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________________ चतुर्थ भाग। ३३७ धिक करके इन्हे सिखाये। ये दोनों ही मुनि गिरनारजीपरभग• वान नेमिनाथको सिद्धशिला पर बैठकर मंत्र साधने लगे। मंत्र साधनेकी अवधि पूरी हुई तव कम अक्षरवाले मंत्रका जाप करनेवाले मुनिके सामने तो एक आंखवाली देवी आई और अधिकातर साधनेवाले मुनिके सामने बडे २ दांतवाली देवो आकर खड़ी हो गई । इन दोनोंने ही विचारा कि देवियोंके रूप तो ऐसे कदापि नहिं हो सकते यह क्या कारण है जो इन विद्याओंका विकृत अंग है हमारी साधनामें कोई न कोई अवश्य भूल है तव दोनोंनेही अपने २ मंत्रोंको मंत्र व्याकरणके अनुसार मिलाकर ठीक किया और फिरसे उन मंत्रोंका जाप्य करना प्रारंभ किया तब मंत्रारा. धन विधि पूरी होते ही वे दोनों देविय सुन्दराकारसे हाजिर हुई और वो नीति "कहिये किस कार्यके लिये हमे आशा होती है।" मुनियोंने कहा कि हमे कोई जरूरत नहिं है हमने तो गुरुकी आज्ञासे मंत्रोंकी सिद्धि की है। तब "जव कभी जरूरत हो तव याद करें हम तत्काल ही हाजिर होकर आमा पालन करेंगी" ऐसा कह कर वे देवियां अपने २ स्थानको चली गई। उन दोनों मुनियोंने प्राचार्य महाराजकी सेवामें उपस्थित होकर अपना सारा वृत्तांत निवेदन किया तौ सुनकर आचार्य महाराज बड़े प्रसन्न हुये और शुभ तिथि शुभ नक्षत्र समय देखकर उन्हे पढ़ाना प्रारंभ कर दिया और वे मुनि भी प्रमादरहित हो गुरुविनय और शानविनय पालन करते हुये. अध्ययन करते रहे। ..कुछ दिनके पश्चात् प्रापाढ़.शुक्ला . एकादशीको विधिपूर्वक, ग्रंथाध्ययन समाप्त हुआ उस समय देवोंने. पुष्प वरसाये और
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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