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________________ ६२ जैनवालवोधककी कि आप हमारे स्वामी हैं आपहीने हमें राज्य दिया है हम अव भरतको नमस्कार नहिं कर सकते तब भगवानने उपदेश देकर समझाया कि अभिमानकी रक्षा तो केवल मुनिव्रत धारण करनेसे ही हो सकती है सो तुम्हे भरतकी आहा मानना अस्वीकार है तो मुनिदीक्षा ग्रहण कर लो तव भगवानसे ही दीक्षा लेकर सब भाई मुनि हो गये। एकमात्र बाहुवलीने दाना नहि ली। भरतने जब चौथे ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की थी तब भगवानसे पूछा कि मैंने एक ब्राह्मणवर्ण स्थापन किया है सो इस. काकुल खोटा परिणाम तो नहिं होगा तब भगवानने उत्तर लिया था कि चतुर्थकालमें तो ये सब ठीक रहेंगे परंतु पंचम कालमें ये सब ब्राह्मण जैनधर्मको छोड़कर जैनधर्मके द्वेषी हो जांयगे। भगवान ऋषभदेवने एक हजार वर्ष चौदह दिन कम एक लाख पूर्वतक समवशरण सभामें उपदेश दिया था। जब आयु के १४ दिन रह गये तव उपदेश देना बंद हो गया और आपने पोपसुदी १५ को कैलास पर्वतपर जाकर शुक्ल ध्यान घर दिया । श्रानन्द नामके पुरुप द्वारा भगवानका कैलास पर्वतपर जाना सुन भरत चक्रवर्ती भी कैलास पर गया और १४ दिनों तक भगवानकी सेवा पूजा की, अंतमें माघ वदी १४ के दिन सूर्योदयके समय अनेक मुनियों सहित भगवान ऋपभदेव मोक्षको पधार गये और देवोंने अाकर निर्वाण महोत्सव किया। भगवानके मोक्ष चले जाने पर भरतको बड़ा शोक दुवा था । · परंतु वृषभसेन गणधरके समझानेसे शोक शांत हो गया।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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