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________________ È जैन बालबोधक कर्म (कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत) दो गन्धकर्म (सुगंध, दुर्गंध ) पांच रसकर्म - ( खट्टा, मीठा, कडवा, कपायला, चर्परा ) आठ स्पर्श ( कठोर, कोमल, हलका, भारी, ठंडा, गरम, चिकना रूखा ) चार श्रानुपूर्व्य ( नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव ) एक अगुरु लघुकर्म, एक उपघात कर्म, एक परघात कर्म, एक उद्योत कर्म, दो विहायोगति ( एक मनोत दूसरा अमनोश ) एक उच्छवास, एक सक्रर्म, एक स्थावर, एक बादर, एक सूक्ष्म, एक पर्याप्तकर्म, एक अपर्याप्तकर्म, एक प्रत्येक नामकर्म, एक साधारण नाम कर्म, एक स्थिरनामकर्म, एक अस्थिरनाम कर्म, एक शुभनामकर्म, एक - शुभनाम कर्म, एक सुभगनाम कर्म, एक दुर्भगनाम कर्म. एक सुस्वरनाम कर्म, एक दुःस्वरनाम कर्म, एक आदेयनाम कर्म. एक अनादेयनामकर्म, एक यशस्कीर्तिनाम कर्म, एक प्रयशःकीर्तिकर्म, एक तीर्थकरनामकर्म | २६ । जिस कर्मके उदयसे जीव नारकी, तियेच मनुष्य और देवके गतिमेंसे किसी एक गतिको छोड़कर दूसरी गतिमें जाय उसको गति नाम कर्म कहते हैं । ३० । अव्यभिचारी सदृशतासे जो पदार्थोको एक तरहका बतलावे उसे जाति कहते हैं। ३१ | जिस कर्मके उदयसे एकेंद्रिय द्वीन्द्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय, कहा जाय उसको जातिनामकर्म कहते हैं। ३२ । जिस कर्मके उदयसे श्रात्माके प्रौदारिक आदि शरीर बनै उसको शरीरनाम कर्म कहते हैं। .
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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