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चतुर्थ भाग। । सर्वसाधारणको तो इस फेर फारकी बात मालूम न हुई परंतु
भगवान् अवधिज्ञानी थे, इनसे क्यों छिप सकती थी । वश ये इस प्रकार नीलांजनाकी आयु पूरी होते देख अपने शरीरादि संसारकी अनित्यता समझ वैराग्यको प्राप्त हो गये उसी वक्त पांचवे स्वर्गसे लोकांतिक देव पाये और नमस्कार पूजादि करके भगवान्की प्रशंसा की एवं उनके वैराग्यको दृढ कर चले गये इन्द्रादि देव भी पालकी लेकर आगये भगवान्ने भरतका राज्या. भिषेक किया और फिर आप तपोधारण करनेको पालकीमें बैठ कर सिद्धार्थ नामक वनको (जिसको प्रयागारराय भी कहते थे) जो अयोध्याले न तो पास ही था न बहुत दूर था, चल दिये।वनमें जाकर पंचमुष्टि लोच करके सिद्धोंको नमस्कार कर मुनिपद धारण कर लिया। दीक्षाके बाद भी देवोंने भक्ति पूजा करके तपः कल्याणक किया। भगवानको तप धारण करते ही मन:पर्यय ज्ञान हो गया। - भगवानके तप धारण करनेके समय साथमें अनेक राजा लोग आये थे, भगवानकी देखा देखी चार हजार राजाओंने भी नग्नमुद्रा धारण कर ली थी। भगवान्ने तो एकदम ईमहिनेका उपचास धारण कर कायोत्सर्ग ध्यान करना प्रारंभ कर दिया ये एकदम निश्चल हो कर तिष्टे परंतु राजाओंने जो दीक्षा ली थी वे सुधादि परीपह सहने में असमर्थ होकर बनके फल मूल खाने लगे, नदी नालाओंका जल पीने लगे। वन देवताओंने यह क्रिया जैनमुनिकी क्रियाले विरुद्ध देखकर उनको धमकाया तब नग्न. पन छोड वृत्तोंकी छाल वगेरहके कपड़े पहर कर नाना प्रकार के