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चतुर्थ भाग।
३३५ सींच सयाने जो मन माने, वेर वेर अव कौन कहै। न करतार तुही फल भोगी, अपने मुख दुख प्राप लहै ॥ धन्य धन्य जिनमारग सुंदर, सेवनजोग तिहँपनमें। जासौं समुमि परै सव भूधर, सदा शरण इस भवयनमें ॥५॥
... ६०. श्रुतपंचमी पर्वको उत्पत्ति।
. .. --::--- श्री महावीर स्वामीकी मुक्ति होनेके १८३ वर्ष बाद जब कि अंगशानका विच्छेद हो गया तब उर्जयंत गिरिको (गिरनारजीकी ) चंद्र गुफामें निवास करनेवाले महातपस्त्री श्रीधरसेनाचार्य हुये इन्हे अग्रायणी पूर्वके अंतर्गत पचम वस्तु के चतुर्थ महाकर्म प्रामृतफा झान था जब उनके अपने निर्मल ज्ञानमें यह भासमान हुआ कि अब मेरी आयु थोड़ी ही रह गई है और मुझे लो शास्त्रज्ञान है वही संसारमें कुछ दिन रहेगा इसले आगे मेरेसे अधिक कोई शास्त्रज्ञ नहिं होगा और यदि कोई विशेष प्रयत्न नहि किया जायगा तो जिसका मुझे शास्त्रज्ञान है उसका भी विच्छेद हो जायगा । इसी प्रकार विचार करके निपुणमति धरसेनाचार्य महाराजने देशेंद्र (आंध्र ) देशके वेणा तटाकपुरमें तीर्थ यात्रार्य आये हुये संघाधिपति महासेनाचार्यको एक पत्र लिखा कर एक ब्रह्मचारी के साथ भेजा कि-"मेरी आयु अत्यंत स्वल्प रह गई है जिससे मेरे हृदयस्थशास्त्रज्ञानकी व्युच्छित्ति हो जानेकी संभावना है अतएव उसकी रक्षाके लिये आप यदि दो ऐसे यतीश्वरोंको