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________________ चतुर्थ भाग । -२४३ १३८ । प्रतिबंधकका प्रभाव होनेपर सहकारी समस्त साम"प्रियोंके सद्भावको समर्थ कारण कहते हैं। समर्थ कारणके होने 'पर अनंतर समयमें कार्यकी उत्पत्ति नियमसे होती है । १३६ । भिन्न भिन्न प्रत्येक सामग्रीको असमर्थ कारण कहते हैं। असमर्थ कारण कार्यका नियामक नहीं है । १४० | सहकारी सामग्री दो हैं । एक निमित्त कारणं, दूसरा उपादान कारण । १४१ । जो पदार्थ स्वयं कार्य रूप नहिं परिणमें, किंतु कार्य उत्पत्ति में सहायक हों उनको निमित्त कारण कहते हैं जैसें 'घटकी उत्पत्ति में कुंभकार, दण्ड, चक्र, श्रादिक । . . १४२ । जो पदार्थ स्वयं कार्य रूप परिणमै, उसको उपादान - कारण कहते हैं | जैसे घटकी उत्पत्ति में मृत्तिका । श्रनादिकाल से द्रव्यमें जो पर्यायों का प्रवाह चला आ रहा है उसमें अनंतर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय उपादान कारण है और अनंतर उत्तरक्षणवर्ती पर्याय कार्य है । '१४३ । कार्माण स्कंधरूप पुल द्रव्यमें आत्माके साथ संबंध होनेको शक्तिको द्रव्यबंध कहते हैं । १४४ | प्रात्मा योग कपायरूप भावको भाव बंध कहते हैं । १४५ । आत्मा के योग कपायरूप परिणाम द्रव्यबंधके निमित्त - कारण है । १४६ | वंध होने के पूर्वक्षण में वंध होनेके लिये सन्मुख हुये 'कर्मा स्कन्धको द्रव्यबंधका उपादान कारण कहते हैं ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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