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जैनवालवोथक
भव तन भोग रोग लखि त्यागे, मोह मल्लको मार भगाया। याते ही क्या अनुपम आनंद, उर न समाकर तनपर छाया । कब ऐसा वह शुभ दिन आवे, अमर निरंतर जब निज ध्यावे । सुनि व्रत धरकरि कर्म खपावे,शिव रमनीको फिर जा पावै ॥३॥
७० ज्ञानानंदजीकृत शारदास्तवन । केवलिकन्ये वाङ्मय गंगे, जगदंवे अघनाश हमारे । सत्यस्वरूपे मंगलरूपे, मन मंदिर में तिष्ठ हमारे ॥ जंवू स्वामी गौतम गणधर, हुए सुधर्मा पुत्र तुम्हारे । जगते स्वयं पार है फरके दे उपदेश बहुत जन तारे ॥ १ ॥ कुंद कुंद अकलंक देव अरु, विद्यानन्द आदि मुनि सारे । तव कुल-कुमुद चंद्रमा ये शुभ, शिक्षामृत दे स्वर्ग सिधारे। तूने उत्तम तत्व प्रकाशे, जगके भ्रम सब तय कर ढारे। तेरी ज्योति निरख लज्जावश, रविशशि छिपते नित्य विचारे । भवभयपीडित व्यथितचित्तजन, जवजो आये सरन तिहारे। छिन भरमें उनके तब तुमने, करुनाकरि सव संकट टारे ॥ जब तक विषयकपाय नशै नहि, कर्म शत्रु नहिं जांय निवारे । तव तक ज्ञानानंद रहै नित, सब जीवनत समता धारे ॥३॥
दर्शन दशक ।
छप्पय । देखे श्री जिनराज आज सव विघ्न विलाये। देखे श्री जिनराज, आज सब मंगल आये ।।