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________________ ३५८ जैनदालवोधक___ मंत्रीने सोचा था कि यदि यह मुनिका रूप बनानेको इनकार करैगा तो राजाशाके उल्लंघन करनेका दंड दिया जायगा और मुनि होकर मुनिरूप छोड़ देगा तो इसका भी दंड दिया जायगा। ब्रह्मगुलालने कहा कि महाराज मुनिका रूप तो में अव. श्य भरूंगा परन्तु उसके लिये कुछ दिनों की मुहलत देना चाहिये तव राजाने जब तुमारो खुशी हो तब रूप लेना ऐसा स्वीकार किया और ब्रह्मगुलालने अपने घर पाकर कहा कि मैं तो अव मुनिदीक्षा लेऊंगा। माता पिता स्त्री वगेरहने बहुत कुछ समझाया परंतु सवको उपदेशामृतसे संतुष्ट करके सबसे क्षमा प्रार्थना करली फिर बारह भावना भाकर अपने चित्तको अच्छी नरह दृढ़ कर एक दिन श्रीजिनमंदिर में जाकर प्रतिमाके सम्मुख प्रार्थना करने लगा कि-अव कालदोपसे मुनिका संयोग मिलना अत्यंत कठिन हो गया है, लाचार हे भगवान ! मैं आपके सम्मुख पंचमहाव्रत धारण करता हूं। ऐसा कहकर अपने हाथसे अपने केशोंका लोच करके पोछी कमंडलु धारण करके नग्न दिगवर मुनि हो गया और उसी वक्त समस्त जैनी भाईयोको जिन धर्मका उपदेश देकर राजसभामें गया। राजा ब्रह्मगुलालको मुनि के रूपमें देखकर चकित हो गया और शांत मुद्राको देखकर नमस्कार करना पड़ा । फिर उसने जिनधर्मके तत्त्वोंका स्वरूप अच्छी तरहसे वर्णन करके संसार शरीर विषय भोगोंको असा रता दिखाकर राजकुमारकी मृत्युका जो राजाके चित्तमें शोक भर रहा था सो दूर कर दिया। राजाने निष्कपट और प्रसन्न होकर कहा कि तुमने मुनिका बहुत ही अच्छा रूप बनाकर सच्चे धर्मका
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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