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चतुर्थभाग
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. उनके समस्त प्रश्नोंका उत्तर माता देती थी। जिसके गभमें तीन कानका धारक तीर्थंकर है उसको कठिन २ प्रश्नोंका उत्तर देदेना . कोई प्राश्चर्य की बात नहीं। माताको गर्भको कुछ भी भार वा कष्ट नहीं था । उदरकी त्रिवलीका भी भंग नहिं हुआ । अन्य स्त्रियों की समान माताको किसी भी प्रकारका विकार नहिं हुआ। पूर्वमें छह महीनों की तरह नवमहीने तक पंचाश्चर्यवृष्टि नित्य दांती. रही ।
नवमास पूर्ण होनेपर पौष कृष्ण एकादशीके दिन पार्श्वनाथ'भगवान् का जन्म हुआ । उस वक्त इन्द्रने जन्मकल्याणका उत्सव किया । माता पिताकी साक्षी से तीर्थंकरका नाम पार्श्वनाथ रखा गया और उनकी सेवा के लिये योग्य देवोंको रखकर सब अपने २ स्थान चले गये ।
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भगवान् दोजके चंद्रमाको समान दिनों दिन बढ़ने लगे।. आठवर्षकी उमर में श्रावकके वारह व्रत धारण किये। प्रभुकेसाथ खेलने के लिये उनहींकी उमर के बरावर होकर देव खेलतेरहते थे । वे सब कभी हाथीपर कभी घोड़ेपर बैठकर वागमें 'जाते थे, कभी जलक्रीड़ा करते थे । भगवान् युवावस्था में आये तब उनका शरीर नव हाथ ऊंचा हो गया । यही उनके शरीर की पूर्ण ऊंचाई थी । शरीरका रंग नीलवर्ण था। सोलह वर्षकी 'उमर हो गई तब एक दिन भगवान् सिंहासन पर बैठें थे । उस
१ हरएक तीर्थकरके जन्मसमय जैसा जन्मोत्सव होता है वैसा ही उत्सव इस समय किया गया इसलिए यहां कुछ लिखा नहि गया ।