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२४८ . जैनबालबोधक'शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, जुगुप्सा, भय, पुरुपवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, मतिझानावरण, श्रुतज्ञानावरण. अवधिहानावरण, मनःपर्वयशानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण, प्रचतुर्दशनावरण, अवविदर्शनाधरण, केवलदर्शनावरण, दानांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यातराय, लाभांतराय, यशः कीर्ति, और उच्चगोत्र ५८ इन प्रकृतियोंका बंध होता है। ... १७४ । योगके निमित्तसे एक मात्र सातावेदनीयका वंध होता है।
१७५। कर्मप्रकृति सब १४८ हैं और वंध होनेका कारण केवल १२० प्रकृतियोंका ही दिखलाया तो प्रश्न हो सकता है कि २८ प्रकृतियोंका क्या हुश्रा इसका समाधान यह है-स्पर्शादि २० की जगह ४ का ही ग्रहण किया गया है इस कारण १६ तो ये घटीं और पांचों शरीरोंके पांचों बंधन और पांच संघातका ग्रहण नहिं किया गया इस कारण दश ये घर्टी और सम्यक् मिथ्यात्व तथा सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोंका बंध नहिं होता है क्योंकि सम्यग्दृष्टी जीव पूर्ववद्ध मिथ्यात्व प्रकृतिके तीन खंड करता है तव इन दो प्रकृतियोंका प्रादुर्भाव होता है बंध नहिं होता इस कारण दो प्रकृति ये घट गई।
१७६ । द्रव्यानव सांपरायिक और ईर्यापथके भेदसे दो प्रकारका होता है। - १७७ । जो कर्मपरमाणु जीवके कषाय भावोंके निमित्तसे आत्मामें कुछ कालके लिये स्थितिको प्राप्त हों.उनके आस्रवको साम्परायिक आस्रव कहते हैं।