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________________ "३९८ जैनवालबोधकजोवे छमास अलीरमुख, व्यालीस-सहस उरगतनी। . खगकी यहत्त-सास नवपूर्वाग सरीसपैकी भनी । नरमत्स्यपूरवकोटकी थिति, करमभूमि वखानिये । जलचरविकलविन भोगभू-नर.-पशु त्रिपल्य प्रमानिये ॥४॥ प्रयवश करि नरक बसेग, भुगतै तह कष्ट घनेरा। छर्दै तिलतिल तनसाग, छेपें हपृतिमंझारा ॥ मंझार वज्रानिल पचावै, धरहिं शूली ऊपर। सीजु खारे वारिसौं दुठ, कहें व्रण नीके करें । वैतरणिसरिता समल जल अति, दुखद तरु सेंवलतने । अति भीमवन असिफांत सम दैल, लगत दुख देवें घने ॥५॥ तिस भूमैं हिम गरमाई, सुरगिरिसम अंस गल जाई। तामै थिति सिंधुतनी है, यौँ दुखद नरकग्रवनी है । अवनी तहांकीतें निकसिकबहूं जनम पायौ नरौं। सर्वांग सकुचित अति पावन, जठर जननीके परौ ॥ तहँ अधोमुख जननी रसांश, थकी जियो नवमास लौं। ता पीर में कोउ सीर नाहीं, सहे आप निकास लौं ॥ ६ ॥ जनमत जो संकट पायौ.रसनानै जात न गायो । लहि वालपने दुख भारी, तरुनापौ लयो दुखकारी ।। दुखंकारि इष्टवियोग अशुभ.-संयोग सोग सरोगता। पैरसेव ग्रीषम सीत पावस, सहै दुख अतिभोगता ॥ १ श्रमरआदि। २ सर्पविशेष । ३ भोगूमियों मनुष्य आरे पशु। ४ दुर्गधिक भरे तालाव । ५ फोडे । ६ तलवारकी धार ! ७ पत्ते। .८ लोहा । ९ पृथ्वी। 1. दुसरोंकी सेवा-नौकरी। .. - -
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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