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चतुर्थ भाग।
३३३ दिया सो वरावर चारों जीवोंने तीन दिन तक मुनिमहाराजको थोड़ा थोड़ा करके खाया मुनिमहाराज उस पीड़ासे रंचमात्र भी. चलायमान नहिं हुये तीसरे दिन शरीरको. त्यागकर रागद्वेष रहित सम भावोंसे मरकर फिर भी अच्युत स्वर्गमें जाकर महद्धिकदेव हुये । वायुभूतिकी भोजाई स्यारनीने अपने निदानका बदला चुफा लिया।
कहाँ वे मनको लुभानेवाले भोग और कहां यह दारुण तप. स्या सच तो यह है कि महापुरुषोंका चरित्र कुछ विलक्षण ही हुआ करता है। सुकुमालमुनि अच्युत स्वर्गमें देव होकर अनेक प्रकारके दिव्य सुखोंको भोगते हैं और जिन भगवान की भक्ति में सदा लीन रहते हैं। सुकुमालमुनिकी इस वीर मृत्युके प्रभाव से स्वर्गके देवोंने आफर उनका बड़ा भारी उत्सव मनाया और जय जय शन्द करके वड़ा.भारी कोलाहल किया। कहते हैं किइसी कारणसे ही उज्जैनमें महाकाल नामके कुतीर्थकी स्थापना हुई हैं और देवोंने सुगंधित जलकी वर्षा की थी उसीसे यहांकी: नदी गंधवती नामसे प्रसिद्ध हुई हैं।
५९. जकडी (३) भूधरदासकृत।
अब मन मेरे वे, सुन सुन सीख सयानी।
जिनवर चरना दे, कर कर प्रीतिं सुझानी ॥ कर प्रीति सुशानी शिवसुखदानी, धन जीतव है पंचदिना।' कोटि वरप जीवौ किस लेखे, जिनचरणांबुजभक्ति विना . .