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जैनवालबोधक
भेष उनने धारण कर लिये । उसी समय भगवानके पोते मरीचिने सांख्य शास्त्रकी रचना करके लोग अपनी ओर मकाये उसी समय सब मिलाकर तीन सौ तिरेसठ ३३ प्रकार के मत उन्होंने धारण किये थे ।
भगवानने ६ महीनेका उपवास पूर्ण करके भोजनार्थ विहार किया, लोग मुनिके प्रहारकी विधि नहिं जानते थे इस कारण कोईने कुछ कोईने कुछ ला ला कर भगवानको देना चाहा परंतु भगवान् उनकी ओर देखते तक नहि थे । इस प्रकार फिरते २ छह माहसे कुछ ऊपर हो गये तब फुरुजांगल देशके हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभके छोटे भाई श्रेयांसको भगवान् के दर्शन होते ही जातिस्मरण हो गया और पूर्व जन्ममें मुनिको आहार दिया था उस समयकी विधि याद आने से भगवानको त्वरित ही नवधाभक्तिपूर्वक श्रद्धान करके वैशाखमुदी ३ तृतीयाको इतुरसका दान किया जिससे उस राजाके घर इन्द्रादि देवोंने पंचाश्चर्य किये और उसी दिन अक्षय तृतीया पर्व प्रारंभ हुआ उस दिन भी इक्षुरसका ही भोजन बनाया जाता है !
एक दिन भगवान् विहार करते २ पुरिमलात नामक नगरके पासवाले शक्र नामक वनमें जाकर ध्यानारूढ़ हुये थे सो फागुण वदि एकादशी के दिन चार घातिया कर्मोका नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया और भगवान् अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान अनंत सुख श्रौर अनंतवीर्ययुक्त हो गये ।
भगवान्को केवलज्ञान प्राप्त होते ही इन्द्रादि चार प्रकारके देवोंको प्राकृतिक रीतिसे खबर हो गई । वे सबके सब ज्ञान कल्याण