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________________ ૨૦૮ अनवालवोधक पंचाग्नि साधन करता हूं, एक पांवपर खड़ा होकर एक हाथ ऊंचा रख करके तपस्या करता हूं। सुधा तृपा सहन करता हूं। पारणेके दिन सूखे पत्ते खाकर ही रहता है। अरे तू मेरी तपश्चर्याको मानहीन तपस्या कैसे कहता है ? तब भगवानने उसे मिष्ट शब्दोंमें फिर कहा कि तेरी तपस्या में हिंसाका पाप यात है। नित्य तेरे हाथ से छह कायके जीवोंकी हिंसा होती रहती है। जहां जरा भी जीव हिंसा हुई कि वहां अवश्य हो पातक होता. है और पातकके फलसे दुर्गतिके दुख अवश्य भोगने पड़ते हैं। इस लिये यह दयाहीन तप है । शानके (विवेक ) विना सर्वः प्रकार के कायक्लेश किये तो भी वे उत्तम फल देनेवाले नहीं । जिस प्रकार धान छोड़कर तुपको फूटना व्यर्थ है उसी प्रकार यह अज्ञानतप निष्फल है । जैसे अंधा पुरुष दावाग्नि लगे हुये जंगलमें इधर उधर भागता फिरता है परंतु उसे पागले पत्र कर निकलनेका रास्ता नहि मिलता, जलकर मर जाता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव कायश्लेश करते करते मर जाते हैं परंतु संसाररूपी दावाग्निसे निकल नहि सकते और इसी प्रकार क्रियाके (चारित्रके ) विना सिर्फ शान भी फलदायक नहि है। पांव और आंखें होते हुये भी भागकर दावाग्निसे निकलनेशा उपाय नहिं किया तौ दावाग्निमें अवश्य ही जलकर मरना पडेगा इसकारंण झानसहित आचार और उनके साथ २ विश्वास (श्रद्धान ) ये तीनों ही जम एकत्र हों तब इच्छित फल प्राप्त होता है । इसप्रकार जिनमतानुसार चलकर तू प्रारमहित कर, और यह हठ छोड़ दे । यह मैं तेरे हितके अर्थ कहता हूं।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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