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________________ नतुर्थ भाग । मैं तत्त्व वृद्धि, धर्ममें धर्मबुद्धि, इत्यादि विपरीताभिनिवेशरूप जीवके परिणामको मिथ्यात्व कहते हैं । १५५ । मिथ्यात्व के पांच प्रकार हैं-ऐकांतिक मिथ्यात्त्व, विपत मिथ्यात्व सांशयिक मिथ्यात्त्व, प्राज्ञानिक मिथ्यात्त्व, चैनयिक मिथ्यात्त्व, । १५६ | धर्म धर्मके "यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं" इत्यादि अत्यन्त अभिसन्निवेशको ( अभिप्राय ) ऐकान्तिक मिथ्यात्त्व कहते हैं। जैसे बौद्ध मतावलंबी पदार्थको सर्वथा क्षणिक मानता है । , २४५ १५७ | सग्रंथ निग्रंथ है, केवली ग्रासाहारी है, इत्यादि रुचि को विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं । १५८ । धर्मका अहिंसा लक्षण है या नहीं इत्यादि मतिद्वैविष्य को सांशयिक मिथ्यात्व कहते हैं। १५६ | जहां हिताहित विवेकका कुछ भी सद्भाव नहीं हो, उसको श्राज्ञानिक मिथ्यात्व कहते हैं । जैसे पशुवधको धर्म समझना । १६० । समस्त देव तथा समस्त मतोंमें समदर्शीपनेको वैज्ञा'निक मिथ्यात्व कहते हैं । १६१ | हिंसादिक पापोंमें तथा इंद्रिय और मनके विषय में प्रवृत्ति होनेको प्रविरति कहते हैं । १६२ । प्रविरति तीन प्रकारकी है । अनंतानुबंधिकषायोदयजनित १, अप्रत्याख्यानावरणकपायोदयजनित २, और प्रत्यापानावरण कपायोदय जनित ३ ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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