उद्योत, संस्थान ४ (न्यग्रोध, स्वाति, कुन्जक, वामन ) संहनन ४ (वजनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, और कीलित ) । १७० । अप्रत्याख्यानावरण कषायोदयजनित अविरतिसे दशप्रकृतियोंका बंध होता है । जैसे-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी. मनुष्यायु, औदारिक शरीर, औदारिक प्रांगोपांग, और वज्रवृषभनाराच संहनन । १७१ । प्रत्याख्यानावरण कषायोदयजनित अविरतिसे चार प्रकृतियोंका बंध होता है-प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभका । १७२ । प्रमादसे छह प्रकृतियोंका बंध होता है, अस्थिर, अशुभ, असातावेदनीय, अयशः कीर्ति, अरति और शोकका । १७३ । कषायके उदयसे अठावन प्रकृतियोंका बंध होता है अर्थात् देवायु, निद्रा, प्रचना, तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त विहायोगति, पंचेंद्रियजाति, नैजसशरीर, कार्माणशरीर, थाहारकशरीर, आहारक प्रांगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियकशरीर, वैक्रियक प्रांगोपांग. देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, रूप, रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलधु, उपघात, पर. घात, उच्छ्वास, स, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर,
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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