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________________ चतुर्थ भाग। ३१७ हितकारि तारक देव श्रुत गुरु, परख निजउर लाइये। दुखदायक्रपथविहाय. शिवसुख, दाय जिनवृष ध्याइये । चिरते कुमगपगि मोहठगरि ठग्यौ भव-कानन पस्यौ । व्यालीसद्विकलख जौनिमें. जैर-मरन-जामन-दच जस्यौ १६) जव मोहरिपुदीन्हीं घुमरिया, तसुवश निगोदमें परिया। तहां स्वास एकके माही,अपादश मरन लहाहीं ॥ लहि मरन अन्तमुहर्तमें, छयासठ सहस शत तीन ही। पटतील काल अनंत यौं दुख, सहे उपमा ही नहीं । कवह लही वर आयु दिति-जल, पवन-पावक-तरुतणी । तसु मेद किंचित कहूं सी सुन, कह्यौ जो गौतमगणी ॥ २॥ पृथिवी द्वयमेद वखाना, मृदु माटी कठिन पखाना। मृटु द्वादशसहस बरसकी, पाहन वाईस सहसकी। पुनि सहस सात कही उदेक त्रय, सहसवर्ष समीरको । दिन तीस पावक दशसहस तरु, प्रभृति नाश सुपीरकी । विनघात सूच्छमदेहधारी, घातजुत गुरुतन लहौ। तहं खनन तापन जलन व्यंजन, छेद भेदन दुख सह्यौ ॥३॥ शंखादि दुइंद्री प्रानी, थिति द्वादशवर्ष वखानी । यूँकादि तिइंद्री हैं जे, वासर उनचास जिय ते ॥ १ संसाररूपी वन । २ चौरासीलाख योनी। .३ वृद्धावस्था, मृत्य और अम्मरूपी अनिमें जला { ४ पृथ्वी । ५ पानी । ६ जू आदि। ,
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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