SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ जैनवालवोधक जे किया तिन्हें जानहु धर्म । तिन सरथै जीव लहैं असर्प || याको गृहीतमिवातजान । अव सुन गृहीत जो है कुज्ञान ॥ १२ ॥ जो कुगुरु कुदेव प्रौर कुधर्मका सेवन है सो हमेशा मिथ्यात्व को ही पोषण करता है। जो लोग अंतरंगमें तो राग द्वेष क्रोधः मान माया लोभादि धारण करते हैं और वाह्यमें धन वस्त्रादि परिग्रहों से अनुराग करते हैं ऐसे खोटे भेष धारण करके अपने को बड़े भारी महंत ( पूजनीय ) मानते हैं । वे सब संसार समुद्रमें डवानेके लिये पत्थर की नाव समान कुगुरु हैं। और जो रागद्वेष आदि मलसे मलीन है । साथमें स्त्री गहना त्रिशूल आदि शस्त्र रखते है वे सव कुदेव हैं। इन कुदेवोंकी सेवा पूजा करनेवालोंका ये कुदेव भवभ्रमण नष्ट नहि करते तथा रागादि भावमय भाव हिंसा और स्थावरोंकी द्रव्य हिंसा करनेकी जो जो क्रिया है उन्हें कुधर्म जानना । इस कुधर्मका श्रद्धान करनेसे जीवको दुःख प्राप्त होता है। इन तीनों कुगुरु कुदेव कुधर्मका श्रद्धान करना हो गृहीत मिथ्यात्व वा गृहीत मिथ्यादर्शन है । अव गृहीत मिथ्याज्ञानको कहते हैं सो सुनो ॥ १२ ॥ · एकांतवाद - दूषित समस्त । विषयादिक पोषक अप्रशस्त ॥ - कपिलादिरचित उतको अभ्यास । सो है कुबोध बहुदेन त्रास ॥ जो एकांत पक्षले दुषेत, विषय कषायोंके पोषनेवाले कपिल यदि मिथ्यादृष्टियोंके बनाये खोटे शास्त्रोंको पढना सो बहुत दुःख देनेवाला गृहीत मिथ्याज्ञान है ॥ १३ ॥ जो ख्यातिलाभ पूजादि चाह । घरि करत विविध विध देह दाह
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy