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________________ जैनबालबोधक ' अशरण भावना / सुर असुर खगाधिप जेते । मृग क्यों हरिकाल दले ते ॥ मणि मंत्र तंत्र बहु होई | मरते न बचावै कोई ॥ ४ ॥ जिस प्रकार हिरनको सिंह मार डालता है । उसी प्रकार काल रूपी सिंह, सुर असुर विद्याधर राजा आदि सब जीवोंको मार देता है । उस समय मणि मंत्र तंत्र आदि कितने ही क्यों न. द्दों कोई भी मरने से नहिं बचा सकता ॥ ४ ॥ संसार भावना | ર चहुं गति दुख जीव भरे हैं । परिवर्तन पंच करे हैं | सव विधि संसार प्रसारा । यामै सुग्ख नाहिं लगारा ॥५॥ सब जीव संसारमें चारों गतियोंके दुःख भरता हुवा पांच परावर्तन करता रहता है यह संसार सर्व प्रकारसे प्रसार है इसमें सुख जरा भी नहीं है ॥ ५ ॥ एकत्व भाव । शुभ अशुभ करमफल जेते। भोगें जिय एक ही तेते ॥ सुत दारा होय न सीरी । सब स्वारथके हैं भीरी ॥ ६ ॥ अपने शुभ अशुभ कर्मोंके जितने दुख सुख फल हैं वे सब यह जीव अकेला ही भोगता है। स्त्री पुत्र आदि कोई भी सुख दुखके साथी नहीं हैं ये सब तो अपने मतलबके साथी हैं ॥ ६ ॥ अन्यत्व भावना | · 'जलं पय ज्यों जियतन मेला । पै भिन्न भिन्न नहि मेला ॥ तौ प्रगट जुदे धन धामा । क्यों है इक मिलि सुत रामा ॥७
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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