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तीर्थकर चरित्र अगूठे को चूसकर ही अपनी क्षुधा शान्त करते हैं । इसके बाद धात्री कर्म करने के लिये इन्द्र ने बालक की सेवा में पाँच देवियों को नियुक्त किया। इसके बाद सभीने नन्दीश्वर द्वीप पर जाकर अठाई महोत्सव मनाया और वे अपने अपने स्थान पर चले गये।
प्रातःकाल होने पर मरुदेवी जागृत हुई । उसने प्रभु का जन्म और देवागमन की बात नाभिराजा से कही । सारी घटना सुनकर नाभिराजा बड़े आश्चर्यचकित हुए। उन्होने बालक के जन्मपर बड़ी खुशियाँ भनाई।
भगवान का जन्मोत्सव किया । बालक के जाँघ पर ऋषभ का चिह्न तथा मरुदेवी ने पहले ऋषभ का स्वप्न देखा था इसलिए मातापिता ने शुभ दिवस मे प्रभु का नाम ऋषभ रक्खा । भगवान के साथ जिस कन्या का जन्म हुआ उसका नाम सुमंगला रक्खा गया। दोनों बालक द्वितीया के चन्द्र की तरह बढ़ने लगे।
भगवान के जन्म के एक वर्ष पश्चात् सौधर्मेन्द्र भगवान की वंश स्थापना करने के लिये आये। इन्द्र ने भगवान के हाथ में ईक्षु का टुकड़ा दिया । भगवान ने उसे सहर्ष स्वीकार किया । उसी दिन से भगवान के वंश का नाम ईक्ष्वाकु पड़ा तथा भगवान के पूर्वज ईक्षुरस का पान करते थे अतः उनका काश्यप गोत्र हुआ ।
युगादिदेव का शरीर स्वेद-पसीना, रोग-मल से रहित सुगन्धिपूर्ण सुन्दर आकारवाला और सोने के कमल-जैसा शोभायमान था । उनके शरीर में मांस और खून गाय के दूध की धारा जैसा उज्ज्वल भौर दुर्गन्धरहित था । उनके आहार-विहार की विधि चर्मचक्षु के अगोचर थी और उनके श्वास की खुशबू खिले हुए कमल के सदृश थी। ये चारों अतिशय प्रभु को जन्म से प्राप्त हुए थे। उनका संघयन वज्रऋषभनाराच था और संहनन समचतुरस्त्र । उनकी वाल-क्रीड़ा देवताओं को भी आकर्षित करती थी। उनकी मधुर भाषा व वाक्