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जनवालवांधक
तत्पश्चात् प्रतिशानुसार विभीषणने कई सुभट भेजे परंतु उनको खवर न मिलने से स्वयं विभीषणाने ही अनुध्या और मिथ लापुरी जाकर दोनों जगह महलोंमें अपने खास मनुष्यको मेज. कर दोनोंका माथा कटवाकर रावगाको दिखाया । तत्र रावण निश्चित हुआ, परंतु विभीषणने यह कार्य करके बड़ा पश्चाताप किया कि मैंने बड़ा अन्याय किया जो दो राजाओं के व्यर्थ ही प्रागा लिये उसके प्रायश्चित्तार्थ जिनमंदिरमें जाकर बड़ा पूजन महोत्सव करके पुण्योपार्जन किया और इस महा पापको बालो चना करके फिर ऐसा कार्य कदापि नहीं करूंगा ऐसी प्रतिशाकी ।
महाराज दशरथ और महाराज जनक दोनों मिलकर अकेले देशाटन करने लगे । सो एक दिन उत्तर दिशामें कौतुकमंगल नामक नगर के समीप आये। यहां पर राजा शुभमति राज करता "था, उसकी रानी पृथुश्रीसे केकई नामकी महागुणवती सुंदर 'पुत्री समस्त प्रकारकी विद्या और कलाओंमें चतुर थी। उसके योग्य वर न मिलने से राजाने स्वयंवरमंडप रचा था सो देश 'देशके सैकड़ों राजकुंवर अपने विभवसहित आये थे. ये दोनों राजा भी अपने दीन भेषसे इस स्वयंवरको देखने के लिये खड़े थे। सो मनुष्योंके समस्त लक्षणोंकी ज्ञाता के कईने समस्त राजा वा राजकुंवरोंको उलंघन कर एक किनारे खड़े हुये दशरथ राजा- को हृदय कमल और नेत्रदृष्टिरूपी मालासे वरण कर लोक-दिखाऊ रत्नमाला से वरण किया। जिसको देखकर न्यायी राजा तौ प्रसन्न हुये कि बहुत ही योग्य वरको प्राप्त हुई और घनेक राजाओंने उदास हो अपना २ रास्ता लिया परन्तु अनेक राजा
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