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चतुर्थ भाग ।
ર सुनकर उसका यथार्थ अथ समझने में लटपटाते हुए इन्द्रभूतिने कड़ककर कहा कि, पहले यह बतला कि तू किसका शिष्य है ? इन्द्रने कहा कि, मैं जगद्गुरु श्रीवर्धमानस्वामीका शिष्य हूं। तब इन्द्रभूति कहने लगा कि, श्रोह ! क्या तू उस इन्द्रजालके जानने वाले और आकाशमार्गमेंसे श्राते हुए देवताओंको दिखलानेवाले सिद्धार्थनन्दन (सिद्धार्थ राजाके पुत्र) का शिष्य है ? अच्छा तो चल मैं उसीके साथ शास्त्रार्थ करूंगा। तेरे साथ विवाद करनेस मेरा अपमान होता है क्योंकि तू विद्यार्थी है। यह सुनकर इन्द्रने अपना प्रयोजन सिद्ध हुआ जानकर प्रसन्नतासे कहा कि, अच्छा! आइये, मेरे गुरूके पास चलिये। तब इन्द्रभूति थपने दोनों भाइयों और शिष्यों के साथ इन्द्रको आगे करके समवसरण में माया जहां मानस्तंभोंको देखते ही उसका और उसके भाइयों' का गर्व गलित हो गया । भगवान् के समवसरण में जो मानस्तंभ रहते हैं, उनका ऐसा अतिशय होता है कि, उनको देखने पर कोई कैसा हो मानी क्यों न हो अपने गर्वको भूलकर विनयी बन जाता है। पश्चात् इन्द्रभूतिने अपने भाइयों सहित भगवान् की प्रदक्षिणा देकर भक्तिपूर्वक स्तुति की और तत्काल ही संपूर्ण परिग्रहों को छोड़कर जिनदीक्षा ले ली।
ये ही इन्द्रभूति मुनि मन:पर्ययज्ञान और सात ऋद्धिके धारी होकर भगवान् के गणधर होगये। भगवान्की दिव्यध्वनि खिरने लगी मौर इन्द्रभूति गणधर उसको श्रवण करके द्वादशांग रचना करके भव्यजीपको सुनाने लगे ।
बहुत कालतक धर्मोपदेश करके भगवान् महावीर तो मोक्ष
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