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चतुर्थ भाग I. . भू तेज तोय समीर तरुवर, थूलसूच्छमतन लयौ ॥ कृमि कुंथु अली सेणी असणी, व्योम जल थल संचखो। पशुयोनि वासठलाख इस विधि, भुगति मर मर अवतन्यो॥२ अति पाप उदय जब आयौ । महानिंद्य नरकपद पायो । थिति सागरों वन्ध जहाँ है । नानाविधि कष्ट तहाँ है। है त्रास अतिआताप वेदन, शीत बहुयुत है मही। जहां मार मार सदैव सुनिये एक क्षण साता नहीं । नारक परस्पर युद्ध ठान, असुरगण क्रीड़ा करें। इसविधि भयानक नरकथानक, सहै जी परवश परें ॥ ३६ मानुपगतिके दुख भूलौ । वसि उदर अधोमुख मूलौ ।' जन्मन जो संकट सेयौ । अविवेक उदय नहिं वेयौ। वेयौ न कछु लघुवालवयमें, वंशतरुकोपल लगी। दल रूप यौवन वयम प्रायो, काम-दौं तव उर जगी ॥ जब तन बुढ़ापौ घटौ पौरुष, पान पकि पीरौ भयौ । झडि परयो काल वयार वाजत, वादि नरभव यौं गयौ ॥४॥ अमरापुरके सुख कीने । मनवांछित भोग नवीने ॥ उरमाल जवै मुरझानी । विलपौ श्रासन-मृतु जानी ॥ मृतु जान हाहाकार कीनौं, शरण अव काकी गहौं। यह स्वर्गसम्पति छोड़ भव मैं, गर्भवेदन क्यौं सहौं । तब देव मिलि समझाइयो, पर कछु विवेक न उर वसौ। सुरलोकगिरिसे गिरि प्रशानी, कुमति-कांदौ फिर फंसौ ॥५॥ इस विधि इस मोही जीने । परिवर्तन पूरे की ।। तिनकी यह कष्टकहानी । सो जानत केवलज्ञानी।