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________________ १७६ जैनवालवोधकहुधा । दिलासा देकर.आकाशमार्गसे कुमारको खोजनेके लिये अनेक विद्याधरोंको साथ लेकर निकल पड़ा। राजा प्रहलादका भी साध हो गया सो खोजते भूतखर नामा. अटवीमें पाये। वहां वर्षाकालके सधन मेघ समान अंवरगोचर हाथीको देखकर विद्याधर प्रसन्न हुये और राजा प्रतिसूर्यको कहने लगे किजहां यह कुमारका हाथी है वहां पवनकुमार भी होना चाहिये ।' पवनकुमार वहीं जंगलमें निश्चल बैठा था और हाथी उसकी रक्षार्थ वहीं खडा था। विद्याधरोंके कटकको आवाज सुन हाथी ने स्वामीकी रक्षार्थ सबको भगा दिया। पास नहीं आने दिया। तव लाचार हो हथिनियों के समूहसे हाथीको वशमें किया और कुमारके पास गये। पिताने कहा-हे पुत्र ! तू महा विनयवान होकर हमें छोड कहां प्राया ? महा कोमल सेजपर सोनेत्रान्ते तूने महा भयानक वनमें किसप्रकार रात्रि विताई। . पवनकुमारने कुछ भी जवाब नहि दिया। काठके पुतलेके समान निश्चल हो किसीसे न वोला । फिर प्रतिसूर्यने पवनकुमार को छातीसे लगाकर अंजनाको अपने घर लाने और हनुमानके पैदा होने और पहाड शिलाके टूटने वगेरहका हाल सब कहकर कहा कि मेरे घर माता पुत्र दोनों कुशलसें हैं । हां! तुमारे वियोग जनित दुःखसे बहुत ही दुःखित हैं । यह बात सुन कुमार बड़े प्रसन्न हुये तुरंत ही पुत्र स्त्रीके देखनेकी अत्यंत अभिलाषासे विमानमें बैठकर सबके साथ चल दिया । पवनंजयने स्त्रीपुत्रको प्राप्त होकर प्रसन्नतासे अपने मामा श्वसुरके घर पर ही सुखसे रहने लगे तत्पश्चात् राजा प्रहलाद वगेरह सब चले गये।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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