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________________ ११० जैनवालबोधक ६५ । श्राहार धर्मणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गयाके परमात 'ओंको शरीर इंद्रियादिरूप परिणामावने की शक्तिकी पूर्णताको 'पर्याप्ति कहते हैं । ६६ । पर्याप्त छह प्रकारकी है-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याति, भाषापर्याप्ति, मनःपर्याप्ति, ६७ । श्राहारवर्गणाके परमाणुओं को खल और रसमान- रूप परिणामावनेको कारणभूत जीवकी शक्तिको पूर्णताको श्राहार 'पर्याप्ति कहते हैं। ६८ | जिन परमाणुओं को खलरूप परिणमाया था उनके. हाड वगेरह कठिन अवयवरूप और जिनको रसरूप परिय भाषा - था उनको रुधिर यदि द्रव्यरूप परिणमावनेको कारबभूत 'जीवकी शक्तिको पूर्णताको शरीरकी पर्याप्ति कहते हैं। ६६ । प्राहारवर्गणाके परमाणुओंको इन्द्रियके आकारपरिवमावनेको तथा इन्द्रियद्वारा विषय ग्रहण करनेको कारणभूत 'जीवकी शक्तिकी पूर्णताको इंद्रियपर्याप्ति कहते हैं। ७० | आहारवर्गणाके परमाणुओंको श्वासोच्छ्वासरूप परि- मावनेको कारणभूत जीवको शक्तिकी पूर्णताको श्वासोच्छवास - पर्याप्त कहते हैं। .७१ । भाषावर्गलाके परमाणुओं को वचनरूप परियमायने के 'लिये कारणभूत जीवकी शक्तिकी पूर्णताको भाषापर्याप्ति कहते हैं। 1 ७२ । मनोवर्गलाके परमाणुओंको हृदयस्थानमें भाठ पांदुरी
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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