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चतुर्य भाग। । २७५ देखना है, तो आज नहीं कल प्रात:काल ही मैं नमस्कार करूंगा तव देखना। __"अच्छा कलाही सही" ऐसा कहकर राजाने उस मंदिरके चारोंोर पहरेका पक्का प्रबंध कर दिया, जिससे ये रात्रिमें भाग न जावें।
समन्तभद्रस्वामीने विचार किया कि, मैंने जल्दीमें कैसी असंभव चात कह डाली, अव सवेरे हीन मालूम क्या होगा। इसी चिन्ता में अन्तःकरणसे दुःखित हो रहे थे कि, अर्धरात्रिके 'पश्चात् अम्विका नामकी जिनशासन देवीका आसन कंपायमान हुआ और वह तत्काल ही समन्तभद्रस्वामीके पास आकर बोली कि, आप चिन्ता न कीजिये, प्रात:काल ही जव श्राप "स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले" इत्यादि चतुर्विशति भगवानका स्तवन करेंगे, तो वह मूर्ति अवश्यही फट जायगी। ऐसा कहकर देवी अदृश्य होगई।
राजाने प्रातःकाल ही योगीको द्वार खोलकर बाहर निका. ला। देखा तो योगिराज बड़े प्रसन्नचित्त है, और प्रफुल्लित बदन पर एक प्रकारका प्रतापसा झलक रहा है। राजाने कहा कि
अव नमस्कार करके अपनी सामर्थ्य दिखाये। । योगिराज तत्काल ही स्वयंभूस्तोत्र रचकर चतुर्विशति भग 'वान्का स्तवन करने लगे और उसके पूरा होते २ शिवकीर्चि 'फट गई और उसमेंसे चन्द्रप्रभ भगवानको रवमयी चतुर्मुख प्रतिमा प्रगट-हुई। राजा वगेरह सव ही देखनेवाले पार्वचित होकर जय जय ध्वनि करने लगे। राजाने पूछा कि है योगीट्र! आप कौन है, जो इतनी सामर्थ्य रखते है?