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चतुर्थ भाग ।
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अपने नाना महिपालको पंचाग्नि साधन करते हुये देखा । महिपाल तापलीने भी प्रभुको देखा और क्रोधाविष्ट होकर अपने मनमें कहने लगा कि मैं इसका नाना हूं, कुलवान महान तपस्वी हूं तो भी इसने मुझे देखकर नमस्कार नहीं किया । देखो इस छोड़ेको कितना अभिमान है ऐसा कहकर अग्निमें के लकड़े सब जल गये थे सो उसके लिये कुहाडा हाथमें लेकर लकडीको चीरने लगा | यह देख भगवान पार्श्वनाथने मिष्ट वचनोंसे कहा कि हे तापसी ! जरा ठहरो, फिर इस लकड़ेको चीरना ! इस लकड़ेके भीतर दो नाग नागिन बैठे हैं । यह सुनकर तापसीको और भी क्रोध हो प्राया उसने कहा कि - हे लड़के ! क्या सबका सब ज्ञान तेरेमें ही आा गया है मानो ब्रह्मा विष्णु-महेश तू ही है जिससे ऐसी ज्ञानको वात कहता है ? -इस प्रकार कह कर भगवान के मनाही करते २ ही उसने अपने · कुठारको लकड़े पर चलाही दिया । जिससे तत्काल ही नाग - नागिन के टुकडे हो गये और तड़फने लगे । उन्हे देखकर भगबान पार्श्वनाथको बड़ी दया आई और उस तापसीको कहा कि अरे तू व्यर्थ ही गर्व करता है । तेरे अंतःकरणमें जरा भी दया नहीं हैं । अरे ज्ञानके बिना इस शरीरको व्यर्थ ही क्यों कष्ट देता है ? यह वचन सुनकर तापसीने फिर कहा कि-भरे 'छोकडे ! तू क्या समझता है मैं तेरा नाना हूं तेरी मा मेरी बेटी है तिसपर मैं तापसी हो गया हूं सो तूने मुझे नमस्कार तक नहीं किया- मुझसे विनयके साथ बोलना चाहिये सो उसको जगह तू मेरी निंदा करता है ? अरे मैं शरीर परकी अनि सहकर
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