________________
चतुर्थ भाग। सफल नयन मेरे भये, तुम मुख शोभा देख !, जीभ सफल मेरी भई, तुम गुन नाम विशेख ॥७॥ सफल चित्त मेरो भयो, तुम गुन चिंतत देव । पाय सफल आयें भये, हाथ सफल करि सेव ॥er सीस सफल मेरौ भयौ, नमो तुमै भगवान । नर भौ लाहो मै लहा, चरन कमल सरधान ॥ ६ ॥ गणधर इन्द्र न जात है, तुम गुन-सागर पार । कौन कथा मेरी तहां, लीजे प्रीति निहार । १० ॥ तातें बंदौं नाथ जी, नमौ सुगुन समुदाय । तीर्थकर पदकौं नमौं, नमौं जगत सुखदाय ॥ ११ ॥ पूजा थुति अरु वंदना, कीनी निज मन पान । .द्यानत करुनामावसौं, कीजे श्राप समान ॥१२॥ - इति स्तुति वारसी। .
ब. ज्ञानानन्दजीकृत श्रीगुरु स्तुति । कुमति विदारी भवभयहारी, नग्न विहारी तप धनधारी । आनन्द-सागर शान उजागर, शांति सुधाकर हे सुखकारी। कर्म-विनाशी सुगुन प्रकाशी, जंग जीवनकै हितकारी। नित सुख दुखमें शत्रु मित्रमें, घर अरु वनमें हेसमधारी | मार्ग बताया पार लगाया. जो प्राया तव चरन शरनमें । इह जगवासी भव दुखियाके, हदय विराजो प्राइक छिनमैं। शीत पर है वर्षा भारी, अरु गरमीमैं भानु तपै जब । चौपय तरु तल परवत ऊपरि, निहचल है तुम ध्यान घरटुजब।