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________________ ३२० जैनवालवोधकअव अद्भुत पुण्य उपायो, कुल जात विमल तू पायो । यातें सुन सीख सयाने, विपयनसौं रति मत हाने । ठाने कहा रति विपयमैं ये, विपम विषधरसम लखौ यह देह मरत अनंत इनकौं, त्यागि श्रातमरस चखौं । या रसरसिकजन वसे शिव अव, बसे पुनि यसि हैं सही। 'दौलत'स्वरचिपरविरवि सतगुरु-सीख नित उरधर यही॥ ५८. सुकुमालमुनि। कौशांबीके राजा अतिवलका पुरोहित सोमशर्मा था उसकी स्त्रीका नाम काश्यपी था । उसके अग्निभूत वायुभूत नामके दो पुत्र थे । माता पिताके अधिक लाड प्यारके कारण वे कुछ पढ़ लिख न सके । कालकी विचित्रगतिसे सोमशा असमयमें ही चल वसा । राजाने अग्निभूतिको मूर्ख देख उसके पिताका पुरोहित पद किसी अन्य विद्वानको दे दिया। सो ठीक ही है मूर्यो का आदर सत्कार कहीं नहीं होता। यह देख दोनों भाइयोंको बड़ा दुःख हुा । तब इनको पढ़नेकी सूझी और राजगृहीमें अपने काकाके पास पांचसात वर्प रहकर विद्वान होकर आये तौ राजाने उनको पुरोहित पद देदिया। ___ इधर राजगृहीमें एक दिन संध्याके समय सूर्यमित्र सूर्यको अर्घ चढ़ा रहा था, उसकी अंगुलीमें राजाको एक रत्नजडित बहुमूल्य अंगुठी थी सो अर्घ देते समय महलके नौवें तालावमें -खिले हुये कमलमें गिर पड़ी और सूर्यास्त होनेसे कमल मुद गया। अर्ध देनेके बाद अंगूठीका ख्याल हुआ तो बड़ा घवराया।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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