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चतुर्थ भाग। राजा मागेंगे तो क्या जवाब दूंगा। अंगूठी दूंढनेका बहुत यल या परिश्रम किया परंतु अंगूठी नहिं मिली तय किसीके कहनेसे अवधिमानी सुधर्ममुनिके पास गया और हाथ जोड़कर अंगूठी की वाचत पूछा उन्होंने कहा कि सूर्यको अर्घ देते समय तालावमें एक कमलमें गिर पड़ी है वह कल तुझे मिल जायगी। दूसरे दिन कमल खिलनेसे वह अंगूठी मिल गई सूर्यमित्र बड़ा खुश हुआ। उसे बड़ा अचंभा हुवा कि मुनिने यह यात कैसेवतलाई ? • दुसरे दिन फिर मुनि महाराजके पास जाकर प्रार्थना की कि प्रभो ! जिस विद्यासे आपने अंगूठी वताई कृपाकरके मुझे वह विद्या पढ़ादें तो बड़ा ही उपकार हो । मुनि महाराजने कहा किमुझे इस विद्याके वतानेमें कोई इनकार नहीं है परंतु जैनमुनिकी दीक्षा लिये विना यह विद्या प्रा नहिं सकती।
सूर्यमित्र तब केवल विद्याके लोभसे दीक्षा लेकर मुनि हो गया। मुनि होकर उसने विद्या पढ़ानेको गुरुसे कहा तो सुधर्म मुनिराजने मुनियोंके आचार विचारके ग्रंथ तथा सिद्धांत शास्त्र पढ़ाये । तव तौ सूर्यमित्रकी एक दम पाखें खुलगई । अव तो वह जैनधर्मके माता विद्वान हो गये और अपने मुनिधर्ममें खूव हद हो गये तब गुरुकी प्राक्षा लेकर एकविहारी होगये । एकबार विहार करते हुये कौशांबी नगरीमें आये तो अग्निभूति पुरोहितने भकिपूर्वक आहारदान दिया और अपने छोटे भाई वायुभूति को भी मुनिके पास चलने वा वंदना करनेको कहा । परंतु वह तौ जिन धर्मसे सदा विरुद्धही रहता था। बदनाके बदले उसने निंदा करके बहुत कुचंबुरा भला कहा । सो ठीकही है जिनको
पढ़ाया विद्वानहाविहारी
रोहितने