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चतुर्थ भाग।
२८३ बौद्धधर्मका अभाव करें और सत्यार्थ उपदेश देकर सनातन पवित्र जैनधर्मका प्रभाव प्रत्येक मनुष्यके हृदयमें विठाकर "जैनं जयति शासनम् की लोकोक्तिको चरितार्य कर दें तो अपना जन्म सफल समझे।
इसप्रकार विचार करके वे दोनों भाई महावोधी स्थानमें । (पटनेमें ) बौद्धधर्म पढ़ने के लिये अतिशय प्रशान बौद्ध विद्यार्थी । का वेप बनाकर गये। क्योंकि उस समय मान्यावेट नगरमें । ऐसा कोई विद्वान् नहीं था जो उन्हें पढ़ा सके। वहां जाकर । प्रसिद्ध महावौद्धपरिक्षाता धर्माचार्यके शिष्य वनकर पढ़ने लगे। इनमें से अकलंक देव एकसंस्थ थे अर्थात् कैसा ही कठिन विषय वा श्लोक क्यों न हो, एकवार सुननेसे ही उनको हृदयस्थ । (कंठान) हो जाता था और निस्कलंक द्विसंस्थ थे अर्थात् वे दो वार सुननेसे हृदयस्थ करनेवाले थे। सो अल्प कालमें ही ये . दोनों भ्राता बौद्धशास्त्रों में भी अतिशय प्रवीण हो गये।
एक समय वह बौद्ध गुरु पाठ्यग्रंथमें जैनधर्मके समभंगी न्यायके पूर्वपक्षका व्याख्यान करता था । परंतु पाठ अशुद्ध होने. से लगता नहीं था. इसालये वहाना बनाकर आप पाठशालासे वाहर टहलने लगा। उस समय अकलंक देवने उस अशुद्ध पाठको सुधार दिया। परन्तु ऐसी चतुराईसे सुधारा कि. पास के बैठे हुए वौद्धविद्यार्थियोंको कुछ भी भान नहिं होने दिया । जय कुछ समयके पश्चात् वौद्धगुरुने आकर पुस्तकको देखा तो किसी महाविद्यानने वह पाठ शुद्ध कर दिया है, यह देखनेसे उसे निश्चय हो गया कि कोई भी धूर्त जैनो विद्वान् हमारे धर्म :