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चतुर्थ भाग!
३५७ एक समय राजकुमारने अपने अजैन दोस्तोंके बहकानेसे प्रस्ताव किया कि ब्रह्मगुलाल ! तुम सर्व प्रकारके भेष तौवनालेते हो परंतु सिंहका मेव बनाकर लावो जिसमें वही पराक्रम वही गर्जन आदि सब गुण हों। ब्रह्मगुलालने कहा-सिंहका भेप बनाना कोई मुस्किल नदि है। परन्तु सिंहके मेपमें किसी पर चोट हो जाय तो मुस्किल है । राजकुमारने एक खून माफ करनेकी लिखित श्राक्षा पितासे दिलवादी या स्वयं लिखदी।
फिर क्या था ब्रह्मगुलाल सिंहका रूप बनाकर राजाकी भरी सभामें कड़ककर आया । राजकुमारने वहाँ पर चकरीका एक बचा मगाकर बाँध रक्खा था। क्योंकि राजकुमार और उसके दोस्तोंने ब्रह्मगुलालके जैनीपनेकी परीक्षा करनेके लिये सिंहका रूप धरवाया था। देखें ! यह वकरीके वञ्चकोमारता है कि नहीं। इस कारण राजकुमारने कहा कि यह सिंह काहका है गीदड़ है। सिंह होता तो श्रांगनमें बकरीका वच्चा खड़ा है उसको मार न डालता। वश ! फिर क्या था ? सिंह क्रोधित होकर बकरीके बच्चेको मारना उचित न समझ राजकुमार पर झपटा लो उसे . थप्पड़से गिराकर चीर डाला जिससे राजकुमार मर गये। बड़ा हाहाकार होने लगा, सिंह तो घर चला गया । राजाने एक खून माफ कर दिया था सो वह ब्रह्मगुलालको कुल भी दंड नहिं दे सका। परंतु पुत्रकी मृत्युका बड़ा मारो शोक था। किसी न किसी तरह चित्तको शांत होना चाहिये। इस चिंतामें देख रा.. जाके मंत्रीने ब्रह्मगुलालको कहा कि तुमने सिंहका रूप तो अच्छा वनाया परन्तु अब मुनिका रूप भी जैसेका तैसा वनना चाहिये।