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जैन बालबोधक -
समन्तभद्रस्वामीने कहा कि हे राजन् ! मैं कांचो देशमें दिनस्वर मुनि था । फिर पुंड्रपुर में आकर शाक्य भिक्षु (बौद्धसाधु) हो गया और दशपुर नगरमें मिष्टभोजी परिवाजक होकर इस वाराणसी नगरीमें (बनारस) शेव तपस्वी होकर श्राया हूँ । यदि किसी विद्वानकी मेरेसाथ वाद करने की शक्ति हो तो मेरे सामने खड़ा होवे, मैं जैननिग्रंथवादी हूं। मैंने पूर्वकालमें पाटली पुत्र नगर में / पटने में ) बांदका ढिंढोरा पिटवाया था। तत्पश्चात् मैं मालवदेश, सिन्धुप्रदेश, ढाका, बंगाल, कांचीदेश और बेडप्रदेशमें वाद जीतकर विद्योत्कट भटोंके द्वारा सुवर्ग हस्ती मादि अनेक सम्मानों को प्राप्त हुआ हूं। और हे राजेन्द्र ! अब मैं वादार्थी होकर सिंहकीसी क्रीड़ा करता हुआ विचरता हूँ ।
तत्पश्चात् उस भेषको छोड़कर 'जैननिग्रन्थ मुनिका भेष धारण करके काशीके समस्त एकान्तवादी विद्वानोंको वादमें पराभव किया और महाराज सहित हजारों मनुष्योंको जैनमतावलंबी बनाया शिवकोटि महाराज भी उनके उपदेशसे राजपाट. छोड़कर उसी समय जैनसाधु हो गये और उनसे अनेक शास्त्र. पढ़कर शेषमें शिवायन नामके प्राचार्य हो गये । इन्होंने ही श्री लोहाचार्यकृत चौरासीहजार श्लोकमय आराधनासारको संचय कर प्राकृतभाषाके साढ़े तीन हजार श्लोकोंमें बनाया है ।
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: इसप्रकार उस समय समन्तभद्रस्वामीने जिनशासनका प्रभाव प्रगट करके इस देशमें जिनधर्मका सर्वत्र प्रचार कर 'दिया था. कहते हैं कि उसी दिनसे काशी में फंटे महादेवका माहात्म्य हो गया है, सो अनेक शिवालयोंमें फटे महादेवोंकी स्थापना अब भी होती है
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