________________
चतुर्थ भाग
३४३
तोंकी पूजा करके उनसे पुत्र चाहती थी । परंतु किसी भी देवताने उसकी इच्छा पूर्ण नहिं की । उसे कुदेवादिकको पूजते हुये एक मुनिमहाराजने देखा तो उसे उपदेश दिया किपुत्रकी प्राप्ति इन मिध्यातो देवता मोंको पूजनेसे कदापि नहि हो सकती । पुत्र धन धान्यादि सुखकी जितनी सामग्री मिलती है वह पुण्यके उदयसे मिलती है । इस लिये तू पुण्यप्राप्तिके लिये जिनधर्म पर विश्वासकर जिससे तू सच्चे मार्ग पर था जायगी और पुराय के प्रतापसे तेरी इच्छा सातवर्ष के भीतर २ पूरी हो जायगी मुनि महाराजका उपदेश उसे लग गया वह उसी दिनसे जिनमें रत हो गई ।
कुछ वर्षो के बाद जयावतीको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई । पुत्रप्राप्ति की खुशी में धर्मकी बड़ी प्रभावना की गई। नाम सुकोशल रक्खा गया। सुकोशल बड़ा सुंदर और तेज थोथा । सिद्धार्थशेठ संसार शरीर भागों से पहिले से ही विरक्त हो रहे थे । परंतु जब तक विषय संपत्ति संभालनेवाला वा भोगनेवाला न हो तब तक वे सर्वथा त्याग नहिं कर सकते थे । श्रव सुकोशल के होते हो उस के ललाट पर पदका तिलक करके श्राप नयंधर मुनिके पास जिन दीक्षा ले गये ।
• अभी बालकको जन्मते देर न हुई कि सिद्धार्थशेठ घरबार छोड़कर योगी होगये इस कठोरता पर जयावतीको वड़ा क्रोध श्राया और नयंधर मुनिपर क्रोध आया कि उन्हें इस समय दीक्षा देना उचित न था इस कारण मुनिमात्रपर उसकी अश्रद्धा हो गई और अपने घर पर मुनियोंका थाना जाना चन्द कर