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________________ जैनवालवोधकहुआ हूं। इस कारण सबसे पहिले अपने विमानके चैत्यालयमें दर्शन पूजन करके महामेरु नंदीश्वर द्वीप श्रादिके समस्त अकः त्रिम चैत्यालयोंके नित्य दर्शन करनेको जाने लगा। इस वारहवे स्वर्गमें सोलह सागरकी श्रायुपर्यंत सुख भोग कर जंबूद्वीपस्थ पूर्व विदेहके पुष्कलावती देशमें लोकोत्तम नामक शहरके राजा विद्युद्गतिको रानी विद्युन्मालाके गर्भर्मे सुंदर सौम्य स्वभावका पुत्र हुआ। उसका नाम अग्निवेग रक्खा गया। इस अग्निवेगकी धर्ममें बड़ी भारी भकि हुई। युवावस्थामं राज्यसंपत्ति उपभोग करते हुये एक मुनि महाराजके दर्शन हुये। उन मुनिके उपदेश सुननेसे भी जवानी में उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । और गुरुके पास महा व्रत ग्रहण किये। दुर्द्धर तपश्चरण करके उसने रागादिक विकार क्षीण कर दिये । एक विहारी होकर छादशांगवाणीमें प्रवीण हो गया। ___एक दिन हिमगिरि पर्वतकी गुफामें ध्यान- धरके बैठा था। 'सो इधर कर्कट जातिका सर्प मरकर पांचवी नरकभूमिमें सोलह सागर पर्यंत नानाप्रकारके छेदन भेदनादि दुःख भोगकर इसी पर्वत पर अजगर उत्पन्न हुआ था सो वह पूर्व जन्मको शत्रुता कायम रहनेसे ध्यानस्थ मुनिमहराजको निगल गया। मुनिने शांतभाव रखकर सन्यास मरण करके सोलहवें अच्युत स्वर्गमें जन्म पाया। __ अच्युतस्वर्गमें २२ सागरकी आयु भोगकर वहांसे मरण करके जंबूद्वीपस्थ पश्चिम विदेह क्षेत्रमें पद्मनामके देशमें अश्वनामक नगरके राजा वजूवीर्यकी पटरानी विजयाके गर्भ पाया
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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