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चतुर्थभागं ।
दुल्हा (वीन ) ही सजे हों । तत्पश्चात् भगवानने अपने माता पितादि समस्त कुटुंब और उपस्थित जनताको वैराग्यका उपदेश दिया । उसे सुनकर माता के नेत्रों में पानी भर आया । तब उसे भगवानने वडे कसे समझा कर शांत किया। और इन्द्रके द्वारा लाई हुई विमला नामकी पालकीमें बैठ गये । उस पालकीको प्रथम तौ भूमिगोचरी राजा कंपर उठा कर सात पांच चले । तत्पश्चात् विद्याधर राजा अपने कंधे पर उठाकर सात पांच चले तत्पश्चात् इन्द्रादिक देवोंने अपने कंधों पर लेकर अश्वनामा वनमें जाकर रक्खी । उस वनमें एक बड़के वृक्ष तले स्वच्छ शिक्षा पर इन्द्राणीने सांथिया (मांडना ) पूरा था उस पर भगवान जा विराजे । समस्त कोलाहल शांत हो गया भगवान अपने मनमें शांति लाकर समस्त वस्त्राभूषण उतार कर एक दम नग्न हो गये और अत्यंत उदासवृतिले उत्तरमुख बैठकर हाथ जोड़कर सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार किया । अंतरंग और बाह्य समस्त परिग्रहोंका त्याग करके पांच मूडियोंसे अपने केशोंका जोच किया : इस प्रकार पौषशुक्ल एकादशीकै दिन प्रथम पहर में भगवान पार्श्वनाथने महाव्रत धारण किये और पद्मासन धारण करके बैठ गये। भगवान के साथ अन्यान्य तीन-सौ राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की भगवान के लोच किये हुये केश इन्द्वने अपने हाथमें लिये और बडे आनंद उत्साह से क्षीरसमुद्र में डालकर सब देव अपने २ स्थान गये ।
तत्पश्चात् प्रभुने एक साथ तीन उपवास किये । वे मुनिके अठाईस मूलगुण और ८४ उत्तर गुण उत्कृष्ट रीति से पालते