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महर्षि विद्यानंदविरचितः
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारः
(हिंदी-टीकासमन्वितः)
(चतुर्थखण्डः)
(४४)
श्री आचार्य कुंथसागर ग्रंथमाला सोलापुर.
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आचार्य कुंथूसागर ग्रंथमाला के
प्रकाशन.
१ चतुर्विंशतिजिनस्तुति
२ शांतिसागर चरित्र
३. बोधामृताव
४ निजात्मशुद्धिभावना
५ निजात्मशुद्धिभावना (गुजराती)
६ मोक्षमार्गप्रदीप
७ ज्ञानामृतसार
८ लघुबोधामृतसार (गुजराती) ९ लघुबोधामृतसार (हिंदी सं.)
१० लघुबोधामृतसार ( कानडी ) ११ लघुबोधामृतसार ( मराठी ) १२ स्वरूपदर्शन सूर्य
१३ नरेशधर्मदर्पण
११ चतुर्विंशतिजिनस्तुति (गुजराठी ) १५ लघुज्ञानामृतसार (गुजराती)
१६ लघुज्ञानामृतसार ( हिंदी )
१७ उघुज्ञानामृतसार ( कानडी )
१८ लघुज्ञानामृतसार ( मराठी )
१९ सुधर्मोपदेशामृतसार
२० सुधर्मोपदेशामृतसार ( मराठी )
२१ श्रावक प्रतिक्रमण सार
२२. शांति सुधासिंधु
२३ श्रीधाचार्य कुंथूसागरपूजा
२४ स्वानंदसाम्रज्यपद प्रदर्शी २५ नरेशधर्मदर्पण ( षड्भाषात्मक )
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श्री आचार्य कुंथूसागर ग्रंथमाला पुष्प ४४ श्रीविद्यानंद - स्वामिविरचितः
तत्त्वार्थ श्लोकवार्त्तिकालंकारः
( भाषाटीकासमन्वितः )
( चतुर्थखंडः )
टीकाकार
-रत्न, सिद्धांतमहोदधि, न्यायदिवाकर, स्याद्वादवारिधि, दार्शनिकशिरोमणि श्री पं. माणिकचंदजी कौंदेय न्यायाचार्य
- x संपादक व प्रकाशक x -
पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री [ विद्यावाचस्पति-न्यायकाव्यतीर्थ ]
ऑ. मंत्री आचार्य कुंथु सागर ग्रंथमाला सोलापुर.
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All Rights are Reserved by the Society
बीर सं. २४८२]
+ मुद्रक +
वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
कल्याण पॉवर प्रिंटिंग प्रेस, कल्याणभवन, सोळापुर. सन् १९५६
[
44.0
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श्रीतत्वार्थश्लोकवार्तिकका मूलाधार
प्रथम लण्ड सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १॥
द्वितीय खण्ड तत्वार्थ श्रद्धानं सम्परदर्शनं ॥ २ ॥ तनिसर्गादधिमाद्वा ॥ ३ ॥ जीवाजीवासवबंधसंबरनि नरामोक्षास्तत्वं ॥ ४ ॥ नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः ॥ ५ ॥ प्रमाणायैरधिगमः ॥ ६ ॥ निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः । ७ ॥ सत्संख्याक्षेत्रमानकालान्तरमावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८ ॥
तृतीय खण्ड पतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवळानि ज्ञानम् ॥९॥ तत्प्रमाणे ॥ १० ॥ आधे परोक्षम् ॥ ११ ॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥ मतिः स्मृतिः संज्ञाचिंताभिनिबोध इत्यनयातरम् ॥ १३ ।। ता द्रियानिद्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ अवग्रहे हावायधारणाः ॥ ११॥ बहुबहु पक्षिमानियतानुक्तध्रुवाणां सेतराणां ॥ १६ ॥ अर्थस्य ॥ १७ ॥ व्यंजनस्यावत्रहः ॥ १८ ॥ न चक्षुरनिद्रियाभ्याम् ॥ १९ ॥ श्रुतं मतिपूर्व यनेकद्वादशभेदम् ॥ २०॥
चतुर्थ खण्ड भ प्रत्ययाऽवधिदेवनारकाणाम् ॥ २१ ॥ क्षयोपक्षपनिमित्तः पविकल्यः शेषाणाम् ॥ ११ ॥ ऋजुविपुल नती मनापर्ययः ॥ २३ ॥ विशुद्धयतिपाताभ्यां तविशेषः ॥ २४ ॥ विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥ २५ ॥ मतिश्रुतयोनिबंधो द्रव्येष्ववपर्यायषु ॥ २६ ॥ रूपिष्ववधेः ॥ २७ ॥ तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥ २८ ॥ सर्वद्रव्यपर्यायषु केवलस्य ॥ २९ ॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्यः ॥ ३० ॥ मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छापलब्धे. सन्मत्तवत ।। ३२ ॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशद्धसमभिरूद्वैवंभूता नयाः ॥ ३३ ॥
इति तत्वाधिगमे मोक्षशास्त्रे प्रथमोध्यायः
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श्री तपोनिधि आचार्य स्व. कुंथुसागरजी महाराज.
श्री तपोनिधि श्राचार्य वीरसागरजी
श्री परमपूज्य स्वामिन् !
बापने विश्ववंद्य दैगंबरी दीक्षाको लेकर बसंख्य आत्मावोंका कल्याण किया है।
आपकी साधना, तपश्चर्या, विद्वत्ता, योग्यता, लोकसंग्रहवृत्ति और सबसे अधिक निर्मल चारित्रसे समाधान पाकर श्री परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ति सिद्धांत-पारंगत, योग द्र चूडामणि आचार्य शांतिसागर महाराजने अंतिम सल्लेखनाके समय आपको अपने उत्तराधिकार-आचार्य पट्टपर बारूढ किया है। बतः आपके आचार्य पदालंकृत होनेके
पश्चात् प्रथम भेट रूपमें यह तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार ग्रंथराजके प्रस्तुत चतुर्थखंडका आपके पुनीत करकमकॉम परमादरपूर्वक समर्पण किया जाता है।
अध्यक्ष आ. कुंथुसागर ग्रंथमाला
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LAJA JAU PJETJA VETRJAVINE
XUDE TEDAVA MPYAVEDARIJA NIJE RJAVANJA UR*
HTTURALATEDASTURISTRATTRUADRATESTRUARTERROASTEDAARURNA
इस ग्रंथके सफल टीकाकार तरत्न, सिद्धांतमहोदधि, स्याद्वादवारिधि,
दार्शनिकशिरोमणि, न्यायदिवाकर, श्री पं. माणिकचंदनी कौंदेय न्यायाचार्य
फिरोजाबाद (बागरा)
KAREENETRUE STRIKISTEDAARTICE TURANTEEK
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संपादकीय वक्तव्य
आज हम हमारे स्वाध्याय प्रेमी पाठकोंके करकमलोमें श्लोकवार्तिकके चौथे खंडको दे रहे हैं, इसका हमे हर्ष है । यद्यपि इस खंड के प्रकाशनमे अपेक्षासे अधिक विलंब हो गया है। परन्तु हमारे धर्मप्रेमी सदस्य हमारी विवशताके लिए क्षमा करेंगे ऐसी आशा है । , हमें इस पातका हर्ष है कि ग्रंथमालाने इस महान कार्यको संपादन करनेमें मारी धैर्यका कार्य किया है । उसमें हमारे स्वाध्यायप्रेमी सदस्यों के उत्साहकी प्रेरणा है। हमारी इस योजनाका सर्वत्र स्वागत हो रहा है। हमारे सदस्योंको तो हमारे इस बहुमूल्य प्रकाशनका लाभ हो ही रहा है। परन्तु जो इतर जिज्ञासु हैं, जैनदर्शनके तत्वोंके अंतस्तलस्पर्श मूक्ष्म विवेचनका अध्ययन करना चाहते हैं उनके लिए आज यह प्रकाशन बहुत महत्वका स्थान रखता है। इस ग्रंथके स्वाध्यायसे बडे २ सिद्धान्तवेत्ता विद्वान् प्रभावित हुए हैं। निम्नलिखित जैन समाजके कतिपय प्रसिद्ध विद्वानोंकी सम्मतिसे हमारे पाठक समझ सकेंगे कि इस ग्रंथसे स्वाध्यायप्रेमियोका कितना हित हुआ है । वे सम्मतियां इस प्रकार हैं। सिद्धान्तवाचस्पति स्याद्वादवारिधि श्री पं. वंशीधरजी न्यायालंकार इन्दौर
श्री तत्वार्थ श्लोकवार्तिक हिन्दी भाष्यके छपे हुए तीनों खण्डोंको में श्रीमान् सर सेठ हुकुमचंदजी के सानिध्य में रह पढ़ चुका हूं। इसपरसे इतना अवश्य कहा जा सकता है कि दार्शनिक एवं सैद्धांतिक तत्वार्थीका विशद विस्तृत वर्णन करनेवाले संस्कृत तस्वार्थश्लोकवार्तिक जैसे महान् ग्रंथका हिंदी भाषा अनुवाद करनेका कार्य बडी विद्वत्ता एवं दृढसाहस एवं धैर्यका काम था।
__इसको श्रीमान् पंडित माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्यने अपने अनुपम तथोक गुणोंके कारण पूर्ण कर डाला है। इससे पंडितजी अवश्य वर्तमान युगीन जैन समाजमें एक महान् दार्शनिक विद्वान् कहे जाने के पूर्ण अधिकारी हैं। दर्शनशास्त्र, सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, साहित्यकी निमृतविद्वत्तासे ही न्यायाचार्यजीने यह कार्य संपन्न किया है।
युक्ति और उदाहरणों द्वारा कठिन प्रमेयोंको सरळ सुबोध्य, बना दिया है । प्रतिभाशाली विद्वानजीका यह कार्य बड़ा प्रशंसनीय हुआ है। इसके लिए हिन्दी टीकाकार मान्य पंडितजीको भनेक हार्दिक धन्यबाद समर्पित हैं। ... श्री लालबहादुरजी शास्त्री न्यायतीर्थ इन्दौर
अनेकपदालंकृत श्रीमान सा सेठ हुकमचंद्र साहबकी स्वाध्यायगोष्ठी में अनेकोपाधिविभूषित न्यायाचार्य पं. माणिकचंद्रजी द्वारा रचित तत्त्वार्यश्लोकवार्तिककी हिंदी टोकाके कुछ प्रकरण देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। टीका वस्तुतः अपने आपमें बड़ी विशद और विद्वत्तापूर्ण है।
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(२) श्रद्धेय पंडितजी न्यायशास्त्र के निष्णात विद्वान् है । अतः लोकवार्तिक जैसे दुबह और गंमीर ग्रंथकी टीकाके अधिकारी आप जैसे नैयायिक विद्वान् ही हो सकते थे। ग्रन्थकी मूळ पक्तियां पढते समय प्रथम क्षण जो कठिनाई प्रतीत होती है, टोका पढने के बाद दूसरे ही क्षणमें वह कठिनाई. सरलतामें परिणत हो जाती है, यही इस टीकाकी विशेषता है।
. अनेक स्थलोंको पढकर तो हमें ऐसा लगा जैसे पंडितजीने साक्षात महर्षि विद्यानंदिके पाद. मूलमें ही बैठकर इस ग्रंथका अध्ययन किया होय ।
जैन साहित्य जगत् में यदि इस युगकी किन्ही रचनाओंको महत्त्व दिया जा सकता है तो वे दो ही है। एक धवलादि ग्रंथोंकी टीका, दूसरे तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककी हिंदी टीका । पहिलीको जहाँ अनेक विद्वानोंने मिळकर सम्पादन किया है, वहां दूसरीको न्यायाचार्य पण्डित माणिकचंद्रजीने स्वतः बकेकेने ही किया है। बीसवीं सदीके जैन इतिहासको गतिशील बनानेमें निःसंदेह पंडितजीने महत्वपूर्ण कार्य किया है।
बाजके संपादन जगत्को जितनी साहित्यिक सुविधायें प्राप्त हैं, उतनी सम्भवतः तब नहीं थी, जब कि पंडितजीने इस टोकाको प्रारम्भ किया था। फिर भी पंडितजीने बानी बौदिक महामताके वाधारपर इतने विशाळ गहन और उच्चतम ग्रंथको सरल बनाकर जो सर्व साधारणके लिये उपयोगी बना दिया है, वह विद्वानोंके लिये ईर्षाको चीज है। पंडितजीकी इस साहित्य सेवाके लिये मावी पीढी सदा उनका उपकार मानती रहेगी। श्री श्लोकवार्तिककी टीकाके लिये जैनदर्शन, न्याय, सिद्धांत, में निष्णात स्नातक विद्वान् की अपेक्षा थी, साथ ही अन्य दर्शनों या व्याकरण साहिमकी तकस्पर्शिनी विद्वत्ता मी बाकांक्षणीय थी। तभी पंडितजीने अमिमनीषियसे भृत निरवध हिंदी टीकाकी रचना की है। विद्वद्वर्यजी और हिंदी भाष्यकी जितनी भी प्रशंसा की जाय स्वल्प ही होगी।
हिन्दी भाष्यमें शतशः नितान्त कठिन स्थलोंपर भावार्थ, युक्तियां, उदाहरण, देकर तो गेहको मोम बना दिया गया है। रूक्ष विषय न्यायको इतना स्पष्ट, रुचिकर, सुबोध्य, बनाने में भारी विद्वता, तपस्या, परिश्रमशीलता, अन्वेषणपूर्वक कार्य संपन्न किया गया है।
ऐसे प्रकरणोंका अध्ययन कर विद्वानकी तीक्ष्ण मन्तःप्रवेशिनी विद्वत्तापर विस्मय करते हुये चित्त आनन्दगद्गद हो जाता है । पंडितजीने इस ग्रंथमें अपने गंभीर अध्ययन, असाधारण ज्ञान, अथक परिश्रम, तथा अपूर्वप्रतिभाका जो उपयोग किया है, उसके लिए हम पंडितजीका अभिनन्दन करते हैं। मैं टीकाका अध्ययन कर अत्यन्त प्रभावित हुआ हूं । जैन समाजसे निवेदन है कि घोरश्रम, परिपक्वविद्वत्त से भरपूर इस अनुपम ग्रन्थका परिशीलन करें और महान् नैयायिक भाचार्य श्री विद्यानन्द स्वामीकी तर्कपूर्ण सिद्धान्तप्रतिपादनपद्धतिका आनन्दानुभव करते हुए स्वकीय सम्यग्ज्ञानको परिष्कृत करें।
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( ३ )
श्री विर पं. कैलासचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री बनारस
गुरुवर्य पं. माणिकचन्दजीकी अमूल्य कृति श्री लोकवार्तिकलंकारकी हिन्दी टीका इस शती के विद्वद्वर्गके लिए स्पर्धाी वस्तु है । गुरुकी कृतिको आलोचना करना शिष्यका कार्य नहीं होता । वह केवल उसकी अभिवन्दना कर सकता है । अतः मैं भी उसकी अभिवन्दना करता हूं। वह एक ऐसी कृति है, जिससे भावी पीढीका मार्ग प्रशस्त हुआ है । वह सचमुच में लोकवार्तिकालंकार के जिज्ञासुओंके लिये दीपिकाका ही कार्य करेगी ।
इससे इस ग्रंथ की महानता एवं उपयोगिताका दर्शन हमारे पाठकोंको भली भांति होगा । अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं ।
प्रस्तुत खंडका प्रमेय
इससे पहिले प्रकृतग्रंथ के तीन खंड प्रकाशित हो चुके हैं । यह निश्चित है कि तत्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार तत्वार्थसूत्र के सर्व गहन गंभीर तत्वोंका विविध दृष्टिकोण से दर्शन करानेवाला विशाल दर्पण है, तत्वार्थसूत्र के प्रमेयोंका इतना सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन करनेवाला आजतक कोई दूसरा ग्रंथ नहीं निकला, यह हम निस्संकोच लिख सकते हैं ।
प्रथम खंड : - प्रकृत ग्रंथके प्रथम खंडमें मोक्षोपायके संबंध में अत्यंत गवेषणाके साथ विचार किया गया है । उक्त विषयका स्पष्टीकरण आबाल वृद्धोंको समझमें आवे, इस ढंगसे अत्यंत विशद रीति से किया गया है। जीवका अंतिम ध्येय मोक्ष है । बंधनबद्ध आत्माको मुक्तिके अलावा और क्या चाहिये | मुक्तिके लिए साघनीभूत सफलमार्गका दर्शन महर्षि विद्यानंदस्वामीने इस प्रकरण में कराया है । रत्नत्रयके बिना मुक्तिश्री वशमें नहीं हो सकती है । रत्नत्रयकी प्राप्तिसे ही मोक्षसाम्राज्यके वैभवको यह आत्मा अमित - अनंत - आनंदके साथ अनुभव कर सकता है, इस तत्वका दर्शन हम आचार्य विद्यानंदी के विवेचन में देखकर गद्गद हो जाते हैं । ६५० पृष्ठोमें केवळ एक प्रथम सूत्रका विवेचन ही आसका है। इसीसे प्रकृत ग्रंथकी महत्ताका ज्ञान हो सकता है। इस खंड में प्रथम अध्यायका प्रथम आन्हिक तक प्रकरण आ गया है ।
1
द्वितीयखंड - द्वितीय खंड में पुनश्च ग्रंथकारने सम्यग्दर्शनका स्वरूप, मेद, अधिगमोपाय, तत्वोंका स्त्ररूप और भेद, तत्वज्ञान के साधक निक्षेपादिकों का विवेचन, निर्देशादि पदार्थ विज्ञानोंका विस्तार, और सत्संख्याक्षेत्रादिक तत्वज्ञान के साधनोंपर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इस खंड में प्रथम अध्यायका द्वितीय आन्हिकतकका विवेचन आ चुका है । ग्रंथकारने इस प्रकरण में सम्यग्दर्शन के संबंविशद विचारको व्यक्त किया है। इतना ही लिखना पर्याप्त है कि सम्यग्दर्शन के विष
यमें इतना विस्तृत व सुस्पष्ट विवेचन अन्यत्र मिलना असंभव है । इस खंड में केवळ सात सूत्रोंका विवेचन हूँ । प्रथम खंड में ' सम्यग्दर्शनचरित्राणि मोक्ष मार्गः ' इस सूत्र के द्वारा मोक्षमार्गका सामान्य विवेचन कर आचार्य प्रवरने दूसरे खंड में ' तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं ' से लेकर ' सत्संख्या क्षेत्र स्पर्शन
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(8)
काळांतरभावापबहुत्वैश्व' सूत्रपर्यंत सम्यग्दर्शनका स्वरूप, उत्पत्ति व मेद, तत्वोंका विशदरूप और तत्वज्ञानके उपायोंका विशद दर्शन कराया है। इस तरह द्वितीय खंड में केवळ सात सूत्रोंका और द्वितीय आन्हिकतक आठ सूत्रोंका विवेचन आ गया है।
,
1
तृतीय खंड -तीसरे खंड में सम्यग्ज्ञानका प्रकरण चालू हो गया है। नौवें सूत्रसे लेकर २० में सूत्रतका विवेचन तीसरे खंड में आ चुका है । सम्यग्ज्ञानका स्वरूप, सम्यग्ज्ञानके भेद, मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विवेचन उक्त खंडमें किया गया है। ज्ञान सामान्य प्रत्येक जीवको होनेपर भी सम्यग्दर्शन जबतक नहीं होता है, तबतक वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है । सम्यग्ज्ञान हुए बिना इस आमाको आत्मसिद्धि नहीं हो सकती है । सम्यग्ज्ञानरहित चारित्र भी सम्यक्चारित्र नहीं कहला सकता । अतः सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होना अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकरणमें ज्ञानको मतिश्रुत अवधिः मन:पर्यय और केवलज्ञानके रूपमें विभक्त कर उनको प्रत्यक्ष और परोक्षप्रमाण के रूप में विवेचन किया है । इन ज्ञानोंके प्रामाण्य के संबंध में तार्किकचूडामणि विद्यानंदस्वामीने अकाट्य युक्तियों द्वारा जो विवेचन किया है, उसे देखकर विद्वरसंसार दंग रह जायगा । विषयके विवेचन में विविध मतका परामर्श किया है । और उन्ही के ग्रंथोक्त प्रमाणोंसे विषयको उनके गले उतारनेका चातुर्य दिखाया गया है । इस तरह तृतीय खंडमें २० सूत्रतक के प्रमेयोंका प्रतिपादन किया गया है। चतुर्थखंड - प्रस्तुत चतुर्थ खंड 'भवप्रत्ययो वधिर्देवनारकाणाम्' इस अवधिज्ञानविषयक सूत्रसे प्रारंभ हो जाता है | ग्रंथकारने अवधि और मन:पर्यय ज्ञान, उनका स्वरूप, भेद, एवं केवलज्ञान के संबंध में प्रतिमापूर्ण विवेचन किया है। साथ ही कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञानका विवेचन कर नयों के संबंध में विस्तृत विवेचन किया है । इस प्रकरणमे आचार्यने अवधिज्ञानकी उत्पत्तिमे अन्तरंग और बहिरंग कारणोंका सुन्दर विचार कर निमित्त और उपादानपर यथेष्ट प्रकाश डाला है । उसी प्रकार अनंतर अवधिज्ञानके मेदोंका विस्तारपूर्वक निरूपण कर अन्यत्र उल्लिखित सर्वमेद इन्ही भेदोमें अंतर्भूत होते हैं, इस बातका सयुक्तिक निरूपण किया है । तदनन्तर मन:पर्यय ज्ञानका, स्वरूप, भेद और उनमें जो विशेषता है, उसका विशद प्रतिपादन किया है । इसके बाद मतिश्रु तादि ज्ञानोंका विषयनियम बतलाते हुए आचार्य महाराजने उनको आगमके प्रकाशमें तर्क और युक्तिसे प्रतिष्ठित किया है । केवलज्ञानके विषयनिबंधको 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' सूत्रके द्वारा प्रतिपादन करते हुए ग्रंथकारने सर्वज्ञकी सुसंगत व्याख्या की है । केवलज्ञानमे सर्व द्रव्यपर्याय झलकती हैं। एक भी पर्याय या पदार्थ के छूटनेपर सर्वज्ञता नहीं बन सकती है । यहां मीमांसक मतका खूब परामर्श कर साकल्यरूपसे सर्वसिद्धि की है । नास्तिक और मीमांसकोंके द्वारा उठाई गई अनेक शंकाएं एवं उनके द्वारा प्रयुक्त हेतुको सदोष सिद्ध कर महर्षिने अल्पज्ञ के ज्ञानको सावरण और सर्व ज्ञानको निरावरण सिद्ध किया है । आवरणोंकी सर्वथा हानि होनेपर विशद, सकल, और युगपत् प्रत्यक्षज्ञान प्राप्त होता है । वही केवलज्ञान है। वहीं पर सर्वज्ञता है । इस प्रकरणके बाद एक जीव में एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं, इसका विवेचन किया गया है। छद्मस्थ जीवोंके एक
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समयमें दो उपआयेग नहीं हो सकते हैं, क्षायोपशमिकबान क्रमसे ही होते हैं, यह बतळाकर एक साथ कितने बान कैसे संभवते हैं, इसका सयुक्तिक विवेचन किया गया है। केवलज्ञान क्षायिक है, असहाय है, वह अकेला है, अतः एक ही है । पंच ज्ञानोंकी विशद व्याख्या करने के बाद मिथ्यात्वके साहचयसे मतिश्रुत अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यारूप भी होते हैं, मनःपर्यय और केवल मिथ्यारूप नहीं हो सकते हैं, इसका समर्थन किया गया है । अंतमें तत्वार्थाधिगम भेदके नामसे ग्रंथकारने जो प्रकरण निबद्ध किया है, वह विद्वानोंके लिए अत्यंत उपयोगी चीज है। वीतराग कथा और विजिगीषुकथाके द्वारा जो विद्वान् तत्वसिद्धि करना चाहते हैं, उनको इस प्रकरणका यथेष्ट उपयोग होगा। आचार्य विद्यानंदस्वामीने इस प्रकरणमें अपने ज्ञानकौशल के सारे वैभवको ओत दिया है। इस तरह यह खंड भी करीब ६०० पृष्ठोमें पूर्ण हुआ है।
___ हमारा अनुमान था कि कुछ ७ खंड इस ग्रंथराजके होंगे । पांच खंडोमें पहिला अध्याय . और शेष दो खंडोमें नौ अध्याय पूर्ण होंगे। परंतु प्रथमाध्याय इस चौथे खंडमें ही समाप्त हो गया है। आगेके नौ अध्याय तीन खंडोमें समाप्त हो जायेंगे । हम समग्र ग्रंथको शीघ्र हमारे विद्वान् पाठकोंके हाथमें देनेके प्रयत्नमें हैं।
यह कार्य सामान्य नहीं है, यह इम निवेदन कर चुके हैं। इस कार्यमें कठिनाईयां भी अधिक है। संस्थाको भारी आर्थिक हानि हो रही है। परंतु संकल्पित कार्यको पूर्ण करना हमारा निश्चय है। यह तो हमारे विज्ञ पाठकोंको ज्ञात है कि आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमालाके सदस्योंको यह ग्रंथ अन्य प्रकाशनोंके साथ विनामूल्य ही दिया जा रहा है । करीब ५०० सदस्योंको विनामूल्य भेंट जानेके बाद, और प्रायः वे ही स्वाध्यायाभिरुचि रखनेवाले होनेके कारण शेष प्रतियों को खरीदने. वाळे बहुत सीमित संख्या हैं । इसलिए हम अपने सदस्योंसे ही निवेदन करेंगे कि वे या तो कुछ सदस्य संख्या बढानेका प्रयत्न करें या अपनी ओरसे कुछ प्रतियोंको खरीद कर बैनेतर विद्वान्, विश्वविद्यालय, परदेशके विद्वान् बादिको भेटमें देनेकी व्यवस्था करें । आज ऐसे गंभीर दार्शनिक ग्रंथोंका परदेशमें यथेष्ट प्रचार होने की आवश्यकता है। बाज पाश्चात्य देशके जिज्ञासु विद्वान् दर्शन शानोंको अध्ययन करनेके लिए लालायित हैं । परन्तु उनके सामने रखनेकी आवश्यकत है। हमारे स्वाध्यायप्रेमी जिनवाणीभक्त इस ओर ध्यान देवें । इस प्रकार यह कार्य सुकर हो सकता है । बाशा है कि समाजके श्रुतभक्त सज्जन इस कार्यमें हाथ बटायेंगे। टीकाकारके प्रति कृतज्ञता
- विद्यानंद स्वामीको विषय प्रतिपादनशैली जिस प्रकार अनुपम है, उसी प्रकार न्यायाचार्यजोको विषयको विशद करनेकी पद्धति अनूठी है । इस गहन ग्रंथके गूढ प्रमेय अध्ययन करनेवालोंके चित्तमें भाल्हाद करते हुए शीघ्र उतर जाते हैं। यह उनकी अगाधविद्वत्ता और दीर्घतरपरिश्रमका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
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-: प्रकृत ग्रंथका समर्पण :परमपूज्य प्रातःस्मरणीय विश्ववंद्य चारित्र वक्रवर्ति आचार्य शांतिसागर महाराज इस वर्ष समस्त विश्वको दुःखसागरमें मग्नकर स्वयं आत्मलीन हुए । आचार्यश्रीने अपनी अंतिम यमसल्लेखनाके समय समाजको भावी मार्गदर्शन के लिए अपना आचार्यपद अपने सुयोग्य प्रथमशिष्य घोर तपस्वी विद्वान मुनिराज वीरसागर महाराजको प्रदान किया । एवं उनके आदेशानुसार चलनेके लिए समाजको आज्ञा दी।
श्री आचार्य वीरसागर महाराज.. . श्रीपरमपूज्य प्रातःस्मरणीय आचार्य वीरसागरजी महाराज वर्तमान युगके महान् संत हैं। वे आचार्य महाराजके प्रथम शिष्य हैं । उनके द्वारा आजपर्यंत असंख्य जीवोंका उद्धार हुआ है, हो रहा है। वे वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, संयमवृद्ध, और अनुभववृद्ध हैं। उनके द्वारा समाजको वस्तुतः सही मार्गदर्शन होगा । बाचार्यश्रीने योग्य व्यक्तिको अधिकारसूत्र दिया है । आज भाप समाजके लिए महान संतके द्वारा नियुक्त अधिकृत आध्यात्मिक पट्टके आचार्य हुए हैं । आचार्य पदालंकृत प्रसंगकी चिरस्मृतिके लिए एवं इस प्रसंगमें प्रथमभेटके रूपमें प्रस्तुत खंडको परमपूज्य आचार्य वीरसागर महाराजके करकमलोंमें समर्पित किया गया है । हमें इस बात का अभिमान है कि संस्थाको इस प्रवृत्तिने एक शुभशकुनका कार्य किया है। आचार्यश्रीका युग चिरंतनमार्ग. प्रभावक एवं लोककल्याणात्मक होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। अपनी बात.
परमपूज्य प्रातःस्मरणीय विद्वद्वर स्व. आचार्य श्री कुंथुसागर महाराजकी पुण्यस्मृतिमें यह ग्रंथमाला चल रही है । आचार्यश्रीने अपने जीवनकाळमें धर्मकी बडी प्रभावना की । जैनधर्मको विश्वधर्मके रूपमें रखने का अनवरत उद्योग किया । तेजोपुंज प्रतिभा, विद्वत्ता, आकर्षणशक्ति, कोमलता, गंभीरता, आदि गुणों के द्वारा आपने विश्वको अपनी ओर खींच लिया था । विश्वकल्याणकी तीव्रतर भावना उनके हृदयमें धर कर गई थी। समाजका दुर्भाग्य है कि असमयमें ही उन्होंने इह लोकसे प्रयाण किया । पूज्यश्रीकी ही स्मृतिमें यह संस्था आपकी सेवा कर रही है। यदि आप संस्थाके महत्व और कार्यगौरवको लक्ष्यमें रखकर इसमें सहयोग प्रदान करें तो यह आपकी इससे भी अधिक प्रमाणमें सेवा करनेमें दक्ष होगी एवं विश्वमें इस प्रभावक तस्वका विपुलाचार होकर कोककल्याण होगा।
विनीतसोलापुर
वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री वीरनिर्वाण सं. २०८२ ।
(विद्यावाचस्पति न्याय-काव्यतीर्थ ) ऑ. मंत्री श्री आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमाला सोलापूर.
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श्रीविद्यानंद-स्वामिविरचितः . तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार: तत्त्वार्थचिंतामणिटीकासहितः
(चतुर्थखंडः)
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परोक्षमति, श्रुतज्ञानोंका परिभाषण कर श्री उमास्वामी महाराज अब क्रमप्राप्त अवधिज्ञानका व्याख्यान करनेके लिए सूत्रका उच्चारण करते हैं।
भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् ॥ २१ ॥ अवधिज्ञानका लक्षण तो " मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् " इस सूत्रमें पडे हुये । अवधि शब्दकी निरुक्ति करके ही कह दिया गया है । अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे और अन्तरंग बहिरंग कारणोंके संनिधान होनेपर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादाको लिये हुये जो रूपी पुद्गल और बद्ध जीवद्रव्यों के विवर्तीको प्रत्यक्षरूपसे विषय करनेवाला ज्ञान है, वह अवविज्ञान है। उस अवधिज्ञानके भवप्रत्यय अवधि और क्षयोपशमनिमित्त अवधि ये दो भेद हैं । पक्षियोंको जिस प्रकार शिक्षा विना ही आकाशमें उडमा आ जाता है, मछलियोंको सीखे विना ही अपने जन्म अनुसार जळमें तैरना आ जाता है, उसी प्रकार चार निकायके सभी देव और संपूर्ण नारकियोंके भवको ही कारण मानकर मवप्रत्यय अवधिज्ञान हो जाता है। सम्यग्दर्शनका सन्निधान हो जानेपर यह अवधिज्ञान है, अन्यथा विभङ्गज्ञान कहा जायगा।
किं पुनः कुर्वमिदमावेदयतीत्याह ।
फिर किस फलकी सिद्धिको करते हुए श्री उमास्वामी महाराज इस " भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां" सूत्रका प्रज्ञापन कराते हैं ! इस प्रकार प्रश्नकर्ताकी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी मयाज, यो स्पष्ट उत्तर देते हैं, सो सुनी।
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स्वार्थ लोकवार्तिके
भवप्रत्यय इत्यादिसूत्रमाहावधेर्बहिः । कारणं कथयन्नेकं स्वामिभेदव्यपेक्षया ॥ १ ॥
विज्ञान के देव और नारकी इन दो अधिपतियोंके मेदोंकी विशेष अपेक्षा नहीं करके अवधिज्ञानके केवल बहिरंग एक कारणका कथन करते हुए श्री उमास्वामी महाराज " भवप्रत्ययो - वधिर्देवनारकाणां " इस सूत्र को कह रहे हैं । अर्थात् भिन्न दो स्वामियोंके सामान्यरूपसे एक बहिरंग कारण द्वारा हुये अवधिज्ञानका प्रतिपादक यह सूत्र है । अथवा देव और नारकी इन दो स्वामियों के भेदक विशेष अपेक्षा करके भी बहिरंग कारण एक भव मात्र हो जानेसे मवप्रत्यय अवधिज्ञानको स्वामीजी कह रहे हैं ।
देवनारकाणां भवभेदात्कथं भवस्तदवधेरेकं कारणमिति न चोद्यं भवसामान्यस्यैकत्वाविरोधात् ।
कोई कटाक्ष करता है कि देवोंकी उत्पत्ति, स्थिति, सुख भोगना आदि भवकी प्रक्रिया भिन्न है, और नारकियों की उत्पत्ति, दुःख भोगना, नरक आयुका उदय आदि भत्रकी पद्धति न्यारी है । जब कि देव और नारकियोंके भवोंमें भेद हो रहा है तो सूत्रकार महाराजने उन दोनोंके अवधिज्ञानका एक कारण भला भव ही कैसे कह दिया है ? बताओ | अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार आक्षेपपूर्ण प्रश्न उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि सामान्यरूपसे भवके एकपनका कोई विरोध नहीं है | महारानी और पिसनहारीके पुत्र प्रसव होनेपर सुत उत्पत्ति एकसी है । वीतराग बिद्वानों की दृष्टि देवोंका जन्म और नारकियोंका जन्म एकसा है । गमन सामान्यकी अपेक्षासे ऊंटकी गति और हाथी की गति में कोई अन्तर नहीं है । अतः देव और नारकियोंकी मध्यम देशावधिका बहिरंग कारण तिस अवधियोग्य शरीर आदिसे युक्त जन्म लेनारूप भव है ।
कथं बहिरंगकारणं भवस्तस्यात्मपर्यायत्वादिति चेत् ।
पुनः किसीका प्रश्न है कि भव भला अवधिज्ञानका बहिरंग कारण कैसे हो सकता है ? क्योंकि वह भत्र तो जीवद्रव्यकी अन्तरंग पर्याय है । जीवके भवविपाकी आयुष्यकर्मका उदय होनेपर जीवको उपादान कारण मानकर जीवकी भवपर्याय होती है । अतः भव तो अन्तरंग कारण होना चाहिये । इस प्रकार आशंका करनेपर तो यों समाधान करना कि
नामायुरुदयापेक्षो नुः पर्यायो भवः स्मृतः ।
स बहिः प्रत्ययो यस्य स भवप्रत्ययोऽवधिः ॥ २ ॥
गति नामक नामकर्म और आयु कर्मके उदयकी अपेक्षा रखनेवाली जीवकी पर्याय भव की गयी है । यह भवका लक्षण पूर्व आचार्योंकी माम्नायसे स्मरण हुआ चला आरहा है। जिस
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तत्वार्थचिन्तामणिः
अवधिज्ञानका बहिरंग कारण वह भव है वह ज्ञान भवप्रयय अवधि कहा जाता है। जीवकी पर्यायें अन्तरंग कारण ही होय ऐसा कोई नियम नहीं है । अत्यन्तपरोक्ष आकाश और कालद्रव्य के परिणाम बहुतसे कार्यों में बहिरंगनिमित्त बन रहे हैं। पांच सेर दहीका उपादान पांच सेर दूध है । उसमें तोला भर डाला गया दही जामन तो निमित्तमात्र है। यानी बहिरंग कारण है । अन्तरंग कारण या उपादान कारण नहीं है। स्वयं जीवके क्रोधपर्यायकी उत्पत्ति करनेमें क्रोध नामका पौगलिक कर्म तो अन्तरंग कारण है, और जीवकी पूर्ववर्ती क्रोधपर्याय या चारित्रगुणकी अन्य कोई विभावर्याय बहिरंगकारण है । चारित्र गुण उपादानकारण है। तथा जीवके सम्यक्त्वगुण उपजने में न्यारे चारित्रगुणकी परिणति हो रही करणलब्धि तो अन्तरंग कारण है । और क्षयोपशमलब्धि या उपादानखा हो रही पूर्वसमयकी मिथ्यात्वपरिणति बहिरंग कारण है । लम्बे चौडे वट वृक्ष, आम वृक्ष आदिकी उत्पत्तिके उपादानकारण खेत, मिट्टी, जल, आतप, वायु, आदिक हैं | और वटबीज या आमकी गुठिली निमित्तकारण है । चना, उर्द, गुठिली आदि बीजों में दो पल्लोंके भीतर जो तिल या पोस्त बराबर पदार्थ छिपा हुआ है वह केवल आदिके स्वल्प अंकुरका उपादानकारण माना जाय । खाये पीये हुये दूध, अन्न, जल, वायु आदिमें प्रविष्ट हो रहीं या अतिरिक्त स्थलोंसे भी आई हुयीं आहारवर्गणायें तो बालकके बढे हुये मोटे शरीर की उपादानकारण हैं । और मातापिताके रजोवीर्य निमित्तकारण हैं । धौले या पीछे प्रकाशके उपादानकारण तो गृहमें भरे हुये पुद्गल हैं । दीपक या सूर्यके निमित्तसे वे ही चमकदार परिणत हो गये हैं। जैसे कि जीवके रागद्वेष आदिको निमित्त पाकर कार्मणत्रर्गणायें ज्ञानावरण आदि कर्म बन जाती हैं। जो कार्य रूप परिणमता है, वह उपादानकारण है । आम्रबीजको निमित्त पाकर इधर उधर के जक मृत्तिका आदिक पुद्गल ही डालीं, छाल, वौर, आम गुठिली आदि अवस्थाओंको धार लेते हैं । वे ही मिट्टी आदिक यदि अमरूद बीजका निमित्त पाते हैं, तो अमरूद के वृक्षके उपादानकारण बन जाते हैं । सकोरामें थोडी मिट्टी और बीज अधिक डालकर बोदेनेसे कुछ कालमें सभी मिट्टी अंकुररूप परिणमजाती है । समीचीन मित्रकी शिक्षा के अनुसार प्रशंसनीय कार्योंको करनेवाले धनिक पुरुषकी प्रवृत्तिका अन्तरंग कारण तो सच्चा मित्र है, जो कि सर्वथा to है । और धनिककी मोंडी बुद्धि तो उस प्रवृत्तिका बहिरंग कारण है। यह कार्यकारणका विषय गंभीर है । स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार ही हृदयंगत होता है । प्रकरण में देवनारकियोंके अवधिज्ञानका बहिरंग कारण उनका भव है, ऐसा समझो ।
रंग देवगति नामकर्मणो देवायुषश्चदिया देवभवः । तथा नरकगतिनामकर्मणो नरकायुषश्चोदयान्नरकभव इति । तस्य बहिरंगतात्मपर्यायत्वेऽपि न विरुद्धा ।
देखिये, गति नामक पिण्डनकृतिके भेद हो रहे देवगति नामक नामकर्म और आयुष्यकर्म के भेद हो रहे देवायुकर्म इन बहिरंग कारणोंके उदयसे आत्माकी देवभव परिणति होती है, तथा
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तस्वार्थ श्लोकवार्तिके
नरक गति नामक नामकर्म और मरकायुः इन दो बहिरंग कारणोंके उदयसे आस्माकी नरकभव पर्याय होती है । इस प्रकार उस भवको आत्माका पर्यायपना होते हुये भी बहिरंग कारणपना विरुद्ध नहीं है । द्रव्योंकी परिणतिओंमें उनके कोई तदात्मक परिणाम तो बहिरंगकारण बन जाते हैं, और दूरवर्ती, द्रव्यान्तरवर्ती भी कोई कोई पदार्य अन्तरंगकारणपनेके पारितोषिकको लूटते जाते हैं। स्त्री या धन अथवा प्रियपुत्र आदिके सर्वथा अधीन हो रहे पुरुषकी प्रवृत्तिओंका अन्तरंगकारण स्त्री धन आदिक हैं और उस पुरुषकी रति, मोह, लोभ आदि निज आत्मपरिणतियां बहिरंगकारण हैं । किसी कार्यमें तो वे कैसी भी यानी उदासीन कारण भी नहीं हैं, प्रेरकपना तो दूर रहा । - कथमत्रावधारणं, देवनारकाणामेव भवप्रत्ययोऽवधिरिति वा भवप्रत्यय एव देवनारकाणामिति ! उभयथाप्यदोष इत्याह ।
यहां किसीकी शंका है कि सभी वाक्य अवधारणसहित होते हैं । चाहे एवकार कण्ठोक्त कहा जाय अथवा नहीं कहा जाय । तदनुसार इस सूत्रमें क्या उद्देश्यदलके साथ एवकार लगाकर अवधारण किया गया है ? अथवा विधेयदळके साथ एव लगाकर नियम किया गया है ! बताओ। अर्थात्-देव और नारकी जीवोंके ही भवप्रत्यय अवधि होती है, इस प्रकार अवधारण अभीष्ट है ? अथवा भवप्रत्यय अवधि ही देव और नारकियोंके होती है ! यों अभिमत है। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर आचार्य कहते हैं कि दोनों भी प्रकारोंसे अवधारण करनेपर कोई दोष नहीं आता है । हमें उद्देश्य और विधेय दोनोंमें एवकार लगाकर अवधारण करना अभीष्ट है। इसी बातको आचार्य महाराज दो कारिकाओंद्वारा स्पष्ट कर देते हैं।
येऽग्रतोऽत्र प्रवक्ष्यन्ते प्राणिनो देवनारकाः। तेषामेवायमित्यर्थान्नान्येषां भवकारणः ॥३॥
इस तत्वार्थसूत्र ग्रंथमें आगे चौथे, तीसरे अध्याय करके जो प्राणी देव और नारकी बढिया ढंगसे कहे जायेंगे, उन प्राणियोंके ही यह भवको कारण मानकर उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । अन्य मनुष्य या तिथंच प्राणियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं होता है। ऐसा उत्तरदलमें अबधारणको अन्वितकर अर्थ करदेनेसे देव नारकियोंके अतिरिक्त अन्य प्राणियोंमें भव प्रत्यय अवधिज्ञानका निराकरण कर दिया जाता है । यद्यपि तीर्थंकरोंके भी जन्म लेते ही भवप्रत्यय अवधि हो जाती है । फिर भी सूत्रअनुसार सामान्यरूपसे चार गतियोंके प्राणियोंकी अपेक्षासे अव. विज्ञानका नियम इस प्रकार करदेनेपर कोई दोष नहीं आता है । . भवप्रत्यय एवेतिनियमान गुणोद्भवः ।
संयमादिगुणाभावाद्देवनारकदेहिनाम् ॥ ४ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
भवप्रत्यय ही अवधिज्ञान देवनारकियोंके होता है । इस प्रकार दूसरा पूर्वदलमें नियम कर देनेसे देव और नारकियोंके गुणसे उत्पन्न हुए क्षयोपशमनिमित्त अवधिज्ञानका निषेध हो जाता है। क्योंकि देव और नारकियोंके सदा अप्रत्याख्यानावरण कर्मका उदय बना रहनेके कारण संगम, देश. संयम और श्रेणी आदिके भावस्वरूप गुणोंका अभाव है । अतः उन शरीरधारी देवनारकियोंके गुणप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं उपजाता है। ..
नन्वेवमधारणेऽवधौ ज्ञानावरणक्षयोपशमहेतुरपि न भवेदित्याशंकामपनुदति ।
यहां किसीका प्रश्न है कि इस प्रकार देवनारकियोंके अवधिबानमें भवप्रत्ययका ही यदि अव. धारण किया जायगा, तब तो ज्ञानावरणका क्षयोपशम भी उस अवधिज्ञानका हेतु नहीं हो सकेगा? किंतु सम्पूर्ण ज्ञानों में क्षयोपशम या क्षयको तो अनिवार्य कारण माना गया है। अवधारण करनेपर तो उस क्षयोपशमकी कारणता पृथग्भूत हो जाती है । इस प्रकार आशंकाका श्री विद्यानंदस्वामी वार्तिकोंद्वारा स्वयं निराकरण करते हैं।
नावधिज्ञानवृत्कर्मक्षयोपशमहेतुता। व्यवच्छेद्या प्रसज्येताप्रतियोगित्वनिर्णयात् ॥५॥ बाह्यो हि प्रत्ययावत्राख्यातौ भवगुणौ तयोः। प्रतियोगित्वमित्येकनियमादन्यविच्छिदे ॥६॥
" भवप्रत्यय एव " ऐसा कहदेनेसे अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमको अवधिज्ञानकी हेतुताका व्यवच्छेद हो जाना यह प्रसंग कथमपि प्रस्तुत नहीं होगा। क्योंकि क्षयोपशमको अप्रतियोगीपनका निर्णय हो चुका है । अवधारण द्वारा विपक्षभूत प्रतियोगियोंका निवारण हुआ करता है । भावार्थ-भवप्रत्ययका प्रतियोगी भवप्रत्ययाभाव या संयम आदि गुण हैं। अतः भवप्रत्यय ही ऐसा अवधारण करनेपर मवप्रत्यपाभावका ही निवारण होगा । क्षयोपशमकी कारणताका बालाग्र मात्र भी व्यवच्छेद नहीं हो सकता है। कारण कि उन दो प्रकारवाले अवधिज्ञानोंके बहिरंगकारण यहां प्रकरणमें भव और गुण ये दो वखाने गये हैं। अतः भव और गुण परस्परमें एक दूसरेके प्रतियोगी हैं। इस कारण शेष अन्यका व्यवच्छेद करनेके लिये एकका नियम कर दिया जाता है । अर्थात्-जिस देव या नारकीके भवको कारण मानकर अवधिज्ञान उत्पन हुआ है, भलें ही उनके अवधिज्ञानमें संयम आदि गुण कारण नहीं है, किन्तु क्षयोपशम तो कारण अवश्य है। गुण तो बहिरंगकारण है, और क्षयोपशम अन्तरंगकारण है । अतः भवके प्रतियोगी हो रहे बहिरंगकारण गुणका तो देव नारकियोंके अवधिज्ञानमें निषेध है। किन्तु अप्रतियोगी बन रहे क्षयोपशमका निषेध नहीं किया गया है ।
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यथैव हि चैत्रो धनुर्दर एवेत्यत्रायोगव्यवच्छेदेऽप्यधानुर्द्धर्यस्य व्यवच्छेदो नाबाण्डित्यादस्तस्य तदप्रतियोगित्वात् । किं चैत्रो धनुर्द्धरः किं वायमधनुर्द्धर इति आशंकायां धानुर्येतरयोरेव प्रतियोगित्वाद्धानुर्द्धर्यनियतेनाधानुर्द्धर्य व्यवच्छिद्यते । तथा किमवधिभवप्रत्ययः किं वा गुणप्रत्यय इति बहिरंगकारणयोर्भवगुणयोः परस्परं प्रतियोगिनो शंकायामेकतरस्य भवस्य कारणत्वेन नियमे गुणकारणत्वं व्यवच्छिद्यते । न पुनरवधिजानाधरणक्षयोपशमविशेषः क्षेत्रकालादिवत्तस्य तदप्रतियोगित्वात् ।
__ एवकार तीन प्रकारका होता है। १ अयोगव्यवच्छेद २ अन्ययोगव्यवच्छेद ३ अत्यन्तायोगव्यवच्छेद । इन तीन भेदोंमें प्रथमभेदका उदाहरण यों है कि " पार्थो धनुर्धर एव " अर्जुन योद्धा धनुषधारी ही है। यहां विशेषणके साथ लगे हुये अयोगव्यवच्छेदक एवकार द्वारा धनुष अत्रके अतिरिक्त अन्य अस्त्रशस्त्रोंके धारण करनेका अर्जुनमें निषेध नियम किया गया है। तथा " पार्थ एव धनुर्धरः " यहां विशेषके साथ लगे हुये अन्ययोगव्यवच्छेदक एवकार द्वारा अर्जुनसे अतिरिक्त योद्धाओंमें धनुर्धरपनेका निषेधनियम किया गया है । तीसरे " नीलं सरोजं भवत्येव " यहां क्रियाके साथ लगे हुये अयन्तायोगव्यवच्छेदक एवकार द्वारा नीलकमलके निषेधका निराकरण कर दिया जाता है । यहां प्रकरणमें यह कहना है कि चैत्र विद्यार्थी धनुषधारी ही है । इस प्रयोगमें जिस ही प्रकार अयोगका व्यवच्छेद होनेपर भी चैत्रके धनुर्धारी रहितपनेका ही प्रतिषेध हो जाता है। किंतु बलवान् चैत्रके अपण्डितपन; धनीपन, युवापन आदिका व्यवच्छेद नहीं हो जाता है। क्योंकि उस धनुषधारी चैत्रके वे अपण्डितपन आदिक प्रतियोगी नहीं है । यहां प्रतियोगी तो धनुषधारी रहितपना ही है । देखो, चैत्र क्या धनुषधारी है ? अथवा क्या यह चित्रा स्त्रीका युवा लडका धनुषधारी नहीं है ! इस प्रकार आशंका होनेपर धनुषधारीपन और धनुषरहितपन इन दोनोंका ही प्रतियोगीपना नियत हो रहा है। जब चैत्र धनुषधारी है, इस प्रकार नियम कर दिया गया है, तो उस नियमकरके चैत्रके धनुषधारण नहीं करनेपनका व्यवच्छेद कर दिया जाता है । अर्थात् प्रसिद्ध शस्त्रधारी या मल्ल प्रायः मूर्ख होते हैं, उद्भट विद्वान् नहीं । इस युगमें प्रकाण्ड विद्वत्ताको सम्पादन करनेवालोंके शरीर दुर्बल पड जाते हैं। शास्त्रचिन्तनायें भी एक प्रकारको चिन्तायें ही हैं। इसी प्रकार प्रशस्त विद्वान् धनाढ्य भी नहीं होते हैं । अच्छा तो उसी प्रकार यहां अवधिज्ञानमें समझलो कि अवधिज्ञान क्या भवको कारण मानकर उत्पन्न होता है अथवा क्या गुणको निमित्तकारण लेकर उपजता है ! इस प्रकार बहिरंगकारण हो रहे तथा परस्परमें एक दूसरेके प्रतियोगी हो रहे भव और गुणकी शंका होनेपर पुनः दोनोंमेंसे एक भवका कारणपन करके नियम करदेनेपर देव नारकों के अवधिज्ञानमें गुणको कारणपना व्यवच्छिन्न कर दिया जाता है । किंतु फिर अवधिज्ञानावरणके विशेष क्षयोपशमको कारणपना नहीं निषिद्ध किया जाता है । क्योंकि क्षेत्र, काल, आत्मा, आदिके समान वह क्षयोपशम तो उस भवस्वरूप बहिरंग कारणका प्रतियोगी नहीं है। मृत्यको बाजारसे
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तत्वार्थचिन्तामणिः
आम्रफल ही लानेका नियम कर देनेपर अमरूद, केला आदिके लानेका निषेध कर दिया जाता है । किंतु रुपये में से बचे हुये पैसे या मृत्यके शरीरपर पहिने हुये वस्त्र आदिके ले आनेका निषेध नहीं कर दिया जाता है । क्योंकि आम्र के प्रतियोगी अमरूद, खखूजा आदि हैं । पैसे आदिक तो उसके प्रतियोगी नहीं है । अतः शेष पैसोंके लौटा लानेका निषेध नियम नहीं किया जाता है ।
तद्व्यवच्छेदे भवस्य साधारणत्वात्सर्वेषां साधारणोऽवधिः प्रसज्येत । तच्चानिष्टमेव ।
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भत्रका नियम करदेने पर यदि गुणके समान उस क्षयोपशमका भी एवकार द्वारा व्यवच्छेद कर दिया जायगा, तब तो भवको साधारणकारणपना हो जानेसे सम्पूर्ण भवधारी प्राणियोंके साधारणरूप करके अवधिज्ञान होनेका प्रसंग हो जायगा । किंतु वह सब जीवोंका अवधिज्ञानीपना तो अनिष्ट ही है । अर्थात् - अवधिज्ञानमें भत्र ही को कारण मानकर यदि क्षयोपशमको अन्तरंगकारण नहीं माना जायगा तो सभी संसारी जीवोंके अवधिज्ञान हो जानेका प्रसंग होगा। क्योंकि क्षयोपशम तो कारण माना ही नहीं गया है और सभी अवधिज्ञानोंमें क्षयोपशमको अन्तरंगकारण मान लेनेपर तो जिन जीवोंके क्षयोपशम नहीं है, उनको अवधिज्ञानी हो जानेका प्रसंग नहीं आता है । देवनारकियों के भी अन्तरंग कारण क्षयोपशम विद्यमान है । तभी बहिरंगकारण भवको मानकर सभी देवनारकियों के कमती बढती पाया जा रहा अवधिज्ञान या विभंग हो जाता है । किन्तु चतुर्गतिके सभी जीवोंके अवधिज्ञान हो जाय यह नियम नहीं है ।
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परिहृतं च भवतीत्याह ।
परिवार भी कर दिया गया है। अवधिज्ञान नहीं हो पाता. है 1
दूसरी बात यह है कि सभी जीवोंके अवधिज्ञान होनेका क्षयोपशमनामक अन्तरंगकारण नहीं होनेसे सभी मनुष्य तिर्यंचोंके किन्तु कारणोंकी योग्यता मिलनेपर किन्हीं किन्हीं मनुष्य तिर्यचोंके होता है । देव और नारकियों के मी अन्तरंग कारणोंकी विशेषता हो जानेसे भिन्न भिन्न प्रकारकी देशावधि होती है । इसको स्वयं ग्रन्थकार वार्तिकद्वारा स्पष्ट कह रहे हैं ।
प्रत्ययस्यान्तरस्यातस्तत्क्षयोपशमात्मनः । प्रत्यग्भेदोऽवधेर्युक्तो भवाभेदेऽपि चाङ्गिनाम् ॥ ७ ॥
अन्तरंग में होनेवाले उस अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशमस्वरूप कारणका देव और नारकियों में न्यास न्यारा भेद है । इस कारण देव और नारकी प्राणियोंके साधारण बहिरंगकारण भवका भमेद होनेपर भी भिन्न भिन्न प्रकारका अवधिज्ञान है । अर्थात् - बहिरंग कारण के एकसा होनेपर भी 1 अन्तरंग क्षयोपशमकी जातिका विशेष भेद होनेसे भिन्न भिन्न देवोंमें और न्यारे न्यारे नारकियोंमें अनेक प्रकारका देशावधिज्ञान हो जाता है ।
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
कुतः पुनर्भवाभेदेऽपि देवनारकाणामवधिज्ञानावरणक्षयोपशमभेदः सिध्द्येत् इति चेत्, स्वशुद्धिभेदात् । सोऽपि जन्मान्तरोपपत्तिविशुद्धिभावात्, नाभेदात् । सोऽपि खकारणभेदात् । इति न पर्यनुयोगो विधेया कारणविशेषपरम्परायाः सर्वत्रापर्यनुयोगार्हत्वात् ।
यहां प्रश्न है कि भवका अभेद होनेपर भी फिर क्या कारण है कि जिससे देव और नारकियों के अवधिज्ञानावरणकर्म सम्बन्धी क्षयोपशमका भेद सिद्ध हो जावेगा ? इस प्रकार कहनेपर तो हम जैनसिद्धान्तियोंका यह उत्तर है कि अपनी अपनी आत्माओंकी शुद्धियां भिन्न भिन्न प्रकारको हैं। अतः उन शुद्धियोंके निमित्तले क्षयोपशमका भेद हो जाना सध जाता है। फिर कोई पूछे कि वह शुद्धियोंका भेद भी जीवोंके कैसे हो जाता है ! इसका समाधान यों समझना कि पूर्ववर्ती अनेक जन्मान्तरोंमें बनी हुयी विशुद्धियोंके सद्भाव रहनेसे संस्कारद्वारा अथवा अन्य बहिर्भूत कारणों की सामग्री जुटजानेसे तथा आत्माके पुरुषार्थसे जीवोंके भिन्न भिन्न शुद्धियां हो जाती हैं। अभिन्न कारणसे भिन्न भिन्न कार्योंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । कार्यभेद है, तो कारणमेद अवश्य होगा । जैनसिद्धान्तमें कार्यकारणभावकी पोल नहीं चल पाती है । वह विशुद्धि या पुरुषार्थ आदिके मेद भी अपने अपने कारणोंके भेदसे हो गये हैं। इस प्रकार पुनरपि प्रश्न उठानेपर उसके मी कारणमेदोंसे ही हुये कार्यभेदोंका ढकासा उत्तर दे दिया जायगा। अतः चारों ओरसे व्यर्थ प्रश्नपरम्परा उठाना कर्तव्य नहीं है। क्योंकि कारणविशेषोंकी परम्परा अनादिसे चली आ रही है । सम्पूर्ण वादियोंके यहां कारणोंकी विशेषतायें पर्यनुयोग चलानेके योग्य नहीं मानी गयी हैं। प्रत्येक पदार्थमें अनन्त खभाव हैं। एक ही अग्नि स्वकीय अनेक स्वभावोंके वश होकर दाह, पाक, शोषण, आदि कार्योको कर देती है । एक
आत्मा भिन्न भिन्न इच्छा, प्रयत्न आदि द्वारा एक समयमें अनेक कार्योंका सम्पादन कर रहा है। कुछ आत्माकी पर्यायें अपने पूर्ववर्ती कारणोंसे उन उन कार्योको करने योग्य पहिलेसे ही उत्पन्न हुई है । नित्य शक्तियोंकी पर्यायधारायें प्रवाहरूपसे तैसी उपजती हुई चली आ रही हैं। " स्वभावोऽतर्कगोचरः" । किसी जीवके पण्डित बनाने में उपयोगी विशेष क्षयोपशम पहिले जन्मोंसे चला आ रहा है और किसीके आत्मपुरुषार्थ द्वारा आवरणोंका विघटन हो आनेपर उस ही जन्ममें पाण्डित्य प्राप्त करनेका क्षयोपशम मिला लिया जाता है। फिर भी स्वभावमेदोंकी प्राप्तिमें जन्मान्तरके कुछ परिणाम भी उपयोगी हो जाय, इसका हम निषेध नहीं करते हैं । " यावन्ति कार्याणि तावन्तः प्रत्येकं स्वभावमेदाः परस्परं व्यावृत्ताः " अष्टसहस्री ग्रन्थमें विवरण कर दिया है कि जितने भी छोटे बड़े कार्य जगत्में होते हैं, उन सबके कारण एक दूसरेसे अलग हो रहे मिन पदार्थ या मिन भिन स्वभाव है । अन्यथा सर्वत्र सर्वदा अकस्मात् कार्य हो जानेके प्रसंगका निकरण कथमपि नहीं हो सकेगा। अतः यहां भी मिन्न मिन्न क्षयोपशमके न्यारे न्यारे कारणोंको कार्यमेदोंकी उपपत्ति अनुसार स्वीकार कर लेना चाहिये । स्वर्ग या भोगभूमिमें भी गुठिलीके विना
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तत्वार्थचिन्तामणिः
आम्रवृक्ष नहीं उपज सकता है। बीज से ही सर्वत्र अंकुर और अंकुरसे ही बीज बनेगा । यह त्रिलोक त्रिकालमें अखण्ड सिद्धान्त है । कार्यकारण भावके अनुसार ही चमत्कार, अतिशय, बाजीगरी, ऋद्धि, सिद्धि, मंत्र, तंत्र, पिशाच क्रियायें, देवउपनीतपना, आदि सम्भवते हैं। कार्यकारणभावका भंग कर चमत्कार आदिक तीनों कालमें नहीं हो सकते हैं । यही जैन न्यायसिद्धान्त है ।
इस सूत्र का सारांश |
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इस सूत्र के लघु प्रकरणों का सूचन यों है कि प्रथम ही देवनारकियोंके अवधिज्ञानका बहिरंग कारण कथन करनेके लिए सूत्रका प्रतिपादन करना आवश्यक बताया है । आत्माका पर्याय होते हुये मी भव बहिरंग कारण है । जीवके पञ्च परावर्तनरूप संसार होने में सम्यक्त्व और चारित्र गुrat विभावपरिणतियां अन्तरंग कारण हैं। शेष गुणोंके परिणाम तो बहिरंगकारण या अकारण ही हैं । तथैव जीवको मोक्षप्राप्ति होने में सम्यक्त्व और चारित्र गुगके स्वभाब परिणाम अन्तरंगनिमित्त कारण हैं । शेष आत्मपिण्ड बहिरंग उपादानमात्र हैं । ज्ञान भी इतना प्रेरक निमित्त नहीं है । अस्तित्व, वस्तुत्व, आदिक अनन्तगुण के परिणाम तो मोक्ष होने में कैसे भी कारण नहीं हैं । उनके जाने भले ही आत्मा नरक निगोद में पडा सडता रहो । गौकी भूख मेटने में घास कारण है । घासको डालनेवाली युवती भूषण, श्रृंगार, वस्त्र, यौवन आदि तो उदासीन भी कारण नहीं । भवके बहिरंगपने का विचार कर उद्देश्य, विधेय दोनों दलोंमें क्रमसे एवकार लगाना अभीष्ट किया है । " चैत्रो धनुर्धरः " इस दृष्टान्तसे दोनों एवकारों को भले प्रकार समझाकर उनसे व्यवच्छेद करने योग्य पदार्थोंको बता दिया है। सभी अवधिज्ञानों में अन्तरंगकारण क्षयोपशमविशेष है । देवनारकि योंके अवधिज्ञान में साधारणरूपसे भव के एक होनेपर भी अन्तरंगकारणवश ज्ञानोंका भेद सिद्ध हो जाता है । कारणोंके भेद से ही कार्योंमें मेद आता है । अन्यथा नहीं । मिट्टीस्वरूप पुद्रलपरिणामसे
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बनता है, और पौगलिक तंतुओंसे पट बनता है। पुद्गलद्रव्यकी मृत्तिका और कपास पर्याय हो जाने में मी खानि या बनोला बीज आदिक निमित्त हैं । पुद्गलद्रव्यके उन निमित्तरूप उपादेयों के बनाने में भी उपादान पुगळकी सहायता करनेवाले द्रव्य, क्षेत्र आदिक निमित्त हैं । यो किसी किसी कारणमें अनेक और अनन्तकोटीतक कारणमाला जुटानी पडती है । उस जुटाने में भी निमित्त - कारण कचित् कार्योंमें तो कोई कोई ज्ञानवान् आत्मा अथवा बहुतसे कार्यों में व्यवहार काल ऋतु परिवर्तन, बीज, योनिस्थान, सूर्य, भूमि आदिक ही कारण बन बैठते हैं । किंतु जगत् के बहुतसे कार्योकी कारणमालाका छोर अनादिकाल नहीं है । मध्यमें ही द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावोंके अनुसार 1 कारण बन गये अनेक स्वभावोंद्वारा ही पांच, दस, दो, या एक कोटिपर ही कारणभेद हो जाने से कार्यभेद हो जाता है। दो चार सगे भाइयों का एक भी पिता हो पिता, पितामह, प्रपितामह, आदि असंख्य पीढिओंतक कारणमालाका चीर बढाते जाना अनिवार्य
सकता है । सभी कार्यों के
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
नहीं है। ऐसा ही श्री जैनन्याय ग्रन्थोंमें साध दिया गया है । आत्माके पुरुषार्थ या कारणोंसे तब ही (तदानीमेव ) बना लिये गये विशुद्धिके भेदसे शुद्धिका भेद होते हुये क्षयोपशमका भेद हो जाने पर ज्ञानभेद हो जाता है । प्रमाणप्रसिद्ध कार्यकारण मावोंमें कुचोद्य नहीं उठा करते हैं।
अदृष्टातिरेकोदयाक्षोत्थसौख्यातिदुःखाः स्मृतस्वाः सुरानारकाश्च । - स्वदेशावधेः प्राप्य सम्यक्स्वमेके भवप्रत्ययान्मुक्तिमागे प्रपन्नाः॥१॥
देवनारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञानका स्वामित्वनिरूपण किया जा चुका है। अतः अवसर संगति और क्रम अनुसार स्वयं जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि दूसरे प्रकारका अवधिज्ञान मला किसको कारण मानकर किन जीवोंके होता है ! इस प्रकार विनम्र शिष्योंकी बलवती जिज्ञासा हो जानेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रकेसरका मुखपद्मसे प्रसारण करते हैं, जिसकी कि सुगन्धसे भव्यमधुकरोंको विशेष उल्लास प्राप्त होवे ।
क्षयोपशमनिमित्तः षडिकल्पः शेषाणाम् ॥ २२॥
अवधिज्ञानावरणकर्मके सर्वघातिस्पर्धकोंका उदयाभाव या फल नहीं देकर घिर जानास्वरूप क्षय और भविष्यमें उदय आनेवाले सर्वघातिस्पर्धकोंका उदारणा होकर उदयावलीमें नहीं आना होते हुये वहांका वहीं बना रहनाखरूप उपशम तथा देशघातिस्पर्धकोंका उदय होनेपर क्षयोपशम अवस्था होती है। उस क्षयोपशमको निमित्त पाकर शेष कतिपय मनुष्य, तिर्यचोंके गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। उस अवधिज्ञानके अनुगामी, अननुगामी, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित और अनवस्थित ये छह प्रकारके विकल्प हैं। . किमर्थमिदमित्याह ।
यहां कोई पूछता है कि किस प्रयोजनको साधनेके लिये यह सूत्र श्री उमाखामी महाराजने कहा है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
गुणहेतुः स केषां स्यात् कियझेद इतीरितुम् । प्राह सूत्रं क्षयेत्यादि संक्षेपादिष्टसंविदे ॥१॥
वह गुणको कारण मानकर उत्पन्न होनेवाला दूसरा अवविज्ञान भला किन जीवोंके होगा ! और उसके भेद कितने हैं ! इस बालका प्रदर्शन करने के लिये श्री उमास्वामी महाराज " क्षयोपशमनिमित्तः षडिकल्पः शेषाणाम् " इस प्रकार सूत्रको संक्षेपसे अभिप्रेत अर्थकी सम्पित्ति करानेके लिये बहुत अच्छा कहते हैं।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
का पुनरत्र क्षया कथोपक्षमा कश्च क्षयोपशम इत्याह ।
इस प्रकरणमें फिर क्षय क्या पदार्थ है ! और उपशम क्या है ! तथा दोनोंसे मिला हुआ क्षयोपशम भला क्या स्वभाव पडता है ! इस प्रकार शिष्यकी आकांक्षा होनेपर आचार्य महाराज वार्षिक द्वारा समाधान कहते हैं।
क्षयहेतुरित्याख्यातः क्षयः क्षायिकसंयमः। संयतस्य गुणः पूर्व समभ्यर्हितविग्रहः ॥ २ ॥
पहिले प्रश्नका उत्तर यों है कि प्रतिपक्षी कोका क्षय जिस संयमका हेतु है, वह चारित्रमोहनयिकर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेवाला क्षायिकसंयम यहां क्षय शब्दसे कहा गया है. । व्रतोंका धारण, समितियोंका पालन, कषायोंका निग्रह, मनवचनकायकी उद्दण्ड प्रवृत्तियोंका त्याग, इन्द्रियोंका जय ऐसे संयमको धारनेवाले साधुओंका यह क्षायिक संयमगुण है । गुणको कारण मानकर किसी किसी मुनिके अवधिज्ञान हो जाता है । द्वन्द्व समास किये जा चुके क्षयोपशम शद्वमें अच्छा चारों ओरसे पूजित शरीरवाला और अल्पस्वर होनेके कारण क्षयपद पहिले प्रयुक्त किया गया है । क्षयको निमित्त पाकर आठमेंसे बारहवें गुणस्थानतक अवधिज्ञान होना सम्भवता है।
तथा चारित्रमोहस्योपशमादुद्भवन्नयम् । कथ्येतोपशमो हेतोरुपचारस्त्वयं फले ॥३॥
तथा दूसरे प्रश्नका उत्तर यह है कि चारित्रमोहिनीयकर्मके उपशमसे उत्पन हो रहा, यह माव उपशम कहा जाता है । जो कि उपशम चारित्र किन्हीं संयमी पुरुषोंका गुण है। इस उपशम भावको निमित्त मानकर आठवें गुणस्थानसे ग्यारहवें तक किन्हीं मुनियोंके अवधिज्ञान हो जाता है। यहां प्रकरणमें उपशम और क्षय शब्दोंसे तज्जन्यभाव पकडे गये हैं । अतः यह हेतुका फलमें उपचार है। अर्थात्-कारणोंमें क्षयपना या उपशमपना है, किंतु क्षय और उपशमसे जन्य हुये क्षायिक संयम और औपशमिक संयमस्वरूप साधुगुणोंको क्षय और उपशम कह दिया गया है।
क्षयोपशमतो जातः क्षयोपशम उच्यते । संयमासंयमोपीति वाक्यभेदाद्विविच्यते ॥ ४ ॥
प्रतिपक्षी कर्मीकी सर्वघाति प्रकृतियोंका क्षय और आगे उदय आनेवाली सर्वघातिप्रकृतियोंका वर्तमानमें उपशम तथा देशवाति प्रकृतियों का उदय इस प्रकारके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ, भात योपशम कहा जाता है। यहां भी कारणका कार्यमें उपचार है । छह सातवें गुणस्थानवर्ती
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तस्वार्थ श्लोकवार्तिके
मुनियोंका गुण क्षयोपशमिक संयम हैं। यहां चारित्रकी सर्वबातिप्रकृति अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्या नावरण और प्रत्याख्यावरण इनका क्षय और उपशम है, तथा देशघाति संज्वलन और यथायोग्य नोका कर्मप्रकृतियोंका उदय है । पांचवें गुणस्थान में चारित्रगुणका परिणाम हो रहा, संयमासंयम भी देशवतीका गुण है, यहां अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण प्रकृतियां तो संयमासंयम गुणकी सर्वघाती हैं । प्रत्याख्यानावरण देशघाती हैं। फिर भी प्रत्याख्यानावरण के तीव्र शक्तित्राले स्पर्धकों का पांचवें गुणस्थान में उदय नहीं है । किन्हीं किन्हीं उत्कट शक्तित्राले प्रत्याख्यानावरण स्पर्धकोंका तो चौथे गुणस्थान में भी उदय नहीं है, जो कि अनन्तानुबन्धी के सहचारी हैं । इस सूत्र के आदि वाक्य का योगविभागपूर्वक भेद करदेनेसे उक्त प्रकारका विवेचन कर दिया गया है । यह तीसरे प्रश्नका उत्तर हुआ । भावार्थ - चारित्रमोहनीयकर्मके क्षय, उपशम और क्षयोपशमसे उत्पन्न हुये महाव्रती और अणुवतियोंके क्षायिक चारित्र, उपशमचारित्र, और क्षयोपशम चारित्र इन तीन गुणों को बहिरंगनिमित्तकारण अपनाता हुआ अत्रविज्ञान अपने अवधिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमस्वरूप एक अन्तरंगकारण से उपज जाता है। चौथे गुणस्थानवाले ममुष्य या तिर्थचके भी प्रशम, संवेग आदिक गुणोंके विद्यमान रहने के कारण चारित्रमोहनीयका क्षयोपशम यहांके लिये कल्पित कर लिया जाता है। तभी तो व्रत नहीं होते हुए भी पाक्षिक श्रावक के पांचवां गुणस्थान मान लिया गया है। चौथे गुणस्थान में हो रहा, अप्रत्याख्यानावरणका मन्द उदय तो अवधिज्ञानके उपयोगी क्षयोपशमको बनाये रहने देता है । जैसे कि सर्वघाती भी प्रत्याख्यानावरण के उदयने संगमासंयमको अक्षुण्ण बनाये रक्खा है । बिगाड़ा नहीं है ।
क्षयनिमित्तोऽवधिः शेषाणामुपशमनिमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इति वाक्यभेदात्क्षाविकोपशमिकक्षायोपशमिकसंयमगुणनिमित्तस्यावधिरवगम्यते । कार्ये कारणोपचारात् क्षयादीनां क्षायिक संयमादिषूपचारः तथाभिधानोपपत्तेः ।
देव और नारकियोंसे अवशिष्ट हो रहे किन्हीं मनुष्यों के क्षयको बाह्य निमित्त मानकर अवधि होती है, और किन्हीं मनुष्यों के उपशमको बहिरंगनिमित्त कारण मानकर अवधिज्ञान हो जाता है। तथा कतिपय मनुष्य तिर्यंचोंके क्षयोपशमस्वरूप बहिरंगकारणसे अवधिज्ञान हो जाता है । इस प्रकार सूत्रस्थ क्षयोपशम इस वाक्यके तीन भेद कर देनेसे क्षायिकसंयम, औपशमिकसंयम और क्षायोपशमिक संयम इन तीन गुणोंको बहिरंगनिमित्त रख रहे जीवोंके अवधिज्ञान होना समझ किया जाता है। कार्य कारणका उपचार हो जानेसे क्षय, उपशम आदि कर्मसम्बन्धी भावोंका क्षायिकसंगम, उपशमसंयम और क्षायोपशमिकसंयम इन तीन संयमी आत्माके गुणोंमें उपचार कर लिया गया है । तिस प्रकार कथन करना युक्तियोंसे सिद्ध है । " आत्मा वै " पुत्र: " आप्तोच्चारितः शङ्खः प्रमाणम् " आदि स्थलोंपर कार्यमें कारण के धर्मोका या कारणमें कार्यके धर्मोका अधिष्ठान किया गया है । कोई नवीन बात नहीं है । बम्बई में कलकत्ताकी रेल गाडी आ जानेपर कलकत्ता
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
या गया, या कलकत्तेमें सिकरनेवाली हुंडीकी कलकत्ता बेचोगे ? यों कहा जाता है। तद्वत् यहां भी उपचार है।
किमर्थ मुख्यशद्वानभिधानमित्याह ।
यहां किसीका प्रश्न है कि शिष्यों के हितैषी और अविप्रलम्भज्ञान करानेवाले श्री उमाखामी महाराजने उपचरितशद्वोंका प्रयोग क्यों किया ! मुख्यशद्वोंका उच्चारण क्यों नहीं किया ! सूत्रकार महाराजजीको चारित्रमोहनीयके क्षय, उपशम और क्षयोपशमस्वरूप निमित्तोंसे अवधि होती है, ऐसा स्पष्ट निरूपण कर देना चाहिये था, इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं । सो सुनो, और ध्यान लगाकर समझो।
क्षायोपशम इत्यन्तरंगो हेतुर्निगद्यते । यदि वेति प्रतीत्यर्थं मुख्यशद्वाप्रकीर्तनम् ॥ ५॥ तेनेह प्राच्यविज्ञाने वक्ष्यमाणे च भेदिनि ।
क्षयोपशम हेतुत्वात्सूत्रितं संप्रतीयते ॥ ६॥
अथवा सूत्रकार महाराजको यदि अन्तरंग और बहिरंगकारण दोनोंका निरूपण करना अमीष्ट होय तो इसलिये भी “ क्षयोपशम " ऐसा गम्भीरशद कह दिया है । इस सूत्र करके अवधिज्ञानका अन्तरंगकारण ज्ञानावरणका क्षयोपशम है, यह भी कह दिया जाता है । इस तत्वकी प्रतिपत्ति करानेके लिये ही मुख्यशद्वका स्पष्टरूपसे उच्चारण नहीं किया है । तिस कारणसे यहां शेष जीवोंके छह भेदवाळे अधिज्ञानमें और पूर्व में कहे गये देवनारकियोंके भव प्रत्यय अवधि. ज्ञानमें तथा उससे भी पूर्व में कहे गये भेदयुक्त मतिज्ञान, श्रुतज्ञानोंमें और भविष्यमें कहे जानेवाले भेदसहित मनःपर्यय ज्ञानमें ज्ञानावरणोंके क्षयोपशमको अंतरंग हेतु मानकर जन्यपना है । इस प्रकार सूत्रद्वारा सूचन कर दिया गया, भले प्रकार निर्णीत कर दिया जाता है। उदात्त महामना सूत्रकार गम्भीर शब्दोंका ही उच्चारण किया करते हैं, तभी शिष्योंको व्युत्पत्ति बढती है । जहां उपचार शब्दोंके बोलनेका नियम है, वहां वैसे ही शब्दोंका उच्चारण करना ठीक समझा जाता है । अपनी माताको जन्मसे ही भाभी शब्दद्वारा पुकारनेवाला बेटा यदि कदाचित् मांको अम्मा कह दे तो अशोभन और थोडा झूठ जचता है । " अनं वै प्राणः " कहना ठीक है । "अनकारणं प्राणाः" इस प्रकार स्पष्ठ कहना पण्डिताईका कार्य नहीं हैं । शब्दशक्तिकी हानि (तोहीन) करनी है। पांचगज कपडा है, यह कहना ठीक है । किन्तु लोहे के गजसे पांच वार नापकर परिमित कर दिया गया कपडा है, यह कहना तुच्छता है । मेरठसे गाडी आ जानेपर मेरठ आगया कहना या बंबईमें सिकरनेवाली इंडीको बेचनेके लिए बम्बईका बेचना कहना ही प्रशस्त है। अत्यन्त पूज्य और
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
नेह्य जनोंके लिये युष्मद् शब्दका प्रयोग श्रेष्ठ है । कहांतक कहा जाय वाचक शब्दोंकी शक्तियां विलक्षण हैं । अतः सूत्रकार महाराजका उक्त प्रकार गंभीर शब्दका उच्चारण करना साभिप्राय है।
क्षयोपशम इत्यन्तरंगो हेतुः सामान्येनाभिधीयमानस्तदावरणापेक्षया व्यवतिष्ठते स च सकलक्षायोपशमिकज्ञानभेदानां साधारण इति । यथेह पद्विधस्यावधेनिमित्तं तथा पूर्वत्र भवप्रत्ययेऽवधौ श्रुते मतो चावसीयते । वक्ष्यमाणे च मनःपर्यये स एव तदावरणापेक्षयेति सत्रितं भवति ।
___ "क्षयोपशम " इस वाक्यके स्वतंत्र तीन भेद नहीं करनेपर ही ज्ञानावरणोंका क्षयोपशम इस प्रकार एक अंतरंगहेतु ही सामान्यरूप करके कहा गया होता संता उन उन ज्ञानोंके आवरणोंकी अपेक्षा व्यवस्थित हो जाता है और वह क्षयोपशम तो सम्पूर्ण चारों क्षायोपशमिक ज्ञानके मेदोंका साधारण कारण है । इस प्रकार भेद, प्रभेदसहित चार ज्ञानोंके सामान्यरूपसे एक अंतरंग कारणको कानेका भी सूत्रकारका अभिप्राय है । जिस प्रकार प्रकृत सूत्रमें अनुगामी आदिक छह प्रकारके अवधिज्ञानका साधारण अन्तरंगनिमित्त क्षयोपशम विशेष कहा गया है, उसी प्रकार पूर्वमें कहे गये मवहेतुक अवधिज्ञानमें और उसके पहिले कहे गये श्रुतज्ञानमें तथा उसके भी पहिले कहे गये मतिज्ञानमें भी अंतरंगकारण क्षयोपशमका निर्णय कर लिया गया है । तथा भविष्य ग्रन्थमें कहे जानेवाले मनःपर्यय ज्ञानमें भी उस मनःपर्ययावरण कर्मकी अपेक्षासे उत्पन्न हुआ वह क्षयोपशम हो अन्तरंग कारण है । यह सब लम्बा चौडा भुगतान् इस छोटेसे सूत्रमें ही उमास्वामी महाराजने मर दिया है। छोटेसे सूत्रसे सभी अभिप्राय सूचित हो जाता है ।
मुख्यस्य शब्दस्याश्रयणात्सर्वत्र बहिरंगकारणप्रतिपादनाच्च मुख्यगौणशब्दप्रयोगो युक्तोऽन्यथा गुणप्रत्ययस्यावधेरपतिपत्तेः ।
___ यहां उपचारित नहीं किंतु मुख्य हो रहे क्षयोपशम शब्दका आश्रय करलेने और सभी ज्ञानोंमें बहिरंगकारणोंका प्रतिपादन करनेसे यहां मुख्यशब्दका प्रयोग और गौण शब्दका प्रयोग करना युक्तिपूर्ण होता हुआ समुचित है । अर्थात् -पुख्पशब्दका आश्रय करनेसे सब ज्ञानोंके अंतरंगकारणोंका निर्णय हो जाता है, और उपचरित क्षयोपशम शब्द के प्रयोग कर देनेसे मनुष्य तिर्थचोंकी अवधिका बहिरंगकारण प्रतीत हो जाता है । अन्यथा यानी उपचरित शब्दका प्रयोग किये विना क्षायिकसंयम आदि गुणस्वरूप बहिरंग कारणोंसे उपजनेवाले अवधिज्ञानकी प्रतीति नहीं हो सकती थी। इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्यने इस श्री उमास्वामी महाराजके सूत्रका बहिरंग कारणोंको प्रतिपादन करनेवाला अच्छा माष्य-अर्थ कर दिया है। यह सूत्र गुणप्रत्यय अवधिके बहिरंगकारण और चारो ज्ञानोंके अन्तरङ्गकारणका भी प्रतिपादक है।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
के पुनः शेषा इत्याह ।
इस सूत्रमें कहे गये वे शेषजीव फिर कौन हैं ? जिनके कि गुणप्रत्यय अवधि होती है। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
शेषा मनुष्यतिर्यञ्चो वक्ष्यमाणाः प्रपंचतः ।
ते यतः प्रतिपत्तव्या गतिनामाभिधाश्रयाः ॥७॥ पूर्व सूत्रों कण्ठोक्त कहे गये देव और नारकियोंसे अवशेष बच रहे मनुष्य और तिर्यच यहाँ शेषपदसे लिये गये हैं। अग्रिम अध्यायोंमें विस्तारके साथ मनुष्य और तिर्यचोंकी परिभाषा कर दी जायगी, जिस कारण कि ये मनुष्य और तिर्यच अपने योग्य मनुष्यगति और तिर्यग्गतिनामक नामकर्मके उदयसे भिन्न भिन संज्ञाओंका आश्रय ले रहे है । गतिनामक प्रतिके उत्तर मेद अनेक हैं। अतः उस उस गतिकर्मके अनुसार जीव मनुष्य और तिर्यच समझ लेने चाहिये । । स्यात्तेषामवधिर्बाह्यगुणहेतुरितीरणात् ।
भवहेतुर्न सोस्तीति सामर्थ्यादवधार्यते ॥ ८॥
उन कतिपय मनुष्य तिर्यंचोंके हो रहे अवधिज्ञानके बहिरंग कारण संयम बादि गुण हैं। इस प्रकार नियमकर कथन कर देनेसे उनके वह भवप्रत्यय अवधि नहीं है, यह मन्तव्य विना कहे ही निरूपित वचनकी सामर्थ्यसे अवधारण कर लिया जाता है। क्योंकि "क्षयोपशमनिमित्त एव शेषाणाम् " इस प्रकार पहिला एवकार अवधारण कर देनेसे शेषोंके अवधिज्ञानमें भवका बहिरंगकरणपना निषिद्ध हो जाता है।
तेषामेवेति निर्णीतेदेवनारकविच्छिदा ।
क्षयोपशमहेतुः सनित्युक्ते नाविशेषतः ॥९॥
" शेषाणामेव क्षयोपशमनिमित्तः " उन शेषोंके ही गुणप्रत्यय अवधि होती है। इस प्रकार एवकार द्वारा उत्तरवर्ती निर्णय (नियम ) कर देनेसे देव और नारक जीवोंका व्यवच्छेद कर दिया जाता है। अवविज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमस्वरूप अंतरंगकारणको हेतु मान कर अवधिज्ञान वर्त रहा है। इस प्रकार कहनेपर तो सामान्यरूपसे यानी विशेषताओंसे रहित होकर सभी मनुष्य तिर्यचोंके सम्भावित हो रहे अवधिज्ञानके सद्भावका निषेध सिद्ध हो जाता है । हां, जिन जीवोंके अंत. रंगकारण क्षयोपशम होगा, उन्हीं के अवधिज्ञानका सद्भाव पाया जायगा, बन्योंके नहीं।
क्षयोपशमनिमित्त एव शेषाणामित्यवधारणाद्भवप्रत्ययत्वव्युदासा । शेषाणामेव क्षयोपशमानिमित्त इति देवनारकाणां नियमाचतो नोभयथाप्यवधारणे दोषोऽस्ति ।
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
शेष बचे हुये मनुष्य तिय चोंके तो बहिरंगकारण क्षयोपशमको ही निमित्त मानकर अवधिज्ञान होता है । इस प्रकार अवधारण करनेसे शेष जीवोंके अवधिज्ञानमें भवप्रत्ययपनेकी व्यावृत्ति हो जाती है। और शेष जीवोंके ही क्षयोपशमनिमित्त अवधि होती है, इस प्रकार नियम करनेसे देव नारकियोंके अवधिज्ञानमें गुणप्रत्ययपनेका व्यवच्छेद हो जाता है । तिस कारण दोनों भी उद्देश्य, विधेयदलोंमें उक्त प्रकारसे अवधारण करनेपर कोई दोष नहीं आता है, प्रत्युत गुण ही है।
क्षयोपशमनिमित्तोऽवधिः शेषाणामित्युभयत्रानवधारणाच्च नाविशेषतोऽवधिस्तिर्यमनुष्याणामन्तरङ्गस्य तस्य कारणस्य विशेषात् । तथा पूर्वत्रानवधारणाबहिरंगकारणाव्यवच्छेदः । परत्रानवधारणाद्देवनारकाव्यवच्छेदः प्रसिद्धो भवति ।
तथा शेष जीवोंके अवधिज्ञान तो क्षयोपशमको निमित्त पाकर हो जाता है, इस प्रकार दोनों ही दलोंमें अवधारण नहीं करनेसे सभी अवधिज्ञानी तिर्यंच और मनुष्यों के विशेषताओंसे रहित एकसी अवधि नहीं हो पाती है। क्योंकि उस अवधिज्ञानके अन्तरंगकारण हो रहे ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमकी प्रत्येक जीवोंमें विशेषताएं हैं । दूसरी बात यह भी है कि पहिले दलमें अवधारण नहीं करनेसे बहिरंगकारण हो रहे गुणोंका भी व्यवच्छेद नहीं हो पाता है । क्योंकि क्षयोपशमके प्रसिद्ध हो रहे एक ही अर्थके अनुसार अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमको ही पकडा जायगा, ऐसी दशामें एवकार यदि कगा दिया जाता तो बहिरंगकारण गुणका भी व्यवच्छेद हो जाता। किन्तु गुणको बाहिरंगकारण इस सूत्र द्वारा अवश्य कहना है । अतः पहिले दळमें अवधारण मत डालो । तथा उत्तरदलमें अवधारण नहीं करनेसे देव और नारकियोंका व्यवच्छेद नहीं होना प्रसिद्ध हो जाता है। भावार्य-शेष रहे मनुष्य, तिर्थचोंके समान देव, नारकियोंके भी अवधिज्ञानाबरणका क्षयोपशम अन्तरंगकारण है । अतः दोनों ओर अवधारण नहीं करनेसे भी प्रमेयका लाभ रहा । " विविधभङ्गगहनं जिनशासनम् "।
षड़िकल्पः समस्तानां भेदानामुपसंग्रहात् । परमागमसिद्धाना युक्त्या सम्भावितात्मनाम् ॥ १० ॥
सर्वज्ञधाराप्राप्त परमागममें प्रसिद्ध हो रहे और पूर्व कहीं गई युक्तियों करके सम्भावितस्वरूप हो रहे, देशावधि आदि सम्पूर्ण भेदोंका निकट संग्रह हो जानेसे अवधिज्ञानके अनुगामी मादिक छह विकल्प हैं । अवधिज्ञान के अन्य भेदप्रभेदोंका इन्हींमें अन्तर्भाव हो जाता है।
अनुगाम्यननुगामी वर्द्धमानो हीयमानोऽवस्थितोऽनवस्थितः इति षडिकल्पोऽवधि: संप्रतिपाताप्रतिपातयोरत्रैवान्तर्भावात् ।
अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित, इस प्रकार अवधि
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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ज्ञान छह प्रकारका है। कोई अवधिज्ञान सूर्यप्रकाशके समान अवधिज्ञानीके यहां वहां जानेपर भी पीछे पीछे चला जाता है। जैसे कि अधिक व्युत्पन्न विद्वान्का ज्ञान सर्वत्र उसके पीछे चला जाता है, वह अनुगामी है । दूसरा अननुगामी अवधिज्ञान तो अवधिज्ञानीके पीछे पीछे यहां वहां सर्वत्र नहीं जाता है, वहां ही पड़ा रहता है, जैसे कि सन्मुख हो रहे पुरुषके प्रश्नोंका उत्तर देनेवाले पुरुषके वचन वहां ही क्षेत्रमें रहे आते हैं । प्रश्नकर्ता सन्मुख आवे, तब तो उत्तर सूझ जाता है। दूसरे प्रकारसे बुद्धि कार्य नहीं करती है । अनिष्णात विद्वान्की व्युत्पत्ति स्वाध्यायकालमें विद्यालयमें बनी रहती है। विद्यालयसे बाहिर बाजार, श्वसुरालय, मेला आदिमें उसकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। तीसरी वर्द्धमान अवधि तो वनमें फैल रहे अधिक सूखे तिनके, पत्तोंमें लगी हुयी अग्निके समान बढ़ती चली जाती है । पहिली जितनी अवधि उत्पन हुयी थी, उसकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन, चारित्र, आदि गुणोंकी विशुद्धि के योगसे वह बढती हुयी चली जाती है, जैसे कि सदाचारी, व्यवसायी प्रतिभाशाली, विद्यार्थीकी व्युत्पत्ति अनुदिन बढती चली जाती है। चौथी हीयमान
अवधि तो तृण आदिके दब हो चुकनेपर घट रही अग्निशिखाके समान जितनी उत्पन्न हुयी • थी, उससे घटती ही चली जाती है, जैसे कि मन्दव्यवसायी, झगडालु, कृतघ्न, असदाचारी
छात्रकी व्युत्पत्ति प्रतिदिन हीन होती जाती है । पांचवीं अवस्थित अवधि जितनी उत्पन्न हुयी थी, उतनी ही बहुत दिनोंतक बनी रहती है । श्रीअकलंकदेवने अवस्थित अवधिका दृष्टान्त लिङ्ग यानी पुरुष चिहका दिया है । सो, ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे अधिक मोटा शरीर हो जानेपर अथवा अधिक पतला शरीर हो जानेपर भी पुरुष चिह्नमें मांसकृत वृद्धि या हानि नहीं हो जाती है। अथवा धूम आदि ज्ञापकहेतुमें अग्नि आदि साध्योंके प्रतिद्वान कराने में कोई न्यूनता या अधिकता नहीं हो जाती है। जैसे कि कोई मनमौजी, निश्चिन्त, विद्यार्थी बहुत दिनोंतक भी पढते पढाते दुये अपने ज्ञानको घटा बढा नहीं पाता है। छट्टा अनवस्थित अवधिज्ञान तो सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी हानि और वृद्धिके योगसे घटता बढता रहता है । अव्यवस्थित बुद्धिवाले, सदाचारी, परिश्रमी, किन्तु क्षणिक उद्देश्यवाले, छात्रकी व्युत्पत्ति अनवस्थित रहती है । इस प्रकार छह भेदवाला ही अधिज्ञान माना गया है । समीचीन प्रतिपात और अप्रतिपात इन दो भेदोंका इन्हीं छह भेदोंमें अन्तर्भाव कर दिया जाता है। बिजुलीके प्रकाश समान प्रतिपात होनेवाला प्रतिपाती है। और गुणश्रेणीसे नहीं गिरनेत्राला ज्ञान अप्रतिपाती है। कठिन रोग, मद्यपान, तीव्र असदाचार, बडा मारी कुकर्म, आदिसे किसी छात्रकी व्युत्पत्ति एकदम गिर जाती है। शास्त्रीय कक्षा उत्तीर्ण हो चुके छात्रको प्रवेशिकाकी पुस्तकें भी विस्मृत हो जाती हैं । तथा कोई कोई तीव्र क्षयोपशमवाला विद्यार्थी पहिलेसे ही किसी भी श्रेणीमें कभी नहीं गिरता है। उत्तरोत्तर चढता ही चला जाता है। उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणीके प्रतिपाती और अप्रतिपाती संयमोंके साथ एकार्थसमवायसम्बन्ध हो जानेसे अवधिज्ञान भी तैसा हो जाता है। अथवा अवधिज्ञानका भी साक्षात् प्रतिपात अप्रतिपात लगा सकते हो।
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
देशावधिः परमावधिः सर्वावधिरिति च परमागमप्रसिद्धानां पूर्वोक्तयुक्त्या सम्भावितानामत्रोपसंग्रहात् ।
देशावधि, परमावधि, और सर्वावधि इस प्रकार परमदेवाधिदेव अंतिसर्वज्ञकी आम्नायसे चले आरहे आगममें प्रसिद्ध हो रहे भेदोंका भी इन्हीं भेदोंमें यथायोग्य (करीब करीब ) संग्रह हो जाता है । अतीन्द्रिय पदार्थीको साधनेवाली पूर्वमें कहीं गयीं युक्तियोंकरके देशावधि आदि भेदोंकी सम्भावना की जा चुकी है । उनके सद्भावका कोई बाधक प्रमाण निश्चित नहीं है। असम्भवद्वाधकत्वादस्तित्यसिद्धिः । देशावधिका जघन्य अंश मनुष्य तियंचोंमें पाया जाता है। अन्य मनुष्य, तिच, अथवा नारकी, सामान्य देव, ये देशावधिके मध्यम अंशोंके स्वामी हैं । देशावधिका उत्कृष्ट अंश तो मुनियों के पाया जाता है । देशावधि द्वारा एक समय कम पल्यकालके आगे पीछेकी बातोंका और तीन लोकमें स्थित हो रहे रूपीद्रव्योंका देश प्रयक्ष हो जाता है । देशावधिका जघन्य क्षेत्र या काल तो उत्सेधाङ्गुलके असंख्पातवें भाग और आवलीके असंख्यातवें भाग भूतभविष्य हैं। मध्यम योगसे उपार्जित किये गये औदारिकके विनसोपचयसहित संचित नोकर्मद्रव्यमें लोक प्रदेशोंका भाग देनेपर जो मोटा स्कन्धपिण्ड लब्ध आता है, उतने द्रव्यको जघन्य देशावधि ज्ञान जान लेता है। और उत्कृष्ट देशावधि तो कार्मण वर्गणामें एक बार ध्रुवहारका भाग देनेपर जो छोटा टुकडा लब्ध आता है, उसको जानती है । इससे कोटे टुकडेको देशावधि नहीं जान पाती है । जघन्यदेशावधि कालके असंख्यात भाग पर्यायोंको भावकी अपेक्षा जानती है । और उत्कृष्ट देशावधिज्ञान द्रव्यके असंख्यात लोकप्रमाण पर्यायोंका प्रयक्ष कर लेता है । इसके आगेके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको परमावधि जानता है। सर्वावधिका विषय और भी बढा हुआ है । चरमशरीरी मुनिमहाराजके परमावधि और सर्वावधिज्ञान होते हैं।
कुतः पुनरवधिः कश्चिदनुगामी कश्चिदन्यथा सम्भवतीत्याह ।
क्या कारण है कि फिर कोई तो अवविज्ञान अनुगामी होता है ? और कोई उसके भेद अन्य प्रकारसे यानी अवस्थित, अनवस्थित, आदि रूपकरके सम्भव रहे हैं ! बताओ । देशावधिके अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, ये छह भेद हैं। और परमावधिके अनुगामी, अननुगामी, बर्द्धमान, अवस्थित, ये चार भेद हैं। तथा सर्वावधिके अनुगामी, अननुगामी अवस्थित ये तीन भेद हैं ! प्रतिपाती और अप्रतिपाती ये भेद भी यथायोग्य जोडे जा सकते हैं। इस प्रकार शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
विशुद्धयनुपमात्पुंसोऽनुगामी देशतोऽवधिः । परमावधिरप्युक्तः सर्पावधिरपीदृशः ॥ ११ ॥
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आत्माके अवधिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम करके उत्पन्न हुयी विशुद्धिका अनुगम करनेसे एक देशसे हुयी देशावधि भी अनुगामी हो जाती है। और परमावधि भी सूर्यप्रकाश समान मात्माका अनुगम करनेवाली अनुगामी मानी मयी है । तथा इसी प्रकार सर्वावधि भी अनुगामी हो रही है। अर्थात्-तीनों प्रकारकी अवधियोंका मेद अनुगामी है। यों हेतुपूर्वक सिद्धि कर दी गयी है।
विशुद्धयनन्वयादेषोऽननुगामी च कस्यचित् । तद्भवापेक्षया प्राच्यः शेषोऽन्यभववीक्षया ॥ १२ ॥
क्षयोपशमजन्य आत्मप्रसादस्वरूप विशुद्धिका अन्वयरूप करके गमन नहीं करनेसे यह अवधि किसी किसी जीवके अननुगामी होती है । तिन तीन प्रकारके अवधि ज्ञानोंमें पहिलादेशावधिजान तो उसी भवकी अपेक्षासे अननुगामी कहा जाता है । अर्थात्-किसी किसी जीवके हुआ देशावधिज्ञान उस स्थानसे अन्य स्थानपर साथ नहीं पहुंचता है । या उस जन्मसे दूसरे जन्ममें नहीं पहुंच पाता है। तथा चरमशरीरी संयमाके पाये जानेवाले शेष बचे हुये परमावधि और सर्वावधि तो अन्य भवकी अपेक्षा करके अननुगामी हैं । अर्थात्-सर्वावधि परमावधि ज्ञानियोंकी उसी भव मोक्ष हो जाने के कारण अन्य भवोंका धारण नहीं होनेसे वे दो अवधिज्ञान अननुगामी हैं। यों तो वे उसी जन्ममें संयमीके उत्पन्न होकर बारहवें गुणस्थानतक पाये जा सकते हैं ।
वर्द्धमानोऽवधिः कश्चिद्विशुद्धवृद्धितः स तु । देशावधिरिहाम्नातः परमावधिरेव च ॥ १३ ॥
विशुद्धि और सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी वृद्धि हो जानेसे कोई कोई वह अवधि तो वर्द्धमान कही जाती है । तिनमें देशावधि और परमावधि ही यहां वर्द्धमान मानी गयों हैं । क्योंकि देशावधिके जघन्य अंशसे लेकर उत्कृष्ट अंशोंतक वृद्धियां होती हैं। तथैव तैजस्कायिक जीवोंकी अवगाहनाओंके भेदोंके साथ तैजसकायिक जीवराशिका परस्पर गुणा करनेसे जितना लब्ध आता है, उतने असंख्यात लोकप्रमाण परमावधि के द्रव्य अपेक्षा भेद हैं और क्षेत्रकालकी अपेक्षासे भी असंख्यात भेद हैं । अतः परमावधि भी बढरही सन्ती वर्द्धमान है, किन्तु सर्वावधिका भेद · पर्द्धमान नहीं है। वह अवस्थित है।
हीयमानोऽवधिः शुद्धेीयमानत्वतो मतः । स देशावधिरेवात्र हानेः सद्भावसिद्धितः ॥ १४ ॥
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी हानि और संक्केश परिणामोंकी वृद्धि तथा क्षयोपशमविशेषजन्य विशुद्धिकी न्यूनता हो जानेसे अवधिज्ञान हीयमान माना गया है। इन तीनों अवधिज्ञानों में विशुद्धि हानिके सद्भावकी सिद्धि हो जाने से वह देशावधि ही एक हीयमान हो रही आम्नायसे चली आ रही है। बढ़ते हुये चारित्र गुणवाले मुनि महाराजोंके परमावधि और सर्वावधि होती हैं । अतः ये हीयमान नहीं हैं ।
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अवस्थितोऽवधिः शुद्धेरवस्थानान्नियम्यते । सर्वोङ्गिनां विरोधस्याप्यभावान्नानवस्थितेः ॥ १५ ॥
कोई अवधि तो सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके और क्षयोपशमजन्य विशुद्धिके उतनाका उतना ही अवस्थान बना रहनेसे अवस्थित हो रही नियत की जाती है। यह अवस्थित भेद जीवोंके हो रहे सभी तीनों अवधिज्ञानों में घटित हो जाता है। विरोध दोष होने का भी यहां अभाव है । सर्वावधि में तो अनवस्थितिका सर्वथा निषेध है । तथा अवस्थित हो रही देशावधि, परमावधि में भी अवस्थितिका निषेध है । अतः तीनों ही अवस्थितमेदवाळीं हैं।
विशुद्धेरनवस्थानात्सम्भवेदनवस्थितः ।
स देशावधिरेवैकोऽन्यत्र तत् प्रतिघाततः ॥ १६ ॥
चित्रको उपयोगी भीतिकी विशुद्धिके समान क्षयोपशमजन्य आत्माकी विशुद्धिका अनवस्थान हो जानेसे अवधिका अनवस्थित भेद सम्भवता है । उनमें यह देशावधि ही एक अनवस्थित है । अन्य दो अवधियोंमें उस अनवस्थितिका प्रतिघात | विशेष यह कहना है कि किन्हीं किन्हीं आचार्योंने परमावधिका भी भेद अनवस्थित मान लिया है ।
प्रोक्तः सप्रतिपातो वाऽप्रतिपातस्तथाऽवधेः । सोऽन्तर्भावममीष्वेव प्रयातीति न सूत्रितः ॥ १७ ॥
उक्त छह भेदोंके अतिरिक्त तिसी प्रकार प्रतिपात सहितपना और प्रतिपातरहितपना ये दो भेद भी अवधिज्ञान के श्री अकलंकदेवने बढिया कहे हैं । किन्तु ये भेद इन छह भेदोंमें ही भले प्रकार अन्तर्भावको प्राप्त हो जाते हैं। इस ही कारण सूत्रकारने अवधिके आठ भेदोंका सूत्र द्वारा सूचन नहीं किया है ।
विशुद्धेः प्रतिपाताप्रतिपाताभ्यां सप्रतिपाताप्रतिपाती ह्यवधीषट्स्वेवान्तर्भवतः । अनुगाम्यादयो हि केचित् प्रतिपाताः केचिदमतिपाता इति ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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आत्माकी निर्मलता के प्रतिपात और अप्रतिपात करके प्रतिपातसहित और प्रतिपातरहित हो रहे दो अवधिज्ञान के भेद तो इन छह भेदोंमें ही गर्भित हो जाते हैं । कारण कि अनुगामी आदिक छहों भेद कोई तो प्रतिपाती है, और कोई अनुगामी आदिक मेद प्रतिपातरहित हैं । यहांतक अवधिज्ञानको कहनेवाला प्रकरण समाप्त हुआ ।
इस सूत्रका सारांश |
इस " क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् " सूत्रमें प्रकरण इस प्रकार हैं कि प्रथम ही दूसरे अवधिज्ञान के बहिरंगकारण और स्वामी तथा भेदोंका निरूपण करनेके लिये सूत्रका कहना आवश्यक बताकर संयम, देशसंयमको मनुष्य तिर्यचोंके होनेवाले अवधिज्ञानका बहिरंगकारण सिद्ध किया है। चौथे गुणस्थानसे अवधिज्ञानका प्रारम्भ है । अतः कषायोंका उपशमभाव चौथेमें मी थोडा मिल जाता है । पहिले दूसरे गुणस्थान में हो रहे विभंगज्ञानमें भी नारकियोंकी अपेक्षा कुछ मन्दकषाय हैं । संज्ञीके पर्याप्त अवस्था में ही विभंग होता है। तीसरे मिश्रगुणस्थान में अवधि और विमंगसे मिला हुआ मिश्रज्ञान है । वहां भी बहिरंगकारण सम्भवजाता है । सूत्रकार ने श्लेषयुक्त " क्षयोपशम " शब्द दिया है । अतः सभी भेदप्रमेदसहित चार ज्ञानोंके अन्तरंगकारण स्वकीय ज्ञानावरण के क्षयोपशमका निरूपण कर दिया है । इस सूत्र में दोनों ओर " एवकार लगा सकते हो और दोनों ओर एवकार नहीं लगानेपर भी विशेष प्रयोजन सध जाता है । अवधिज्ञानोंके यथायोग्य छह भेदोका लक्षण बनाकर प्रतिपात और अप्रतिपातको इन छहों में अन्तर्भाव कर सूत्रकारकी विद्वत्ता की परममहत्ताको श्रीविद्यानन्द स्वामीने प्रकाश दिया है । जब कि प्रतिपात और अप्रतिपात ये दो भेद छहों भेदों में सम्भव रहे हैं तो छहसे अतिरिक्त दो भेद बढाकर अवधि के आठ भेद करना तो उचित नहीं है । जैसे कि संसारी जीवोंके कायकी अपेक्षा वनस्पति, और ये छइ भेदकर पुनः पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद बढाकर आठ भेद करना अयुक्त है । जब कि छड़ों कार्यों में पर्याप्त और अपर्याप्त भेद सम्भव रहे हैं । अतः पर्याप्त, अपर्याप्तकों जिस प्रकार छहों भेदोंमें गर्भित कर लिया जाता है, या छह पर्याप्त और छह अपर्याप्त इस प्रकार बारह भेद कर व्युत्पत्ति लाभ कराया जाता है, उसी प्रकार यहां भी छह ही भेदकर प्रतिपात और अप्रतिपातको इनमें ही गर्भित कर लेना चाहिये । देशावधि, परमावधि सर्वावधिके छह, चार और तीन भेद हैं । श्री राजवार्तिककारने अनवस्थित मेदको परमावधि में भी स्वीकार किया है । जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टरूपसे विषयोंका ग्रहण करना विवक्षित होनेपर अनवस्थित भेद वहां सम्भवता होगा। यहांतक अवधिज्ञानका प्रकरण समाप्त कर दिया है । स्वविशुद्धिविवृद्धिहानितो नुगाम्यादिविकल्पमाश्रितः ॥ प्रतिपक्षविनाशतो भवेत् नृतिरश्चां गुणहेतुकावधिः ॥ १ ॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु,
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
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अवधिज्ञानका प्ररूपण कर अब अवसर संगति अनुसार क्रमप्राप्त मनःपर्ययज्ञानका प्रतिपादन करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अप्रिम सूत्रस्वरूप मुक्ताफलको स्वकीय मुख- सम्पुटसे निकालकर प्रकाशित करते हैं।
ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥ २३ ॥ ऋजुमति और विपुलमति इस प्रकार दो भेदवाला मनःपर्ययज्ञान होता है। सरलतापूर्वक अथवा मन, वचन, कायके द्वारा किये गये चिंतित अर्थाका प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञान ऋजुमति है। तथा सरल और वक्र अथवा सब प्रकारके त्रियोग द्वारा किये गये या नहीं किये गये चिंतित, अचिंतित अर्धचिंतित अर्थाका प्रत्यक्ष करनेवाला बान विपुलमति मनःपर्यय है ।
नन्विह बहिरंगकारणस्य भेदस्य च ज्ञानानां प्रस्तुतत्वान्नेदं वक्तव्यं ज्ञानभेदकारणा प्रतिपादकत्वादित्यारेकायामाह।
शिष्यकी शंका है कि यहां प्रकरणमें ज्ञानोंके बहिरंग कारण और भेदोंके निरूपण करनेका प्रस्ताव चला आ रहा है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अधिज्ञानमें इसी प्रकारके प्रस्ताव अनुसार निरूपण हो भी चुका है। अतः मनःपर्यय ज्ञानके स्वरूपका प्रतिपादक यह सूत्र भला क्यों कहा जा रहा है ! ज्ञानके भेद और बहिरंग कारणों का प्रतिपादक तो यह सूत्र नहीं है । अतः यहाँ प्रकरणमें यह सूत्र नहीं कहना चाहिये, इस प्रकार आशंका होनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी स्पष्ट समाधान कहते हैं । सो अनन्यमनस्क होकर सुनो।
मनःपर्ययविज्ञानभेदकारणसिद्धये । प्राहवित्यादिकं सूत्रं स्वरूपस्य विनिश्चयात् ॥ १॥
सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजने यह " ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः " सूत्र यहाँ ज्ञानके स्वरूपका निश्चय करनेके लिए नहीं कहा है । मनःपर्यय ज्ञानके स्वरूपका विशेष निश्चय तो " मतिश्रुतावधिःमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् " इस सूत्रमें कहे गये मनःपर्यय शब्दकी निरुक्तिसे. भले प्रकार करा दिया गया है। किंतु यहां मनःपर्ययज्ञानके भेद और बहिरंगकारणोंकी प्रसिद्धि करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराज " ऋविपुल " इत्यादिक सूत्रको बहुत अच्छा कह रहे हैं ।
न हि मनःपर्ययज्ञानस्वरूपस्य निश्चयार्थमिदं सूत्रमुच्यते यतोऽप्रस्तुतार्थ स्यात् । तस्य मत्यादिसूत्रे निरुक्त्यैव निश्चयात् । किं तर्हि । प्रकृतस्य बहिरंगकारणस्य भेदस्य प्रसिद्धये समारभते ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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इसकी टीका यों हैं कि मनःपर्ययज्ञानके स्वरूपका निश्चय करानेके लिए यह सूत्र नहीं कहा जा रहा है, जिससे कि प्रकरणके प्रस्तावमें प्राप्त हो रहे अर्थको प्रतिपादन करनेवाला यह सूत्र नहीं हो सके । अर्थात्-यह सूत्र प्रस्तावप्राप्त प्रकरणके अनुसार ही है । उस मनःपर्ययके स्वरूपका निश्चय तो “ मतिः स्मृतिः " आदि सूत्रमें निरुक्ति करके ही कह दिया जा चुका है। मनःपर्यय बानावरण कर्मके क्षयोपशम आदिक अन्तरंग, बहिरंगोंको निमित्तकारण पाकर परकीय मनोगत अर्थको चारों ओर से आलम्बनकर आत्माके जो ज्ञान होता है, यह मनःपर्ययका स्वरूप है। तो फिर यहां कोई पूछे कि सूत्रकारने यह सूत्र किस लिये बनाया ! इसका उत्तर यह है कि प्रकणमें निरूपण किये जा रहे बहिरंगकारण और भेदकी प्रसिद्धि कराने के लिये यह सूत्र अच्छे ढंगसे भारम्भा जा रहा है।
ऋज्वी मतिर्यस्य स ऋजुपतिः । विपुला मतिर्यस्य स विपुलमतिः । ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च ऋजुविपुलमती । एकस्य मतिशदस्य गम्यमानत्वाल्लोप इति व्याख्याने का सा ऋज्वी विपुला च मतिः किंपकारा च मतिशवेन चान्यपदार्थानां वृत्तौ कोऽन्यपदार्थ इत्याह ।
जिसकी बुद्धि ऋजु सरल बनायी गयी है वह मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति है, और जिसकी बुद्धि कुटिल भी बहुतसे अर्थोको जाननेवाली है, वह विपुलमति है । ऋजुमति शब्द और विपुल. मतिशद्ध दो का इतर इतर योग करनेपर " ऋजुविपुलमति " इस प्रकार द्वन्द्व समासमें पद बन जाता है । दो मति शब्दों से एक मति शब्द का अर्थ विना बोले ही जान लिया जाता है । अतः समास नियम अनुसार एक मति शब्दका लोप हो जाता है। इस प्रकार सूत्रके उद्देश्यदलका व्याख्यान करनेपर प्रश्न हो सकता है कि वे ऋजु और विपुल नामकी बुद्धियां कौनसी हैं ? और कितने भेदवाली हैं ? तथा मति शब्द के साथ ऋजु विगुलमति शद्वोंकी अन्य पदार्थोको प्रधान करने वाली बहुव्रीहि नामक समास वृत्ति हो जानेपर बताओ कि वह अन्य पदार्थ कौन हैं ! जो कि ऋजुमति और विपुलमतिका वाध्य पडेगा । इस प्रकार कई जिज्ञासायें खडी करनेपर श्रीविद्यानंद आचार्य यथार्थ उत्तर कहते हैं।
निवर्तितशरीरादिकृतस्यार्थस्य वेदनात् ।
ऋज्वी निर्वर्तिता त्रेधा प्रगुणा च प्रकीर्तिता ॥२॥
ऋजु शब्दका अर्ध बनाया गया और सरल यों दोनों प्रकार अच्छा कहा गया है। सरलता पूर्वक काय, वचन, मन, द्वारा किये गये परकीय मनोगत अर्थका सम्वेदन करनेसे ऋजुमति तीन प्रकारकी कही गई है । अर्थात् -अपने या दूसरेके द्वारा सरकतापूर्वक शरीरसे किये गये, वचन
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से वोले गये, और मनसे चीते गये अर्थको यदि कोई जीव मनमें विचार ले तो ऋजुमति मन:पर्यय उस मनमें चिंते गये पदार्थका ईहामतिज्ञानपूर्वक विकलप्रत्यक्ष कर लेता है । सरल और किया गयापन, इन दोनों अर्थोको घटितकर मन, वचन, काय, की अपेक्षासे ऋजुपातिके तीन भेद हो जाते हैं । जो कि मनमें चीते गये, ऋजुकायकृत अर्थको जाननेषाळा, मनमें चीते गये ऋजुवाक्कृत अर्थको जाननेवाला और मनमें चीते गये ऋजुमनस्कृत अर्थको जाननेवाला ये तीन भेद हैं । अनिर्वर्तितकायादिकृतार्थस्य च वेदिका ।
विपुला कुटिला षोढा वक्रर्जुत्रयगोचरा ॥ ३ ॥
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तथा काय, वचन, मन, इनसे किये गये परकीय मनोगत विज्ञानसे नहीं बनाई गई होकर सरल या कुटिल अथवा बहुतसे शरीर आदि कृत अर्थोको जाननेवाली मतितोला है । वह वक्र और सरलस्वरूपसे मन, वचन, काय, इन तीनों के द्वारा किये गये मनोगत विषयोंको जानती हुयी वह छह प्रकारकी है ।
एतयोर्मतिशद्वेन वृत्तिरन्यपदार्थिका ।
कैश्चिदुक्ता स चान्योऽयों मनःपर्यय इत्यन् ॥ ४ ॥ द्वित्वप्रसंगतस्तत्र प्रवक्तुं धीधनो जनः ।
न मनः पर्ययो युक्तो मन:पर्यय इत्यलम् ॥ ५ ॥
इन ऋजु और त्रिल शब्दों की मति शब्द के साथ की गई अन्य पदार्थको प्रधान कहनेवाली
अन्यपदार्थ तो मन:पर्ययज्ञान
जिस मन:पर्यय ज्ञानकी मति
बहुब्रीहि समास नामक वृत्ति किन्हीं विद्वानोंने कहीं है । और वह पडता है । अर्थात् - जिस मन:पर्यय ज्ञानकी मति ऋजु है और विपुला है, वह ऋजुमति विलपति मन:पर्यय हैं, यों विग्रह किया गया है । आचार्य सिद्धान्त करते हैं कि इस प्रकार उन विद्वानोंका कहना प्रशंसनीय नहीं है । क्योंकि यों वृत्ति करनेपर वहां मन:पर्यय शब्द में द्विवचन हो जानेका प्रसंग होगा। जैसे कि जिस पुरुषका धन बुद्धि है, वह बुद्धिधनो जनः 66 या बीधनः " है । यहां उद्देश्य दलके अनुसार जन शब्द एकवचन है । अतः अन्य पदार्थ हो रहे, मन:पर्यय ज्ञानके साथ वृत्ति करनेपर विधेयदलमे " मनःपर्ययः "
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इस प्रकार एकवचन कहना युक्त नहीं पडेगा । किन्तु " मन:पर्ययौ " यह कहना उस वृत्तिद्वारा अर्थ करने में समर्थ होगा । क्योंकि दो मन:पर्यय ज्ञानोंकी ऋजुमति और विपूलमति दो मतियां हैं ।
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66
यदात्वन्य पदार्थों स्तस्तद्विशेषौ बलाद्वतौ ।
सामान्यतस्तदेकोऽयमिति युक्तं तथा वचः ॥ ६ ॥
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जब वे दो विशेष अन्य पदार्थ उस सामान्य एक मन:पर्ययकी शक्तिसे ही जान लिये गये मानलोगे तब तो तिस कारण यह मन:पर्यय शब्द तिस प्रकार एकवचन भी सामान्यरूपसे प्रयुक्त करना युक्त है । अतः बहुव्रीहि समास करनेपर भी एकवचन इस ढंग से रक्षित रह सकता है, कोई क्षति नहीं है ।
सामानाधिकरण्यं च न सामान्यविशेषयोः । प्रबाध्यते तदात्मत्वात्कथंचित्संप्रतीतितः ॥ ७॥
२५
यहां कोई यदि यों शंका करे कि " ऋजुविपुलमती " तो द्विवचन पद है और " मन:पर्ययः " शद्व एकवचन है । अतः इनका समान अधिकरणपना नहीं बनेगा । किन्तु उद्देश्य विधेयदल में समान विभक्तिवाले, समान लिंगवाले, समान वचनवाले, शब्दोंका ही सामानाधिकरण्य वन सकता है । अत्र आचार्य कहते हैं कि यह शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि सामान्य और विशेषमें हो रहा समानाधिकरणपना किसी भी प्रमाणसे बाधित नहीं होता है। क्योंकि सामान्य और विशेषोंका कथंचित् तदात्मकपना होने के कारण समान अधिकरणपना मले प्रकार प्रतीत हो रहा है । "मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानि ज्ञानम्" अथवा "साधोः कार्यं तपः श्रुते" " आये परोक्षम् " 66 यूयम् प्रमाणम् " आदि प्रयोगों में बाधारहित होकर समानाधिकरणपना है। सामान्य प्रायः एक वचन और विशेष प्रायः द्विवचन बहुवचन हुआ करते हैं ।
येsयाहुः । ऋजुश्व विपुला च ऋजुविपुले ते च ते मतीति च स्वपदार्थ वृत्तिस्तेन ऋजुविपुलमती विशिष्टे परिच्छिन्ने मन:पर्यय उक्तो भवतीति तद्भेदकथनं प्रतीयत इति तेषामप्यविरोधमुपदर्शयति ।
जो भी कोई विद्वान् यो समास वृत्ति कर कह रहे हैं कि ऋजु और विपुला इस प्रकार इतर इतर योग करनेपर ऋजुविपुले बनता है । और वे ऋजुविपुलावरूप जो मति हैं, इस प्रकार अपने ही पदके अर्थोको प्रवान रखनेवाली द्वन्द्वगर्भित कर्मधारय वृत्ति की गयी है । और तिस1 प्रकार करनेसे विशिष्ट हो रहे ऋजुपति और विधुलमतिज्ञान जाने जा रहे संते मनःपर्यय कथन कर दिये गये हो जाते हैं । यो उद्देश्यदलमें उस द्विवचन द्वारा मेदकथन करना प्रतीत हो रहा है । इस प्रकार कह रहे उन विद्वानोंके यहां भी जैनसिद्धान्त अनुसार कोई विरोध नहीं आता है । इस
स्वयं प्रत्यकार श्री विद्यानन्द स्वामी कुछ दिखला रहे हैं ।
स्वपदार्था च वृत्तिः स्यादविरुद्धा तथा सति । विशिष्टे हि मतिज्ञाने मनःपर्यय इष्यते ॥ ८ ॥
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
तिस प्रकार उक्त कथन अनुसार समास वृत्ति करते संते भी स्वपदार्थप्रधाना कर्मधारयवृत्ति अवरुद्ध हो जावेगी । और तैसा होनेपर विशिष्ट हो रहे दो मन:पर्ययस्वरूप ऋजुमति और त्रिपुलमतिनामक मतिज्ञान तो एक मन:पर्यय इस विधेयदल के साथ अन्वित इष्ट कर लिये हैं ।
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यथर्जुविपुलमती मन:पर्ययविशेषौ मन:पर्ययसामान्येनेति सामानाधिकरण्यमविरुद्धं सामान्यविशेषयोः कथंचित्तादात्म्यात्तथा संप्रतीतेश्च तद्वदृजुविपुलमती ज्ञानविशेषौ मन:पर्यययोज्ञानमित्यपि न विरुध्यते मनःपर्ययज्ञानभेदाप्रतिपत्तेः प्रकृतयोः सद्भावाविशेषात् ।
जिस प्रकार ऋजुमति और विपुलमति ये मन:पर्ययज्ञानके दो विशेष उस प्रकरणप्राप्त मन:पर्यय सामान्य के साथ इस प्रकार समान अधिकरणपनेको प्राप्त हो रहे बिरुद्ध नहीं हैं। क्योंकि एक सामान्य और कतिपय विशेषोंको कथंचित् तदात्मकपना हो जानेसे तिस प्रकार दो एक में या तीन एकमें अथवा एक तीनमें, एक दो आदिमें सामानाधिकरण्य भले प्रकार निर्णीत हो रहा है । उसीके समान ऋजुमति और विपुलमति ये जो दो ज्ञानविशेष हैं, वे एक मन:पर्ययज्ञान है । इस प्रकार भी कथन करनेपर कोई विरोध प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि मन:पर्ययज्ञान सामान्य करके भेदकी प्रतिपत्ति नहीं होनेका सद्भाव इन प्रकरणप्राप्त ऋजुमति, मिति दोनों में विद्यमान है । कोई अन्तर नहीं है । मनुष्यत्वको अपेक्षा से ब्राह्मण, शूद्र, श्रायमें 1 कोई अन्तर नहीं है । शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष में चन्द्रिका बरोबर है। आगे पीछे मात्र होने से जब शुक्ल, काला पक्ष कह देते हैं ।
"
कथं बाह्यकारणप्रतिपत्तिरत्रेत्याह ।
यहां कितने ही सूत्रोंमें ज्ञानके बाह्यकारणोंका विचार चला आ रहा है। तदनुसार आपने मन:पर्ययज्ञानके बहिरंगकारणोंकी इस सूत्रद्वारा प्रसिद्ध होना कहा था, सो आप बतलाइये कि यहां बहिरंगकारणोंकी प्रतिपत्ति किप्त प्रकार हुयी ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर विद्यानंदस्वामी उत्तर कहते हैं ।
परतोऽयमपेक्षस्यात्मनः स्वस्य परस्य वा । मनःपर्यय इत्यस्मिन्पक्षे बाह्यनिमित्तवित् ॥ ९ ॥
अपने अथवा दूसरे के मनकी अपेक्षा रखता हुआ यह मनःपर्षय ज्ञान अन्य बहिरंगकारण मनसे उत्पन्न होता है । इस प्रकार इस व्युत्पत्तिके पक्ष में ( होनेपर ) बहिरंग निमित्तकारणकी ज्ञप्ति हो जाती है ।
मनःपरीत्यानुसंधाय वायनं मन:पर्यय इति व्युत्पत्तौ बहिरंगनिमित्तकोऽयं मनःपर्यय इति बाह्यनिमित्तप्रतिपत्तिरस्य कृता भवति ।
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तरवार्थचिन्तामणिः
मनः+परि+इण+घञ्+सु मनः ( मनःस्थित ) का अनुसंधानकर जो प्रत्यक्ष जानता है, वह मन:पर्यय है । इस प्रकार व्युत्पत्ति करनेपर जिसका बहिरंग निमित्तकारण मन है, ऐसा यह मन:पर्ययज्ञान है । इस ढंगसे इस मन:पर्यय ज्ञानके बहिरंग निमित्तकी प्रतिपत्ति कर की गयी है । न मतिज्ञानतापत्तिस्तस्यैवं मनसः स्वयं । निर्वर्त्तकत्ववैधुर्यादपेक्षामात्रतास्थितेः ॥ १०
इस प्रकार मनस्वरूपनिमित्तसे उत्पन्न होनेके कारण उस मन:पर्यय ज्ञानको मतिज्ञानपनेका प्रसंग हो जायगा, यह आपत्ति देना ठीक नहीं है । क्योंकि मानस मतिज्ञानको मन स्वयं बनाता है । किन्तु मन:पर्ययज्ञानका सम्पादन करनापना मनको प्राप्त नहीं है । केवल मनकी अपेक्षा है । अपेक्षामात्र से स्थित हो रहे मनको मानसमतिज्ञानके समान मनःपर्ययका सम्पादकपना नहीं है । शुक्लपचकी प्रतिपदा या द्वितीयाका पतला चन्द्रमा जब स्थूल दृष्टिवालेको नहीं दीखता है तो चतुर पुरुषकरके शाखा या दो बादलों के बीच में से वह चन्द्रमा दिखा दिया जाता है। यहां शाखा या बादल अपेक्षणीय मात्र हैं । प्रेरककारण नहीं हैं । इसी प्रकार स्वकीय या परकीय मनका अवलंब 1 लेकर प्रत्यक्ष ज्ञान कर किया जाता है । जैसे कि किसी फूल फल आदिका तुच्छ सहारा लेकर फलित ज्योतिषवाले विद्वान् भूत, भविष्यकी अनेक बातोंको आगमद्वारा बता देते हैं । अतः जिस ज्ञानमें मन प्रेरक होकर अंतरंग कारण है, वह मानसमतिज्ञान है । मनकी केवल अपेक्षा हो जानेसे मन:पर्यय में मन कारण नहीं हो सकता है । बाह्यकारण भले ही मानलो । अध्ययनमें पुस्तक - कारण है । चौकी कारण नहीं है, भले ही पुस्तक रखनेके लिए चौकीकी अपेक्षा होय तो इससे क्या होता है ।
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क्षयोपशममा बिभ्रदात्मा मुख्यं हि कारणं । तत्प्रत्यक्षस्य निर्वृत्तौ परहेतुपराङ्मुखः ॥ ११ ॥
उस मन:पर्यय प्रत्यक्षज्ञानकी उत्पत्ति करने में मुख्य कारण तो मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशमको सब ओरसे धार रहा आत्मा ही है । जो कि आत्मा अन्य इन्द्रिय, मन, ज्ञापक लिंग, व्याप्ति, संकेतस्मरण आदि दूसरे कारणोंसे पराङ्मुख हो रहा है । अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानकी उत्पत्ति में प्रतिबंधकोंसे रहित होता हुआ, केवल आत्मा ही कारण माना गया अनुभूत है । " अक्षं अक्षं प्रति " इति प्रत्यक्षं, केवल आत्माको कारण मानकर जो ज्ञान उपजता है, वह प्रत्यक्ष है ।
मनो लिङ्गजतापत्तेर्न च तस्यानुमानता । प्रत्यक्षलक्षणस्यैव निर्वाधस्य व्यवस्थितेः ॥ १२ ॥
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तत्वार्थश्लोकवार्तिक
व्याप्तिसहित हो रहे धूमसे उत्पन्न हुआ वह्निका ज्ञान जैसे अनुमान है, उसी प्रकार दूसरेके मनरूपी व्याप्त लिंगसे जन्यपनेका प्रसंग हो जानेसे उस मन:पर्ययज्ञानको अनुमानपना प्राप्त हो जाय, यह भी नहीं समझना। क्योंकि लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरणपूर्वक मन:पर्ययज्ञान नहीं हुआ है। किन्तु बाधाओंसे रहित होते हुये प्रत्यक्ष प्रमाणके लक्षणकी ही मन:पर्ययमें समीचीन व्यवस्था हो रही है । " इन्द्रियानिंद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षं arrar " प्रतितराव्यवधानेन विशेषतया वा प्रतिभासनं शदं प्रत्यक्षम् " तथा "अक्षमात्मानमेव प्रतिनियतं प्रत्यक्ष" ये प्रत्यक्षके लक्षण बाधारहित होते हुए मन:पर्ययमें घटित हो जाते हैं । परोक्ष हो रहे मानसमतिज्ञानमें उक्त लक्षण 1 नहीं सम्भवते हैं । सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका लक्षण एक भले ही किसी किसी तीव्र सुख, दुःख, उत्कट अभिलाषा प्रकृष्टज्ञान, आदि व्यावहारिकका प्रत्यक्ष करनेमें घट जाय, किन्तु अनेक अर्थपर्यायों और धर्म अधर्म द्रव्योंके हो रहे परोक्ष मानसमतिज्ञानोंमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका लक्षण नहीं वर्तता है । दूसरी बात यह है कि मुख्य प्रत्यक्षों में व्यवहार प्रत्यक्षके लक्षण घटाने की हमें कोई आवश्यकता नहीं दीखती है । प्रत्यक्षके दो सिद्धांत लक्षण यहां मनःपर्ययमें पुष्ठ घटित हो जाते हैं ।
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नन्वेवं मनःपर्ययशब्दनिर्वचन सामर्थ्यात्तद्वाह्यप्रतिपत्तिः कथमतः स्यादित्याह ।
पुन: किसीकी शंका है कि इस प्रकार मन:पर्यय शद्वकी इस निरुक्तिके बलसे ही उस मन:पर्यय के बाह्य कारणों की प्रतिपत्ति भला कैसे हो जायगी ? बताओ । क्या व्याघ्र या कुशलशद्वका निर्वचन कर देनेसे ही उनके बहिरंगकारणोंकी इप्ति हो जाती है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज वार्तिक द्वारा उत्तर कहते हैं ।
यदा परमनः प्राप्तः पदार्थों मन उच्यते । तात्स्थ्यात्ताच्छ्ब्द्यसंसिद्धेर्मंचक्रोशनवत्तदा ॥ १३ ॥ तस्य पर्ययणं यस्मात्तद्वा येन परीयते ।
स मन:पर्ययो ज्ञेय इत्युक्तेस्तत्स्वरूपवित् ॥ १४ ॥
जिस समय पराये मनमें प्राप्त हो रहा पदार्थ " मन " ऐसा कहा जाता है । क्योंकि तत् में
रहा है । जैसे कि " मञ्चाः
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या बगीचों में पशु, पक्षियोंके शद्व करनेपर मचानोंका शद्व
स्थित हो रहे होने के कारण तत् शद्ववना भले प्रकार सिद्ध हो क्रोशन्ति मचान गा रहे हैं, या चिल्ला रहे हैं, यहां खेतों में भगाने, उडाने के लिये बांध लिये गये मंचोंपर बैठे हुये मनुष्योंके करना व्यवहृत हो रहा है। आखेट करनेवाले पुरुष वनमें भी वृक्षोंपर मचान बांधकर शद मचाते हैं। यहां मंचस्थ में मंचका व्यपदेश है । बम्बई में होनेवाले केलाको बम्बई केछा कह देते हैं । I 'चा रहनेवाले यात्रियोंके डेरेको चावलीका डेरा कह देते हैं । तदनुसार यहां भी मनमें स्थित
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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हो रहे पदार्थको मन कहकर उस मनका जिस ज्ञानसे विशदरूप करके प्रत्यक्ष कर लेना जब मनःपर्यय कहा जा रहा है, तब वह मन बाह्यकारण जान लिया जाता है । अथवा जिस ज्ञान करके वह मन ( मनः स्थित अर्थ ) चारो ओरसे जान लिया गया है, वह मनःपर्ययज्ञान समझने योग्य है । इस प्रकार कथन करनेसे उस बहिरंगकारण मनके स्वरूपकी समीचीन वित्ति हो जाती है । अतः मनःपर्यय शब्दकी षष्ठी तत्पुरुष अथवा बहुव्रीहि वृत्ति द्वारा निरुक्ति करनेपर मनको बहिरंगकारणपना जान लिया जाता है । सभी शब्दोंकी निरुक्तिसे ही उनके वाच्यार्थीका बहिरंग कारण बात नहीं हो जाता है । फिर भी काययोग, वालतप, औपशमिक, आदि शब्दोंकी निरुक्तिसे अन्तरंग, बहिरंग, कारण कुछ कुछ धनित हो जाते हैं । सूत्रकार द्वारा कहे शब्दोंकी अकलंकवृत्तियां तो अनेक अर्थोको वहींसे निकाल लेती हैं।
इस सूत्रका सारांश । इस सूत्रके प्रकरण यों हैं कि प्रथम ही क्रमप्राप्त मनःपर्ययके भेद और बहिरंगकारणोंका निरूपण करनेके लिये सूत्रका परिभाषण आवश्यक बताकर ऋजुमति, विपुलमति शब्दोंका विग्रह किया है । तथा अन्वयार्थको बताकर निर्वर्तित अनिवर्तित अथवा ऋजु, बक्र, अर्थकर ऋजुमति, विपुलमति शब्दद्वारा ही मनःपर्ययके भेदोंका लक्षण कर दिया गया है । मिन पचन होते हुये भी सामानाधिकरण्य बन सकता है । सामान्यका विशेषोंके साथ तादात्म्य सम्बन्ध है । अन्यपदार्थप्रधान बहुव्रीहि और स्वपदार्थप्रधान तत्पुरुष समास यहां ये दोनों वृत्तियां इष्ट हैं । मनःपर्ययका प्रधानकारण क्षयोपशमविशिष्ट आत्मा है, दूसरेका या अपना मन तो अवलंब मात्र है । बहिरंगनिमित्त भले ही कहलो, नैयायिकोंके समान हम जैन यादद् ज्ञानोंमें आत्ममनःसंयोगको असमवर्ण्यकारण नहीं मानते हैं। मनःपर्ययज्ञानके मतिज्ञानपन और अनुमानपनके प्रसंगका निवारणकर मुख्य प्रत्यक्षपना घटित कर दिया है। उसमें ठहरनेवाला पदार्थ भी उपचारसे वह कह दिया जाता है । तदनुसार मनमें स्थित हो रहे अर्थको विषय करनेवाला ज्ञान मनःपर्यय भले प्रकार साध दिया गया है । ऋजुमति मनःपर्यय सात आठ योजन दूरतकके पदार्थोका विशद प्रत्यक्ष कर लेता है और विपुलमति तो चतुरस्त्र मनुष्यलोकमें स्थित हो रहे पदार्थोको प्रत्यक्ष जान लेता है । कोई जीव यदि मनमें नंदीश्वर द्वीप या पांचवें स्वर्गके पदार्थोका चिन्तवन कर ले तो उनको मन:पर्ययज्ञानी प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है । द्रव्यकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञानी कार्मण द्रव्यके अनन्तमें भाग को जानता है । सर्वावधिके द्वारा कार्माणद्रव्यका अनन्तयां भाग जाना गया था उसका भी अनन्तवा भाग विपुलमति करके जाना जाता है । यह पिण्डस्कन्ध है। किन्तु गोम्मटसारकारने सर्वावधिका द्रव्य अपेक्षा विषय एक परमाणु मान लिया है । इस सूक्ष्म चर्चाका निर्णय करनेमें अस्मादृश मन्द
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तत्त्वाखोकवार्तिके
बुद्धियोंको अधिकार प्राप्त नहीं है। इसका विशेष वर्णन अन्य ग्रंथों में किया है। इस प्रकार मनःपर्ययके स्वरूप, भेद, बहिरंगकारणोंका निर्णय कर उसका प्रदान कर लेना चाहिये ।
द्रव्यक्षेत्रमुकालभावनियतो बाचं निमित्तं मनोपेक्षामात्रमितस्तदाश्रितसतस्ताच्छब्द्यनीत्या विदन । निर्वृत्तपगुणर्जुबुद्धिकुटिलानिवृत्तवैपुल्यभृब्दुदीदर्शनऋद्धिसंयमवतो जीयान्मनापर्ययः ॥१॥
अग्रिम सूत्रका अवतरण यो समलिया जाय कि इन ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्यय शानोंमें परस्पर कोई विशेषता नहीं है ! इस प्रकार शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महारा. जके अमृतमय मुखकुम्भसे रसायनसमान सूत्रबिन्दुका संतप्त हृदय भव्यजीवोंके संसाररोग निवारणार्य निष्कासन होता है।
विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥
आत्माके साथ पहिलेसे बंधे हुये मनःपर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर जो आत्माकी प्रसन्नता होती है, वह विशुद्धि है तथा मोहनीयकर्मका उद्रेक नहीं होनेके कारण संयमशिखरसे प्रतिपात नहीं हो जाना अप्रतिपात है । विशुद्धि और अप्रतिपात इन दो धर्मो करके उन ऋजुमति
और विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानोंका विशेष है । ज्ञानावरणकर्मको उत्तर उत्तर प्रकृतियां असंख्यात हैं। अतः अन्तरंगकारणके अधीन हो रही ऋजुमतिकी विशुद्धतासे विपुलमतिकी विशुद्धि बढी हुयी है । विजुलमति गुणश्रेणियोंमें उत्तरोत्तर चढता ही चला जाता है। किन्तु ऋजुमतिका गुणश्रेणीसे अधोगुणस्थानमें पतन हो जाता है, उपशमश्रेणीसे गिरना अनिवार्य है।
ननु ऋजुविपुलमत्योः स्ववचनसामर्थ्यादेव विशेषप्रतिपत्तेस्तदर्थमिदं किमारभ्यत इत्याशंकायामाह ।
किसीकी शंका है कि ऋजुमति और विपुलमति ज्ञानोंके अपने अपने न्यारे न्यारे अर्थोके अभिधायक वचनोंकी सामर्थ्यसे ही दोनोंके विशेषोंकी प्रतिपत्ति हो चुकी थी। निरुक्ति द्वारा लभ्य अर्थ ही जब अन्तर डाल रहा है तो फिर उस विशेषकी ज्ञप्ति कराने के लिये यह सूत्र क्यों बनाया जा रहा है ! पुनरुक्तदोषके साथ व्यर्थपना भी प्रसंग प्राप्त होता है । इस प्रकार आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर कहते हैं।
मनःपर्यययोरुक्तभेदयोः स्ववचोवलात् । विशेषहेतुसंविचौ विशुद्धीत्यादिसूत्रितम् ॥१॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
यद्यपि सरल या सम्पादित और सरल, कुटिल, सम्पादित, असम्पादित, मनोगत विषयोंको जाननेकी अपेक्षा अपने वाचक ऋजु और विपुल शद्बोंकी सामर्थ्यसे निरुक्तिद्वारा ही दोनों मनःपर्ययोंके परस्पर भेद कहे जा चुके हैं, फिर भी उन दोनोंकी अन्य विशेषताओंके कारणोंका सम्वेदन करानेके निमित्त " विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः " यह सूत्र श्री उमास्वामी महाराजने आरब्ध किया है।
नर्जुपतित्वविपुलमतित्वाभ्यामेवर्जुविपुलमत्योर्विशेषोऽत्र प्रतिपाद्यते । यतोनर्थकमिदं स्यात् । किं तर्हि विशुद्धयातिपाताभ्यां तयोः परस्परं विशेषान्तरमिहोच्यते ततोऽस्य साफल्यमेव ।
इस वार्तिकका विवरण यों है कि ऋजुमतिपन और विपुलमतिपन करके ही ऋजुमति और विपुलमतिका विशेष ( अन्तर ) यहां सूत्र द्वारा नहीं समझाया जा रहा है, जिससे कि यह सूत्र व्यर्थ पड जाय। तो फिर क्यों कहा जाता है ? इसका उत्तर यों है कि विशुद्धि और अप्रतिपात करके भी उन ऋजुमति और विपुलमति ज्ञानोंका परस्परमें नवीन प्रकारका दूसरा विशेष है, जो कि यहां इस सूत्रद्वाला कहा जा रहा है । तिस कारण श्री उमास्वामी महाराज द्वारा कहे गये इस सूत्रकी सफलता ही समझो अर्थात् -दोनोंके पूर्व उक्त विशेषोंसे भिन्न दूसरे प्रकारके विशेषोंको यह सूत्र कह रहा है।
का पुनर्विशुद्धिः कथाप्रतिपातः को वानयोर्विशेष इत्याह ।।
फिर किसीका प्रश्न है कि विशुद्धि तो क्या पदार्थ है ? और अप्रतिपात क्या है ! तथा इनका विशेष क्या है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्दस्वामी उत्तर कहते हैं।
आत्मप्रसत्तिरत्रोक्ता विशुद्धिर्निजरूपतः। प्रच्युत्य संभवश्वास्याप्रतिपातः प्रतीयते ॥२॥ ताभ्यां विशेष्यमाणत्वं विशेषः कर्मसाधनः ।
तच्छद्वेन परामर्शो मनःपर्ययभेदयोः ॥३॥
इस प्रकरण में प्रतिपक्षी कोके विगमसे उत्पन्न हुयी आत्माकी प्रसन्नता ( स्वच्छता ) तो विशुद्धि मानी गयी है । और इस आत्माका अपने स्वरूपसे प्रच्युत नहीं हो जाना यहां अप्रतिपात धर्म प्रतीत हो रहा है । उन धर्मोके द्वारा विशेषताओंको प्राप्त हो रहापन यह विशेष कहा गया है। क्योंकि यहां वि उपसर्गपूर्वक शिषधातुसे कर्ममें घञ्प्रत्यय कर विशेष शब्द साधा गया है। तद्विशेषःमें कहे गये पूर्वपरामर्शक तत् शब्द करके मनःपर्ययवानके ऋजुमति और विपुलमति इन दो भेदोंका परामर्श किया गया है । इस प्रकार सूत्रका वाक्यार्थ बोध बच्छा बन गया। .
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
तयोरेवर्जुविपुलपत्योर्विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां विशेषोऽवसेय इत्यर्थः।
ऋजुमति और विपुलमति नामक उन मनःपर्ययके भेदोंका ही विशुद्धि और अप्रतिपात करके विशेष किया जाना निर्णीत कर लेना चाहिये । " तयोरेव विशेषः " इस प्रकार अवधारण लगाकर अर्थ किया गया समझो।
ननूत्तरत्र तद्भेदस्थिताभ्यां स विशिष्यते । विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां पूर्वस्तु न कथंचन ॥४॥ इत्ययुक्तं विशेषस्य द्विष्ठत्वेन प्रसिद्धितः । विशिष्यते यतो यस्य विशेषः सोऽत्र हीक्षते ॥५॥
सूत्रके प्रसिद्ध हो रहे अर्थपर किसीकी शंका है कि पूर्वसूत्रमें “ ऋविपुलमती " शब्द द्वारा कहा गया वह विपुलमति ही उत्तर सूत्रमें उनके भेद करनेमें स्थित हो रहे विशुद्धि और अप्रतिपातकरके विशेषित किया जा सकता है । किंतु पहिला ऋजुमति तो किसी भी प्रकारसे विशुद्धि और अप्रतिपात करके विशेषित नहीं किया जा सकता है। जैसे कि सत्स्वरूप करके घटसे पटको भिन्न माना जायगा तो एक पटको ही असत्पना प्राप्त होता है । धट तो अक्षुण्ण सत बना रहता है । इसी प्रकार विशुद्धि और अप्रतिपात ये सूत्र पाठकी अपेक्षा और वैसे भी स्वभावसे विपुलमतिके तदात्मक धर्म हैं । ऋजुमतिके नहीं । अतः विपुलमति तो विशेष युक्त हो जायगा । किन्तु ऋजुमति विशेषताओंसे रहित पडा रहेगा । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार शंका करना अयुक्त है । क्योंकि संयोग विभाग द्वित्व त्रित्व संख्याक समान विशेष पदार्थ भी दो आदि अधिकरणोंमें स्थित हो रहेपन करके प्रसिद्ध हो रहा है। आम और अमरूदकी विशेषता दोमें रहती है। विभाग किया जाय, जिससे अथवा जिसका विभाग किया आय, इस निरुक्तिकरके विभाग विचारा ग्राम और देवदत्त दोनोंमें रह जाता है। इसी प्रकार जिससे जो विशेषित किया जाय वह अथवा जिस पदार्थका विशेष होय यह विशेष है, यह ढंग यहां अच्छा दीख रहा है । अतः विपुलमति
और ऋजुमति दोनों परस्परमें विशुद्धि, अप्रतिपात द्वारा विशेषसे आक्रान्त हो जायेंगे । भले ही एक ऋजुमतिमें वे धर्म नहीं पाये जावें, तभी तो विशेषताको पुष्टि भी होगी । यदि वे धर्म दोनोंमें पाये जाते तो फिर विशेषता क्या होती ! कुछ भी नहीं । वैशेषिक मतानुसार द्वित्व या त्रित्वसंख्या एक होकर भी पर्याप्त संबंधसे दो तीन द्रव्योंमें ठहर जाती है। किन्तु संयोग, द्वित्व, त्रिव आदि गुण विचारे न्यारे न्यारे होकर सत्य न्यायसम्बन्धसे भिन्न भिन्न द्रव्योंमें ठहरते हैं । शाखापर वन्दरका संयोग हो जानेपर अनुयोगितासम्बन्धसे संयोग शाखामें रहता है । और प्रतियोगितासम्बन्धसे संयोग कपिमें ठहरता है।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
पाठापेक्षयोत्तरो मनःपर्ययस्य भेदो विपुलमतिस्तदताभ्यां विशुद्धयातिपाताभ्यां स एव पूर्वस्मात्त दाहजुमतेविशिष्यते न पुनः पूर्वउत्तरस्मास्कयमपीत्ययुक्तं विशेषस्यो. भस्थत्वेन प्रसिद्धः। यतो विशिष्यते स विशेषो यश्च विशिष्यते स विशेष इति व्युत्पत्तेः। विशुद्धयातिपाताभ्यां चोत्तरतद्भेदगताभ्यां पूर्वो यथोत्तरस्माद्विशिष्यते तथा पूर्ववद्भेदगाभ्यामुत्तर इति सर्व निरवचं।
सूत्रके पाठकी अपेक्षासे उत्तरमें वर्त रहा मनःपर्ययका भेद विपुलमति है । उस विपुलमतिमें प्राप्त हो रहे विशुद्धि और अप्रतिपातकरके वह विपुलमति ही पूर्ववर्ती उस मन:पर्ययके भेद ऋजुमतिसे विशेषताको प्राप्त हो सकेगा। किन्तु फिर पूर्ववर्ती ऋजुमति तो उत्तरवर्ती विपुलमतिसे कैसे भी विशेषताको प्राप्त नहीं हो सकता है। इस प्रकार किसीका कहना युक्तियोंसे रीता है। कारण कि विशेषकी दोनोंमें ठहरनेवालेपन करके प्रसिद्धि हो रही है। जिससे विशेषताको प्राप्त होता है, यह पंचमी विभक्तिवाला भी विशेष है, और जो पदार्थ विशिष्ट हो रहा है, वह प्रथमा विभक्तिवाला पद भी विशेष है । इस प्रकार विशेष पदको व्युत्पत्ति करनेसे प्रतियोगी, अनु. योगी दोनोंमें रहनेवाले दोनों विशेष पकडे जाते हैं । जिसकी ओरसे विशेषता आती हैं, वह और जिस पदार्यमें विशेषता आकर बैठ जाती है, वे दोनों पदार्थ परस्परमें किसी विवक्षित धर्मद्वारा विशेषसे घिरे हुये माने जाते हैं। उस मनःपर्ययके उत्तरवर्ती मेदस्वरूप विपुलमतिमें प्राप्त हो रहे विशुद्धि और अप्रतिपात करके जिस प्रकार पूर्ववर्ती ऋजुमति विशेषित कर दिया जाता है, उसी प्रकार उस मनःपर्ययके पूर्ववर्ती भेद ऋजुमतिमें प्राप्त हो रहे, प्रतियोगितावच्छिन विशुद्धि और अप्रतिपातके उन अल्पविशुद्धि और प्रतिपात करके उत्तरवर्ती विपुलमति भी विशेषित हो जाता है। इस प्रकार सभी सिद्धान्त निर्दोष होकर सध जाता है । चेतनपनेकरके जीव जडसे भिन्न है । यहां जड और जीव दोनोंमें भेद ठहर जाता है। क्योंकि अचेतनपने करके जड भी जीवसे भिन्न है। यह अर्थात्-मापन्न हो जाता है।
ननु चर्जुपतेविपुलमतिर्विशुद्धया विशिष्यते तस्य ततो विशुद्धतरत्वान्मनःपर्यय. ज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षादुत्पन्नत्वात् । अप्रतिपातेन च तत्स्वामिनामपतिपतितसंयमत्वेन सत्संयमगुणैकार्थसमवायित्वेन विपुलमतेरपतिपाताद्विपुलमतेस्तु कथमृजुमतिर्विशिष्यते ? वाभ्यामिति चेत्स्वविशुध्याल्ल्या प्रतिपातेन चेति गम्यताम् । विपुलपत्यपेक्षयर्जुमतेरल्प विशुदित्वात्तत्स्वामिनामुपशान्तकषायाणामपि सम्भवत्मतिपतसंयमगुणैकार्थसमवायिनः प्रतिपातसम्भवादिति प्रपंचितमस्माभिरन्यत्र ।
उक्त सिद्धान्तोंमें किसीकी शंका है कि ऋजुमतिसे विपुलमति तो विशुद्धिद्वारा विशेषित किया जा सकता है। क्योंकि उस विपुलमतिको उस ऋजुमतिसे अधिक विशुद्धपना है। कारण कि मनापर्यय बानावरणका प्रकर्ष क्षयोपशम हो जानेसे विपुलमति उत्पन्न होता है। सूत्रमें पडी हुयी
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स्वार्थो वार्तिके
विशुद्धिका अर्थ विपुलमतिमें प्राप्त हो रही प्रकृष्ट विशुद्धि की गयी है । तथा अप्रतिपात करके भी विपुलमतिज्ञान उस ऋजुमति से विशेषताग्रस्त है । क्योंकि उस विपुलमति मन:पर्यय ज्ञानके स्वामियोंका बढ रहा संयम पतनशील नहीं है । अतः उस वर्द्धमान संयमगुणके साथ एकार्थसमवाय संधवाला होने के कारण विपुलमतिका प्रतिपात नहीं होता है। अर्थात् - जिसी आत्मामें चारित्र गुणका परिणाम संयम वृद्धिंगत हो रहा है, उसी ऋद्धिप्राप्त आत्मामें चेतना गुणका मन:पर्यय परिणाम हो रहा है । अतः भाईयोंके सहोदरस्य संबंध के समान संयम और मन:पर्ययका परस्पर में एकार्थसमवाय संबंध है । इस संबंध से मन:पर्ययज्ञान संयममें रह जाता है । और संयमगुण इस मन:पर्ययज्ञान में वर्तजाता है। ये सब बातें विलपतिमें ऋजुमतिकी अपेक्षासे विशेषताओंको धरनेके लिये उपयोगी हो रही है । किन्तु मिति ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान तो उन विशुद्धि और अप्रतिपात करके भला कैसे विशेषताओंसे परिपूर्ण हो सकता है ? क्योंकि ऋजुमति तो अधिक विशुद्धि और अप्रतिपात नहीं पाये जाते हैं । अब प्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार प्रविष्ट होकर शंका करनेपर तो सिद्धान्त उत्तर ( वरदान यह है कि अपनी अल्प विशुद्धि और प्रतिपात करके ऋजुमति ज्ञान विपुलमति से विशेषताग्रस्त है । इस प्रका प्रकार अपने चित्तमें अवधारण कर लो । उक्त शंकाका जगत् में इसके अतिरिक्त अन्य कोई उत्तर नहीं है। मीठेपन करके आम्रफल करेलासे विशिष्ट है । ऐसा प्रयोग करनेपर आपाततः दूसरा वाक्य उपस्थित हो जाता है कि करेला कडुत्रेपन करके आम्रफलसे विशिष्ट है । अपादानतावच्छेदक धर्म और प्रतियोगितावच्छेदक धर्म न्यारे न्यारे मानना अनिवार्य हैं । विपुलमतिकी अपेक्षासे ऋजुमतिज्ञान अल्प विशुद्धिवाला है । क्योंकि उस ऋजुमतिके अधिकारी स्वामी भले ही उसे आरम्भकर उपशान्त कषायवाले ग्यारहवें गुणस्थानतक में यथायोग्य ठहरनेवाले हैं । तो भी वहां सम्भव रहे प्रतिपतनशील संयमगुणके साथ एकार्थसमवाय सम्बन्धको धारनेवाले ऋजुमतिका प्रतिपात होना सम्भव रहा है । इस कारण ऋजुमति भी अपनी अल्पविशुद्धि और प्रतिपात करके विमति विशेषताओंको धारकर उच्चग्रीव होकर खडा हुआ है । बडोंसे छोटे पुरुष भी विशिष्ट हो जाते हैं । स्निग्न पेडोंसे रूक्षचणक विलक्षण है । यह सिद्धान्त हमने अन्य विद्यानन्द महोदय आदि ग्रन्थोंमें विस्तार के साथ साथ दिया है । विशेष व्युत्पत्ति चाहनेवालों को वहांसे देखकर सन्तोष कर लेना चाहिये ।
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इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र के भाष्य में प्रकरण यों हैं कि ऋजुमति और विपुलमति शङ्खोंकी निरुक्तिसे जितने विशेष प्रकट हो सकते हैं, उनसे अतिरिक्त भी विशेषोंकी प्रतिपत्ति करानेके लिये सूत्रका आरम्भ करना आवश्यक बताकर विशुद्धि और अप्रतिपातका लक्षण किया है। तत् शद्वसे मन:पर्ययके
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तत्वार्थचिन्तामणिः
दो भेदोंका परामर्श किया गया है। विशेषका रहना दोमें बताकर भी यह शंका खडी रहती है कि ऋजुमतिकी अपेक्षासे विपुलमति तो विशुद्धि और अप्रतिपात करके विशेषाक्रान्त हो जायगा । क्योंकि सूत्रकारने स्वयं विपुलमतिके विशेष धर्मोका कण्ठोक्त प्रतिपादन कर दिया । वक्रता अगाही महान् विबुद्धिके गुणों की विशेषताओंको बडे बडे पुरुष भी वखान देते हैं । किन्तु ऋजुविषयी सरल ऋजुमतिकी विशेषताओंका कंठोक उच्चारण नहीं किया गया है । अतः ऋजुमति विलमतिकी विशेषताऐं तो जान लीं जायगी, किन्तु विपुलमतिसे ऋजुमतिकी विशेषताऐं जानना अशक्य है । इस शंकाका उत्तर श्रीविद्यानन्द आचार्यने बहुत अच्छा दे दिया है । गम्यमान अनेक विषयोंका उच्चारण नहीं करना ही महान् पुरुषोंकी गम्भीरताका प्रद्योतक है । साहित्यवाकोंने “ वक्रोक्तिः काव्यजीवितं " स्वीकार किया है । सिद्धान्त यह है कि सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजके वचनोंमें इतना प्रमेय भरा हुआ है कि राजवार्तिक, लोकवार्तिकसारिखी अनेक टीकायें भी बना की जांय तो भी बहुतसा प्रमेय बच रहेगा। अल्पविशुद्धि और प्रतिपात इन दो धर्मोकर के ऋजुमतिज्ञान भी विपुलमतिसे विशेष विशिष्ट है । ये दोनों मन:पर्ययज्ञान सम्यग्दृष्टी, संयमी तथा ऋद्धियोंको प्राप्त हो चुके किन्हीं किन्हीं वर्द्धमानचारित्रवाळे मुनियोंके होते हैं। श्रेणिओंमें उपयोग आत्मक तो श्रुतज्ञान वर्त रहा है । एकाग्र किये गये अनेक श्रुतज्ञानोंका समुदाय ध्यान पडता है । अतः मोक्ष उपयोगी तो श्रुतज्ञान है । परमावधि, सर्वावधि, ऋजुमति, विपुलमति, इनमें से कोई भी ज्ञान आत्मध्यानमें विशेष उपयोगी नहीं है । रूपी पदार्थका पूर्ण प्रत्यक्ष कर लेनेपर भी हमें क्या लाभ हुआ ? यानी कुछ भी नहीं । किसी किसी केवलज्ञानीको तो पूर्व में अवधि, मन:पर्यय कोई भी प्राप्त नहीं हुये, मात्र श्रुतज्ञानसे सीधा केवलज्ञान हो गया फिर भी इन ज्ञानोंके सद्भावों का निषेध नहीं किया जा सकता है । ऋजुमतिका प्रतिपात होना सम्भवित है । बिपुलमतिका नहीं । अधिक विस्तारको आकर ग्रन्थोंमें देखो ।
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विशुद्धयप्रतिपाताल्पविशुद्धिप्रतिपातनैः । ऋजोर्विपुलश्वेतस्मादृजुर्द्विष्ठेविंशेषितः ॥ १ ॥
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मन:पर्यय के विशेष भेदोंका ज्ञान कर अब अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानकी विशेषताओंकी जिज्ञासा रखनेवाले शिष्योंके प्रति श्री उमास्वामी महाराजके हृदय मंदिर से शब्दमयी सूत्रमूर्तिका अभ्युदय होता है ।
विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्यययोः ॥ २५ ॥
आत्मप्रसाद, ज्ञेयाधिकरण, प्रभु और विषयोंकी अपेक्षासे अवधिज्ञान तथा मन:पर्यय ज्ञानमें विशेष ( अन्तर ) है ।
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
विशेष इत्यनुवर्तते । किमर्थमिदमुच्यते इत्याह ।
ऊपरके " विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः " इस सूत्रमेंसे विशेष इस शब्दकी अनुवृत्ति कर ली जाती है।
श्री उमास्वामी महाराजकरके यह सूत्र किस प्रयोजनको साधनेके लिये कहा जा रहा है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान कहते हैं।
कुतोऽवधेविशेषः स्यान्मनःपर्ययसंविदः । इत्याख्यातुं विशुद्धयादिसूत्रमाह यथागमं ॥१॥
मनःपर्ययज्ञानका अवधिज्ञानसे अथवा अवधिज्ञानका मनःपर्ययज्ञानसे विशेष किन किन विशेषकोंसे हो सकेगा ! इस बातको बखानने के लिये सूत्रकार " विशुद्धिक्षेत्रस्वामि" आदि सूत्रको आर्ष आगमका अतिक्रमण नहीं कर स्पष्ट कह रहे हैं।
विशुद्धिरुक्ता क्षेत्र परिच्छेद्यायधिकरणं स्वामीश्वरो विषय! परिच्छेद्यस्तैर्विशेषो. ऽवधिमनःपर्ययोर्विशेषः।
" विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः " इसमें विशुद्धिका लक्षण कह दिया गया है। जानने योग्य अथवा छन्मस्थोंके अवक्तव्य, अज्ञेय आदि पदार्थोके अधिकरणको क्षेत्र कहते हैं। अधिकारी प्रभु स्वामी कहा जाता है । ज्ञानद्वारा जानने योग्य पदार्थ विषय है। यों उन विशुद्धि आदिकों करके अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इनका परस्परमें विशेष है।
कथमित्याह ।
वह दोनोंका विशेष किस प्रकार है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द भाचार्य षार्तिकोंद्वारा विवेचन करते हैं।
भूयः सूक्ष्मार्थपर्यायविन्मनःपर्ययोऽवधेः । प्रभूतद्रव्यविषयादपि शुद्धया विशेष्यते ॥२॥
बहुतसे द्रव्योंको विषय करनेवाले भी अवधिज्ञानसे बहुतसी सूक्ष्म अर्थपर्यायोंको जाननेवाला मनःपर्ययज्ञान विशुद्धि करके विशेषित कर दिया जाता है । अर्थात्-अवधिज्ञान भले ही बहुतसे द्रव्योंको जान ले. किन्तु द्रव्यकी सूक्ष्म अर्थपर्यायोंको मनःपर्ययज्ञान अधिक जानता है । अवधिज्ञानसे जाने हुये रूपीद्रव्यके अनन्तवें भागको मनःपर्यय जान लेता है । जैसे कि कोई चंचुप्रवेशी विद्वान् थोडा थोडा न्याय, व्याकरण, धर्मशास्त्र, कोष, काव्य, साहित्य, उपदेशकला, लेखनकला, वैधक, ज्योतिष आदिको जान लेता है। किन्तु कोई प्रौढ विद्वान् व्याकरण, न्याय आदिमें से किसी एक ही
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शास्त्रका पूर्णरूप से अध्ययन कर व्याख्यान करता है । इसी प्रकार सर्वावधिका द्रव्य अपेक्षा विषय बहुत है । श्री नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवतीने तो सर्वावधिका द्रव्य एक परमाणु नियत किया है । फिर भी भावकी अपेक्षा बहुतसी अर्थपर्यायोंको विपुलमति जितना जानता है, उतना सर्वाधि नहीं जानता है | अतः अधिक विशुद्धिवाला मन:पर्ययज्ञान अल्पविशुद्धिवाले अवधिज्ञान से विशिष्ट है । ओर न्यून विशुद्धिवाला अवधिज्ञान उस विपुलविशुद्धिवाले मन:पर्ययसे विशेष आक्रान्त है । द्रव्यक्षेत्र अपेक्षा अधिक भी द्रव्योंको जाननेवाले क्षयोपशमसे भावापेक्ष सूक्ष्मपर्यायोंको जाननेवाला क्षयोपशम प्रकृष्ट विशुद्ध है ।
क्षेत्रतोऽवधिरेवातः परमक्षेत्रतामितः ।
स्वामिना त्ववधेः सः स्याद्विशिष्टः संयतः प्रभुः ॥ ३ ॥
क्षेत्रकी अपेक्षासे तो अवधिज्ञान ही इस मन:पर्यय से परम उत्कृष्ट क्षेत्रत्रालेपनको प्राप्त हो रहा है । अर्थात् — सम्भावनीय असंख्यात लोकस्थरूपी पदार्थोंको जानने की शक्तिवाला अवधिज्ञान ही केवल मनुष्य लोकस्थ पदार्थोंको विषय करनेवाले मन:पर्यय से विशेषित है । इस तीन सौ तेतालीस घन रज्जु प्रमाण लोकके समान यदि अन्य भी असंख्याते लोक होते तो वहांके रूपी पदार्थों को भी अवधिज्ञान जान सकता था । किन्तु मन:पर्यय ज्ञान तो केवल चौकोर मनुष्य लोकमें ही स्थित हो रहे पदार्थोंको विषय कर सकता है । अतः क्षेत्रको अपेक्षा अवधिज्ञान ही मन:पर्ययसे प्रकृष्ट है । तथा स्वामीकरके तो वह मन:पर्ययज्ञान ही अवधिज्ञानसे उत्कृष्ट है । क्योंकि अवधिज्ञान तो चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ हो जाता है । चारों गतियोंमें पाया जाता है । किन्तु मन:पर्यय छडेसे ही आरम्भ होकर किसी किसी ऋद्धिधारी मुनिके उत्पन्न होता है । अतः जिसका स्वामी संयमी है, ऐसा मन:पर्ययज्ञान उस असंयमीके भी पायी जानेवाली अवधिसे विशिष्ट है । सर्वावधिक ईश्वरसे भी विपुलमतिका संयमी स्वामी प्रकृष्ट है ।
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विषयेण च निःशेषरूप्यरूप्यर्थगोचरः । रूप्यर्थगोचरादेव तस्मादेतच्च वक्ष्यते ॥ ४ ॥
- सम्पूर्ण रूपी और पुद्गलसे बंधे हुये सम्पूर्ण अरूपी अर्थोको विषय करनेवाला यह मन:पर्ययज्ञान उस रूपी अर्थको ही विषय करनेवाले अवधिज्ञानसे विषयकी अपेक्षा करके विशिष्ट है । अर्थात् - रूपी पुगलकी पर्यायें और अशुद्धजीवकी अरूपी सूक्ष्म अर्थपर्यायोंको मन:पर्यय जितना जानता है, अत्रधिज्ञान उतना नहीं । इस मन्तव्यको हम भविष्य ग्रन्थमें रूपिष्णवधेः " " तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य " इन सूत्रोंके विवरण करते समय स्पष्ट कर कह देवेंगे । पूर्वके समान यहां भी दोनोंमें विषयकी अपेक्षा विशेषसहितपना लगा लेना । क्योंकि विशेष द्विष्ठधर्म है । तथा च विषयकी अपेक्षा उस मन:पर्ययसे यह अवधिज्ञान भी विशिष्ट है ।
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ફૂટ
स्वार्थ लोक वार्तिके
एवं मत्यादिबोधानां सभेदानां निरूपणम् । कृतं न केवलस्यात्र भेदस्याप्रस्तुतत्वतः ॥ ५ ॥ वक्ष्यमाणत्वतश्चास्य घातिक्षयजमात्मनः । स्वरूपस्य निरुक्त्यैव ज्ञानं सूत्रे प्ररूपणात् ॥ ६ ॥
इस प्रकार यहांतक भेदों सहित मति आदिक चार क्षायोपशमिक ज्ञानोंका सूत्रकारने निरूपण कर दिया है । केवळंज्ञानका यहां ज्ञानप्रकरणमें प्ररूपण नहीं किया गया है। क्योंकि यहां ज्ञानके भेदों के व्याख्यान करनेका प्रस्ताव चल रहा था । केवलज्ञानके कोई भेद नहीं है । वह तो तेरहवें गुणस्थानकी आदि जैसा उत्पन्न होता है, उसी प्रकार अनन्तकालतक एकसा बना रहता है । अतः भेद कथन के प्रकरण में केवलज्ञान प्रस्तावप्राप्त नहीं है । रही कारणोंके निरूपण करनेकी बात, सो भविष्य दशमें अध्यायमें आत्माके बातिकर्मोके क्षयसे इस केवलज्ञानका उत्पन्न होना कह दिया जायगा । इस केवलज्ञानके स्वरूप ( लक्षण ) का ज्ञान तो " मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् इस सूत्र में केवलशद्वकी निरुक्ति करके ही प्ररूपित कर दिया गया है । अतः health लक्षण या कारणके कथनका उल्लंघन कर अब दूसरा विषय छेडेंगे ऐसा ध्वनित हो रहा है।
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इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र प्रकरण यों है कि पहिले साधारण बुद्धिवालोंके लिये अतीन्द्रिय हो रहे अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके विलक्षण विशेषोंको प्रदर्शन करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराजका सूत्र कहना सफल बताकर विशुद्धि आदिका लक्षण किया है। तथा विशुद्धिमें मन:पर्ययको अवधि से अधिक विशुद्धिवाला कहा गया है । क्षेत्रकी अपेक्षा अवधि ही मन:पर्ययसे प्रधान है । देशावधिका ही क्षेत्र लोक हो जाता है । परमावधि और सर्वावधि तो असंख्यात लोकों में यदि रूपी पदार्थ ठहर जाय तो उनको भी जान सकती थी । श्री धनंजय कविकी उक्ति है कि " त्रिकालतत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकी स्वामीति संख्यानियतेरमीषां । बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यत् तेन्येपि चेद्व्याप्स्यदमूनमीदम् ॥ हे जिनेंद्रदेव ! तुम तीनों कालके तत्वोंको जान चुके हो, तुम तीनों लोकके स्वामी हो, यह उन काल और लोकोंकी त्रित्वसंख्या के नियत हो जानेसे कह दिया जाता है । ज्ञानका अविपतिपना इतने से ही पर्याप्त नहीं हो जाता है । यदि काल और लोक अन्य भी सैकडों, करोडों, असंख्याते, होते तो तुम्हारा ज्ञान उनको भी द्राक् विषय कर लेता । किन्तु क्या किया जाय, वे हैं ही नहीं । इस लोक- " त्रयमें ज्ञेय अल्प हैं । ज्ञान उत्कृष्ट अनन्तानन्त है । इस प्रकरण में शक्तिकी अपेक्षा अवधिज्ञान भी असंख्यात लोकस्थरूपी पदार्थोंको विषय कर सकता था, कह दिया है । किन्तु असंख्यात लोक हैं ही 1
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नहीं, हम क्या करें | स्वामीकी अपेक्षा मनःपर्ययका स्वामी अभ्यई हो रहा विशेषोंसे युक्त है । मन:पर्यय के विषय सूक्ष्म हैं । अवधिज्ञानके संख्या में अत्यधिक विषय हैं । चार ज्ञानोंके निरूपण अनंतर केवलज्ञानका प्रतिपादन करना प्राप्तकाल है । किन्तु कारणवश उसका उल्लंघन किया जाता है । 1 केवलज्ञानका लक्षण दशमें अध्यायमें किया जायगा । यह बताकर भविष्य में दूसरा प्रकरण उठानेकी सूचना दी है ।
क्षेत्रविशुद्धिस्वामिविषयेभ्यो वधिमनोज्ञयोर्भेदः । अधिकरणात्मप्रसत्तिप्रभुप्रमेयेभ्य आम्नातः ॥ १ ॥
ra ज्ञानका विषय निर्धारण करनेके लिये प्रकरण प्रारम्भकर आदिमें कहे गये मति और श्रुतज्ञानोंकी विषय मर्यादाको कहनेवाला सूत्ररत्न श्री उमास्वामी महाराजके मुख आकरसे उद्योतित होता है ।
मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २६ ॥
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल, इन संपूर्ण छहों द्रव्योंमें तथा इन द्रव्यों की कतिपय पर्यायोंमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय नियत हो रहा है ।
मत्यादिज्ञानेषु सभेदानि चत्वारि ज्ञानानि भेदतो व्याख्याय बहिरंगकारणतश्च केवलमभेदं वक्ष्यमाणकारणस्वरूपमिहाप्रस्तुतत्वात् तथानुक्त्वा किमर्थमिदमुच्यत इत्याह । सामान्यरूपसे मति, श्रुत, आदि ज्ञानोंमें मेदसहित वर्तनेवाले मति, श्रुत, अवधि, और मन:पर्यय, ये चार ज्ञान हैं । इन चारों ज्ञानोंको भेदकी अपेक्षासे तथा बहिरंगकारणरूपसे व्याख्यान कर तथा भेदरहित हो रहे एक ही प्रकार केवलज्ञान के कारण और स्वरूप दोनों भविष्य ग्रन्थमें कहे जायेंगे | अतः यहां प्रस्ताव प्राप्त नहीं होने के कारण तिस प्रकार नहीं कहकर फिर श्री 1 उमास्वामी महाराज द्वारा यह " मतिश्रुतयोः " इत्यादि सूत्र किस प्रयोजनके लिये कहा जा रहा है ? ऐसी तर्क भी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर कहते हैं ।
अथाद्यज्ञानयोरर्थविवादविनिवृत्तये ।
मतीत्यादि वचः सम्यक् सूत्रयन्सूत्रमाह सः ॥ १ ॥
. विषय प्रकरण के प्रारम्भमें ज्ञानोंकी आदिमें कहे गये मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दो
ज्ञानोंके विषयोंकी विप्रतिपत्तिका विशेषरूप से निवारण करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज इस "मतिश्रुतयोर्नबन्ध इत्यादि स्पष्ट कह रहे हैं ।
सूचना करा रहे वे प्रसिद्ध सूत्रस्वरूप समीचीन वचनको
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संपति के मतिश्रुते कश्च निबन्धः कानि द्रव्याणि के वा पर्याया इत्याह ।
अब इस समय सूत्रमें उपात्त किये गये पदोंके अनुसार प्रश्न खडे होते हैं कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान कौन हैं ? और निबन्धका अर्थ क्या है ? तथा द्रव्य कौन है ? अथवा पर्यायोंका लक्षण क्या है ? इस प्रकार प्रश्नमाला होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी एक ही वार्तिक द्वारा उत्तर कहें देते हैं। अधिक झगडेमें कौन पडे ।
मतिश्रुते समाख्याते निबन्धो नियमः स्थितः ।
द्रव्याणि वक्ष्यमाणानि पर्यायाश्च प्रपंचतः ॥२॥ __ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो पूर्वप्रकरणोंमें भले प्रकार व्याख्यान किये गये हो चुके हैं। और निबन्धका अर्थ यहाँ नियम ऐसा व्यवस्थित किया है। द्रव्योंका परिभाषण भविष्य पांचवें अध्यायमें कर दिया जावेगा। तथा पर्यायें भी विस्तारके साथ भविष्य ग्रन्थमें वखान दी जावेंगी। अर्थात्-पतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम होनेपर इन्द्रिय और मनःस्वरूप निमित्तोंसे हो रहा अभिमुख नियमित पदार्थोको जाननेवाला ज्ञान मतिज्ञान है । श्रुतज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर जो सुना जाय यानी अर्थसे अर्थान्तरको जाननेवाला, मतिपूर्वक, परोक्षज्ञान, श्रुतज्ञान है। इस प्रकार मति, श्रुतका विवरण कहा जा चुका है। निबन्धका अर्थ नियत करना या मर्यादामें बांध देना है । जीव आदि छह द्रव्य और उनकी ज्ञान, सुख, रूप, रस, काला, पीला, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहहेतुत्व, वर्तनाहेतुस्त्र आदि सहभावी क्रमभावी पर्यायोंको मूल प्रन्थमें आगे कह दिया जावेगा । सन्तुष्यताम् तावत् ।
- ततो मतिश्रुतयोः प्रपंचेन व्याख्यातयोर्वक्ष्यमाणेषु द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु निबन्धी नियमः प्रत्येतव्य इति सूत्रार्थो व्यवतिष्ठते ।
तिस कारण इस सूत्रका अर्थ यो व्यवस्थित हो जाता है कि विस्तारके साथ व्याख्यान किये जा चुके मतिज्ञान श्रुतज्ञानोंका भविष्य ग्रन्थमें कहे जानेवाले विषयभूत सम्पूर्ण द्रव्योंमें और असंपूर्ण माने कतिपय पर्यायोंमें निबन्ध यानी नियम समझ लेना चाहिये ।
विषयेष्वित्यनुक्तं कथमत्रावगम्यत इत्याह । -
इस सूत्रों " विषयेषु " यह शब्द नहीं कहा है तो फिर अनुक्त वह शब्द भला किस प्रकार समक्ष लिया जाता है ! यह बताओ, ऐसा प्रश्न हो उठनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी उत्तर कहते हैं।
पूर्वसूत्रोदितश्चात्र वर्तते विषयध्वनिः । केवलोऽर्थाद्विशुद्धयादिसहयोगं श्रयन्नपि ॥ ३॥
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इस सूत्र के पूर्ववत "विशुद्धिक्षेत्रस्त्रामिविषयेभ्यो ऽधिमनः पर्यययोः " सूत्रमें कण्ठद्वारा कहा गया विषय शब्द यहां अनुवर्तन कर लिया जाता है । यद्यपि वह विषय शब्द " विशुद्धि, क्षेत्र " आदिके साथ सबको प्राप्त हो रहा है, तो भी प्रयोजन होनेसे विशुद्धि आदिक और पंचमी विभक्ति रहित होकर केवल विषय शब्दकी ही अनुवृत्ति कर ली जाती है। अर्थात् - एकयोगनिर्दिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सह वा निवृत्तिः", एक संबंधद्वारा जुडे हुये पदार्थों की एक साथ प्रवृत्ति होती है, अथवा सबकी एक साथ ही निवृत्ति होती है । इस नियम के अनुसार विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामि, इन तीन पदोंके साथ इतरेतरयोग- भावको प्राप्त हो रहा विषय शब्द अकेला नहीं खींचा जा सकता है । फिर भी प्रयोजनवश " कचिदेकदेशोऽप्यनुवर्तते " इस ढंग से अकेला विषय शब्द ही अनुवृत्त किया जा सकता है । " देवदत्तस्य गुरुकुलं " यहां गुरुकुलमें सहयोगी हो रहे, अकेले गुरुपदको आकर्षित कर देवदत्त को वहां अन्वित कर दिया जाता है ।
विशुद्धिक्षेत्र स्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्यययोरित्यस्मात्सूत्रात्तद्विषय शब्दोऽत्रानुवर्तते । कथं स विशुध्यादिभिः सहयोगमा श्रयन्नपि केवलः शक्योऽनुवर्तयितुं १ सामर्थ्यात् । तथाहि - न तावद्विशुद्धेरनुवर्त्तनसामर्थ्य प्रयोजनाभावात् तत एव न क्षेत्रस्य स्वामिनों वा सूत्रसामर्थ्याभावात् ।
" विशुद्धिक्षेत्रस्त्रामिविषयेभ्योऽधिमनः पर्यययोः " इस प्रकार इस सूत्र से वह विषय शत्रू यहां अनुवृत्ति करने योग्य हो रहा है। इसपर कोई प्रश्न करे कि विशुद्धि, क्षेत्र, आदिके साथ संबंध का आश्रयकर रहा भी विषय शब्द केवळ अकेला ही कैसे अनुवर्तित किया जा सकता है ! बताओ, तो इसका उत्तर यों है कि पहिले पीछेके पदों और वाध्य अर्थकी सामर्थ्य से केवल विषय शब्द अनुवर्तनीय हो जाता है। इसी बातको विशदकर दिखलाते हैं कि सबसे पहिले कही गयी विशुद्धिकी अनुवृत्ति करने की तो यहां सामर्थ्य प्राप्त नहीं है । क्योंकि प्रकरणमें विशुद्धिका कोई प्रयोजन नहीं है और तिस ही कारण यानी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होनेसे क्षेत्रकी अथवा स्वामी शब्दकी भी अनुवृत्ति नहीं हो पाती है । सूत्रकी सामर्थ्य के अनुसार ही पदोंकी अनुवृत्ति हुआ करती है । किन्तु यहां विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी, इन पदोंकी अनुवृत्ति करनेके लिए सूत्रकी सामर्थ्य नहीं है । " समर्थः पदविधिः ” अतः केवल विषय शब्द ही यहां सूत्रकी सामर्थ्य से अनुवृत्त किया गया है ।
नन्वेवं द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु निबन्धन इति वचनसामर्थ्याद्विषयशब्दस्यानुवर्त्तने विषयेविति कथं विषयेभ्य इति पूर्वे निर्देशा तथैवानुवृत्तिप्रसंगादित्याशंका यामाह ।
यहां शंका उपजती है कि इस प्रकार तो द्रव्यों में और असर्वपर्यायों में मतिश्रुतोका निबन्ध हो रहा है। इस प्रकार वचनकी सामर्थ्य से विषयशब्दकी अनुवृत्ति करनेपर " विषयेषु 39 ऐसा सप्तमी विभक्तिका बहुवचनान्तपद कैसे खींचकर बनाया जा सकता है ? क्योंकि पूर्वसूत्र में तो
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" विषयेभ्यः " ऐसा पंचमी विभक्तिका बहुवचनान्तपद कहा गया है। उसकी तिस ही प्रकार पंचम्यन्त विषय शब्दकी अनुवृत्ति हो जानेका प्रसंग प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं । इस प्रकार माशंका होनेपर आचार्यमहाराज उत्तर कहते हैं।
द्रव्येष्विति पदेनास्य सामानाधिकरण्यतः । तद्विभक्त्यन्ततापत्तेर्विषयेष्विति बुध्यते ॥४॥
इस विषय शब्दका " द्रव्येषु " इस प्रकार सप्तमी विभक्तिवाले पदके साथ समान अधिकरणपना हो जानेसे उस सप्तमी विभक्तिके बहुवचनान्तपनेकी प्राप्ति हो जाती है । इस कारण "विषयेषु" इस प्रकार विषयोंमें यह अर्थ समझ लिया जाता है।
किं पुनः फळं विषयेष्विति सम्बन्धस्येत्याह । पुनः किसीका प्रश्न है कि " विषयेषु " इस प्रकार खींचतानकर सप्तम्यन्त बनाये गये पदके सम्बन्धका यहां फल क्या है ! इस प्रकार प्रश्न होनेपर आचार्य महाराज समाधिवचन कहते हैं।
विषयेषु निबन्धोऽस्तीत्युक्ते निर्विषये न ते ।
मतिश्नुते इति ज्ञेयं न चानियतगोचरे ॥५॥
मतिज्ञान श्रुतज्ञानोंका द्रव्य और कतिपयपर्यायस्वरूप विषयोंमें नियम हो रहा है । इस प्रकार कथन करचुकनेपर वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान दोनों विषयरहित नहीं हैं, यह समझ लिया जाता है। अथवा दूसरा प्रयोजन यह भी है कि नियत नहीं हो रहे, चाहे जिस किसी भी पदार्थको विषय करनेवाले दोनों ज्ञान नहीं हैं । किन्तु उन दोनों ज्ञानोंका विषय नियत हो रहा है। भावार्थतत्वोपाळववादी या योगाचार बौद्ध अथवा शून्यवादी विद्वान् ज्ञानोंको निर्विषय मानते हैं। घट, पट, नीला, खट्टा, अग्नि, व्याप्ति, वाच्यार्य आदिके झानों में कोई बहिरंग पदार्थ विषय नहीं हो रहा है। स्वप्नज्ञान समान उक्त ज्ञान भी निर्विषय हैं। अथवा कोई कोई विद्वान् मतिश्नुतज्ञानोंके विष. योंको नियत हो रहे नहीं स्वीकार करते हैं। उन दोनों प्रकारके प्रतिवादियों का निराकरण करनेके लिये उक्त सूत्र कहा गया है । जिसमें कि विषयपदकी पूर्वसूत्रसे अनुवृत्तिकर सामर्थ्यसे विषयेषु ऐसा सम्बन्ध कर लिया गया है।
तर्हि द्रव्येष्वसर्वपर्यायेष्विति विशेषणफळं किमित्याह ।
तो फिर अब यह बताओ ! कि विषयेषु इस विशेष्यके दव्येषु और असर्वपर्यायेषु इन दो विशेषणोंका फल क्या है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर वाचार्य महाराज समाधान कहते हैं।
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पर्यायमात्रगे नैते द्रव्येष्विति विशेषणात् ।
द्रव्यगे एव तेऽसर्वपर्यायद्रव्यगोचरे ॥ ६॥ .
विषयोंका द्रव्येषु इस प्रकार पहिला विशेषण लगा देनेसे ये मतिज्ञान श्रुतज्ञान दोनों केवळ पर्यायोंको ही जाननेवाले नहीं है, यह बात सिद्ध हो जाती है । अर्थात्-मतिबान और श्रुतज्ञान दोनों ये द्रव्योंको भी जानते हैं । बौद्धोंका केवल पर्यायोंको ही मानने या जाननेका मन्तव्य ठीक नहीं हैं । विना द्रव्यके निराधार हो रही पर्याय ठहर नहीं सकती हैं। जैसे कि भीत या कागजके विना चित्र नहीं ठहरता है। तथा वे मति श्रुतज्ञान द्रव्योंमें ही प्राप्त हो रहे हैं, यामी द्रव्योंको ही जानते हैं, पर्यायोंको नहीं, यह एकान्त भी प्रशस्त नहीं है । क्योंकि असर्वपर्यायेषु ऐसा दूसरा विशेषण भी लगा हुआ है । अतः कतिपय पर्याय और सम्पूर्ण द्रव्य इन विषयोंमें नियत हो रहे मतिकान श्रुतज्ञान है, यह सिद्धान्त निकल आता है।
एतेष्वसर्वपर्यायेष्वित्युक्तेरिष्टनिर्णयात् । तथानिष्टौ तु सर्वस्य प्रतीतिव्याहतीरणात् ॥७॥
इन कतिपय पर्यायस्वरूप विषयोंमें मतिश्रुतज्ञान नियत हैं। इस प्रकार कह देनेसे इष्ट पदार्थका निर्णय हो जाता है । अर्थात् -इन्द्रियजन्यज्ञान, अनिन्द्रियजन्यज्ञान, मतिपूर्वक श्रुतज्ञान ये ज्ञान कतिपय पर्यायोंको विषय कर रहे हैं, यह सिद्धान्त सभी विचारशाली विद्वानोंके यहाँ अभीष्ट किया है । यदि तिस प्रकार इन दो ज्ञानों द्वारा कतिपय पर्यायोंका विषय करना इष्ट नहीं किया जायगा, तो सभी वादी-प्रतिवादियोंके यहाँ प्रतीतियोंसे व्याघात प्राप्त होगा, इस बातको हम कहे देते हैं।
मतिश्रुतयोर्ये तावद्वारार्थानालम्बनस्वमिच्छन्ति तेषां प्रतीतिन्याहतिं दर्शयमाह ।
जो वादी सबसे आगे खडे होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका बहिरंग अर्थीको आलम्बन नहीं करनेवालापन इच्छते हैं, उनके यहां प्रतीतियोंसे आ रहे स्वमतव्याघात दोषको दिखलाते हुये आचार्य महाराज कहते हैं सो सुनो।
मत्यादिप्रत्ययो नैव बाह्यार्थालम्बनं सदा । प्रत्ययत्वाद्यथा स्वप्नज्ञानमित्यपरे विदुः ॥८॥ तदसत्सर्वशून्यत्वापत्तेर्बाह्यार्थवित्तिवत् । खान्यसंतानसंविचेरभावाचदभेदतः ॥ ९ ॥
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मति आदिक ज्ञान (पक्ष ) सदा ही बहिरंग भर्चाको विषय करनेवाले नहीं हैं ( साम्य )। हानपना होनेसे ( हेतु ), जैसे कि स्वप्नज्ञान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार अनुमान बनाकर दूसरे विद्वान् बौद्ध कह रहे हैं, या ज्ञातकर बैठे हैं, सो, उनका वह कहना सर्वथा असत्य है । क्योंकि यों तो सम्पूर्ण पदार्थोके शून्यपनेका प्रसंग आ जावेगा । घट, पट आदि बहिरंग अयोंके ज्ञान समान अन्तस्तत्त्व माने जा रहे अपना और अन्य संतानोंका सम्यग्ज्ञान भी निरालम्बन हो जायगा । घट, पट, आदिके ज्ञानोंमें और स्त्रसंतान परसंतानोंको जाननेवाले ज्ञानोंमें ज्ञानपना भेदरहित होकर विद्यमान है । देखिये, घट, पट, आदिकके समान स्त्र, पर, सन्तान भी बहिरंग है, कोई भेद नहीं है । चालिनी न्याय अनुसार देवदत्त की स्वसन्तान तो जिनदत्तके ज्ञानकी अपेक्षा बहिरंग है। और जिनदत्तकी स्वतन्तान देवदत्तके ज्ञान की अपेक्षा बाह्य अर्थ है । तथा ज्ञानकी अपेक्षा कोई भी बेय बाह्य अर्थ हो जाता है । अतः स्वसन्तान और परसन्तानके ज्ञानोंका भी निरालम्बन होनेके कारण अमाव हो जानेसे बौद्धोंके यहां सर्वशून्यपनेका प्रसंग प्राप्त होगा। ऐसी दशामें अनेक आत्माओंके सन्तानस्वरूप विज्ञानाद्वैतकी यानी अन्तस्तत्त्वकी अक्षुण्ण प्रतिष्ठा कैसे रह सकती है ! सो तुम ही जानों।
मतिश्रुतप्रत्ययाः न बाह्यार्थालंबनाः सर्वदा प्रत्ययत्वात्स्वप्नपत्ययवदिति योगाचार स्तदयुक्तं, सर्वशून्यत्वानुषंगात् । बाह्यार्थसंवेदनवत्स्वपरसंतानसंवेदनासम्भवाग्राहकज्ञानापेक्षया वसन्तानस्य परसन्तानस्य च बाह्यत्वाविशेषात् ।
___ सम्पूर्ण मतिद्वान और श्रुतज्ञान ( पक्ष ) बहिरंग घट, पट आदि अर्थीको सदा ही विषय करनेवाले नहीं हैं ( साध्य ) ज्ञानपना होनेसे (हेतु ) जैसे कि स्वप्नका ज्ञान विचारा बहिर्भूत नदी पर्वत, आदिको ठीक ठीक आलम्बन करनेवाला नहीं है, इस प्रकार योगाचार बौद्ध कह रहे है। सो उनका कहना अयुक्त हैं । क्योंकि यों तो सभी अन्तरंग तत्त्व, ज्ञान या स्वसंतान, परसन्तान इन सबके शून्यपनका प्रसंग हो जावेगा । बहिरंग अोंके सम्वेदनसमान अपनी शानसन्तान और दूसरेकी ज्ञानसन्तानके सम्बेदनोंका भी असम्भव हो जायगा। क्योंकि स्वसन्तान और परसन्तानके प्राहक ज्ञानोंकी अपेक्षा करके स्वसन्तान और परसन्तानको बाह्यपना विशेषतारहित है। अर्थात्ज्ञानोंको क्षणिक माननेवाले बौद्ध पूर्वापर क्षणवर्ती ज्ञानोंकी पंक्तिको ज्ञानसंतान कहते हैं। भले ही सन्तान अवस्तु है। यों घटज्ञानकी अपेक्षा जैसे घट बाह्य अर्थ है, उसी प्रकार स्वकीय ज्ञानसन्तान और परकीय ज्ञानसन्तानको जाननेवाले ज्ञानकी अपेक्षा स्वज्ञानसन्तान और परविज्ञानसन्तान भी बहिरंग अर्थ है । जब कि ज्ञान बहिरंग अर्योको विषय नहीं करते हैं, तो अपने ज्ञानोंकी सन्तान अथवा अन्य देवदत्त, जिनदत्त, स्वरूप ज्ञान सन्तान ये अन्तरंग पदार्थ भी उड गये । क्योंकि ये भी बहिरंग बन बैठे । ऐसी दशामें सर्वशून्यवाद छा गया, वही तो हमने दोष दिया था।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
संवेदनं हि यदि किंचित् स्वस्मादर्थान्तरं परसन्तानं स्वसन्तानं वा पूर्वापरक्षणमवाहरूपमालम्बते । तदा घटाद्यर्थेन तस्य कोऽपराधः कृतः यतस्तमपि नालम्बते ।
यदि बौद्ध यों कहें कि कोई कोई समीचीन ज्ञान तो किसी अपने ज्ञानशरीरसे निराळे पदार्थ और पहिले पीछेके क्षगोंमें परिणमें परकीय ज्ञानोंका प्रवाइस्वरूप परसन्तानको अथवा आगे, पीछे तीनों कालोंमें प्रवाहित हो रहे, क्षणिक विज्ञानस्वरूप स्वसन्तानको आलम्बन कर लेता है, तब तो हम जैन कहेंगे कि घट, पट आदि अर्थोकरके उस ज्ञानका कौन अपराध कर दिया गया है ? जिससे कि वह ज्ञान इन घट आदिकोंको भी आलम्बन नहीं करे । अर्थात्-घट आदिकको जाननेवाले भी ज्ञानसालम्बन है । वस्तुभूत घटादि अर्थोको विषय करनेवाले हैं।
___अथ घटादिवत्स्वपरसन्तानमपि नालम्बत एव तस्य स्वसमानसमयस्य भिमसमयस्य वालंबनासम्भवात् । न चैवं स्वरूपसन्तानामावः स्वरूपस्य स्वतो गतेः । नीलादेस्तु यदि स्वतो गतिस्तदा संवेदनत्वमेवेति स्वरूपपात्रपर्यवसिताः सर्वे प्रत्यया निरालम्बनाः सिद्धास्तत्कुतः सर्वशून्यत्वापत्तिरिति मतं तदसत्, वर्तमानसंवेदनात्स्वयमनुभूयमानादन्यानि खपरसंतानसंवेदनानि स्वरूपमात्रे पर्यवसितानीति निश्चेतुमशक्यत्वाद् ।
यदि अब तुम योगाचार बौद्धोंका यइ मन्तव्य होय कि घट, पट आदिके समान स्वसन्तान, परसन्तानको भी कोई ज्ञान विषय नहीं ही करता है । क्योंकि स्वकीय ज्ञानके समान समयमें होनेवाले अथवा मिनसमयमें हो रहे स्त्र, पर सन्तानोंका आलम्बन करना असम्भव है। अर्थात्-बौद्धोंके यहां विषयको ज्ञानका कारण माना गया है। " नाकारणं विषयः "। अतः समानसमयके ज्ञान ज्ञेयोंमें कार्यकारणभाव नहीं घटता है। कार्यसे एक क्षण पूर्वमें कारण रहमा चाहिये । अतः पहिला समान समयवालोंके कार्यकारणभाव बनजानेका पक्ष तिरस्कृत हो गया
और मिनसमयवाले ज्ञान ज्ञेयोंमें यदि ग्राह्यग्राहकमाव माना जायगा, तब तो चिरभूत और चिरभविष्य पदार्थोके साथ भी कार्यकारणभाव बन बैठेगा, जो कि इष्ट नहीं है। दूसरी बात यह है कि एकसमय पूर्ववती मिन्नकालके पदार्थो को भी यदि ज्ञानका ज्ञेय माना जायगा, तो भी ज्ञानकालमें जब विषय रहा ही नहीं, ऐसी दशामें ज्ञान भला किसको जानेगा । सांप निकल गया लकीर पीटते रहो, यह " गतसर्पवृष्टिअभिहनन " न्याय हुआ । अतः ज्ञान निरालम्ब ही है। इस प्रकार हो जानेपर हम बौद्धोंके यहां विज्ञानस्वरूप सन्तानका अभाव नहीं हो जायगा । क्योंकि शुद्ध क्षणिकज्ञान स्वरूपकी अपने आपसे ही ज्ञप्ति हो जाती है । यदि नील स्वलक्षण, पीत स्वलक्षण, आदिकी मी स्वतः ज्ञप्ति होना मान लिया जायगा, तब तो वे नील आदिक पदार्थ ज्ञान स्वरूप ही हो जायंगे । इस प्रकार केवल अपने स्वरूपको जाननेमें लवलीन हो रहे सम्पूर्ण ज्ञान अपनेसे भिन्न विषयोंकी अपेक्षा निरालम्बन ही सिद्ध हुये तो बताओ, हम योगाचारोंके यहां किस ढंगसे सर्वशून्यपनेका प्रसंग आवेगा ! जब कि अपने अपने शुद्धस्वरूपको ही प्रकाशनेवाले अनेक
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क्षणिक विज्ञान विद्यमान हैं । अब आचार्य कहते हैं कि उक्त प्रकार जो योगाचारोंका मन्तव्य है, यह असत् है। क्योंकि मिन मिन्न स्वसंतानके ज्ञान और परसन्तानोंके क्षणिकज्ञान ये अपने अपने केवल स्वरूपको प्रकाशनेमें चरितार्थ हो रहे हैं । इस बातको स्वयं अनुभवे जा रहे वर्तमानकालके सम्वेदनसे तो निश्चय करने के लिये अशक्यता है । अर्थात्-वर्तमानकालका ज्ञान इतने मन्तव्यको नहीं जान सकता है कि " तीन काळवर्ती स्वसन्तान परसन्तानके सभी क्षणिकज्ञान अपने अपने केवल स्वकीय शरीरको ही प्रकाशनेमें निमग्न हैं । ज्ञेय अर्थोको विषय नहीं करते हैं " तीन लोक तीन कालोंमें असंख्यज्ञान पडे हुये हैं। सम्भव है वे विषयोंको जानते होंगे । भला प्राय विषयके विना क्षणिक विज्ञान उक्त विषयको कैसे जान सकता है ! क्या कन्याके विना ही वर अपना विवाह अपने आप कर सकता है ! अर्थात्-नहीं। यदि आप बौद्धोंका कोई भी ज्ञान उक्त सिद्धान्तको विषय कर लेगा तब तो वही ज्ञान बहिरंग विषयकी अपेक्षा सालम्बन हो गया । यदि नहीं जानेगा तो सम्पूर्ण ज्ञानोंका स्वरूप मात्रको प्रकाशना सिद्ध नहीं हो पायगा ।
विवादाध्यासितानि खरूपसन्तानज्ञानानि स्वरूपमात्रपर्यवसितानि ज्ञानत्वात्स्वसंवेदनवदित्यनुमानात्तथा निश्चय इति चेत्, तस्यानुमानज्ञानस्य प्रकृतसालम्बनत्वेऽनेनैव हेतोयभिचारात्स्वरूपमात्रपर्यवसितत्वे प्रकृतसाध्यस्यास्मादसिद्धः।
योगाचार बौद्ध अपने मन्तव्यको पुष्ट करनेके लिये अनुमान बनाते हैं कि विवादमें प्राप्त हो रहे स्वसन्तान और परसन्तानके त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण क्षणिक विज्ञान ( पक्ष ) केवल स्वकीयरूपके प्रकाश करनेमें लवलीन हो रहे हैं ( सान्य ) ज्ञानपना होनेसे ( हेतु ) जैसे कि स्वसम्वेदन ज्ञान ( दृष्टान्त ) अर्थात्-ज्ञान ही को जाननेवाला जैसे स्वसम्वेदन ज्ञान किसी बहिरंग तत्वको नहीं जानता है, उसी प्रकार घटज्ञान, स्वसन्तानज्ञान, दूसरे जिनदत्त आदिकी सन्तानोंका ज्ञान, ये सब स्वकीय ज्ञानशरीरको ही विषय करते हैं । अन्य ज्ञेयोंको नहीं छूते हैं । इस प्रकार बौद्धोंके कहने पर तो हम जैन पूछते हैं कि उस अनुमान ज्ञानको यदि प्रकरणप्राप्त साध्य हो रहे स्वरूपमात्र निमग्नपन करके सालम्बनपना माना जायगा, तब तो इस अनुमानज्ञानकरके ही ज्ञानत्व हेतुका व्यभिचार होता है। देखिये, इस अनुमानमें ज्ञानपन हेतु तो रह गया और केवल अपने स्वरूपमें लवलीनपना साध्य नहीं रहा । क्योंकि इसने अपने स्वरूपके अतिरिक्त साध्यका ज्ञान भी करा दिया है। यदि इस व्यमिचारके निवारणार्थ इस अनुमान ज्ञानको भी स्वरूपमात्रके प्रकाशनेमें ही लगा दुआ निर्विषय मानोगे, अपने विषयभून सायका ज्ञापन करनेवाला नहीं मानोगे तो इस अनुमानसे प्रकरणप्राप्त साध्य हो रहे स्वरूपमात्र प्रकाशनकी सिद्धि नहीं हो सकेगी। इसको आप बौद्ध स्वयं विचार. सकते है।
संवेदनाद्वैतस्यैवं प्रसिद्धस्तथापि न सर्वशून्यत्वापत्तिरिति मन्यमानं प्रत्याह ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
फिर भी बौद्ध यदि यों मानते रहें कि क्या हुआ द्वितीयपक्ष अनुसार भले साध्यकी सिद्धि मत हो किन्तु फिर भी इस प्रकार शुद्ध सम्बेदनाद्वैतकी बढिया सिद्धि हो ही जाती है। तिस प्रकार होनेपर भी जैनोंकी ओरसे दिया गया सर्वशून्यपनेका प्रसंग तो नहीं पाया । शुद्ध क्षणिक ज्ञानपरमागुओंका अद्वैत प्रसिद्ध हो रहा है। इस प्रकार मान रहे बौद्धोंके प्रति श्रीविषानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
न चैवं सम्भवेदिष्टमद्वयं ज्ञानमुत्तमम् । ततोऽन्यस्य निराकर्तुमशक्तेस्तेन सर्वथा ॥ १० ॥
इस प्रकार ज्ञानोंका अद्वैत उत्तमरूपसे इष्ट हो रहा भी नहीं सम्भवता है। क्योंकि तिस शुद्ध ज्ञान करके उस ज्ञानसे मिन हो रहे घट, पट, स्वसन्तान, परसन्तान आदि विषयोंका सर्वथा निराकरण नहीं किया जा सकता है । अर्थात् जो केवल स्त्रको ही प्रकाशनेमें निमग्न हो रहा सन्ता अन्य कार्योंके लिये क्षीणशक्तिक हो गया है, वह ज्ञान बहिरंग और अन्तरंग ग्राह्य पदार्थीका किसी भी प्रकारसे निराकरण नहीं कर सकता है।
यथैव हि सन्तानान्तराणि स्वसन्तानवेदनानि चानुभूयमानेन संवेदनेन सर्वया विषातुं नशक्यन्ते तथा प्रतिषिदुमपि ।
____जिस ही प्रकार वर्तमान कालमें अनुभवे जा रहे सम्वेदन करके अन्य सन्तानोंके ज्ञानों और अपनी ज्ञानमालारूप सन्तानके विज्ञानोंकी विधि करानेके लिये शक्ति सर्वथा नहीं है । क्योंकि आप बौद्धोंने वर्तमान ज्ञानको केवळ स्वशरीरको ही प्रकाशनेमें ध्यानारुढ माना है । जो मोटा सेठ केवळ अपने शरीरको ही ढोनेमें पूरी शक्तियां लगा रहा है, वह भला दो चार कोसतक अन्य भांडे, वन
आदिकोंको कैसे लादकर चळ सकेगा ! अर्थात्-नहीं। अतः कोई भी वर्तमान में अनुभवा जारहा ज्ञान किसी भी अन्य सन्तान और स्वसन्तानके ज्ञानोंका विधान नहीं कर सकता है। उसी प्रकार वह ज्ञान अन्तरंग बहिरंग ज्ञेयोंके निषेध करने के लिये भी समर्थ नहीं हो सकता है। जो जिसका विधान नहीं कर सकता है, वह उसका कचित् निषेध भी नहीं कर सकता है। "येन यजयते सदभावस्तेनैव परिगृह्यते "।
तद्धि तानि निराकुर्वदात्ममात्रविधानमुखेन वा तत्मतिषेपमुखेन पा निराकर्यात् । प्रथमकल्पनायां दूषणमाह ।
भला आप बौद्ध विचारो तो सही कि वह अनुभवा जा रहा ज्ञान यदि उन' म्यारा स्वर सन्तानों का निराकरण भी करेगा तो क्या केवल अपनी विधिके मुख करके उनका निषेध करेगा! अथवा उन अन्य पदार्थोके निषेधकी मुख्यता करके निषेधेगा ? बताओ ! प्रथम कल्पना करने परंतो ओ दूषण पाते हैं, उनको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकद्वारा कहते हैं सो सुनो।
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स्वार्थश्लोकवार्तिके
स्वतो न तस्य संवित्तिरन्यस्य स्यान्निराकृतिः । किमन्यस्य स्वसंवित्तिरन्यस्य स्यान्निराकृतिः ॥ ११ ॥
उस अनुभूयमान सम्वेदन की स्वोन्मुख स्वयं अपने आपसे केवल अपनी ही सम्बित्ति होना तो अन्य पदार्थोंका निराकरण करना नहीं हो सकेगा । भला विचारनेकी बात है कि क्या अन्य पदास्ववित्ति उससे दूसरे पदार्थों का निषेधस्वरूप हो सकती है ! कभी नहीं, अपने कानोंसे अपनी आंखोंको ढक लेनेवाले भयभीत शश ( खरगोश ) की अपेक्षा कोई अन्य मनुष्य पण्डओंका निषेध नहीं हो जाता है । पुस्तकके सद्भावको जान लेना चौकीका निषेधक नहीं है । निर्विकल्पक समाधिको धारनेवाले साधु शुद्ध आत्माको ही जाननेमें एकाग्र हो रहे हैं। एतावता जगत् के अन्य पदार्थों का निषेध नहीं हो सकता है ।
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स्वयं संवेद्यमानस्य कथमन्यैर्निराकृतिः ।
परैः संवेद्यमानस्य भवतां सा कथं मता ॥ १२ ॥
स्वकीय ज्ञानसन्तान अथवा परकीय ज्ञानसन्तान जो स्वयं भळे प्रकार जाने जा रहे हैं, उनका अन्य ज्ञान करके मला निराकरण कैसे हो सकता है ? देवदत्तके ज्ञान, इच्छा, दुःख, सुख आदिक जो स्वयं देवदत्तद्वारा जाने जा रहे हैं, उनका यज्ञदत्तद्वारा निषेध नहीं किया जा सकता है। हम नहीं समझते हैं कि आप बौद्धों के यहां दूसरोंके द्वारा सम्बेदन किये जा रहे पदार्थका अन्योंकरके निराकरण कर देना कैसे मान लिया गया है ? बात यह है जो तुच्छदीपक स्वयं अपने शरीर में ही थोडासा टिमटिमा रहा है, वह अन्य पदार्थोंकी निराकृति नहीं कर सकता है । अन्योका निषेध करनेके लिये बडी भारी सामग्री की आवश्यकता है ।
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परैः संवेद्यमानं वेदनमस्तीति ज्ञातुमशक्तेस्तस्य निराकृतिरस्माकं मतेति चेत्, तर्हि तन्नास्तीति ज्ञातुमशक्तेस्तद्व्यवस्थितिः किन्न मता । ननु तदस्तीति ज्ञातुमशक्यत्वमेव तन्नास्तीति ज्ञातुं शक्तिरिति चेत् तमास्तीति ज्ञातुमशक्यत्वमेव तदस्तीति ज्ञातुं शक्तिरस्तु विशेषाभावात् ।
बौद्ध यों कहें कि दूसरोंके द्वारा सम्वेदन किये जा रहे ज्ञान हैं, इस बातको हम नहीं जान सकते हैं, अतः उन अन्य वेद्यज्ञानोंका निराकरण हो जाना हमारे यहां मान किया गया है । इस प्रकार बौद्धों के कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि दूसरोंसे सम्वेदे जा रहे वे ज्ञान " नहीं है" इसको भी तो हम नहीं जान सकते हैं। अतः उन ज्ञानोंके सद्भावकी व्यवस्था क्यों नहीं मान की जाय ! हम छद्मस्थ जीव यदि परमाणु, पुण्य, पाप, परकीय सुख, दुःख, आदिकोंकी विधि मही करा सकते हैं तो उनका निषेध भी नहीं करा सकते हैं। यदि बौद्ध अपने मन्तव्यका फिर
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तत्वार्य चिन्तामणिः
अवधारण यों करें कि दूसरोंसे जानने योग्य कहे जा रहे वे ज्ञान है" इस बातको नहीं जान सकना ही " वे नहीं है" इस बातको जानने की शक्ति है । जैसे कि खरविषाणका नहीं जान सकना ही खरविवाण के नास्तिवको जानने के लिये शक्यता मानी गयी है । इस प्रकार बौद्धोंके हठ करनेपर तो हम जैन भी कह देंगे कि उन अन्योंकरके जाने जा रहे ज्ञान " नहीं हैं " इस बातको जाननेके लिये अशक्यता ही " वे ज्ञान है " इस बातको जानने के लिये शक्ति हो जाओ, कोई असर नहीं है । भावार्थ-किसी कृष्ण धनौके धनाभावको जानने की अशक्यता ही धनके सद्भावको जानने की शक्ति है । किसी पदार्थकी विधिको जानने के लिये अशक्यता जैसे उसके निषेधको जानने की शक्यता है, उसी प्रकार निषेधको जानने की अशक्यता भी विधिकी निर्णायक शक्ति है । दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है।
यदि पुनस्तदस्तिनास्तीति वा ज्ञातुमशक्तेः संदिग्धमिति मतिस्तदापि कयं संवेदना. द्वैतं सिध्धेदमंशयमिति चिन्त्यतां ।।
यदि फिर तुम योगाचार बौद्धोंका यह विचार हो कि वे सन्तानान्तरोंके ज्ञान एवं अपने ज्ञान " है अथवा नहीं हैं " इस बाबको निर्णीतरूपसे नहीं जाननेके कारण उन ज्ञानोंके सद्भाव का संदेश प्राप्त हो जाओ" एकान्तनिर्णयावर संशयः "। कई पुरुष किसी पदार्थका यदि निषेध करना चाहता है, युक्तियोंसे उस पदार्थका निषेध उसने नहीं सध सके तो वह पुरुष उस तस्वका संशय बने रहनेमें ही पूरा उद्योग लगा देता है। शास्त्रार्थ करनेवाळे या मित्ती (कुश्ती) लडनेवाले धूर्ण पुरुषोंमें ऐसा विचार बहुमाग हो जाता है। उसी प्रकार बौद्धोंका यो मन्तव्य होनेपर तो हम कहेंगे कि तो मी तुम्हारा माना गया सम्वेदनाद्वैत मला संशय रहित होता हुआ कैसे सिद्ध होगा! इस बातको कुछ कालतक चिन्तवन करो। मावार्थ-कुछ काळ विचार लेने पश्चात् अनेक भले भटके मानव सुमार्गपर आ जाते हैं । जब अन्य ज्ञानों और शेयोंके सद्भावकी सम्भावना बनी हुयी है, ऐसी दशामें शुद्ध शानाद्वैतका ही निर्णय कथमपि नहीं हो सकता है । प्रायश्चित्तके योग्य विषयोंमें उस पाप अनुठानकी शंका उत्पन्न हो जानेपर भी विधिकी ओर बल लगाकर प्रायवित्त करना आवश्यक बताया है । अतः प्रथम पक्षके अनुसार अनुभूयमान ज्ञान, इन अन्य सन्तानों या स्वसन्तान ज्ञानोंका निराकरण अपने विवानकी मुख्यताकरके नहीं कर सकता है । यो पहिला पक्ष गया। अब द्वितीय पक्षका विचार चलाते हैं।
संवेदनान्तरं प्रविषेधमुखेन निराकरोतीति द्वितीयकल्पनायां पुनरद्वैतवेदनसिद्धिदरीसारितैव तत्सविषेधज्ञानस्य द्वितीयस्य भावात् ।
अनुभूयमान म्यारा सम्वेदन यदि प्रतिषेधकी ओर मुख करके अन्य क्षेयोंका निराकरण करता है, इस प्रकार द्वितीय कल्पनाको आप बौद्ध इष्ट करोगे तब तो फिर अद्वैत सम्बेदनको सिद्धि होना दूर ही फेंक दिया जायगा । क्योंकि स्वकीय विधिको ही करनेवाले शानके अतिरिक्त दूसरा उन
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तत्वार्थ श्लोक वार्तिके
अन्य ज्ञेयोंके प्रतिषेधको जाननेवाला ज्ञान विद्यमान हो रहा है। दो ज्ञानोंके होनेपर अद्वैत मला कहां रहा ? द्वैत होगया ।
स्वयं तत्प्रतिषेधकरणाददोष इति चेत्, तर्हि स्वपरविधिप्रतिषेधविषयमेक संवेदनमित्यापातं । तथा चैकमेव वस्तुसाध्यं साधनं वापेक्षात कार्य कारणं च बाध्यं बाधकं चेत्यादि किन्न सिध्येत् ।
यदि बौद्ध यों कहें कि स्वकी विधिको करनेवाला वह सम्वेदन स्वयं अकेला अन्य ज्ञान या ज्ञेयोंका प्रतिषेध कर देता है । अतः हमारे ज्ञान अद्वैत सिद्धांतमें कोई दोष नहीं है। इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि तब तो स्वरूपकी विधिको और पररूपके निषेधको विषय करनेवाळा- एक ही सम्वेदन हुआ । इस प्रकार अनेक धर्मवाले एकधर्मी पदार्थके माननेका प्रसंग प्राप्त हुआ, जो कि जैन सिद्धान्त है । और तैसा होनेपर स्वाद्वाद सिद्धांत अनुसार एक ही वस्तु साध्य अथवा साधन भी अपेक्षाओंसे क्यों नहीं सघ जायगी ! एक ही ज्ञान साध्य और साधन हो सकता है। धूमहेतु अकेला ही कंठाक्षविक्षेपकारित्व हेतुका साध्य और वह्निका साधन हो जाता है अथवा कारक पक्ष अनुसार धूम वह्निका साध्य है । और ज्ञापक पक्ष अनुसार अग्निका धूम साधन है । तथा एक ही पदार्थ अपने कारणोंका कार्य और अपने कार्योंका कारण बन जाता है। इसी प्रकार मक्खियोंकी बाधक मकडी है । साथमें वह मकडी चिरैयाओंसे बाध्य भी है। सज्जनोंको दुष्ट पुरुष बाधा पहुंचाते हैं। साथ ही में योग्य राजवर्गद्वारा वे दुष्टपुरुष भी बाधित किये जाते हैं । ऐसे ही आधारआय, गुरुशिष्य विषयविषयी आदिक भी अपेक्षाओंसे एक एक ही पदार्थ हो जाते
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। यह अनेकान्त शासन क्यों नहीं सिद्ध हो जाय ? कोई बाधा नहीं दीखती है। अपनी रक्षा के लिये अनेकान्तकी शरण ले ली जाय, और अन्य अवसरोंपर तोताकीसी आंखे फेर की जांय, यह न्यायमार्ग नहीं दीखता है ।
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विरुद्धधर्माध्यासादिति चेत्, तत एव संवेदनमेकं स्वपररूपविधिप्रतिषेधविषयं माभूत्स्वापेक्षाविधायकं परापेक्षया प्रतिषेधकमित्यविरोधे स्वकार्यापेक्षया कारणं स्वकारणापेक्षया कार्यमित्यविरोधोऽस्तु ।
यदि बौद्ध यों कहें कि विरुद्ध धर्मोसे आळीढ हो जानेके कारण एक ही पदार्थ साध्य और साधन भी अथवा कार्य और कारण भी आदि नहीं हो सकता है। जिससे कि जिनशासन सिद्ध हो जाय । अनेकान्त में विरोध दोष लागू होता है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम कहेंगे कि तिस ही कारण एक सम्वेदन भी स्वरूपकी विधि और पररूपके निषेधको विषय करनेवाला नहीं होओ। यहां भी तो सम्वेदनमें विधायकपन और निषेधकपन दो विरुद्ध धर्मोका अभ्यास है। यदि आप बौद्ध यों कहें कि अपने रूपकी अपेक्षा विधायकपना और पररूपकी अपेक्षा निषेधकपनां दो धर्मो को इस प्रकार माननेपर कोई विरोध नहीं है। तत्र तो हम अनेकान्तंवादी - मी कह देंगे
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तत्वार्थचिन्तामणिः
कि अपने कार्योंकी अपेक्षाकरके कारणपना और अपने कारणोंकी अपेक्षा करके कार्यपना भी एक पदार्थ में विरोधरहित हो जाओ। अपने गुरुकी अपेक्षासे जिनदत्त शिष्य है, और साथ ही अपने पढाये हुये शिष्यों की अपेक्षा से वही जिनदत्त गुरु भी है ।
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अथ स्वतोऽन्यस्य कार्यस्य कारणस्य वा साध्यस्य साधकस्य वा सद्भाषासिद्धेः कथं तदपेक्षा यतस्तत्कार्य कारणं बाध्यं बाधकं च साध्यं साधनं च स्वादिति ब्रूते तर्हि परस्य सद्भावासिद्धेः कथं तदपेक्षा यतस्तत्परस्य प्रतिषेधकं स्वविधायकं वा स्यादित्युपहासास्पदं तत्रं सुगतेन भावितमित्याह ।
अब आप यदि यों को कि स्वयं ज्ञानाद्वैतकी अपेक्षासे तो अन्य हो रहे कार्यकी और कारणकी अथवा साध्य और साधककी सत्ता ही असिद्ध है । अतः उन अन्य पदार्थोंकी भला अपेक्षा कैसे हो सकती है ? जिससे कि एक पदार्थ ही अपेक्षाकृत कार्य और कारण अथवा बाध्य और बाधक तथा साध्य और साधन हो सके, यों बौद्ध कह रहा है । इस प्रकार बौद्धोंकी स्पष्ट युक्ति होनेपर तो हम कहते हैं कि तब तो परके सद्भाव की असिद्धि हो जाने के कारण किस प्रकार उस परकी अपेक्षा हो सकेगी ? जिससे कि वह एक ही सम्बेदन परका निषेध करनेवाला और स्व का विधान करानेवाला हो सके, इस प्रकार हंसी करानेका स्थान ऐसा तत्व बुद्धकरके भावना किया गया है, इसी बात को श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज वार्तिकद्वारा स्पष्ट कहते हैं ।
साध्यसाधनत्वादिर्न च सत्येतर स्थितिः ।
ते स्वसिद्धिरपीत्येतत्तत्वं सुगतभावितम् ॥ १३ ॥
तुम ज्ञानाद्वैतवादियों के यहां साध्ययन, साधनपन, कार्यपन, कारणपन, बाध्यपन, बाधकपन आदि की व्यवस्था नहीं है । और सत्य असयकी भी कोई व्यवस्था नहीं है । ऐसी दशा में तुम्हारे इष्ट स्वतस्त्र सम्वेदन की सिद्धि नहीं हो सकती है ! इस कारण यह क्षणिक शुद्ध विज्ञानाद्वैत स्वरूप तत्र को सुगतने श्रुतमयी, चिन्तामयी, भावनाओंद्वारा अच्छा विचारा है ! यह उपहासपूर्वक कथन है । अर्थात् मसजिदको ढाकर एक सडी हुयी खेडीको निकालने के समान लम्बी, चौडी, दीर्घकालिक, भावनाओं द्वारा यह निःसार विज्ञानाद्वैतका सिद्धान्त निकाला गया है । इसपर विद्वानोको हंसी जाती है । जो साध्य और साधनों को अथवा बाध्य और बाधकोंको नहीं स्वीकार करता है, वह अद्वैत सम्बेदनकी सिद्धि कथमपि नहीं कर सकता है ।
ततः स्त्ररूपसिद्धिमिच्छता सत्येतरस्थितिरङ्गीकर्त्तव्या साध्यसाधनत्वादिरपि स्त्रीकरणीय इति बाह्यार्यालम्बनाः प्रत्ययाः केचित्सन्त्येव, सर्वथा तेषां निरालम्बनत्वस्य ब्यवस्थानायोगात् ।
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तिस कारण सम्वेदनके स्वरूपकी सिद्धिको चाहनेवाले बौद्धों करके सत्यपन और असत्यपनकी व्यवस्था स्वीकार करना चाहिये । तभी सम्बेदनाद्वैतका सत्यपन और अन्य अन्तरंग बहिरंग पदार्थोका बसयपन स्थिर रह सकेगा। तथा सम्बेदनको साध्यपना और प्रतिभासमानस्त्रको साधनपना मी मानना चाहिये । इसी प्रकार पूर्वपर्यायको कारणपना और उत्तरपर्यायको कार्यपना या अद्वैतको बाध्यपना और अद्वैतको बाधकपना आदि भी स्वीकार करने चाहिये । इस प्रकार माननेपर कोई कोई ज्ञान बहिरंग अर्थीको भी विषय करनेवाले हैं ही। उन घटज्ञान,देवदत्तज्ञान मादिक प्रत्ययोंका सर्वथा निरालम्बपनेकी व्यवस्था करनेका तुम्हारे पास कोई समीचीन योग नहीं है । खाने, पीने,पढने पढाने, रूप, रस, आदिके समीचीन ज्ञान अपने अपने विषय हो रहे बहिरंग पदार्थोसे आलम्बन सहित । नंगे हाथपर अग्निके धरदेने पर हुआ उष्णताका प्रत्यक्ष या दुःखसंवेदन कोरा निर्विषय नहीं है । कीट, पतंग, पालक व बालिका भी इन ज्ञानोंको सविषय स्वीकार करते हैं।
अक्षज्ञानं बहिर्वस्तु वेत्ति न स्मरणादिकं । इत्ययुक्तं प्रमाणेन बाह्यार्थस्यास्य साधनात् ॥ १४ ॥
अब कोई दूसरे विद्वान कह रहे हैं कि मतिज्ञानोंमें इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए ज्ञान तो बहिरंग पदार्थाको जानते हैं किन्तु स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिक तो बहिरंग पदार्थीको नहीं जानते हैं।
और श्रुतज्ञान भी बहित पदार्थोको विषय नहीं करता है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार किसीका कहना युक्तियोंसे रीता है। क्योंकि प्रमाणोंकरके इस बहिर्भूत अर्थकी सिद्धि की जा चुकी है। उन वास्तविक बाह्य अर्थोको विषय करनेवाले सभी समीचीन मतिज्ञान और श्रुतज्ञान है। हाँ, जो ज्ञान विषयों को नहीं स्पर्शते हैं, वे मतिज्ञानाभास और श्रुतबानाभास हैं।
श्रुतं तु बाह्यार्थालम्बनं कथमित्युच्यते ।
कोई पूछता है कि श्रुतबान तो बाह्य अर्थोको विषय करनेवाला कैसे है । इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य द्वारा स्पष्ट उत्तर यो वक्ष्यमाणरूपसे कहा जाता है सो सुनो।
श्रुतेनार्थ परिच्छिद्य वर्तमानो न बाध्यते । अक्षजेनेव तत्तस्य बाह्यार्थालंबना स्थितिः ॥१५॥
श्रुतबान करके अर्यकी परिच्छित्ति कर प्रवृत्ति करनेवाला पुरुष अर्थक्रिया करनेमें उसी प्रकार बाधाको नहीं प्राप्त होता है जैसे कि इन्द्रियजन्य मतिज्ञान करके अर्थको जानकर प्रवर्त रहा पुरुष बाधाको प्राप्त नहीं होता है । भावार्थ-चक्षुसे आम्रफळको देखकर प्रवृत्ति करनेसे आम ही पकड़ा जाता है। चखा जाता है, सूंचा जाता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञानसे जान लिया गया पदार्थ
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तत्वार्थचिन्तामणिः
मी सन्दूक, जेव, अंधेरै कोठेमेंसे पकड लिया जाता है । तिस कारण उस श्रुतज्ञानको बहिरंग अर्थोके बालम्बन करनेकी व्यवस्था बन जाती है।
सामान्यमेव श्रुतं प्रकाशयति विशेषमेव परस्परनिरपेक्षनुभयमेवेति वा शंकामपाकरोति।
अब दूसरे प्रकारकी शंका है कि " जातिः पदस्यार्थः " श्रुतज्ञान अकेले सामान्यका ही प्रकाश कराता है । श्रुतज्ञानसे अग्निको जानकर उसके विशेष हो रहे एक विलस्तकी, तृणकी, पत्तेकी, अग्नि आदिको नहीं जान सकते हैं । दूर देश अथवा दूर कालकी बातोंको सुनकर सामान्य रूप ही पदार्थोका ज्ञान होता है, इस प्रकार मीमांतक कह रहे हैं। तथा बौद्धोंका यह एकान्त है कि " विशेषा एव तस्वं" सभी पदार्थ विशेष स्वरूप हैं, सामान्य कोई वस्तुभूत नहीं है, अतः श्रुतज्ञान द्वारा यदि कोई पदार्थ ठीक जाना जायगा तो वह विशेष ही होगा। तीसरे वैशेषिकों नैयायिकोंका यह कहना है कि परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षा नहीं करते हुये सामान्य और विशेष दोनोंका मी श्रुतज्ञान प्रकाश करा देता है । " जायाकृतिव्यक्तयः पदार्थः " । सामान्य चौथा स्वतंत्र पदार्थ है और विशेष पांचों स्वतंत्र पदार्थ है । किसी श्रुतज्ञानसे सामान्य जाना जाता है और अन्य किसी श्रुतसे अकेला विशेष ही जाना जाता है अथवा कोई श्रुतज्ञान घट, पटके समान स्वतंत्र हो रहे दोनोंको भी भले ही जान लेता है । किन्तु जैनोंके समान वैशेषिकोंके यहां परस्परमें एक दूसरेकी ओक्षा रखनेवाले सामान्य और विशेष पदार्थ नहीं माने गये हैं । इस प्रकार एकान्तवादियोंकी आशंकाओं का निराकरण श्री विद्यानन्द स्वामी करते हैं।
अनेकान्तात्मकं वस्तु संप्रकाशयति श्रुतं । सदोषत्वाद्ययाक्षोत्थबोध इत्युपपत्तिमत् ॥ १६ ॥
सामान्य और विशेषस्वरूप अनेक धर्मोंके साथ तदात्मक हो रही वस्तुको श्रुतज्ञान भले प्रकार प्रकाशित करता है ( प्रतिज्ञा ) समीचीन बोधपना होनेसे ( हेतु ) जिस प्रकार कि इन्द्रियोंसे उत्पन हुआ सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञान अनेकान्तात्मक अर्थका प्रकाश करता है । इस प्रकार वह श्रुबान सामान्य विशेषात्मक वस्तुको प्रकाशनेमें युक्तियोंसे युक्त है, यानी युक्तियोंको धार रहा है।
नयेन व्यभिचारश्चन तस्य गुणभावतः। स्वगोचरार्थधर्मान्यधर्मार्थप्रकाशनात् ॥ १७॥
र कहे गये अनुमानमें दिये गये समीचीन ज्ञानपन हेतुका नय करके व्यभिचार हो जाय कि नयज्ञान समीचीन बोध तो है। किन्तु वह अनेकान्त वस्तु को नहीं प्रकाशता है । अनेकान्तको जाननेवाला ज्ञान जैनोंने प्रमाणहान माना है । नय तो एकान्त यानी एक एक धर्मको
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रकाश करती है । सो यह व्यभिचार दोष तो नहीं समझना । क्योंकि उस नयज्ञानको अपने विषयभूत अर्थ धर्मसे अतिरिक धीरूप अर्थका प्रकाश कराना मात्र गौणरूपसे मान लिया गया है। भावार्य-प्रमाणज्ञान मुख्यरूपसे अनेक धर्मों और धर्मी अर्थको जानता है। किन्तु नयज्ञान मुख्यरूपसे एक धर्मको जानता है और गौणरूपसे वस्तु के अन्य धर्मों या धर्मीका भी प्रकाश करा देता है । सुनयज्ञान अन्य धर्मोका निषेधक नहीं है। अथवा एक बात यह भी है कि सद्बोधपना हेतु प्रमाणज्ञानोंमें ही वर्तता है । नय तो सद्बोधका एक देश है। वस्तुके अंशको प्रकाशनेवाली नय धर्मी वस्तुका अच्छा मुख्य प्रकाश नहीं कराती है । अतः हेतुके नहीं रहनेपर साध्यके नहीं ठहरनेसे व्यभिचार दोष नहीं आ पाता है।
श्रुतस्यावस्तुवेदित्वे परप्रत्यायनं कुतः । संवृतेश्चेथैवैषा परमार्थस्य निश्चितेः ॥ १८ ॥
बौद्धलोग प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानते हैं । अवस्तुभूत सामान्यको विषय करने वाला श्रुतज्ञान प्रमाण नहीं है । इसपर आचार्य कहते हैं कि श्रुतज्ञानको यदि वस्तुभूत पदार्थका ज्ञापक नहीं माना जावेगा तो भला दूसरे प्रतिवादी या शिष्यों को स्वकीय तत्वोंका किस उपायसे ज्ञान कराया जायेगा । अप्रमाणभूत न्यायबिन्दु, पिटकत्रय आदि प्रन्योंकरके तो दूसरोंका समझाना नहीं हो सकेगा। अतः अतीन्द्रिय पदार्थोको समझाने के लिये बौद्धोंके पास कोई उपाय नहीं । यदि वस्तुतः नहीं किन्तु सम्वृत्ति यानी लौकिक व्यवहारकी अपेक्षासे श्रुतज्ञानद्वारा दूसरोंका समझाना मान लिया जायगा, तब तो हम कहेंगे कि यह सम्वृत्ति तो वृथा ही है । ओ सम्वृत्ति झूठी है,
अनिश्चित है, वृथा है, कल्पना रूप है, उससे परमार्थ वस्तुका निश्चय भला कैसे हो सकता है ! किन्तु शास्त्रोंद्वारा परमार्थका निश्चय हो रहा है । दूसरोंका ठीक समझना भी हो रहा है । अतः ठकि वस्तुको जान रहा श्रुतज्ञान प्रमाण है। .
ननु स्वत एव परमार्थव्यवस्थितेः कुतश्चिदविद्यामक्षयाम पुनः श्रुतविकल्पात तदुक्तं "शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्यैवोपवर्ण्यते । अनागमविकल्पा हि स्वयं विद्योपवर्तत" इति तदयुक्तं, परेष्टतरवस्याप्रत्यक्षविषयत्वास द्विपरीतस्यानेकान्तात्मनो वस्तुनः सर्वदा परस्याप्यवभासनात् । लिङ्गस्य त्वस्याङ्गीकरणीयत्वात् । न च तत्र लिंगं वास्तवमस्ति तस्य साध्याविनामावित्वेन प्रत्यक्षत एवं प्रतिपत्तुमशक्तेरनुमानान्तरात् पतिपत्तावनवस्था प्रसंगात्, प्रवचनादपि नेष्टतवव्यवस्थितिः तस्य तद्विषयत्वायोगादिति कथमपि तद्गतेरभावात् स्वतस्तवावभासनासम्भवात् । तथा चोक्तं । " प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र तल्लिङ्गगम्यं न तदर्थलिङ्गं । वाचो न वा तद्विषये न योगः का सद्गतिः कष्टमश्रृण्वतस्ते ॥" इति ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
- बौद्ध विद्वान् अपने मतका अवधारण करते हैं कि परमार्थभूत पदार्थकी व्यवस्था तो किसी भी अनिर्वचनीय कारण द्वारा अविद्याका प्रकृष्टक्षय हो जानेसे स्वतः ही हो जाती है। किन्तु फिर विकल्पस्वरूप मिथ्या श्रुतज्ञानसे वस्तुमूत अर्थकी व्यवस्था नहीं हो पाती है । वही हम बौद्धोंके यहां ग्रन्थों में कहा गया है कि शास्त्रोंमें मिन भिन्न प्रक्रिया द्वारा अविद्या ही कही जा रही है । क्योंकि शब्द विचारे वस्तुभूत अर्थको नहीं छूते हैं। स्वयं सम्यग्ज्ञानरूप विद्या तो आगमस्वरूप निर्विषय विकल्पवानोंके नहीं गोचर हो रही सन्ती स्वयं यों ही वर्त जाती है । जैनोंके यहां भी तत्त्वको निर्विकल्पक माना है। अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका वह कहना अयुक्त है। क्योंकि आप दूसरे बौद्धोंके यहां इष्ट किये गये तत्त्वोंका प्रयक्षज्ञान द्वारा गोचर हो जाना नहीं बन सकता है। प्रत्युत उन बौद्धोंके इष्ट क्षणिक विज्ञान आदि तत्त्वोंसे विपरीत हो रहे अनेकान्तात्मक वस्तुका ही सर्वदा प्रयक्ष द्वारा दूसरे विद्वानोंको भी प्रतिभास हो रहा है । अतः प्रत्यक्षकी प्रवृत्ति नहीं होनेपर अपने इस अभीष्ट तत्वको लिंगद्वारा ज्ञप्ति कराना तुमको अवश्य अंगीकर्तव्य होगा। किन्तु उस इष्ट तत्त्वको साधनेमें तुम्हारे पास कोई वस्तुभूत ज्ञापक लिंग नहीं है । क्योंकि उस हेतुकी अपने साध्यके साथ अविनामावीपन करके प्रत्यक्षप्रमाणसे ही तो प्रतिपत्ति नहीं की जा सकती है। क्योंकि व्याप्तिज्ञान तो विचारक है उसको आप प्रमाण नहीं मानते हैं । जो जो धूमवान् प्रदेश है वे वे अग्निमान् हैं, इतने विचारोंको विचारा अविचारक प्रत्यक्ष कैसे भी नहीं कर सकता है। यदि साध्यके साथ अविनामावीपनकी प्रतिपत्ति दूसरे अनुमानसे की जायगी तो उस अनुमानके उदयमें मी व्याप्ति की आवश्यकता पडेगी । फिर भी व्याप्ति जाननेके लिये अन्य अन्य अनुमानोंको शरण पकडनेसे अनवस्था दोष आ जानेका प्रसंग होता है, तुम्हारे बौद्धोंके इष्टतत्त्वोंकी व्यवस्था प्रवचन (आगम ) से भी नहीं हो सकती है। क्योंकि उस आपके आगमको उन इष्ट पदार्थोके विषय करनेपनका अयोग है । इस प्रकार तुम्हारे उस इष्टतस्त्रका ज्ञान कैसे भी नहीं हो सकता है । विचारे तत्वोंका स्वतः प्रकाश होना तो असम्भव है। अन्यथा यों तो सभी जीवोंको स्वतः वास्तविक तत्वोंका ज्ञान हो जावेगा । फिर शास्त्राभ्यास, अध्ययन, अध्यापन, योगाभ्यास, व्यर्थ पडेगा। जगत्के कोई भी नवीन कार्य स्वतः नहीं हो जाते हैं । ऐसी दशामें आपके परमार्थ तस्वकी व्यवस्था असम्भव हो गयी । तिस ही प्रकार प्रन्योंमें कहा है कि जिस बौद्धोंके माने हुये तत्त्वमें प्रत्यक्षज्ञान चलता नहीं है, और जो तत्व ज्ञापक हेतुओं करके भी जानने योग्य नहीं हैं, तथा बौद्धोंने स्वयं उसके जानने के लिये कोई ज्ञापक हेतु अभीष्ट किया भी नहीं है, क्योंकि बौद्धोंके यहां हेतु केवल समारोपका व्यवच्छेद कर देते हैं, वस्तुभूत अज्ञात - तत्त्वका ज्ञापन नहीं करते हैं, तथा बौद्धोंने उन अपने इष्ट विषयोंमें वाचक शब्दोंका वाच्यवाचक संबंध नहीं माना है। यानी आगमद्वारा भी इष्ट तत्त्व नहीं जाना जाता है, इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, इन प्रमाणोंका गोचर नहीं होनेसें अब तुम्हारे उन इष्ट तत्वोंकी क्या गति होगी ! अतीन्द्रिय अर्कका
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
शास्त्रद्वारा नहीं अत्रण होना माननेवाले तुम्हारी दयनीय दशापर कष्ट उत्पन्न होता है। यों तुम्हारे उपर बडे कष्टका अवसर आ पडा है। यहांतक बौद्धोंके घरके कच्चे चिढेका वर्णन कर दिया है।
तत एव वेद्यवेदकभावः प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावो वा न परमार्थतः किन्तु संवत्यैवेति चेत, तदिह महाधाष्टये येनायं विष्टिकमपि जयेत् । तथोक्तं । " सवृत्या साधयंस्तत्वं जयेद्घाष्टर्थेन डिडिकं । मत्या मचविलासिन्या राजविप्रोपदेशिनं ॥" इति ।
बौद्ध कहते हैं कि अच्छा हुआ सच पूछो तो वास्तविक पदार्थोंमें शानोंकी प्रवृत्ति ही नहीं है। तथा परमार्थभूत पदार्थोका गुरुशिष्यद्वारा या शास्त्रद्वारा समझना, समझाना, भी नहीं हो पाता है। तिस ही कारण तो हमारे यहां वेधवेदक भाव अथवा प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव वस्तुतः नहीं माना गया है। किन्तु लौकिक व्यवहारसे ही ज्ञेयज्ञायक भाव और प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव जगत में कल्पित कर लिया गया है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हमें कहना पडता है कि इस प्रकरणमें वह बौद्धोंका कहना बडी मारी धीठता है, जिस धीठता करके यह बौद्ध महा निर्लज्ज हंसी करनेवाले भांडाको भी जीत लेगा। उसी प्रकार प्रन्योंमें लिखा हुआ है कि झूठे व्यवहारसे तत्रोंको साध रहा यह बौद्ध अपनी धीठता करके विदूषक या भांड अथवा डोंडीवाले (पापविशेष) को भी जीत लेगा। जो डिंडिक मदमत्तपनेसे विलास करनेवाली बुद्धि करके बड़े भारी विद्वान् राज पुरोहितको भी उपदेश सुनाता रहता है । इस प्रकार उपहास और भर्सनासे बौद्धोंके निःसार मतका यहांतक दिग्दर्शन कराया है।
फर्य वा संवृत्यसंवृत्योः विभागं बुध्येत् ? संवृत्येति चेत्, सा पानिश्चिता तयैव किञ्चिभिश्चिनोतीति कथमनुन्मत्तः, सुदरमपि गत्वा स्वयं किञ्चिनिश्चिन्वन् परं च निश्चाययन्वेद्यवेदकभावं प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावं च परमार्थतः स्वीकर्तुमर्हत्येव, अन्यथो. पेक्षणीयत्वप्रसंगात् ।
और यह विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध विचारा संवृत्ति यानी व्यवहार सत्य और असम्वृत्ति यानी मुख्य सत्य पदार्थों के विभागको भला कैसे समझ सकेगा ! अद्वैतवादमें तो बुद्धियोंका न्यारा विमाग होना बन नहीं सकता है । यदि बौद्ध यों कहें कि झूठे व्यवहारसे ही सम्पत्ति और असम्वृत्तिका विभाग मान लिया जायगा, तब तो हम कहेंगे कि वह सम्वृत्ति तो स्वयं अनिश्चित है। उस ही करके यह बौद्ध पण्डित किसी पदार्थका निश्चय कर रहा है, ऐसी दशामें तो बौद्ध कैसे सम्मत नहीं माना जा सकेगा। अर्थात्-अनिश्चित पदार्थसे किसी वस्तुका निश्चय करनेवाग पुरुष उन्मत्त ही कहा जाना चाहिये । बहुत दूर भी जाकर यह बौद्ध स्वयं किसीका निश्चय करता हुला
और दूसरे प्रतिपाद्यको यदि अन्य पदार्थका निश्चय कराना मानेगा तब तो वेथवेदकमाव और प्रतिपायप्रतिपादकभावको वास्तविकरूपसे स्वीकार करने के लिये योग्य हो जाता ही है। स्वयं निषय
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करनेसे वेधवेद्यकमाव बन गया और परपुरुषको निश्चय करानेसे प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव बन गया। अन्यथा यानी किसी निश्चित प्रमाण या वाक्यसे अनिश्चितका निश्चय कराना नहीं मानोगे अथवा निश्चित किये गये तस्वसे अन्यका निश्चय करना मानते हुए भी वेद्यवेदकभाव और प्रतिपायप्रतिपादक भावको नहीं मानोगे तो विद्वानोंके मध्यमें बौद्धोंको उपेक्षणीयपना प्राप्त हो जानेका प्रसंग होगा। भावार्थ-ऐसे अप्रमाणीक कहनेवाले बौद्धकी अन्य विद्वान् कोई अपेक्षा नहीं रखेंगे । मूर्ख समझकर टाल दिया करेंगे । जैसे कि मिनदेशीय राज्य करनेवाले अधिकारी वर्ग भोंदू स्वदेशीयप्रजाकी पुकारको टाल देते हैं।
तथा च वस्तुविषयमध्यक्षमिव श्रुतं सिद्ध सदोषत्वान्यथानुपपत्तेः ।
तिस कारण प्रत्यक्षके समान श्रुतज्ञान भी वस्तुभूत अर्थको विषय करनेवाला सिद्ध हो जाता है। क्योंकि सद्बोधपना अन्यथा यानी पारमार्थिक पदार्थको विषय करना माने विना नहीं बन सकता है। अतः सोलहवीं वार्तिकद्वारा किया गया अनुमान युक्तिपूर्ण है। श्रुतज्ञानके विषय वस्तुभूत बहिरंग अर्थ है। अन्तरंग अर्थ और स्वको भी श्रुतज्ञान जानता है। . ____ तर्हि द्रव्येष्वेव मतिश्रुतयोनिबंधोस्तु तेषामेव वस्तुत्वात् पर्यायाणां परिकल्पितत्वात् पर्यायेष्वेव वा द्रव्यस्यावस्तुत्वादिति च मन्यमानं प्रत्याह।
कोई एकान्तवादी मान रहे हैं कि सब तो यानी श्रुतज्ञानका सालम्बनपना सिद्ध हो चुकने पर अकेले द्रव्योंमें ही मतिज्ञान और श्रुतज्ञानोंका विषय नियत रहो । क्योंकि उन द्रव्योंको हो षस्तुभूतपना है । पर्यायें तो चारों ओर कल्पनाओंसे यों ही कोरी गढली गयी हैं। यथार्थ नहीं है, अथवा पर्यायोंमें ही मति श्रुतज्ञानोंकी विषयनियति मानलो द्रव्य तो वस्तुभूत पदार्थ नहीं है। इस प्रकार साभिमान स्वीकार कर रहे, प्रतिवादियोंके प्रति आचार्य महाराज स्पष्ट समाधिवचन कहते हैं।
सर्वपर्यायमुक्तानि न स्युर्द्रव्याणि जातुचित् । सद्वियुक्ताश्च पर्यायाः शशश्रृंगोचतादिवत् ॥ १९ ॥
वस्तुभूत द्रव्ये विचारी सम्पूर्ण पर्यायोंसे रहित कदापि नहीं हो सकती हैं और पर्यायें मी सत् इव्यसे कदाचित् भी वियोग प्राप्त नहीं हो सकती हैं । जैसे कि शश (खरगोश ) के सींगकी सच्चाई, चिकनाई, टेडापन आदिक कोई नहीं है। भावार्थ-किसी भी समय द्रव्यको देखो, वह किसी म किसी पर्यायको धारे हुये हैं । पहिले जन्ममें जिनदत्त देवदत्त था, अब बालक है, कुपार युवा बादि अवस्थाओंको धारेगा। इसी प्रकार पुद्गल व्यके सदा ही घट, पट आदि अनेक परिणाम हो रहे है। तथा व्यके बिना केवळ पर्यायें स्थिर नहीं रहती हैं । आम्र फलका मठिापन, सुगंध, पीलापन
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आदि पर्यायें पुद्गलद्रव्यके अधीन हैं। ज्ञान, सुख, बन्ध, मोक्ष, पण्डिताई आदिक परिणाम जीव द्रव्यके अधीन हैं । वस्तुतः अनेक पर्यायोंसे गुम्फित द्रव्य हो रहा है। पर्याय और द्रव्योंका तदारमक पिण्ड वस्तुभूत है ।
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न सन्ति सर्व पर्यायानि द्रव्याणि सर्व पर्यायनिर्मुक्तत्वाच्छशश्रृंगवत् । न सन्त्येकान्तपर्यायाः सर्वथा द्रव्यमुक्तत्वाच्छ्शश्रृंगोच्चत्वादिवत् । ततो न तद्विषयत्वं मतिश्रुतयोः शङ्कनीयं प्रतीतिविरोधात् ।
सम्पूर्ण पर्यायोंसे छूटे हुये जीव आदिक द्रव्य ( पक्ष ) नहीं हैं ( साध्य ) ( प्रतिज्ञा ) सम्पूर्ण पर्यायोंसे सर्वथा रहितपना होनेसे ( हेतु ) जैसे कि शशका सींग कोई वस्तु नहीं है (दृष्टान्त) इस अनुमान द्वारा पर्यायोंसे रहित हो रहे केवल द्रव्यका प्रत्याख्यान कर दिया गया है । तथा Ratra केवल पर्यायें ही ( पक्ष ) नहीं हैं ( साध्य ) । सभी प्रकार द्रव्योंसे छोड दिया जाना होनेसे ( हेतु ) शशाके सींगकी उच्चता आदिकी पर्यायें जैसे नहीं है ( दृष्टान्त ) । इस अनुमान द्वारा बौद्धोंकी मानी हुयीं द्रव्यरहित अकेली पर्यायोंका खण्डन कर दिया गया है । तिस कारण से मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें उन केवल द्रव्यों या केवल पर्यायका विषय करलेनापन शंका करने योग्य नहीं है । क्योंकि प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीतिओंसे विरोध आता है ।
नाशेषपर्ययाक्रान्ततनूनि च चकासति ।
द्रव्याणि प्रकृतज्ञाने तथा योग्यत्वहानितः ॥ २० ॥
- मतिज्ञान और श्रुतज्ञानद्वारा द्रव्य और पर्यायोंका विषय हो जाना जब सिद्ध हो चुका तो द्रव्यकी सम्पूर्ण पर्यायोंको दोनों ज्ञान क्यों नहीं जान लेते हैं? ऐसा प्रश्न होनेपर आचार्य कहते हैं कि जिन द्रव्योंका शरीर सम्पूर्ण पर्यायोंकरके चारों ओरसे घिरा हुआ है, उन सम्पूर्ण पर्यायबाली द्रव्यें तो प्रकरणप्राप्त ज्ञानमें नहीं प्रकाशित होती हैं । अर्थात् मतिज्ञान श्रुतज्ञान सम्पूर्ण पर्यायों सहित द्रव्योंका नहीं प्रतिभास कराते हैं। क्योंकि तिस प्रकारके योग्यतारूप क्षयोपशम या क्षयकी हानि हो रही है । आवरणोंके विगम अनुसार ज्ञान अपने ज्ञेयोंका प्रतिभास करा सकते हैं। यों ही अंट: संट चाहे जिसको नहीं प्रकाश देते हैं ।
ननु च यदि द्रव्याण्यनंतपर्यायाणि वस्तुत्वं विभ्रति तदा मतिश्रुताभ्यां तद्विषयाभ्यां भवितव्यमन्यथा तयोरवस्तुविषयत्वापत्तेरिति न चोद्यं, तथा योग्यतापायात् । न हि वस्तुसत्तामात्रेण ज्ञानविषयत्वमुपयाति । सर्वस्य सर्वदा सर्व पुरुषज्ञानविषयत्वप्रसंगात् ।
कारिकाका विवरण यों हैं यहां कोई शंका करता है कि अनन्त पर्यायवाले द्रव्य यदि वस्तु'पनको धार रहे हैं, तब तो मतिज्ञान श्रुतज्ञानों करके उन संपूर्ण अनन्तपर्यायोंको विषय कर लेना
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हो जाना चाहिये । यानी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उन संपूर्ण पर्यायोंको विषय करनेवाले हो जायंगे । अन्यथा उन ज्ञानोंको अवस्तुके विषय कर लेनेपनका प्रसंग आवेगा । अर्थात् - द्रव्यकी तदात्मक हो रही बहुतसी पर्यायें जब ज्ञानोंसे छूट जायंगी तो ज्ञान ठीक ठीक वस्तुको विषय करनेवाले नहीं होकर किसी थोडी पर्यायवाली वस्तु ( वस्तुतः अवस्तु ) को विषय करते रहेंगे। जो कतिपय अंगों से रहित देवदत्तको केवल हाथपगवाला ही देख रहा है, सच पूछो तो वह देवदत्तको ही नहीं देख रहा है । पीलापन, हरायपन, खट्टामीठापन, उष्णता, गंध आदि पर्यायोंसे रहित आमको जाननेवाला क्या आम्रफलका ज्ञाता कहा जा रहा है ? कभी नहीं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारका कुचोद्य उठाना अच्छा नहीं है । क्योंकि तिस प्रकार अनन्तपर्यायों अथवा सम्पूर्ण पर्यायोंके जाननेकी योग्यता मति श्रुत दो ज्ञानोंमें नहीं है । केवल जगत् में सद्भाव हो जानेसे ही कोई वस्तुज्ञानके विषयपनको प्राप्त नहीं हो जाती है । यदि जगत् में पदार्थ विद्यमान हैं, एतावता ही जीव ज्ञानमें विषय हो जाय तब तो सम्पूर्ण पदार्थों का सदा ही सम्पूर्ण जीवोंके ज्ञानमें विषय हो जानेका प्रसंग आवेगा । आम्रफल, कचौडी, मोदक, आदिमें असंख्यगुण अनेक पर्यायस्वरूप परिनाम हो रहे हैं । किन्तु पांच इन्द्रियोंद्वारा हमको उनके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्दों या आकृति का तो ज्ञान हो जाता है। शेष परिणाम का ज्ञान नहीं हो पाता है । तिस प्रकार के पुण्य विना जगत् अनन्त पदार्थ विद्यमान हो रहे भी प्राप्त नहीं होते हैं। जीव अपने घरमें रक्खे हुये पदार्थोंका भी भोग विना पुण्यके नहीं कर सकते है । खेत, या बागोंका सेवक उन धान्य फलोंका आनन्द नहीं ले पाता है । प्रभु ही भोगता है, जरीगोटा या सुवर्ण रत्नोंके भूषण' बनानेवाले कारीगर उनके परिभोग से वंचित रहते हैं। मेवा, सेत्र अनार दूध आदिको बेचनेवाले या पैदा करनेवाले.. ग्रामीणजन लोभवश उनका भोग नहीं कर पाते हैं । देशान्तरवर्ती पुण्यवान् उनको - मोगते... हैं | यहांतक कि बहुभाग पदार्थोंका तो साधारण जीवोंको ज्ञान भी नहीं हो पाता है । ज्ञप्तिके कारणोंको योग्यता जैसी मिलेगी, उतने ही पदार्थोंका ज्ञान हो सकेगा, अधिकका नहीं। हां, एक अंशका भी ज्ञान हो जानेसे तदात्मक, वस्तुका ज्ञान कहा जा सकता है। एक रस या रूपके द्वारा भी हुआ आम्रका ज्ञान वस्तुका ज्ञान कहा जा सकता है । वस्तुके सम्पूर्ण अंशों पर तो सर्वज्ञका ही अधिकार है ।
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किं तर्हि वस्तुनः परिच्छित्तौ कारणमित्याह ।
तो फिर आचार्य महाराज तुम ही बतलाओ कि वस्तुकी यथार्थ ज्ञप्ति करनेमें क्या कारण है ! इस प्रकार सरलतापूर्वक जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानंद आचार्य समाधान कहते हैं ।
ज्ञानस्यार्थपरिच्छित्तौ कारणं नान्यदीक्ष्यते ।
योग्यतायास्तदुत्पत्तिः सारूप्यादिषु सत्स्वपि ॥ २१ ॥
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बौद्धोंद्वारा माने गये ज्ञानका विषयके प्रति नियम करनेमें तदुद्भूतपना ( तदुत्पत्ति ) तदाकारता, तदध्यवसाय आदिके होते सन्ते भी योग्यताके अतिरिक्त अन्य कोई कारण ज्ञानके द्वारा अर्थकी परिच्छित्ति करनेमें नहीं दीख रहा है। अर्थात्-जिस कारणसे ज्ञान उत्पन्न होय, उसी कारणस्वरूप अर्थको वह कार्यस्वरूप ज्ञान जान रहा है। अन्य पदार्थोको नहीं जानता है। इस प्रकार नियम करनेपर इन्द्रिय, अदृष्ट आदिकरके व्यभिचार आता है। अतीन्द्रिय इन्द्रियोंसे ज्ञान उत्पन तो हुआ है । किन्तु वे रूपज्ञान, रसज्ञान आदिक तो चक्षु, रसना, आदिक इन्द्रियोंको नहीं जान पाते हैं । इसी प्रकार ज्ञान अपने कारण हो रहे पुण्यपापको भी नहीं जान पाता है। यह तदुत्पत्तिका व्यमिवार है । तथा तदाकारता माननेपर सदृश अर्य करके व्यभिचार होता है। एक इंटका चक्षुद्वारा प्रत्यक्ष का नेपर उसके समान सभी देशान्तर कालान्तरवती ईटोंका चाक्षुष ज्ञान हो जाना चाहिये । क्योंकि बानमें ईटका प्रतिबिम्ब पड चुका है। एक ईटका जैसा प्रतिबिम्ब है, वही प्रतिबिम्ब सदृश अन्य ईटोंका भी पड़ चुका है । फिर सम्पूर्ण एक सांचे की ईटोंका प्रत्यक्ष हो जाना चाहिये । एक सन या टकसालके ढेले हुए सभी समान रूपयोंका भी दीख जाना मात्र एक रुपयाके देखोनेपर हो जाना चाहिये । यह तदाकारताका समान अर्थोकरके व्यभिचार हुआ । यदि तदाकारता और तदुत्पत्ति दोनोंको मिलाकर नियामक मानोगे तो उक्त दोनों व्यभिचार टल जायंगे। किन्तु सामान्य अर्थ के अव्यवहित पूर्ववत्ती ज्ञानकरके व्यभिचार हो जायगा । तदध्यवसाय पद देकर उक्त व्यभिचारका निवारण हो सकता है । फिर भी तद्रूप्य, तदुत्पत्ति और तदभ्यवसायका शुक्ल शंखमें उत्पन हुये पीले आकारको जाननेवाले ज्ञानसे जन्य विज्ञानको अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञानको जाननेमें प्रमाणपनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। यों ज्ञानका विषयके प्रति नियम करानेमें और भी कोई नियामक नहीं है । अतः योग्यताको ही व्यभिचाररहित नियामकपना समझना चाहिये ।
यस्मादुत्पद्यते ज्ञानं येन च सरूपं तस्य ग्राहकमित्ययुक्तं समानार्थसमनन्तरप्रत्ययस्य तेनाग्रहणात् । तद्ग्रहणयोग्यतापायात्तस्याग्रहणे योग्यतैव विषयग्रहणनिमित्तं वेदनस्ये. त्यायातम् । योग्यता पुनवेदनस्य स्वावरणविच्छेदविशेष एवेत्युक्तमायम् ।।
जिस कारणसे ज्ञान उत्पन्न होता है और जिसके समानरूप प्रतिबिम्बको ले लेता है, वह शान उसका ग्राहक है, इस प्रकार बौद्धोंका कहना युक्तिरहित है । क्योंकि दोनों कारणोंके रहते हुए गी समान अर्थक समनन्तर प्रत्ययका उस दूसरे उत्तरवत्ती ज्ञानकरके ग्रहण नहीं होता है। जब कि पूर्ववती ज्ञानसे दूसरा ज्ञान उत्पन्न हुआ है । और पूर्वज्ञानका उत्तर ज्ञानमें आकार भी पडा हुआ है, फिर वह उत्तरवर्ती ज्ञान मला पूर्वज्ञानको विषय क्यों नहीं करता है ! उस पूर्वज्ञानके प्रहण करनेकी योग्यता नहीं होनेसे उत्तरज्ञानद्वारा उसका नहीं ग्रहण होना मानोगे, तब तो सर्वत्र ज्ञानके द्वारा विषयके महण होनेमें निमित्तकारण या नियमकी योग्यता ही है, यह सिद्धांत आया ।
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इसी बातको हम जैन बहुत देरसे कह रहे हैं। फिर ज्ञानकी योग्यता तो अपने आवरण करनेवाले कर्मोका क्षयोपशमविशेष ही है । इस बातको हम बहुत करके पूर्व प्रकरणोंमें कह चुके हैं । यहां इतना ही कहना है कि ज्ञानावरण कर्मीका विशेषरूपसे विराम हो जानास्वरूप योग्यताके नहीं होने से मतिद्वान और श्रुतज्ञान अनन्तपर्यायोंको नहीं जाना पाते हैं।
इस सूत्रका सारांश। ___ इस सूत्रके प्रकरण यों हैं कि जानके विषयोंमें अनेक प्रवादियोंकी विप्रतिपत्तियां हैं। अतः पहिले दो ज्ञानोंके विषयों पडे हुये विवादको निवृत्ति के लिये सूत्र कहना आवश्यक बताकर सूत्रोक्त पदोंका लक्षण किया है। पूर्व सूत्रसे केवळ विषय शब्दकी अनुवृत्ति की गई है । अनुवृत्ति की गयी शब्दावली विचारी मिन मिल परिस्थितीके अनुसार अनेक विमक्ति या वचनोंको धार लेती हैं। जैसे कि विमिन व्यवहारवाळे कुलोंमें जाकर वधूटी अपने स्वभावोंको तदनुसार कर देती है । केवळ पर्यायों अथवा केवल द्रव्यकों ही विषय करनेवाले दोनों ज्ञान नहीं हैं। ये दोनों ज्ञान अन्तरंग
और बहिरंग अर्थोको जानते हैं । यहाँपर बौद्धोंके साथ अच्छा विचार किया गया है। विशेष युक्तियोंकरके विज्ञानाद्वैतका प्रत्याख्यान कर अनेकान्तको साधा है। स्मरण आदिक ज्ञान भी बहिरंग अर्थोको विषय करते हैं । निरालम्बन नहीं है। श्रुतज्ञान अमेकान्तस्वरूप वस्तुका अच्छा प्रकाश • करता है। श्रुतज्ञानको प्रमाण मानना चाहिये, अन्यथा अपने सिद्धान्तका दूसरेके लिये प्रतिपादन करना अशक्य है । अविद्यास्वरूप शास्त्रोंसे वस्तुभूत तत्वोंकी सिद्धि नहीं हो सकती है। द्रव्य और पर्याय दोनों वास्तविक पदार्थ हैं। विशिष्टरूपसे ज्ञानावरणका विनाश नहीं होनेके कारण अनन्तपर्यायोंको मतिज्ञान और श्रुतबान नहीं जान सकते हैं। प्रतिपक्षी कोका क्षयोपशम या क्षयस्वरूप योग्यता ही शानद्वारा विषय ग्रहणमें नियमकारिणी है । अन्य तादूप्य आदिका व्यभिचार देखा जाता है। वर्तमानकाळके जीवोंमें छोटे कीटसे लेकर उद्भट विद्वानोंतकमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानोंका परिवार फैला हुआ है। मैक्स मेरेजम, भूशास्त्रविज्ञान, ज्योतिषशास्त्र आदिक बान उक्त ज्ञानोंकी ही शाखायें हैं । इस प्रकार मतिज्ञान श्रुतज्ञानकी विषय व्यवस्था निर्णीत कर लेनी चाहिये ।
द्रव्येषु जीवादिषु पर्ययेषु त्वल्पेषु नानन्तविकल्पितेषु । सालम्बने सद्विषये निबद्ध मतिश्रुतेस्तां निजरूपलन्ध्यै ॥१॥
मतिज्ञान श्रुतबानों के विषयोंका नियम कर अब क्रमप्राप्त अवधिज्ञानके विषयोंकी नियतिको दिखलानेके लिए श्री उमास्वामी महाराज अपनै कलानिधि आत्माचन्द्रसे सूत्रस्वरूप कलाका प्रसार कर मण्यचकोरोंको संतृप्त करते हैं।
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रूपिष्ववधेः ॥२७॥ __-रूपवान् पदार्थों में अवधिज्ञानका विषय नियमित हो रहा है । अर्थात-धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन अमूर्त द्रव्योंको छोडकर पुद्गलके साथ बन्धको प्राप्त हो रहे मूर्त जीवद्रव्य और पुद्गल द्रव्य तथा इन दो द्रव्योंकी कतिपय ( असंख्याती ) पर्यायोंमें अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति नियत हो रही समझनी चाहिये ।
किमर्थमिदं सूत्रमित्याह । इस सूत्रको श्री उमास्वामी महाराज किस प्रयोजनकी सिद्धिके लिये कह रहे हैं, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज वार्तिकद्वाग समाधान कहते हैं।
प्रत्यक्षस्यावधेः केषु विषयेषु निबन्धनम् । इति निर्णीतये प्राह रूपिष्वित्यादिकं वचः ॥ १ ॥
आदिके दो मति और श्रुत इन परोक्ष ज्ञानोंके विषयका नियम कर तीसरे प्रत्यक्षबान स्वरूप हो रहे अवधिका किन विषयोंमें नियम हो रहा है ! इसका निर्णय करनेके लिये “ रूपिष्ववधेः " -इस प्रकार सूत्रवचनको श्री उमास्वामी महाराज बहुत अच्छा कह रहे हैं । इस सूत्रके कहे विना अवधिज्ञान के विषयका नियम करना कथमपि नहीं हो सकता है।
रूपं पुद्गलसामान्यगुणस्तेनोपलक्ष्यते । स्पर्शादिरिति तद्योगात् रूपिणीति विनिश्चयः ॥२॥
रूपी शद्वमें मत्वर्षीय इन प्रत्यय नित्ययोगको कहनेवाली हैं, पुद्गलद्रव्यका सम्पूर्ण ही पुद्गल द्रव्योंमें पाया जाय ऐसा सामान्यगुणरूप है । उस रूपकरके अविनाभाव रखनेवाले स्पर्श, रस, गन्ध, आदि गुण भी उपलक्षण कर पकड लिये जाते हैं। जैसे कि " कौआसे दहीकी रक्षा करना" यहां उपलक्षण हो रहे काक पदसे दहीके उपघातक सभी पशुपक्षियोंका ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार उस रूपका योग हो जानेसे रूपवाले पदार्थमें ऐसा कहनेसे रूपवाले, रसवाले, गन्धवाले पदार्थोंमें अवधिज्ञान प्रवर्तता है ऐसा विशेष निश्चय कर लिया जाता है।
तेष्वेव नियमोऽसर्वपर्यायेष्ववधेः स्फुटम् । द्रव्येषु विषयेष्वेवमनुवृत्तिर्विधीयते ॥ ३ ॥
उन रूपवाले द्रव्योंमें ही और उनकी अल्प पर्यायोंमें ही अवधिज्ञानका विषय नियम स्पष्ट रूपसे विशद हो रहा है । यो उद्देश्य दळमें " एवकार " लगा लिया जाय, इस सूत्रमें पूर्व सूत्रसे
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द्रव्येषु और असर्व पर्यायेषु तथा पूर्व पूर्व सूत्रसे " विषयेषु " इस प्रकार तीन पदोंकी अनुवृत्ति कर ली जाती है, " निबन्धः " यह पद भी चला आ रहा है । अतः अवधिज्ञानका विषयनिबन्ध रूपी द्रव्योंमें और उनकी असर्वपर्यायों में है, यह वाक्यार्थ बन जाता 1
रूपं मूर्तिरित्येके, तेषामसर्वगतद्रव्यपरिमाणं मूर्तिः स्पर्शादिर्वा मूर्तिरिति मतं स्यात् । प्रथमपक्षे जीवस्य रूपित्वप्रसक्तिर सर्वगतद्रव्यपरिमाणलक्षणाया मूर्तेस्तत्र भावात् । सर्वगतत्वादात्मनस्तदभाव इति चेन्न शरीरपरिमाणानुविधायिनस्तस्य प्रसाधनात् ।
रूप का अर्थ मूर्ति है, इस प्रकार कोई एक विद्वान् कह रहे हैं । इसपर हम जैन पूंछते है कि उन विद्वानों के यहां क्या अध्यापक द्रव्योंके परिमाणको मूर्ति माना गया है ! अथवा स्पर्श आदिक गुण ही मूर्ति हैं ? यह मन्तव्य होगा ? बताओ । पहिला पक्ष ग्रहण करनेपर तो जीवद्रव्यको रूपीपनेका प्रसंग होगा। क्योंकि अव्यापक द्रव्यका परिमाणस्वरूप मूर्तिका उस जीव द्रव्यमें सद्भाव पाया जाता है । यदि वैशेषिक या नैयायिक यहां यों कहें कि सर्वत्र व्यापक 1 होनेके कारण आत्मा द्रव्यके उस अव्यापक द्रव्यपरिमाणस्वरूप मूर्तिका अभाव है । अर्थात् सर्वगत अमूर्त है। आचार्य कहते हैं कि सो यह तो नहीं कहना। क्योंकि उस आत्माकी शरीर के परिमाणको अनुविधान करनेवालेपन की प्रमाणोंसे सिद्धि की जा चुकी है। अर्थात् - प्रत्येक जीवका आत्मा उसके शरीर बराबर होता हुआ अव्यापक द्रव्य है । अतः पहिले मूर्तिके लक्षणकी आत्मद्रव्यमें अतिव्याप्ति हो जाती है ।
स्पर्शादिमूर्तिरित्यस्मिंस्तु पक्षे रूपं पुद्गलसामान्यगुणस्तेन स्पर्शादिरुपलक्ष्यते इति तद्योगादद्रव्याणि रूपाणि मूर्तिमन्ति कथितानि भवन्त्येव तथेह द्रव्येष्व सर्व पर्यायेषु इति निबन्ध इति चानुवर्तते । तेनेदमुकं भवति मूर्तिमत्सु द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु विषयेषु अवधेर्निबन्ध इति ।
हां, द्वितीय कल्पना अनुसार स्पर्श आदिक गुण मूर्ति हैं। इस प्रकारके पक्षका ग्रहण करनेपर तो अभीष्ट अर्थ सिद्ध हो जाता है। पुद्गल द्रव्यका सामान्य गुणरूप है । उस रूप करके स्पर्श, रस आदि गुणोंका उपलक्षण कर लिया जाता है । इस कारण उस रूपके योगसे रूपवाली द्रव्यें मत्वर्थीय प्रत्ययद्वारा मूर्तिवालीं कह दी जाती हैं। तिसी प्रकार यहां पूर्व सूत्रोंसे द्रव्येषु, असर्वपर्यायेषु, विषयेषु ये शब्द और निबन्ध इस प्रकार चार शब्दोंकी अनुवृत्ति कर ली जाती है। तिस कारण इन -शब्दोंद्वारा यह वाक्यार्थ बोध' कह दिया गया हो जाता है कि मूर्तिमान् द्रव्य और कतिपय पर्याय स्वरूप विषयोंमें अवधिज्ञानका नियम हो रहा है । अर्थात् मूर्तिमान् द्रव्यों और उनकी थोडीसी पर्यायोंमें अवधिज्ञानका विषय नियत हो रहा है । इस प्रकार सूत्रका अर्थ समाप्त हुआ ।
कुत एवं नान्यथेत्याह ।
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कोई शिष्य जिज्ञासा करता है कि इस ही प्रकार आपने नियम किस कारणसे किया ! दूसरे प्रकारोंसे नियम क्यों नहीं कर दिया ! अर्थात्-अमूर्त द्रव्यों और सम्पूर्ण पर्यायोंको भी अवधिज्ञान जान लेवें, क्या क्षति है ? उद्देश्यदलमें " एवकार " क्यों लगाया जाता है ! इस प्रकार साइससहित जिइासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान कहते हैं ।
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स्वशक्तिवशतोऽसर्व पर्यायेष्वेव वर्त्तनम् । तस्य नानागतातीतानन्तपर्याययोगिषु ॥ ४ ॥ पुद्गलेषु तथाकाशादिष्वमूर्तेषु जातुचित् । इति युक्तं सुनिर्णीतासम्बवद्वाधकत्वतः ॥ ५ ॥
अपनी शक्ती वशसे अवधिज्ञानकी प्रवृत्तिरूपी द्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायोंमें ही है । भविष्यत् और भूतकालकी अनन्त पर्यायोंके सम्बन्धवाले पुद्गलद्रव्योंमें उस अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं है । तथा आकाश, धर्मद्रव्य, कालाणु, सिद्धपरमेष्ठी, आदिक अमूर्त द्रव्योंमें कदाचित् भी अवधिज्ञान नहीं प्रवर्तता है। अमूर्त द्रव्योंकी पर्यायोंमें तो अवधिज्ञानका वर्तना असम्भव है । यह सिद्धान्त युक्तिपूर्ण है । क्योंकि बाधक प्रमाणोंके नहीं सम्भवनेका मठे प्रकार निर्णय किया जा चुका है ।
अत्रासर्व पर्यायरूपिद्रव्यज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषोवधेः स्वशक्तिस्तद्वशात्तस्यासर्व - पर्यायेष्वेव पुगळेषु वृत्तिर्नातीताद्यनन्तपर्यायेषु नाप्यमूर्तेष्वाकाशादिषु इति युक्तमुत्पश्यामः । सुनिर्णीतासम्भवद्वाधकत्वान्मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यांयेष्वित्यादिवत् ।
यहां प्रकरण में असर्व पर्यायवाले रूपीद्रव्योंके ज्ञानका आवरण करनेवाले अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमविशेषको ही अवधिज्ञानकी निजशक्ति माना गया है उस शक्तिके वशसे उस अवधिज्ञानकी असम्पूर्ण पर्यायवाले ही पुगकों में प्रवृत्ति है । भूत, भविष्य और वर्तमानकालकी अनन्तपर्यायोंवाले पुलों में अवधिज्ञान नहीं प्रवर्तता है । तथा आकाश आदिक अमूर्त द्रव्योंमें भी अवधिज्ञान नहीं चलता है। क्योंकि उनको जाननेवाले ज्ञानके घातक सर्वभाति स्पर्धकोंका उदय बना रहता है, इस बातको इम समुचित समझ रहे हैं। क्योंकि इस सिद्धान्तमें आनेवाली बाधाओंके असम्भवका अच्छा निर्णय चुका है, जिस प्रकार कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषयनिबन्ध सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायोंमें सुनिश्चित हो गया है, इत्यादिक निर्णीत सिद्धान्तों के समान " रूपिष्ववधेः " इस सूत्रका चार पदोंकी अनुवृत्ति करते हुये अर्थ ठीक बैठ जाता है। कोई शंका नहीं रहती है ।
हो
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तत्वार्थचिन्तामणिः
इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र के विवरणों में प्रथम ही क्रमप्राप्त प्रत्यक्ष अवधिज्ञानके विषयका नियम करनेके लिये सूत्रका प्रतिपादन करना आवश्यक बताकर रूपशब्द करके स्पर्श आदिका उपलक्षण किया है । " रूपिण्वः " यहां ही रूप, रस, आदिवाले द्रव्यों में ही अवधिका विषय नियत है । इस प्रकार पहिला अवधारण इष्ट किया है। पूर्व सूत्रसे चार पदोंकी अनुवृत्ति करनेपर आर्ष आम्नाय अनुसार अर्थ लब्ध हो जाता है । मूर्तिका सिद्धान्त क्षण स्पर्श आदिक है । अव्यापकद्रव्यका परिमाण नहीं है । अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम अनुसार रूपीद्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायोंको ही अत्रविज्ञान जान सकता है। अमूर्तव्य और अनन्तपर्यायोंको नहीं जान पाता है । अवधिज्ञान उत्कृष्ट रूपेण असंख्यात लोकप्रमाण पर्यायोंको जानता है। हां, श्रुतज्ञान भले ही अमूर्त द्रव्यों और उनकी भूत, भविष्यत्कालसम्बन्धी अनन्तपर्यायोंको जानलेवें । बात यह है कि अन्तरंग शक्तिके अनुसार ही पदार्थ कार्यों को कर सकते हैं, अन्यथा नहीं । इस सिद्धान्तका भळे प्रकार बाघावोंसे रहित निर्णय हो रहा है । बाधकोंका असम्मत्र किसी भी वस्तु के सद्भावको पुष्ट करदेता है । कर्मोपशान्त्युदयमिश्रदशाढ्यपूर्त जीवस्य रूपरसनित्यगपुद्गलस्य ।
भावाँश्च बेचि नियतो निजशक्तियोगाद् दीपोपमोयमवधिः स्वपरप्रकाशः ॥ १ ॥
rafeज्ञान विषयको नियत कर अत्र क्रमप्राप्त दूसरे मन:पर्यय नामक प्रत्यक्षका विषय नियम प्रकट करनेके किये श्री उमास्वामी महाराज स्वकीय ज्ञानसमुद्रसे चिन्तामणि स्वरूप सूत्रका जन्म करते हैं ।
तदनन्तभागे मनः पर्ययस्य ॥ २८ ॥
1
विज्ञान द्वारा विषय हो रहे उसी रूपीद्रव्यके अनन्तवें एक भागमें मन:पर्ययका विषय नियत हो रहा है । अर्थात् अनन्त परमाणुत्राले कार्माण द्रव्यके अनन्तवें भागको सर्वावधि ज्ञान करके जाना गया था, उसके भी अनन्तवें मान स्वरूप छोटे पुद्गलस्कन्धको द्रव्यकी अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान जानलेता है ।
किमर्थमिदमित्याह ।
यह
"" " तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य किस प्रयोजनको साधने के लिये कहा गया है ! सूत्र इस प्रकारकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी समाधान कहते हैं ।
क मनःपर्ययस्यार्थे निबन्ध इति दर्शयन् । तदित्याद्याह सत्सूत्रमिष्टसंग्रह सिद्धये ॥ १ ॥
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मन:पर्ययज्ञानका विषय कौनसे
अर्थ में नियमित हो रहा है, इस बातको दिखलाते हुये श्री उमास्वामी महाराज अभीष्ट अर्थके संग्रहकी सिद्धिके लिये " तदनन्तभागे ” इत्यादिक श्रेष्ठ सूत्रको स्पष्ट कह रहे हैं ।
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कस्य पुनस्तच्छद्वेन परामर्शो यदनन्तभागेऽसर्व पर्यायेषु निबन्धो मन:पर्ययस्येत्याह । फिर आप यह बताओ ? कि इस सूत्र में दिये गये तत् शब्द करके किस पूर्व निर्दिष्टपदका परामर्श किया जायगा ? जिसके कि अनन्तमें भागमें और उसकी असर्व पर्यायों में मन:पर्यय ज्ञानका विषय नियत हो रहा है, इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान कहते हैं । परमावधिनिर्णीते विषयेऽनन्तभागताम् ।
नीते सर्वावज्ञेयो भागः सूक्ष्मोऽपि सर्वतः ॥ २ ॥ एतस्यानन्तभागे स्याद्विषयेऽसर्वपर्यये । व्यवस्थर्जुमतेरन्यमनःस्थे प्रगुणे ध्रुवम् ॥ ३ ॥ अमुष्यानन्तभागेषु परमं सौक्ष्म्यमागते ।
स्यान्मनः पर्ययस्यैवं निबन्धो विषयेखिले ॥ ४ ॥
परमावधि द्वारा निर्णीत किये गये विषय में जिनदृष्ट अनन्तका भाग देनेपर अनम्सर्वे भागपनेको प्राप्त हुये छोटे स्कन्धमें सर्वावधिका विषय समझना चाहिये, यद्यपि ये सबसे सूक्ष्म भाग है । फिर भी इस सूक्ष्म स्कन्धके अनन्तवें भागस्वरूप और कतिपय पर्यायवाले विषय में ऋजुमतिज्ञानकी द्रव्य अपेक्षा विषय व्यवस्था नियत है । आवश्यकता इस बातकी है कि वह छोटा स्कन्ध सरलरूप से अथवा त्रियोग द्वारा किया गया होकर दूसरेके मनमें स्थित हो रहा होना चाहिये । उस अनन्त भाग छोटे रुकन्चको निश्चितरूपसे ऋजुमति मन:पर्यय जान लेता है । पुनः ऋजुमतिके विषय हो रहे उस सूक्ष्म स्कन्धके अनन्त भागोंके करनेपर जो परमसूक्ष्मपनेको प्राप्त हो गया अत्यल्प छोटा स्कन्ध होगा उस अल्पीमान् स्कन्धको विपुलमति विषय कर लेता है । इस प्रकार पूर्वोक्त अनुसार सम्पूर्ण विषय में मन:पर्यय ज्ञानका नियम हो रहा है । अर्थात् - अपने या दूसरे के मनमें विचार लिये गये सभी रूपीद्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायोंको मन:पर्ययज्ञान प्रत्यक्ष जान लेता है ।. ज्ञानके ज्ञेयको विषय कहते हैं । सप्तमी विभक्तिका अर्थ विषयत्व है ।
तच्छद्रोऽत्रावधिविषयं परामृशति न पुनरवधिं विषयप्रकरणात् । स च मुख्यस्य परामर्यते गौणस्य परामर्शे प्रयोजनाभावात् । मुख्यस्य परमावधिविषयस्य सर्वतो देशावधिविषयात्सूक्ष्मस्यानंतभागीकृतस्यानन्तो भागः सर्वावधिविषयस्तस्य सम्पूर्णेन
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मुख्येन सर्वावधिपरिच्छे यत्वात् । तत्रर्जुमतेर्निबन्धो बोद्धव्यस्तस्य मनःपर्ययप्रथमव्यक्तिस्वात्सामर्थ्याहजुमतिविषयस्यानन्तभागे विषये विपुलमतेर्निबन्धोऽवसीयते तस्य परमनःपर्ययत्वात् ।
तत् शब्द करके पूर्वनिर्दिष्ट अर्थका विचार किया जाता है, इस सूत्रमें कहा गया तत् शब्द अवधिज्ञानके विषयका परामर्श कर लेता है। किन्तु फिर अवधिज्ञानका तो परामर्श नहीं करता है । क्योंकि विषयका प्रकरण होनेसे, विषयभूत पदार्थोका आकर्षण होगा, विषयी ज्ञानोंका नहीं । और वह विषय भी मुख्य हो रहे अवधिज्ञानका नियत हो चुका परामर्शित किया जाता है । अवधिज्ञानोंमें गौण हो रहे देशावधिक विषयका पूर्व परामर्श करनेमें प्रयोजनका अभाव है। देशावधि के सम्पूर्ण विषयोंसे सूक्ष्म हो रहा परमावधिका विषय है। उसके भी अनन्तभाग किये जाय उन सबमेंसे एक अनन्तवां भाग सर्वावधिज्ञानका विषय है । उस सूक्ष्मभागका सम्पूर्ण अवधियोंके मुख्य सर्वावधिज्ञान द्वारा परिच्छेद किया जाता है। उस सर्वावधिक विषयमें या उसके अनन्तवें भाग द्रव्यमें ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानका नियम जघन्यरूपसे समझना चाहिये । क्योंकि मनःपर्ययज्ञानका वह अजुमति पहिला व्यक्तिरूप भेद है । आर्ष आगम अनुसार सूत्र व्याख्यानकी सामर्थ्यसे यह अर्थ भी यहां निर्णीत हो जाता है कि ऋजुमति द्वारा जाने गये विषयके अनन्तवें भागरूप विषयमें विपुलमतिका नियम हो रहा है । क्योंकि वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञानका दूसरा भेद है। जो कि मनःपर्ययज्ञानोंमें उत्कृष्ट है। अर्थात्-देशावधिका उत्कृष्ट द्रव्य कार्मण वर्गणा है । उसमें असंख्यात बार अनन्त संख्यावाले ध्रुवहारों का भाग देनेपर परमावधिका द्रव्य निकल आता है । और परमावधि के द्रव्यमें अनेक वार अनन्तका भाग देनेपर सर्वावधिका सूक्ष्म द्रव्य प्राप्त होता है। ये सब कार्मणद्रव्यमें अनन्तानन्त भाग दिये जा रहे हैं। सर्वावधिसे जान लिये गये द्रव्यमें पुनः अनन्तका भाग देनेपर ऋजुमतिका द्रव्य निकलता है। ऋजुमतिके द्रव्यमें अनन्तका भाग देनेपर विपुलमतिका द्रव्य निकलता है। अभीतक स्कन्ध ही विषय किया गया है । परमाणुतक नहीं पहुंचे हैं। क्षेत्र काल और भावोंको आगम अनुसार लगा लेना । गोम्मटसार अनुसार कुछ अन्तर लिये हुये व्यवस्था है । उसका वहांसे परिज्ञान करो । कचिदाचार्यसम्प्रदायानां भेदोस्ति ।
असर्वपर्यायग्रहणानुवृत्तेर्नाऽनाद्यनन्तपर्यायाक्रान्ते द्रव्ये मनःपर्ययस्य प्रवृत्तिस्तद्ज्ञानावरणक्षयोपशमा सम्भवात् । अतीतानागतवर्तमानानन्तपर्यायात्मकवस्तुनः सकलज्ञानावरणक्षयविजृभितकेवलज्ञानपरिच्छेद्यत्वात् ।
"मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपयायेषु " इस सूत्रमें से असर्वपर्याय शब्दके ग्रहणकी अनुवृत्ति कर लेनेसे अनादि अनन्तपर्यायोंकरके घिरे हुये द्रव्यमें मनःपर्ययज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं है,
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यह ध्वनित हो जाता है। क्योंकि उन अनादि अनन्त पर्यायोंके ज्ञानको आवरण करनेवाले कर्मोंका क्षयोपशम होना असम्भव है । ज्ञानावरणका उदय होते रहने पर ब्रद्मस्थ जीवों के अनादि अनम्सपर्यायोंका ज्ञान नहीं हो पाता है । अतीतकाल, भविष्यकाल और वर्तमान कालकी अनन्तानन्तपर्यायों के साथ तदात्मक हो रहे वस्तुका तो सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्मोंके क्षयसे वृद्धिको प्राप्त हुये केवल ज्ञानद्वारा परिच्छेद किया जाता है । अतः वस्तुकी कतिपयपर्यायोंको ही मन:पर्ययज्ञान जान सकता है । अनन्तपर्यायोंको नहीं ।
कथं पुनस्तदेवंविधविषयं मन:पर्ययज्ञानं परीक्ष्यते इत्याह ।
किसीका प्रश्न है कि फिर वह इस प्रकारकी वस्तुओंको विषय कर रहा मन:पर्ययज्ञान महा कैसे परीक्षित किया जा सकता है ! बताओ ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
क्षायोपशमिकं ज्ञानं प्रकर्षं परमं व्रजेत् ।
सूक्ष्मे प्रकर्षमाणादर्थे तदिदमीरितम् ॥ ५ ॥
सो यह प्रसिद्ध हो रहा कमौके क्षयोपशमते उत्पन्न हुआ क्षयोपशमिक ज्ञान ( पक्ष ) अपने विषय सूक्ष्म अर्थ में परम प्रकर्षको प्राप्त हो जावेगा ( साध्य ), सूक्ष्म अर्थोको जाननेमें उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त हो रहा होने से ( हेतु ) । तिस कारण इस प्रकार क्षायोपशमिक चार ज्ञानोंमें यह मन:पर्ययज्ञान अनन्त भाग सूक्ष्म द्रव्यको विषय करनेवाला कह दिया गया है। यही परीक्षा करनेकी प्रधान युक्ति है ।
न हि क्षायोपशमिकस्य ज्ञानस्य सूक्ष्मेऽर्थे प्रकृष्यमाणत्वमसिद्धं तज्ज्ञानावरणहाने: प्रकृष्यमाणत्वसिद्धेः । प्रकृष्यमाणा तज्ज्ञानावरणहानिर्दानित्वान्माणिक्याद्यावरणहानिवत् ।
क्षयोपशमिक ज्ञानका सूक्ष अर्थों में तारतम्यरूपसे प्रकर्ष प्राप्त हो रहापन असिद्ध नहीं है । क्योंकि उन ज्ञानों के प्रतिपक्षी ज्ञानावरण कर्मोंकी हानिका उत्तरोत्तर अधिकरूपसे प्रकर्ष हो रहा पन सिद्ध है । जैसी जैसी ज्ञानावरण कर्मोकी हानि बढती चली जायगी, वैसे वैसे ज्ञानोंकी सूक्ष्म
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को जानने में प्रवृत्ति भी अधिक अधिक होती जायगी । कर्मों की हानिका प्रकर्षमाणपना भी असिद्ध नहीं है । क्योंकि द्वितीय अनुमान इस प्रकार प्रसिद्ध हो रहा है कि उन ज्ञानावरण कर्मोकी हानि (पक्ष) चरमसीमातक उत्तरोत्तर बढती चली जा रही है (साध्य), हानिपना होने से (हेतु) । माणिक, मोती, सुत्रर्ण, आदिके आवरणोंकी हानिके समान ( अन्वय दृष्टांत ) । भावार्थप्रयोगद्वारा शाण आदि पर रगडनेपर जैसे माणिकके या मोतीके पतों में घुसे हुए आवरणकी हानि हो जाती है, अथवा अमिताप या तेजावमें पकानेपर सुवर्णके मलोंकी हानि उत्तरोत्तर बढती जाती
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है, उसी प्रकार विशुद्धिके कारण उपस्थित हो जानेपर ज्ञानावरणोंकी हानि भी बढती जा रही है । उससे ज्ञानों की गति सूक्ष्म, सूक्ष्मतर विषयोंमें होती चली जाती है ।
कथमावरणहानेः प्रकृष्यमाणत्वे सिद्धेऽपि कचिद्विज्ञानस्य प्रकृष्यमाणत्वं सिध्यतीति चेत् प्रकाशात्मकत्वात् । यद्धि प्रकाशात्मकं तत्स्वावरणहानिप्रकर्षे प्रकृष्यमाणं दृष्टं यथा चक्षु प्रकाशात्मकं च विवादाध्यासितं ज्ञानमिति स्वविषये प्रकृष्यमाणं सिध्यत्, तस्य परमप्रकर्षगमनं साधयति । यत्तत्परमप्रकर्षप्राप्तं क्षायोपशमिकज्ञानं स्पष्टं तन्मनःपर्यय इत्युक्तं ।
किसीका प्रश्न है आवरणोंकी हानिका उत्तरोत्तर प्रकर्ष हो जानापन सिद्ध होते हुये भी किसी सूक्ष्म अर्थमें विज्ञानका प्रकृष्यमाणपना भला कैसे सिद्ध हो सकता है ! बताओ । इस प्रकार कहनेपर तो हमारा यही उत्तर है वह ज्ञान प्रकाश आत्मक है। जो निश्चयसे प्रकाश आत्मक होता है, वह अपने अन्धकार, छाया, आदि आवरणोंकी हानि के बढते रहनेपर बढ़ता चला जाता है । यों व्याप्त बनी हुयी हैं कि जो जो प्रकाश आत्मक पदार्थ हैं (हेतु), वे वे अपने अपने आवरणोंकी हानिका प्रकर्ष होते सन्ते प्रकर्षको प्राप्त हो रहे देखे गये हैं ( साध्य ), जैसे कि चक्षु इन्द्रिय प्रकाशस्त्ररूप है, अतः स्वकीय - आवरण के तारतम्य भावसे दूर हो जानेपर रूपको देखने में उत्तरोत्तर बढती रही है ( दृष्टान्त ) । विवादमें अध्यासीन हो रहा क्षायोपशमिकज्ञान भी प्रकाश आत्मक है ( उपनय ) इस कारण अपने विषय प्रकृष्यमाण सिद्ध हो रहा सन्ता उस ज्ञानके परमप्रकर्ष तक गमन करनेको साथ देता है ( निगमन) । जो वह क्षायोपशमिकज्ञान विशद प्रतिमासी होता हुआ उस सूक्ष्म अर्थको जानने में परमप्रकर्षको प्राप्त हो चुका है यह मन:पर्ययज्ञान है यह कह दिया गया समझ हो ।
यथा चापि मतिश्रुतानि परमप्रकर्षभाञ्जि क्षायोपशमिकानीति दर्शयन्नाह ।
जिस प्रकार क्षयोपशमजन्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी अपने अपने विषय में परमप्रकर्षको प्राप्त हो रहे हैं, इस बात को दिखाते हुये प्रन्थकार कह रहे हैं । अर्थात् — जिस प्रकार इन्द्रियजन्य अनेकानेक मतिज्ञान और श्रुतज्ञान स्त्रविषय में चरम सीमातक के प्रकर्षको प्राप्त हो गये हैं, उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान भी स्वांश परमप्रकर्षको धारण करता है ।
क्षेत्रद्रव्येषु भूयेषु यथा च विविधस्थितिः ।
- स्पष्टा या परमा तद्वदस्य स्वार्थे यथोदिते ॥ ६ ॥
जिस ही प्रकार इस मतिज्ञान या मन:पर्ययकी बहुतसे क्षेत्र और द्रव्योंमें नाना प्रकारकी स्थिति स्पष्ट (व्यवहारिक सष्टता) और उत्कृष्ट हो रही है । उसी प्रकार इस मन:पर्ययकी विविध व्यवस्था पूर्व में यथायोग्य कडे गये अनन्तवें भागरून स्वार्थमें परमप्रकर्षको प्राप्त हो जाती है।
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यथा चेन्द्रियजज्ञानं विषयेष्वतिशायनात् । स्वेषु प्रकर्षानं तद्विद्भिर्विनिवेदितम् ॥ ७ ॥
और जिस प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान ( पक्ष ) अपने नियत विषयों में अतिशयको उत्तरोत्तर अधिक प्राप्त हो रहा होनेसे ( हेतु ) परमप्रकर्षको प्राप्त हो रहा ( साध्य ) उस इन्द्रियज्ञानको जाननेवाले विद्वानों करके विशेषस्त्ररूपसे कहा गया है, उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान समझ लिया जाय । अर्थत्रक इन्द्रिय जीव अपनी स्पर्शन इन्द्रियसे चार सौ धनुष दूरतकके पदार्थको छू लेता है । द्वि इन्द्रियजीव आठ सौ धनुषके दूरतक वर्त रहे पदार्थको छू लेता है, इत्यादि असंज्ञी तक दूना जानना । संज्ञी जीव नौ योजन दूरवर्तीतिक पदार्थको छू लेता है । द्वि इन्द्रिय जीव रसना इन्द्रियसे चौसठ धनुष दूरतकके रसको चख लेता है । त्रि इन्द्रियजीव एक सौ अट्ठाईस धनुष तक दूरवर्ती पदार्थका रस जान लेता है । चौ इन्द्रिय जीव दौ सौ छप्पन धनुषतक अन्तरालपर रखे हुये पदार्थका रस चाट लेता है। असंही जीव पांच सौ बारह धनुषतक के स्थानान्तरपर स्थित हो रहे पदार्थ के रसको रसना इन्द्रियते जान लेता है। संज्ञी पंचेद्रिय जीव नौ योजनतक दूरपर स्थित हो रहे खटाई, कुटकी, आदिके रसको जिह्वा इन्द्रियसे जान लेता है । त्रि इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रियजीव, घ्राण इन्द्रिय द्वारा क्रम सौ, दो सौ, चार सौ, धनुषतक दूर वर्त रहे पदार्थोंकी गन्धको सूंघ लेते हैं । संजीव घ्राण द्वारा नौ योजनतकके पदार्थको सूंघ लेता है । तथा चौ इन्द्रिय और असंज्ञीजीव इन्द्रिय द्वारा दो हजार नौ सौ चौअन और पांच हजार नौ सौ आठ योजन तकके पदार्थको देख लेते हैं। संज्ञी जीव सैंतालीस हजार दौ सौ सठि योजन तक्के पदार्थको देख लेता है । श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव आठ हजार धनुष दूर तकके शद्वको सुन लेता है । संज्ञी जीव बारह योजन दूरतक के शद्वको सुन लेता है । इस प्रकार इन्द्रियोंका विषय नियत है । प्राप्यकारी स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों द्वारा भी दूरवर्ती पदार्थोंका तिस प्रकार एक अत्रयवी रूप इन्द्रियदेशपर्यन्त उस दूरवर्ती पदार्थका नैमित्तिक परिणमन हो जानेसे प्रत्यक्ष कर लिया जाता है । यों चार इन्द्रियोंका प्राप्यकारित्व अक्षुण्ण प्रतिष्ठित है । यद्यपि चतुर ( चार ) इन्द्रिय जीव मक्खी, पतंग, आदिक भी आषाढमें प्रातःकाल सैंतालीस हजार सौ त्रेसठ योजन दूरवर्ती सूर्यको अप्राप्यकारी चक्षु द्वारा देख लेते हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव भी उन दूरवर्ती सूर्य, चन्द्रमाको देख सकता है। सूर्यसे चन्द्रमा अस्सी योजन अधिक ऊंचा है। किन्तु विशेष ज्ञानकी अपेक्षा संज्ञीजविका ही बह चक्षुर्विषय नियत किया है । चक्रवर्ती सूर्य विमानमें स्थित हो रही जिन प्रतिमाका दर्शन कर लेता है । किन्तु मक्खी या साधारण मनुष्योंको वहांकी छोटी छोटी वस्तुओंका स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है । अतः सामान्यरूपसे देखना यहां विवक्षित नहीं है। इसी प्रकार टेलीफोन
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
द्वारा या विना तारके विशेष यंत्र द्वारा अधिक दूरवर्ती शद्वोंको भी सुन लिया जाता है। यहां भी विद्युत् शक्ति से फेंके गये शवों को नहीं अपेक्षा कर श्रोत्रका विषय नियत किया गया है । वस्ततः प्राप्यकारी श्रोत्र इन्द्रियके निकट प्रयोगों द्वारा आये हुये शद्वों का ही इन्द्रियजन्य ज्ञान हुआ है । श्री गोम्मटसार में लिखा हुआ जैन सिद्धान्त अकाट्य है । प्रयोगों द्वारा यहां आनेतक अन्य सदृश शब्द बन गये हैं । यों तो सूक्ष्मरूपसे शब्दोंकी परिणति लाखों करोडों योजनांतक हो जाती है । 1 किन्तु योग्यता या दूरतक फेंके जाने अनुसार नियत हो रहे शब्दों को ही श्रोत्र इन्द्रिय जान सकती है । ऋद्धिप्राप्त मुनियोंके इन्द्रियविषय की व्यवस्था ही न्यारी है । यह विषय सूक्ष्म है । त्रिलोक त्रिकालमें अवधित हो रहे और सर्वज्ञकी आम्नायसे चले आ रहे आगमके अनुकूल युक्तियोंद्वारा उक्त सिद्धान्तको आर्थोक्त अनुसार पुष्ट कर लेना चाहिये । इस प्रकार मतिज्ञानका दृष्टान्त देकर मनः पर्ययकी प्रकर्ष प्राप्तिको साध दिया है । परोक्षपन और प्रत्यक्षपनका अन्तर है । इस कारिकामें पडे हुये यथा शब्दका अन्वय तो सूत्रकी नौमी वार्तिकमें उच्चारे गये तथा शब्द के साथ जुडा हुआ है ।
मतिपूर्वं श्रुतं यद्वदस्पष्टं सर्ववस्तुषु ।
स्थितं प्रकृष्यमाणत्वात्पर्यंतं प्राप्य तत्त्वतः ॥ ८ ॥ मन:पर्ययविज्ञानं तथा प्रस्पष्टभासनं ।
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विकलाध्यक्ष पर्यन्तं तथा सम्यक्परीक्षितं ॥ ९ ॥
और जिस प्रकार मतिज्ञानपूर्वक हुआ श्रुतज्ञान ( पक्ष ) सम्पूर्ण वस्तुओंमें अविशद हो रहा सन्ता अन्तिम सीमाको प्राप्त होकर यथार्थ रूपसे स्थित हो रहा है ( साध्य ) अपने विषयोंमें प्रकर्षको प्राप्त हो रहा होनेसे ( हेतु ) तिसी प्रकार मन:पर्यय विज्ञान भी अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञानस्वरूप विकल प्रत्यक्षोंकी सीमापर्यन्त अधिक स्पष्ट होकर प्रकाश रहा है । तिस प्रकार हम पूर्व प्रकरणों में इसकी समीचीन परीक्षा कर चुके हैं। क्षायोपशमिक ज्ञानोंमें विकलप्रत्यक्ष बढे हुये हैं और विकलप्रत्यक्षों में मन:पर्ययज्ञान प्रकृष्ट है । इससे अधिक सूक्ष्म विषयको जाननेवाला कोई क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं है । हां, क्षायिक केवलज्ञान तो सर्वत्र अप्रतिहतवृत्ति है । प्रकृष्यमाणता त्वक्षज्ञानादेः संप्रतीयते ।
इति नासिद्धता हेतोर्न चास्य व्यभिचारिता ॥ १० ॥ साध्ये सत्येव सद्भावादन्यथानुपपत्तितः । वेष्टहेतुवदित्यस्तु ततः साध्यविनिश्चयः ॥ ११ ॥
इन्द्रियजन्य ज्ञान और श्रुतज्ञान आदि ज्ञानोंकी स्त्र के प्रकर्षपर्यन्त प्रकर्षता हो रही भले
प्रकार प्रतीत हो रही है। इस कारण पक्षमें ठहर जानेसे हेतु असिद्ध नहीं है। तथा इस प्रकृष्यमाणत्व
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तचार्यश्लोकवार्तिके
हेतुकी विपक्ष में वृत्ति नहीं होनेसे उसका व्यभिचारीपना भी नहीं है । प्रकर्षपर्यन्त गमनरूप साध्य के होनेपर ही प्रमाणत्व हेतुका सद्भाव अन्यथानुपपत्ति बन जानेसे अपने इष्ट धूम आदि हेतुओं के समान यह हेतु निर्दोष होओ। उस निर्दोष हेतुसे साध्यका विशेषरूप करके निश्चय हो जाता ही है। इस प्रकार पांचवीं वार्त्तिक के प्रमेयको साध दिया है ।
दृष्टेष्टबाधनं तस्यापवे सर्ववादिनां ।
सर्वथैकान्तवादेषु तद्वादेऽपीति निर्णयः ॥ १२ ॥
उन अभीष्ट ज्ञानोंकी प्रकर्षपर्यन्त प्राप्तिका अपलाप कर देनेवर सम्पूर्णवादियों के यहां प्रत्यक्ष प्रमाणों और इष्ट किये गये अनुमान आदि प्रमाणोंकरके बाधायें उपस्थित हो जायेंगी । इस कारण सभी प्रकार एकान्तों को कहनेवाले वादों में और उस प्रसिद्ध हो रहे अनेकान्त वादमें भी उक्त प्रकार मन:पर्यय ज्ञानका निर्णय कर दिया गया है । अर्थात् ज्ञानके नियत विषयोंकी परीक्षा करनेपर सभी विद्वानोंके यहां प्रकृष्यमाणपन अविनाभावी हेतुसे ज्ञानोंका अपने विषयोंमें nana fafa हो रहा है। सीमापर्यंत ज्ञानका नाम कोई कुछ भी रक्वें ।
इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र इस प्रकार प्रकरण आये हैं कि प्रथम ही क्रमप्राप्त मन:पर्ययज्ञानके विषय नियमार्थ सूत्र कहना आवश्यक बताया है । तत् शब्दसे सर्वावधिके द्वारा जानेगये विषयका ग्रहण है। इसके अनन्तानन्त भाग छोटे टुकडेको मन:पर्ययज्ञानका विषय बताकर अनन्तपर्याय और अमूर्त द्रव्यों का मन:पर्ययज्ञान द्वारा जानना निषिद्ध ठहराया है । पश्चात मन:पर्ययज्ञानके सद्भावकी और उसके सूक्ष्म विषयोंकी गहरी परीक्षा की है। समीचीन व्याप्तियोंको बनाकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका दृष्टान्त देकर मन:पर्ययज्ञानकी स्त्रविषयको जानने में प्रकर्षप्राप्ति साध दी गयी है। उक्त प्रकार नहीं माननेवाले प्रवादियों के यहां पर बाधायें उपस्थित होना बताया है। योग्य कारणोंके मिलनेपर इन्द्रियजन्यज्ञान भी नियत विषयतक वृद्धिंगत हो जाते हैं । उसी प्रकार विकल प्रत्यक्ष मन:पर्ययज्ञान भी द्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंकी मर्यादाको लिये हुये स्त्रनियत विषयोंतक बढ जाता है । इससे उत्कृष्ट विषयको आवरणका उदय हो रहा होनेसे नहीं जान पाता है। सम्पूर्ण विषयोंनें तो केवलज्ञानकी ही प्रवृत्ति कही जावेगी । इस प्रकार स्त्रपर मनमें स्थित हो रहे नृलोकस्थ सूक्ष्म स्कन्धतक छोटे बडे रूपी पदार्थोंको और उनकी कतिपय पर्यायोंको मन:पर्ययज्ञान हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष कर लेता है । raast विद्वान् भी इन विकल प्रत्यक्षोंको दूसरे ढंगोंसे स्वीकार अवश्य करते हैं, किन्तु निर्दोष मार्ग स्वामिकथित सिद्धान्त अनुसार ही सर्वमान्य होगा ।
सर्वावधिज्ञातपदार्थसूक्ष्मानन्तभागं विशदीकरोति ।
छद्मस्थबोधाग्रमणिः प्रसत्यै मुक्तेर्मन:पर्यय एष भूयात् ॥ १ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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चार क्षायोपशमिक ज्ञानोंके विषयका नियम कर अब क्रमप्राप्त केवलज्ञानके विषयका नियम करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराजके मुखचंद्रमासे सूत्ररूपी अमृत झरता है। उसका श्रवणेंद्रियद्वारा पानकर परितृप्त इजिये ।
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥ २९ ॥ जीव आदिक सम्पूर्ण द्रव्यों और उनकी सम्पूर्ण पर्यायोंमें केवलज्ञानका विषय नियत हो रहा है। ननु असिद्धत्वात्केवलस्य विषयनिबन्धकथनं न युक्तमित्याशंकायामिदपाह।
किसी मीमांसा करनेवाले की शंका है कि जब केवलज्ञान की प्रमाणद्वारा सिद्धि नहीं हो चुकी है तो फिर असिद्ध केवलज्ञानके विषयनियमका कथन करना युक्त नहीं है । इस प्रकार आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य यह समाधान कहते हैं।
केवलं सकलज्ञेयव्यापि स्पष्टं प्रसाधितम् । प्रत्यक्षमक्रमं तस्य निबन्धो विषयेष्विह ॥१॥
अतीव विशद होकर सम्पूर्ण ज्ञेयोंमें ज्ञानमुद्रासे व्याप रहे केवलज्ञानकी हम पूर्व प्रकरणों में बढिया सिद्धि करचुके हैं। अन्य चार ज्ञान तो पदार्थोंमें क्रमसे वर्तते हैं । किन्तु केवलज्ञान क्रम क्रमसे पदार्थोंको ज्ञानने के लिये नहीं प्रवर्तता है । वह तो युगपत् सम्पूर्ण पदार्थीका विशद प्रत्यक्ष कर लेता है । अतः उस केवलज्ञानका विषयोंमें नियम करना इस प्रकरणमें समुचित ही है।
बोध्यो द्रव्येषु सर्वेषु पर्यायेषु च तत्त्वतः ।
प्रक्षीणावरणस्यैव तदाविभावनिश्चयात् ॥२॥ ___ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काळ इन सम्पूर्ण द्रव्योंमें तथा उक्त द्रव्योंकी सम्पूर्ण ही भूत, वर्तमान, भविष्यत्कालकी अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायोंमें परमार्थ रूपसे केवलज्ञानका विषय समझ लेना चाहिये । जिस मनुष्यके सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्मोका प्रकृष्टरूपसे क्षय होगया है, उस वात्माके ही उस सबको जाननेवाले केवलज्ञानका प्रादुर्भाव होता है। यह सिद्धांत निश्चित है। आवरणोंके क्षयमें प्रकर्ष यही है कि वर्तमानमें एक भी ज्ञानावरण पुद्गलका सद्भाव नहीं पाया जाय, और भविष्यमें भी ज्ञानावरके स्कन्धके आजानेका अवसर प्राप्त नहीं होय । आत्मामें केवलज्ञान शक्तिरूपसे विद्यमान है । प्रतिबन्ध कर्मोका क्षय हो जानेपर आत्माके चेतनागुणका अनन्तकाल- . तकके लिये केवलज्ञानरूप परिणाम होता रहता है। तभी तो आचार्य महाराजने केवलज्ञानका
आविर्भाव ( प्रकट) होना बताया है। रत्न पाषाणमें पहिलेसे विद्यमान हो रही चमक तो कारणोंसे व्यक्त हो जाती है। किन्तु मट्टीकी ईंटमें अन्तरंग शक्ति नहीं होने के कारण वैसी चमक नहीं आपाती है।
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
आत्मद्रव्यं ज्ञ एवेष्टः सर्वज्ञः परमः पुमान् । कैश्चित्तद्यतिरिक्तार्थाभावादित्यपसारितं ॥ ३॥ द्रव्येष्विति बहुत्वस्य निर्देशात्तत्ससिद्धितः । वर्तमानेऽस्तु पर्याये ज्ञानी सर्वज्ञ इत्यपि ॥ ४ ॥ पर्यायेष्विति निर्देशादन्वयस्य प्रतीतितः ।
सर्वथा भेदतत्वस्य यथेति प्रतिपादनात् ॥५॥
किन्हीं ब्रह्माद्वैतवादियोंने परमपुरुष और सबको जाननेवाला ज्ञातास्वरूप अकेला आत्मा द्रव्य ही अमीष्ट किया है । उस आत्मासे अतिरिक्त दूसरे घट पट आदिक अर्थोका अभाव है। अतः अद्वैत आत्मा ही एक तत्व है । इस प्रकार अद्वैतवादियोंके मतका सूत्रमें कहे गये "द्रव्येषु" इस प्रकार बहुब वन के निर्देश निराकरण कर दिया गया है । अर्थात्-अकेला आत्मा ही तस्व नहीं है। किन्तु अनन्तानन्त आत्मायें हैं, तथा आत्माओंके अतिरिक्त पुद्गल, कालाणु आदिक भी अनेक द्रव्य जगत्में विद्यमान हैं । प्रमाणोंसे उन द्रव्योंकी सिद्धि कर दी गयी है। तथा कोई बौद्ध विद्वान् यों कहते हैं कि सबको जाननेवाला सर्वज्ञ भी वर्तमानकालकी विद्यमान पर्यायोंमें ही ज्ञानवान् होवो, किन्तु नहीं विद्यमान हो रहीं भूत, भविष्यत् कालकी पर्यायोंको अथवा अनादि, अनन्त, अन्वित द्रव्योंको वह सर्वज्ञ नहीं जान पाता है । क्योंकि द्रव्यतत्त्व तो मूलमें ही नहीं हैं। और भूत, भविष्यत् कालकी पर्यायें ज्ञानके अव्यवहित पूर्वकालमें विद्यमान नहीं हैं, जिससे कि वे ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण बन सकें । जो ज्ञानका कारण नहीं है, वह ज्ञानका विषय भी नहीं होता है। अतः वर्तमान काल या अव्यवहित पूर्व समयकी पर्यायोंको ही सर्वज्ञ जान पाता है। अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना भी निराकृत हो जाता है । क्योंकि उमास्वामी महाराजने सूत्रमें " पर्यायेषु " इस प्रकार बहुवचनान्तपदका प्रयोग किया है। अतः तीनों काल सम्बन्धी पर्यायोंमें केवलज्ञानकी प्रवृत्ति है। पूर्वकालवत्तरी पर्यायोंका समूल चूल नाश नहीं हो जाता है। किन्तु एक द्रव्यकी कालत्रयवत्ती पर्यायोंमें गंगाकी धाराओंके समान अन्वय जुड रहा प्रतीत होता है। तथा अनादिसे अनन्तकालतक वर्त रहा नित्यद्रव्य भी वस्तुभूत पदार्थ है । पर्यायें कथंचित् मिल हैं, और द्रव्य कथंचित् अभिन्न है। जिस प्रकार सर्वथा भेदरूप अथवा अमेदरूप तत्त्व वास्तविक नहीं बन सकता है । इसको हम पहिले प्रकरणोंमें कह चुके हैं। मालास्वरूप वस्तुमें मणिका ( दाने ) तो पर्यायोंके समान है। और पिरोये हुये डोरेके समान द्रव्य अंश है। पर्याय और इच्य इन दोनों अंशोंका समुदाय अंशी वस्तु है। केवलज्ञान सम्पूर्ण पदार्थोको जानता है।
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तरवायाचन्तामणिः
तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यतां । कीटसंज्ञापरिज्ञानं तस्य नात्रोपयुज्यते ॥ ६ ॥ इत्येतच्च व्यवच्छिन्नं सर्वशद्वप्रयोगतः । तदेकस्याप्यविज्ञाने काक्षूणं शिष्यशासनं ॥ ७ ॥
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बहुवचनान्त द्रव्य और पर्याय इव दो पदोंकी सफलताको दिखाकर अब सर्व शकी पदकीर्ति को समझाते हैं । किसीका हठ है कि मोक्ष के उपयोगी अनुष्ठान करने योग्य कुछ जीव और पुद्गल अथवा बन्ध, बन्धकारण, मोक्ष, मोक्षकारण आदि पदार्थों में ही इस सर्वज्ञका ज्ञान प्राप्त हो रहा है । तिप्त कारण यही विचार लो कि कतिपय उपयोगी पदार्थोंका ही ज्ञान सर्वज्ञ को I है । इस प्रकरण में सम्पूर्ण कीट, पतंग या कूडे, करकट आदिके नाम निर्देश और उन कीडे कूढे आदि निसार पदार्थोंका परिज्ञान करना उस सर्वज्ञको उपयोगी नहीं है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार यह किसीका कहना सूत्रोक्त सर्व शद्व के प्रयोगसे खण्डित हो जाता है । क्योंकि उन सम्पूर्ण पदार्थों में से किसी एक भी कीडे, कचडेका, विशेषज्ञान न होनेपर भला परिपूर्ण रूपसे शिष्यों के प्रति निर्दोष शिक्षा देना कहां बन सकेगा ! अर्थात् प्रायः प्रत्येक जीव पूर्वजन्मोंमें कीट, पतंग, पर्यायोंको धारण कर चुके हैं। कोई कोई जीव मविष्य में भी अनेक वार कीडे पतंगे होवेंगे । अतः भूत, भविष्य, वर्तमानकालके भत्रको जाननेवाले सर्वज्ञ को कीडों का ज्ञान करना भी आवश्यक है । तथैत्र मून, भविष्य शरीरखा होने की योग्यता रखनेत्राळे या नाना पौगलिक पदार्थ स्वरूप हो चुके होनेवाले कचरेका ज्ञान भी अनिवार्य है । दूसरी बात यह है कि वस्तु के स्वभावमें आवश्यकता अपेक्षणीय नहीं है । दर्पण अपने सन्मुख आये हुये छोटे, बडे मूर्ख, पण्डित, मल, मूत्र, आदि सत्रका प्रतिबिम्ब ले लेता है। जो छोटी मूर्त वस्तु हमें बाहर नहीं दीखती है। उसका प्रतिबिम्ब भी नहीं दीखता है । किन्तु छोटे पदार्थका भी प्रतिबिम्ब दर्पण में पड गया है। सूर्य सम्पूर्ण रूपवान् पदार्थों का प्रकाश कर देता है । यहां उपयोगी अनुपयोगीका प्रश्न उठाना उचित नहीं है । इसी प्रकार ज्ञानका स्वभाव भी त्रिलोक, त्रिकाळवर्ती सम्पूर्ण पदार्थोंको प्रकाश करनेका है । अतः सर्वज्ञ ( आत्मायें ) इच्छा के बिना ही यावत् विशद प्रत्यक्ष कर लेते हैं । वस्तुनः विचारा जाय तो संसार के सभी पदार्थ अपेक्षाकृत उपयोगी और अनुपयोगी हो जाते हैं। टोडीके बाल डड्डी रखाने वाले मनुष्य या सिक्खोंके उपयोगी हैं । किन्तु डड्डो को नहीं चाहनेवाले पुरुषके लिए वे ही बाल भारभूत अनुपयोगी बन रहे हैं। कूडा, कचडा भी खात के लिये बड़ा उपयोगी है । घरमें डा हुआ कूडा तो रोगका उत्पादक है । बात यह है कि ज्ञानका स्वभाव जानना है । चक्षुद्वारा हम मेध्य, अध्य, शत्रु, मित्र, आवश्यक, अनावश्यक, चीटी, मकवी, आदि सभी पदार्थोको योग्यता मिल जानेपर देख लेते हैं । नहीं चाहे हुए या अनुपयोगी पदार्थों को भी देख लेना पड़ता है । कभी
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सार्थ श्लोकवार्तिके
कभी तो मनोभिलाषासे नहीं स्मरण करने योग्य घृणित या भयंकर अथवा इष्ट हो रहे मृत या वियुक्त पदार्थों का पुनः पुनः स्मरण आता रहता है। क्या करें, अग्नि सभी दाह्य पदार्थोोको जला देती है । अभ्रक ( भोडल ) की भी भस्म हो जाती है । द्रव होने योग्य पदार्थोंको जल आई कर देता है । वह हानि, लाभ, पर आवश्यक, अनावश्यकका विचार नहीं करता है। इसी प्रकार केवलज्ञान भी विचार करनेवाला ज्ञान नहीं है । स्त्रपरप्रकाश स्वभावद्वारा सम्पूर्ण अनन्तानन्त पदार्थोंको युगपत् जानता रहता है ।
हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकं । सर्वज्ञतामितं नेष्टं तज्ज्ञानं सर्वगोचरम् ॥ ८ ॥ उपेक्षणीयवस्य हेयादिभिरसंग्रहात् ।
न ज्ञानं न पुनस्तेषां न ज्ञानेऽपीति केचन ॥
कोई लौकिक विद्वान् कह रहे हैं कि सर्वज्ञपनको प्राप्त हो चुका भी विज्ञान केवळ उपायोंसे सहित हेय और उपादेय तत्वोंका ही ज्ञान करनेवाला माना गया है। वह ज्ञान सम्पूर्ण अनन्तानन्त पदार्थों को विषय करनेवाला इष्ट नहीं किया गया है । अर्थात् — हेय तत्र संसार और उसके उपाय आसत्रतस्व, बन्धस्त्र तथा उपादान करने योग्य मोक्ष और उसके उपाय संवर, निर्जरा rant अथवा इसी प्रकारके अन्य कतिपय अर्थोंको ही सर्वज्ञ जानता है । शेष बहुभाग पदार्थोंको महीं जान पाता है । प्रमाणका फल कहते हुये आप जैनोंने हेयका हान, उपादेय अर्थोका उपादान और उपेक्षणीय पदार्थोंकी उपेक्षा कर लेना माना है । तदनुसार उपेक्षा करने योग्य कीडा, कूडा आदि, जीव, पुद्गल, आदि तत्रोंका हेय आदिकोंकरके संग्रह नहीं हो सकता है । अतः उन उपेक्षा करने योग्य पदार्थोंका फिर सर्वज्ञको ज्ञान नहीं होता है । उन बहुभाग अनन्तानन्त उदासीन पदार्थों का ज्ञान नहीं होनेपर भी ज्ञान नहीं हुआ ऐसा नहीं समझा जाता है । अतः आवश्यक हो रहे सम्पूर्ण य उपादेय तत्वोंको जान लेनेसे अतिशय उक्ति अनुसार उसको सर्वज्ञ कह देते हैं । जैसे कि राजनीतिके गूढ विषयोंको ही जाननेवाले विद्वान्को स्तुति करता हुआ पुरुष " सर्वज्ञ " ऐसा खान देता है । इस प्रकार कूपमण्डूकके समान अल्पबुद्धिको धारनेवाले विद्वानों के समान कोई विद्वान् कह रहे हैं ।
आधुनिक जडवादी
९ ॥
तदसद्वीतरागाणामुपेक्षत्वेन निश्चयात् । सर्वार्थानां कृतार्थत्वात्तेषां कचिदवृत्तितः ॥
१० ॥
अ आचार्य कहते हैं कि मीमांसकों का वह कहना सत्यार्थ नहीं है । क्योंकि वीतराग सर्वज्ञ आत्माओं की दृष्टिमें सम्पूर्ण पदार्थोंका उपेक्षा के विषयपने करके निश्चय हो रहा है । अर्थात्
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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त्रिकाल, त्रिलोकवी पदार्थोको युगपत् जाननेवाले सर्वज्ञ वीतराग देव किसी पदार्थमें रागी नहीं होनेके कारण उनका उपादान नहीं करते हैं । और किसी भी पदार्थमें द्वेष नहीं रखनेके कारण उनका त्याग नहीं करते हैं । किन्तु सर्वज्ञ आत्माओंके सम्पूर्ण पदार्थोंमें उपेक्षामाव है | तभी तो स्वामी श्री समन्तभदाचार्यने " आप्तमीमांसा " में लिखा है कि " उपेक्षा फलमाघस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे " केवलज्ञानका फल उपेक्षा करना है। शेष चारज्ञान और तीन कुज्ञानों का फल अपने विषयोंमें उपादान बुद्धि और त्याग बुद्धि करा देना है। उपेक्षा भी फल है। हां, अज्ञानोंका नाश तो सभी ज्ञानोंसे हो जाता है। पदार्थोकी जिहासा और उपादित्सा होनेपर द्वेषी, रागी, जीवोंकी पदार्थोंमें त्याग और ग्रहणके लिये निवृत्ति, प्रवृत्तियां होती हैं। किन्तु वे केवलज्ञानी सर्वत्र तो कृतकृत्य हो चुके हैं । अतः उनकी किसी भी पदार्थमें हान, उपादान करनेके लिये निवृत्ति या प्रवृत्ति नहीं होती है । अतः उपायसहित कतिपय हेय और उपादेय तत्वोंको ही जाननेवाला सर्वज्ञ है। यह मीमांतकोंका कथन करना प्रशंसनीय नहीं है । उनकी दृष्टिसे सभी पदार्थ उपेक्षणीय हैं, वे सबको एकसा समान रूपसे जानते रहते हैं।
विनेयापेक्षया हेयमुपादेयं च किंचन । सोपायं यदितेऽप्याहुस्तदोपेक्ष्यं न विद्यते ॥ ११ ॥ निःश्रेयसं परं तावदुपेयं सम्मतं सताम् । हेयं जन्मजरामृत्युकणि संसरणं सदा ॥ १२ ॥ अनयोः कारणं तस्याद्यदन्यत्तन्न विद्यते । पारंपर्येण साक्षाच वस्तूपेक्ष्यं ततः किमु ॥ १३ ॥
यदि वे मीमांसक लोग यों कहें कि सर्वज्ञकी दृष्टि में भले ही कोई पदार्थ हेय और उपादेय नहीं होवे, किन्तु उपदेश प्राप्त करने योग्य विनयशाली शिष्यों की अपेक्षासे कोई त्यागने योग्य पदार्थ तो हेय हो जावेगा और शिष्योंकी दृष्टि से ग्रहण करने योग्य कोई कोई पदार्थ उपादेय बन जायगा। उन हेय, उपादेय पदार्थोके उपाय भी जगत्में प्रसिद्ध हो रहे हैं । इस प्रकार उपाय सहित हेय, उपादेय, तत्वोंका जान लेना ही सर्वज्ञताके लिये पर्याप्त है। इस प्रकार भी जो वे मीमांसक कह रहे हैं, अब हम जैन कहते हैं कि तब तो यानी रागी, द्वेषी, शिष्योंकी अपेक्षा करके ही यदि हेय, उपादेय, तत्त्वोंका जानना सर्वज्ञके लिये आवश्यक बताया जायगा तो जगत्में कोई उपेक्षा ( रागद्वेष नहीं करने योग्य ) का विषय कोई पदार्थ नहीं ठहरता है । देखिये, परमात्म अवस्थास्वरूप उत्कृष्ट मोक्ष तो सजन पुरुषोंके यहां उपादान करने योग्य भले प्रकार मानी गयी है। और सर्वदा ही जन्म, बुढापा, मृत्यु, रोग आदिक बाधाओंसे घिरा हुआ यह संसार तो
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तत्त्वार्थचोकवार्तिके
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विद्वानोंकी सम्प्रति हेय भास रहा है । तथा मोक्ष और संसार इन दोनोंके कारण भी प्रसिद्ध हो रहे वे संवर, निर्जरा, या मिथ्याज्ञान, कषाय, योग, स्त्री, पुत्र, धन, गृह, आदिक पदार्थ है, मोक्ष, संसार, और उनके कारण इन तीन जातिके पदार्थोसे भिन्न कोई भी पदार्थ वह विद्यमान नहीं है, जो कि उपेक्षा करने योग्य कहा जाय ! जगत् के सम्पूर्ण भी पदार्थ परम्पराकरके अथवा साक्षात् रूपसे हेय और उपादेय तत्वोंमें गर्भित हो जाते हैं । तिस कारणसे तुम मीमांसक बताओ कि भला कौन वस्तु उपेक्षणीय कही जाय ! संसारमें अनन्त विनययुक्त जीव हैं, जो कि आपकी परिभाषासे " विनेय " कहे जा सकते हैं । साक्षात् या परम्परासे सभी पदार्थ उनकी अपेक्षासे त्याग्य या उपादेय हो रहे हैं । अतः कीडा, कूडा, आदि पदार्थ भी डाक्टरों या किसानों और सेठोंको ग्राह्य या त्याज्य पदार्थ बन रहे हैं। अतः मीमांसकके सर्वज्ञको भी उक्त पदार्थोका ज्ञान करना बावश्यक पड गया। जगतके सम्पूर्ण पदार्थोंको जान चुकनेपर ही सर्वज्ञपना निरवध ठहर सकता है। अन्यथा नहीं।
द्वेषो हानमुपादानं रागस्तद्वयवर्जनं । ख्यातोपेक्षेति हेयाद्या भावास्तद्विषयादिमे ॥ १४ ॥ इति मोहाभिभूतानां व्यवस्था परिकल्प्यते ।
हेयत्वादिव्यवस्थानासम्भवात्कुत्रचित्तव ॥ १५॥
पदार्थोंमें द्वेष करना ही उनका हानि ( त्याग ) करना है और पदार्थोंमें राग करना ही उनका उपादान है । तथा उन राग, द्वेष दोनोंको वर्जना उपेक्षा कही जाती है । इस प्रकार हेय, उपादेय, उपेक्षणीय, प्रकारके भाव जगत्में प्रसिद्ध हैं। उन आत्मीय परिणाम हो रहे राग, द्वेष, उपेक्षाओं के विषय पड जानेसे ये पदार्थ भी हेय आदिक वखाने जाते हैं। इस प्रकार मोहप्रस्त जीवोंकी व्यवस्था चारों ओरसे कल्पित कर ली गयी है । तदनुसार तुम मीमांसकोंके यहां किसी भी एक विवक्षित पदार्थमें हेयपन आदिकी व्यवस्था करना असम्भव है।
हातुं योग्यं मुमुक्षूणां हेयतत्वं व्यवस्थितं । उपादातुं पुनर्योग्यमुपादेयमितीयते ॥ १६ ॥ उपेक्ष्यन्तु पुनः सर्वमुपादेयस्य कारणम् ।
संवोपेक्षास्वभावत्वाचारित्रस्य महात्मनः ॥ १७ ॥
वस्तुत: सिद्धान्त इस प्रकार है कि मोक्षको चाहनेवाले भव्य जीवोंके त्याग करने योग्य पदार्थ तो हेयतत्त्र है और मुमुक्षुओं के ग्रहण करने योग्य पदार्थ फिर उपादेयपनकरके व्यवस्थित हो रहे हैं । इस प्रकार प्रतीति की जा रही है। किन्तु फिर जीवन्मुक्त हो जानेपर सम्पूर्ण मी पदार्थ
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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उपेक्षा करने योग्य हो जाते हैं । उपादेय और हेयके कारण भी उपेक्षा करने योग्य हैं। क्योंकि महान् आत्मात्राले सर्वज्ञके तदात्मक हो रहा चारित्र गुण तो सम्पूर्ण पदार्थोंमें उपेक्षा करना स्वभावको लिये हुये हैं । भावार्थ - महात्मा सर्वज्ञदेवका चारित्र गुण सम्पूर्ण पदार्थों में उपेक्षित हो रहा है I चारित्रमोहनीय कर्मका नाश हो जानेसे राग, द्वेष, रति, अरति भाव नहीं उत्पन्न हो पाते हैं । महात्मा हो रहा चारित्र गुण सत्रकी उपेक्षा स्वरूप है। यदि मीमांसकोंके कथन अनुसार सर्वज्ञमें उपेक्षणीय तत्रोंका ज्ञान नहीं माना जायगा तो वह अज्ञ ही रहेगा । एक मी अर्थ नहीं जान पावेगा । यथार्थ में विचारा जाय तो उपेक्षणीय पदार्थका ही परिपूर्ण ज्ञान हो सका है। हेय और उपादेयके ज्ञान करने में तो त्रुटियां रह जाती हैं। माता अपने काले बांके छोकरेको बहुत सुंदर जान लेती है । शत्रु पदार्थ अच्छे भी भले ढंगसे नहीं जाने जाते हैं। कूंजडी अपने खट्टे बेरोंको भी अच्छा बताती है । किन्तु बडे विद्वान् अपनेको छोटा ही कहते हैं । रागद्वेष पूर्ण हो रहे artha गुणदोषोंकी व्यवस्थाके अधीन सम्यग्ज्ञान नहीं है ।
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तत्त्वश्रद्धानसंज्ञानगोचरत्वं यथा दधत् । तद्भाव्यमानमाम्नातममोघमघघातिभिः ॥ १८ ॥
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तार्थीका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के विषयपनेको धारण कर रहे वे पदार्थ यदि यथायोग्य वस्तु अनुसार भावना ( चारित्र ) द्वारा भावे जांय तो ज्ञानावरण आदि पापकर्मोंका नाश करनेवाले ज्ञानी जीवोंद्वारा अव्यर्थ माने गये हैं । अर्थात् - सम्यग्दर्शन और सभ्य ज्ञान के विषय हो जाय तो सभी पदार्थ उपादेय होते हुये मुक्तिके कारण हो जाते हैं। इस अपेक्षासे हेय पदार्थोंके लिये कोई स्थान नहीं रहता है । सम्यग्ज्ञानद्वारा जाने गये उपाय या यतस्त्र भी उपादेय हैं। तभी तो तत्रार्थसूत्र की स्तुति या पूजा करनेवालोंके लिये एकेंद्रिय, नपुंसक, नारकी, बन्धहेतु, आर्त रौद्रध्यान, आदि निकृष्ट विषयोंके प्रतिपादक " पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थाबराः, नारकसमूर्च्छनो नपुंसकानि, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः, आर्तममनोज्ञस्य, इत्यादि अनेक सूत्र भी उपादेय होकर अर्ध्य चढाने योग्य हो रहे हैं ।
मिथ्यादृग्बोधचारित्रगोचरत्वेन भावितम् ।
सर्वं यस्य तत्त्वस्य संसारस्यैव कारणं ॥ १९ ॥
तथा मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के विषयपने करके भावना किये गये सभी पदार्थ हेय हैं और देयतस्त्र संसारके ही कारण हैं । अर्थात् इस अपेक्षासे सभी पदार्थ हेय होगये । उपादेयोंके लिये स्थान अवशिष्ट नहीं रहता है । मिथ्याज्ञानसे जाने हुये उपायतस्य भी हेय हैं । यहां तक कि सम्यज्ञानके विषय हो रहे भी देवदर्शन, जिनपूजन, बारह भावनायें, छेदोपस्थापना,
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
धर्म्यध्यान, क्षपकश्रेणी, आदि कतिपय पदार्थ ऊपर २ के गुणस्थानों में देय होते जाते हैं । मुक्त अवस्थामें सामायिक शुक्लध्यान, संवर और निर्जरा मी सर्वथा छोड़ दिये जाते हैं ।
तदवश्यं परिज्ञेयं तत्त्वार्थमनुशासता ।
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विनेयानिति बोद्धव्यं धर्म्मवत्सकलं जगत् ॥ २० ॥
तिस कारण विनीत शिष्योंके प्रति तत्त्वार्थोंकी शिक्षा देनेवाले सर्वज्ञ करके सम्पूर्ण पदार्थ अवश्य ही चारों ओरसे जान लेने योग्य हैं । इस प्रकार धर्मके प्रधान उपदेष्टाको उचित है कि वह धर्म, अधर्म के समान सम्पूर्ण जगत् को साक्षात् जान लेवें । अर्थात् — धर्मको जानें और सर्व पदार्थोंको जाने । तभी शिष्यों के प्रति निर्दोष शिक्षण हो सकेगा अन्यथा नहीं । सर्वज्ञद्वारा तो पीछे मी आम्नाय चल सकती है । अन्ध आम्नाय अनुसार तत्वोंका निःसंशय निर्णय नहीं हो पाता है ।
धर्मादन्यत्परिज्ञातं विप्रकृष्टमशेषतः ।
येन तस्य कथं नाम धर्मज्ञत्वनिषेधनम् ॥ २१ ॥
जिस महात्माने धर्म के अतिरिक्त अन्य स्वभावव्यवहित परमाणु आदिक और देशव्यवहित सुमेरु आदिक, तथा कालव्यवहित रामचन्द्र आदिक विप्रकृष्ट जान लिया है, उस पुरुषके धर्मके ज्ञातापनका निषेध करना भला धर्मके सिवाय अन्य सम्पूर्ण पदार्थोंको जो जानता है, वह धर्मको भी सूक्ष्म पदार्थोंतकको जाननेवाले विद्वान् करके धर्म जाननेसे बच नहीं सकता है । अतः सर्वज्ञ के aिये धर्मज्ञपनेका निषेध करना मीमांसकोंको उचित नहीं है ।
पदार्थोंको शेषरहितपने से परिपूर्ण
कैसे सम्भवता है ? भावार्थभी अवश्य जान लेगा । धर्मले
सर्वानतींद्रियान वेत्ति साक्षाद्धर्ममतीन्द्रियम् ।
प्रमातेति (प्रमाता न ) वदन्न्यायमतिक्रामति केवलं ॥ २२ ॥
प्रमाणज्ञान करनेवाला आत्मा सम्पूर्ण अतीन्द्रिय पदार्थोंको प्रत्यक्षरूपसे जानता है । केवल अतीन्द्रिय पुण्य पापरूप धर्म, अधर्मको साक्षात् नहीं जानता है। " धर्मे चोदनैव प्रमाणं " धर्मका निर्णयज्ञान करनेमें वेदवाक्य ही प्रमाण हैं । इस प्रकार कह रहा मीमांसक न्यायमार्गका केवल अतिक्रमण कर रहा है। जब कि न्यायकी सामर्थ्य से उत्कृष्ट ज्ञानका स्वभाव सम्पूर्ण पदार्थोंका जानना सिद्ध हो चुका है, तो फिर वह ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थोंमेंसे केवल धर्मको क्यों छोड़ देगा ! जल और स्थल सभी स्थानोंमें मेघ वर्षते हैं । कंगाल, धनपति, सबके यहां सूर्य प्रकाश करता है । वस्तुका वैसा स्वभाव सिद्ध हो जानेपर पुनः पक्षपात नहीं चलता है ।
यथैव हि हेयोपादेयतवं साभ्युपायं स वेति न पुनः सर्वकीट संख्यादिकमिति बदन्न्यायमतिक्रामति केवलं तत्संवेदने सर्वसंवेदनस्य न्यायप्राप्तत्वात् । तथा धर्मादन्यान
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तीन्द्रियान्सर्वानन्विनानन्नपि धर्म साक्षान स वेत्तीति वदन्नपि तत्साक्षात्करणे धर्मस्य साक्षात्करणसिद्धरतीन्द्रियत्वेन जात्यन्तरत्वाभावात् । यस्य यज्जातीयाः पदार्थाः प्रत्यक्षातस्यासत्यावरणे तेऽपि प्रत्यक्षा यथा घटसमानजातीयभूतलपत्यावे घटा। प्रत्यक्षाश्च कस्यचिद्विवादापत्रस्या धर्मसजातीया: परमाण्वादयो देशकालस्वभावविप्रकृष्टा इति न्यायस्य सुव्यवस्थितत्वात् ।
जिस ही प्रकार यों कह रहा मीमांसक केवल न्यायमार्गका उल्लंघन कर देता है कि उपाय सहित केवळ हेय और उपादेयको ही वह सर्वज्ञ जानता है । किन्तु फिर सम्पूर्ण कीडे, कूडे, और उनकी गिनती नाप, तोल आदिकोंको वह सर्वज्ञ नहीं जानता है । आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकोंका सर्वथा ( सरासर ) अन्याय है । क्योंकि उन उपादेयसहित हेय उपादेय तत्त्वोंके भले प्रकार जान लेनेपर सम्पूर्ण पदार्थोका अच्छा जान लेना अपने आप न्यायसे प्राप्त हो जाता है । तिसी प्रकार यों कह रहा मीमांसक भी न्यायमार्गको उल्लया है कि धर्मसे अतिरिक्त अन्य सम्पूर्ण अतींद्रिय पदार्थोको विशेषरूपसे जानता हुआ भी वह सर्वज्ञ धर्मको साक्षात् रूपसे नहीं जान पाता है । यह मीमांसकोंका अन्याय क्यों हैं ? इसका प्रकार उतर यही है कि उन सम्पूर्ण अतीन्द्रिय पदायोंके प्रत्यक्ष कर लेनेपर धर्मका प्रत्यक्ष कर लेना तो स्वतः सिद्ध हो जाता है। बहिरंग इन्द्रियों के विषय नहीं हो सकनेकी अपेक्षासे धर्म और अन्य अतीन्द्रिय पदार्थोंमें कोई भिन्न जातीयपना नहीं है । पुण्य, पाप, परमाणु, आकाश आदिक पदार्थ समान जातिके हैं । जिस ज्ञानी जीवको जिस जाति. वाळे पदार्थों का प्रत्यक्ष होगया है, उस ज्ञानीको प्रतिबंध आवरणोंके दूर हो जानेपर उस जातिवाळे अन्य पदार्थोका भी प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसे कि पौद्गलिक घटके समान जातिवाले होरहे भूतलके चाइन्द्रिय द्वारा प्रयक्ष हो आने पर वहां विद्यमान हो रहे घटका भी चक्षुइन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष हो जाता है। इसी प्रकार विवादमें पडे हुये किसी सर्वज्ञके ज्ञान द्वारा धर्मके सजातीय परमाणु सुमेरु, रामचंद्र आदिक स्वभावविप्रकृष्ट, देशविप्रकृष्ट, कालविप्रकृष्ट पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाते हैं। इन्द्रिय जन्य-ज्ञानग्राह्य अन्य पदार्थोका प्रत्यक्ष तो अभीष्ट ही है। इस प्रकार प्रतिज्ञा, हेतु, आदि पांच अवयववाले अनुमान स्वरूप न्यायकी भळे प्रकार व्यवस्था हो चुकी है।
ततो नेदं सूक्तं मीमांसकस्य । “धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते" इति । न ववधीरणानादरः । तत्सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यत इति । तत्र नो नावितरामादरः।
- तिस कारण मीमांसकोंका यह कहना समीचीन नहीं है कि सर्वत्रका निषेध करते समय केवल धर्मके ज्ञातापनका निषेध करना हो तो यहां उपयोगी हो रहा है। अन्य सभी पदार्थीको भले ही वह सर्वज्ञ जाने ऐसे सर्वजका किस विद्वान्करके निवारण किया जा रहा है ! अर्थात्मीमांसकोंका कहना है कि अतीन्द्रिय धर्मका ज्ञान तो वेदवाक्योंद्वारा ही होता है । धर्मसे अतिरिक
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
अतींद्रिय पदार्थोंको भले ही वह सर्वज्ञ जान ले, हमारी कोई क्षति नहीं है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार मीमांसकोंने सर्वज्ञके निषेध के लिये वक्र उक्ति द्वारा निंद्य प्रयत्न किया है। दूसरोंके अपशकुनके लिये अपनी आंखको फोड लेने के समान यह मीमांसकोंका घृणास्पद व्यवहार है। दूसरीबात यह है कि इस प्रकार मीमांसकोंके उक्त कथनसे यह भी प्रतीत होता है कि सर्वज्ञको न मान में मीमांसक जब निन्दा या तिरस्कार नहीं समझते हैं, और सर्वज्ञका अनादर भी नहीं करते हैं। क्योंकि वे स्वयं कहते हैं कि अन्य सभी पदार्थोंको विशेषरूपसे जान रहा वह पुरुष विशेष सर्वज्ञ तो किसीकरके भी नहीं निषेधा जा रहा है, इस कारण हम जैनसिद्धान्तिओंका उस मीमांके प्रति अति अधिक आदर नहीं है । अर्थात् धर्मके अतिरिक्त सभी पदार्थोंका प्रत्यक्ष तो मीमांसक मानता नहीं है। अवशेष बचे धर्म के प्रत्यक्ष करलेने की सिद्धि सुलभतासे करायी जा सकती है। परमार्थतस्तु न कथमपि पुरुषस्यातींद्रियार्थदर्शनातिशयः सम्भाव्यते सातिशयानामपि प्रज्ञामेधाभिः स्तोकस्तोकान्तरत्वेनैव दर्शनात् । तदुक्तं " येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन नत्वतींद्रिय (ज्ञान) दर्शनात् ॥ " इति कश्चित्तं प्रति विज्ञानस्य परमप्रकर्षगमन साधनवाह ।
सर्वज्ञको नहीं माननेवाला कोई विद्वान् कह रहा है कि परमार्थरूपसे देखा जाय तब तो इस अल्पज्ञ पुरुष के अतींद्रिय अर्थोके विशद प्रत्यक्ष कर लेनेका अतिशय (चमत्कार ) कैसे भी नहीं सम्भवता । जो भी कोई पुरुष विचारशालिनी बुद्धि या धारणायुक्त बुद्धि अथवा नवनव उन्मेषशालिनी प्रतिभा बुद्धिकरके अतिशय सहित हो रहे हैं, उनके भी छोटे या उससे भी छोटे पदार्थों का ज्ञान कर लेनेसे ही विशेष चमत्कार दीखता है । वे इन्द्रियों के अविषयको नहीं जान सकते हैं । सो ही हमारे यहां " मीमांसाको कार्तिक " में कहा जा चुका है कि जो भी कोई विद्वान् प्रज्ञा, मेत्रा, प्रेक्षा, आदि विशेषज्ञानों करके चमत्कारसहित देखे गये हैं, वे भी छोटा और सबसे छोटा आदिक इन्द्रिय गोचर पदार्थों के जाननेसे ही वैसे अन्य विद्वानोंमें बढे चढे हुये समझे जाते हैं । किन्तु अतीन्द्रिय पदार्थोंके दर्शनसे वे चमत्कारयुक्त नहीं हैं | असम्भव पदार्थों को कर देने में चक्रवर्ती, अहमिन्द्र, जिनेन्द्र किसीको भी प्रशंसापत्र अद्यापि नहीं मिला है, जब कि वे अश्वविषाणके समान किये ही नहीं जासकते हैं । ast भारी भी विद्वान् पुरुष सजातियोंका अतिक्रमण नहीं करता हुआ दो अन्य मनुष्योंसे चमत्कार धार सकता है । उपनेत्र ( चश्मा ) या दुरवीनकी सहायता से चक्षुद्वारा छोटे या दूरवर्ती पदार्थों को ही देखा जा सकता है। परमाणुको नहीं देखा जा सकता है। तथा अच्छी आंखोंवाला पुरुष दूरवर्ती पदार्थोंकी गन्ध या स्पर्शको आंखोंसे नहीं जान सकता है। बडा भारी वैयाकरण भी विद्वान् ज्योतिष शास्त्र के सूक्ष्म रहस्यों को नहीं जान सकता है। इसी प्रकार सर्वज्ञ भी इन्द्रियोंके अगोचर पदार्थोका प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है । हो, अपौरुषेय आगमसे अतीन्द्रिय पदार्थोंको
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मले ही जानलेवे, इस प्रकार कोई ममितिक कह रहा है। उसके प्रति आचार्य महाराज श्री विद्यानन्द स्वामी विज्ञानके परम प्रकर्षपर्यन्तगमन के साधन ( हेतु ) को स्पष्ट कहते हैं, सो सुनो।
ज्ञानं प्रकर्षमायाति परमं कचिदात्मनि ।
तारतम्याधिरूढत्वादाकाशे परिमाणवत् ॥ २३ ॥
किसी एक आत्मामें निर्दोष उत्पन्न हो रहा ज्ञान ( पक्ष ) सबसे बडे उत्कर्षको प्राप्त हो जाता है, ( साध्य ) | ज्ञानका बढना और उससे अधिक बढना तथा उससे भी अधिक बढना, इस प्रकार तरतपने करके आरूढ होनेसे ( हेतु ) जैसे कि आकाशमें परिमाण ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात्-घट, पट, गृह, ग्राम, नगर, पर्वत, समुद्र, आदिमें परिमाणकी तारतम्यसे वृद्धि होते होते अनन्त आकाशमें परम महापरिमाण परमप्रकर्षको प्राप्त हो रहा माना जाता है, इसी प्रकार गमार, किसान, छात्र, पण्डित, शास्त्री, आचार्य, गणधर आदि विद्वानोंमें ज्ञानवृद्धिका तारतम्य देखा जाता है । अन्तमें जाकर लोक अोकको जाननेवाले सर्वज्ञदेवमें वह सबसे बडा ज्ञान परिपूर्ण हो जाता है । इस प्रकार सर्वज्ञके ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है ।
तारतम्याधिरूढत्वमसंशयप्राप्तत्वं वद्विज्ञानस्य सिध्यत् कचिदात्मनि परमप्रकर्षप्राप्तिं साधयति, तया तस्य व्याप्तत्वात्परिमाणवदाकाशे ।
उस किसी विवक्षित आत्मा के विज्ञानका तरतमरूपसे आरूढपना संशयरहित प्राप्त होता हुआ सिद्ध हो रहा है । वह पक्ष में वर्त रहा सिद्ध हेतु किसी आत्मारूप पक्ष में परम प्रकर्षको प्राप्त हो जाना रूप साध्यको साथ देता ही है। क्योंकि उस वृद्धि के तरतमपनेको प्राप्त हो रहे हेतुकी उस परमप्रकर्ष प्राप्तिके साथ व्याप्ति बन चुकी है। जैसे कि आकाशमें परम प्रकर्षको प्राप्त हुआ परिमाण यह दृष्टान्त प्रसिद्ध हो रहा है। मीमांसकोंने भी परिमाणकी उत्कृष्ट वृद्धि आकाशमें मानी है। उसी सदृशज्ञानकी वृद्धि सर्वज्ञमें मान लेनी चाहिये ।
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क्षविज्ञानं तस्य साध्यं प्रभाष्यते ।
सिद्धसाधनमेतत्स्यात्परस्याप्येवमिष्टितः ॥ २४ ॥
यहां कोई मीमांसक जैनोंके उक्त हेतुपर कटाक्ष करते हैं कि पूर्वोक्त अनुमानमें जैनोंने ज्ञानको पक्ष बनाया है । उसपर हम मीमांसकोंका यह कहना है कि ज्ञानपदसे यदि इन्द्रियों से अन्य विज्ञान लिया जायगा और उस इन्द्रियजन्य ज्ञानकी परमप्रकर्ष प्राप्तिको साध्य बनाकर अच्छे प्रकार वखाना जायगा तब तो यह जैनोंके ऊपर सिद्धमाधनदोष होगा । क्योंकि दूसरोंके यहां यानी हम मीमांसकों के यहां भी इस प्रकार इष्ट किया गया है कि स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, और मन इन्द्रियोंकी विषय प्रहण करनेमें यथायोग्य उत्कर्षता बढते बढते परम अवस्थाको
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पहुंच जाती है । चींटी, सूहर, गीध आदिके प्रयक्षोंसे भी अधिक अतिशयधारी जीवोंके प्रत्यक्ष प्रसिद्ध हो रहे हैं। यंत्र द्वारा हजारों कोस दूरके शब्द सुने जा सकते हैं । अभ्यास अनुसार मानसबान भी बढता जाता है।
लिङ्गागमादिविज्ञानं ज्ञानसामन्यमेव वा।
तथा साध्यं वदंस्तेन दोषं परिहरेत्कथम् ॥ २५॥
मीमांसक ही कह रहे हैं कि यदि ज्ञानपदसे ज्ञापकलिंगजन्य अनुमानज्ञान या आगमज्ञान, अर्थापत्ति बादि विज्ञान पकडे जायेंगे अथवा जैनोंद्वारा सामान्यरूपसे चाहें कोई भी विज्ञान लिया जायगा, तो भी इन अनुपान आदि ज्ञानरूप पक्षमें तिस प्रकार परमप्रकर्ष प्राप्तिरूप साध्यको कह रहा जैन विद्वान् भी तिस सिद्ध साधनकरके हो रहे दोषको भला कैसे निवारण कर सकेगा ! अर्थात्-अनुपान ज्ञान बढते बढते मी कात्यायन आदिकों का सबसे बढ़ा हुआ अनुगन हम मीमा. सक स्वीकार करते हैं । मनु, जैमिनिको बढा हुआ आगमका प्रकृष्ट ज्ञान भी हम अभीष्ट करते हैं। अतः गीध, गरुड, सूहर, चींटी आदिक जीव चक्षु, कर्ण, घ्राण इन्द्रियोंद्वारा जैसे इन्द्रियजन्य बानोंकी ही प्रकर्षताको प्राप्त कर रहे हैं, उसी प्रकार कात्यापन, जैमिनि आदिक विद्वान् भी स्वविषयका अतिक्रमण नहीं करते हुए अनुमान, आगम दोनोंकी प्रकर्षताको प्राप्त कर रहे हैं। अन्य सामान्य ज्ञानोकी भी लोकमें यथायोग्य प्रकर्षतायें देखी जा रही हैं । अतः फिर. भी जैनोंके ऊपर सिद्धसाधन दोष तैसाका तैसा ही अवस्थित रहा।
अक्रमं करणातीतं यदि ज्ञानं परिस्फुटम् । धर्मीष्येत तदा पक्षस्याप्रसिद्धविशेष्यता ॥ २६ ॥ स्वरूपासिद्धता हेतोराश्रयासिद्धतापि च ।
तन्नैतत्साधनं सम्यगिति केचित्प्रवादिनः ॥२७॥
मीमांसक ही कहे जा रहे हैं कि पक्ष किये गये ज्ञानपदसे यदि क्रमरहित यानी युगपत् ही सम्पूर्ण पदार्थों को जाननेवाला और इन्द्रियोंकी कारणतासे अतिक्रान्त हो रहा ऐसा परिपूर्ण विशदज्ञान धर्म इष्ट किया जायगा, तब तो पक्षका अप्रसिद्धविशेष्यता नामका दोष होगा। भावार्थ-अक्रम और करणातीत परिपूर्ण विशद इन तीन विशेषणोंसे सहित हो रहा कोई विशेष्यभूतज्ञान आजतक भी प्रसिद्ध नहीं है । अतः हेतु विशेष्यासिद्ध है । और उक्त प्रकार माननेपर आप जैनोंद्वारा कहा गया तरतमभावसे आक्रान्तपना हेतु तो स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है। क्योंकि वह हेतु वैसे पक्षमें वर्त रहा नहीं देखा जा रहा है । तथा तारतम्यसे आरूढपना हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास भी है । क्योंकि इन्द्रियोंकी सहायता विना ही हो रहा और युगपत् सबको
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परिस्फुट जाननेवाला कोई ज्ञान ही जगत्में प्रसिद्ध नहीं है । तिस कारण आईतोंका तारतम्यसे अधिरूढपना यह ज्ञापकहेतु समीचीन नहीं है । इस प्रकार कोई मीमांसक विद्वान् अपने मनमें बडे बनते हुये कह रहे हैं।
अत्र प्रचक्ष्महे ज्ञानसामान्यं धर्मि नापरम् । सर्वार्थगोचरत्वेन प्रकर्ष परमं व्रजेत् ॥ २८॥ इति साध्यमनिच्छन्तं भूतादिविषयं परं ।
चोदनाज्ञानमन्यद्वा वादिनं प्रति नास्तिकम् ॥ २९ ॥ ___ उक्त चार वार्तिकों द्वारा कह दिये गये दोषों के निराकरणार्य श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर देते हैं कि अब इस प्रकरणमें हम जैन सामान्यज्ञानको पक्ष भले प्रकार कहते हैं। कोई दूसरा इन्द्रियज्ञान, अनुमानज्ञान, आगम या परिपूर्णज्ञान, पूर्वोक्त अनुमानमें पक्ष नहीं कहा गया है । वह सामान्यज्ञान बढते बढते सम्पूर्ण अर्थीको विषय कर लेनेपने करके उत्कृष्टताके पर्यन्त प्रकर्षको प्राप्त हो जावेगा । इस प्रकार साध्य बनाया जा रहा है । जो चार्वाक नास्तिकवादी विद्वान् वेदवाक्योंसे उत्पन्न हुये ज्ञानको भूत, भविष्यत् कालवी, दूरवर्ती. या स्वभावविप्रकृष्ट पदार्थोको विषय करनेवाला नहीं मानता है, तथा अन्य भी दूसरे ज्ञानोंको भूत आदि पदार्थोको विषय करनेवाला नहीं चाहता है, उस नास्तिकवादीके प्रति हम जैनोंने तेईसवीं वार्तिक द्वारा पूर्ण ज्ञानको सिद्ध करनेवाला अनुमानप्रमाण कहा था । अतः हमारा हेतु समीचीन निर्दोष है।
न सिद्धसाध्यतै स्यान्नाप्रसिद्धविशेष्यता। पक्षस्य नापि दोषोयं कचित् सत्यं प्रसिद्धता ॥३०॥
इस प्रकार ज्ञानसामान्यको पक्ष बनाकर और सम्पूर्ण अर्थोको विषय कर लेनेपनके परम प्रकर्ष प्राप्त हो जाने को साध्य बनाकर अनुमान कर लेनेपर सिद्धसाध्यता दोष नहीं आता है । क्योंकि मीमांसकों के यहां हमारा कहा गया साध्य प्रसिद्ध नहीं है । अतः सिद्धसाधन दोष नहीं भाता है। हम इन्द्रियजन्य ज्ञानको पक्ष नहीं बना रहे हैं । एवं पक्षका अप्रसिद्ध विशेष्यता नामका यह दोष भी यहां नहीं आता है। क्योंकि परिमाणके समान ज्ञान भी उत्तरोत्तर बढता हुभा दखि रहा है। सम्हालम्बनज्ञानमें या चक्षुःद्वारा किये गये घट, पट, पुस्तक, आदि अनेक पदार्थोके एक ज्ञानमें कारहित युगपत् अनेक पदार्थाका प्रतिभास हो जाता है । उत्कर्ष बढते बढते कोई एक ज्ञान सम्पूर्ण लोक अलोकके पदार्थीको भी युगपत् विशद जान सकता है, कोई बाधा नहीं आती है। योगीजनोंको इन्द्रियोंसे अतिक्रान्त विषयका भी ज्ञान हो जाना प्रसिद्ध है। जीवोंमें
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अनेक भावनाज्ञान, प्रतिमाज्ञान ( प्रातिभ ) हो रहे हैं। हम जैनोंके द्वारा कहा गया हेतु स्वरूपासिद्ध और आश्रयासिद्ध भी नहीं है। क्योंकि आत्मामें सत्यार्थरूपसे तिस प्रकारका ज्ञान प्रसिद्ध है । अतः पक्ष विचारा सिद्ध होता हुआ प्रकृत हेतुका आधार हो जाता है ।
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पक्षेपि प्रवादिनः स हेतु । कचित्प्रदर्शितः । न ह्यत्राक्षविज्ञानं परमं प्रकर्षे यातीति साध्यते नापि लिङ्गागमादिविज्ञानं येन सिद्धसाध्यता नाम पक्षस्य दोषो दुःपरिहारः स्यात् । परस्यापीन्द्रियज्ञाने लिङ्गादिज्ञाने च परमप्रकर्षगमनस्येष्टत्वात् । नाप्यक्रमं करणासीतं परिस्फुटं ज्ञानं तथा साध्यते यतस्तस्यैव धर्मिणोसिद्धेरप्रसिद्ध विशेष्यता स्वरूपा सिद्धव हेतुर्धर्मिणोसिद्धौ तद्धर्मस्य साधनस्यासम्भवादाश्रयासिद्धव भवेत् ।
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अपनी मण्डली में बढ़ियाबाद पण्डित बन रहे मीमांसक के यहां वह हेतु पक्ष में भी कहीं अच्छा दिखला दिया गया है। बेदशास्त्रद्वारा या व्याप्तिज्ञानसे सम्पूर्ण पदार्थोंको विषय कर लेना मीमांसकोने भी माना है । केवल विशदपनेका विवाद रह गया है । इम जैनोंद्वारा यहां प्रकरण में इन्द्रियजन्यज्ञान परमप्रकर्षको प्राप्त हो जाता है, ऐसी प्रतिज्ञा नहीं साधी जा रही है। और हेतुजन्य ज्ञान या आगम, व्याप्तिज्ञान, आदि विज्ञानोंकी परमप्रकर्षता भी नहीं साधी जा रही है, जिससे कि सिद्धसाधन नामका दोष कठिनतासे दूर किया जा सके, या पक्षका सिद्धसावन दोष कठिनता से इटाया जाय । मात्रार्थ – अश्वविज्ञानको पक्ष बना लेनेपर सिद्धसावन दोष अवश्य लागू रहेगा । क्योंकि दूसरे मीमांसक या नास्तिक विद्वानोंके यहां भी इन्द्रियज्ञानमें और अनुमान आदि ज्ञानों में परम प्रकर्षतक प्राप्त हो जाना इष्ट किया गया है । पिसेको पीसने के समान उन ज्ञानोंकी प्रकर्ष प्राप्तिको साधना सिद्धका ही साधन करना है । तथा हम जैन क्रमरहित, अतींद्रिय, परिपूर्ण, विशदज्ञान मी तिस प्रकार परमप्रकर्ष गमनको कण्ठोक नहीं साध रहे हैं, जिससे कि उस धर्मी (पक्ष) की ही असिद्धि हो जानेसे पक्षका अप्रसिद्ध विशेष्यपना दोष लग बैठे । अर्थात् उक्त तीन उपाधियोंसे युक्त हो रहा ज्ञानस्वरूप विशेष्य अभीतक प्रसिद्ध नहीं हुआ है । ऐसी दशा में ज्ञान 1 सामान्यको पक्ष कर लेनेपर मीमांसकजन अप्रसिद्धविशेष्यता दोषको हमारे ऊपर नहीं उठा सकते हैं। तथा तैसे परिपूर्ण ज्ञानकी पुनः परमप्रकर्षपने की प्राप्ति तो फिर होती नहीं है, जिससे कि पक्ष में हेतुके न रहनेपर हमारा तारतम्यसे अधिरूढपना हेतु स्त्ररूपासिद्ध हो जावे । जब कि हम जैन परिपूर्ण ज्ञानको पक्ष कोटिमें ही नहीं डाल रहे हैं, तो फिर हेतु स्वरूपासिद्ध कैसे हो सकता है ? और तैसे धर्मी ज्ञानकी सिद्धि नहीं हो चुकनेपर उस असम्भूत पक्षमें वर्त रहे हेतुस्वरूप धर्मा असम्भव हो जाने से हमारा हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास हो जाता, यानी तैसे अतीन्द्रिय पूर्ण ज्ञानको हम पक्ष नहीं बना रहे हैं । अतः हमारा हेतु आश्रयासिद्ध नहीं है । ज्ञानसामान्य तो सिद्ध ही है ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
किं तर्हि ज्ञानसामान्यं धर्मि १ न च तस्य सर्वार्थगोचरत्वेन परमप्रकर्षमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता भूतादिविषयं चोदनाज्ञानमनुमानादिज्ञानं वा प्रकृष्टममिच्छन्तं वादिनं नास्तिकं प्रति प्रयोगात् ।
तो तुमने पक्षकोटि में कौनसा ज्ञान ग्रहण किया है ? इस प्रकार जिज्ञासा करनेपर हम जैन यह उत्तर कहेंगे कि ज्ञानसामान्यको हम यहां पक्ष बनाते हैं । उस सामान्य ज्ञानको सम्पूर्ण अर्थोका विषयीपने करके परमप्रकर्ष की प्राप्तिको सामान्यरूपसे साध्य करनेपर सिद्ध साध्यता दोष नहीं आता है। क्योंकि विधि लिङन्त वेदवाक्यों द्वारा हुये आगमज्ञान अथवा अनुमान, तर्क आदि ज्ञानोंके प्रकर्षपर्यन्त गमन हो जानेपर भी भूत, भविष्यत् आदि पदार्थोको विषय कर लेना नहीं चाइनेवाले नास्तिकवादी के प्रति हम जैनोंने पूर्वोक अनुमानका प्रयोग किया था। यानी नास्तिकों के यहां सम्पूर्ण अर्थोको विषय करनेवाला ज्ञान सिद्ध नहीं था । जैनोंने तेईसवीं वार्त्तिकके अनुपान द्वारा असिद्ध साध्यको सिद्ध कर दिया है। सिद्धसाध्यता दोष तो तब उठाया जा सकता था, जब कि नास्तिकों के यहां सिद्ध हो रहे साध्यको ही हम जैन हेतु द्वारा साधते होते 1 प्रतिवादीके यहां असिद्ध हो रहे पदार्थको हम साध्य कोटिमें लाते हैं । अतः सिद्धसाधन दोष हमारे ऊपर नहीं लगता है ।
मीमांसकं प्रति तत्प्रयोगे सिद्धसाधनमेव भूताद्यशेषार्थगोचरस्य चोदनाज्ञानस्य परमप्रकर्ष प्राप्तस्य तेनाभ्युपगतत्वादिति चेन्न तं प्रति प्रत्यक्ष सामान्यस्य धर्मिश्वात्तस्य तेन सर्वार्थविषयत्वेनात्यन्तमकृष्ट स्थानभ्युपगमात् ।
सम्मुख बैठे हुये पण्डित कह रहे हैं कि हम मीमांसकों के प्रति उस अनुमानका प्रयोग करने पर तो सिद्धसाधन दोष है ही। यानी हम मीमांसक तुम जैनोंके ऊपर सिद्धसाधन दोष उठा सकते हैं। क्योंकि " चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलं पुरुषविशेषान् "वेदोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अभ्यास बढाते बढाते परमप्रकर्षको प्राप्त होकर भूत, भविष्यत् आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको विषय कर लेता है। इस प्रकार हम मीमांसकोने स्वीकृत किया है। अ आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो न कहना । क्योंकि उस मीमांसकके प्रति ज्ञानपदसे प्रत्यक्ष सामान्य हमने पक्ष कोटि प्रण किया है। मीमांसक जन आगमज्ञानसे भले ही सम्पूर्ण या कतिपय अतींद्रिय पदार्थोंका जान लेना अभीष्ट कर लें, किन्तु मीमांसकोंने प्रत्यक्ष ज्ञानद्वारा सभी पदार्थोंको विषय कर लेना नहीं माना है । अतः जैन लोग " हमारे यहां सिद्ध हो रहे पदार्थको ही साध रहे हैं ", इस प्रकारका सिद्ध साधन दोष मीमांसक हमारे ऊपर नहीं उठा सकते हैं । हम जैनोंने मीमांसकों यहां असिद्ध हो रहे पदार्थको ही साधा है। क्योंकि उस मीमांसकने उसी प्रत्यक्ष ज्ञानकी सम्पूर्ण अर्थोके विषय कर लेनेपन करके अत्यन्त प्रकृष्टपनकी प्राप्तिको स्वीकार नहीं किया है ।
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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
न चैवमप्रसिद्धविशेष्यादिदोषः पक्षादेः सम्भवति केवलं मीमांसकान्प्रति यदेतत्साधनं तदा प्रत्यक्षं विशदं सूक्ष्माद्यर्थविषयं साधयत्येवानवद्यत्वात् ।
इस प्रकार सामान्यज्ञान या सामान्य प्रत्यक्षको पक्ष करनेपर पक्ष, साध्य, प्रतिज्ञा, आदिके अप्रसिद्धविशेष्यता, अप्रसिद्धविशेषणता, स्वरूपासिद्धि, आश्रयासिद्धि, आदिक दोष नहीं सम्भवते हैं । केवल मीमांसक विद्वानोंके सन्मुख ही जब यह हेतु प्रयुक्त किया जायगा तब तो कोई प्रत्यक्षज्ञान ( पक्ष ) अतीव विशद होता हुआ सूक्ष्म, व्यवहित, आदि पदार्थोंको विषय कर रहा ( साध्य ) साधा जारहा ही है | क्योंकि हेतुदोषोंसे पदत होनेके कारण हमारा हेतु निर्दोष है । अथवा निर्दोष होने के कारण ( हेतु ) किसी आत्मामें हो रहा विशिष्टप्रत्यक्ष ( पक्ष ) सभी सूक्ष्म आदिक युगपत्करलेता है ( साध्य ) ! यह हमने पूर्व अनुमानसे साध्य किया है ।
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यदा तु नास्तिकं प्रति सर्वार्थगोचरं ज्ञानसामान्यं साध्यते तदा तस्य करणक्रमव्यवधानातिवर्त्तित्वं स्पष्टत्वं च कथं सिध्यति इत्याह ।
कोई पूछता है कि आप जैनोंका अनुमान मीमांसकोंके प्रति तो ठीक बैठ गया और नास्तिकों के प्रति मी ज्ञान सामान्यको पक्ष बनाकर सम्पूर्ण अर्थोका विशद जानना साधा जा सकता है । किन्तु आप जैन जब नास्तिकवादियों के प्रति ज्ञान सामान्यको सम्पूर्ण अर्थोका विषय करनेवाला साधते हैं, तब उस सम्पूर्ण अर्थों के ज्ञानको इन्द्रियोंके क्रमपूर्वक वर्त्तनेसे हुये व्यवधानका उल्लंघन ( युगपत् ) करलेनापन और स्पष्टपना भला कैसे सिद्ध हो जाता है ! बताओ। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य यों समाधान कहते हैं, सो सुनिये ।
तच सर्वार्थविज्ञानं पुनः सावरणं मतं । अदृष्टत्वाद्यथा चक्षुस्तिमिरादिभिरावृतं ॥ ३१ ॥ ज्ञानस्यावरणं याति प्रक्षयं परमं कचित् । प्रकृष्यमाणहानित्वामादौ श्यामिकादिवत् ॥ ३२ ॥ ततोऽनावर स्पष्टं विप्रकृष्टार्थगोचरं । सिद्धमक्रमविज्ञानमकलंकं महीयसाम् ॥
३३ ॥
स्वभाव से ही सम्पूर्ण अर्थोको जाननेवाला वह विज्ञान फिर ( पक्ष ) आवरणोंसे सहित हो
रहा ( साध्य ) माना जा चुका है । दृष्टव्य सम्पूर्ण पदार्थोंका प्रत्यक्ष कर लेना नहीं होने से ( हेतु ) जैसे कि तमारा, रतोंध, कामल आदि दोषों से ढका हुआ नेत्र ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात्-संसारी जीवोंकी चेतना शक्तिके ऊपर आवरण और दोष आ गये हैं । अतः वह ज्ञान इन्द्रियोंके क्रमसे वर्तनेपर व्यवधान युक्त हो जाता है। अविशद हो जाता है। हां, आवरणोंके सर्वथा दूर हो जानेपर
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वह सर्वज्ञ ज्ञान किन्ही इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखता हुआ युगपत् सम्पूर्ण अर्थको स्पष्ट जान छेता है । आवरणोंका क्षय पूर्णरूपसे किसी आत्मामें हो जाता है। इसके लिये अनुमान बनाते हैं। कि किसी न किसी आत्मामें ज्ञानका आवरण ( पक्ष ) उत्कृष्ट रूपसे प्रकृष्ट क्षयको प्राप्त हो जाता है । जैसे कि स्वर्ण आदिमें कालिम, किट्ट, आदिकी बढ रही हानि किसी सौ टंच के सोनेमें प्रकृष्टपनको प्राप्त हो जाती है। भावार्थ-तेजाव या अग्नि में तपानेपर स्वर्ण के किट्ट, कालिमा आदि आवरणोंकी हानि कुन्दनकी अवस्था में परम प्रकर्षताको प्राप्त हो जाती है । उसीके समान प्रवेशीविद्वान्, विशारद, विचक्षण, मेघाजी, आचार्य आदि पुरुषोंमें ज्ञान के आवरण की हानि वढ रही है । बढते बढते वह हानि सर्वज्ञदेव में परमप्रकर्षको प्राप्त हो जाती है। वस्तुतः विचारा जाय तो ज्ञान उपाधियोंसे रहित वस्तु है । ज्ञानका शुद्ध कार्य जान लेना है । घटका ज्ञान पटका ज्ञान ये ज्ञानके विशेषण औपाधिक हैं । जैसे कि देवदत्त स्वामित्वमें वर्त रहा रुपया देवदत्तका कहा जाता है। यदि देवदत्त जिनदत्तसे रुपया देकर व मोल ले लेगें तो वह रुपया जिनदत्तका हो जाता है । जिनदत्त यदि इन्द्रदत्त से उस रुपयेका अनमोल ले ले तो वह रुपया इन्द्रदत्तका हो जाता है । यथार्थ रूपमें विचारा जाय तो वह रुपया अपने स्वरूप में सोने चांदी या तत्रिका होता हुआ अपने ही निज स्वरूपमें अवस्थित हो रहा है । वह किसी व्यक्तिविशेषका नियत नहीं है । इसी प्रकार ज्ञानका अर्थ केवल जान लेना है । ज्ञान स्वच्छ पदार्थ हैं । अतः आवरण के दूर होने अनुसार वह पार्थीका प्रतिभास कर लेता है। ज्ञान जाति सम्पूर्ण जीवों के ज्ञानकी एकसी है । लुहार, सुनार, व्यापारी, किसान, मंत्रज्ञ, वैयाकरण, सिद्धान्तज्ञ, नैयायिक, रसोईया, मल, वैज्ञानिक, वैद्य, ज्योतिषी, रसायनवेत्ता, मिश्री, अश्वपरीक्षक, आचार शास्त्रको जाननेवाला, राजनीतिज्ञ, युद्धविद्याविशारद, आदि विद्वानोंके अनेक प्रकारका ज्ञान प्रकट हो रहा है । कोई कोई मनुष्य तो चार चार, दशदश कलाओं और अनेक विद्याओंमें कुशल हो रहा देखा जाता है । अतः सिद्ध होता है कि जैसे अग्नि सम्पूर्ण दाह्य पदार्थोंको जला सकती है, वैसे ही ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञेयोंको जान सकता है । वर्तमान में संसारी जीवोंका ज्ञान आवरणसहित होनेके कारण ही सबको नहीं जान सका है । वस्तुतः उस ज्ञानमें सम्पूर्ण पदार्थोंको जाननेकी शक्ति विद्यमान है । उपजाऊ खेतकी मिट्टी बीज, जल आदिके निमित्त मिलानेपर गेंहू, चना, इक्षुदण्ड, फूल, फल, पत्ते, आदिक अनेक पर्यायोंको धार सकती है। इसी प्रकार प्रतिबन्धकोंके दूर हो जानेपर ज्ञान अखिल पदार्थोंको जान देता है । तिल कारणसे सिद्ध हुआ कि स्वभाव विप्रकृष्ट परमाणु, कार्मणवर्गणाऐं आदि तथा देश विप्रकृष्ट काळविप्रकृष्ट सुमेरु रामचन्द्र आदिक और भी सम्पूर्ण पदार्थोंको विषय करनेवाला जो महान् पुरुषोंका ज्ञान है, वह ज्ञानावरणकर्मके पटलोंसे रहित है, अतीव विशद है, क्रमसे नहीं होता हुआ सबको युगपत् जान रहा है। तथा अज्ञान, राग, द्वेष, आदि कलंकोंसे रहित है। इस
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कारण सम्पूर्ण अर्थोंको जाननेवाला ज्ञान इन्द्रियोंके क्रमसे हुये व्यवधानको उल्लंघन करनेवाला और विशद सिद्ध कर दिया जा चुका है ।
यत एवमतीन्द्रियार्थपरिच्छेदन समर्थ प्रत्यक्षम सर्वज्ञव दिनं प्रति सिद्धम् ।
जिस ही कारण से सर्वज्ञको नहीं माननेवाले मीमांसक, नास्तिक, आदिक वादियोंके प्रति अतीन्द्रिय अर्थोको साक्षात् युगपत् जाननेकी सामर्थ्यसे युक्त हो रहा प्रत्यक्षज्ञान सिद्ध करा दिया गया है । इस पंक्तिके का अन्वय अग्रिम वार्तिक में पडे हुये साथ लगा लेना चाहिये ।
"
"
ततः शके
" यतः
ततः सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । भूताद्यशेषविज्ञानभाजचेचोदना बलात् ॥ ३४ ॥ किन्न क्षीणावृत्तिः सूक्ष्मानर्थान्द्रष्टुं क्षमः स्फुटं । मन्दज्ञानानतिक्रामन्नातिशेते परान्नरान् ॥ ३५ ॥
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तिस ही कारणले आगामी कालके परिणामको विचारनेवाली बुद्धि प्रज्ञा और धारणा नामक संस्कारको घारनेवाली बुद्धि मेधा तथा प्रतिभा प्रेक्षा आदिकोंकरके चमत्कार सहित देखे जा रहे मनुष्य इस ज्ञानका प्रकर्ष बढाते हुये भूत, भविष्यत् विप्रकृष्ट आदिक सम्पूर्ण पदार्थोंके विज्ञानको धारनेवाले बन सकते हैं, कोई बाधक नहीं है। जब कि आप मीमांसक वेदवाक्योंकी सामर्थ्य से भूल आदि पदार्थों का ज्ञान हो जाना इष्ट करते हो तो जिस मनुष्य के ज्ञानावरण कर्मोंका क्षय हो चुका है, वह पुरुष सूक्ष्म, व्यवहित आदि अर्थोंको विशदरूपसे देखने के लिये क्यों नहीं समर्थ हो जावेगा और मन्दज्ञानवाले दूसरे मनुष्योंका अतिक्रमण करता हुआ उन मनुष्योंसे अधिक चमत्कारको धारण करनेवाला क्यों नहीं हो जावेगा ! अर्थात्-ज्ञानावरणों का क्षय करनेवाला मनुष्य सूक्ष्म आदिक अर्थोको अवश्य विशद जान लेता है और अन्य अल्प ज्ञानियोंसे अधिक चमत्कारक हो जाता है । भावार्थ - जो मीमांसकोंने यह कहा था कि " येपि सातिशया दृष्टा प्रज्ञा मेधादिभिर्नराः । स्तोकस्तो कान्तरत्वेन नवतीन्द्रियदर्शनात् ॥ प्राज्ञोपि हि नरः सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टुं क्षमोपि सन् स्वजातीरनतिक्रामन्नतिशेते परान्नरान् ” उसके अनुसार ही सर्वज्ञकी सिद्धि हो जाती है । वेदके द्वारा भूत, भविष्यत् आदि पदार्थों का ज्ञान मीमांसकोंने जब मान लिया है, तो प्रतिबन्धक कर्मोके दूर हो जानेपर भूत आदिका विशद ज्ञान भी हो सकता है। अविशदज्ञानियोंसे विशदज्ञानी चमत्कृतिको किये हुये हैं।
यदि परैरभ्यधायि । “दशहस्तान्तरं व्योम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसौ गंतुं शक्तोभ्यासशतैरपि " इत्यादि । तदपि न युक्तमित्याह ।
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दूसरे विद्वान् मीमांसकोंने अपने आगममें यदि यों कहा था कि जो जीव आकाशमें उछल कर दश हाथका अन्तर लेकर चला जा सकता है, वह सैकडों अभ्यास करके भी एक योजनतक जाने के लिये समर्थ नहीं है, इत्यादिक मीमांसकोंका वह कथन भी युक्तिपूर्ण नहीं, इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्य स्पष्टकर कहते हैं, सो सुनिये ।
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लंघनादिकदृष्टान्तः स्वभावान्न विलंघने । नाविर्भावे स्वभावस्य प्रतिषेधः कुतश्चन ॥ ३६ ॥ स्वाभाविक गतिर्न स्यात्प्रक्षीणाशेषकर्मणः । क्षणादूर्द्ध जगच्चूडामणौ व्योम्नि महीयसि ॥ ३७ ॥ वीर्यान्तरायविच्छेदविशेषवशतोपरा ।
बहुधा केन वार्येत नियतं व्योमलंघना ॥ ३८ ॥
उछलना, कूदना, उल्लंघना, आदिक दृष्टान्त तो स्वभावसे ही बहुत दूर तक उल्लंघन करनेवाले पदार्थ में उपयोगी नहीं है। दूरतक ऊपर चले जाना आदि स्वभावके प्रकट हो जानेपर किसी भी प्रकार से असंख्यों योजनतक उछल जाने तकका निषेध नहीं होता है। जैसे कि पक्षरहित भी विशिष्ट नातिका सर्प बहुत दूर ऊंचा उछल जाता है। अग्निकी ज्वाला या धुआं कोशों तक ऊपर चला जाता है। भारी पाषाण लाखों कोस नीचे तक गिर जाता है । वायु लाखों कोस तक तिरछी चली जाती है। इसी प्रकार जीव या पुद्गलका ऊर्ध्वगति स्वभाव प्रकट हो जानेपर एक योजन तो क्या असंख्य योजनतक उछल जाना प्रतीत हो जाता है । यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो बडे भारी लोकाकांश में ऊपर जगत् के चूडामणि स्वरूप तनुवातवलय में सम्पूर्ण कर्मोंका क्षय करचुके सिद्ध भगवान् की एक समय करके स्वभावसे होनेवाली गति नहीं हो सकती थी । भावार्थ- सम्पूर्ण आठ कर्मोंका क्षय कर मुक्तात्मा यहां कर्मभूमिसे सात राजू ऊपर सिद्ध लोक में एक ही समय में उछल कर जा पहुंचते हैं। एक राजूपें असंख्याते योजन होते हैं । विक्रिया ऋद्धिवाले मनुष्य एक दो योजन तो क्या संख्यात योजनोंतक और वैमानिक देव शरीरसहित भी असंख्य योजनोंतक उछल जाते हैं । अतः एक योजनतक उछलनेका असम्भव दिखलाना मीमांसकोंका प्रशस्त नहीं है। आत्मा के वर्यिगुणका प्रतिबन्ध करनेवाले वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशमविशेष या क्षयके वशसे और भी बहुत प्रकार की गतियां होना भला किसके द्वारा निषेधा जा सकता है ? अर्थात नहीं । एक कोस, सौ कोस, कोटि योजन, एक राजू, सात राजू इस प्रकारकी नियतरूपसे आकाशको उल्लंघनेवालीं गतियां प्रमाणसिद्ध हैं । अतः मीमासकोंका दृष्टान्त
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तत्त्वार्थकोकवार्तिके
विषम होता हुआ अपने ही पक्षका घातक है । अत्यन्त मूर्ख पुरुष भी गुरुकृपासे या विशिष्ट क्षयोपशम हो जानेसे व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, साहित्य, मंत्रशास्त्र आदि विषयोंमें एक ही पारदृश्वा बन जाता है । ज्ञानकी सीमा सम्पूर्ण त्रिलोक, त्रिकालवी पदार्थीको जान लेने तक है। केवलज्ञान तो अनन्त भी लोक अलोक या काल होते तो उनको मी जान सकता था । कार्यकारण भावका भंग कर अतिशय होते हुये हम जैनोंको इष्ट नहीं है । वृक्षसे मनुष्यकी उत्पत्ति या चक्षु इन्द्रिय द्वारा शब्दका सुन लेना इत्यादि प्रकारके अतिशयोंको हम जैन नहीं मानते हैं। चक्रवर्ती, इन्द्र, ऋद्धिधारी मुनि, श्रीअरहन्तदेव भी असम्भव कार्योंको नहीं कर सकते हैं । किन्तु अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तीर्य, शायिक चारित्र ये सब आत्माके स्वाभाविक गुण है। प्रतिबन्धकोंके लग जानेपर अपना कार्य नहीं कर सकते थे, और प्रतिबन्धकोंके सर्वथा क्षय हो जानेपर इच्छा और प्रयत्नके विना ही सूर्यके समान विकासको प्राप्त हुये अपने स्वाभाविक कार्यमें संलग्न हो जाते हैं।
ततो यदुपहसनकारि भट्टेन । " यैरुक्तं केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । सूक्ष्मातीतादिविषयं सूक्तं जीवस्य तैरदः" इति, तदपि परिहतमित्याह।
तिस कारण मीमांसक कुमारिल भट्टने जो हम जैनोंका उपहास किया था कि जिन जैनोंने इन्द्रिय, मन, हेतु, सादृश्य, मदं आदिकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले जीवके सूक्ष्म, भूत, भविष्यत् आदि पदार्थीको विषय करनेवाला केवळज्ञान कहा है, इन जैनोंने वह तत्व बहुत बढ़िया कहा। अर्थात्-सूक्ष्म आदिक पदार्थोके जाननेका बोझ जीवोंपर धर दिया है । कहीं जलका बिन्दु मी समुद्र हो सकता है ! इस प्रकार भट्ट महाशयका वह उपहास वचन भी खण्डित कर दिया गया है। इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिमवार्तिक द्वारा कहते हैं । जीवके स्वभावका प्रकट हो जाना कोई बोश नहीं है, प्रत्युत वही आत्मलाभ है । एक जैलकी बूंदके स्कन्ध विखर जाय तो कई समुद्र बन सकते हैं, खसके दाने बरावर पुद्गल स्कन्ध मचल जाय तो लाखों कोसोंतक फैलकर उपद्रव मचा देता है । एक इंच लम्बे चौडे आकाशमें सैकडों महलोंके बनानेमें उपयोगी होय इतनी मिट्टी समासकती है। विज्ञान भी इस बातको स्वीकार करता है। जैन सिद्धान्त तो "सवाणुढाणदाहरिइं" इस सिद्धान्तको कहता चला आरहा है। आकाशके परमाणु बराबर एक प्रदेशमें अनन्त अणु और अनन्त स्कन्ध आ सकते हैं । पानीसे मरे हुये पात्रमें भी थोडे बूरेको स्थान मिल जाता है । उटनीके दूधसे भरे हुये पात्रमें मधु मिलादेनेपर भी फैलता नहीं है । रहस्य यह है कि सर्वज्ञके ज्ञानका उपहास करना अपना ही उपहास कराना है । अनुमान, व्याप्तिवान, आगम, इनसे सर्वका अविशद ज्ञान तो माना ही जारहा है । फिर क्षीणकर्मा सर्वबके सर्वका विशदज्ञान हो जाय इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ! कुछ भी नहीं।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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ततः समन्ततश्चक्षुरिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । निःशेषद्रव्य पर्यायविषयं केवलं स्थितं ॥ ३९ ॥
तिस कारण से यह व्यवस्थित होगया कि चारों ओरसे चक्षु इन्द्रिय, मन, ज्ञापकहेतु, अर्थापत्ति, उत्थापक अर्थ, वेदवाक्य आदिककी नहीं अपेक्षा रखनेवाले आवरणरहित जविके सम्पूर्ण द्रव्य और सम्पूर्ण पर्यायोंको विषय करनेवाला केवलज्ञान प्रकट हो जाता है । केवलज्ञान के सद्भावमें बाधा देनेवाले प्रमाणोंका असम्भव है ।
तदेवं प्रमाणतः सिद्धे केवलज्ञाने सकलकुवाद्यविषये युक्तं तस्य विषयप्ररूपणं मतिज्ञानादिवत् ।
तिस कारण सम्पूर्ण कुचोध करनेवाले वादियोंकी समझमें नहीं आरहे केवलज्ञानकी प्रमाणोंसे इस प्रकार सिद्धि हो चुकनेपर उस केवलज्ञानके मतिज्ञान आदिके समान विषयका क्रमप्राप्त निरूपण करना श्री उमास्वामी महाराजको युक्त ही है । यहांतक प्रकृत सूत्रकी उपपत्ति करदी गयी है ।
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इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र के प्रकरणोंकी संक्षेपसे सूची इस प्रकार है कि प्रथम ही चार ज्ञानोंके विषयका निरूपण कर चुकनेपर क्रमप्राप्त केवलज्ञानके विषयको नियत करनेके लिये सूत्रका निरूपण करन आवश्यक प्रतीत हुआ है, सकल ज्ञेयोंमें वहीं बैठे बैठे इतिक्रिया कराने की अपेक्षा व्यापनेवाले halको पूर्ण प्रकरणों में साधा जा चुका कहकर अनेक द्रव्य और अनेक पर्यायके सद्भावका स्मरण कराया है। तभी तो श्री उमास्वामी महाराजने द्रव्य और पर्यायोंमें बहुवचनान्त प्रयोग किया है। केवल उपयोगमें आ रहे या संसार और मोक्षतत्व के ज्ञानमें उपयोगी बन रहे थोडेसे पदार्थों को ही जान लेने मात्रसे सर्वज्ञ नहीं हो सकता है । इस तत्त्वका अच्छा विचार किया है । हेय और उपादेय कतिपय तत्वोंको जान लेनेसे भी सर्वज्ञपना इष्ट नहीं है। इस प्रकरणमें अपेक्षाओं से सभी पदार्थों का यपना या उपादेयपना अथवा उपेक्षा करने योग्यपना भले प्रकार साधा है । सिद्धान्त यह है कि जगत् के सम्पूर्ण पदार्थोंको जान लेनेपर ही सर्वज्ञता बन सकती है। एक भी पदार्थ छूट जाने पर अल्पक्षता समझी जावेगी । धर्मसे अतिरिक्त अन्य सम्पूर्ण पदार्थोंको जाननेवाला धर्मको अवश्य जान जावेगा । ज्ञानका स्वभाव सम्पूर्ण पदार्थोंको जाननेका है। ऐसी दशामें धर्म शेष नहीं रह सकता है । विचारशाली पुरुषोंको नीतिमार्गका उल्लंघन नहीं करना चाहिये । यहाँ मीमांसकोंके साथ बहुत अच्छा विचार कर सर्वज्ञसिद्धि की है । अनुमान बनाकर ज्ञानके परमप्रकर्ष पर्यन्त गमनको समीचीन हेतुसे साथ दिया है। मीमांसकों के द्वारा उठाये गये कुचोधोंका अच्छे ढंगसे निवारण कर दिया है । नास्तिक और मीमांसकके प्रति न्यारी न्यारी प्रतिज्ञा कर सिद्ध
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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
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साधन आदि दोषोंको हटाते हुये प्रन्थकारने अल्प जीवोंके ज्ञानका आवरणसे ढका हुआ बताया है । आवरणोंकी सर्वथा हानि हो जानेपर ज्ञान अपने स्वभाव अनुसार युगपत् सम्पूर्ण पदार्थोंका विशदप्रत्यक्ष कर लेता है । विप्रकृष्ट अर्थोको जाननेवाला ज्ञान इन्द्रियोंकी सहायताको नहीं चाहता है । क्रमसे होनेवाला भी नहीं है । यही अकलंक मार्ग है। मीमांसकोंके कटाक्षोंका उन्हींकी युक्तियों से निवारण हो जाता है। इस प्रकरणमें मीमांसकोंकी युक्तियों को कुयुक्ति बताकर आचायने अपने पक्षको पुष्ट किया है। कूपमण्डूकताको उडाकर समुद्र राजहंस समान आचार्यांने मीमांसकों के द्वारा किये गये उपहासका गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया है । परिशेषमें सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाले केवलज्ञानको साध कर प्रकृत सूत्रद्वारा उसके विषयका निरूपण करना उपयोगी बताकर सूत्रार्थका उपसंहार कर दिया है। ऐसा केवलज्ञान जयवन्त रहे ।
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श्रीमन्तोन्त आप्तास्त्रिदशपतिनुता वीक्ष्य निर्दोषवृत्ताद् । यस्माद्धस्तस्थमुक्ताफलमिव युगपद्द्रव्यपर्यायसार्थान् ॥ हानोपादरयुपेक्षा फलमभिलषतो मुक्तिमार्ग शशासु- । स्तवज्ञाने भव्यान्स किल विजयते केवळ ज्ञानभानुः ॥ १ ॥
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ज्ञानके प्रकरण में लब्धिस्वरूप ज्ञानोंके सद्भावको निरूपण करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराजके मुखखरूप उदयाचलसे सूर्यसूत्रका उदय होता है ।
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥ ३० ॥
एक आत्मामें एक ही समय में एकको आदि लेकर भाज्यस्वरूप ज्ञान चारतक हो सकते हैं । किसी भी आत्माकी एकसे भी कम ज्ञान पाये जानेकी यानी कुछ भी ज्ञान नहीं रहने की कोई अवस्था नहीं है । अर्थात् चाहे विग्रह गतिमें आत्मा होय, अथवा सूक्ष्म निगोदिया के शरीर में होय, उसके कोई न कोई एक ज्ञान तो अवश्य होगा । तथा एक समय में चार ज्ञानोंसे अधिक लब्धिस्वरूप ज्ञान नहीं हो सकते हैं । यथायोग्य विभाग कर चार ज्ञानोंतककी सम्भावना है ।
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कान्प्रतीदं सूत्रमित्यावेदयति ।
श्री उमास्वामी महाराज किन प्रवादियोंके प्रति इस " एकादीनि आदि सूत्रको कह रहे हैं ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तरस्वरूप निवेदन करते हैं, सो सुनिये ।
एकात्मनि विज्ञानमेकमेवैकदेति ये ।
मन्यन्ते तान्प्रति प्राह युगपज्ज्ञानसम्भवम् ॥ १ ॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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जो नैयायिक आदिक विद्वान् एक समय एक आत्मामें एक ही विज्ञान होता है, इस प्रकार मान रहे हैं, उन विद्वानोंके प्रति एक समयमें संमवनेवाले ज्ञानोंको समझाने के लिये श्री उमास्वामी महाराज बढिया सूत्र कह रहे हैं । अर्थात्-एक समयमें एक आत्माके एक ही ज्ञान नहीं होता है। किंतु योग्यतास्वरूप चार ज्ञानतक पाये जा सकते हैं । जैनदर्शनके अतिरिक्त लब्धिस्वरूप बानोंकी अन्य मतोंमें चर्चा ही नहीं है । वे तो उपयोग आत्मक ज्ञानपर ही तुळे हुये हैं ।
अत्रैकशब्दस्य प्राथम्यवचनत्वात्प्राधान्यवचनत्वाद्वा कचिदात्मनि ज्ञानं एकं प्रथम प्रधानं वा संख्यावचनत्वादेकसंख्यं वा वक्तव्यं ।
"एक" इस शब्दके संख्या, असहाय, प्रधान, प्रथम, भिन आदिक कई अर्थ हैं। किन्तु इस सूत्रमें एक शब्दका अर्थ प्रथम अथवा प्रधान विवक्षित है। संख्येयमें प्रवर्त रहे एक शब्दके द्वारा प्रथमपनेका कथन करना अर्थ होनेसे अथवा प्रधानपन अर्थका कथन करना होनेसे किसी एक आत्मामें एक यानी प्रथमज्ञान मतिज्ञान अथवा एक यानी प्रधान ज्ञान केवलज्ञान हो सकता है । अथवा एक शब्दद्वारा संख्याका कथन हो जानेसे एक संख्यावाला ज्ञान कह सकते हो। एक शब्दका अर्थ संख्या हो जानेपर उस एक ज्ञानका निर्णय नहीं हो सकता है । अतः व्याख्यान से विशेष अर्थका निर्णय करना होगा।
तच किं दे च ज्ञाने कि युगपदेकर त्रीणि चत्वारि वा ज्ञानानि कानीत्याह ।
शिष्य कहता है कि एकसे लेकर चारतक ज्ञान हो जाते हैं, यह हम समझे। किन्तु वह एक ज्ञान कौनसा है ? और युगपत् होनेवाले दो ज्ञान कौनसे हैं ! तथा एक ही समय एक बात्मामें होनेवाले तीन ज्ञान कौनसे हैं ? अथवा एक ही समयमें एक आत्माके होनेवाले वे चार बान कौनसे हैं ! इस प्रकार प्रश्न होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
प्राच्यमेकं मतिज्ञानं श्रुतभेदानपेक्षया । प्रधानं केवलं वा स्यादेकत्र युगपन्नरि ॥२॥
" प्रथम " इस अर्थको कहनेवाले एक शब्दकी विवक्षा करनेपर एक आत्मामें युगपत् पहिला मतिज्ञान एक होगा। यहां सम्भव रहे, श्रुतज्ञानके भेदोंकी अपेक्षा नहीं की गयी है। भावार्य-यद्यपि मतिज्ञान और श्रुतबान दोनों अविनामावी हैं । एक इन्द्रियवाले जीवके भी दोनों ज्ञान विद्यमान हैं। किन्तु एक शब्दका प्रथम अर्थ विवक्षित होनेपर विद्यमान हो रहे श्रुतविशेबाँकी अपेक्षा नहीं करके एक ही मतिज्ञानका सद्भाव कह दिया गया है। श्रुतज्ञानका विशेष संझी पंचेंद्रिय जीवके शब्दजन्य वाध्य अर्थका ज्ञान होनेपर माना गया है। अतः खाते, पीते, छते, सूंघते, देखते हुए जीवके एक मतिबान ही हो रहा विवक्षित किया है । अथवा कुछ अस्वरस हो
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तत्वार्यलोकवार्तिके
जाने के कारण एक शब्दका अर्थ " प्रधान " ऐसा करना अच्छा दीखता है। अतः युगपत् एक जीवमें प्रधान ज्ञान केवलज्ञान हो सकेगा।
द्वेधा मतिश्रुते स्यातां ते चावधियुते कचित् ।
मनापर्ययज्ञाने वा त्रीणि येन युते तथा ॥३॥ - एक आत्मामें एक समय दो प्रकारके ज्ञान मति और श्रुत हो सकेंगे और अवधिसे युक्त हो रहे, वे दोनों ज्ञान किसी आत्मामें युगपत् हो जाते हैं । तथा किसी आत्मामें मनःपर्यय ज्ञानके हो जानेपर उन दोनोंको मिलाकर तीन ज्ञान युगपत् हो जाते हैं। अर्थात्-मति, श्रुत, अवधि, या मति, श्रुत, मनःपर्यय, ये तीन ज्ञान युगपत् सम्भव जाते हैं। तथा जिस अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके द्वय करके सहित वे मति, श्रुत हो जाते हैं। अथवा वे तीन ज्ञान यदि मनःपर्ययज्ञाममें युक्त हो जाय तो मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, इस प्रकार चार ज्ञान एक ही समयमें किसी एक जीवके सम्भव जाते हैं। पांचों ज्ञान युगपत् नहीं हो सकते हैं, असम्भव है।
प्रथमं मतिज्ञानं क्वचिदात्ममि श्रुतभेदस्य सत्र सतोऽप्यपरिपूर्णत्वेनानपेक्षणात् प्रधान केवळमेतेनैकसंख्यावाच्यप्येकशद्रो व्याख्यातः स्खयमिष्टस्यैकस्य परिग्रहात् । पंचानामन्यतमस्यानिष्टस्यासम्भवात् ।
उक्त दोनों वार्तिकोंका विपरीत अर्थ निवारणार्थ विवरण कहते हैं कि किसी एक जात्मामें पहिला एक मतिबान होगा, यद्यपि उस मतिज्ञानी आत्मामें श्रुतज्ञामका भेद भी विद्यमान हो रहा है। फिर भी श्रुतज्ञानके परिपूर्ण नहीं होने के कारण उस श्रुतज्ञानकी अपेक्षा नहीं की गयी है। अर्थात्-जिस एक इन्द्रियवाले या विकलत्रय जीवोंके अकेले मतिज्ञानकी सम्भावना है। उन जीवोंके थोडा मन्द श्रुतज्ञान भी है। किन्तु अनिन्द्रिय ( मन ) की सहायतासे होनेवाले विशिष्ट श्रुतज्ञानकी सम्भावना नहीं होनेसे वह श्रुत ( छोटा श्रुतज्ञान ) विद्यमान हो रहा भी अविद्यमान सदृश है । किसी विशेष विद्वान् या अङ्गबानीके श्रुतज्ञान कहना विशेष शोभता है। तथा एक आत्मामें एक प्रधान ज्ञान केवलज्ञान हो सकता है । इस उक्त कथनसे एकस्य संख्याको कहनेवाले भी " एक " इस शब्दका व्याख्यान कर दिया समझ लेना चाहिये । क्योंकि श्री उमास्वामी महाराजको स्वयं इष्ट हो रहे एकज्ञानका भी संख्यावाची एक शबसे पूरा ग्रहण हो जाता है। और पांच ज्ञानोंमेंसे चाहे कोई भी एक ज्ञानके सद्भावका हो जाना इस अनिष्ट अर्थकी सम्भावना नहीं है। व्यापक अर्थ होनेपर व्याप्य अर्थ आ ही जाता है । अतः संख्यावाची एक शब्दका अभिप्राय करनेपर एक मतिज्ञानका ही सद्भाव रखना चाहिये । अकेले श्रुतज्ञान या अकेले अवधिज्ञान अथवा
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तखार्थचिन्तामणिः
अकेले मनःपर्ययज्ञानका सद्भाव असम्भव होनेके कारण इष्ट नहीं किया गया है । " व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि सन्देहादलक्षणं "-व्याख्यान कर देनेसे शिष्योंकी विशेष व्युत्पत्ति हो जाती है । केवक सन्देह उठा देनेसे लक्षण खोटा नहीं हो जाता है।
कचित्पुन मतिश्रुते क्वचित्ते वावधियुते मनःपर्यययुते चेति त्रीणि ज्ञानानि संभवन्ति । कचित्ते एवावधिमनःपर्ययद्वयेन युते चत्वारि ज्ञानानि भवन्ति ।। पंचैकस्मिन्न भवन्तीत्याह।
किसी एक आत्मामें यदि दो ज्ञान होय तो फिर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो हो सकते हैं । मतिज्ञानके साथ अवधि या मनःपर्ययको मिलाकर अथवा श्रुतज्ञानके साथ अवधि या मनःपर्यय को मिलाकर दो ज्ञान नहीं हो सकते हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान केवल ये दो ज्ञान भी नहीं सम्भवते हैं। क्योंकि मतिज्ञानके साथ दूसरा ज्ञान श्रुतज्ञान ही हो सकता है। और श्रुतज्ञानके साथ दूसरा ज्ञान मतिज्ञान ही हो सकता है। तथा अधिज्ञान या मनःपर्ययज्ञानके साथमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान अवश्य होंगे, जैसे कि चक्षु इन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमके साथ रसना इन्द्रियावरणका क्षयोपशम अवश्यंभावी है । भले ही उसका कार्य नहीं होवे । किसी एक विवक्षित आत्मामें वे मति, श्रुत, दोनों ज्ञान यदि अवधिसे युक्त होजावे या मनःपर्ययसे सहित होना तो युगपत् एक आत्मामें तीन ज्ञान सम्भव जाते हैं तथा किसी एक आत्मामें वे मति और श्रुत दोनों ही ज्ञान यदि अवधि और मनःपर्यय इन दोनोंसे युक्त हो जावें तो युगपत् चारों ज्ञान एक आत्मामें सम्भव जाते हैं । एक आत्मामें युगपत् पांचों ज्ञान नहीं हो पाते हैं। इस रहस्यको श्रीविधामन्द आचार्य स्पष्टकर कहते हैं।
आचतुर्थ्य इति व्याप्तवाद्यावचनतः पुनः । पंचैकत्र न विद्यन्ते ज्ञानान्येतानि जातुचित् ॥ ४॥
" आङ्' इस निपातका अर्थ मर्यादा, अमिविधि आदि कई हैं । आचतुर्थ्यः यहां आ का अर्थ अभिविधि है । मर्यादामें तो उस कण्ठोक्तको छोड दिया जाता है। और अभिविधिमें उस कथित पदार्थका भी ग्रहण कर लिया जाता है। जैसे कि यहां सूत्रमें चारका भी ग्रहण कर लिया गया है । आचतुर्यः यहां व्याप्त अर्थको कहनेवाले आङ् शब्दका कथन कर देनेसे फिर यह सिद्धान्त प्राप्त हो जाता है कि एक नात्मामें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान ये पांचों शानों युगपत् कभी भी नहीं विद्यमान रहते हैं। क्योंकि ज्ञानावरणका क्षय हो जानेपर बात्मामें सर्वदा केवलज्ञान ही प्रकाशता रहता है । अतः देशघाती प्रकृतियोंके उदय होनेपर सम्भव रहे चार छानोंका क्षायिक ज्ञानके समयमें सद्भाव नहीं है। 18
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तत्वार्थलोकवार्तिके
क्षायोपशमिकज्ञानैः सहभावविरोधात्मायिकस्येत्युक्तं पंचानामेकत्रासहभवनमन्यत्र ।
आवरणोंकी क्षयोपशम अवस्था हो जानेपर सम्भवनेवाले चार ज्ञानोंके साथ आवरणोंके क्षय होनेपर उत्पन्न होनेवाले केवलज्ञानका साथ साथ विद्यमान रहना विरुद्ध है । इस प्रकार एफ आत्मामें पांचों ज्ञानोंका साथ सम्भवना नहीं, इस बातको हम अन्य पहिले प्रकरणोंमें स्पष्टरूपसे कह चुके हैं । अथवा अन्य सिद्धान्तग्रन्थोंमें यों उक्त है।
भाज्यानि प्रविभागेन स्थाप्यानीति निबुद्धयतां । एकादीन्येकदैकत्रानुपयोगानि नान्यथा ॥५॥
इस सूत्रमें कहे गये " भाज्यानि " शब्दका अर्थ "प्रकरणप्राप्त विभाग करके स्थापन करने योग्य हैं " इस प्रकार समझलेना चाहिये । एक समयमें एक आत्मामें एकको गादि लेकरके चार ज्ञानतक जो सम्भवते हुये बताये गये हैं, वे अनुपयोग आत्मक हैं। अन्य प्रकारसे यामी उपयोगस्वरूप पूरी पर्यायको धार रहे नहीं हैं। अर्थात्-लब्धिस्वरूप ज्ञान तो दो, तीन, चार, तक हो सकते हैं । अभाव या विशुद्धियां कितनी ही लाद ली जाय तो बोझ नहीं बढता है। किन्तु उपयोगस्वरूप ज्ञान तो एक समयमें एक ही होगा, क्योंकि उपयोग पर्याय है। चेतना गुणका एक समयमें एक ही पर्याय हो सकती है। हां, क्षयोपशम तो स्वच्छताविशेष है। वे एक समयमें कई हो सकते हैं । जैसे कि स्वच्छ भीतमें मिट्टी, स्याही, धूआं, कूडा, आदिके पृथक् कर देनेपर कई प्रकारकी स्वच्छताएं रह सकती हैं । किन्तु मीतमें चित्र एक ही प्रकार लिखा जा सकता है । " एकस्मिन्न द्वावुपयोगौ" एक समय एक आत्मामें दो उपयोग नहीं सम्भव हो सकते हैं।
सोपयोगस्यानेकस्य ज्ञानस्यैकत्र यौगपद्यवचने हि सिद्धान्तविरोधः सूत्रकारस्य न पुनरनुपयोगस्य सह द्वावुपयोगौ न स्त इति वचनात् ।
एक आत्मामें उपयोगसहित अनेक ज्ञानोंका युगपत् हो जाना यदि कथन करते तो सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजको स्याद्वादसिद्धान्तसे विरोध होता । किन्तु फिर अनुपयोग (लब्धि) स्वरूप अनेक ज्ञानोंका एक ही कालमें एक आत्माके कथन करनेपर तो कोई सिद्धान्तसे विरोध नहीं आता है । क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं होते हैं, ऐसा आकर प्रन्थोंमें वचन कहा हुआ है। "दसणपुग्वं गाणं छदुमत्थाणं ण दोहि उपयोगा जुग" छमस्थ जीवोंके बारह उपयोगोंमेंसे या इनके उत्तरभेद सैकडों उपयोगों से एक समयमें एक ही उपयोग हो सकता है । यधपि केवली भगवान् के एक समयमें केवज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग मान लिये हैं । " जम्हा केवलिणाहे जुगवं तदो दोषि" वह केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण कर्मोंके क्षय हो जाने के कारण कथन कर दिया जाता है। केवलान अधिक प्रकाशमान पदार्थ है। अतः केवली मारमा
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तत्वार्थचिन्तामणिः
चेतना गुणकी के छज्ञानस्वरूप पर्याय सर्वदा होती रहती है । सम्पूर्ण पदार्थों की सत्ताका आलोचन करनेवाला अनन्तदर्शन उसी ज्ञानमें अन्तर्भाषित हो जाता है। एक गुण नहीं धार सकता है । अतः क्षयोपशमजन्य लब्धिस्वरूप ज्ञान एकसे हैं । किन्तु उपयोगस्वरूप पर्यायसे परिणत हो रहा ज्ञान एक म्यून अधिक नहीं ।
एक समय में दो पर्यायको लेकर चार तक हो सकते समय में एक ही होगा,
सोपयोगयोर्ज्ञानयोः सह प्रतिषेधादिति निवेदयन्ति ।
उपयोगसहित हो रहे दो ज्ञानोंके साथ साथ हो जानेका निषेध है। इस रहस्यको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्त्तिकद्वारा सबके सन्मुख निवेदन करते हैं ।
क्षायोपशमिकं ज्ञानं सोपयोगं क्रमादिति । नार्थस्य व्याहतिः काचित्क्रमज्ञानाभिधायिनः ॥ ६॥
ज्ञानावरण कर्मोके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुये ज्ञान यदि उपयोगसहित उपजेंगे तो क्रमसे ही उपजेंगे। ऐसा करने में कमसे ज्ञानों की उत्पत्तिका कथन करनेवाले स्याद्वादी विद्वानके यहाँ कोई अर्थका व्याघात नहीं होता है । अर्थात्- - बद्ध आत्मामें देशघाती प्रकृतियोंके उदयकी अवस्था उपयोगस्वरूप ज्ञान या दर्शनकी एक ही पर्याय एक समयमें हो सकती है। हां, ज्ञानावरण, दर्शमावरणके क्षय हो जानेपर अबद्ध आत्मामें भले ही दो पर्याय हो जानेका व्यपदेश हो जाय तो कोई क्षति नहीं है । संसारी जीव क्रमसे दृष्टा, ज्ञाता, है । और केवली भगवान् युगपत् दृष्टा, ज्ञाता हैं ।
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निरुपयोगस्यानेकस्य ज्ञानस्य सहभाववचनसामर्थ्यात् सोपयोगस्य क्रमभावः क्षायोपशमिकस्येत्युक्तं भवति । तथा च नार्थस्य हानिः क्रमभाविज्ञानावबोधकस्य सम्भाव्यते ।
उपयोग आत्मक नहीं ऐसे अनेक ज्ञानोंके एक साथ हो जानेके कथनकी सामर्थ्य से यह बात अर्थापत्तिद्वारा कह दी जाती है कि उपयोगसहित हो रहे क्षायोपशमिक ज्ञानोंका क्रम क्रमसे ही उत्पाद होता है । और तिस प्रकार होनेपर क्रमसे होनेवाले ज्ञानोंको समझानेवाले स्याद्वादवादीके 1 यहां किसी प्रयोजनकी हानि नहीं सम्भवती है। अर्थात् अल्पज्ञानी ज्ञाताओंके क्षायोपशमिक ज्ञानोंके क्रमसे उत्पन्न हो जानेमें किसी अर्थकी हानि नहीं हो पाती है । प्रत्युत चेतना गुणकी • वर्तना अनुसार ठीक पर्याय होनेका सिद्धान्त अक्षुण्ण बना रहता है ।
अत्रापराकृतमनूद्य निराकुर्वन्नाह ।
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
यहां प्रकरण में दूसरे वादियोंके चेष्टित करनेका अनुवाद कर पुनः उसको निराकरण करते हुये श्री विद्यानन्द स्वामी स्पष्ट भाषण कहते हैं ।
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नोपयोगी सह स्यातामित्यार्याः ख्यापयन्ति ये । दर्शनज्ञानरूपौ तौ न तु ज्ञानात्मकाविति ॥ ७ ॥ ज्ञानानां सहभावाय तेषामेतद्विरुद्धयते । क्रमभावि च यज्ज्ञानमिति युक्तं ततो न तत् ॥ ८ ॥
श्री समन्तभद्र आचार्य दो उपयोगोंका साथ साथ होना नहीं मानते हैं। यहां कहे गये कि आर्य विद्वान् यह अर्थ बखानते हैं। किंतु ज्ञानस्वरूप दो उपयोगोंके ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग ये दो और श्रुतज्ञान अथवा चाक्षुषप्रत्यक्ष और रसना एक कालमें हो सकते हैं । इस प्रकार उनके
एक साथ दो उपयोग नहीं होते हैं, इस सिद्धान्तवाक्यका जो उपयोग साथ नहीं होते हैं,
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कि दर्शन और ज्ञानस्वरूप वे साथ हो जानेका निषेध नहीं हैं अर्थात् – एक उपयोग साथ नहीं हो सकते हैं । किन्तु मतिज्ञान इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ऐसे दो आदिक कई ज्ञान तो कहने पर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि उन आर्योंके यहां कई उपयोग आत्मक ज्ञानोंका सहभाव कथन करनेके लिये इस सिद्धान्तवाक्यसे विरोध पडता है कि " क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् " श्री समन्तभद्र स्वामीने आप्तमीमांसा में कहा है कि क्षयोपशमसे जन्य जो ज्ञान स्याद्वादन्यायसे संस्कारयुक्त हो रहे क्रम क्रमसे होते हैं, वे भी प्रमाण हैं । तिस कारण इस प्रकार वह कई ज्ञानोंका सहभाव कथन करना युक्तिपूर्ण नहीं है । तत्त्र यही है कि रूप, रस आदि गुणों का एक समय में नीला, पीला, खड्डा, मीठा, आदिकमेंसे जैसे कोई एक ही परिणाम होता है, उसी प्रकार चैतन्यगुणका एक समय में उपयोगस्वरूप एक ही परिणाम होगा ।
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यदापि " क्रमभावि च यज्ज्ञानमिति " समन्तभद्रस्वामिवचनमन्यथा व्याचक्षते विरोधपरिहारार्थं तदापि दोषमुद्भावयति ।
विरोध दोषका परिहार करनेके लिये जब कभी वे विद्वान् क्रमसे होनेवाले जो ज्ञान हैं, वे प्रमाण हैं, इस प्रकार श्री समन्तभद्र स्वामी के वचनोंका दूसरे प्रकारोंसे यों वक्ष्यमाण व्याख्यान करते हैं, तब भी उनके ऊपर श्रीविद्यानन्दी आचार्य दोषोंको उठाते हैं।
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शद्वसंसृष्टविज्ञानापेक्षया वचनं तथा ।
यस्मादुक्तं तदेवार्यैः स्याद्वादनयसंस्थितम् ॥ ९ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
इति व्याचक्षते ये तु तेषां मत्यादिवेदनं ।
प्रमाणं तत्र नेष्टं स्यात्ततः सूत्रस्य बाधनम् ॥ १० ॥
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विद्वान् आप्तमीमांसा के वाक्यका अर्थ यों वखानते हैं कि जिस कारण से श्री समन्तभद्राचार्यने शद्वके साथ संसर्गको प्राप्त हो रहे विज्ञानकी अपेक्षासे तिस प्रकारका वचन कहा है, तभी तो उन आचार्यौको ज्ञानका स्याद्वादनीति से भले प्रकार स्थित हो जाना कहना पडा । अर्थात् — जिन ज्ञानों में शद्वकी योजना हो जाती है, जैसे कि किसी आप्तके कहने से किसी देशमें धान्यकी उत्पत्तिका ज्ञान किया तथा उसके शद्वों द्वारा वहांके पुरुषों में सदाचार में प्रवृत्ति ज्ञात कर ली, विद्वानोंका सद्भाव समझ लिया, इत्यादिक ऐसे शद्वसंसर्गीज्ञान तो श्रोताको क्रमसे ही होवेंगे । ऐसा अर्थ करनेपर ही " स्याद्वादनयसंस्कृतम् " यह पद भी ठीक संगत हो जाता है । जैनोंने शद्वसंसर्गीज्ञानको स्याद्वादनीति से संस्कृत कर श्रुतज्ञान मान लिया है । स्याद्वाद नीति श्रुतज्ञान में ही तो लकती है। किंतु शब्दकी योजनासे रहित हो रहे बहुभाग श्रुतज्ञान और सभी मति, अवधि और मन:पर्यय ये ज्ञान तो कई एक साथ हो सकते हैं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अप्तमीमांसा के वाक्यका जो विद्वान् व्याख्यान कर रहे हैं, उनके यहां मतिज्ञान, अत्रधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और शब्दका संसर्ग नहीं रखनेवाला बहुभाग श्रुतज्ञान, ये ज्ञान तो प्रमाण नहीं अभीष्ट हो सकेंगे और तैसा हो जानेसे सूत्रकारके पांचों ज्ञानोंको प्रमाण कहनेवाले सूत्रकी बाधा उपस्थित हो जायगी । अर्थात् - सम्पूर्ण प्रमाणोंका नियम करनेवाली श्री समन्तभद्र महोदयकी कारिका के पूर्वार्धका अर्थ केवलज्ञानका प्रमाणपना किया जा रहा है । सो तो ठीक है । किन्तु कारिका के उत्तरार्द्धसे यदि शब्दसंसर्गी श्रुतज्ञानका ही प्रमाणपना कह दिया जायगा तो शेष मति आदिक ज्ञानोंका प्रमाणपना व्यवस्थित नहीं हो सकेगा और ऐसी दशा में "मति श्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानं " इस श्री उमास्वामी महाराजके प्रमाणप्रतिपादक सूत्र से श्री समन्तभद्र स्वामीकी कारिकाका विरोध ठन जायगा । ऐसे परस्पर विरोधको तो कोई भला मानुष इष्ट नहीं करेगा ।
“ तत्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासन " मित्यनेन केवलस्य " क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृत " मित्यनेन च श्रुतस्यागमस्य प्रमाणान्तरवचनमिति व्याख्याने मतिज्ञानस्यात्रधिमन:पर्यययोश्च नात्र प्रमाणत्वमुक्तं स्यात् । तथा च “मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानि ज्ञानं " " तत्प्रमाणे " इति ज्ञानपंचकस्य प्रमाणद्वयरूपत्वप्रतिपादकसूत्रेण बाधनं प्रसज्येत ।
" तत्रज्ञानं प्रमाणते " यह देवागम स्तोत्रकी कारिका है। इसका अर्थ यों है कि हे जिनेंद्र ! तुम्हारे यहां स्त्रों का यथार्थज्ञान ही प्रमाण माना गया है । तिन प्रमाण ज्ञानोंमें प्रधान ज्ञान
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१.२
तत्वार्थ लोकवार्तिके
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केवलज्ञान है, जो सम्पूर्ण पदार्थोंका युगपत् साक्षात् प्रतिभास कर देता है । और जो ज्ञान क्रम से होनेवाले हैं, वे भी तस्त्रज्ञानस्वरूप होते हुये प्रमाण हैं । स्याद्वादनीतिसे संस्कृत होता हुआ श्रुतज्ञान भी प्रमाण है। अथवा " स्याद्वादनयसंस्कृतं " यह विशेषण सभी तत्वज्ञानों में लगा लेना चाहिये । सप्तभंगी प्रक्रिया सर्वत्र सुलभ है। यहां उक्त कारिका के पूर्वार्धसे केवलज्ञानका प्रमाणपना खानते हुये वे विद्वान् कारिकाके " क्रममावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतं " इस उत्तरार्द्ध करके केवल आगमस्वरूप श्रुतज्ञानको दूसरे प्रमाणपनेका वचन है, ऐसा कहते हैं। किन्तु ऐसा व्याख्याम करनेपर इस कारिकामें मतिज्ञान और देशप्रत्यक्षस्वरूप अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञानोंका प्रमाणपना यह नहीं कहा गया समझा जायगा और तिस प्रकार केवलज्ञान और श्रुतज्ञान इन दो ज्ञानोंका ही प्रमाणपना श्री समन्तभद्रस्वामीकी कारिकाद्वारा व्यवस्थित हो जानेपर तस्वार्थसूत्रकारद्वारा कहे गये मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पांच ज्ञान प्रमाण हैं । तथा वे ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाण स्त्ररूप हैं। इस प्रकार पांचों ज्ञानों को दो प्रमाणस्वरूपपना प्रतिपादन करनेवाले सूत्रों करके बाधा हो जानेका प्रसंग प्राप्त हो जावेगा ।
यदा तु मत्यादिज्ञानचतुष्टयं क्रमभावि केवलं च युगपत्सर्वभासि प्रमाणं स्याद्वादेन प्रमाणेन सकलदेशिना नयौश्च विकलाशिभिः संस्कृतं सकलविप्रतिपत्तिनिराकरणद्वारेणागतमिति व्याख्यायते तदा सूत्रबाधा परिहृता भवत्येव ।
किन्तु जब श्री समन्तभद्रस्वामीकी कारिकाका अर्थ यों किया जायगा कि " क्रमक्रमसे होने वामति श्रुत आदिक चारों ज्ञान और एक ही समय में सत्र पदार्थोंको प्रकाशनेवाला केवळ ज्ञान प्रमाण हैं । वस्तुके सकल अंशोंका कथन करनेवाले स्याद्वाद प्रमाणकरके और वस्तुके विकल अंशोंका कथन करनेवाले नयोंकरके वह तत्वज्ञान संस्कृत हो रहा है । अथवा प्रमाण तो सकलादेशी वाक्य संस्कृत है और द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक दो नये विचारी विकलादेशी वाक्योंकर के सहकार प्राप्त हैं । बौद्ध मीमांसक आदि करके उठाये गये सम्पूर्ण विवादोंका निराकरण करते करते उक्त द्वार या प्रकारसे यह सिद्धान्त प्राप्त होगया । इस प्रकार कारिकाका व्याख्यान किया जायगा, तब तो सूत्र से आयी हुयी बाधाका परिहार हो ही जाता है ।
ननु परव्याख्यानेऽपि न सूत्रबाधा क्रमभावि चेति च शब्दान्मतिज्ञानस्यावधिमन:पर्ययोश्च संग्रहादित्यत्र दोषमाह ।
फिर भी दूसरे विद्वान् अपने गिरगये पक्षका पुनः अवधारण करते हैं कि दूसरे विद्वान् के द्वारा व्याख्यान करनेपर भी कारिकाकी सूत्रसे बाधा यों नहीं आती है कि " क्रमभावि च " यों कारिका में पडे हुये च शब्द करके मतिज्ञानका और अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञानका संग्रह हो जाता है। ऐसी दशामें श्री समन्तभद्रस्वामीकी कारिकाद्वारा भी पांचों ज्ञानोंको प्रमाणपना प्राप्त हो जाता
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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है । इस प्रकार उनके कहनेपर भी श्री विद्यानन्दो आचार्य यहां आ रहे दोषोंको स्पष्ट कर कहते हैं, सो सुनिये ।
चशब्दात्संग्रहात्तस्य तद्विरोधो न चेत्कथम् । तस्याक्रमेण जन्मेति लभ्यते वचनाद्विना ॥ ११ ॥
च शद्ब करके मति आदि ज्ञानोंका संग्रह हो जानेसे उस कारिकाके वाक्यका उस सूत्रसे विरोध नहीं होता है, यदि यों कहोगे ! तो बताओ कि उन मति आदि ज्ञानोंकी अक्रमसे उत्पत्ति हो जाती है, यह तुम्हारा सिद्धान्त कण्ठोक्त वचनके विना मुला कैसे प्राप्त हो सकता है ! अर्थात् च शद्वसे मति आदिकका संग्रह तो हो जायगा, किन्तु तुमको अभीष्ट हो रहा ज्ञानोंका एक साथ होना मला कैसे विना कहे ही कारिकासे निकल सकता है ? श्री समन्तभद्र आचार्यमे " क्रमभावि शद्व तो कहा है। किन्तु अक्रममावि शद्व नहीं कहा है, अतः तुम्हारा व्याख्यान ठीक नहीं है ।
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क्रमभाषि स्याद्वादनय संस्कृतं च शद्वान्मत्यादिज्ञानं क्रमभावीति न व्याख्यायते यतस्तस्याक्रमभावित्वं वचनाद्विना न लभ्येत । किं तर्हि स्याद्वादनयसंस्कृतं । यत्तु श्रुतज्ञानं प्रभावि चशद्वादक्रमभावि च मत्यादिज्ञानमिति व्याख्यानं क्रियते सूत्रबाधापरिहारस्यैवं प्रसिद्धेरिति चेत्, नैवमिति वचनात् सूत्रान्मत्यादिज्ञानमक्रमभाविप्रकाशनाद्विना लब्धुमशक्तेः ।
परवादी कहता है कि हम क्रमसे होनेवाले तथा स्याद्वादनयसे संस्कृत हो रहे श्रुतज्ञान और च शद्वसे संगृहीत कमपूर्वक होनेवाले मति आदि ज्ञान प्रमाण हैं, ऐसा व्याख्यान नहीं करते हैं, जिससे कि जैनोंका क्षायोपशमिक ज्ञानोंके क्रमभावीपनका मन्तव्य तो सिद्ध हो जाय और हमपर वादियोंद्वारा माना गया उन मति आदिक ज्ञानोंका अक्रमसे हो जानापन विचारा वचनके विना प्राप्त नहीं हो सके । तो हम कारिकाका कैसा व्याख्यान करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि जो ज्ञान स्याद्वादवाक्य और नय वाक्योंसे संस्कार प्राप्त हो रहा श्रुतज्ञान है, वह तो क्रमसे ही होनेवाला है । क्योंकि शह्नोंकी योजना क्रपसे ही होती है। अतः शब्दसंयुक्त श्रुतज्ञान तो क्रमावि है । और च शद्वकरके लिये गये अक्रमसे होनेवाले मति आदि ज्ञान भी प्रमाण हैं । इस प्रकार स्वामीजीकी कारिकाका व्याख्यान किया जाता है। ऐसा ढंग बनानेपर श्री उमास्वामी महाराजके सूत्र से आनेवाली बाधा के परिहारकी प्रसिद्धि हो जाती है। इस प्रकार परवादियों के कहने पर आचार्य महाराज कहते हैं कि यों तो नहीं कहना। क्योंकि मति आदिक ज्ञान अक्रमसे यानी एक साथ भी कई हो जाते हैं। इस तस्वको प्रकाशमेवाळे सूत्रबचन या कारिका वच्चन के
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
विना ही वह तुम्हारा अर्थ प्राप्त नहीं हो सकता है। हां, इसके विपरीत " एकदा न द्वावुपयोगी" यह वचन जागरूक हो रहा है । दर्शन, अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क ये उपयोग क्रमसे ही होते हैं । भुरभुरी कचौडी खाने पर भी पांचों इन्द्रियोंसे जन्य ज्ञान क्रमसे ही होते हैं। मति आदिक कई ज्ञानोंका एक साथ उपजना विरुद्ध है। . ननु बढादिसूत्र मतिज्ञानयोगपद्यमतिपादकं सावदस्तीति शंकामुपदर्य प्रत्याचष्टे ।
परवादी विद्वान् अपने पक्षको पुष्ट करने के लिये आमंत्रण देता है कि कई मति ज्ञानोंके युगपत् हो जानेपनका. प्रतिपादन करनेवाला " बहुबहुविधक्षिप्रा” इत्यादि सूत्र तो विद्यमान है ही । इस प्रकारकी आशंकाको दिखला कर श्री विद्यानन्द आचार्य उस शंकाका प्रत्याख्यान करते हैं।
बह्वाधवग्रहादीनामुपदेशात्सहोद्भवः । ज्ञानानामिति चेनैवं सूत्रार्थानवबोधतः ॥ १२ ॥ बहुष्वर्थेषु तत्रैकोवग्रहादिरितीप्यते ।
तथा च न बहूनि स्युः सहज्ञानानि जातुचित् ॥ १३ ॥
बहु, बहुविध आदि पदार्थोके भवग्रह, ईहा आदि ज्ञानोंका सूत्रकारने उपदेश दिया है। अतः कई ज्ञानोंका साथ उपजना सिद्ध हो जाता है। अर्थात-एक साथ हुये बहुतसे ज्ञान ही तो विषयभूत बहुत अर्थोको जान सकेंगे । एक ज्ञान तो एक ही अर्थको जान पावेगा। जब कि सूत्रकारने बहुत पदार्थोका एक समयमें जान लेना उपदिष्ट किया है, अतः सिद्ध होता है कि एक समयमें अनेक ज्ञान हो जाते हैं । इस प्रकार शंकाकारके कहनेपर आचार्य कहते हैं यों तो नहीं कहना । क्योंकि सूत्रके वास्तविक अर्थका तुमको ज्ञान नहीं हुआ है । श्री उमास्वामी महाराजको बहुतसे अर्थोंमें या बहुत जातिके अनेक अर्थोंमें एक अवग्रह, एक ईहा ज्ञान, आदि हो जाते हैं। इस प्रकार उस सूत्रमें अर्थ अभीष्ट हो रहा है। और तिस प्रकार होनेपर कदाचित् भी एक साथ बहुत ज्ञान नहीं हो पायेंगे । अर्याद-एक समयमें एक ही ज्ञान होगा। वह एक ज्ञान ही भळे ही लाखों, करोडों, असंख्यों पझोंको युगपत् जान लेवे ऐसा सूत्रकारका मन्तव्य है । प्रत्येक अर्थके लिए एक एक ज्ञान मान लेना निर्दोष सिद्धान्त नहीं है । एक ज्ञानसे अनेकों अर्थ जाने जा सकते हैं । और एक धारामें बह रहे अनेक ज्ञानोंसे मी एक अर्थ जाना जा सकता है। कोई एकान्त नहीं है। " प्रतिलक्ष्यलक्षणोपप्लव " या प्रत्यर्थ ज्ञानाभिनिवेशः, इसमें अनेक दोष आते हैं।
कथमेवमिदं सूत्रभनेकस्य ज्ञानस्यैका सहभावं प्रकाशयम विरुध्यते इति पेपपते ।
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तार्थचिन्तामणिः
शंकाकार कहता है कि यों कहनेपर तो यानी एक समय में एक ही ज्ञानका सद्भाव माननेपर तो एक आत्मामें एक समय अनेकज्ञानों के साथ साथ हो जानेको प्रकाश रहा यह " एकादीनि भाग्यानि " इत्यादि सूत्र मला क्यों नहीं विरुद्ध हो जावेगा ! अर्थात् - एक समय में एक ही ज्ञान मान चुकनेपर पुनः इस सूत्र द्वारा एक साथ चार ज्ञानोंतकका उपदेश देना विरुद्ध पडेगा | जैनोंके मतका इस सूत्रसे विरोध ठन जायगा । इस प्रकार कटाक्ष करनेपर तो श्रीविद्यानन्द आचार्यको यो समाधान कहना पडता है, सो सुनिये ।
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शक्त्यर्पणात्तु तद्भावः सहेति न विरुध्यते । कथंचिदक्रमोद्भूतिः स्याद्वादन्यायवेदिनाम् ॥ १४ ॥
ज्ञानकी लब्धिस्वरूप शक्तियोंकी विवक्षा करनेसे तो इस सूत्र द्वारा दो, तीन, चार ज्ञानोंका सहभाव कथन कर देना विरुद्ध नहीं पडता है । क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्तकी बीतिको जाननेवाले विद्वानों के यहां कथंचित् यानी किसी क्षयोपशमकी अपेक्षासे कई ज्ञानोंका अक्रमसे उपजना अविरुद्ध है । जैसे कि सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, साहित्यको जाननेवाला विद्वान् सोते समय या खाते, पीते, खेलते समय भी उक्त विषयोंकी व्युत्पत्तिसे सहित है । किन्तु पढाते समय या व्याख्यान करते समय एक ही विषय के ज्ञानसे उपयुक्त हो रहा है। अतः मति आदिक ज्ञानोंमें १ स्यात् क्रमः २ स्यात् अक्रपः ३ स्पात् उभयं 8 स्यात् अवक्तव्यं ५ स्यात् क्रम - अवक्तव्यं ६ स्यात् अक्रम - अवक्तव्यं ७ स्यात् क्रम अक्रम - अवक्तव्यं यह सप्तभंगी प्रक्रिया लगा लेना । खेतकी विवक्षित मट्टी भले ही सैकडों हजारो प्रकार वनस्पतिस्त्ररूप परिणमन कर सकती है, किन्तु वर्तमान समय में गेहूं, ज्वार, बाजरी आदिमेंसे किसी एकरूप ही परिणत हो रही है ।
क्षायोपशमिकज्ञानानां हि स्वावरणक्षयोपशमयौगपद्यशक्तेः सहभावोऽस्त्येक त्रात्मनि योग इति कथञ्चिदमोत्पत्तिर्न विरुध्यते सूत्रोक्ता स्याद्वादन्यायविदां । सर्वथा सहभावासहभावयोरनभ्युपगमाच्च न प्रतीतिविरोधः शक्त्यात्मनैव हि सहभावो नोपयुक्तात्मना उपयुक्तात्मना वाऽसहभावो न शक्त्यात्मनापीति प्रतीतिसिद्धं ।
कारण कि क्षायोपशमिक चार ज्ञानोंकी अपने अपने आवरण करनेवाले ज्ञानावरण कमौके क्षयोपशमका युगपत्पने करके हुयी शक्तिका सहभाव एक आत्मामें विद्यमान है । किन्तु उपयोग आत्मक कई ज्ञानोंका सहभाव नहीं है । इस प्रकार उन ज्ञानोंकी इस सूत्र में कही गयी अक्रमसे उत्पत्ति तो स्पाद्वाद न्यायको जाननेवाले विज्ञोंके यहां विरुद्ध नहीं होती है । शक्ति और उपयोगकी अपेक्षा इस सूत्रका और " एकदा न द्वावुपयोगौ ” इस आकर वाक्यका कोई विरोध नहीं पडता है हम जैनोंने सभी प्रकार शानोंके सहभाव और सभी प्रकारोंसे ज्ञानोंके असहभावको स्वीकार नहीं
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
किया है। अतः प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीतिओंसे विरोध नहीं आता है । हम शक्तिस्वरूपकरके ही ज्ञानोंका सहभाव मानते हैं। उपयुक्तस्वरूप करके कई ज्ञानोंका सहभाव एक समयमें नहीं मानते हैं अथवा उपयुक्तस्वरूप करके ही ज्ञानोंका असहमाव ( क्रममाव ) है । शक्ति स्वरूपकरके भी असहभाव होय यों नहीं है । यह सिद्धान्त प्रतीतियोंसे सिद्ध हो रहा है।
सहोपयुक्तात्मनापि रूपादिज्ञानपंचकमादुर्भावमुपयन्तं प्रत्याह ।
जो वादी विद्वान् उपयुक्तपन स्वरूपकरके भी रूप, रस आदिके पांच झानोंकी एक साथ उत्पत्तिको स्वीकार कर रहा है, उसके प्रति अनुवाद करते हुये आचार्य महाराज सिद्धान्त वचनको कहते हैं।
शष्कुलीभक्षणादौ तु रसादिज्ञानपंचकम् । सकृदेव तथा तत्र प्रतीतेरिति यो वदेत् ॥ १५॥ तस्य तत्स्मृतयः किन्न सह स्युरविशेषतः। तत्र तादृक्षसंवित्तेः कदाचित्कस्यचित्कचित् ॥ १६ ॥ सर्वस्य सर्वदात्वे तद्रसादिज्ञानपंचकम् । सहोपजायते नैव स्मृतिवत्तत्कमेक्षणात् ॥ १७ ॥
भुरीभुरी ( खस्ता ) कचौडी, पापड, महोवेका पान आदिके भक्षण, सूंघने, छने आदिमें हुये उस गन्ध आदिके पांचों ज्ञानोंका एक ही समयमें तिस प्रकार यहां होना प्रतीत हो रहा है। अतः उपयोगस्वरूप भी अनेक ज्ञान एक समयमें हो सकते हैं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार जो कोई विद्वान् कहेगा, उस विद्वानके यहां उन पाचों ज्ञानोंकी स्मृतियां विशेषता रहित होनेसे एक साथ क्यों नहीं हो जाती हैं । अर्थात् जब कि अनुभव एक साथ पांच हो गये हैं, तो स्मृतियां भी एक साथ पांच हो जानी चाहिये । अनुभवके अनुसार स्मृतियां दुआ करती हैं। स्याद्वादसिद्धान्ती हम एक साथ कई ज्ञान हो जानेको माननेवाले तुमसे पूंछते हैं कि किसी काळमें किसी एक व्यक्तिको कहीं भी हो गयी तिस प्रकार एक समयमें हुये अनेक बानोंकी सम्वित्तिसे वहां कचौडी भक्षण आदिमें उस रसादिके पांच ज्ञानोंके एक साथ उपजनेकी व्यवस्था करते हो! अथवा सदा सम्पूर्ण व्यक्तियोंके सभी ऐसे स्थलोंपर हो रही तिस प्रकार सम्वित्तिओंसे पांचों ज्ञानोंका साथ हो जाना स्वीकार करते हो ! बताओ । प्रथमपक्ष अनुसार किसीको कहीं कभी तैसा जान कर लेनेसे तो यथार्थ व्यवस्था नहीं बनती है। मिथ्याज्ञान द्वारा भ्रमवश कहीं कभी किसी उद्धान्त पुरुषको प्रायः ऐसी सम्वित्तियां होजाया करती हैं, जो कि उत्तरकालमें बाधित हो जाती हैं। हां,
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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द्वितीय पक्षका ग्रहण करना प्रशस्त है । किन्तु सभी व्यक्तियोंको सदा ऐसे सभी स्थलोंपर रस आदिकोंके वे पांच ज्ञान एक साथ उपज रहे नहीं जाने जाते हैं । जैसे कचौडी मक्षण कर चुकनेपर पीछे रूप, रस आदिकी स्मृतियां क्रमसे ही होती हैं। इस प्रकार उन रूप आदिके पांच ज्ञानोंका भी क्रमसे उपजना देखा जाता है। अर्थात् — उत्तम कचौडी सम्बन्धी रूप, गन्ध, स्पर्श, शद्व, रस, इनके पांच ज्ञान क्रमसे होते हैं। शीघ्र शीघ्र प्रवृत्ति हो जानेसे संस्कारवश आतुर प्राणी युगपत्पका कोरा अभिमान करलेता है ।
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क्रमजन्म कचिद् दृष्ट्वा स्मृतीनामनुमीयते ।
सर्वत्र क्रमभावित्वं यद्यन्यत्रापि तत्समं ॥ १८ ॥
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पूर्वपक्षी कहता है कि हम रूप आदिके ज्ञानोंकी तो एक साथ उत्पत्तिको मान लेते हैं किन्तु उनकी स्मृतियां क्रमसे ही होती हुयी मान ली जाती हैं। क्योंकि किसी भी दृष्टान्तमें स्मृतियोंका क्रमसे हो रहे जन्मको देख करके सभी स्थलोंपर स्मृतिओंके क्रमसे होनेपनका अनुमान कर किया जाता है । इसपर आचार्य महाराज कहते हैं कि यदि इस प्रकार स्मृतिओंका क्रमभावी माना जायगा तब तो सभी रूप आदिक पांच अन्य ज्ञानोंमें भी वह क्रमसे उत्पन्न होनापन समान है । स्मृति और अनुमत्रोंके क्रमसे उत्पाद होनेमें कोई अन्तर नहीं है ।
पंचभिर्व्यवधानं तु शष्कुली भक्षणादिषु । रसादिवेदनेषु स्याद्यथा तद्वत्स्मृतिष्वपि ॥
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हुयी उनकी स्मृतिओंमें पांच
जिस प्रकार पापड भक्षण, पान चवाना आदिके पीछे कालमें या बीचके चार व्यवधायकोंकरके व्यवधान पड जाता है, उन्हींके समान कचौडीमक्षण, पानक ( ठंडाई ) पान आदिक में हुये रस, गन्ध आदिके ज्ञानों में भी तो पांचों करके व्यवधान पड जायगा । पांच अंगुलिभों में देशों के पांच या चार व्यवधान होनेपर भी जैसे पांचपना है, ज्ञानोंमें भी काळ कृत पांच व्यवधान पड जानेसे ही पांचज्ञानपना व्यवस्थित है । विषयोंकी अपेक्षा ज्ञानोंकी संख्या वैसी नियत नहीं है, जैसी कि भिन्न समयों में हो रहीं न्यारी परिणतियों द्वारा ज्ञानोंकी संख्या नियत हो जाती है ।
लघुवृत्तेर्न विच्छेदः स्मृतीनामुपलक्ष्यते ।
यथा तथैव रूपादिज्ञानानामिति मन्यताम् ॥ २० ॥
वेगपूर्वक घूमते हुये चकके समान शीघ्र शीघ्र लाघवसे प्रवृत्ति हो जानेके कारण स्मृतियोंका मध्यवर्ती अन्तराल जिस प्रकार नहीं दीख पाता है, तिस ही प्रकार कचौडी मक्षण आदिमें रूप,
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
रस आदिके पांच ज्ञानोंका व्यवधान नहीं दीख रहा है, इस वातको मान लो । अर्थात्स्मृतियोंके समान बानोंमें भी मध्यवर्ती अन्तराल पड रहा है। पांचो ज्ञान एक साथ नहीं हुये हैं, क्रमसे ही उपजते हैं।
असंख्यातैः क्षणैः पद्मपत्रद्वितयभेदनम् । विच्छिन्नं सकृदाभाति येषां भ्रान्तेः कुतश्चन ॥ २१ ॥ * पंचः समयैस्तेषां किन्न रूपादिवेदनम् । विच्छिन्नमपि भातीहाविच्छिन्नमिव विभ्रमात् ॥ २२ ॥
जो कोई विद्वान् पांच सौ कमलके पत्तोंकी दो दो पत्तोंसे जडी हुयी गड्डीके सूची द्वारा भेद करनेको असंख्यात समयों करके व्यवहित हो रहा स्वीकार करते हैं, किन्तु किसी कारणसे भ्रान्तिवश उन्हीं जिन वादियोंके यहां पद्म पत्रोंका भिदना एक समयमें हो रहा दीख रहा है, उन विद्वानोंके यहां रूप, रस आदिका ज्ञान पांच समयों करके व्यवहित हो रहा भी क्यों नहीं विशेष भ्रमसे अव्यवहित सरीखा हो रहा दीख जाता माना जायगा ! भावार्थ-सौ कमळके पत्रोंको छेदने में तो जो विद्वान् निन्यानवे समयोंका व्यवधान मानते हैं, उनको रूप आदिके ज्ञानोंमें बीच हा व्यवधान मानना अनिवार्य होगा । वस्तुतः जैनसिद्धांत अनुसार विचारा जाय तो सौ पत्र क्या करोडो तर ऊपर रखे हुये पत्रोंको एक ही समयमें सूई या बन्दूक की गोली आदिसे छेदा जा सकता है । एक समयमें सैकड़ों योजनतक पदार्थोकी गति मानी गयी है। हां, पूर्व अपरपना अवश्य है । एक ही समयमें पहिले ऊपरके पत्तेका भेदना है । पश्चात् नीचे के पत्तेका छिदना हो जाता है । किन्तु रूप आदिके ज्ञान तो पूरा एक एक समय घेर लेंगे । तब कहीं पांच ज्ञान न्यूनसे न्यून पांच समयोंमें होंगे । स्थूल दृष्टिवाले जीवोंके तो कचौडी खाते समय भी हुआ एक एक ज्ञान असंख्यात समयोंको घेर लेता है। अतः प्रतिवादियोंद्वारा स्वीकार किये गये " कमलपत्रशतछे।” दृष्टान्तकी सामर्थ्य से रूप आदि ज्ञानोंका विच्छेद, साध दिया गया है। कतिपय आग्रहियोंकी विपरीत बुद्धिको तो देखो कि एक एक समयमें मी मिदनेवाले कमलपत्रों में तो कई समय लगते मानते हैं। किन्तु रूप आदिक ज्ञानों में नहीं, आश्चर्य है !
+ व्यवसायात्मकं चक्षुर्ज्ञानं गवि यदा तदा। मतङ्गजविकल्पोऽपीत्यनयोः सकृदुद्भवः ॥ २३ ॥ * पंचशः इति पाठांतरं वर्तते. + निर्विकल्पात्मकं इति पाठांतरं विद्यते.
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स्वार्थचिन्तामणिः
ज्ञानद्वय सकृज्जन्मनिषेधं हन्ति चेन्न वै । तयोरपि सहैवोपयुक्तयोरस्ति वेदनम् ॥ २४ ॥ यदोपयुज्यते ह्यात्मा मतङ्गजविकल्पने । तदा लोचनविज्ञानं गवि मन्दोपयोगहृत् ॥ २५ ॥
यहां पर बौद्ध कहते हैं कि जिस ही समय सन्मुख हो रही गौमें चक्षु इन्द्रियजन्य निर्विकल्पक स्वरूप प्रत्यक्षज्ञान हो रहा है, उसी समय हाथीका विकल्पज्ञान भी हो रहा है । इस प्रकार इन दो ज्ञानका साथ उत्पन्न हो जाना तो जैनद्वारा माने गये दो ज्ञानोंकी एक समय में उत्पत्तिके निषेधको नष्ट कर देता है । इस प्रकार प्रतिवादियोंके कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि उपयोगको प्राप्त हो रहे उन गोदर्शन और गजविकल्प दोनों भी ज्ञानोंका एक साथ ही अनुभव कथमपि नहीं हो रहा है । जिस समय आत्मा हाथीका विकल्पज्ञान करनेमें उपयुक्त हो रही है, उस समय गौमें हुआ नेत्रजन्य ज्ञान तो मन्द उपयोगी होता हुआ नष्ट हो चुका है । अतः निर्विकल्पक और सविकल्पक दोनों ज्ञान क्रमसे ही उपजते हैं, ऐसा निश्चयसे समझलो ।
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तथा तत्रोपयुक्तस्य मतङ्गजविकल्पने ।
प्रतीयन्ति स्वयं सन्तो भावयन्तो विशेषतः ॥ २६ ॥ समोपयुक्तता तत्र कस्यचित्प्रतिभाति या । साशुसंचरणाद्धान्तेग कुञ्जरविकल्पवत् ॥ २७ ॥
और जिस समय आत्मा गौके चाक्षुषप्रत्यक्ष करनेमें उपयोगी हो रहा है, उस समय हाथी का विकल्पज्ञान करनेमें मन्द करते हुए अपने उपयोगका उपसंहार कर रहा है। विशेषरूपोंसे भावना कर रहे सज्जन विद्वान् इस तरत्रकी स्वयं प्रतीति कर रहे हैं। किसी किसी स्थूल बुद्धिबाले पुरुषको उन दोनों ज्ञानों में समान काल ही उपयुक्तपना जो प्रतिभास रहा है, वह तो शीघ्र शीघ्र ज्ञानोंका संचार हो जानेके वश होगयी भ्रान्तिसे देखा गया है । जैसे कि गौका विकल्पज्ञान और हाथीका विकल्पज्ञान । यद्यपि ये दो विकलरज्ञान क्रमसे हो रहे हैं, फिर भी शीघ्र शीघ्र आगे पीछे हो जानेसे भ्रमवश एक कालमें हो रहे समझ लिए जाते हैं । जब कि दो विकल्प ज्ञानोंका क्रमसे होना आप बौद्ध स्वीकार करते हैं, तो उसी प्रकार दो निर्विकल्प सविकल्प ज्ञानोंका अथवा कई निर्विकल्पक ज्ञानका उत्पाद भी क्रमसे ही होगा, एक साथ नहीं ।
'नन्वश्व कल्पनाकाले गोदृष्टेः सविकल्पताम् । कथमेवं प्रसाध्येत कचित्स्याद्वादवेदिभिः ॥ २८ ॥
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
संस्कारस्मृतिहेतुर्या गोदृष्टिः सविकल्पिका । सान्यथा क्षणभंगादिदृष्टिवन तथा भवेत् ॥ २९ ॥
बौद्ध जन अपने पक्षका अवधारण करते हुये कुचोध उठाते हैं कि उक्त प्रकारसे एक समय में एक ही ज्ञान मान लेनेपर जैनोंके प्रति हम बौद्ध पूंछते हैं कि इस प्रकार घोडेका विकल्पक ज्ञान करते समय गौके दर्शनकी सविल्पकताको स्याद्वादसिद्धान्तको जाननेवाले विद्वानों करके भला कहीं किस प्रकार साधा जावेगा ? बताओ। अन्यथा यानी गोदर्शनको उसी समय यदि सविकल्पक , नहीं माना जायगा तो क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति, आदिके दर्शनों समान वह गोदर्शन भी सविकल्पक हो रहा, तिस प्रकार संस्कारोंद्वारा स्मृतिका कारण नहीं हो सकेगा। अर्थात्-वस्तुभूत अाणिकत्वका ज्ञान तो निर्विकल्पक दर्शनसे ही हो चुका था। फिर भी नित्यत्वके समारोहको दूर करनेके लिये सत्वहेतुद्वारा पदार्थोके क्षणिकपनेको अनुमानसे साध दिया जाता है । बौद्धोंके यहां वास्तविक पदार्थोका प्रत्यक्ष ज्ञान ही होना माना गया है। इसी प्रकार दानकर्ता पुरुषकी स्वर्गप्रापणशक्तिका निर्विकल्पक दर्शन हो जाता है । क्षणिकत्व आदिके दर्शनोंका सविकल्पकपना नहीं होनेके कारण पीछे उनकी स्मृतियां नहीं हो पाती है। यदि जैन जन गोदर्शनके समय अश्वका सविकल्पक ज्ञान नहीं मानेंगे तो पश्चात् गौका स्मरण नहीं हो सकेगा । हां, दोनोंके एक साथ मानलेनेपर तो गोदर्शनमें अश्वविकल्पसे सविकल्पपना आ जाता है । और वह संस्कार जमाता हुआ पीछे कालमें होनेवाली स्मृतिका कारण हो जाता । अतः हम बौद्धोंके मन्तव्य अनुसार दर्शन, ज्ञान और विकल्प ज्ञान दोनोंका योगपद्य बन सकता है।
इत्याश्रयोपयोगायाः सविकल्पत्वसाधनं । नेत्रालोचनमात्रस्य नाप्रमाणात्मनः सदा ॥ ३०॥ गोदर्शनोपयोगेन सहभावः कथं न तु । तद्विज्ञानोपयोगस्य नार्थव्याघातकृत्वदा ॥ ३१ ॥
अभी बौद्ध ही कहे जा रहे हैं कि इस प्रकार अश्वषिकल्पके आश्रय हो रही उपयोगस्वरूप गोदृष्टि ( निर्विकल्पज्ञान ) को सविकल्पकपना साधना ठीक है । अप्रमाणस्वरूप हो रहे नेत्रजन्य केवळ आलोचन मात्र ( दर्शन ) को सर्वदा सविकल्पकपना नहीं साधा जाता है। अतः उस उपयोग आत्मक सविकल्पक विज्ञानका गोदर्शनस्वरूप उपयोगके साथ तो एक कालमें सद्भाव क्यों नहीं होगा ? यानी दोनों ज्ञान एक साथ रह सकते हैं, उस समय अर्थके व्याघातको करनेवाला कोई दोष नहीं आता है।
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इत्यचोद्यं दृशस्तत्रानुपयुक्तत्वसिद्धितः । पुंसो विकल्पविज्ञानं प्रत्येवं प्रणिधानतः ॥ ३२ ॥ सोपयोगं पुनश्चक्षुर्दर्शनं प्रथमं ततः।
चक्षुर्ज्ञानं श्रुतं तस्मात्तत्रार्थेऽन्यत्र च क्रमात् ॥ ३३ ॥
अब आचार्य कहते हैं कि उक्त चार वार्तिकोंद्वारा किया गया बौद्धोंका चोध समीचीन नहीं है । क्योंकि अश्वका विकल्पज्ञान करते समय वहां गोदर्शनके अनुपयुक्तपनेकी सिद्धि हो रही है। बाता पुरुषका विकल्पज्ञान करनेके प्रति ही एकाग्र मनोव्यापार लग रहा है । आत्माके उपयोग क्रमसे ही होते हैं । पहिले उपयोगसहित चक्षुःइन्द्रियजन्य दर्शन होता है। वह पदार्थोकी सत्ताका सामान्य आलोकन कर लेता है। उसके पीछे चक्षुइन्द्रियजन्य मतिज्ञान होता है जो कि रूप, आकृति और घट आदिकी विकल्पना ( व्यवसाय ) करता हुआ उनको विशेषरूपसे जान देता है। उसके भी पीछे उस अर्थमें या उससे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य पदार्थोमें क्रमसे श्रुतज्ञान होता है । कचित् चक्षुदर्शन, चाक्षुष अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क,
और अनुमान ये उपयोग क्रमसे अनेक क्षणोंमें उपजते हैं, आत्माका एक समयमें एक ही ओर उपयोग लग सकता है।
प्रादुर्भवत्करोत्याशुवृत्या सह जनौ धियं । यथाहग्ज्ञानयोर्नृणामिति सिद्धान्तनिश्चयः ॥ ३४ ॥
जीवोंके जिस प्रकार निराकार दर्शन और साकारज्ञान ये उपयोग क्रमसे ही होते हैं, किन्तु शीघ्र ही दोनोंकी वृत्ति हो जानेसे स्थूलघुद्धि पुरुषोंके यहां एक साथ उत्पन्न हो जानेमें बुद्धिको प्रकट कर देते हैं, उसी प्रकार गोदर्शन और अश्वविकल्प या चाक्षुष मतिज्ञान और श्रुतबान ये भी उपयोग क्रमसे ही होते हैं। किन्तु शीघ्र पीछे वर्त जानेसे एक साथ दोनोंकी उत्पत्ति हो जानेमें बुद्धिको प्रकट कर देते हैं । यह निर्णीत सिद्धान्त है। भावार्थ-छमस्थ जीवोंके उपयोग कमसे ही होवेंगे, लब्धिखरूप भले ही एक साथ चार ज्ञान, तीम दर्शनतक हो जाय, प्रभेदोंकी अपेक्षा सैकड़ों क्षयोपशमरूप विशुद्धियां एक साथ हो सकती हैं।
जननं जनिरिति नायमिगन्तो यतो जिरिति प्रसज्यते किं तर्हि, औणादिकइकारोऽत्र क्रियते बहुलवचनात् । उणादयो बहुलं च सन्तीति वचनात् इकारादयोऽप्यनुक्ताः कर्त्तम्या एवेति सिद्धं जनिरिति ।
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तत्वार्थश्लोकवार्तिक
उक्त कारिकामें कहा गया जनि शब्द तो “ जनी प्रादुर्भावे " धातुसे भावमें इ प्रत्यय कर बनाया गया है। उपज जाना जनि कहलाता है। यह जनि" शब्द इकू प्रत्यय अन्तमें कर नहीं बनाया गया है । जिससे कि इन् भाग "टि" का लोप होकर "जि" इस प्रकार रूप बन जानेका प्रसंग प्राप्त होता । तो "जनि" यहां कौन प्रत्यय किया गया है ! इसका उत्तर यह है कि यहां उणादि प्रत्ययोंमें कहा गया इकार प्रत्यय किया जाता है। " ठणादयो बहुलं " यहां बहुल शब्द के कथनसे शब्दसिद्धिके उपयोगी अनेक प्रत्यय कर लिये जाते हैं। उण, किरच्, उ, ई, रु, इत्यादिक वहुतसे प्रत्यय हैं, ऐसा वैयाकरणने कहा है। अतः सूत्रोंमें कण्ठोक्त नहीं कहे गये भी इकार आदिक प्रत्यय धातुओंसे कर लेने ही चाहिये । इस प्रकार " जनिः " यह शब्द सिद्ध हो जाता है ।
तत्र जनौ सहधियं करोत्याशुवृत्त्या चक्षुर्भानं तच्छ्रतज्ञानं च क्रमात्मादुर्भवदपि कथंचिदिति हि सिद्धान्तविनिश्चयो न पुनः सह क्षायोपशमिकदर्शनज्ञाने सोपयोगे मतिश्रुतज्ञाने वा येन सूत्राविरोधो न भवेत् । न चैतावता परमतसिद्धिस्तत्र सर्वथा क्रमभाविज्ञानव्यवस्थितेरिह कथंचित्तथाभिधानात् ।
उस उत्पत्तिमें कथंचित् क्रमसे प्रकट हो रहे भी चक्षुइन्द्रियजन्य ज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान चक्रभ्रमण समान शीघ्रवृत्ति हो जानेसे साथ उत्पम हुये की बुद्धिको करदेते हैं। इस प्रकार जैनसिद्धान्तका विशेष रूपसे निश्चय हो रहा है । किन्तु फिर आवरणोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुये उपयोगात्मक दर्शन और ज्ञान अथवा उपयोगसहित मतिज्ञान और श्रुतज्ञान एक साथ नहीं होते हैं, जिससे कि श्री समन्तभद्र स्वामीकी कारिकाका श्री उमास्वामी के द्वारा कहे गये सूत्रके साथ अविरोध नहीं होता । अर्थात्-दोनों आचार्योंके वाक्य अविरुद्ध हैं। और भी एक बात है कि इतना कह देनेसे बौद्ध, नैयायिक, आदि दूसरे मतोंकी सिद्धि नहीं हो जाती है । क्योंकि उन्होंने सभी प्रकार क्रमसे होनेवाले ज्ञानोंकी व्यवस्था की है। और यहां स्याद्वाद सिद्धान्तमें किसी किसी अपेक्षासे तिस प्रकार क्रमसे और अक्रमसे उपयोगोंका उपजना कहा गया है। अतः अनु. पयोगात्मकज्ञान एक आत्मामें एकको आदि लेकर चार तक होजाते हैं । यह सिद्धान्त व्यवस्थित हुआ।
इस सूत्रका सारांश। इस सूत्रमें प्रकरण इस प्रकार हैं कि एक समयमें एक आत्मामें एक ही विज्ञानको माननेवाले पण्डितोंके प्रति सम्भवने योग्य ज्ञानोंकी संख्या निर्णयार्थ सूत्र कहना अवश्य बताकर एक शब्दका अर्थ करते हुये उन उद्देश्य दलके ज्ञानोंका नाम उल्लेख किया है । एक साथ पांच ज्ञान कैसे मी नहीं हो सकते हैं। भाज्य शङ्कका अर्थ कर उपयोगसहित ज्ञामोंके सहभाषका एकाम्स निषेध
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किया है । छद्मस्थ जीवोंके एक समय में दो उपयोग नहीं हो पाते हैं। इसपर बहुत अच्छा विचार चलाया है । श्रीसमन्तभद्र आचार्यकी कारिका श्री उमाखामी महाराजके सूत्रों के अनुसार है । क्षायोपशमिक ज्ञान क्रमसे ही होते हैं। ज्ञानोंकी शक्तियां एक साथ चार अथवा उत्तर मेदोंकी अपेक्षा इससे भी अधिक संख्यातक ठहर जाती हैं। कुरकुरी, कचौडी, पापर आदि खानेमें क्रमसे ही पांच ज्ञान होते हैं । अन्यथा उनकी स्मृतियां क्रमसे नहीं हो पाती। आगे पीछे शीघ्र शीघ्र हो जानेसे व्यवधान नहीं दीख पाता है । किन्तु व्यवधान अवश्य है । यहां बौद्धोंके साथ अच्छा परामर्श कर बौद्धों की युक्तियोंसे ही जैनसिद्धान्त पुष्ट कर दिया है। चाहे दर्शन उपयोग या ज्ञान उपयोग होय अथवा मतिज्ञान या श्रुतज्ञान होय एवं चाक्षुत्र प्रत्यक्ष या रासन प्रत्यक्ष होय तथा अवग्रह, ईहा, अवाय होय किन्तु ये उपयोग क्रमसे ही होवेंगे । आंखके पलक गिराने में असंख्यात समय हो जाते है । मोटी दृष्टिवालको अतीव छोटे कालका व्यवधान प्रतीत नहीं होता है। हां, जिनकी प्रतिमा परिशुद्ध है, उन जीवोंको बालकके अनुदिन शरीरवृद्धि के समान ज्ञानोंकी क्रमसे उत्पत्ति अनुभूत हो जाती है । अतः स्याद्वादसिद्धान्त अनुसार उपयोग आत्मक ज्ञानोंकी क्रमसे उत्पत्ति और अनुपयोग आत्मक ज्ञानोंकी अक्रमसे भी उत्पत्ति मानते हुये स्याद्वादप्रक्रियाकी योजना कर लेना चाहिये । अतः दूसरे वादियोंका क्रमसे ही ज्ञानोंकी उत्पत्ति माननेका सिद्धान्त ठीक नहीं है । इस प्रकार प्रकृत सूत्रके व्याख्यानका उपसंहार कर दिया है ।
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एकादीन्याचत्वारि स्युः शक्त्यात्मानि व्यक्त्या (स्वे) स्मैकं ।
भक्तव्यानि ज्ञानान्यद्वैकस्मिञ्जीवे विज्ञैर्ज्ञेयं ॥ १ ॥
समीचीन पांचों ज्ञानोंका वर्णन करते समय सम्भवने योग्य मिथ्या ज्ञानोंके निरूपण करने के किये श्री उमास्वामी महाराजके मुखनिषधसे सूत्रसूर्यका उदय होता है ।
मतिश्रुतावध्रयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान ये विपरीत भी हो जाते हैं। अर्थात्- -व्यक्त मिध्यात्र या अव्यक्त मिथ्यात्व के साथ एकार्थसमवाय हो जानेसे अथवा दूषित कारणोंसे उत्पत्ति हो जानेपर उक्त तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान बन जाते हैं ।
कस्याः पुनराशंकाया निवृत्यर्थ कस्यचिद्वा सिध्यर्थमिदं सूत्रमित्याह ।
प्रश्नकर्ता पूछता है कि फिर कौनसी आशंकाकी निवृत्तिके लिये अथवा किस नव्य, भव्य अर्थकी सिद्धिके लिये यह " मतिश्रुताषधयो विपर्ययश्च सूत्र रचा गया है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
अथ ज्ञानानि पंचापि व्याख्यातानि प्रपंचतः। किं सम्यगेव मिथ्या वा सर्वाण्यपि कदाचन ॥१॥ कानिचिद्वा तथा पुंसो मिथ्याशंकानिवृत्तये । स्वेष्टपक्षप्रसिद्धयर्थं मतीत्याद्याह संप्रति ॥२॥
अब नवीन प्रकरणके अनुसार यह कहा जाता है कि विस्तारसे पांचों भी ज्ञानोंका व्याख्यान किया जा चुका है । उसमें किसीका इस प्रकार शंकारूप विचार है कि क्या सभी ज्ञान कभी कभी समीचीन ही अथवा मिथ्या मी हो जाते हैं ! या आत्माके पांचोंमेंसे कितने ही ज्ञान तिस प्रकार समीचीन और मिथ्याज्ञान हो जाते हैं ! इस प्रकार मिथ्या आशंकाओंकी निवृत्तिके लिये और अपने इष्ट सिद्धान्तपक्षकी सिद्धिके लिये श्रीउमास्वामी महाराज अवसर अनुसार इस समय "मतिश्रुतावधयो" इत्यादि सूत्रको स्पष्ट कहते हैं।
__ पूर्वपदावधारणेन सूत्रं व्याचष्टे ।
मति, श्रुत, अवधिज्ञान ही विपरीत हो जाते हैं, यो पहिले उद्देश्य वाक्यके साथ "एवकार" लगाकर अवधारण किया गया है। किन्तु मति, श्रुत, और अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान ही हैं, इस प्रकार विधेयदलके साथ एवकार लगानेसे हम जैनोंका इष्ट सिद्धान्त बिगड जाता है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवोंमें हो रहे मति, श्रुत, अवधि, ये तीन ज्ञान सम्यग्ज्ञान भी हैं । अतः उत्तरवर्ती अवधारणको छोडकर पूर्वपदके साथ एवकार लगाकर अवधारण करके श्रीविद्यानन्दस्वामी इस सूत्रका व्याख्यान करते हैं।
मत्यादयः समाख्यातास्त एवेत्यवधारणात् । संगृह्यते कदाचिन मनःपर्ययकेवले ॥ ३ ॥ नियमेन तयोः सम्यग्भावनिर्णयतः सदा । मिथ्यात्वकारणाभावाद्विशुद्धात्मनि सम्भवात् ॥ ४॥
वे मति आदिक ज्ञान ही मिथ्याज्ञानरूप करके भले प्रकार आम्नाय अनुसार कहे गये हैं। इस प्रकार पूर्व अवधारण करनेसे मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान कभी भी विपर्यय ज्ञान करके संगृहीत नहीं हो पाते हैं। क्योंकि उन मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें सदा ही नियमकरके समीचीन भावका निर्णय हो रहा है । ये दो ज्ञान विशेषरूपसे शुद्ध हो रहे आत्मामें उपजते हैं । अतः इनको मिथ्यापनके सम्पादनका कोई कारण नहीं है । अतः आदिके तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान भी हो जाते हैं। और अन्सके दो ज्ञान समीचीन ही हैं ।
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तत्वार्यचिन्तामाणः
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दृष्टिचारित्रमोहस्य क्षये वोपशमेऽपि वा। मनःपर्ययविज्ञानं भवन्मिथ्या न युज्यते ॥५॥
दर्शनमोहनीयकर्म और चारित्रमोहनीय कर्मके क्षय या उपशम अथवा क्षयोपशमके भी होनेपर हो रहा मनःपर्यय ज्ञान कैसे भी मिथ्या नहीं हो सकता है। भावार्थ-सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्रके सहभावी मनःपर्यय ज्ञानको मिथ्यापना युक्त नहीं है । छठवेंसे लेकर बारहवें गुणस्थानतक मनःपर्यय ज्ञान होना सम्भवता है। जिस समय मुनिमहाराजके मनःपर्ययज्ञान है, उस समय प्रथमोपशम या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, इन तीन सम्यक्तोंमेंसे कोई एक सम्यक्त्व अवश्य है । तथा छठवें, सात गुणस्थानोंमें बायोपशमिक चारित्र पाया जाता है। इसके आगे उपशमचारित्र तथा क्षायिक चारित्र है । अतः ज्ञानोंको मिथ्या करनेवाले कारणोंका सहवास नहीं होनेसे मनःपर्ययज्ञान समीचीन ही है, मिथ्या नहीं, यह युक्तिपूर्ण सिद्धान्त है।
सर्वघातिक्षयेऽत्यन्तं केवलं प्रभवत्कथम् । मिथ्या सम्भाव्यते जातु विशुद्धिं परमां दधत् ॥६॥
ज्ञानावरण कर्मोंकी सर्वघातिप्रकृतियोंके अत्यन्त क्षय हो जानेपर उत्पन्न हो रहा केवळज्ञान तो कदाचित् भी भला कैसे मिथ्यारूप सम्भव सकता है ! जब कि वह केवलज्ञान उत्कृष्ट विशुद्धिको धारण कर रहा है । दर्शन और चारित्रमें दोष लग जानेपर ही ज्ञानोंमें मिथ्यापन प्राप्त हो जाता है किन्तु दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय और ज्ञानावरण प्रकृतियोंके सर्वथा क्षय हो जानेपर उत्पन्न हो रहा केवलज्ञान तो कालत्रयमें भी विपर्यय नहीं हो सकता है । अत्यन्त क्षयमें अत्यन्तका अर्थ तो वर्तमानमें एक वर्गणाका भी नहीं रहना और भविष्यमें उन कर्मीका किंचित् भी नहीं बन्धना है ।
मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयं तु स्यात्कदाचन । मिथ्येति ते च निर्दिष्टा विपर्यय इहाङ्गिनाम् ॥७॥
जीवोंके मति, श्रुत, अवधि, ये तीन ज्ञान तो कभी कभी मिथ्या हो जाते हैं । इस कारण वे मति, श्रुत, अवधि, ज्ञान इस प्रकरणमें विपर्यय इस प्रकार कह दिये हैं।
स च सामान्यतो मिथ्याज्ञानमत्रोपवर्ण्यते । संशयादिविकल्पानां त्रयाणां संगृहीतये ॥८॥
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तत्वार्थकोकवार्तिके
वह विपर्यय तो यहां सामान्यरूपसे समी मिथ्याज्ञानों स्वरूप होता हुआ मिथ्याज्ञानके संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय इन तीन भेदोंके संग्रह करनेके लिये श्रीउमास्वामी महाराज द्वारा निरूपा गया है। अर्थात् " विपर्ययः " यह जातिमें एक वचन हैं । अतः मिथ्याज्ञानके तीनों विशेषोंका संग्रह हो जाता है।
समुचिनोति चस्तेषां सम्यक्त्वं व्यावहारिकम् । मुख्यं च तदनुक्तौ तु तेषां मिथ्यात्वमेव हि ॥ ९ ॥
च अव्ययके समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग, समाहार, ये कतिपय अर्थ हैं। यहां " च" निपातका अर्थ समुच्चय है। जैसे कि ब्रम्हचर्य व्रतको पालो और सत्यवतको पालो "ब्रम्हचर्य सयञ्च धारय " । अतः वह च शब्द उन मति, श्रुत, अविज्ञानोंके व्यवहारमें प्रतीत हो रहे सम्पग्नेका और मुख्य समीचीनपनेका समुच्चय ( एकत्रीकरण ) कर लेता है। परस्परमें नहीं अपेक्षा रख रहे अनेकोंका एकमें अन्वय कर देना समुच्चय है। किन्तु सूत्रमें च शब्दके नहीं कथन करनेपर तो उन तीनों ज्ञानोंका नियमसे मिथ्यापना ही विधान किया जाता, जो कि इष्ट नहीं है। अर्थात्--सम्यग्दृष्टि जीवोंके हो रहे ज्ञान सभी सम्यग्ज्ञान कहे जाते हैं । ज्ञानकी समीचीनताका सम्पादक अन्तरंगकारण सम्यग्दर्शन है। अतः चौथे गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तकके जीवोंमें कामल, चाकचक्य, तिमिर, आदि दोषोंके वशसे हुये मिथ्याज्ञान भी सम्यग्जान माने जाते है। तथा पहिले और दूसरे गुणस्थानवाले जीवोंके निर्दोष चक्षु आदिसे हुये समीचीनज्ञान भी अन्तरंगकारण मिथ्यात्वके साहचर्यसे मिथ्याज्ञान कहे जाते हैं। यह अन्तरंगकारण सम्यग्दर्शनके अनुसार ज्ञानोंके सम्यक्पनकी व्यवस्था हुयी तभी तो मनःपर्यय और केवलज्ञान कालत्रयमें भी मिथ्या नहीं हो पाते है । हो, इन्द्रियोंकी निर्दोषता मनकी निराकुळता और निद्रा, स्वप्न, शोक, भय, काम, आदि दोषोंसे रहित आत्मा इयादि कारणोंसे लोकप्रसिद्ध समीचीन व्यवहारमें ज्ञानका सम्यक्पना जो निर्णीत हो रहा है, तदनुसार पहिले गुणस्थानके ज्ञानमें समीचीनता पायी जाती है। और चौथे, छठे गुणस्थानवी विद्वान् या मुनियों के भी कामळ वात, तिमिर, स्यानगृद्धि, बज्ञान, आदि कारणोंसे व्यावहारिक मिथ्याज्ञान सम्भवते हैं । इस सूत्रमें उपात्त किये गये च शद्ध करके म्यवहारसम्बन्धी और मुरुप सम्यक्पना भी तीनों झानोंमें कह दिया जाता है।
ते विपर्यय एवेति सूत्रे चेन्नावधार्यते । चशद्वमन्तरेणापि सदा सम्यक्त्वमत्त्वतः ॥१०॥
" वे तीनों ज्ञान विपर्यय ही हैं" इस प्रकार विधेयदलमें एवकार लगाकर अवधारण नहीं किया जाय, जो कि हम जैनोंको इष्ट है । तब तो सूत्रमें कहे हुये " च " शद्धके विना मी
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तत्वार्थीचन्तामणिः
सर्वदा उन तीनों ज्ञानोंको सम्यक्त सहितपना सुलभतासे प्राप्त हो जाता है । भावार्थ-उत्तर दलमें पदि एवकार नहीं लगाया जाय तब तो " च " के विना भी तीनों बानोंका समीचीनपना ज्ञात हो जाता है । क्योंकि पूर्व अवधारणसे तो मनःपर्यय और केवलज्ञानका मिथ्यापन निषेधा गया पा । मति, श्रुत, अवधि, ज्ञानोंका समीचीनपना तो नहीं निषिद्ध किया गया है।
मिथ्याज्ञानविशेषः स्यादस्मिन्पक्षे विपर्ययः । संशयाज्ञानभेदस्य चशब्देन समुच्चयः ॥ ११ ॥
तो इस पक्षमें सूत्रका च शब्द व्यर्थ पडा । क्योंकि "च" शब्दद्वारा किये गये कार्यको उत्तर अवधारणके निषेधसे ही साध लिया गया है। अतः सूत्रोक्त विपर्यय शब्दका अर्थ सामान्य मिथ्याज्ञान नहीं करना, किन्तु विपर्यका अर्थ मिथ्याानोंका विशेष भेद भ्रान्तिस्वरूप विपर्यय लेना, जिसका कि लक्षग " विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः " वहां वर्त रहे पदार्थसे सर्वथा विपरीत ही पदार्थकी एक कोटिका निश्चय करना है। अब च शब्द करके मिथ्याज्ञान के अन्य शेष बचे हुये संशय और नज्ञान इन दो भेदोंका समुच्चय कर लेना चाहिये । इस ढंगले च शब्द सार्थक है ।
अत्र मतिश्रुतावधीनामविशेषेण संशयविपर्यासानध्यवसायरूपत्वसक्तौ यथाप्रीति तदर्शनार्थमाह । ____ यहां प्रकरणमें सूत्रके सामान्य अर्थ अनुसार मति, श्रुत, अवधि इन तीनों शानोंको विशेषता रहित होकरके संशय, विपर्यय, अनध्यवसायरूप विपर्ययानेका प्रसंग आता है। अर्थात्-तीनोंमें से प्रत्येकज्ञानमें मिथ्याज्ञानके तीनों भेद सम्भवनेका प्रसंग आवेगा। किन्तु वह तो सिद्धान्तियोंको अभीष्ट नहीं है । अतः प्रतीति अनुसार जिस जिस ज्ञानमें विपर्ययज्ञानके जो दो, तीन आदि भेद सम्मवते हैं, उनको दिखलानेके लिये श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकद्वारा कथन करते हैं ।
तत्र त्रिधापि मिथ्यात्वं मतिज्ञाने प्रतीयते। श्रुते च द्विविधं बोध्यमवधौ संशयाद्विना ॥ १२ ॥ तस्येन्द्रियमनोहेतुसमुद्भतिनियामतः । इन्द्रियानिन्द्रियाजन्यस्वभावश्चावधिः स्मृतः ॥ १३ ॥
तिन तीनों ज्ञानों से मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें तो तीनों भी प्रकारका मिथ्यापना प्रतीत हो रहा है। तथा अवधिज्ञानमें संशयके विना विपर्यय और अनध्यवसायस्वरूप दो प्रकार मिथ्यापना जाना जा रहा है। कारण कि वह मतिज्ञान तो नियमसे इन्द्रिय और मन इन कारणोंसे मळे प्रकार उत्पन हो
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तत्वार्यशोकवार्तिके
रहा है। और श्रुतज्ञान मनको निमित्त मानकर उपजता है । अतः इनकी परतंत्रतासे हुये दोनों ज्ञानों में तीनों प्रकारके मिथ्यापन हो जाते हैं। संशयका कारण सो इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे उपजनेपर ही घटित होता है। किन्तु अवधिज्ञानका स्वभाव इन्द्रिय और अनिन्द्रियोंसे नहीं उत्पन्न होना होकर केवळ क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्मासे ही उपज जाना है । ऐसा प्रमेय आर्ष आम्नाय अनुसार स्मरण हो रहा चला आ रहा है।
मतौ श्रुते च त्रिविधं मिथ्यात्वं बोद्धव्यं मतेरिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तकत्वनियमात् । श्रुतस्यानिन्द्रियनिमित्तकत्वनियमात द्विविधमवधौ संशयाद्विना विपर्ययानध्यवसायावित्यर्थः।
उक्त दो कारिकाओंका विवरण इस प्रकार है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें तीनों प्रकारका मिथ्यात्व समझ लेना चाहिये । क्योंकि मतिज्ञानके निमित्तकारण इन्द्रिय और अनिन्द्रिय है, ऐसा नियम है। तथा श्रुतज्ञानका निमित्तकारण नियमसे मन माना गया है। किन्तु अवधिज्ञानमें संशयके विना दो प्रकारका मिथ्यापन जान लेना चाहिये । इसका अर्थ यह हुआ कि अवधिज्ञानमें विपर्यय और अनध्यवसाय ये दो मिथ्यापन सम्भवते हैं ।
कुतः संशयादिन्द्रियानिन्द्रियाजन्यस्वभावः प्रोक्तः । संशयो हि चलितापतिपत्तिा, किमयं स्थाणु किं वा पुरुष इति । स च सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षादुमयविशेषस्मरणात् प्रजायते । दूरस्थे च वस्तुनि इन्द्रियेण सामान्यतश्च सन्निकृष्टे सामान्यप्रत्यक्षत्वं विशेषाप्रत्यक्षत्वं च दृष्टं मनसा च पूर्वानुभूततदुभयविशेषस्मरणेन, न चावध्युत्पत्तौ कचिदिन्द्रियव्यापारोऽस्ति मनोव्यापारो वा स्वावरणक्षयोपशमविश्वेषात्मना सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनः स्वविषयस्य तेन ग्रहणात् । ततो न संशयात्मावधिः ।
___ अवधिज्ञानमें संशयके विना दो ही मिथ्यापन क्यों होते हैं ! इसका उत्तर इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे नहीं उत्पन्न होना स्वभाव ही बढिया कहा गया है। कारण कि चलायमान प्रतिपत्तिका होना संशय है । जैसे कि कुछ अंधेरा होनापर दूरवर्ती ऊंचे कुछ मोटे पदार्थमें क्या यह दूंट है ! अथवा क्या यह मनुष्य है ? इस प्रकार एक वस्तुमें विरुद्ध अनेक कोटियोंको स्पर्शनेवाला ज्ञान संशय कहा जाता है । तथा वह संशय ज्ञान विचारा सामान्य धर्मोका प्रत्यक्ष हो जानेसे और विशेष धर्मोका प्रत्यक्ष नहीं होनेसे, किन्तु उन दोनों विशेष धर्मोका स्मरण हो जानेसे अच्छा उत्पन्न हुषा करता है । अन्य दर्शनकारोंने भी संशयज्ञानकी उत्पत्ति इसी ढंगसे बतायी है । " सामान्य. प्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षादुभयविशेषस्मृतेश्च संशयः "। दूर देशमें स्थित हो रहे वस्तुके इन्द्रियोंकरके सामान्यरूपसे यथायोग्य संनिकर्षयुक्त ( योग्यदेश अवस्थिति ) हो जानपर सामान्य धर्मोका प्रत्यक्ष कर लेना और विशेषधर्मीका प्रत्यक्ष नहीं होना देखा गया है । पहिले अनुभवे जा चुके उन दोनों तीनों आदि वस्तुओंके विशेष धर्मोका मन इन्द्रियद्वारा स्मरण करके स्मरणज्ञान उपज जाता है,
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तत्वार्थचिन्तामणिः
तब संशय होता है । अतः संशयके कारण मिल जानेपर मति और श्रुतमें तो संशय नामके मिथ्याज्ञानका भेद सम्भव हो जाता है । किन्तु अवधिज्ञानकी उत्पत्ति होनेमें ( किसी भी विषयमें ) इन्द्रियोंका व्यापार. अथवा मनका व्यापार नहीं देखा गया है, जिससे कि सामान्यका प्रत्यक्ष होता हुआ और विशेषका प्रत्यक्ष नहीं होता हुआ, किन्तु विशेषके स्मरण करके संशयवान होना वहां अवधि विषयमें बन बैठता । वस्तुतः अपनेको ढकनेवाले अवधिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमविशेष स्वरूप उस अवधिज्ञान करके अपने विषयभूत सामान्य विशेष धर्मआत्मक वस्तुका ग्रहण होता है। यानी अवधिज्ञान अपने विषयके विशेष अंशोंको भी साथ साथ अवश्य जान लेता है । तिस कारणसे अवधिज्ञान संशयखरूप नहीं माना गया है । अवधिज्ञान या विभङ्गज्ञान अतीव स्पष्ट है । अतः उसके विषयमें संशय होना असम्भव है।
विपर्ययात्मा तु मिथ्यात्वोदयाद्विपरीतवस्तुस्वभावश्रद्धानसहभावात्सम्बोध्यते ।
किन्तु मिथ्यात्वकर्मके उदयसे बस्तुस्वभावके विपरीत श्रद्धान स्वरूप हुये मिथ्यादर्शनके साथ रहना हो जानेसे अवधिज्ञान विपर्ययस्वरूप तो सम्बोधा जाता है। अर्थात् लोकमें प्रसिद्ध है कि मद्यविक्रेताकी दूकानपर दूधको पीनेवाला भी पुरुष हीनदृष्टिसे देखा जाता है। जिस आत्मामें मिथ्यादर्शन हो रहा है उसमें हुआ अवधिज्ञान भी विभंग होकर विपरीत ज्ञान कहा जाता है।
तथानध्यवसायात्माप्याशु उपयोगसंहरणाद्विज्ञानान्तरोपयोगाद्गच्छत्तृणस्पर्शवदुत्पाद्यते । दृढोपयोगावस्थायां तु नावधिरनध्यवसायात्मापि ।
तिसी प्रकार शीघ्र अपने उपयोगका संकोच करनेसे या दूसरे विज्ञानमें उपयोगके चले जानेसे चलते हुये पुरुषके तृण छ जानेपर हुये अनध्यवसाय ज्ञानके समान अवधिज्ञान मी अनध्यवसायस्वरूप उपजा लिया जाता है। हां, ज्ञेय विषयमें दृढरूपसे लगे हुये उपयोगकी अवस्थामें तो अवधिज्ञान अनध्यवसायस्वरूप भी नहीं होता है। उस दशामें केवल एक विपर्यय भेद ही घटेगा।
कथमेवावस्थितोऽवधिरिति चेत्, कदाचिदनुगमनात्कदाचिदननुगमनात्कदाचिदर्धमानत्वात्कदाचिद्धीयमानत्वाचथा विशुद्धिविपरिवर्त्तमानादवस्थितोवधिरेकेन रूपेणावस्थानान्न पुनरढोपयोगत्वात्स्वभावपरावर्त्तनेऽपि, तस्य तथा तथा दृढोपयोगत्वाविरोधात् ।
___ कोई पूछता है कि इस प्रकार अनध्यवसायदशामें दृढ उपयोग नहीं होनेके कारण मग अवधिज्ञान कैसे अवस्थित समझा जायगा ! यानी उक्त दशामें अवधिनानके छह मेदोंमेंसे पांचवां भेद अवस्थित तो नहीं अवस्थित हो पाता है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार पश्न होनेपर उत्तर यह समझना कि कभी कभी दूसरे देश या दूसरे भवमें अनुगमन करनेसे और कभी नहीं अनुगमन करनेसे और कदाचित् बर्धमान होनेसे, कमी कभी हीयमान हो जानेसे, लिख प्रकार
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विशुद्धियों के विभिन्न परिवर्तन हो जानेसे अवधिज्ञान अनवस्थित हो रहा मी एकरूप करके अवस्थान हो जानेसे अवस्थित माना जाता है। हां, फिर दृढ उपयोगपना न होनेके कारण स्वभावका परिवर्तन होते हुये भी अवस्थितपना नहीं है । उस अवधिज्ञानको तिस तिस प्रकार अनुगामी होना, अननुगामी होना, बढना, घटना होनेपर भी दृढ उपयोगपनेका कोई विरोध नहीं है । अतः विपर्यय या अनध्यवसायको अवस्थामें भी अवस्थित नामका पांचवां भेद अवधिज्ञान में घटित हो जाता है ।
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कुतः पुनस्त्रिष्वेव बोधेषु मिथ्यात्वमित्याह ।
कोई शिष्य जिज्ञासा करता है कि फिर यह बताओ कि तीनों ही ज्ञानोंमें मिध्यापना किस कारण से हो जाता है ! ऐसी जानने की इच्छा होनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी वार्तिक द्वारा परिभाषित अर्थको कहते हैं ।
मिथ्यात्वं त्रिषु बोधेषु दृष्टिमोहोदयाद्भवेत् ।
तेषां सामान्यतस्तेन सहभावाविरोधतः ॥ १४ ॥
मति, श्रुत, अवधि, इन तीनों ज्ञानों में मिध्यापना दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे सम्भवजाता है । क्योंकि सामान्यरूपसे उन तीनों ज्ञानोंका उस मिध्यात्वके साथ सद्भाव पाये जानेका कोई विरोध नहीं है । मावार्थ – पण्डितका कारणवश मूर्ख होजाना, धनीका निर्धन बन जाना, नीरोग जीवका रोगी हो जाना, इत्यादि प्रयोग लोकमें प्रसिद्ध हैं । यह कथन सामान्य अपेक्षा सत्य है । यानी जिस मनुष्यको हम आजन्म सामान्यरूपसे पण्डित मान चुके थे, वह मध्य में ही किसी तीघ्र असदाचार, उन्मत्तता, शोक, महतीचिन्ता, कुप्रभाव, मन्त्र अनुष्ठान आदि कारणोंसे मूर्ख बन गया । ऐसी दशा में पण्डितको मूर्खपनका विधान कर दिया जाता है। विशेषरूपसे विचारनेपर तो जब मूर्ख है, तब पण्डित नहीं है, और जब पण्डित था तब मूर्ख नहीं था । अतः उक्त प्रयोग नहीं बनता है । ऐसे ही सेठ निर्धन होगया, नीरोगी रोगी होगया, कुछीन अकुलीन होगया, सबळ निर्बल होगया, अथवा रागी वीतराग हो जाता है, बद्ध मुक्त हो जाता है इत्यादि स्थलों पर भी लगा लेना । बात यह है कि प्रकृत सूत्र अनुसार सामान्यरूपसे उद्दिष्ट किये गये तीन ज्ञानोंमें विपर्ययपनेका विधान करना चाहिये, विशेषरूप से नहीं ।
यदा मत्यादयः पुंसस्तदा न स्याद्विपर्ययः । स यदा ते तदा न स्युरित्येतेन निराकृतम् ॥ १५ ॥
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कोई एकान्तवादी विद्वान् निश्चयनयकी कथनों के समान यों वखान रहा है कि जिस समय आत्माओंके मति, झुल, अवधि, ज्ञान हैं ( जो कि समीचीन होते हुए सम्यकदृष्टियोंके ही
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पाये जाते हैं ) उस समय कोई भी विपर्ययज्ञान नहीं होगा । और जिस समय आत्मामें वह विपर्यय ज्ञान है, उस समय वे मति, श्रुत, अवधि, ज्ञान कोई न होंगे। इस प्रकार एकान्तवादियोंका कथन भी इस उक्त कथनसे खण्डित कर दिया गया है, ऐसा समक्ष जो । भावार्थ-मिथ्या और समीचीन समी गेदोंमें सामान्यरूपसे सम्भवनेवाले मति, श्रुत, और अवधि, यहाँ उद्देश्यदलमें रक्खे गये हैं। उनमें विपर्ययपनका विधान सानन्द किया जा सकता है।
विशेषापेक्षया ह्येषा न विपर्ययरूपता।
मत्यज्ञानादिसंज्ञेषु तेषु तस्याः प्रसिद्धितः ॥ १६ ॥ विशेषकी अपेक्षा करके विचारा जाय तब तो इन मति, श्रुत, अवधिज्ञानों, का विपर्ययस्वरूपपना नहीं है। क्योंकि मति अज्ञान, श्रुत बहान, विमंग ज्ञान, इस प्रकारकी विशेष संज्ञावाले उन शानोंमें उस विपर्यय स्वरूपताकी प्रसिद्धि हो रही है। अर्थात्-जैसे कि एवं भूतनयसे विचारनेपर रोगी ही रोगी हुआ है। नीरोग पुरुष रोगी नहीं है। उसीके समान कुमतिज्ञान ही विपर्ययस्वरूप है। सम्यग्दृष्टिके हो रहा मतिज्ञान तो विपरीत नहीं है । इस प्रकार सूत्रके अर्थका सामान्य और विशेषरूपसे व्याख्यान कर लेना चाहिये ।
सम्यक्त्वावस्थायामेव मतिश्रुतावधयो व्यपदिश्यन्ते मिथ्यात्वावस्थायां तेषां मत्यज्ञानव्यपदेशात । ततो न विशेषरूपतया ते विपर्यय इति व्याख्यायते येन सहानवस्थालक्षणो विरोध: स्यात् । किं तर्हि सम्यगमिथ्यामत्यादिव्यक्तिगतमत्यादिसामान्यापेक्षया वे विपर्यय इति निश्चीयते मिथ्यात्वेन सहभावाविरोधाचया मत्यादीनां ।
___सम्यग्दर्शन गुणके प्रकट हो जानेपर सम्यक्त्र अवस्थामें ही हो रहे वे ज्ञान मतिताम, श्रुतबान, अवधिज्ञानवरूप कहे जा रहे हैं। मिथ्यात्वकर्मके उदय होनेपर मिथ्यात्व अवस्थामें तो उन ज्ञानोंका कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, और विभंगज्ञानरूपसे व्यवहार किया जाता है। तिस कारणसे विशेषरूपपने करके वे मति आदिक ज्ञान विपर्ययस्वरूप हैं। इस प्रकार व्याख्यान नहीं किया जाता है, जिससे कि शीत, उष्णके समान " साथ नहीं ठहरना " इस लक्षणवाला विरोध हो जाता । अर्थात्-" मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च" इस सूत्रमें पडे हुये मति, श्रुत, अवधि, ये शब्द सम्यग्वानोंमें ही व्यवहत हो रहे हैं । उन सम्यग्ज्ञानोंका उद्देश्य कर विपर्ययपनेका विधान करना विरुद्ध पडता है । अतः विशेषरूप करके उन मति आदिक कानोंको नहीं पकडना तो फिर किस प्रकार व्याख्यान करना ! इसका उत्तर यों है कि समीचीन मतिज्ञान और मिथ्या मतिज्ञान या समीचीन श्रुतज्ञान और मिथ्या श्रुतज्ञान आदिक अनेक व्यक्तियोंमें प्राप्त हो रहे मतिपन, श्रुतपन, आदि सामान्यकी अपेक्षा करके ग्रहण किये गये वे ज्ञान विपर्ययस्वरूप
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हैं, इस प्रकार निश्चय किया जा रहा है। हां, तिस प्रकार व्याख्यान कर देनेपर मति आदिकोंका मिथ्यापन के साथ सद्भाव पाये जानेका कोई विरोध नहीं है। जैसे कि शीतका उष्णके साथ भले ही विरोध होके, किन्तु सामान्य स्पर्शके साथ शीत स्पर्शका कोई विरोध नहीं है। सामान्यरूपसे स्पर्श ही तो शीत या उष्ण होकर परिणमन करेगा । अन्य कोई नहीं।
ननु च तेषां तेन सहभावेऽपि कथं मिथ्यात्वमित्याशंक्योत्तरमाह। . यहां प्रश्न है कि उन मति आदिक ज्ञानोंको उस मिथ्यात्वके साथ सहभाव होनेपर भी मिथ्यापन कैसे प्राप्त हो जाता है ? झूठ बोलनेवाले पुरुषके घरमें आ रहा सूर्य प्रकाश या चन्द्र उद्योत तो झूठा नहीं हो जाता है । इस प्रकार श्री विद्यानंदस्वामी वार्तिकद्वारा किसीकी आशंकाका अनुवादकर उसके उत्तरको स्पष्ट कहते हैं।
मिथ्यात्वोदयसद्भावे तद्विपर्ययरूपता। न युक्ताग्न्यादिसंपाते जात्यहेम्नो यथेति चेत् ॥ १७ ॥ नाश्रयस्यान्यथाभावसम्यक्परिदृढे सति । परिणामे तदाधेयस्यान्यथाभावदर्शनात् ॥ १८ ॥
शंका यों है कि आत्मामें मिथ्याकर्मके उदयका सद्भाव होनेपर उन सर्वथा न्यारे हो रहे झानोंका विपर्ययस्वरूपपना उचित नहीं है । जिस प्रकार कि अग्नि, कीच, धुली आदिका सन्निकर्ष, हो जानेपर या अग्नि, पानी आदिमें गिर जानेपर शुद्ध सौ टंच सोनेका विपरीतपना नहीं हो जाता है। यानी अच्छे सोनेको आग, पानी या कहीं भी डाल दिया जाय वह लोहा या मट्टी, कीचड नहीं बन जाता है । " कानेको चोट कडामरेको भेंट " यह नीति प्रशस्त नहीं है। जब कि आत्मामें सम्यक्त्वगुणसे पृथग भूतज्ञान गुण या चेतनागुण प्रकाश रहा है तो सम्यक्त्वका विपरीत परिणमन हो जानेपर भला ज्ञानगुणमें विपरीतता कैसे आ सकती है ! देवदत्तके चौर्य दोषसे इन्द्रदत्तको कारागृह नहीं मिलना चाहिये । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो शंका नहीं करना । क्योंकि आश्रयके अन्य प्रकारसे परिवर्तनरूप परिणामके अच्छे ढंगसे परिपुष्ट हो जानेपर उस आश्रयके आधेयमूत हो रहे पदार्थका अन्य प्रकारसे परिणाम होना देखा जाता है। जब कि सम्पूर्ण गुणोंके शिरोमणि होकर मास रहे सम्यग्दर्शनगुणका अखिल कर्मोमें प्रधान हो रहे मिथ्यात्व कर्मने विपरीत भावकर आत्माको मिथ्यादृष्टि बना दिया है, ऐसी दशामें आत्माके अन्य गुणोंपर भी विपरीतपन आये विना नहीं रह सकता है । पडोसीके घरमें आग लगनेपर निकटवर्तीके छप्परोंवाले घरमें कुशल नहीं रह सकता है । दुष्ट पुरुषोंके घरमें सज्जनके जानेपर प्रभाव पडे विना नहीं रहा सका है । भाग, कीचड, आदिमें पडा हुआ स्वर्ण सौ, पचास,
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वर्षों में भले ही नहीं बिगडे, किन्तु हजारों, लाखों, वर्षों में सोना या भुड भुड ( भोडळ अभ्रक ) भी मट्टी, कीचड, हो सकता है। नोनकी झीलमें सभी पुद्गल स्कन्ध नोंन हो जाते हैं । कोई मी पुद्गलकी पर्याय निमित्त मिल जानेपर कुछ कालमें अन्य पुद्गल पर्यायोरूप परिवर्तन कर जाती है। शुद्ध सौ टंचका सोना भी औषधियोंके प्रयोगसे अग्नि द्वारा भस्म कर दिया जाता है । वैध पुरुष अभ्रकको भी भस्म बनाते हैं । अतः अधिकरणके दोष कचित् आधेयमें मा जाते हैं । " पेटमें पांडा और आंखमें औषधि " यह लौकिक परिभाषा कुछ रहस्य रखती है।
यथा सरजसालाम्बूफलस्य कटु किन्न तत् । क्षिप्तस्य पयसो दृष्टः कटुभावस्तथाविधः ॥ १९ ॥ तथात्मनोऽपि मिथ्यात्वपरिणामे सतीष्यते ।
मत्यादिसंविदां तादृमिथ्यात्वं कस्यचित्सदा ॥२०॥
जिस प्रकार कडवे गूदकी धूलसे सहित हो रहे तुम्बी फलके कटुपनेसे क्या उस पात्रमें डाल दिये गये दूधका तिस प्रकार कडवा हो जाना नहीं देखा गया है ! अर्थात्-कडवी तूम्बरीमें रखा हुवा दूध भी कडवा हो जाता है। निमित्त द्वारा विभाव परिणामको प्राप्त हो जानेवाले आधेयमें विभावक अधिकरणके दोष आ जाते हैं । खर्ग और नरकके आकाशमें यद्यपि कोई अन्तर नहीं है। फिर भी वहांकी वायु, भूमि, आदिमें महान् अन्तर है। यही बात सिद्धक्षेत्र
और युद्धक्षेत्रमें लगा लेना । अतः जिस प्रकार कडवी तूम्बीमें रखा हुवा दूध कटु हो जाता है, तिसी प्रकार किसी आत्माके भी मिथ्याव परिणाम हो जानेपर मति आदिक ज्ञानोंका तिस प्रकार मिथ्या हो जानापन सदा इष्ट कर लिया जाता है । असदाचारी पुरुषकी. पण्डिताईमें भी वह दूषण घुस रहा है। सुदर्शन, सीता आदि महान् आत्माओंके ब्रह्मचर्य गुणकी निर्दोषता अन्य सत्य, अचौर्य, अहिंसा, नवकोटिविशुद्धि, साहस, धैर्य, आदि करके परिपूर्ण हो जानेसे गरिष्ठ मानी गयी है, जिसको कि केवळ कृत या कारितसे ही अकेले ब्रह्मचर्यको धारनेवाळे असंख्य स्त्रीपुरुष नहीं प्राप्त कर सके हैं।
जात्यहेम्नो माणिक्यस्य चाग्न्यादिर्वा गृहादिर्वा नाहेमत्वममाणिक्यत्वं वा कर्नु समर्थस्तस्यापरिणामकत्वात् । मिथ्यात्वपरिणतस्तु आत्मा स्वाश्रयीणि मत्यादिज्ञानानि विपर्ययरूपतामाषादयति । तस्य तथा परिणामकत्वात्सरजसकटुकालाम्बूवत्स्वाश्रयि पय इति न मिथ्यात्वसहभावेऽपि मत्यादीनां सम्यक्त्वपरित्यागः शङ्कनीयः।
किट्ट, ( कीट ) कालिमा, चांदी, तांबा, आदि टंटोंसे रहित होरहे स्वच्छ सोने का अग्नि, कीचड, वायु अथवा पानी आदिक पदार्थ असुवर्णपना करने के लिये समर्थ नहीं हैं । अथवा माणिक
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रस्नके अमाणिक्यपनेको करने के लिये शूद्रगृह, मूर्ख, भीलनीकी कुटी, डिन्बी, वस्त्र, आदिक पदार्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि उन बग्नि आदिक या गृह आदिकको सुवर्ण या माणिक्यके विपरिणाम करानेके निमित्त शक्ति प्राप्त नहीं है । इससे आचार्य महाराजका यह अभिप्राय पनित होता है कि जो पदार्थ सोने या माणिक्यको अन्यथा कर सकते हैं, उनके द्वारा सोना या माणिक मी राख या चूना हो जाता है। हां, आकाश आदि शुद्धद्रव्योंका अन्यथाभाव किसीके बल, बूते, नहीं हो पाता है। किन्तु मिथ्यादर्शन परिणामसे युक्त हो रहा आत्मा तो अपने आश्रयमें वर्त रहे मति, श्रुत, आदि बानोंको विपर्यय स्वरूपपनेको प्राप्त करा देता है । क्योंकि उस मिथ्याटि आत्माको तीन ज्ञानोंकी तिस प्रकार कुहानरूप परिणति करानेमें प्रेरक निमित्तपना प्राप्त हैं । जैसे कि कडवे गूदेकी धूळसहित हो रही कडवी तूम्बी अपने आश्रय प्राप्त हो रहे दूधको कडवे रस सहितपनेसे परिणति करादेती है। इस कारण मिथ्यादर्शनका सहभाव होजानेपर भी मति मादिक बानोंके समीचीनपनेका परित्याग हो जाना शंका करने योग्य नहीं है। तुच्छ पुरुषके अन्य गुण भी तुच्छ हो जाते हैं। गम्भीर नहीं रहते हैं। एक गुण या दोष दूसरे गुण या दोषोंपर जयश्य प्रभाव डालता है। प्रकाण्ड विद्वान् यदि पूर्ण सदाचारी भी है तो वह परमपूज्य है।
परिणामित्वमात्मनोऽसिद्धमिति चेदत्रोच्यते ।
कोई एकान्ती कहता है कि आत्मामें यदि कुमतिज्ञान है, तो सुमतिबान फिर नहीं हो सकेगा और यदि आत्मामें सुमतिज्ञान है तो फिर आत्मा कुमतिज्ञानरूप विपरिणति नहीं कर सकता है। क्योंकि आत्मा कूटस्थ नित्य है । परिवर्तन करनेवाले परिणामोंसे सहितपना तो आत्माके भसिद्ध है। इस प्रकार किसी प्रतिवादीके कहनेपर इस प्रकरणमें श्री विद्यानन्द भाचार्य द्वारा समाधान कहा जाता है। उसको सावधान होकर सुनिये ।
न चेदं परिणामित्वमात्मनो न प्रसाधितम् । सर्वस्यापरिणामित्वे सत्त्वस्यैव विरोधतः ॥ २१ ॥ यतो विपर्ययो न स्यात्परिणामः कदाचन । मत्यादिवेदनाकारपरिणामनिवृत्तितः ॥ २२ ॥
मात्माका यह परिणामीपना हमने पूर्व प्रकरणोंमें भळे प्रकार साधा नहीं है, यह नहीं समझना । यानी मामा परिणामी है, इसको हम अच्छी युक्तियोंसे साध चुके
। जैनसिद्धान्त अनुसार सभी पदार्थ परिणामी हैं । सम्पूर्ण पदार्थोको या सबमें एक भी वस्तुको यदि अपरिणामीपना माना जायगा, तो उसकी जगत्में सत्ता रहनेका हो विरोध हो जायगा । क्योंकि परिणामीपनसे सत्व व्याप्त हो रहा है । ब्यापक परिणामीपनके रहने
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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त्याग,
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पर ही व्याप्य सरख ठहर सकता है । सम्पूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय और धौन्यसे शोभायमान हैं । पूर्व आकारों का उत्तर आकारोंका प्रण और ध्रुत्रस्थितिरूप परिणाम सर्वत्र सर्वदा देखे जाते हैं । अतः आत्मा कूटस्थ नहीं है । जिससे कि कदाचित भी मति आदिक ज्ञानोंके आकारमा परिणामों की निवृत्ति हो जानेसे आत्मा के विपर्ययरूप पर्यायें नहीं हो पाती । अर्थात् परिणामी आमा मिध्यात्वका उदय हो जानेपर मति, श्रुत, आदिक ज्ञानोंके आकारस्वरूप परिणामोंकी निवृत्ति हो जानेसे कुपति आदि विपर्यय ज्ञान प्रवर्त जाते हैं। ज्ञानपना या चेतनपना स्थित रहता है । अतः परिणामी आत्माके विपर्यय ज्ञानोंका हो जाना सम्भव जाता है।
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इस सूत्र का सारांश |
""
च
हैं
इस सूत्र कथन किये गये प्रकरणोंका क्रम इस प्रकार है कि प्रथम ही पांच ज्ञानोपयोग और चार दर्शनोपयोग इनमेंसे कतिपय ज्ञानोपयोगोंका विपर्ययपना बतलानेके लिये सूत्रका प्रारम्भ करना आवश्यक समझकर तीन ही ज्ञानोंको विपर्ययपना साधकर मिथ्या शंकाओं की निवृत्ति कर दी है । सूत्रमें पूर्वपदके साथ अवधारण लगाना अच्छा बताया है । मन:पर्यय और केवलज्ञान समीचीन ही होते हैं। क्योंकि पहिले और दूसरे ही गुणस्थानोंमें सम्भवनेवाले दर्शनमोहनीय और पांचवें गुणस्थानतक पाये जा रहे चारित्रमोहनीय कर्मोंके विशेष शक्तिशाली स्पर्धकोंके उदयका उनके साथ सहभाव नहीं है । इसके आगे " शब्दकी सार्थकता दो ढंगोंसे बताई गयी है। किस ज्ञानमें कितने मिध्यापन सम्भव जाते इसका प्रबोध कराया है । अवधिज्ञानमें विपर्यय और अनध्यवसायको योग्यतासे साध दिया है । मति कहनेसे सुमतिज्ञानका प्रहण होता है । ऐसी दशामें वह सुमति तो कालत्रयमें भी विपर्यय नहीं हो सकता है । इस कटाक्षका विद्वत्तापूर्वक निराकरण कर दिया है। दर्शनमोहनीय या चारित्रमोहनीयकर्म आत्माके अन्य कतिपय गुणोंपर अपना प्रभाव डाल लेते हैं । कोई अस्तित्व, वस्तुत्र आदि गुणोंकी हानि वे कर्म कुछ नहीं कर सकते हैं। कडवी तुम्बी दूधके रसका विपरिणाम कर देती हैं। किन्तु दूध की शुक्लता या पतलापनको बाधा नहीं पहुंचाती है । हो, पीळा रंग या दही इनको भी ठेस पहुंचा देता है । आमाके सम्यग्दर्शन गुणका विभाव परिणाम हो जानेपर मति, श्रुत, अवधि ज्ञानोंका विपर्ययपना प्रसिद्ध हो जाता है, इस रहस्यको दृष्टान्तोंसे पुष्ट किया है । कूटस्थ आत्माका निराकरण कर प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे आत्माका परिणामपिन पूर्व प्रकरणोंमें साधा जा चुका कह दिया है । संसार में रहनेवाले अनन्तानन्त जीव तो मिथ्यादृष्टि अवस्था में मिथ्याज्ञानोंसे घिरे हुये हैं ही। हां, वर्तमानकालकी अपेक्षा असंख्यात जीवोंकें भी सम्यग्दर्शन हो चुकनेपर पुनः मिध्यात्व या अनन्तानुबन्धीके उदय हो जानेसे यथायोग्य तीन ज्ञान विपर्ययस्त्ररूप हो जाते हैं। अर्धपुद्गरूपरिवर्तन
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
काल सम्बन्धी ऐसे अनेकानेक जीव हैं। इस प्रकार मति आदिक तीन ज्ञानोंका कदाचित् कारणवश विपर्ययपना युक्तियोंसे साधदिया है।
सुदृष्टिमोहाद्यकषायपाकान् मतिश्रुतावध्युपलब्धयः स्युः । सदोषतोश्च विपर्ययश्च पयो यथेक्ष्वाकुगतं कटूत्तं ॥ १ ॥
-*
othoयवहारकी प्रसिद्धि अनुसार मिध्यादृष्टियोंके और सम्यग्दृष्टियोंके ज्ञानोंमें जब कोई विशेष अन्तर नहीं दीखता है तो फिर क्या कारण है कि मिथ्यादर्शन के साहचर्यमात्र से मिथ्यादृष्टियोंका घटज्ञान विपर्ययज्ञान कहा जाय और सम्यग्दृष्टियोंका उतना ही घटज्ञान समीचीन कहा जाय ? इस प्रकार कटाक्ष उपस्थित होनेपर श्री उमास्वामी महाराज हेतु और दृष्टान्त द्वारा प्रकृत अर्थको पुष्ट करनेके लिये स्वकीय मुखाभ्रसे सूत्र - आसार वर्षाते हैं ।
सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥३२॥
विद्यमान हो रहे और अविद्यमान हो रहे अर्थोकी अथवा प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय ant अविशेषता करके यदृच्छापूर्वक उपलब्धि हो जानेसे उन्मत्त पुरुषके समान जाननेवाले मिथ्यादृष्टि के विपर्ययज्ञान हो जाते हैं। अर्थात् — उन्मत्त पुरुष जैसे गौमें गाय है, ऐसा निर्णय करता है और कदाचित गौको घोडा भी जानलेता है, माताको कभी स्त्री और कदाचित् माता भी कह देता है, उसी प्रकार मिध्यादृष्टि जीव सत् और असत् पदार्थमें कोई विशेषता नहीं रखता हुवा चाहे जैसा मनमानी ज्ञान उठाता रहता है । अतः उसका घटमें घटको जाननेवाला भी ज्ञान विपर्यय ज्ञान ही है।
किं कुर्बभिदं सूत्रं ब्रवीतीति शंकायामाह ।
कोई गौरब दोषसे डरनेवाला शंकाकार कहता है कि किस नवीन अर्थका विधान करते हुये श्री उमास्वामी महाराज " सदसतोः " इत्यादि सूत्रको प्रस्पष्ट कह रहे हैं। ऐसी शंका होनेपर तार्किकशिरोमणि श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा समाधान कहते हैं ।
समानोर्थपरिच्छेदः सदृष्ट्यर्थपरिच्छिदा ।
कुतो विज्ञायते त्रेधा मिथ्यादृष्टेर्विपर्ययः ॥ १ ॥ इत्यत्र ज्ञापकं हेतुं दृष्टान्तं प्रदर्शयन् । सदित्याद्याह संक्षेपाद्विशेषप्रतिपचये ॥ २ ॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
जब कि सम्यग्दृष्टि आत्माके अर्थोकी परिच्छित्तिके समान ही मिथ्यादृष्टि आत्माके मी अोंका परिच्छेिद होता है, तो फिर कैसे विशेषरूपसे जाना जाय कि मिथ्यादृष्टिके तीन प्रकारका विपर्ययज्ञान हो रहा है । इस प्रकार यहां प्रकरणमें जिज्ञासा होनेपर दृष्टान्तसहित ज्ञापक हेतुको बढिया दिखलाते हुये श्री उमास्वामी महाराज संक्षेपसे मिथ्याज्ञानोंकी विशेषताको समझानेके लिये “ सदसतोरविशेषाद् " इत्यादि सूत्रको कहते हैं।
मिथ्यादृष्टेरप्यर्थपरिच्छेदः सदृष्टयर्थपरिच्छेदेन समानोनुभूयते तत्कुतोऽसौ वेषा विपर्यय इत्यारेकायां सत्यां सनिदर्शनं ज्ञापकं हेतुमनेनोपदर्शयति ।
मिथ्यादृष्टिका भी अर्थपरिज्ञान करना जब सम्यग्दृष्टिके हुई अर्थपरिच्छित्तिके समान होता हुआ अनुभवा जा रहा है, तो फिर कैसे निर्णीत किया जाय कि वह विपर्ययस्वरूप मिथ्यावान तीन प्रकारका होता है । इस प्रकार किसी भद्रपुरुषकी आशंका होनेपर उदाहरणसहित ज्ञापक हेतुको श्री उमास्वामी महाराज इस सूत्रकरके दिखलाते हैं । व्याप्य हेतुसे साध्यकी सिद्धि सुलभतासे हो जाती है । यदि दृष्टान्त मिल जाय तब तो बालक भी समझ जाते हैं। परीक्षकोंका तो कहना ही क्या है।
के पुनरत्र सदसती कश्च तयोरविशेषः का च यदृच्छोपलब्धिरित्याह ।
कोई पूछता है कि यहां सूत्रमें कहे गये फिर सत् और असत् क्या पदार्थ हैं ! और उन दोनोंका विशेषतारहितपना क्या है ? तथा यदृच्छा उपलब्धि मला क्या पदार्थ है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी वार्तिकोंद्वारा उत्तर कहते हैं।
अत्रोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति वक्ष्यति । ततोऽन्यदसदित्येतत्सामर्थ्यादवसीयते ॥३॥ अविशेषस्तयोः सद्भिरविवेको विधीयते ।
सांकर्यतो हि तद्वित्तिस्तथा वैयतिकर्यतः॥४॥ . इस सूत्रमें कहे गये सत् इस शब्द का अर्थ तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त हो , रहापन है। इस बातको स्वयं मूळ ग्रन्थकार पांचवें अध्यायमें स्पष्टरूपसे कह देवेंगे। उस सत्से अन्य पदार्थ यहां असत् कहा जाता है। विना कहे. ही यह तस्त्र इस व्याख्यात सत्की सामर्थ्यसे निर्णीत कर लिया जाता है। उन सत् , असत् , दोनोंका जो पृथक् भाव नहीं करना है, वह सज्जन पुरुषों करके विशेष किया गया कहा जाता है । अथवा विद्यमान हो रहे पदार्थोके साथ सत् और असत्का पृथग्भाव नहीं करना अविशेष कहा जाता है । तिस प्रकार उस पदार्थकी सब, असत
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तत्वार्थकोकवार्तिके
पनेके संकरपनेसे अथवा व्यतिकरपनेसे बप्ति कर लेना मिथ्या जानोंसे साध्य कार्य है। सत्में सत् और असत् दोनोंके धर्मोका एक साथ आरोप देना संकरदोष है । परस्परमें एक दूसरेके अत्यन्ताभावका समानाधिकरण धारनेवाले पदार्योका एक अर्थमें समावेश हो जाना सांकर्य है। तथा सत्के धर्मोका असतमें चला जाना और असत्के धर्माका सत्में चला जाना इस प्रकार परस्परमें विषयोंका गमन हो जाना व्यतिकर है । विपर्ययज्ञानी जीव संकरपन और व्यतिकरपन दोषोंसे युक्त सत् असत पदार्थोको जान बैठते हैं। उनका ठीक, ठीक, विवेक नहीं कर पाते हैं।
प्रतिपत्तिरभिप्रायमात्रं यदनिबन्धनं ।
सा यदृच्छा तया वित्तिरुपलब्धिः कथंचन ॥५॥
तीसरा प्रश्न " यदृच्छा उपलब्धि " के विषयमें है, उसका उत्तर यह है कि सामान्यरूपसे अभीष्ट अभिप्रायको कारण मानकर जो ज्ञान होता है, वह प्रतिपत्ति है । और जिस कारण उस अमिप्राय ( समीचीन इच्छा ) को कारण नहीं मानकर मनमानी वह परणति तो यदृच्छा है। उस यह छाकरके किसी भी प्रकार इति हो जाना उपलन्धि कही गयी है।
किमत्र साध्यमित्याह।
कोई जिज्ञासु पूछता है कि इस सूत्रमें श्री उमाखामी महाराजने " सदसतोः भविशेषाव। यदृच्छोपलब्धेः " ऐसा हेतु बनाकर और उन्मत्तको दृष्टान्त बनाकर अनुमान प्रयोग बमाया है किन्तु यह बताओ कि इस प्रयोगमें साध्य या प्रतिज्ञावाक्य क्या है ! इस प्रकार आकांक्षा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर कहते हैं।
मत्यादयोऽत्र वर्तन्ते ते विपर्यय इत्यपि । हेतोर्यथोदितादत्र साध्यते सदसत्त्वयोः ॥ ६ ॥
यहां सूत्रका बर्य करनेपर पूर्वसूत्रमें कहे गये वे मति आदिक तीन ज्ञान अनुवर्तन कर लिये जाते हैं। और " वे विपर्यय है।" यह भी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिये । अतः यथायोग्य कहे गये "सत् और असत्की विशेषतासे यदृच्छा उपलब्धि " इस हेतु द्वारा यहां मति नादिकमें सतपने और असत्पनेका विपर्यय साधकर जान लिया जाता है । प्रतिज्ञा हेतु और उदाहरण ठीक ठीक बन जानेसे पूर्वसूत्रमें कहे गये सायकी अच्छे ढंगसे सिद्धि हो जाती है।
तेनैतदुक्तं भवति मिथ्यादृष्टर्मतिश्रुतापधयो विपर्ययः सदसतोरपिशेषेण यहच्छी पलब्धरुन्मत्तस्येवेति ।
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तिस कारण इस संदर्भ में लाये गये वाक्योंद्वारा यों कह दिया गया समझा जाता है कि मिध्यादृष्टि के हो रहे मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान पक्ष ) विपर्यय हैं ( साध्य ) । सत् और असत् की विशेषता रहित करके यों ही चाहे जैसी उपलब्धि हो जानेसे ( हेतु ) मदसे उन्मत्त हो रहे पुरुषके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस प्रकार अनुमानवाक्य बना लिया गया है । समानेऽप्यर्थपरिच्छेदे कस्यचिद्विपर्ययसिद्धिं दृष्टान्ते साध्यसाधनयोर्व्याप्तिं प्रदर्शयन्नाह ।
- सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि जीवोंके उत्पन्न हुयी अर्थपरिच्छित्तिके समान होनेपर भी दोनों में से किसी ही एक मिध्यादृष्टिके ही विपर्यय ज्ञानकी सिद्धि है । किन्तु सम्यग्दष्टिका ज्ञान मिथ्याज्ञान 1 नहीं है । इस तस्वकी सिद्धिको दृष्टांत साध्य और साधनकी व्याप्तिका प्रदर्शन करा रहे श्री विद्यानन्द आचार्य विशदरूपसे कहते हैं ।
स्वर्णे स्वर्णमिति ज्ञानस्वर्णे स्वर्णमित्यपि ।
स्वर्णे वा स्वर्णमित्येवमुन्मत्तस्य कदाचन ॥ ७ ॥ विपर्ययो यथा लोके तद्यदृच्छोपलब्धितः । विशेषाभावतस्तद्वन्मिथ्यादृष्टेर्घटादिषु ॥ ८ ॥
उन्मत्त पुरुषको कभी कभी सुत्रर्ण पदार्थमें " सुवर्ण है " इस प्रकार ज्ञान हो जाता है । और कभी सुवर्णरहित (शून्य) मट्टी, पीतल आदि में यह सोना है, भी ज्ञान हो जाता है । अथवा कभी सुवर्ण में डेल, लोहा, आदि असुवर्णरूप इस प्रकार ज्ञान हो जाता है । तिस कारण जिस प्रकार लोकमें यदृच्छा उपलब्धि हो जानेसे विपर्ययज्ञान हो रहा प्रसिद्ध है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के घट, पट, आदि पदार्थों में विशेषतारहित करके यदृच्छा उपलब्बिसे मिथ्याज्ञान हो जाता है ।
सर्वत्राहार्य एव विपर्ययः सहज एवेत्येकान्तव्यवच्छेदेन तदुभयं स्वीकुर्वन्नाह ।
सभी स्थलोंपर आहार्यही विपर्ययज्ञान होता है, ऐसा कोई एकान्तवादी कह रहे हैं । प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे बाधा उपस्थित हो जानेपर भी भक्तिवश या आग्रहवश विपरीत ( उल्टा ) ही समझते रहना आहार्य मिथ्याज्ञान है । जैसे कि गृहीत मिथ्यादृष्टि जीव असत्ये उपदेशोंद्वारा विपरीत अभिनिवेश कर लेता है । तथा कोई एकान्तवादी यों कहते हैं कि सभी स्थलोंपर सहज ही विपर्ययज्ञान होता है । उपदेशके विना ही अन्तरंग कारणोंसे मिध्यावासनावश जो विपर्यय ज्ञान अज्ञानी जीवोंके हो रहा है, वह सहज है । इस प्रकार एकान्तोंका व्यवच्छेद करके उन दोनों प्रकारके विपर्ययं ज्ञानोंको स्वीकार करते हुए श्री विद्यानन्द आचार्य समझाकर कहते हैं ।
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
स चाहार्यो विनिर्दिष्टः सहजश्च विपर्ययः । प्राच्यस्तत्र श्रुताज्ञानं मिथ्यासमयसाधितम् ॥ ९॥ मत्यज्ञानं विभङ्गश्च सहजः संप्रतीयते ।
परोपदेशनिर्मुक्तेः श्रुताज्ञानं च किंचन ॥ १०॥ - यह विपर्यय ज्ञान आहार्य और सहज दोनों प्रकारका विशेषरूपसे कथन किया गया हमें इष्ट है । अभिप्राय वही होय और शब्द न्यारे न्यारे होय, ऐसे विषयमें शास्त्रार्थ करना व्यर्थ है। उन दो पहिला कहा गया आहार्य विपर्यय तो मिथ्याशास्त्रोकरके साध्य किया गया, कुश्रुत ज्ञान स्वरूप है । तथा कुपतिज्ञान और विभंग ज्ञान तो सहज विपर्यय हो रहे भळे प्रकार ज्ञाने जा रहे हैं। हां, परोपदेशका रहितपना हो जानेसे कोई कोई कुश्रुतज्ञान भी सहजविपर्यय हो जाता है। मावार्थ-सम्यग्दर्शन जिस प्रकार निसर्ग और अधिगमसे जन्य हुआ दो प्रकारका माना है, उसी प्रकार विपर्ययज्ञान भी दो प्रकारका है । आहार्य नामका भेद तो परोपदेशजन्य कुश्रुत शानमें ही घटित होता है। और सहजविपर्यय नामका भेद मति, श्रुत, अवधि इन तीनों शानोंमें सम्भव जाता है।
चक्षुरादिमतिपूर्वकं श्रुताज्ञानमपरोपदेशत्वासहजं मत्यज्ञानविभङ्गाहानवत् । श्रोत्रम. तिपूर्वकं तु परोपदेशापेक्षत्वादाहाय प्रत्येयं ।
चक्षु बादिक यानी नेत्र, स्पर्शन, रसना, घ्राण इन चार इन्द्रियोंसे जन्य मतिज्ञानको पूर्ववती कारण मानकर उपजा हुवा कुश्रुत बान तो परोपदेशर्वकपना नहीं होनेके कारण सहजविपर्यय है। जैसे कि कुमतिज्ञान और विभंगज्ञान सहज मिथ्याज्ञान है। किन्तु श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको पूर्ववर्तीकारण मानकर उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान तो परोपदेशकी अपेक्षा हो जानेसे आहार्य विपर्ययज्ञान समझ लेना चाहिये । मानस मतिज्ञानपूर्वक हुआ कुश्रुतज्ञान भी सहनविपर्ययमें परिगणित होगा।
तत्र सति विषये श्रुताज्ञानमाहार्यविपर्ययमादर्भयति ।
तिन विपर्ययज्ञानों में विषयके विद्यमान होनेपर हुये कुश्रुतवानस्वरूप आहार्य विपर्ययको दर्पणके समान अन्धकार वार्तिकोंद्वारा दिखलाते हैं।
सति स्वरूपतोऽशेषे शून्यवादो विपर्ययः । प्रायपाइकभावादी संविदद्वैतवर्णनम् ॥ ११ ॥
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तत्वार्यचिन्तामणिः
चित्राद्वैतप्रवादश्च पुंशब्दाद्वैतवर्णनम् ।
बाह्यार्थेषु च भिन्नेषु विज्ञानाण्ड (नांश) प्रकल्पनं ॥ १२ ॥
निषेध कर देना यह
अपने अपने स्वरूपसे सत्भूत पदार्थोंके विद्यमान रहनेपर अथवा स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भासे पदार्थोंके विद्यमान होनेपर शून्यवादी विद्वान् द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का शून्यवाद नामका विपर्यय है । क्योंकि पदार्थों के विद्यमान होनेपर भी उनका निषेध कर रहा है । तथा ज्ञेय पदार्थ और ज्ञापकज्ञान पदार्थ इनमें प्राप्राकमा होते हुर या आश्रय श्राश्रयीभूत पदार्थोंमें आधार आधेय भाव होते हुए अथवा अनेक पदार्थोंमें कार्यकारणभाव आदि सम्बन्ध होनेपर भी ज्ञानका ही अद्वैत कहते जाना यह विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धों का विपर्यय है। क्योंकि प्राप्राहरुमाव आदि द्वैत पदार्थों के होते हुए भी उनका निषेध कर दिया है। तथा नाना प्रकार बहिरंग पदार्थों के विद्यमान होनेपर भी चित्र आकारवाले ज्ञानके अद्वैत माननेका प्रवाद भी बौद्धोंका एक विपर्यय है । इसी प्रकार द्वैतके होनेपर मी ब्रह्मवादियों द्वारा ब्रह्माद्वैतका वर्णन करना अथवा वैयाकरणों द्वारा शद्वाद्वैत स्वीकार करना भी आहार्य कुबान है। तथा मित्र मिस्र स्थूल, काकान्तरस्थायी, बहिरंग अवयवी पदार्थों के होते सन्ते भी क्षणिक, अवयव, अणुस्वरूप, विज्ञान के अंशोंकी कल्पना करते चले जाना विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धों का विपर्यय है । ये सब सत् पदार्थों में असदको कल्प रहे हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत् को ब्रह्माण्ड या विज्ञानाण्ड में तदात्मक रखना उचित नहीं है।
बहिरन्तश्च वस्तूना सादृश्ये वैसदृश्यवाक् ।
वैसदृश्ये च सादृश्यैकान्तवादावलम्बनम् ॥ १३ ॥
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तथा घट, पट, वस्त्र, पुस्तक, आदि बहिरंग पदार्थ और आत्मा, ज्ञान, सुख, दुःख इच्छा आदि अन्तरंग वस्तुओंके कथंचित् सादृश्य होनेपर भी सर्वया विलक्षण नेका कथन करना यह विशेष के ही एकान्तको कहनेवाले बौद्धोंका विपर्ययज्ञान है। एवं दूसरा बहिरंग और अन्तरंग पदार्थो का कथंचित् वैलक्षण्य होनेपर भी वे सर्वथा सदृश ही हैं " इस प्रकार सामान्य एकान्तवादका अवलम्ब छेकर पक्ष पकडे रहना सहरा एकान्तवादी विद्वान् का विपर्यय है ।
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द्रव्ये पर्यायमात्रस्य पर्याये द्रव्यकल्पना । तद्वयात्मनि तद्भेदवादो वाच्यत्ववागपि ॥
१४ ॥
अतीत, अनागत, वर्तमान, पर्यायोंमें अन्वित होकर व्यापनेवाले नित्यद्रव्यों के होते हुए भी केवळ पर्यायोंकी ही कल्पना करना अथवा पर्यायोंके होते सन्ते केवल द्रव्योंको ही कल्पना करना
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
बौद्ध और सांख्यों विपर्यय कल्पना है। तथा उन द्रव्य और पर्याय दोनोंसे तदात्मक हो रहे वस्तु होनेपर फिर आग्रहवश उन द्रव्यपर्यायोंके भेदको बकते रहना वैशेषिकका विपर्यय ज्ञान हैं। पदार्थोंका शब्दोंद्वारा निरूपण नहीं हो पाता है । अतः सम्पूर्ण तस्त्र अवाच्य है । यह वक्तव्य एकान्तका विपर्यय भी किन्हीं बौद्धों में छा रहा है। ये सब आहार्य कुश्रुतज्ञान है । उत्पादव्ययवादश्च धौव्ये तदवलम्बनम् ।
जन्मप्रध्वंसयोरेवं प्रतिवस्तु प्रबुद्धयताम् ॥
१५ ॥
द्रव्यकी अपेक्षा या काळान्तरस्थायी स्थूल पर्यायकी अपेक्षा पदार्थोंका धुत्रपना होते सन्ते भी के उत्पाद और व्ययके एकान्तका ही पक्ष पकडे रहना क्षणिक एकान्तरूप विपर्यय है । तथा इसके विपरीत दूसरा एकान्त यों है कि पदार्थोंके उत्पाद और व्ययकी प्रत्यक्षद्वारा सिद्ध होते सन्ते भी उस धाव्यका सहारा लेकर सर्वथा पदार्थोंको नित्य ही समझते रहना विपर्यय ज्ञान है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तुओं में विपर्यय ज्ञानकी व्यवस्था समझ लेनी चाहिए । एकान्तवादी विद्वान् अपने अपने सिद्धान्त अनुसार सम्पूर्ण पदार्थोंमें विपरीत अभिनिवेश किये हुए आहाय्य विपर्यय से प्रहप्रस्त हो रहे हैं ।
सति तावत्कास्र्त्स्न्येनैकदेशेन च विपर्ययोऽस्ति तत्र कात्स्न्येन शून्यवादः स्वरूपद्रव्यक्षेत्रकालतः, सर्वस्य सत्त्वेन प्रमाणसिद्धत्वात् । विशेषतस्तु सति ग्राह्यग्राहकभावे कार्यकार णभावे च वाच्यवाचकभावादौ च तदसच्चवचनम् । तत्र संविदद्वैतस्य वावलम्बनेन सौग - तस्य, पुरुषाद्वैतस्यालम्बनेन ब्रह्मवादिनः, शद्बाद्वैतस्याश्रयेण वैयाकरणस्येति प्रत्येयं । विपर्ययत्वं तु तस्य ग्राह्यग्राहकभावादीनां प्रतीतिसिद्धं तद्वचनात् ।
प्रथम ही हम यह समझाते हैं कि अनेक वादियोंके यहां नाना प्रकारके विपर्ययज्ञान माने जा रहे हैं । विद्यमान हो रहे पदार्थों में कोई तो परिपूर्ण रूपसे विपर्ययज्ञान मानते हैं और कोई विद्यमान हो रहे पदार्थोंमें एकदेश करके विपर्यय ज्ञान मान बैठे हैं । उनमें परिपूर्ण रूप से विपर्यय मानना तो शून्यवाद है । क्योंकि अपने स्वरूप हो रहे भाव, द्रव्य, क्षेत्र, काळसे अपने करके सम्पूर्ण पदार्थों की प्रमाणोंसे सिद्धि हो रही है। अतः सभी पदार्थोंको स्वीकार नहीं करना यह तत्व उपलत्रवादी या शून्यवादी प्राज्ञोंका पूर्णरूपसे होनेवाला विपर्यय है । एक देशसे या विशेषरूप से तो विपर्यय यों है कि पदार्थों में ग्राह्यग्राहक भाव और कार्यकारण भाव तथा वाध्यवाचकभाव आधारआधेयभाव, वध्यघातक भाव, आदि सम्बन्धों के होनेपर भी उन प्राप्रकभाव आदिका असत्त्व कहना विपर्यय है । उनमें सम्वेदनाद्वैतका आलम्बन करने से बौद्धको विपर्ययज्ञान हो रहा है। और पुरुषाद्वैतका सहारा लेनेसे ब्रह्मवादीके विपर्यय हो गया है । तथा द्वाद्वैतका आश्रय पकड केनेसे वैयाकरणके वैसा विपर्यय हो गया है, जिससे कि वे
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तत्वार्थचिन्तामणिः
विषमान हो रहे प्राह्यग्राहकभाव आदिका निषेध कर रहे हैं, यह समझ लेना चाहिये । उनके उस बानको विपर्ययपना तो ग्राह्यग्राहकभाव आदिकोंकी प्रतीतियोंसे सिद्धि हो जानेके कारण निर्णीत हो रहा है । किन्तु वे पण्डित अपने शास्त्रों और उपदेष्टाओंके वचनसे तिस प्रकार विपरीत (उल्टा) समझ बैठे हैं। इसकी चिकित्सा कष्टसाध्य है। अयवा उनके वचनसे ही उनका विपरीतपना भास जाता है। अपनेको वन्ध्यापुत्र कहनेके समान उनके वचनोंमें ही वदतो व्याघात दोष है।
तथा पहिरर्थे भिन्ने सति त(दादमत्त्ववचनं विज्ञानांशप्रकल्पनाविपर्ययः । परमार्थतो बहिरन्तश्च वस्तूनां सादृश्ये सति तदसत्ववचनं सर्ववैसदृश्यावलम्बनेन तथागतस्यैव विपर्ययः। सादृश्यप्रत्यभिज्ञानस्याबाधितस्य प्रमाणत्वसाधनेन सादृश्यस्य साधमात् । सत्यपि च कथंचिद्विशिष्टसादृश्ये तदसत्त्ववचनं सर्वया सादृश्यावलम्बनात् सादृश्यैकान्तवादिनो विपर्ययः।
___ तथा मिन मिन बहिरंग अर्थोके विद्यमान होनेपर भी उन एकान्तवादियोंके समान बौद्धोंके यहां भी विज्ञानके परमाणुस्वरूप क्षणिक अंशोंकी ही कल्पना कर लेनेसे उन बहिरंग अर्थोके असत्त्वका कथन करना विपर्ययवान है । और परमार्थरूपसे बहिरंग अन्तरंग वस्तुओंका सादृश्य होते हुए भी सबके विसदृशपनेका सहारा लेकर उस सादृश्यका असत्व कहना बुद्धके यहा ही विपर्यय प्रसिद्ध हो रहा है । क्योंकि बाधारहित हो रहे सादृश्य प्रत्यभिज्ञानका प्रमाणपना साधन करके वस्तुभूत सादृश्यकी सिद्धि हो चुकी है। इस एकान्तके विपरीत दूसरा एकान्त यों है कि सम्पूर्ण वस्तुओंमें कथंचित् विशिष्ट पदार्थोकी ही अपेक्षासे हो रहे सादृश्यके होनेपर अथवा पदार्थोंमें कथंचित् वैसादृश्य होनेपर सर्वथा सादृश्य पक्षका सहारा ले लेनेसे उस वैसादृश्यका असत्त्व कहना यह सादृश्यको ही एकान्तसे कहनेकी टेव रखनेवाले पण्डितका विपर्यय है । तथा द्रव्यकी पहिले पीछे समयोंमें होनेवाली क्रममावी पर्याय अथवा द्रव्यके सहभावी गुणोंमें द्रव्यकी अपेक्षा एकपना होते हुए भी सदृशपनेका अभिमान करना विपर्यय है । क्योंकि बाधामोंसे रहित हो रहे एकत्व प्रत्यभिज्ञान कर उनका एकपना साध दिया गया है। अतः एक द्रव्यमें या उसकी गुण और पर्यायोंमें उस एकपनेकी सत्ता प्रमाणसिद्ध है।
तथा सति द्रव्ये तदसत्ववचनं पर्यायमात्रावस्थानात्कस्याचिद्विपर्ययः । एकत्वमत्यभिज्ञानस्याबाधितस्य प्रमाणत्वसाधनात्तत्सत्त्वसिद्धः । पर्याये च सति तदसववचनं द्रव्यमात्रास्थानादपरस्य विपर्ययः । भेदज्ञानादबाधिताचत्सवसाधनात् ।
तथा अनादिसे अनन्तकालतक ठहरनेवाली नित्यद्रव्यके सद्भूत होते सन्ते भी केवल पर्यायोंके अवस्थानका ही आसरा ले लेनेसे किसी बौद्ध विद्वान्के यहां उस द्रव्यका असत्त्व कहते हमा विपर्ययवान है । क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे नहीं बाधे गये एकत्व प्रत्यभिज्ञानका प्रमाणपना
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
साथ देने से उस अन्वयी द्रव्यकी सत्ता सिद्ध हो चुकी है। तथा इसके प्रतिपक्ष में दूसरा विपर्यय य है कि पर्यायोंके वास्तविक होनेपर भी केवल द्रव्यमात्रकी स्थिति बखानने से उन पर्यायोंका असर कहना किसी दूसरे एकान्तवादीका विपर्यय ( मिथ्याटेक ) है । क्योंकि स्थाससे कोश भिन्न है । कोशसे कुल भिन्न है । पहिले ज्ञानसे दुसरा ज्ञान न्यारा है, इत्यादिक अवधित हो रहे भेदज्ञानसे उन पर्यायोंके सद्भावको साध दिया गया है ।
द्रव्यपर्यायात्मनि वस्तुनि सति तदसत्वाभिधानं परस्परभिन्नद्रव्यपर्यायवादाश्रयणादन्येषां तस्य प्रमाणतो व्यवस्थापनात् ।
द्रव्य और पर्यायोंसे तदात्मक हो रही वस्तुके सद्भाव होनेपर भी फिर परस्पर में भिन्न हो रहे द्रव्य और पर्यायके पक्षपरिग्रहका आसरा लेनेसे उस द्रव्यपर्यायों के साथ वस्तुके तदात्मक हो रहेपनका असर कहना तो वादी अन्य नैयायिक या वैशेषिकका विपर्ययज्ञान है। क्योंकि उस व्य और पर्यायोंके साथ तदात्मक हो रही वस्तुको प्रमाणोंसे व्यवस्था कराई जा चुकी है।
तस्यान्यत्वाभ्यामवाच्यत्ववादालम्बनाद्वा तत्र विपर्ययः । सति धौन्ये तदसश्वकयनमुत्पादव्ययमात्रांगीकरणात् केषांचिद्विपर्ययः कथंचित्सर्वस्य नित्यत्वसाधनात् । उत्पादव्यययोश्च सतोस्तदसत्वाभिनिवेश" शाश्वतैकान्ताश्रयणादन्येषां विपर्ययः । सर्वस्य कथंचिदुस्वादव्ययात्मनः साधनादेवं प्रतिवस्तुसच्चेऽसत्ववचनं विपर्ययः प्रपंचतो बुध्यतां ।
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अथवा बौद्धजनोंका ऐसा विचार है कि सम्पूर्ण पदार्थ अवक्तव्य हैं। सन्तान और सन्तानि - योंका सपना और अन्यपना धर्म अवाच्य है। जैसे कि सस्त्र, एकत्र, आदिक सम्पूर्ण धर्म सत् असत् उभय, अनुभय इन चार कोटियोंद्वारा विचार करनेपर अनभिलाय हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि उस वस्तुका कथंचित् शब्दद्वारा वाच्यपना सिद्ध हो चुकनेपर भी वहां तस्त्र, अन्यस्व करके अवाध्यपनेके सिद्धान्तवादका आलम्बन कर लेनेसे अवक्तव्यका कथन करना सौगतोंका विपर्यय ज्ञान है। तथा संपूर्ण पदार्थों का कथंचित् त्रपना होते सन्ते भी केवल उत्पाद और व्ययके स्वीकार कर लेनेसे उस त्रपनका असस्त्र कहते रहना किन्ही बौद्धोंके यहां मिथ्याज्ञान हो रहा है । क्योंकि कथंचित् यानी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे सम्पूर्ण पदार्थोंका नित्यपना साध दिया गया है । पदार्थों उत्पत्ति और विनाशके होते सन्ते भी इसके विपरीत अन्य सांख्यों के यहां भी यह मिथ्याज्ञान फैल रहा है, जो कि सर्वथा नित्य एकान्तका आश्रय कर लेनेसे उन उत्पाद और व्ययके असद्भावका आग्रह कर लेना यह सांख्योंका मिथ्याज्ञान है। कारण कि सम्पूर्ण पदार्थोंके पर्यायोंकी अपेक्षा से कथंचित् उत्पाद, व्यय, आत्मक स्वभावकी सिद्धि कर दी गयी है। इसी प्रकार अन्य भी प्रत्येक वस्तु या उनके प्रतीत सिद्ध धर्मोके सद्भाव होनेपर भी असर कह देना मिथ्याज्ञान है ।
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इस प्रकार कुश्रुतज्ञानरूप विपर्ययको विस्तार से समझ लेना चाहिये । प्रन्थका विस्तार हो जानेसे अनेक विपर्ययोको यहां नहीं लिखा गया है।
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जीवे सति तदसश्ववचनं चार्वाकस्य विपर्ययस्तत्सश्वस्य प्रमाणतः साघनात् । अजीवे तदसश्ववचनं ब्रह्मवादिनो विपर्ययः । आस्रवे तदसच्चवचनं च बौद्धचार्वाकस्यैव संबरे, निर्जरायां, मोक्षे च तदसत्ववचनं याज्ञिकस्य विपर्ययः । पूर्वमेव जीवनदजीवादीनां प्रमाणतः प्ररूपणात् ।
ज्ञान, सुख आदि गुणों के साथ तन्मय हो रहे जीव पदार्थ के सत्व होनेपर फिर उस जीवक असद्भाव कहना चार्वाक के यहां हो रहा विपर्ययज्ञान है । क्योंकि उस जीवकी सत्ताको प्रमाणोंसे साधा जा चुका है। तथा घट, पट, पुस्तक आदि अजीव पदार्थोंके सद्भाव होनेपर उन अजीव पदार्थोंका असव कहते जाना ब्रह्माद्वैतवादीका विपर्यय ज्ञान है और आस्रवतत्व के होनेपर उस आखत्रका असस्त्र कहते चले जाना बौद्ध और चार्वाकोंकी बुद्धिमें विपर्यय हो रहा है । इसी प्रकार संवर, निर्जरा और मोक्ष तस्वके होनेपर भी उनका असत्व निरूपण करना यज्ञको चाहनेवाले मीमांसकों का विपर्यय ज्ञान है। क्योंकि पूर्व प्रकरणों में ही जीवतस्त्रके समान अजीव, आशय, आदिकोंका प्रमाणोंसे निरूपण किया जा चुका है ।
विशेषतः संसारिणि मुक्ते च जीवे सति तदसच्चवचनं विपर्ययः । जीवे पुनले धर्मेधर्मे नभसि काले च सति तदसत्ववचनं ।
सामान्यरूपसे जीवतखको नहीं माननेवर चार्वाकके हो रहा विपर्ययज्ञान है । किन्तु जीवके मेद, प्रभेदरूपसे संसारी जीवों या मुक्त जीवोंके विद्यमान होनेपर भी उन संसारी जीवोंका या मुक्त जीवका अस्त्र कहना एकान्तवादियों का विपर्यय है । मस्करी मतवादी मुक्त जीवका मोक्षसे पुनः आगमन मानते हैं। कोई वादी मुक्त जीवों को संसारी जीवोंसे न्यारा नहीं मानते हैं। अद्वैतवादी तो नाना संज्ञारी जीवोंको ही स्वीकार नहीं करते हैं । " ब्रह्मैव सत्यमखिलं न हि किंचिदस्ति " । इसी प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल, इन विशेष द्रव्योंके होनेपर पुनः उनका अक्षरस कहना विपर्ययज्ञान है । अथवा सामान्यरूपसे अजीवको मान लेनेपर भी विशेषरूप से पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालके होते हुये भी उन विशेष अमीव तवोंका rara कहना किन्हीं वादियोंके विपर्ययज्ञान हो रहा है।
सत्र पुण्यासवे पापास्रवे च पुण्यबन्धे पापबन्धे च देशसंवरे सर्वसंवरे च यथाकाल निर्जरायामौ पक्रमिक निर्जरायां च आईन्त्यमोक्षे सिद्धत्वमोक्षे च सति तदसत्ववचनं कमचिद्विपर्ययस्तस्वभ्यस्य पुरस्तात् प्रमाणतः साधनात् ।
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
सन्ते भी तथा कर्मोको बलात्कार से
उन अजीव आदि पदार्थोंमें विशेषरूप से पुण्यासव और पापात्र के होते सन्ते तथा पुण्य बन्ध और पापबन्ध के होते हुये एवं एकदेश संवर और सर्वदेशतः संवरके होते यथायोग्य अपने नियत कालमें हो रही निर्जरा और भविष्य में उदय आनेवाले वर्तमान उपक्रम में लाकर की गयी निर्जरा, इन तत्वों के होनेपर भी एवं तेरहवें, चौदहवें में गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृतिकी उदय अवस्था में जीवन्मुक्तनामक अर्हन्तपनास्वरूप मोक्षतत्व और अष्टक से सर्वथा रहित सिद्धपनास्त्ररूप परममोक्ष तत्व के प्रमाणोंसे सिद्ध होनेपर भी उन gora आदिकोंका असत्य कथन करते रहना किसी एक चार्वाकवादीको विपर्ययज्ञान हो रहा है । मिथ्याज्ञान के अनुसार ही ऐसे तत्र विपरीत रूपसे कथन किये जा सकते हैं। हां, यह विपर्ययज्ञान क्यों है ? इसका उत्तर इतना ही पर्याप्त है कि उन पुण्यःस्रव आदि तत्वोंकी सत्ताका पहिछे प्रकरणों में प्रमाणों द्वारा साधन किया जा चुका है।
एवं तदा मेदेषु प्रमाणसिद्धेषु तत्सत्सु तदसत्ववचनं विपर्ययो बहुधावबोद्धव्यः परीक्षाक्षमधिषणैरित्यळं विचारेण ।
इसी प्रकार उन जीव आदिकोंके भेदप्रमेदरूप अनेक तत्वोंके प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुकनेपर उनका सद्भाव होते सन्ते भी पुन: मिध्यात्ववश उनका असत्व कथन करना, इस ढंगके बहुत प्रकार के विपर्ययज्ञान उन पुरुषोंके द्वारा समझ लेना चाहिये, जिनकी बुद्धि तत्त्व और तस्वाभासोंकी परीक्षा करने में समर्थ है। संक्षेपसे कहनेवाले इस प्रकरणमें मिथ्यापनके अवान्तर असंख्य भेदोंको कहांतक गिनाया जाय । इस कारण विपर्ययपनके विचारसे इतने ही करके पूरा पडो । बुद्धिमानों के प्रतिहार्य कुश्रुतके कतिपय भेदोंका उपलक्षणसे निदर्शन कर दिया गया है।
पररूपादितोशेषे वस्तुन्यसति सर्वथा ।
सत्त्ववादः समाम्नातः पराहार्यो विपर्ययः ॥ १६ ॥
स्वरूपचतुष्टयसे पदार्थोंका सद्भाव होनेपर उनका असत्व कहना ऐसा " तद्वति तदभावप्रकारकज्ञानं विपर्ययः " तो कह दिया है । अब " तदभाववति तत्प्रकारकज्ञानं विपर्ययः " इसको कहते हैं । पररूप यानी परकीय भाव, द्रव्य, क्षेत्र आदिसे संपूर्ण पदार्थोंके असद्भाव होनेपर उनका सर्वथा सद्भाव मानते जाना दुसरा आहार्य विपर्यय भले प्रकार ऋषि आम्नायसे माना हुआ चला आ रहा है । भावार्थ - जैसे कि जळपर्याय हो जानेपर उस पुद्गलकी अग्निपर्याय उस समय नहीं है, फिर भी " सर्व सर्वत्र विद्यते " इस आग्रहको पकडकर सरोवरमें अनिकी सत्ता कहना सांख्योंका विपर्ययज्ञान है । इस विपर्यय अनुसार किसीको चोरी या व्यभिचारका दोष नहीं लगना चाहिये । जब कि सभी खियां या वस्तुयें पूर्वजन्मोंमें सब जीवोंकी हो चुकी है। भोजन या पेय
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तत्वार्यचिन्तामणिः
पदार्थमें रक्त, मांस, मल, मूत्र, आदि भाषी पर्यायें यदि विद्यमान हैं तो किसी भी पदार्थका खाना पीना नहीं हो सकेगा । बडी अव्यवस्था मच जायगी एवं संसारी जीवोंकी वर्तमान में मुक्त अवस्था नहीं होते हुए भी जीवको सर्वदा मुक्त मानते हुए प्रकृतिको ही संसार होना कहना कापिलोंका विपर्यय है ।
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पररूपद्रव्यक्षेत्रकालतः सर्ववस्त्वसत्तत्र कार्त्स्यतः सच्चवचनमाहार्यो विपर्ययः । सबैकान्वावलम्बनात्कस्यचित्प्रत्येतव्यः । प्रमाणतस्तथा सर्वस्यासत्वसिद्धेः ।
स्व न्यारे अन्य पदार्थोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंकी अपेक्षा से सम्पूर्ण वस्तुएं असत् १ 1 घटके देश, देशांश, गुण, और गुणांशोंकी अपेक्षा पट विद्यमान नहीं है । आत्माके स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे बट पदार्थ असत् है । फिर भी वां परिपूर्णरूपसे विद्यमानपनेका कथन करना दूसरा जाहार्य विपर्ययज्ञान हैं। " सर्व सत् " सम्पूर्ण पदार्थोंकी सर्वत्र सत्ताके एकान्त पक्षका अवलम्ब छेने से किसी एक ब्रह्माद्वैतवादी या सदेकान्तवादी पण्डितके यहां हो रहा उक्त विपर्ययज्ञान समझ लेना चाहिये । क्योंकि प्रमाण ज्ञानोंसे तिस प्रकार सम्पूर्ण पदार्थोंका सर्वत्र नहीं विद्यमानपना सिद्ध है । अर्थात्- - आत्मा बटस्वरूपकरके विद्यमान नहीं है। और आकाश आत्मपनेकरके कहीं भी नहीं वर्ष रहा है। परकीय रूपोंकरके किसी भी पदार्थकी कहीं भी सत्ता नहीं है ।
देशतोऽसतोऽसति सभ्य विपर्ययमुपदर्शयति ।
परकीय चतुष्टय से सम्पूर्ण बस्तुओंके असत् होनेपर परिपूर्णरूप से सत्र कथन करनेवाले आहार्य ज्ञानको अभी कह चुके हैं। अब एक देशसे असत् पदार्थका अविद्यमान पदार्थ में विद्यमानपनका कथन करनेवाले विपर्यय ज्ञानको प्रन्थकार दिखलाते हैं ।
सत्यसत्त्वविपर्यासाद् वैपरीत्येन कीर्तितात् । प्रतीयमानकः सर्वोऽसति सत्त्वविपर्ययः ॥ १७ ॥
पहिले ग्यारहवीं कारिका द्वारा सत् पदार्थमें असत् पनेका विपर्ययज्ञान बताया जा चुका है । उस कहे गये विपर्ययज्ञानसे विपरतिपनेकरके प्रतीत किया जारहा यह असत् पदार्थमें सत्पनेको कहनेवाला सभी विपर्ययज्ञान है । भावार्थ ग्यारहवीं वार्तिकसे पन्द्रहवीं वार्त्तिकतक पहिले सदमें reast कहनेवाला विपर्ययज्ञान कहा जा चुका है। किन्तु असद में पूर्णरूपसे या एक देशसे सपने को जाननेवाला यह विपर्ययज्ञान पूर्वोक्तसे विपरीत ( विभिन्न ) है। सत्को असत् कहनेवाढी पहिली प्रक्रियाको विपरीत (उल्टा ) कर यहां असंतुको सत् कहनेवाली प्रकियामें सभी पर सकते हो।
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तचार्यश्लोकवार्तिके
सति ग्राह्मग्राहकभावादौ संविदद्वैताद्यालम्बनेन तदस श्ववचनलक्षणाद्विपर्ययात्पूर्वोक्ताद्विपरीतत्वेनासति प्रतीत्यारूढे ग्रामग्राहकभावादौ सौत्रान्तिकाद्युपवर्णिते सत्ववचनं विपर्ययः प्रपंचतोऽवबोद्धव्यः ।
प्राह्मग्राहकभाव, कार्यकारणभाव, स्थाप्यस्थापकभाव, सूक्ष्मस्थूक भाव, सामान्यविशेषभाव, आदिक धर्मोके होनेपर भी सम्वेदन अद्वैत, ब्रह्म अद्वैत, शद्ध अद्वैत, आदिका पक्ष प्रहण कर लेनेसे उन प्राप्राहकभाव आदिकी असत्ताको कथन करना इस प्रकार लक्षणवाले पूर्वमें कहे गये विपर्यय ज्ञानसे यह निम्नलिखित आहार्य ज्ञान विपरीत हो करके प्रसिद्ध है । सौत्रान्तिक, बौद्ध, नैयायिक, मीमांसक, जैन आदि विद्वानोंकरके कथन किये गये प्राह्मग्राहकमान, कार्यकारणभाव, बाध्यवाचक भाव, आदि धर्मोके प्रतीतिमें आरूढ नहीं होते सन्ते भी पुनः उनकी सत्ताका कथन करमा विपर्ययज्ञान है । यह परमतकी अपेक्षा कथन है । अद्वैतवादियोंके शास्त्रोंमें असत्को सत् कहनेवाले ज्ञान विपर्ययरूपसे माने गये हैं । अन्य भी दृष्टान्त देकर विस्तारसे असत् में सत्को जाननेवाले ज्ञान विपर्यय समझ लेने चाहिये। यहां भी पूर्वोक्त रचना के समान असत् पदार्थमें पूर्णसे और एकदेशसे संवाद लगाकर दृष्टान्त बना लेने चाहिये । सम्पूर्ण पदार्थ सर्वथा नित्य नहीं हैं। उनको अपने शास्त्रों द्वारा सर्वथा नित्य कहे जाना तथा आत्माका आकाशके समान परम महापरिमाण नहीं होते हुये भी इनको सर्वत्र व्यापक कहनेवाले शास्त्रोंपर श्रद्धान कर वैसा जानना आदि विपर्ययज्ञान है । सुदेव सुगुरुके नहीं होते हुये भी कुदेव और कुगुरुमें सुदेव सुगुरूपमेका निश्चय कर बैठना श्रुतविपर्यय है ।
एवमाहार्ये श्रुतविपर्ययनुपदर्श्य श्रुतसंशयं श्रुतानभ्यवसायं चाहार्य दर्शयति ।
इस प्रकार उक्त प्रन्थद्वारा श्रुतज्ञानके आहार्य हो रहे विपर्ययस्वरूप मिथ्याज्ञानको दिखाकर अब श्रुतज्ञानके आहार्यसंशयको और श्रुतज्ञान के यों ही मन चले होनेवाले आहार्य अमध्यव सायको श्री विद्यानन्द आचार्य दिखलाते हैं, सो सुनिये । "बाघकाळीनोत्पन्नेष्ठाजन्यं ज्ञानमाहार्ये" ।
सति त्रिविप्रकृष्टार्थे संशयः श्रुतिगोचरे । केषांचिद्दृश्यमानेऽपि तत्त्वोपप्लववादिनाम् ॥ १८ ॥ तथानध्यवसायोऽपि केषां चित्सर्ववेदिनि ।
तवे सर्वत्र वाग्गोचराहायों ह्यवगम्यताम् ॥ १९ ॥
देश, काल, स्वभाव इन तीनसे व्यवहित हो रहे अर्थके शासद्वारा विषय किये जानेपर reat द्रयदर्शी विद्वानोंकी आत्मा में प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय किये बाप
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तत्वाचिन्तामणिः
पोका सद्भाव होते दुर भी बौद्धवादियों के यहाँ उन त्रिविप्रकृष्ट लयोंमें जो संशय शान हो रहा है, यह बाहार्य संशयज्ञानरूप श्रुतज्ञान है । तथा किन्हीं तत्वोपप्लववादी विद्वानों के यहां प्रत्यक्ष ज्ञानद्वारा देखे जा रहे पृथ्वी, जल, आदि पदार्थोंमें भी तत्वोंके उपप्लव ( अव्यवस्थित ) बादका बांग्रह जम जानेसे शास्त्रोद्वारा संशयबान करा दिया जाता है। अर्थात्-बौद्ध विद्वान् त्रिविप्रकृष्ट पदायोंके सद्भाव का निर्णय नहीं करते हैं। तथा अपने शास्त्रोंद्वारा सुमेरु, स्वयम्भूरमण, राम, रावण, परमाणु, बाकाश, आदि पदार्थोंका सर्वथा निषेध भी नहीं करते हैं। अदृष्ट पदार्थों में एकान्तरूपसे संशय शानको करा रहे हैं, " एकांतनिर्णयात् वर संशयः " । हार जाना, अपमान हो जाना, अनुत्तीर्ण होना, इत्यादिक कार्योंमें एकांतनिर्णयसे संशय बना रहना कहीं अच्छा है", इस नीतिके अनुसार संशयवादी बौद्धोंने त्रिविप्रकृष्ठ अर्थमें अपने शाखों के अनुसार संशय ज्ञान कर लिया है। और तस्योपप्लववादियोंने स्वकीयशासजन्य मिथ्यावासनाद्वारा प्रत्यक्ष योग्य पदार्थों में भी संशयज्ञान ठान लिया है। तिसी प्रकार किन्ही विद्वानों के यहां सर्व तत्वके विषयमें संशयज्ञान और अनध्यवसाय धान भी हो रहा है । " सर्वज्ञ है या नहीं" इस विषयका अमीतक उनको शास्त्रों में संशय रखना ही उपदिष्ट किया है। कोई कोई तो सर्वज्ञका बहानसरीखा अनध्यवसायज्ञान होना अपने शास्त्रोंमें मान बैठे हैं । नास्तिकवादी या विभ्रमकान्तवादी तो सभी तत्वोंमें अनध्यवसाय नामका मिथ्याज्ञान किये बैठे हैं। उक्त कहे गये सभी श्रुतज्ञान के संशय, विपर्यय, अनध्यवसायोंमें पचनके द्वारा विषय हो रहा । आहार्यज्ञान कहा गया है, यह समझ लेना चाहिये । क्योंकि वक्ता या शास्त्र ही शब्दों द्वारा को जाने योग्य श्रुतज्ञानको मिथ्याज्ञानियों के प्रति चलाकर उपदिष्ट कर सकता है। लिखित पा उक्त पचनोंके बिना प्राधाकाळमें हुई इछाप्ते उत्पन होनेवाला आहार्यज्ञान बन नहीं सकता है। . श्रुतविषये देशकालस्वभावविप्रकष्टऽर्थे संशयः सौगतानामहश्यसंशयैकान्तवादावबम्बनादाहार्योऽवसेयः । पृथिव्यादौ श्यमानेऽपि संशया केषांचित्तखोपप्लववादावष्टंमात् । सर्ववेदिनि पुनः संशयोऽनध्यबसायश्च केषांचिद्विपर्ययवादाहार्योऽवगम्यताम् सर्वज्ञामावबादावलेपारसर्वत्र पा तरखे केषांचिदन्योऽनध्यवसायः। संशयविपर्ययवत् "तर्कोऽप्रतिष्ठः भुतयोविभिना नासौ मुनिर्यस्य वचः प्रमाणं । धर्मस्य तवं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः" इति प्रलापमानाश्रयणात् । तथा पलापिनां स्वोक्तामविष्ठानात् तत्पतिष्ठाने पा तथा वचनविरोधादित्युक्तपायं।
सर्वशोक श्रुतद्वारा विषय किये गये देशम्यवहित, कालव्यवहित, और स्वमावष्यवहित अोंमें बौद्ध जनोंको अदृश्य हो रहे पदार्यमें संशय होनेके एकान्तवादका- पक्ष प्रहण कर लेनेसे बाहार्य श्रुतसंशय हो रहा समझ लेना चाहिये । तथा परिदृश्यमान मी पृथ्वी आदि तत्वोंमें किन्हीं किन्ही विद्वानों के यहां तस्योपपप्लववादका कदाग्रह हो जानेसे संशयवान बन बैठता है । फिर प्रमाण सिद्ध सहमें किन्हीं मीमांसकों के एकदेशी पण्डितोंके यहां सर्वज्ञामावको कहनेवाळे पक्षका गाढ लेप
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
हो जानेसे विपर्यय ज्ञानके समान संशय और अनव्यवसाय अज्ञान भी आहार्य हो रहे जान लेने चाहिये । अथवा " सर्ववेदिनि तत्रे " का अर्थ सर्वज्ञ नहीं कर ज्ञानके द्वारा जाने जा रहे सम्पूर्ण इस प्रकार अर्थ करनेपर यों व्याख्यान कर देना कि सम्पूर्ण जीव, पुद्गल आदि तरत्रोंके प्रमाणसिद्ध होनेपर किन्हीं लोकायतिक या तीव्र मिध्यादृष्टि के यहां इस वक्ष्यमाण कोरे प्रलाप (बकबाद) का मात्र आसरा के लेनेसे संशय और विपर्ययके समान अन्य अनध्यवसाय ज्ञान भी सम्पूर्ण तत्वों के विषयमें उपज जाता है । वह मूर्ख अत्रार्मिक, नास्तिक, जनोंका निरर्थक वचन इस प्रकार है कि तर्कशास्त्र या अनुमान कोई सुव्यवस्थित नहीं है, जिससे कि तरत्रोंका निर्णय किया जाय । नित्यपन अनित्यपन आदिके समर्थन करनेके लिये दिये गये कापिक, बौद्ध आदिके अनुमानोंका परस्पर में विरोध है । वेदकी श्रुतियां भी परस्परविरुद्ध हिंसा, अहिंसा, सर्वज्ञ, सर्वज्ञाभाव, विधि, नियोग, भावना आदि विभिन्न अर्थोको कह रहीं हैं। कोई बौद्ध (बुद्ध) कणाद, कपिल, अथवा जिनेन्द्र आदिक ऐसा मुनि नहीं हुआ, जिसके कि वचन प्रमाण मान किये जांय । धर्मका तत्व अंधेरी गुफा में छिपा हुआ रखा है। अतः बडे बडे महान् पुरुष जिस मार्गसे जा चुके हैं वही मार्ग है । महाभारत प्रन्थ में वेदव्यासजीने " कः पन्थाः इस प्रकार राक्षसके जल पी लेने की शर्तमें प्रश्न करनेपर युधिष्ठिर के द्वारा " तर्कोऽप्रतिष्ठः " यह श्लोक कहवाया है। चार्वाक सिद्धान्त अनुसार तिस प्रकार प्रलाप करनेवालों के यहां अपने द्वारा कहे गये तत्रकी मी प्रतिष्ठा नहीं हो पाती है । या फिर भी अपने अभीष्ट हो रहे उन पृथ्वी, आदिक दृश्य तस्त्रोंको ही मानना परलोक, आमा, पुण्य, पाप, आदिको नहीं मानना इस सिद्धान्तकी प्रतिष्ठा करोगे जो कि तर्क, शात्र : (बृहस्पति सूत्र ) बृहस्पति, लौकिक धर्म, लोकप्रसिद्धव्याप्तिके मान लेनेपर ही पुष्ट होता है । तब तो तिस प्रकार के तर्कनिषेध, शास्त्रनिषेध, आप्तमुनिनिषेध, और धर्मकी प्रच्छमता, इस अपने बचनका विरोध हो जायगा, इस बातको हम प्रायः अनेक बार कह चुके हैं। यहाँ यह कहना है कि नास्तिकवादकी ओर झुकानेवाले उक्त प्रलापमात्रका अवग्रम्ब लेकर कोई कोई पुरुष जीव, अजीब, स्वर्ग, पुण्य, पाप, तपस्या, मोक्ष, आदि तत्वों में आहार्य श्रुत अनध्यवसाय नामक ज्ञानको चलाकर उत्पन्न कर लेते हैं, जैसे कि आहार्यसंशय और विपर्ययस्वरूप कुश्रुतज्ञान प्रसिद्ध है।
"
सम्प्रति मतिज्ञान विपर्यय सहजमावेदयति ।
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श्रुत अज्ञानके बलात्कारसे चलाकर इच्छापूर्वक होनेवाले विपर्यय, संशय, और अनध्यव सायको उदाहरणपूर्वक दिखाकर अत्र वर्तमानमें मतिज्ञानके परोपदेश विना ही स्वतः होनेवाले सहज विपर्ययका स्पष्टज्ञान आचार्य महाराज कराते हैं, सो समझियेगा ।
बह्नाद्यवग्रहाद्यष्टचत्वारिंशत्सु वित्तिषु ।
कुतश्चिन्मतिभेदेषु सहजः स्याद्विपर्ययः ॥ २० ॥
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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बहु, अबदु आदि बारह विषयभेदों को जाननेवाले अवग्रह, ईहा, आदि चार ज्ञानोंकी अपेक्षा से हुयी अडताळीस मतिज्ञानकी मेदस्वरूप बुद्धियोंमें किसी भी कारण से निसर्गजन्य विपर्यय ज्ञान हो जाता है । जैसे कि आंखके पलकमें थोडी अंगुली गाढकर देखनेसे एक चन्द्रमाके दो चन्द्रमा दीखने लग जाते हैं। डेरी हथेलीपर चनाके बराबर गोलीको रखकर सीधे हाथकी तर्जनीपर मध्यमा अंगुली को चढाकर दोनों अंगुलियोंके पोटराओं के अप्रभागसे गोलीको घुमानेपर स्पार्शन प्रत्यक्षद्वारा एक गोळीकी दो गोलियां जानी जाती हैं । चाकचक्य, कामल, भ्रमीके वश होकर नेत्रों द्वारा सीपमें चांदीका ज्ञान, शुक्ल पदार्थको पीछा समझना, स्थिर पदार्थोंका घूमते हुये दर्शन होना आदिक सहज कुमतिज्ञान हैं । परोपदेश के अतिरिक्त अन्य कारणोंसे उपज जाना "निसर्गज" कहलाता है । यों कारण के विना तो कोई भी कार्य नहीं हो पाता है । सहज और आहार्य शत्रू अन्य दर्शनों में प्रसिद्ध हैं ।
स्मृतानुभूतार्थे स्मृतिसाधर्म्य साधनः । संज्ञायामेकताज्ञानं सादृश्ये स्थूलदर्शिनः ॥
२१ ॥
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सूत्रकारने स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता ( व्याप्तिज्ञान ) और स्वार्थानुमान भी मतिज्ञानके प्रकार बतलाये हैं । अतः स्मृति आदिकों का भी सहज विपर्ययज्ञान इस प्रकार समझ लेना कि पहिले कालों में नहीं अनुभव किये जा चुके अर्थ में स्मरण किये गये पदार्थ के समानधर्मपनेको कारण मानकर स्मृति हो जाना, स्मरणज्ञानका सइजविपर्यय है । जैसे कि अनुभव किये गये देवदचके समान धर्मवाळे होनेके कारण जिनदत्तमें देवदत्तकी स्मृति कर बैठना सहज कुस्मृतिज्ञानहै । और संज्ञास्वरूप प्रत्यभिज्ञानमें यों समझिये कि स्थूलदृष्टिवाले पुरुषको सदृशता होनेपर एकताका ज्ञान हो जाना प्रत्यभिज्ञानका सहजविपर्यय है । जैसे कि समान आकृतिवाले दो माइयोंमेंसे इन्द्रदत्तके सदृश जिनचन्द्रमें " यह वही इन्द्रदत्त है " इस प्रकार एकत्व प्रत्यभिज्ञान हो, जाता है, यह एकत्वप्रत्यभिज्ञानका सहजविपर्यय है ।
तथैकत्वेऽपि सादृश्यविज्ञानं कस्यचिद्भवेत् ।
सविसंवादतः सिद्धचिंतायां लिङ्गलिङ्गिनोः ॥ २२ ॥
Saur ghanted हुये भी किसी मिथ्याज्ञानी जीवके सदृशपनेको जाननेवाला प्रत्यभिज्ञान हो जाय वह सादृश्यप्रत्यभिज्ञानका विपर्यय है। जैसे कि उसी इन्द्रदत्तको इन्द्रदत्तके सदृश जिनचन्द्र समझ लेना । यों भ्रान्तिज्ञान हो जानेके अनेक कारण हैं। उनके द्वारा उक्त विपर्ययज्ञान उपज जाते हैं । तथा साधन और साध्य के सम्बन्ध में बाधासहितन या निष्फलप्रवृत्तिका जनकपन रूप विसम्बाद हो जानेसे तर्कज्ञानमें वह विपर्ययज्ञान हो जाना प्रसिद्ध है। जैसे कि गर्भमें स्थित हो
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
रहे पांचवें पुत्रका गौरवर्ण ( गोरा रंग ) होते हुये भी " जितने कुछ मित्रा स्त्रीके पुत्र हैं सब श्याम है " इस प्रकार दृश्यमान चार पुत्रों के अनुसार व्याप्ति बना लेना कुचिंताज्ञान है । जहाँ जहाँ अनि होती है, वहां वहां धूप होता है, यह भी अयोगोलक या अंगारमें विसम्बाद हो जानेसे व्याप्तिज्ञानका विपर्यय है ।
हेत्वाभासवलाज्ज्ञानं लिङ्गिनि ज्ञानमुच्यते । स्वार्थानुमाविपर्यासो बहुधा तद्धियां मतः ॥ २३ ॥
हेतु नहीं किन्तु हेतुसमान दीखरहे हेत्वाभासों की सामर्थ्यसे जो साध्यविषयक ज्ञान हो रहा कहा जाता है, वह बहुत प्रकारका उस अनुमानको जाननेवाले विद्वानों के यहां स्वार्थानुमानका विपर्यय माना गया है । जब कि भेदप्रभेद रूपते बहुत प्रकारके हेत्वाभास हैं, तो तज्जन्य अनुपानाभास बहुत प्रकारके होंय यह समुचित ही है। जैसे कि वक्कापन इस असद्धेतुसे श्री अर्हत देव सर्वज्ञपन के अभावको जान लेना अनुमानस्वरूप मतिज्ञानका विपर्यास है । अर्हन् ( पक्ष ) सर्व नास्ति ( साध्यदक) वत्कृत्वात् पुरुषस्त्राद्वा ( हेतु ) रध्यापुरुषवत् ( दृष्टान्त ) इत्यादिक । कः पुनरसौ हेत्वाभासो यतो जायमानं लिङ्गिनि ज्ञानं स्वार्थानुमान विपर्ययः सहजो । मतिः स्मृतिसंज्ञाचिन्तानामिव स्वविषये तिमिरादिकारणवशादुपगम्यते, इति पर्यनुयोगे समासव्यासतो हेत्वाभासमुपदर्शयति ।
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यहां शिष्यका श्री विद्यानन्दगुरुजी महाराजके प्रति सविनय प्रश्न है कि महाराज बतलाओ वह हेत्वाभास फिर क्या पदार्थ है ! जिससे कि साध्यको जानने में उत्पन्न हो रहा ज्ञान स्वार्थानुमा नका सहज विपर्यय कहा जाय ! और जो मतिज्ञान, स्मरणज्ञान, प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिज्ञान, इनके समान वह स्वार्थानुमानका विपर्यय भी अपने विषय में तमारा, कामल आदि कारणों के वशसे हो रहा स्वीकार कर लिया जाय । इस प्रकार प्रतिपाथका समीचीन प्रश्न होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य संक्षेप और विस्तार से स्वाभासका प्रदर्शन कराते हैं ।
हेत्वाभासस्तु सामान्यादेकः साध्याप्रसाधनः ।
यथा हेतुः स्वसाध्येनाविनाभावी निवेदितः ॥ २४ ॥
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सामान्यस्वरूपसे विचारा जाय तब तो " साध्यको बढिया रीति से नहीं साधनेवाला हेतु यह एक ही हेत्वाभास कहा गया है। जैसे कि अपने साध्यके साथ अविनाभाव रखनेवाला सद्धेतु एक ही प्रकारका निवेदन किया गया है। अर्थात् - साध्य के साथ अविनाभाबीपन करके निश्चित किया गया जैसे सामान्य रूपसे सद्धेतु एक प्रकार है, उसी प्रकार अपने साध्यको अच्छे ढंग से नहीं साधनेवाला देवाभास भी एक प्रकारका है। यही हमारा ग्रन्थकारका सिद्धान्त है ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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त्रिविधोऽसावसिद्धादिभेदात्कैश्चिद्विनिश्चितः ।
खरूपाश्रयसंदिग्धाज्ञातासिद्धश्चतुर्विधः ॥२५॥
हां, किन्हीं जैन विद्वानोंकरके यह हेस्वाभास असिद्ध, विरुद्ध, और अनेकान्तिक इन भेदोंसे तीन प्रकारका विशेषरूपसे निषित किया गया है । तिनमें असिद्ध नामका हेत्वामास तो स्वरूपा. सिद्ध, बाश्रयासिद्ध, संदिग्धासिद्ध और अज्ञातासिद्ध इन भेदोंसे चार प्रकारका माना गया है। अस्तु ।
तत्र स्वरूपतोऽसिद्धो वादिनः शून्यसाधने । .. सवों हेतुर्यथा ब्रह्मतत्त्वोपप्लवसाधने ॥ २६ ॥
उन असिद्ध हेत्वामासके भेदोंमें वादीके यहां स्वरूपसे असिद्ध हो रहा हेवामास इस प्रकार है कि जैसे शून्यवादको साधनेमें सभी हेतु स्वरूपासिद्ध हो जाते हैं । अथवा अद्वैत ब्रमको साधने में दिया गया प्रतिभासमानस्व हेतु अपने स्वरूपसे असिद्ध है । साध्य के साथ अविनामाव रखते हुये हेतुका पक्षमें ठहरना स्वरूप है । जो कि अभावरूपत्व, अविचार्यमाणस्व, प्रतिमासमानत्व हेतुओंमें नहीं घटित होता है। तस्योपप्लववादियों द्वारा तखोंका विचार के उत्तर कालमें व्युत हो जानेपनको साधने के लिये प्रयुक्त किये गये सभी हेतु स्वरूपासिद्ध हैं। अर्थात्-विचार करनेपर निर्दोष कारकों के समुदायकरके उत्पत्ति हो जानेसे, बाधारहितपनेसे, प्रवृत्ति सामर्थ्यसे, अथवा अन्य प्रकारोंसे, प्रमाण तख व्यवस्थित नहीं हो पाता है । प्रमाणके विना प्रमेयतत्वोंकी व्यवस्था नहीं । अतः तखोपप्लव सिद्धान्त व्यवस्थित है। यह उपप्लववादियोंका अविचार्यमाणस्य हेतु प्रमाण, प्रमेय, आदि तत्त्वोंमें मही विषमान है । या विचार्यमाणत्व हेतु तखोपप्लवमें घटित नहीं होता है। अतः स्वरूपासिद्ध हेत्वामास है । पक्षे हेस्वभावः स्वरूपासिद्धिः ॥ सत्त्वादिः सर्वथा साध्ये शरभंगुरतादिके।
... स्थाद्वादिनः कथंचिन सर्वथैकान्तवादिनः ॥२७॥
बौद्धोंके द्वारा शद्वमें सर्वथा क्षणभङ्गुरपना, अणुपना, असाधारणपना, आदिके साध्य करनेपर दिये गये सस, कृतकत्व, बादिक हेतु स्वरूपासिद्ध हैं । सभी प्रकारोंसे क्षणिकपन, अणुपम, असाधारणपनके एकातिपक्षका कथन करनेवाले बौद्धोंके वे हेतु असद्धेतु है। हो, कथंचित क्षणिकपन आदिको साध्य करनेके लिये दिये गये स्याद्वादियों के यहां सव आदिक हेतुं.लो स्वरूपासिद्ध हत्यामास नहीं है, किन्तु समीचीन हेतु है।
शद्वाद्विनश्वराद्धेतुसाध्ये चाऽकृतकादयः । हेतवोऽसिद्धतां यान्ति बौद्धादेः प्रतिवादिनः ॥ २८ ॥
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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
बौद्ध नैयायिक आदि प्रतिवादियों के यहां हेतु द्वारा शद्वका विनश्वरपना साध्य करने में बोले गये अकृतकपन, प्रत्यभिज्ञायमानपन आदिक हेतु असिद्धपनेको प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात्-शब्द के विनश्वरपनकी अपेक्षा कर ( ल्यव् लोपे पञ्चमी ) प्रयुक्त किये गये अकृतकपन आदि हेतु तो प्रतिवादियोंके असिद्ध हेत्वाभास है। शब्द में नित्यपना सिद्ध करनेके लिये बौद्धों के प्रति यदि अकृतकपन हेतु कहा जायगा, तो बौद्ध उस हेतुको स्वरूपासिद्ध ठहरा देवेंगे ।
जैनस्य सर्वथैकान्तधूमवत्त्वादयोऽभिषु ।
साध्येषु तवोsसिद्धा पर्वतादौ तथामितः ॥ २९
पर्वत, महानस आदि पक्षोंने अग्नियोंके साध्य करनेपर सर्वथा एकान्तरूप से घूमसहितपन या उष्ण सहितपन आदिक हेतु तो जैनोंके यहां असिद्ध हेत्वाभास हो जाते है। क्योंकि पर्वत सभी अवयवों में एकान्तरूपसे धूमवाला नहीं है। सच पूछो तो अखंड रेखावाला धूम तो पर्वतके ऊपर आकाशमें है । तथा धूमके अतिरिक्त अन्य तृग, तरु, पत्थर भी पर्वत में विद्यमान है। अतः • जैनोंके प्रति कहा गया सर्वया धूमवस्त्र हेतुस्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । तथा पर्वत में अग्निहेतुसे ही अग्निको साम्य करनेपर स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । साध्यसम होनेसे हेतुका अविनाभावी स्वकीयरूप बंद हो रहा है । जब अग्नि नामक साध्य असिद्ध है तो उसका पक्षमें ठहरना भी असिद्ध है ।
शब्दादौ चाक्षुषत्वादिरुभयासिद्ध इष्यते ।
निःशेषोऽपि यथा शून्यब्रह्माद्वैतप्रवादिनोः ॥ ३० ॥
शब्द, रस आदि पक्ष अनित्यपनको साध्य करनेपर दिये गये चक्षु इन्द्रियद्वारा प्राय होना या नासिका इन्द्रियकरके विषय हो जाना इत्यादिक हेतु तो वादी, प्रतिवादी दोनोंके यहां असिद्ध त्वामास माने गये हैं। जैसे कि शून्यवादी और ब्रह्मा अद्वैतवादी दोनों वादी प्रतिवादियोंके यहां सभी हेतु दोनोंकी अपेक्षासे असिद्ध है । अर्थात चाहे शून्यवादी अपने अमीष्ट मतको सिद्ध करने के छिए, ब्रह्म अद्वैतवादियोंके प्रति कोई भी हेतु प्रयुक्त करें, ब्रह्म अद्वैतवादी शून्यवादीके ऊपर असिद्ध यामास दोष उठा देखेंगे । तथा शून्यवादी भी ब्रह्म अद्वैतवादीके हेतुको असिद्ध ठहरा देखेंगे । एक ही हेतु दोनों के मत अनुसार स्वरूपासिद्ध हो जायेगा ।
. वाद्यसिद्धौ प्रसिद्धौ च तत्र साध्यप्रसाधने । समर्थनविहीनः स्यादसिद्धः प्रतिवादिनः ॥ ३१ ॥
प्रकरण में साध्यको मके प्रकार साधनेमें प्रसिद्ध हो जानेपर भी यदि हेतुप्रयोका बादीके द्वारा बिल देतुकी सिद्धि नहीं हुई है तो " हेतोः स्ववाध्येन व्यामि प्रसाध्य पक्षे विप्रदर्शनं समर्थ "
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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हेतुकी साध्य के साथ व्याप्तिको अव्यभिचार युक्त साधकर पक्ष में वृत्ति दिखादेनारूप समर्थन करके विरहित होता हुआ वह हेतु प्रतिवादी विद्वान् के यहां असिद्ध हेत्वाभास समझा जायगा । अतः वादीको उचित है कि प्रतिवादीके सन्मुख अपने इष्ट हेतुका समर्थन करें । इस प्रकार कई ढंग से स्वरूपासिद्ध हेत्वाभासों का यहां प्रतिपादन किया है। विशेषज्ञ विद्वान् ग्रन्थको शुद्ध करते हुये अधिक प्रमेयकी शप्ति कर लेवें । " न हि सर्वः सर्ववित् " ।
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तोर्यस्याश्रयो न स्यात् आश्रयासिद्ध एव सः । स्वसाध्येनाविनाभावाभावाद्गमको मतः ॥ ३२ ॥ प्रत्यक्षादेः प्रमाणत्वे संवादित्वादयो यथा । शून्योपप्लवशद्वाद्यद्वैतवादावलम्बिनां ॥ ३३ ॥
अब आश्रयासिद्धको कहते हैं कि जिस अनुमानमें पडे हुये हेतुका आधार ही सिद्ध नहीं होवे वह हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास होगा । अपने साध्यके साथ अन्यथानुपपत्ति नहीं होने के कारण वह हेतु अपने साध्यको नहीं समझानेवाला माना गया है। जैसे कि शून्य तत्वोपप्लव, शद्व अद्वैत, ब्रह्म अद्वैत, आदिके पक्ष परिग्रहका अवलम्ब करनेवाले विद्वानों के यहां प्रत्यक्ष, अनुमान आदिको प्रमाणपना साधनेपर सम्वादपिन, प्रवृत्तिजनकपन, आदिक हेतु आश्रयासिद्ध हो जाते हैं । भावार्थ- नैयायिक या ममिांसक विद्वान् यदि शून्यवादी आदिके प्रति प्रत्यक्ष आदिकोंकी प्रमाणताको सम्पादपिन हेतु से साधेंगे तो उनके सम्वादित्व हेतुपर शून्यवादीद्वारा अश्रयासिद्ध हेत्वाभासपने का उपालम्भ दे दिया जायगा । 'पक्षे पक्षतावच्छेदकस्य भाव आश्रयासिद्धि:' । वाश्रयासिद्धका वर्णन हो चुका, अब संदिग्ध सिद्धको कहते हैं।
संदेहविषयः सर्वः संदिग्धासिद्ध उच्यते ।
यथागमप्रमाणत्वे रुद्रोक्तत्वादिरास्थितः ॥ ३४ ॥
संदेहका विषय जो हेतु है, वह सभी संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास कहा जाता है । जैसे कि आगमको प्रमाणपना साधने में दिये गये रुद्रके द्वारा कहा गयापन, बुद्धके द्वारा कहा गयापन, इत्यादिक हेतु संदिग्वासिद्धपने करके व्यवस्थित हो रहे हैं। क्योंकि प्रतिवादीके यहां आगमका रुद्द करके कहा गयापन और रुद्रोपनका प्रमाणपन के साथ अविनाभाव ये निर्णीत नहीं है, संदिग्ध है । अत एव असिद्ध हैं। " पश्चांशवृत्तिहेत्वभावसंशयविषयत्वं संदिग्वासिद्धिः " |
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सन्नप्यन्नायमानोऽत्राज्ञातासिद्धो विभाव्यते ।
सोगतादेर्यथा सर्वः सखादिः स्वेष्टसाधने ॥ ३५ ॥
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तत्वार्ययोकवार्तिके
न निर्विकल्पकाध्यक्षादस्तिहेतोर्विनिश्चयः । तत्पृष्ठजाद्विकल्पाचावस्तुगोचरतः क सः ॥ ३६ ॥ अनुमानान्तराद्धेतुनिश्चये चानवस्थितिः। परापरानुमानाना पूर्वपूर्वत्र वृत्तिः ॥ ३७॥
संदिग्धासिद्धको कहकर अब चौथे अज्ञातासिद्धको कहते हैं । यद्यपि हेतु विद्यमान हो रहा है। फिर भी प्रतिवादकेि द्वारा यदि नहीं जाना जा रहा है, ऐसे प्रकरणमें वह हेतु अज्ञातासिद्ध हस्वाभास निर्णीत किया जाता है। जैसे कि बौद्ध आदि विद्वानोंके द्वारा अपने अभीष्ट हो रहे क्षाणीकत्व आदिक साध्यको साधने में प्रयुक्त किये गये सत्व, परिच्छेद्यस्व, आदिक समी हेतु अज्ञातासिद्ध हेस्वाभास है। अथवा सौगतकी अश्वासे वे हेतु सभी हेत्वाभास है। क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्षले तो हेतुका विशेषरूपसे निश्चय होता नहीं है । बौद्धोंके यहां प्रयक्षज्ञान निश्चय इप्तिको नहीं करा सकनेवाला माना गया है। और उस निर्विकल्पक ज्ञान के पश्चात् उत्पन्न हुये विकल्पक ज्ञानसे भी हेतुका निश्चय नहीं हो सकता है। क्योंकि विकल्पकज्ञान वस्तुभूत अर्थको विषय नहीं कर पाता है। ऐसी दशामें बौद्ध प्रतिवादियों को भला नैयायिकोंके सत्त्र आदि हेतुओंका वह निमय कहाँ हुषा ! यदि अन्य अनुमानोंसे हेतुका निश्चय होना माना जावेगा तो बौद्ध अनवस्था दोष उठा देखेंगे। क्योंकि व्याप्ति ग्रहण के लिये अथवा अनुमानमें पडे हुये हेतुओंका निश्चय करनेके लिये उत्तरोतर होनेवाले अनेक अनुमानोंकी पूर्व पूर्वके हेतुओंको जाननेमें धारावाहिनी प्रवृत्ति होवेगी, यह अनवस्था दोष हुआ । अतः जिस हेतुको प्रतिवादी नहीं जान सकता है वह वादीके ऊपर अज्ञातासिद्ध हेत्वाभासका उद्भाबन कर देता है । न्याय करता है कि हेतुका ज्ञान तो प्रतिवादीको अवश्य करा दिया जाय । " पक्षवृत्तिहेतुविषयकवानाभावोऽझातासिद्धिः " ।
ज्ञानं ज्ञानान्तराध्यक्षं वदतोनेन दर्शितः ।
सों हेतुरविज्ञातोऽनवस्थानाविशेषतः ॥ ३८ ॥ . नैयायिक कहते हैं " आत्मसमवेतानन्तरज्ञानप्राह्यमर्थ ज्ञानं " वात्मामें समवाय सबन्धसे उत्पन्न हुये अव्यवहित उत्तर कालवी ज्ञानके द्वारा पूर्वक्षणवर्ती अर्थ ज्ञानको जानकिया जाता है। "ज्ञान हानानन्तरवेद्यं प्रमेयत्वाद घटवत् " । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार पूर्वज्ञानका अन्य ज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष हो जाना कहनेवाले नैयायिकका हेतु मी मातासिद्ध है, यह इस उक्त कथन करके दिखला दिया गया है । क्योंकि पक्षमें पडे हुरे ज्ञानको जानने के लिये और तस्वरूप मान
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प्रमेयको जाननेके लिये स्वयं वही ज्ञान तो समर्थ नहीं है ।' अन्य ज्ञानोंकी कल्पना करते करते उसी प्रकार नैयायिकों के यहां अनवस्था दोष आता है। कोई अन्तर नहीं है ।
अर्थापत्तिपरिच्छेद्यं परोक्षं ज्ञानमादृताः ।
सर्वं येते ऽप्यनेनोक्ता स्वाज्ञातासिद्धहेतवः ॥ ३९ ॥
मीमांसक जन प्रत्यक्ष हो रही ज्ञातता करके करणमानको अर्थापत्ति द्वारा जानते हैं । मीमांसकों के यहां करण आत्मक प्रमाण ज्ञान परोक्ष सादर माना गया है । अतः अर्थापत्ति द्वारा जानने योग्य परोक्ष ज्ञानका जो आदर किये हुये बैठे हैं, वे मीमांसक भी इस उक्त कथन करके दोष युक्तका प्रतिपादन करनेवाले कह दिये गये हैं । उन नैयायिक और मीमांसकोंके द्वारा ज्ञानको जानने के लिये दिये गये हेतु तो स्वयं उनके ही द्वारा ज्ञात नहीं हैं। मका प्रतिवादीको क्या ज्ञात होंगें ? अतः परिच्छेद्यत्व या ज्ञातता आदिक हेतु अज्ञातासिद्ध हेत्वाभास हैं ।
प्रत्यक्षं तु फलज्ञानमात्मानं वा स्वसंविदम् ।
प्रायया करणज्ञानं व्यर्थं तेषां निवेदितं ॥ ४० ॥
जिन प्रभाकर मीमांसकोंके यहां फलज्ञान तो प्रत्यक्ष माना गया है, और प्रमितिके करण होरहे प्रमाणज्ञानको परोक्ष मानलिया है, अथवा जिन भट्ट मीमांसकों के यहां प्रमिति कर्त्ता आत्माका तो स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष हो जाना इष्ट किया है, और प्रमाणज्ञानको परोक्ष माना है, उन मीमांसकोंके यहां प्रमाके पूर्व में करणज्ञानका व्यर्थ ही निवेदन किया गया है। क्योंकि परोक्ष करणज्ञान के बिना भी अर्थका प्रत्यक्ष हो जाना प्रत्यक्ष हो रहे आत्मा या फळज्ञानसे बन जाता है । यदि करण के बिना क्रियाकी निष्पत्ति नहीं होती है, अतः परोक्ष भी करणज्ञानकी मध्यमें कल्पना करोगे तब तो आत्मा या फलज्ञानको प्रत्यक्ष करनेमें भी न्यारा करणज्ञान मानना पडेगा । किन्तु मीमांसकोंने करणके बिना भी उक्त प्रत्यक्ष होते हुये मान लिये हैं । अब अर्थकी प्रमिति करनेमें मी परोक्ष करणज्ञान मानना व्यर्थ ही पडता है । अतः परोक्षज्ञानकी सिद्धि करने में दिये गये हेतु मी अज्ञातासिद्ध हेत्वाभास हैं ।
प्रधानपरिणामत्वादचेतनमितीरितम् ।
ज्ञानं यैस्ते कथं न स्युरज्ञातासिद्धहेतवः ॥ ४१ ॥
कपिक मत अनुपायियोंने आत्माका स्वभाव चैतन्य माना है और बुद्धिको जड प्रकृतिका विवर्त इष्ट किया है, ऐसी दशा में सांख्योंने अनुमान " ज्ञानमचेतनं प्रधानपरिणामित्वात् घटवत् कहा है। अर्थात् ज्ञान पक्ष ) अचेतन है ( साध्य ) सत्वगुण रजोगुण और तमोगुणकी
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साम्य अवस्थारूप प्रकृतिका परिणाम होनेसे ( हेतु ) जैसे कि घट ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार जिन कापिकोंने प्रवान परिणामित्व, उत्पत्तिमत्व आदि हेतु दिये हैं वे हेतु मका asarसिद्ध त्वामास क्यों नहीं हो जायेंगे ! जैन, मीमांसक, नैयायिक, आदि कोई भी प्रतिवादी विचारा ज्ञानको प्रधानका परिणाम या उत्पत्तिमस्त्रकी अचेतनत्व के साथ व्याप्तिको नहीं जान चुका है। हेतुको जाने विना साध्यकी ज्ञप्ति नहीं हो सकती है । इस प्रकार निरूपण कर दिया गया है।
असिद्ध हेत्वाभासके चार भेदोंका
प्रतिज्ञार्थैकदेशस्तु स्वरूपासिद्ध एव नः । शो नाशी विनाशित्वादित्यादि साध्यसन्निभः ॥ ४२ ॥
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जो हेतु प्रतिज्ञार्थका एकदेश होता हुआ असिद्ध हो रहा है । अर्थात्-पक्ष और साध्यके वचनको प्रतिज्ञा कहते हैं। निगमनसे पूर्वका तक प्रतिज्ञा असिद्ध रहती है। यदि कोई असिद्ध प्रतिज्ञा के विषयभूत अर्थके एकदेशपक्ष या साध्यको ही हेतु बना देवे तो वह हेतु प्रतिज्ञार्थ एकदेश असिद्ध हो जाता है । यह दोष तो हम स्याद्वादियों के यहां स्वरूपासिद्ध ही कहा जाता है । किन्तु यह कोई नियत हेत्वाभास नहीं है । पचके सामान्यको धर्मी बनाकर और विशेषको हेतु बना वे पर वह सद्धेतु माना गया है । हो " शब्दो नाशी विनाशित्वात् " " ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वात् शब्द ( पक्ष ) नाश होनेवाला है ( साध्य ), क्योंकि विनाशशील है ( हेतु ) । ज्ञान ( पक्ष ) प्रमाण है ( साध्य ) प्रमाण होनेसे ( हेतु ), इय़ादिक स्थळेपर साध्योंको हेतु बना लेनेपर तो साध्यसमत्वाभास हैं। " साध्येनाविशिष्टः साधनीयत्वात्साध्यसमः " जो कि स्वरूपासिद्धमें ही गर्भित हो जाते हैं। जब कि शब्द में नाशपना सिद्ध नहीं है तो विनाशित्वपना हेतु शब्दमें स्वयं नहीं रहा । अतः विनाशित्व हेतु स्त्ररूपासिद्ध हेत्वाभास है ।" पचतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन स्वभावो भागासिद्धिः । साध्यव्याप्यतावच्छेदकरहितो देतुः सोपाधिको वा हेतुर्व्याप्यत्वासिद्धः ।
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भागासिद्ध, व्याप्यत्वासिद्ध, व्यर्थविशेषणासिद्ध आदि भेद इन्हीं भेदोंमें गतार्थ हो जाते है । यहांतक असिद्ध हेत्वाभासको कह दिया है । अब विरुद्धहेत्वाभासको कहते हैं ।
यस्साध्यविपरीतार्थो व्यभिचारी सुनिश्चितः । स विरुद्धोऽव बोद्धव्यस्तथैवेष्टविघातकृत् ॥ ४३ ॥ सत्त्वादिः क्षणिकत्वाद यथा स्याद्वादविद्विषां । अनेकान्तात्मकत्वस्य नियमात्तेन साधनात् ॥ ४४ ॥
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जो हेतु या साध्यसे विपरीत अर्थके साथ व्याप्तिको रखता है, वह विरुद्ध हेत्वाभास समझना चाहिये । तिस ही प्रकार विरुद्धके साथ व्याप्त होनेके कारण वह हेतु इष्ट साध्यका विघात कर देता है । जैसे कि स्याद्वादका विशेष द्वेष करनेवाले बौद्धोंके द्वारा क्षणिकपन, असाधारणपन आदिको साधने में प्रयुक्त किये गये सत्व प्रमेयत्व आदिक हेतु विरुद्ध हैं। क्योंकि उन सत्व आदि हेतुओं करके नियमसे नित्य अनित्यरूप या सामान्य विशेषरूप अनेक धर्म आत्मकपनेकी सिद्धि होती है । जतः अमीष्ट साध्य हो रहे सर्वथा क्षणिकपनके विपरीत कथंचित् क्षणिकपनके साथ व्याप्ति रखने वाळा होनेसे सखहेतु विरुद्ध है । विरुद्ध हेतु प्रायः व्यभिचार दोषवाले भी भळे प्रकार निश्चित हो रहे हैं। व्यभिचार और विरुद्धका भाईचारेका नाता है। विपक्षमें रहना व्यभिचार है । साध्यसे विपरीत के साथ व्याप्ति रखनेवाला विरुद्ध है । अतः अनेक स्थलोंपर इन दोनों हेत्वाभासोंका सांकर्य हो जाता है ।
सामर्थ्यं चक्षुरादीनां संहतत्वं प्रसाधयेत् । परस्य परिणामित्वं तथेतीष्टविघातकृत् ॥ ४५ ॥ अनुस्यूतमनीषादिसामान्यादीनि साधयेत् । तेषां द्रव्यविवर्त्तत्वमेवमिष्टविघातकृत् ॥ ४६ ॥ विरुद्धान्न च भिन्नोऽसौ स्वयमिष्टाद्विपर्यये । सामर्थ्यस्याविशेषेण भेदवादिप्रसंगतः ॥ ४७ ॥
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चक्षु, रसना आदि इन्द्रियोंका संहतपना हेतु उनकी सामर्थ्यको भले प्रकार सिद्ध कर देवेगा, इस प्रकार कापिकोंद्वारा मानी गयीं ग्यारह इन्द्रियोंका दृढरूपसे मिल जाना आत्माकी सामर्थ्यको साता है, यह ठीक है । इन्द्रियां जो कार्य कर रही है वह आत्माकी सामर्थ्य से कर रही है । किन्तु ऐसी दशा में दूसरे सांख्योंकी आत्मका परिणामीपन भी सिद्ध हो जावेगा । किन्तु सांख्योंने आमाको कूटस्थ माना है । अतः तिस प्रकार अनुमान करनेपर वह हेतु सांख्योंके इष्ट हो रहे कूटस्थपनका विघात कर देता है । तथा अन्ययरूपसे ओत पोत हो रहीं बुद्धि आदिके सामान्य बेतनपन आदिको भी वह संहतपना हेतु साध देवेगा । वे बुद्धि, सुख आदिक स्वभाव आत्मद्रव्यके ही पर्याय हैं । अतः सांख्यों के इष्टसिद्धान्तका विघात करनेवाला वह हेतु हुआ । तिस कारण स्वयं सांख्यको इष्ट हो रहे साध्यसे विपर्ययको साधने में अभिमुख हो रहा वह हेतु विरुद्धहेत्वाभाससे मित्र नहीं है । जिस पदार्थकी सामर्थ्यका परिवर्तन होता रहता है, वह पदार्थ परिणामी है । सामर्थ्य और सामर्थ्यवान् में कोई विशेषता नहीं है । यदि शक्ति और शक्तिमान् में भेद माना जायगा तो आप सांख्योंको
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तरवार्य लोकवार्तिके
भेदवादी नैयायिक या वैशेषिक हो जानेका प्रसंग होगा । अतः चक्षु आदिकोंकी नित्य सामर्थ्यको साधनेवाला संतपना हेतु विरुद्धहेत्वाभास है । न्यायशास्त्र के अन्तस्तकको जाननेवाले विशेषज्ञ विद्वान् यहां अर्थको परिशुद्ध कर देवें । मैंने अपनी लघुबुद्धिद्वारा क्षयोपशम अनुसार वाक्योंका उपस्कार कर अर्थ लिख दिया है ।
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विवादाध्यासितं धीमद्धेतुकं कृतकत्वतः ।
यथा शकटमित्यादिविरुद्धो तेन दर्शितः ॥ ४८ ॥ यथा हि बुद्धिमत्पूर्वं जगदेतत्प्रसाधयेत् । तथा बुद्धिमतो तोरनेकत्वशरीरिताम् ॥ ४९ ॥ स्वशरीरस्य कर्त्तात्मा नाशरीरोऽस्ति सर्वथा । कार्मणेन शरीरेणानादिसम्बन्धसिद्धितः ॥ ५० ॥ यतः साध्ये शरीरे स्वे धीमतो व्यभिचारता । जगत्कर्तुः प्रपद्येत तेन हेतोः कुतार्किकः ॥ ५१ ॥ कान्तिको हेतुसम्भवान्नान्यथा तथा ।
संशीतिं विधिवत्सर्वः साधारणतया स्थितः ॥ ५२ ॥
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ईश्वरको जगत्का कर्त्ता माननेवाले वैशेषिकोंका अनुमान है कि घडा, वस्त्र किवाड आदि का तो चेतनकर्ता प्रसिद्ध ही है । किन्तु विवाद में प्राप्त हो रहे पृथ्वी, पर्वत, शरीर, सूर्य, चंद्रमा आदि पदार्थ भी ( पक्ष ) बुद्धिमान चेतनको हेतु मानकर उत्पन्न हुये हैं (साध्य ), अपनी उत्पत्ति में दूसरोंके व्यापारकी अपेक्षा रखनेवाले कृतकभाव होनेसे ( हेतु ), जैसे कि गाडी ( अम्बयदृष्टान्त ) | आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारके उस नैयायिक या वैशेषिकद्वारा दिये गये अन्य भी कार्यव
चेतनोपादानत्व, आदिक हेतु विरुद्वहेत्वाभास दिखला दिये गये हैं। क्योंकि उक्त हेतु अपने अभीष्ट बुद्धिमान कर्तापनेसे विपरीत कारणमात्र जन्यत्व के साथ व्याप्तिको धारते हैं । आप विचारिबे कि जिस प्रकार वह हेतु इन जगत्को बुद्धिमान कारणले जन्यपना भले प्रकार सावेगा, उसी प्रकार घट, पट, गाडी आदि दृष्टान्तोंकी सामर्थ्य से उस बुद्धिमान् कारणके अनेकपन और शरीरसहितपन को मी साधेगा, जो कि नैयायिकों को इष्ट नहीं है । पहिले अन्य शरीरसे सहित होता हुआ ही आत्मा अपने शरीरका कर्ता होता है। शरीरसे रहित मुक्तात्मा तो सभी प्रकारोंसे अपने शरीरका क
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तवायचिन्तामणिः
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नहीं है । कारण कि अनादिकालसे ज्ञानावरण आदि कर्मोंका समुदायस्वरूप कार्मण शरीरके साथ संसारी आमाका सम्बन्ध हो जानेकी सिद्धि हो रही है । अतः उस जगत्को बनानेवाले बुद्धिमान् के अपने शरीर के साध्य करनेपर उस शरीरसे ही व्यभिचार दोष प्राप्त हो जाता है। अर्थात् बुद्धिमा• नूने जिस शरीरसे जगत्को बनाया वह शरीर बुद्धिमान्का बनाया हुआ नहीं है, किन्तु कृतक है । अतः हेतुका प्रयोक्ता नैयायिक न्याय या तर्कको जाननेवाला नहीं है। वह कुतार्किक समझने योग्य है । उसका हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास है । अन्य प्रकारोंसे तिस प्रकार बुद्धिमान् पूर्वक पने के सिद्ध हो जाने की सम्भावना नहीं है । अथवा विपक्ष में हेतुके वर्तनेकी सम्भावना हो जाने से वह विरुद्ध हेतु अनेकान्तिक हेत्वाभास समझना चाहिये । अन्यथा विपक्ष में वृत्ति नहीं होनेपर तिस प्रकार अनेकान्तिक नहीं है। पक्षमें वृत्तिपन की विधि के समान विपक्ष में वर्तने के संशयको धारनेवाले सभी हेतु साधारणपनेकरके व्यवस्थित हैं । साधारण, व्यभिचार, अनैकान्तिक, इन शब्दोंका अर्थ एक ही है ।
शद्वत्व श्रावणत्वादि शद्वादौ परिणामिनि ।
साध्ये हेतुस्ततो वृत्तेः पक्ष एव सुनिश्चितः ॥ ५३ ॥ संशीत्यालिङ्गिताङ्गस्तु यः सपक्षविपक्षयोः । पक्षे स वर्तमानः स्यादनैकान्तिकलक्षणः ॥ ५४ ॥ तेनासाधारणो नान्यो हेत्वाभासस्ततोऽस्ति नः । तस्यानैकान्तिके सम्यग्धेतौ वान्तर्गतिः स्थितिः ॥ ५५ ॥ प्रमेयत्वादिरेतेन सर्वस्मिन्परिणामिनि ।
साध्ये वस्तुनि निर्णीतो व्याख्यातः प्रतिपद्यतां ॥ ५६ ॥
शद्व आदिक पक्षमें परिणामीपन साध्य करनेपर दिये गये शद्वत्व, श्रवणइन्द्रिय द्वारा प्राह्यत्व, भाषावर्गणानिष्पाद्यत्व आदिक हेतु यदि पक्षमें ही साध्यके साथ अविनामावी होकर वृत्तिपनेसे म प्रकार निश्चित हैं, तब तो वे सब सद्धेतु ही हैं। हां, जो सपक्ष और विपक्ष में वर्तनेके संशय करके जिन हेतु के शरीरका आलिंगन कर लिया गया है, वह हेतु यदि पक्ष में वर्तमान होगा तो अनैकान्तिकत्वाभासके कक्षणसे युक्त समझा जावेगा । तिस कारण हम स्याद्वादियोंके यहाँ साधारण या अनैकान्तिकसे भिन्न कोई दूसरा असाधारण नामका हेत्वाभास नहीं माना गया है। वैशेषिकों के द्वारा माने गये उस असाधारण हेत्वाभासका अन्तर्भाव अनैकान्तिकमें अथवा समीचीन देतुमें हो
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
जाता है। यह जैनोंकी व्यवस्था है । भावार्थ-वैशेषिकोंने अनेकान्तिक हेत्वामासके साधारण, असाधारण, अनुपसंहारी, ये तीन भेद किये हैं। जो हेतु सपक्ष और विपक्षमें वर्त जाता है, वह साधारण है तथा जो सपक्ष और विपक्ष दोनोंसे व्यावृत्त है, वह असाधारण हेत्वाभास है। जिसका अमाव नहीं हो सके ऐसे केवलान्वयी पदार्थको पक्ष बनाकर जो हेतु दिया जाता है, वह अनुपसंहारी है। प्रकरणमें यह कहना है कि असाधारण नामका हेत्वाभास कोई नहीं है । विपक्षमें हेतुका नहीं रहना तो अच्छा ही है । हां, सपक्षमें यदि हेतु नहीं रहता है तो कोई क्षति नहीं है, मन्वयदृष्टान्तके विना भी सद्धेतु हो सकते हैं । तभी तो नव्य नैयायिकोंने इसको हेवामास नहीं माना है । इस कथन करके सम्पूर्ण वस्तुओंमें परिणामीपनको साध्य करनेपर दिये गये प्रमेयत्व, सख आदिक हेतु भी कोई अनुरसंहारी हेत्वाभास नहीं हैं । उनका भी समीचीन हेतु या बनेकान्तिक हेस्वाभासमें अन्तर्भाव हो जाता है । यह निणीतरूपसे व्याख्यान कर दिया गया समझ बेना चाहिये । प्रन्थकी आदिमें कही गयी सातवीं वार्तिकके भाष्यमें " असाधारण" का विचार करा दिया है। साध्यके साथ अविनामाव सम्बन्ध हो जाना ही सद्धेतुका प्राण है।
पक्षत्रितयहानिस्तु यस्यानैकान्तिको मतः। केवलव्यतिरेकादिस्तस्यानैकान्तिकः कथं ॥ ५७ ॥ व्यक्तात्मनां हि भेदानां परिमाणादिसाधनम् । एककारणपूर्वत्वे केवलव्यतिरेकि वः ॥ ५८ ॥ कारणत्रयपूर्वत्वात्कार्येणानन्वयागते । पुरुषैर्व्यभिचारीष्टं प्रधानपुरुषैरपि ॥ ५९॥ .
जिस दार्शनिकके यहां पक्ष, सपक्ष, विपक्ष इन तीनों ही पक्षों में हेतुकी हानि यानी नहीं वर्तना अनैकान्तिकका लक्षण माना गया है, उस दार्शनिकके यहां केवळव्यतिरेक या फेवकान्वयको धारनेवाले कोई कोई हेतु अनैकान्तिक कैसे हो सकेंगे ! कपिल मत अनुयायियोंने " भेदानां परिमाणात् समन्वयाञ्छक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्पस्य " इस कारिका द्वारा महत्तव, महंकार, पांच तन्मात्रायें, ग्यारह इन्द्रियां और पांचभूत इन व्यक्तखरूप पदायोंका प्रकृतिस्वरूप एककारणसे अभिव्यज्यपना साधनेपर दिये गये भेदानां परिमाण, भेदानां समन्वय, बादिक हेतु कहे हैं । अर्थात्-महत् आदिक व्यक्त ( पक्ष ) एक ही कारणको पूर्ववत्ती मानकर प्रकट हुये है, ( साध्य ) परिमितपना होनेसे ( हेतु ) । यहां हेतुका समवायि, असमाथि, निमित, इम सीन मरणोंकरके पूर्वकपना होनेसे कार्य के साथ अन्वयरहितपना प्राप्त हो जानेपर वे हेतु
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तत्वार्थचिन्तामणिः
तुम्हारे यहां केवळव्यतिरेकी माने गये हैं। किन्तु पुरुषकरके तथा प्रकृति और भारमा करके भी थे हेतु व्यभिचारी इष्ट किये गये हैं। मतः अनेकान्तिकका पूर्वोक्त लक्षण ठीक नहीं है।
विना सपक्षसत्त्वेन गमकं यस्य साधनम् । अन्यथानुपपन्नत्वात्तस्य साधारणो मतः ॥ ६०॥ साध्ये च तदभावे च वर्तमानो विनिश्चितः। संशीत्याक्रान्तदेहो वा हेतुः कात्स्न्यैकदेशतः ॥ ६१॥
सपक्ष यानी अन्वयदृष्टान्तमें विद्यमान रहनेके विना मी हेतु जिस स्याद्वादीके यहां मात्र अन्यथानुपपत्ति नामका गुण होनेसे साध्यका ज्ञापक मानलिया गया है, उसके यहां साध्यके होनेपर और विपक्षमें उस साध्यका अभाव होनेपर वर्तमान हो रहा हेतु साधारण नामका हेत्वाभास विशेष रूपसे निषित किया गया है। अथवा पक्षमें साध्यके रहनेपर रहनेवाला और साध्यामाववाले विपक्षमें पूर्णरूपसे या एक देशसे वर्तनेके संशय करके घिरे हुये शरीरवाला हेतु साधारण (संदिग्धव्यभिचारी ) है।
तत्र कात्स्न्येन निर्णीतस्तावत्साध्यविपक्षयोः । यथा द्रव्यं नमः सत्त्वादित्यादिः कश्चिदीरितः ॥ ६२॥
उन साधारण हेत्वामासके भेदोंमेंसे पहिला साध्यवान् पक्ष और साध्याभाषवान् विपक्षमें पूर्ण रूपसे निणीत होकर वर्त रहा कोई हेतु तो यों कहा गया है कि जैसे नाकाश ( पक्ष ) द्रश्य है (साध्य ), सत्पना होनेसे (हेतु )। इस अनुमानमें दिया गया सत्व हेतु अपने पक्ष आकाशमें वर्तता है और विपक्ष गुण या कर्ममें भी वर्त रहा है अथवा शब्द ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्य ), प्रमेयपना होनेसे ( हेतु ) इत्यादि हेतु विपक्षमें पूर्णरूपसे वर्तते हुए निश्चित व्यभिचारी है।
विश्ववेदीश्वरः सर्वजगतकर्तृत्वसिद्धितः । इति संश्रयतस्तत्राविनाभावस्य संशयात् ॥ ६३ ॥ सति ह्यशेषवेदित्वे संदिग्धा विश्वकर्तृता। तदभावे च तन्नायं गमको न्यायवेदिनाम् ॥ ६४॥
ईश्वरं ( पक्ष ) सर्वज्ञ है ( साध्य ), सम्पूर्ण जगत्के कर्त्तापनकी सिद्धि होनेसे ( हेतु ) । इस प्रकार अनुमानका अच्छा मामय करनेवालेके यहां उस हेतुमें अविनामावका संशय हो जानेसे
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यह हेतु संदिग्ध व्यभिचारी है । क्योंकि सर्वज्ञपना होते हुये और उस सर्वशस्वके अभाव होनेपर सम्भव रहा यह विश्वकर्तापन ईश्वरमें संदिग्ध है । तिस कारण नैयायिकोंका यह हेतु अपने साध्यका ज्ञापक नहीं है । विपक्षमें सम्पूर्ण रूपसे हेतुका नहीं वर्तना संदिग्ध है।
नित्यो ध्वनिरमूर्चत्वादिति स्यादेकदेशतः। स्थितस्तयोविनिर्दिष्टपरोपीहक्तदा तु कः ॥ ६५॥
सद्ध ( पक्ष ) नित्य है ( साध्य ), अमूर्तपना होनेसे (हेतु )। यह हेतु एकदेशसे विपक्ष में वर्तने के कारण निश्चित व्यभिचारी है । अर्थात्-विपक्षके एकदेश हो रहे अनित्य सुख, दुःख, क्रिया, आदिमें अमूर्त्तत्व हेतु वर्त रहा है । और विपक्ष के बहुदेश घट, पट, अग्नि, आदिमें हेतु नहीं वर्त रहा है । अतः विपक्ष के एकदेश वृत्तिपनसे व्यवस्थित हो रहा है। इसी प्रकार उन एकदेश निर्णीत और एकदेश संदिग्धमेंसे दूसरा एकदेश संदिग्ध भी तब तो कोई हेतु विशेषरूपसे कह दिया गया है । जैसे कि गुण अनित्य है अमूर्त होनेसे, यहां विपक्षके एकदेशमें हेतुकी वृत्तिता संदिग्ध है।
यत्राथें साधयेदेको धर्म हेतुर्विवक्षितम् । तत्रान्यस्तद्विरुद्धं चेद्विरुद्धया व्यभिचार्यसौ ॥ ६६ ॥ इति केचित्तदयुक्तमनेकान्तस्य युक्तितः । सम्यग्घेतुत्वनिर्णीतेर्नित्यानित्यत्वहेतुवत् ॥ ६७ ॥
सर्वथैकान्तवादे तु हेत्वाभासोऽयमिष्यते ।
जिस अर्थमें एक हेतु तो विवक्षा किये गये धर्मका साधन करावे और दूसरा हेतु वहां ही उस साध्यसे विरुद्ध अर्थको साधे तो वह हेतु विरुद्धपनके साथ व्यभिचारी है, इस प्रकार कोई कह रहे हैं । उनका वह कहना युक्तिरहित हैं । क्योंकि समीचीन युक्तियोंसे नित्यपन और अनित्यपनको साधनेवाले हेतुओंके समान उन अनेक धर्मोको साधनेवाले हेतुओंका भी समीचीन हेतुपनेकरके निर्णय हो रहा है । हां, सभी प्रकारोंसे एक ही धर्मका आग्रह करके एकान्तवाद स्वीकार कर लेनेपर तो यह अविद्यमान विरोधी धर्मको साधनेवाला हेतु हेस्वाभास माना गया है । जैसे कि "मिष्याष्टि जीव बानवान है, क्योंकि चेतनागुणका मिथ्या उपयोगरूप परिणाम विधमान है। " " तथा मिथ्यावृष्टि जीव ज्ञानरहित है। मोक्ष उपयोगी तस्वज्ञान नहीं होनेसे", यहां स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार दोनों हेतु समीचीन हैं । हां, एकान्तबादियोंके मतमें दूसरा हेतु समीचीन नहीं है।
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सर्वगत्वे परस्मिंश्च जातेः ख्यापितहेतुवत् ॥ ६८॥ स च सत्प्रतिपक्षोऽत्रकैश्चिदुक्तः परैः पुनः। . अनेकान्तिक एवेति ततो नास्य विभिन्नता ॥ ६९ ॥ स्वेष्टधर्मविहीनत्वे हेतुनान्येन साधिते। साध्याभावे प्रयुक्तस्य हेतो भावनिश्चयः ॥ ७० ॥ धर्मिणीति स्वयं साध्यासाध्ययोवृत्तिसंश्रयात् । नानैकान्तिकता बाध्या तस्य तल्लक्षणान्वयात् ॥ ७१ ॥
सत्तास्वरूपपर जाति अथवा द्रव्यत्व, गुणत्व, घटत्व, आदि अपर जाति (सामान्य) का सर्व व्यापकपना अथवा अपर यानी अव्यापकपना साध्य करनेपर प्रसिद्ध करा दिये गये हेतुओंके समान बह हेतु किन्हीं वैशेषिकोंने अपने यहां सत्प्रतिपक्ष कहा है। " साध्यामावसाधकं हेत्वन्तरं यस्य स सम्प्रतिपक्षः " । मावार्थ-सामान्य (पक्ष ) ब्यापक है ( साध्य ), सर्वत्र व्यक्तियोंमें अन्वित होनेसे ( हेतु ), जैसे आकाश ( दृष्टान्त ) । इस अनुमान द्वारा जातिको ब्यापक सिद्ध किया जाता है । तथा सामान्य ( पक्ष ) अव्यापक है ( साध्य ) क्योंकि अन्तरालमें नहीं दीखता दुआ प्रति व्यक्तिमें न्यारा न्यारा प्रतीत हो रहा है ( हेतु ) जैसे कि घट व्यक्ति ( दृष्टान्त ) यहां वैशेषिकोंने दूसरा हेतु सत्प्रतिपक्ष माना है फिर अन्य दार्शनिकोंने उसको अनैकान्तिक ही कहा है तिस कारण हम स्याद्वादियोंके यहाँ भी वह अनेकान्तिक ही है। अनेकान्तिक हेत्वाभाससे इस सत्प्रति पक्षका कोई विशेष मेद नहीं है । दूसरे हेतु करके अपने अभीष्ट साध्य धर्मसे रहितपना साधा जानेपर साध्यवाले धीमें साध्यके अभावको साधने में प्रयुक्त किये गये हेतुके अभावका निश्चय नहीं हैं। क्योंकि स्वयं वादीने साध्य और साध्यामावके होनेपर हेतुके वर्तनेका समीचीन आश्रय ले रक्खा है। इस कारण उस सत्प्रतिपक्ष कहलानेवाले हेतुको अनैकान्तिक हेत्वाभासपना बाधा करने योग्य नहीं है। क्योंकि उस अनेकान्तिकका लक्षण वहां अन्वयरूपसे घटित हो जाता है पर्वत ( पक्ष ) वहिमान् है ( साध्य ) धूम होनेसे ( हेतु ) । तथा दूसरा अनुमान यों है कि पर्वतमें वहिका अभाव है । पाषामका विकार होनेसे, यहां पाषाणमयस्व हेतु सत्प्रतिपक्ष माना गया है। किन्तु वह विपक्ष में वर्तने के कारण अनैकान्तिक हेत्वाभास है। इसी प्रकार जातिको व्यानरुपना सिद्ध करनेवाचा हेतु स्याद्वादियोंके यहां अनैकान्तिक हेत्वामास है। वैशेषिकोंकी ओरसे जातिका अध्यापकपना साधनेवाला हेतु कुछ देरके लिये अनेकान्तिक कहा जा सकता है। सत्प्रतिपक्षको बला हेवामास माननेकी आवश्यकता नहीं है।
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यः स्वपक्षविपक्षान्यतरवादः खनादिषु । नित्यत्वे भंगुरत्वे वा प्रोक्तः प्रकरणे समः ॥ ७२ ॥ सोऽप्यनैकान्तिकान्नान्य इत्यनेनैव कीर्तितम् | स्वसाभ्येऽसति सम्भूतिः संशयांशाविशेषतः ॥ ७३ ॥
शद्व, घट, आदिकों में नित्यपना अथवा क्षणिकपना साधनेपर जो स्वपक्ष और विपक्षमेंसे किसी भी एकमें ठहरने का वाद प्रकरणसन कहा गया है, वह भी अनैकान्तिकसे मिल नहीं है । इस प्रकार सिद्धान्त भी उक्त प्रन्थ करके ही कह दिया गया है । अर्थात् -" यस्मात् प्रकरण चिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः ~33 जिस हेतुसे साध्यवान् और साध्याभाववान् के प्रकरण की जिज्ञासा हो जाय वह निर्णय करने के लिये प्रयुक्त किया गया हेतु प्रकरणसम कहा जाता है। 1 शब्दको नित्यपना साधने में ममितिको करके दिया गया प्रत्यभिज्ञायमानपना हेतु नैयायिकोंकी ओर से प्रकरणसम हेत्वाभास है । और शब्दका अनित्यपना साधनेमें नैयायिकों करके दिया गया कृतकत्व हेतु तो मीमांसकोंकी ओरसे प्रकरणसम कहा जाता है। किन्तु यह प्रकरणसम अनैकान्तिक हेत्वाभाससे न्यारा नहीं है । अत्यल्प भेद होनेसे हेत्वाभासकी कोई न्यारी जाति नहीं हो जाती है । अपने साध्यके नहीं होनेपर विद्यमान रहना यह निश्चित व्यभिचार और संशयांशरूप व्यभिचारका यहां भी सद्भाव है । किसी अंश में विशेषता नहीं है ।
कालात्ययापदिष्टोऽपि साध्ये मानेन बाधिते ।
यः प्रयुज्येत हेतुः स्यात्स नो नैकान्तिकोऽपरः ॥ ७४ ॥ साध्याभावे प्रवृत्तो हि प्रमाणैः कुत्रचित्स्वयम् । साध्ये हेतुर्न निर्णीतो विपक्षविनिवर्त्तनः ॥ ७५ ॥
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जो हेतु प्रमाणद्वारा साध्यके बाधित हो जानेपर प्रयुक्त किया जाता है, वह कालात्ययापदिष्ट हेतु भी हमारे यहां दूसरे प्रकारका अनैकान्तिक हेत्वाभास माना गया है । बाधित हेत्वाभास कोई न्यारा नहीं है । बहि शीतक है, कृतक होनेसे, यहां कृतकत्व हेतु व्यभिचारी है । कहीं कहीं तो स्वयं प्रमाणोंकर के साध्यका अभाव जान लेनेपर पुनः वह हेतु प्रवृत्त हुआ है और कहीं साध्यके होनेपर हेतुका निर्णय हो चुका है। किन्तु विपक्षसे निवृत्त हो रहे हेतुका निर्णय नहीं है। बस, इतना ही बाधित और अनैकान्तिकमें थोडासा अन्तर है ।
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विपक्षे बाधके वृत्ति समीचीनो यथोच्यते । साधके सति किन्न स्यात्तदाभासस्तथैव सः ॥ ७६ ॥
विपश्व में बाधकप्रमाणके प्रवृत्त हो जानेपर जैसे कोई भी हेतु समीचीन हेतु कहा जाता है, तिस ही प्रकार विपक्ष में साधकप्रमाणके होनेपर वह हेतु हेत्वाभास क्यों नहीं हो जावेगा ? साध्याभावे प्रवृत्तेन किं प्रमाणेन बाध्यते ।
हेतुः किं वा तदेतेनेत्यत्र संशीतिसम्भवः ॥ ७७ ॥ साध्यस्याभाव एवायं प्रवृत्त इति निश्चये । विरुद्ध हेतुरुद्भाव्योऽतीतकालो न चापरः ॥ ७८ ॥
साध्यका• अभाव होनेपर प्रवृत्त हो रहे प्रमाण करके क्या यह हेतु बाधा जारहा है !
साध्यके
अथवा क्या इस हेतु करके वह प्रमाण बाधा जारहा है ! इस होय ऐसी दशा में वह संदिग्धव्यभिचारी है। हां, होनेपर ही यह हेतु प्रवर्त्ता है, इस प्रकार निश्वय करना चाहिये । अतः व्यभिचारी या विरुद्धसे भिन्न नहीं है, जो कि " कालात्ययापदिष्टः कालातीतः "
प्रकार यहां संशय होना सम्भवता नहीं होनेपर किन्तु साध्यका अभाव हो जानेपर तो विरुद्ध हेत्वाभासका उद्भावन कोई कालातीत ( बाधित ) नामका हेत्वाभास
कहा जाय ।
प्रमाणबाधनं नाम दोषः पक्षस्य वस्तुतः । क तस्य हेतुभिस्त्राणोऽनुत्पन्नेन ततो हतः ॥ ७९ ॥
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वस्तुतः विचारा जाय तो साध्यका लक्षण इष्ट, अवाधित और असिद्ध किया गया है । अतः साध्यवान् पक्षका दोष प्रमाणबाधा नामका हो सकता है। हेतुके दोषोंमें बाधितकी गणना करना उचित नहीं है । उस कालात्ययापदिष्टका हेतुओं करके मळा रक्षण कहाँ हो सकता है ? तिस कारण हेतुओंमें उत्पन्न नहीं होनेसे वैशेषिकोंका सिद्धान्त नष्ट हो जाता है । अर्थात्वह दोष देतुमें उत्पन्न ही नहीं हो सकता है ।
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-साध्यका
सिद्धे साध्ये प्रवृत्तोऽत्राकिंचित्कर इतीरितः । कैविद्धेतुर्न संचिंत्यः स्याद्वादनयशालिभिः ॥ ८० ॥ गृहीतग्रहणात्तस्याप्रमाणत्वं यदीष्यते । स्मृत्यादेरप्रमाणत्वप्रसंग ः केन वार्यते ॥ ८१ ॥
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संवादित्वात्प्रमाणत्वं स्मृत्यादेश्चेत्कथं तु तैः । सिद्धेथें वर्तमानस्य हेतोः संवादिता न ते ॥ ८२ ॥
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सायके सिद्ध हो चुकने पर प्रवर्त हो रहा हेतु अकिंचित्कर है, इस प्रकार किन्हीं विद्वानोंने निरूपण किया है । जैसे कि शद्ब ( पक्ष ) कर्ण इन्द्रियसे सुना जाता है ( साध्य ), शद्वपना होनेसे ( हेतु ), यहां शद्वका श्रावणपना प्रथमसे ही बालगोपालों में प्रसिद्ध है । अतः शद्वत्व हेतु कुछ भी नहीं करनेवाला अकिंचित्कर हेलामास मानलिया है । अत्र श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि स्याद्वादनीतिको धारकर शोभाको प्राप्त हो रहे विद्वानोंकरके अकिंचित्करको हेतुका दोष नहीं विचारना चाहिये | जबकि प्रतिवादीकी ओरसे असिद्ध हो रहे धर्मको साध्य माना जाता है, ऐसी दशामें हेतुका दोष अकिंचित्कर नहीं हो सकता है। या तो वह साध्यका दोष है, अथवा सद्धेतु ही है । सद्धेतु जन्य अनुमान तो प्रमाण होता है । यदि कोई विद्वान् यों कहे कि गृहीतका ही उस हेतु द्वारा ग्रहण हो जानेसे उस हेतु या अनुमानको अप्रमाणपना इष्ट किया जायगा, तब तो हम कहते हैं कि यों तो गृहीतका प्राही होनेसे स्मृति, संज्ञा, तर्क, आदिको भी अप्रमाणपनेका प्रसंग हो जाना मला किसके द्वारा रोका जा सकता है ? यदि सफल क्रियाजनकत्व या बाधारहितपन स्वरूप संवादसे युक्त होनेके कारण स्मृति आदिकको प्रमाणपना कहोगे तो उन प्रमाणोंकरके सिद्ध हो रहे अर्थ में प्रवर्त रहे हेतुका भला तुम्हारे यहाँ सम्बादपिन क्यों नहीं माना जायगा ! ऐसी दशा में पूर्व प्रमाणसे जाने हुये श्रावणपने की शद्वत्व हेतुने पुष्टि की है। अतः वह पूर्व ज्ञानका सम्बादक है । अकिंचित्कर हेत्वाभास नहीं ।
प्रयोजनविशेषस्य सद्भावान्मानता यदि । तदात्पज्ञानविज्ञानं हेतोः किं न प्रयोजनम् ॥ ८३ ॥ प्रमाणसंप्लवस्त्वेवं स्वयमिष्टो विरुध्यते ।
सिद्धे कुतश्चनार्थेन्यप्रमाणस्या फलत्वतः ॥ ८४ ॥
विशेष प्रयोजनका सद्भाव होनेसे यदि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदिको प्रमाणपना कहोगे तब तो अल्पज्ञानवाले जीवों को शद्वमें श्रावणपने आदिका विशेष ज्ञान हो जाना हेतुका प्रयोजन क्यों नहीं मान लिया जाये ! दूसरी बात यह है कि अकिंचित्करको पृथक् हेत्वाभास माननेवाले विद्वान् हम जैनोंके एकदेशी हैं। उन्होंने एक अर्थ में विशेष विशेषांशको जाननेवाले अनेक प्रमाणोंका प्रवर्त जानारूप प्रमाणसंप्लव स्वयं इष्ट किया है । यदि वे गृहीतको प्रहण करनेसे भयभीत होंगे तो इस प्रकार उनके यहां इष्ट किये गये प्रमाणसंप्लवका विरोध प्राप्त होता है। यानी बे प्रमाण संप्लव
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नहीं मान सकेंगे। क्योंकि किसी भी एक प्रमाणसे अर्थके प्रसिद्ध हो चुकनेपर अन्य प्रमागोंका व्यर्थपना प्राप्त होता है।
मानेनैकेन सिद्धेथें प्रमाणांतरवर्तने । यानवस्थोच्यते सापि नाकांक्षाक्षयतः स्थितेः ॥ ५॥ सरागप्रतिपत्तॄणां खादृष्टवशतः कचित् । स्यादाकांक्षाक्षयः कालदेशादेः स्वनिमित्ततः ॥८६॥
यदि जैनोंके एकदेशी यों कहें कि एक प्रमाणकरके पदार्थके सिद्ध हो जानेपर पुनरपि यदि अन्य प्रमाणोंकी प्रवृत्ति मानी जायगी तो अनवस्था दोष होगा। दूसरे, तीसरे, चौथे, आदि प्रमाणोंके प्रवर्तनेकी जिज्ञासा बढती ही चली जायगी । इसके उत्तरमें श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि तुमने जो अनवस्था दोष कहा है, वह भी बाकांक्षाओंका क्षय हो जानेसे नहीं आता है। यह व्यवस्थित सिद्धान्त है। जबतक वाकांक्षा बढती जायगी तबतक प्रमाणोंको उठाते जायेंगे । निराकांक्ष होनेपर प्रमाता वहीं अवस्थित हो जावेगा । रागसहित या इच्छासहित प्रतिपत्ताजनोंको अपने अदृष्टके वशसे कहीं दो, चार, छः, कोटि चळकर आकांक्षाका क्षय हो जायगा । अर्थात्-जैसे अत्यन्त प्रिय पदार्थ के वियोग हो जानेपर उसकी स्मृतियां हमको सताती रहती हैं । पश्चात् हमारे सुख दुःखोंके भोग अनुकूल पुण्यपापोंकरके वे स्मृतियां प्रायः नष्ट हो जाती हैं। यदि वे स्मृतियां या आकांक्षायें नष्ट नहीं होय तो जीवित रहना या अन्य कार्योको करना ही अति कठिन होजाय । बडे अच्छे कारण मिल जाते हैं, जिनसे कि वे सटिति विलीन हो जाती है, तथैव अन्योंको जानना है अथवा अन्य सुख दुःखोंको भी भोगना है, बादिके कारण हो रहे स्वकीय अदृष्टसे एक ही ज्ञेयमें बढ रही जिज्ञासाओंका नाश कर दिया जाता है। तथा कहीं कहीं अपनी आकांक्षाश्चयके निमित्तकारण काड, देश, विषयांतर संचार विस्मारकपदार्थ सेवन, मनकी अनेकाप्रता, प्रकृति ( मस्ताना आदत ) आदिकसे भी आकांक्षाका क्षय हो जाता है। कर्तृवादी नैयायिक तो बढती हुयी आकांक्षा या अनवस्थाका क्षय करते रहना इस कार्यको दयातु ईश्वरके हाथ सोंप देते हैं । किन्तु कृतकृत्य मुक्तसे यह कार्य कराना अनेक दोषास्पद है।
वीतरागाः पुनः स्वार्थान वेदनरपरापरैः। प्रतिक्षणं प्रवर्तते सदोपेक्षापरायणाः ॥८७ ॥
आकांक्षाका क्षय हो जानेसे रागी ज्ञाताओंको तो अब अनवस्था हो नहीं सकती है। हो, फिर उपर उत्तर काळमें होनेवाले बानोंकरके स्व और बोंको जान रहे वीतराग पुरुष तो सर्वदा
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उपेक्षा धारनेमें तत्पर हो रहे संते प्रतिक्षण प्रवृत्ति कर रहे हैं । अर्थात्-वीतराग मुनि या सर्वत्रके कहीं किसी पदार्थमें आकांक्षा तो नहीं है । उनके ज्ञानका साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति और परम्पराफळ तो विषयोंमें रागद्वेषकी नहीं परिणति होनारूप उपेक्षा भाव है । सर्वज्ञका ज्ञान गृहीतग्राही नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञको सभी पदार्थ अपने अपने धर्मोसे सहित होकर भासते हैं । जो पदार्थ भविष्यकालमें होनेवाले हैं, उनको इस समय भावीपनसे अर्थात्-भविष्यमें उपजने वाले हैं, इस प्रकार आनेगा, वर्तमानरूपसे या भूतरूपसे उनको नहीं जानेगा । हां, भविष्य पदार्थोका उत्पत्स्यमानता धर्म अब जाना जा रहा है । उत्पन्नता धर्म इस समय नहीं जाना जा रहा है। किन्तु वह उत्पनता उनकी भवितव्यरूपकरके जान ली गयी है। हो चुकेपनसे नहीं जानी गयी है । तथा उत्तर कालोंमें वह सर्वज्ञ उन धमौके विपरीतपनेसे पदार्थोको जान रहा है। उस समयके वर्तमान पदार्थोको इस समय हो चुकेपनसे जान रहा है और उस समयके भविष्य पदार्थोंको वर्तमान रूपसे जान रहा है । भूत पदार्थोको चिरतरभूत, चिरतमभूतपनेसे जान रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक भूत, वर्तमान, भविष्य, क्षणोंकी विशिष्टताओंके जालसे वस्तु जकड रही हैं। जिस समय जिस धर्मसे विशिष्ट वस्तु होगी, सर्वज्ञके ज्ञानमें वह उसी प्रकार प्रतिमासेगी, दूसरे प्रकारोंसे नहीं । देश, काल, आदिकी विशिष्टता तो पदार्थोके साथ तदात्मक हो रही है । न्यारी नहीं हो सकती है । अतः देश, काल, आदिकी विशिष्टताओंसे सहित पदार्थीको प्रतिक्षण नवीन नबीन ढंगसे जान रहा सर्वज्ञका ज्ञान कथमपि गृहीतग्राही नहीं है। श्री प्रभाचन्द्र स्वामीने प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थमें ऐसा ही समझाया है। इस तस्वके विशेष जिज्ञास विद्वान् वहां देखकर परितृप्ति करें।
प्रमाणसंप्लवे चैवमदोषे प्रत्युपस्थिते । गृहीतग्रहणात् क स्यात् केवलस्याप्रमाणता ॥ ८८॥ ततः सर्वप्रमाणानामपूर्वार्थत्वं सन्नयैः। स्यादकिंचित्करो हेत्वाभासो नैवान्यथार्पणात् ॥ ८९॥
इस प्रकार प्रतिवादी जैनोंके द्वारा एक भी अर्थमें धर्मोकी अपेक्षा विशेष, विशेषांशोंको जाननेवाले बहुत प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होनास्वरूप प्रमाणसंप्लवके इस रीतिसे दोषरहित होकर उपस्थित करनेपर भला केवळज्ञानकी गृहीत ग्रहण करनेसे अप्रमाणता कहां हो सकेगी ! तिस कारणसे श्रेष्ठ नयों करके सम्पूर्ण प्रमाणों के अपूर्व अर्थका ग्राहीपना सिद्ध हो चुका है। अतः अकिंचित्कर नामका कोई भी हेत्वाभास नहीं हो सकता है । अर्थात्-शब्दको पहिले जानते हुये भी अब उसका कर्ण इन्द्रियसे ग्रहण होना अनुमान द्वारा जाना जा सकता है। ऐसी दशामें
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अनुमान या हेतु कुछ कार्यको करनेवाला कहा जा सकता है। किसी भी पुरुषके प्रतिदिन होनेवाले ज्ञानोंमेंसे बहुभाग ज्ञान तो जानी हुई वस्तु के विशेषाशको ही अधिकतर जानते रहते हैं। हां, बहुत थोडे ज्ञान नवीन नवीन वस्तुओंको जान पाते हैं । बडे बडे कार्यकर्त्ता शिल्पकर्मा या वैज्ञानिकों का भी बहुभाग समय प्रारब्ध कार्यके विशेषांशों के बनाने में ही व्यतीत होता है । सर्वथा नवीन कार्यों के प्रारम्भ करनेके अवसर बहुत थोडे मिळते हैं । यह नियम सभी कार्यों में प्रायः घटित हो जाता है । अतः अकिंचित्कर नामका हेत्वाभास नहीं मानना चाहिये, एक विवक्षासे विचारा जाय तब तो वह प्रत्युत अन्यथा यानी असद्धेतुओं से भिन्न प्रकारका समीचीन हेतु है । उसमें हेतुका कोई भी दोष नहीं सम्भवता है ।
तत्रापि केवलज्ञानं नाप्रमाणं प्रसज्यते । साद्यपर्यवसानस्य तस्यापूर्वार्थतास्थितेः ॥ ९० ॥
अपूर्व अर्थको जाननेवाले उन ज्ञानोंमें केवलज्ञान के अप्रमाण होने का प्रसंग नहीं आता है । क्योंकि ज्ञानावरण कर्मके क्षयसे विवक्षित कालमें उपजे सादि और अनन्तकालतक ठहरनेवाले उस health अपूर्व अर्थका ग्राहकपना व्यवस्थित हो चुका है । भावार्थ-विशेषणोंकी अत्यल्प परावृत्ति हो जाने से उनको जाननेवाले ज्ञानमें अपूर्वार्थता आ जाती है । थोडा विचारो तो सही कि संसार में पूर्व अर्थ कौन समझे जाते हैं ? सभी द्रव्य पूर्वार्थ हैं । किन्तु फिर भी सौन्दर्य, अधिक धनवत्ता, प्रतिमा, विलक्षण तपस्या, अद्भुत वीर्य, विशेष चमत्कार आदि धर्मोको धार लेनेसे यथार्थ अपूर्व अर्थ मान किये जाते हैं। सूक्ष्म विचार करनेपर अत्यन्त छोटे अंशको भी नवीन धारनेपर पदार्थ में पूर्वार्थता आ जाती है । जितनी जहां अपूर्वार्यता सम्भवती है, उसपर सन्तोष करना चाहिये । अन्यथा मक्ष्य अभक्ष्य विचार पतिव्रतापन बचौर्य आदिक लोकव्यवहार सभी भ्रष्ट हो जायेंगे ।
प्रादुर्भूतिक्षणादूर्ध्वं परिणामित्वविच्युतिः । केवलस्यैकरूपत्वादिति चोद्यं न युक्तिमत् ॥ ९१ ॥ परापरेण कालेन संबंधात्परिणामि च । सम्बन्धिपरिणामित्वे ज्ञातृत्वे नैकमेव हि ॥ ९२ ॥
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कोई कुतर्क उठा रहा है कि अपनी उत्पत्ति होनेके क्षणसे ऊपर उत्तरकाळ में केवलज्ञानका परिणामीपना विशेषरूपेण च्युत हो जाता है। क्योंकि केवलज्ञान तो सदा एकरूप ही बना रहेगा । जिन त्रिलोक, त्रिकाळवर्ती पदार्थोंको आज जान रहा है, उन ही को सर्वदा जानता रहेगा | उत्पाद, विनाश और ध्रुवतारूप परिणाम से सहितपना केवलज्ञानमें नहीं घटता है । अब आचार्य
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कहते हैं कि इस प्रकार किसीकी वितर्कणा करना तो युक्तिसहित नहीं है । क्योंकि उत्तर उत्तरवर्ती aroh साथ सम्बन्ध हो जानेसे उत्पाद और व्ययरूप परिणाम घटित हो जाते हैं । केवलज्ञानकी 1 पूर्व समयवर्त्ती पर्यायका नाश हो जाता है । और उत्तरकालमें नवीन पर्यायकी उत्पत्ति हो जाती
। इस प्रकार सम्बन्धविशिष्ट और परिणामसहितपना हो चुकनेपर केवलज्ञानी ज्ञातापन करके नियमसे वह एक ही है, यह ध्रुवता है । अतः परिणामीपन च्युत नहीं हुआ । प्रतिष्ठित रहा ।
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' एवं व्याख्यातनिःशेषहेत्वाभाससमुद्भवं । ज्ञानं स्वार्थानुमाभासं मिथ्यादृष्टेर्विपर्ययः ॥ ९३ ॥ सर्वमेव विजानीयात् सम्यग्दृष्टेः शुभावहं ।
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इस प्रकार व्याख्यान किये जा चुके सम्पूर्ण हेत्वाभासोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान स्वार्थानुमानरूप मतिज्ञानका आभास है । मिध्यादृष्टि जीवके अनुमानका आभास नामक विपर्ययज्ञान हो जाता है । हां, सम्यग्दृष्टि जीवके समीचीन हेतुओंसे उत्पन्न हुए सभी ज्ञान प्रमाणरूप होते हुये कल्याणकारी हैं, यह बढ़िया समझ लेना चाहिये ।
यथा श्रुतज्ञाने विपर्यासस्तद्वत्संशयोऽनध्यवसायश्च कचिदाहार्यः प्रदर्शितस्तथावग्रहादिस्वार्थानुमानपर्यन्तमतिज्ञानभेदेषु प्रतिपादितविपर्यासवत्संशयोनध्यवसायश्च प्रतिपत्तव्यः । सामान्यतो विपर्ययशब्देन मिथ्याज्ञानसामान्यस्याभिधानात् ।
जिस प्रकार श्रुतज्ञान में आहार्य विपर्यास ग्यारहवीं वार्त्तिकसे सत्रहवीं तक कहा था उसीके समान श्रुतज्ञान में आहार्य संशय और शाहार्ष अनध्यवसाय, भी कहीं कहीं हो रहा अठारहवीं उन्नीसवीं वार्तिकद्वारा भले प्रकार दिखला दिया है । उसी प्रकार अवग्रहको आदि लेकर स्वार्थानुमान पर्यंत मतिज्ञानके भेदों में भी बीसवीं कारिकासे प्रारम्भ कर तिरानबैवीं कारिकातक कहे गये विपर्यास के समान संशय और अनध्यवसाय भी कचित् होते हुये समझ लेने चाहिये । क्योंकि सूत्र में सामान्यरूपसे कहे गये विपर्यय शद्व करके सभी मिथ्याज्ञानोंका सामान्यपनेसे कथन हो जाता है । अर्थात् हां, यह बात कही जा चुकी है कि आहार्यविपर्यय तो श्रुतज्ञानों में ही होते हैं । अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, स्वार्थानुमान, इन मतिज्ञानों में सहज विपर्ययरूप संशय, भ्रान्ति, अनध्यवसाय होते हैं । क्योंकि गृहीत मिथ्यादर्शन के समान जान बूझकर विपरीत जान लेना ऐसे मिध्यादृष्टियों के आहार्यविपर्यय तो कुश्रुतज्ञानों में ही सम्भवते हैं। हिंसा, चोरी, यभिचारको बुरा जानते हुये भी कुगुरु या मिथ्याशास्त्रोंके उपदेश द्वारा मला समझने लग जाते हैं । मिथ्यास्व, कषाय, मिथ्या संस्कार, इन्द्रियलोलुपता, आदि कारणों ने जीवोंकी प्रवृति विपर्ययज्ञानोंकी ओर झुक जाती है । अतः श्रुतज्ञानके आहार्य और सहज दोनों विपर्यय होते हैं
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तथा मतिज्ञानके सहज ही विपर्यय हो सकते हैं । एक बात यहां यह भी समझने की है कि हेतुकी साध्यके साथ अभेद विवक्षा करनेपर हेतुसे उत्पन्न हुआ साध्यज्ञान तो मतिज्ञानरूप अनुमान है।
और हेतुसे साध्यका अर्थान्तरभाव होनेपर हेतुसे हुआ साध्यज्ञान श्रुतज्ञानरूप अनुमान है । स्वार्थानुमानको मतिज्ञान और परार्थानुमानको श्रुतज्ञानस्वरूप भी कह सकते हैं ।
संपति वाक्यार्थज्ञानविपर्ययमाहार्य दर्शयमाह।
अब इस समय श्रुतज्ञान के विशेष हो रहे वाक्यार्थज्ञानके आहार्यविपर्ययको दिखलाते हुये प्रन्थकार कहते हैं । अर्थात्-गच्छेत्, पचेत्, यजेत् , इत्यादिक विधिलिङ् अन्तवाले वाक्योंके अर्थको जाननेमें मीमांसक, अद्वैतवादी, या सौगत आदिकोंको जो चलाकर विपर्ययज्ञान हो रहा है, उसका प्रदर्शन करते हैं।
नियोगो भावनैकाताद्धात्वर्थो विधिरेव च । यंत्रारूढादि चार्थोन्यापोहो वा वचसो यदा ॥ ९४ ॥ कैश्चिन्मन्येत तज्ज्ञानं श्रुताभं वेदनं तदा। तथा वाक्यार्थनिर्णीतेर्विधातुं दुःशकत्वतः ॥ ९५॥
किन्हीं प्रभाकर मीमांसकों करके विधिलिङ् लकारान्त वाक्योंका अर्थ नियोग माना जाता है। और किन्हीं भट्ट, मीमांसकों करके वाक्यका अर्थ एकान्त रूपसे भावना मानी जा रही है । तथा किन्हीं ब्रह्माद्वैतवादियों करके सत्तामात्र शुद्ध धात्वर्थ विधिको ही विधिसिङन्त वाक्यका अर्थ स्वीकार किया जाता है । अथवा बौद्धों करके वचनका अर्थ अन्यापोह इष्ट किया जाता है । प्रमाकरोंने नियोगके यंत्ररूढ पुरुष आदिक ग्यारह भेद माने हैं । यहां हमें यह कहना है कि उन प्रभाकर, कुमारिल भट्ट, ब्रह्माद्वैतवादी, आदि पण्डितोंकरके जिस समय स्वकीय मत अनुसार उन बाक्योंका ज्ञान हो रहा है, उस समय वह ज्ञान, कुश्रुतज्ञान या श्रुतज्ञानाभास है । क्योंकि जैसा वे वाक्यका अर्थ वखान रहे हैं, उस प्रकार वाक्य अर्थके निर्णयको विधान करने के लिये उनकी अशक्यता है। अर्थात्-नियोग, भावना आदिको वाक्यका अर्थ कैसे भी कठिनतासे वे निर्णय नहीं कर सकते हैं।
___ का पुनरयं नियोगो नाम नियुक्तोहमनेन वाक्येनेति निरवशेषो योगो नियोगस्तत्र मनागप्ययोगाशंकायाः संभवाभावात् ।
___यह प्रभाकर मीमांसकों द्वारा माना गया नियोग नामका भला क्या पदार्थ है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर उनके मत अनुसार उत्तर दिया जाता है कि मैं इस वाक्य करके अमुक कर्म
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करनेमें नियुक्त हो गया हूं। इस प्रकार " नि " यानी निरवशेष तथा " योग" यानी मन वचन काय और आत्माकी एकाग्रता होकर प्रवृत्ति हो जाना नियोग है । नियुक्त किये गये व्यक्तिका नियोग्य कर्ममें परिपूर्ण योग लग रहा है। उसमें अत्यल्प भी योग नहीं लगनेकी आशंकाकी सम्भावना नहीं है । भावार्थ-जैसे कि स्वामिभक्त सेवक या गुरुभक्त शिष्यके प्रति स्वामी या गुरु विवक्षित कार्यको करनेकी आज्ञा दे देते हैं कि तुम दिल्लीसे बादाम देते आना अथवा तुम शाकटायन व्याकरण पढो तो वे भद्रजीव उन कार्यों में परिपूर्ण रूपसे नियुक्त हो जाते हैं। कार्य होनेतक उनको बैठते, उठते, सोते, जागते कल नहीं पडती है । सदा उसी कार्यमें परिपूर्ण योग लगा रहता है। इसी प्रकार प्रभाकर पण्डित " यजेत " इत्यादिक वाक्योंको श्रवणकर नियोगसे आक्रान्त हो जाते हैं । प्रसव, विवाह, प्रतिष्ठा आदिके अवसरपर नाई आदि नियोगी पुरुष अपने कर्तव्यको पूरा करते हैं। तभी तो उनके नेग ( नियोग ) का परितोष दिया जाता है।
___स चानेकधा, केषांचिल्लिङादिप्रत्ययार्थः शुद्धोऽन्यनिरपेक्षा कार्यरूपो नियोग इवि मतम् ।
और यह नियोग तो अनेक प्रकारका है । मीमांसकोंके प्रभाकर, भट्ट, मुरारि ये तीन भेद हैं। प्राभाकरोंकी भी अनेक शाखायें हैं । अतः किन्हीं प्राभाकरोंके यहां यजेत्, विनुयात्, आदिमें पडे हुये लिङ् प्रत्यय ( त ) और गच्छतु, पजताम् आदिमें पडे हुये कोट्प्रत्यय अथवा यष्टव्यं, श्रोतव्यं, आदिमें पडे हुये तव्य प्रत्ययका अर्थ तो अन्य धात्वर्थ, स्वर्गकाम, आत्मा, आदिकी नहीं अपेक्षा रखता हुआ शुद्ध कार्यस्वरूप ही नियोग है । इस प्रकारका मत है । उनका प्रन्थ वचन इस प्रकार है सो सुनो।
प्रत्ययाथों नियोगश्च यतः शुद्धः प्रतीयते । कार्यरूपश्च तेनात्र शुद्धं कार्यमसौ मतः ॥ ९६ ॥ विशेषणं तु यत्तस्य किंचिदन्यत्प्रतीयते । प्रत्ययाथों न तद्युक्तः धात्वर्थः स्वर्गकामवत् ॥ ९७ ॥ प्रेरकत्वं तु यत्तस्य विशेषणमिहेष्यते । तस्याप्रत्ययवाच्यत्वात् शुद्धे कार्य नियोगता ॥ ९८ ॥
जिस कारणसे कि प्रययोंका अर्थ शुद्ध कार्यस्वरूप नियोग प्रतीत हो रहा है, तिस कारण यहां वह नियोग शुद्धकार्यस्वरूप माना गया है । उस नियोगका जो कुछ भी अन्य विशेषण .प्रतीत हो रहा है, वह लिडू आदि प्रययोंका अर्थ माना जाय यह तो युक्तिपूर्ण नहीं है। जैसे
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कि यजि, पचि, आदि धातुओंके अर्थ शुद्ध याग, पाक हैं ! स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला या तृप्तिकी कामना करनेवाला तो धात्वर्थ नहीं है। हां, उस नियोगका विशेषण जो प्रेरकपना यहाँ माना गया है, वह तो प्रत्ययका वाध्य अर्थ नहीं है । इस कारण शुद्ध कार्यमें नियोगपना अभीष्ट किया गया है । यह पहिला प्रकार हुआ ।
परेषां शुद्धा प्रेरणा नियोग इत्याशयः ।
दूसरे मीमांसकों का यह आशय है कि शुद्धप्रेरणा करना ही नियोग है । वह नियोग प्रत्ययका अर्थ है । अनेक जन जो यह मान बैठे हैं कि जाति, व्यक्ति, लिङ्ग तो जिस प्रकृतिसे प्रत्यय किया जाय उस प्रकृतिके अर्थ कहे जाते हैं । और संख्या, कारक ये प्रत्ययके अर्थ हैं । इस मन्तन्यकी अपेक्षा शुद्धप्रेरणाको प्रत्ययका अर्थ मानना चाहिये, वह प्रेरणा जिस धात्वर्थ के साथ लग जायेगी, उस क्रियामें नियुक्तजन प्रवृत्ति करता रहेगा । हमारे प्रन्थोंमें शुद्ध प्रेरणाको प्रत्ययका अर्थ इस श्लोकद्वारा कहा है, सो सुनलो ।
प्रेरणैव नियोगोत्र शुद्धा सर्वत्र गम्यते ।
नाप्रेरितो यतः कश्चिन्नियुक्तं स्वं प्रबुध्यते ॥ ९९ ॥
यहां कर्मकाण्डके प्रकरण में सर्वत्र शुद्ध प्रेरणारूप नियोग ही वाक्यद्वारा जाना जा रहा है। जिस कारण से कि प्रेरणारहित होता हुआ कोई भी प्राणी अपनेको नियुक्त नहीं समझ रहा है । जब कि नियुक्त और प्रेरित समानार्थक हैं तो नियोगका अर्थ शुद्ध प्रेरणा अर्थापत्ति से ज्ञात कर किया जाता है । यह दूसरा नियोग है ।
प्रेरणासहितं कार्य नियोग इति केचिन्मन्यते ।
कोई प्रभाकर मतानुयायी मीमांसक प्रेरणासे सहित हो रहा कार्य ही नियोग है । इस प्रकार मान रहे हैं। उनका प्रन्थवाक्य यों है कि—
ममेदं कार्यमित्येवं ज्ञातं पूर्वं यदा भवेत् ।
स्वसिद्धयै प्रेरकं तत्स्यादन्यथा तन्न सिद्ध्यति ॥
१०० ॥
यह मेरा कर्तव्य कार्य है, इस प्रकार जब पहिले ज्ञात हो जावेगा तभी तो वह वाक्य अपने वाक्य अर्थ यज्ञकर्मकी सिद्धि करानेके लिये श्रोता पुरुषका प्रेरक हो सकेगा । अन्यथा यानी मेरा यह कर्तव्य है, इस प्रकार ज्ञान नहीं होनेपर वह वाक्य प्रेरक सिद्ध नहीं होता है । अतः अकेली प्रेरणा या शुद्धकार्य नियोग नहीं है । किन्तु प्रेरणासे सहित हुआ कार्य नियोग है । यह तीसरा प्रकार हुआ ।
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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
कार्यसहिता प्रेरणा नियोग इत्यपरे ।
अपर मीमांसक कहते हैं कि कार्यसे सहित हो रही प्रेरणा नियोग है । अर्थात् — पहिले तृतीय पक्ष कार्यकी प्रधानता थी, अत्र प्रेरणाकी मुख्यता है । दालसहित रोटी, रोटीसहित दाल या गुरुसे सहित शिष्य और शिष्य से सहित गुरु, इनमें जो विशेषणविशेष्य भाव लगाकर प्रधानता और अप्रधानता हो जाती है, उसी प्रकार यहां भी विशेषणको गौण और उससे सहित हो रहे विशेष्यको मुख्य जान लेना चाहिये । ग्रन्थों में लिखा है कि:
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प्रेर्यते पुरुषो नैव कार्येणेह विना कचित् ।
ततश्च प्रेरणा प्रोक्ता नियोगः कार्यसंगता ॥ १०१ ॥
इस जगत् में कोई भी पुरुष कर्तव्यपनेको जाने बिना किसी मी कार्य करनेमें प्रेरित हो रहा नहीं पाया जाता है । तिस कारण से कार्यसे सहित हो रही प्रेरणा ही यहां अच्छा नियोग कही गयी है, यह नियोगका चतुर्थ प्रकार है ।
कार्यस्यैवोपचारतः प्रवर्तकत्वं नियोग इत्यन्ये ।
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अब कोई अन्य मीमांक यों कह रहे हैं कि उपचारसे कार्यका ही प्रवर्तकपना नियोग है । अर्थात्-वेदवाक्यको जो मुख्य प्रेरकपना हैं, वह यागस्वरूप कार्यमें उपचरित हो जाता है । जैसे कि त्रिलोकसारके श्रद्धेय प्रमेयको त्रिलोकसारके पढनेमें छात्र के लिये प्रेरकपना है । किन्तु सुन्दर लिखी हुई त्रिलोकसारकी चित्रित पुस्तक में उपचारसे प्रेरकपना कह दिया जाता है । अतः उपचारसे कार्य ही प्रवर्तक है, यही पांचवां नियोग है ।
प्रेरणाविषयः कार्यं न तु तत्प्रेरकं स्वतः ।
व्यापारस्तु प्रमाणस्य प्रमेय उपचर्यते ॥ १०२ ॥
वही ग्रन्थोंमें लिखा है कि वेदवाक्यजन्य यागानुकूल व्यापारस्वरूप प्रेरणा है। यज्ञ करना, पूजन करना आदि कार्य उस प्रेरणाके कर्तव्य विषय हैं। वह कार्य स्वयं अपने आपसे यष्टाका प्रेरक नहीं है । किन्तु प्रमाणके व्यापारका उपचार प्रमेयमें कर दिया जाता है । कर्तव्य कार्य यदि अधिक प्रिय होता है तो आप्तवचन ( जो कि वस्तुतः उस प्रिय कार्यको कराने में प्रेरणा कर रहा है) को छोडकर कार्य में ही प्रवर्तकपनेके गीत गाये जाते हैं ।
कार्यप्रेरणयोः संबधो नियोग इत्यपरे ।
यागरूप कार्य और प्रेरणाका सम्बन्ध हो जाना नियोग है, यों इतर मीमांसक कह रहे हैं । उनका प्रमाणवचन यह है कि:
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तत्त्वायचिन्तामणिः
प्रेरणा हि विना कार्यं प्रेरिका नैव कस्यचित् । कार्यप्रेरणयोर्योग नियोगस्तेन सम्मतः ॥ १०३ ॥
जिस कारण से कि प्रेरणा विचारी कार्यके विना किसी भी पुरुषको प्रेरणा करानेवाली नहीं होती है, तिस कारण कार्य और प्रेरणाका सम्बन्ध हो जाना ही नियोग सम्मत किया गया है। यह छठवां नियोग है ।
तत्समुदायो नियोग इति चापरे ।
उन कार्य और प्रेरणाका समुदाय हो जाना नियोग है । इस प्रकार कोई न्यारे मीमांसक कह रहे हैं, लिखा है कि
परस्पराविनाभूतं द्वयमेतत्प्रतीयते ।
नियोगः समुदायोस्मात्कार्यप्रेरणयोः ॥ १०४ ॥
परस्पर में अविनाभावको प्राप्त होकर मिले हुये कार्य और प्रेरणा दोनों ही एकमएक प्रतीत हो रहे हैं । इस कारण कार्य और प्रेरणाका समुदाय यहां नियोग माना गया है, यह सातवां ढंग है। तदुभयस्वभावनिर्मुक्तो नियोग इति चान्ये ।
उन कार्य और प्रेरणा दोनों स्वभावोंसे विनिर्मुक्त हो रहा नियोग है, इस प्रकार कोई अन्य विद्वान् कह रहे हैं ।
सिद्धमेकं यतो ब्रह्मगतमाम्नायतः सदा ।
सिद्धत्वेन च तत्कार्यं प्रेरकं कुत एव तत् ॥ १०५ ॥
जिस कारण से कि वेदवाक्योंद्वारा सदा जाना जा रहा, एक ब्रह्मतस्व प्रसिद्ध हो रहा
है, कर्मकाण्ड के प्रतिपादक वाक्योंमें भी कार्य और प्रेरणा की नहीं अपेक्षा करके परमात्माका प्रकाश हो रहा है, जब कि परमात्मा अनादिकालसे सिद्ध है, इस कारण वह किसीका कार्य है । भा प्रेरक तो वह कैसे भी नही हो सकता है। अतः कार्य और प्रेरणा इन दोनों स्वभावोंसे रहित नियोग है । नियोगका यह आठवां विधान है ।
Sitafalataश्चित् ।
यंत्र में आरूढ होने के समान याग आदि कार्यमें आरूढ हो जाना नियोग है। इस प्रकार कोई मीमांसक कह रहा है ।
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तत्वार्थ ठोकवार्तिके
कामी यत्रैव यः कश्चिन्नियोगे सति तत्र सः । विषयारूढमात्मानं मन्यमानः प्रवर्तते ॥ १०६ ॥
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होता है,
जो भी कोई भी जीव जिस ही स्वर्ग आदि विषयमें तीव्र अभिलाषा रखनेवाला FE जी उस कार्य करनेमें नियोग हो जानेपर अपनेको याम आदि विषयोंमें आरूढ मान रहा प्रवर्त हो जाता है। मात्रार्थ - जैसे झूला, मसीनका घोडा आदि यंत्रोंपर आरूढ हो रहा पुरुष तैसे मासे रंगा हुआ प्रवर्त रहा है । उसी प्रकार जिसको जिस विषयकी आसक्ति ( ढगन ) लग रही है, वह जीव उस ही कार्यमें अपनेको रंगा हुआ मानकर प्रवृत्ति करता है । वह नववां विधान है। भोग्यरूपो नियोग इत्यपरः ।
कार्य कर चुकने पर भविष्यमें जो भोग्यस्वरूप हो जाता है, वही वाक्यका अर्थ नियोग है, ऐसा कोई अन्य कह रहा है। लिखा भी है कि:
ममेदं भोग्यमित्येवं भोग्यरूपं प्रतीयते ।
ममत्वेन च विज्ञानं भोक्तर्येव व्यवस्थितम् ॥ १०७ ॥ स्वामित्वेनाभिमानो हि भोक्तुर्यत्र भवेदयं ।
भोग्यं तदेव विज्ञेयं तदेवं स्वं निरुच्यते ॥ १०८ ॥ साध्यरूपतया येन ममेदमिति गम्यते । तत्साध्येन रूपेण भोग्यं स्वं व्यपदिश्यते ।। १०९ ।। सिद्धरूपं हि यद्भोग्यं न नियोगः स तावता । साध्यत्वेनेह भोग्यस्य प्रेरकत्वान्नियोगता ॥ ११० ॥
•
किसी उपयोगी वाक्यको सुनकर मुझे यह भोग्य है, इस प्रकार भोग्यस्वरूपकी प्रत हो जाती है । जैसे कि अपराधीको कठोर कारागृहवासकी आज्ञा के वचन सुनकर भोग्यरूपकी प्रतीति हो जाती है। ऐसे ही वेदवाक्यों द्वारा आत्माको स्वकीय भोग्यस्वरूपकी प्रतीति हो जाती वह भोक्ता आत्मामें ही व्यवस्थित हो
है । उस भोग्यस्वरूप में मेरेपने करके जो विज्ञान हो रहा है, रहा है । भोक्ता आत्माका जिस विषय में स्वामीपने करके यह अभिप्राय ( साभिमान ) हो रहा है, अर्थात् — जिसका वह स्वामी है, वही पदार्थ भोग्य समझना चाहिये । यथार्थ में देखा जाय तो वह आमाका स्वरूप ही इस प्रकार स्व शद्वके द्वारा बाध्य किया जाता है। आत्मा अपने स्वभावका
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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भोक्ता है । जैन लोग भी मानते हैं मेरे द्वारा यह कार्य साध्य है । इस प्रकार साधने योग्य स्वरूपसे जिस पुरुषकरके यह जान लिया जाता है, वह अच्छे प्रकार साध्यरूप करके निजस्वरूप भोग्य कह दिया जाता है । जो आत्माका स्वरूप सिद्ध हो चुका भोग्य है, तितने मात्रसे वह नियोग नहीं है । क्योंकि भविष्य में साधने योग्यपनेकरके यहां भोग्यकी व्यवस्था है, जो स्वरूप भविष्य में भोगने योग्य होगा । अतः प्रेरकपनेसे भोग्यको नियोगपना इष्ट किया है। योग्य ज्योतिष्टोम आदि यज्ञोंसे विशिष्ट आत्माका स्वरूप भोग्य है । अतः यह दसवां प्रकार नियोगका है ।
अर्थात् - भविष्यमें करने मोग्यस्त्ररूप नियोग है,
पुरुष एव नियोग इत्यन्यः ।
आत्मा ही नियोग है, इस प्रकार कोई अन्य प्रभाकर कह रहा है । ग्रन्थका वचन यह है :ममेदं कार्यमित्येवं मन्यते पुरुषः सदा ।
पुंसः कार्यविशिष्टत्वं नियोगः स्यादवाधितः ॥ १११ ॥ कार्यस्य सिद्ध जातायां तद्युक्तः पुरुषस्तदा । भवेत्साधित इत्येवं पुमान् वाक्यार्थ उच्यते ॥ ११२ ॥ यह मेरा कार्य है, इस प्रकार आत्मा सर्वदा मानता रहता है। इस कारण विशिष्टपना ही बाधाओंसे रहित हो रहा नियोग है । यह नियोग विधि लिङ्गका वाध्य अर्थ है । कार्यकी सिद्धि हो चुकनेपर उस समय कार्यसे युक्त हो रहा पुरुष साधा गया समझा जाता है । इस कारण कार्ययुक्त पुरुष ही यों वाक्यका अर्थ कहा गया है। मियोगका यह ग्यारहवां भेद है ।
पुरुषका कार्य से
सोऽयमेकादशविकल्पो नियोग एव वाक्यार्थ इत्येकांतो विपर्ययः प्रभाकरस्य तस्य सर्वस्याप्येकादशभेदस्य प्रत्येकं प्रमाणाद्यष्ट विकल्पानतिक्रमात् । यदुक्तम् ।
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सो यह पूर्वोक्त प्रकार ग्यारह मेदवाला नियोग ही वाक्यका अर्थ है । इस प्रकार प्रम क रोका एकान्तरूपसे आग्रह करना निरा विपर्यय ज्ञान है । क्योंकि उन ग्यारहों भी भेदवाले सभी नियोगका प्रत्येक प्रमाण, प्रमेय आदि आठ विकल्पों करके अतिक्रमण नहीं हो सकता है । अर्थात् - ग्यारहों भी नियोगोंमें प्रत्येकका प्रमाण, प्रमेय आदि विकल्प उठाकर विचार किया जायगा तो वे ठीक-ठीक रूपसे व्यवस्थित नहीं हो सकेंगे, जो ही रविगुप्त नामक विद्वानोंने कहा है ।
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प्रमाणं किं नियोगः स्यात्प्रमेयमथवा पुनः ।
उभयेन विहीनो वा द्वयरूपोथवा पुनः ॥ ११३ ॥
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
शब्दव्यापाररूपो वा व्यापारः पुरुषस्य वा । द्वयव्यापाररूपो वा द्वयाव्यापार एव वा ॥११४॥
प्रभाकरों के प्रति भट्ट मत अनुयायी पूंछते हैं कि तुम्हारा माना हुषा वह नियोग क्या प्रमाणरूप होगा ! या प्रमेयस्वरूप होगा ! अथवा क्या फिर दोनों प्रमाण प्रमेयोंसे रहित होगा ! अयवा क्या पुनः प्रमाणप्रमेय दोनों स्वरूप होगा ? अथवा क्या शद्वका व्यापारस्वरूप होगा ! तथा क्या पुरुषका व्यापारस्वरूप वह माना जावेगा ! अथवा क्या शब्द और पुरुष दोनोंका मिला हुआ व्यापार स्वरूप होगा ! अथवा क्या शब्द्ध और पुरुषके व्यापारोंसे रहित ही उस नियोगका स्वरूप होगा ? इन पक्षोंको लेकर स्पष्ट उत्तर कहो !
तत्रैकादशभेदोपि नियोगो यदि प्रमाणं तदा विधिरेव वाक्यार्थ इति वेदांतवादप्रवेश प्रभाकरस्य स्यात् प्रमाणस्य चिदात्मकत्वात्, चिदात्मनः प्रतिभासमात्रत्वात्तस्य च परब्रह्मत्वात् । प्रतिभासमात्राद्धि पृथग्विधिः कार्यतया न प्रतीयते घटादिवत् प्रेरकतया वचनादिवत् । कर्मकरणसाधनतया च हि तत्पतीतौ कार्यताप्रेरकताप्रत्ययो युक्को नान्यथा। कि तर्हि, द्रष्टव्योरेऽयमात्मा श्रोतव्योऽनुमंतव्यो निदिध्यासितव्य इत्यादि श्रवणादवस्थांतरविलक्षणेन प्रेरितोहमिति जाताकूतेनाकारेण स्वयमात्मैव प्रतिभाति स एव विधिरिति वेदांतवादिभिरभिधानात्।
___यहां श्री विद्यानन्द आचार्य नियोगवादी प्रभाकरोंके मतका भट्ट मीमांसकों करके खण्डन कराये देते हैं । भट्ट मीमांसकोंने जिस प्रकार नियोगका खण्डम किया है, वह हमको अभीष्ट है। भाद्र कहते हैं कि ग्यारहों मेहवाला नियोग यदि उन आठ भेदोंसे पहिला भेद प्रमाणस्वरूप है। तब तो कर्तव्य अर्थका उपदेश या शुद्ध सन्मात्रस्वरूप विधि ही वाक्यका अर्थ है। इस प्रकार प्रभाकरके यहां ब्रह्माद्वैतको कहनेवाले वेदान्तवादका प्रवेश हो जायेगा। क्योंकि प्रमाण तो चैतन्य आत्मक है और चिद्स्वरूप आत्मा केवळ प्रतिमासमय है और वह शुद्ध प्रतिमाम तो ब्रह्ममय है। केवल प्रतिमासले न्यारी कोई बिधि घटादिकके समान कार्यरूपपने करके नहीं प्रतीत हो रही है। अर्थात्-घट, पट, पुस्तक, आदिक जैसे कार्यपनेसे प्रतीत हो रहे हैं, वैसी विधि कार्यरूप नहीं दीख रही है । अथवा वचन, अंगुलीद्वारा संकेत आदिके समान प्रेरकपने करके भी विधि नहीं जानी जा रही है । ये व्यतिरेक दृष्टान्त हैं । यानी वचन, बेधा आदिक जैसे छोकमें प्रेरक माने गये हैं। वैसी प्रतिमासस्वरूप विधि प्रेरणा करनेवाली नहीं है । हां, कर्मको वाच्यार्य साधनेवाळेपने करके या करणको वाच्य अर्थ साधनेवालेपने करके यदि विधिकी प्रतीति हो रही होती, तब तो विधिमें कार्यपन या प्रेरकपन करके ज्ञान होना उचित होता । अन्यथा यानी कर्मसाधन या करणसाथनपने के
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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बिना ही शुद्ध सन्मात्र विधिकी प्रतीति हो जानेपर तो कार्यपन या प्रेरकपनका ज्ञान करना उचित नहीं पडेगा । अर्थात् — जो किया जाय वह कर्म है (क्रियते इति कर्म) । जैसे घट, पट आदिक और स्वकृत्य में पुरुष जिसकरके प्रेरा जाय वे वचन आदिक प्रेरक करण हैं ( प्रेर्यतेऽनेन इति प्रेरकं ) । किन्तु " विधीयते यत् या विधीयतेऽनेन " इस प्रकार निरुक्ति करके विधि शद्व नहीं साधा गया है । तो वह विधि क्या है ? इसका उत्तर यों है कि अरे मैत्रेय ! यह आत्मा दर्शन करने योग्य है आत्माका दर्शन यों हो जाता है कि पहिले आत्माका वेदवाक्यों द्वारा श्रवण करना चाहिये । तभी ब्रह्मज्ञानमें तत्परता हो सकती है । पुनः श्रुत आत्माका युक्तियोंसे विचार कर अनुमनन करना चाहिये । श्रवण और ममनसे निश्चित किये गये अर्थका मनसे परिचिन्तन करना चाहिये | अथवा " तस्वमसि " प्रसिद्ध पक्ष तू ही है । इत्यादिक वैदिक शोंके श्रवणसे मैं पहिली अदर्शन, अश्रवण आदि की अवस्थाओं की अपेक्षा विलक्षण हो रहीं दूसरी अवस्थाओंकर के इस समय प्रेरित होगया हूँ | इस प्रकार (1 15 अहम् का दर्शन आदिद्वारा प्रत्यक्ष करानेवाली उत्पन्न हुई आकारवाली वेष्टा करके स्वयं आत्मा ही प्रतिमास रहा है वह आत्मा ही तो विधि है । इस प्रकार वेदान्तवादियो कथन किया है । अतः नियोगको प्रमाणरूप माननेपर प्रभाकरको बेदान्तवादी बनना पडेगा, अन्य विरुद्धमतोका आश्रय करलेना मारी निर्बलता है ।
प्रमेयत्वं तर्हि नियोगस्यास्तु प्रमाणत्वे दोषाभिवानात् इति कश्चित् । तदसत् प्रमाणवचनाभावात् । प्रमेयत्वे हि तस्य प्रमाणमन्यद्वाच्यं तदभावे क्वचित्प्रमेयत्वायोगात् । श्रुतिवाक्यं प्रमाणमिति चेन्न तस्याचिदात्मकत्वे प्रमाणत्वाघटनादम्यत्रोपचारात् । संवि tered श्रुतिवाक्यस्य पुरुष एव तदिति स एव प्रमाणं तत्संवेदनविवर्तश्च नियुक्तोहमित्यभिधानरूपी नियोगः प्रमेय इति नायं पुरुषादन्यः प्रतीयते यतो वेदांतवादिमतानुप्रवेशोऽस्मिन्नपि पक्षेन संभवेत् ।
नियोगको प्रमाणपना माननेपर दोषोंका कथन कर दिया गया है। इस कारण नियोगको तब तो प्रमेयपना रहे, इस प्रकार कोई पक्ष के रहा है । उसका वह कथन भी असत्य है । क्योंकि प्रमाणके होनेपर ही उससे जानने योग्य प्रमेयका कथन हो सकता है । किन्तु प्रमाण के वचनका अभाव है । जब कि उस नियोगको प्रमेयपना माना जावेगा तो उसका ग्राहक प्रमाण अन्य तुम प्रभाकरोंको कहना ही चाहिये। क्योंकि उस प्रमाणके बिना किसी भी पदार्थ में प्रमेयपनका योग नहीं हो पाता है । यदि वेदवाक्योंको प्रमाण कहोगे तब तो हम भट्ट कहते हैं कि यह तुम नहीं कह सकते हो। क्योंकि वचन जड होते है । उपचारसे भळे ही वचनोंको प्रमाण कह दिया जाय । उपचारके सिवाय उन बेदवाक्योंको चैतन्य आत्मकपना नहीं होते सन्ते मुख्यरूप से प्रमाणपना नहीं घटित होता है । हां, यदि वेढवाक्योंको चैतन्य आत्मक माना जावेगा, तब तो परब्रह्म ही श्रुतिवाक्य हुआ, इस ढंग से
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तत्वार्थश्लोकवार्तिक
तो वह ब्रह्म ही प्रमाण हो गया और उसकी चैतन्यस्वरूप पर्यायें तो " मैं स्वमें नियुक्त हो गया हूं" इस प्रकार कथन करना स्वरूप नियोग प्रमेय हो गया। इस ढंगसे यह प्रमेय तो परप्रमसे न्यारा प्रतीत नहीं हो रहा है । जिससे कि इस प्रमेयरूप दूसरे पक्षमें भी वेदान्तवादियों के मतका प्रवेश नहीं सम्भवे । अर्थात् -नियोगको प्रमेय माननेपर भी प्रभाकरोंको वेदान्तवादियों के गन्तव्य अनुसार ब्रह्म अद्वैतवादी बनना पड़ेगा।
प्रमाणप्रमेयस्वभावो नियोग इति चेत् सिद्धस्तर्हि चिद्विवर्तोसौ प्रमाणरूपवान्यथानुपपत्तेः। तथा च स एव चिदात्मोभयस्वभावतयात्मानमादर्शयन् नियोग इति स एव बमवादः।
नियोगवादी कहते हैं कि प्रत्येक पक्षका ग्रहण करनेपर दोष आते हैं । अतः प्रमाण और प्रमेय दोनों स्वभाववाला नियोग मान लिया जायगा, इसपर भट्ट कहते हैं कि तब तो वह नियोग बहुत अच्छे प्रकारसे चैतन्य परब्रमका परिणाम सिद्ध हो जायगा । अन्यथा यानी परब्रमका विवर्त माने विना नियोगको प्रमाणपना नहीं बन सकेगा। अर्थात् -जो वस्तु प्रमाण प्रमेय उभयरूप है, वह चैतन्यात्मक अवश्य है । और तिस प्रकार होनेपर वह सत्, विद्, आनन्द, स्वरूप आत्मा ही प्रमाणप्रमेय इन उभयस्वभाववाढपने करके अपनेकों सब ओरसे दिखला रहा नियोग स्वरूप हो रहा है। इस प्रकार वही ब्रह्म अद्वैतवादका अनुसरण करना प्रभाकरोंके लिये प्राप्त हो जाता है। ___अनुभयखमायो नियोग इति चेत् तर्हि संवेदनमात्रमेव पारमार्थिकं तस्य कदाचिदहेयत्वात् तथाविधस्व संभवात् सन्मात्रदेहतया निरूपितत्वादिति वेदांतवाद एव ।
चतुर्थ पक्षके अनुसार यदि प्रमाण प्रमेय दोनों स्वभावोंसे रहित नियोग माना जायगा, तवे तो केवल शुद्ध सम्वेदन ही वास्तविक पदार्थ सिद्ध होता है । क्योंकि किसी भी कालमें वह शुद्धसम्बेदन त्यागने योग्य नहीं है । तिस कारण अनुभयमें पडे हुये नका अर्थ पयुर्दास माननेपर तिस प्रकार सर्वदा प्रमाणपन, प्रमेयपन उपाधियोंसे रहित होता हुआ शुद्ध प्रतिमासका ही पकडा जाना सम्मवता है। केवल सत्स्वरूप इतने ही शरीरको धारनेवालेपन करके उस प्रतिमासका ही निरूपण किया गया है । इस प्रकार प्राभाकरोंके यहां वेदान्तवाद ही घुस जाता है । यह अपसिद्धान्त हुमा । सर्वथा प्रतिकूलोंके मतको माननेकी अपेक्षा भाइयोंका मत स्वीकार कर लेना कहीं अच्छा है।
शब्दव्यापारो नियोग इति चेत् भहमतप्रवेशा, शब्दव्यापारस्य शब्दभावनारूपत्वात् ।
यदि प्रभाकरोंका यह मन्तव्य होय कि पांचवें पक्षके अनुसार " अग्निष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत् " स्वर्गप्राप्तिकी अभिलाषा रखनेवाला जीव अग्निष्टोम करके यज्ञ करे, इत्याविक शब्दोंका
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व्यापार स्वरूप नियोग है, तब तो हम मात्र कहते हैं कि इस प्रभाकरको कुमारिळभट्टके मतका अनुसरण करना कथमपि निवारा नहीं जा सकता है। हम भट्टोंके यहां शब्दव्यापारको शब्दोंकी भावनास्वरूप माना गया है । शब्द भावक हैं। अतः प्रमाकरका भट्टके मतमें प्रवेश करना अनिवार्य दुखा।
पुरुषव्यापारो नियोग इति चेत् स एव दोषः तस्यापि भावनारूपत्वात्, शब्दात्मव्यापाररूपेण भावनाया दैविध्याभिधानात् ।
___ यदि प्रभाकर छठवें पक्षके अनुसार आत्माके व्यापारको नियोग मानेंगे तब भी वही दोष . होगा। यानी तुम प्रमाकरोंको भट्ट मतका अनुसरण करना पडेगा। क्योंकि पुरुषका व्यापार मी भावनास्वरूप है। भाट्टलोगोने शब्द व्यापार और आत्मन्यापार स्वरूपकरके भावनाका दो प्रकारसे कथन किया है।
तदुभयरूपो नियोग इत्यनेनैव व्याख्यातं ।
सातवें पक्षके अनुसार प्रभाकर यदि शब्द और पुरुष मिले हुये दोनोंका व्यापार स्वरूप नियोगको मानेंगे तो वह उनका वक्तव्य भी इस उक्त कथनकरके व्याख्यान कर दिया गया है। अर्थात्-क्रमसे अथवा युगपत् दोनोंका व्यापर माना जायगा ! बताओ। क्रमसे माननेपर वही मट्ट मतका अनुसरण करना दोष आता है। और युगपत् दोनोंका एक स्वभावपना तो एक वस्तुमें विरुद्ध है । अतः वह अलीक हो जायगा ।
तदनुभयव्यापाररूपत्वे तन्नियोगस्य विषयस्वभावता, फलस्वभावता, नि:स्वभावता, वा स्यात् ? प्रथमपक्षे यागादिविषयस्याग्निष्टोमादिवाक्यका विरहात् तद्रूपस्य नियोगस्यासंभव एव । संभवे वा न वाक्यार्थी नियोगस्तस्य निष्पादनार्थत्वात् निष्पन्नस्य निष्पादनायोगात् पुरुषादिवत् । द्वितीये पक्षेपि नासौ नियोगः फलस्य भावत्वेन नियो. गत्वाघटनात् तदा तस्यासंनिधानाच्च । तस्य वाक्यार्थत्वे निरालंबनशब्दवादाश्रयणा. स्कृतः प्रभाकरमतसिद्धिः १ निःस्वभावत्वे नियोगस्यायमेव दोषः।
अष्टमपक्षके अनुसार प्रभाकर उस नियोगको यदि शब्दव्यापार पुरुषन्यापार दोनोंसे रहित स्वरूप मानेंगे तब तो पर्युदास पक्ष ग्रहण करनेपर हम माट्ट पूछेगे कि वह नियोग दोनों व्यापारोंसे मिन होता हुआ, क्या यज्ञ आदि कर्मरूप विषयस्वभाव है ! या स्वर्ग आदि फलस्वभाव है ! अथवा प्रसज्य पक्षको अंगीकार करनेपर वह नियोग समी स्वभावोंसे रहित है ! वताओ । पहिला पक्ष लेनेपर तो अग्निष्टोम करके याग करना चाहिये, इस वाक्य उच्चारणके समयमें याग आदि विषयोंका अभाव है । अतः यज्ञस्वरूप नियोगकी भी सम्भावना नहीं है । जो कार्य भविष्यमें होने
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
वाला है, उस कार्य के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखनेवाला धर्म वर्तमानकाल में नहीं है । और यदि भविष्य में होनेवाले यज्ञकी वर्तमान में सम्भावना मानी जावेगी तो वाक्यका अर्थ नियोग नहीं हुआ । क्योंकि यह नियोग तो कर्तव्य कार्यों को भविष्य में बनानेके लिये हुआ करता है । जो किया जाकर बन चुका है, उसका पुनः बनाना नहीं हो सकता है। जैसे कि अनादिकालके बने हुये नित्यद्रव्य आत्मा, आकाश आदिक नहीं बनाये जाते हैं । द्वितीय पक्षके प्रहण करनेपर भी वह नियोग स्वर्ग आदि फलस्वरूप नहीं घटित हो सकता है । क्योंकि फळ तो स्वयं अन्तिम परिणाम है, फलका पुनः फल नहीं होता है । किन्तु नियोग तो फलकरके सहित है । यदि अन्य फलोंकी कल्पना की जायगी तो अनवस्था हो जायगी । " भावित्वेन " पाठ माना जाय तो फळ भविष्य में होनेवाला है, अतः वर्तमान कालका नियोग नहीं हो सकता है, यो अर्थ लगा दिया जाय । दूसरी बात यह मी है कि उस वाक्य उच्चारण के समय उस स्वर्ग फल आदिका सन्निधान नहीं है। अतः उस अविद्यमान फलको यदि उस वाक्यका फक मानोगे तो निरालम्बन शब्द के पचपरिग्रहका आश्रय कर केनेसे बौद्ध मतका प्रसंग होगा । प्रभाकरके मतकी सिद्धि कैसे हो सकेगी ? अर्थात् - शब्दका अर्थ वस्तुभूत कुछ नहीं है । अविद्यमान अर्थोको शब्द कहा करते हैं, इस प्रकार बौद्धजनोंने शब्दका आलम्बन कोई वाच्यार्थ माना नहीं है। अविद्यमानको शब्दका वाष्यार्थ मानना प्रभाकरोंको शोभा नहीं देता है । प्रभाकर अगामको प्रमाण मानते हैं। तृतीय पक्षके अनुसार नियोगको सभी स्वभासे रहित माना जायगा तो भी यही दोष कागू होगा । अर्थात् स्वभावोंसे रहित नियोग खरविषाणके समान असत् है । बौद्धोंके यहां असत् अन्यापोह शब्दोंका वाथ्य माना गया है। मीमांसकों के यहां नहीं । इस प्रकार आठों पक्षोंमें नियोगकी व्यवस्था नहीं बन सकी ।
किं च, सन् वा नियोगः स्यादसन् वा ? प्रथमपक्षे विधिवाद एव द्वितीये निरालंबनवाद इति न नियोगो वाक्यार्थः संभवति, परस्य विचारासंभवात् ।
नियोगका खण्डन करने के लिये विचारका दूसरा प्रकार यों भी है कि प्रभाकर मीमांसक उस नियोगको सत्रूप पदार्थ मानेंगे ! अथवा असत् पदार्थ इष्ट करेंगे ! पहिला पक्ष लेनेपर ब्रह्म अद्वैतवादियोंका विभिबाद ही स्वीकार कर लिया । क्योंकि सत्, ब्रह्म, प्रतिभास, विधि, इनका एक ही अर्थ माना गया है । यदि द्वितीय पक्ष लेनेपर नियोग असत् पदार्थ माना जायगा, तत्र तो प्रभाकरोंको बौद्धों के निरालम्बनवादका आश्रय करना प्राप्त होता है । अर्थात् असत् नियोग कभी वाक्यका अर्थ नहीं हो सकता है । इस प्रकार विधिलिङम्त वाक्योंका अर्थ नियोग करना नहीं सम्भवता है । पूर्वोक्त अनेक दोष आते हैं । जो वाक्यका अर्थ नियोग कर रहा है, उसको आहार्य कुश्रुतज्ञान है ।
तथा भावना वाक्यार्थ इत्येकांतोपि विपर्ययस्तथा व्यवस्थापयितुमशक्तेः । भावना हि द्विविधा शुद्धभावना अर्थभावना चेति “ शद्वात्मभावनामाहुरन्यामेव लिङादयः ।
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तत्विार्यचिन्तामणिः
इयं त्वन्यैव सर्वार्था साख्यातेषु विद्यते " इति वचनात् । अत्र शदभावना शब्दव्यापारस्तत्र शद्धेन पुरुषव्यापारो भाव्यते, पुरुषव्यापारेण धात्वर्थो, धात्वर्थेन च फलमिति शदभावनावादिनो मतं, तच्च न युज्यते शव्यापारस्य शद्वार्थत्वायोगात् । न अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इति शद्वात्तव्यापार एवं प्रतिभाति स्वयमेकस्य प्रतिपाद्यप्रतिपादकत्वविरोधात् । प्रतिपादकस्य सिद्धरूपत्वात्मतिपाद्यस्य चासिद्धस्य तथात्वसिद्धेरेकस्य च सकृत्मसिद्धतररूपत्वासंभवाचद्विरोधः ।
आचार्य कह रहे हैं कि तिसी प्रकार भट्टमीमांसकों द्वारा माना गया " वाक्यका अर्थ भावना ही है" इस प्रकारका एकान्त भी विपर्ययज्ञान है। क्योंकि तिस प्रकार वाक्यके वाच्य अर्थ भावनाकी व्यवस्था करानेके लिये भाटोंकी सामर्थ्य नहीं है । बात यह है कि माहोंके यहां शद्ध भावना और अर्थ मावना ये दो प्रकारकी भावना मानी गयी हैं। उनके प्रन्थोंमें उक्ति है कि लिङ्, लोट, तव्य, ये प्रत्ययके अर्थ हो रही भावनासे भिन्न ही शरमावना और अर्थ ( आत्म ) भावनाको कह रहे हैं । हां, यह सम्पूर्ण अर्थोंमें वर्त रही करोत्यर्थरूप अर्थभावना तो शब्दभावनासे मिल ही है जो कि गम्छति, पचति, यजति इत्यादिक सम्पूर्ण तिङन्त आख्यातोंमें विद्यमान है। ऐसी अर्थभावना शबभावनासे भिन्न होनी ही चाहिये । इन दो भावनाओंमें शदभावना तो शद्वका व्यापार स्वरूप पडती है। कारण कि शब्दकरके पुरुषका व्यापार भावित किया जाता है, और पुरुष व्यापार करके यज् पच् आदि धातुओंका अर्थभावनाग्रस्त किया जाता है । तथा धातु अर्यकरके फळ भाबित किया जाता है । यह शदभावनाबादी भाटोंका मत है। किन्तु वह युक्त नहीं है। क्योंकि शब्दके व्यापारको शद्वका अर्थपना घटित नहीं होता है । स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला अनुष्ठाता अग्निष्टोम करके यज्ञको, इस प्रकारके शबसे उस शब्दका व्यापार ही नहीं प्रतिभासता है । वही शब्द अपने ही व्यापारका प्रतिमातक भला कैसे हो सकता है ! एक ही शद्वको स्वयं प्रतिपायपन और प्रतिपादकपनका विरोध है । यानी शद्वका ही शरीर स्वयं प्रतिपाद्य और स्वयं उस अपने स्वरूपका प्रतिपादक नहीं होता है । जब कि प्रतिपादक शद्धका स्वरूप उच्चारण काळमें प्रथमसे ही बना बनाया सिद्ध है । और भविष्यमें प्रवर्तने योग्य प्रतिपाय विषयका स्वरूप तो तब असिद्ध है । तिस प्रकार प्रतिपादकपन प्रतिपायपनकी व्यवस्था हो जानेसे एक ही पदार्यके एक ही समय प्रसिद्धपन बोर उससे मिन बसिद्धपन स्वरूपका असम्भव हो जानेसे शब्दमें उस प्रतिपाय और प्रतिपादकपनका विरोध है।
शब्दस्वरूपमपि श्रोत्रज्ञानेऽर्पयतीति तस्य प्रतिपादकत्वाविरोधे रूपादयोपि स्वस्थ प्रतिपादकाः संतु पक्षुरादिज्ञाने स्वरूपार्पणाद्विशेषाभावात् । स्वाभिषेय प्रतिपादकत्वसमपणात् प्रतिपादक शब्दो न रूपादय इति चायुक्तिकं, शब्दस्य स्वाभिधेयप्रतिपादकत्व
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समर्पणे स्वयं प्रसिद्ध परोपदेशानर्थक्यप्रसंगात् । स्वत एव शब्देन ममेदमभिषेयमिति प्रतिपादनात् ।
शब्द भावनावादी मा यदि यों कहें कि शब्द अपने स्वरूपको भी श्रोत्र शानमें अर्पण कर देता है। इस कारण वह शब्द अपने शब्दभावनास्वरूपका प्रतिपादक हो जायगा। कोई विरोध नहीं आता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि तब तो रूप, रस आदिक भी अपने अपने स्वरूपोंके प्रतिपादक हो जावें । क्योंकि चक्षुः, रसमा, आदि इन्द्रियोंसे जन्य ज्ञानमें विषयता सम्बन्धसे रूप, रस, आदिने मी आना स्वरूप अर्पण कर दिया है। स्वकीय बानोंमें अपने स्वरूपका समर्पण कर देनेकी अपेक्षा शब्द और रूप, रस, आदिमें कोई विशेषता नहीं है। यदि माट यों कहें कि शब्द अपने अभिवेय अर्थके प्रतिपादकपनको समर्पण कर देता है। इस कारण शब्द तो अपने स्वरूपका प्रतिपादक है, किन्तु रूप आदिक वैसे नहीं हैं । आचार्य कहते हैं कि माहोंका यह कहना युक्तिशून्य है । क्योंकि शब्दका यदि अभिधेयकी प्रतिपादकताका समर्पण करना स्वयं प्रसिद्ध होता तो परके द्वारा उपदेश देना, व्याख्यान करना, समझा देना आदिके व्यर्थपनका प्रसंग आता है। क्योंकि श्रोताओं के प्रति " मेरा यह प्रतिपाद्य अर्थ है । इस प्रकार शब्दोंकरके स्वतः ही कह दिया गया है । अर्थात्-यों तो संकेतका नहीं ग्रहण करनेवाले मनुष्य तियेच या बालक अथवा गूंगे भी कठिन शास्त्रोंका अर्थ समझ जायेंगे । विद्यालयोंमें पाठकोंकी भावश्यकता नहीं रहेगी।
पुरुषसंकेतबलात्स्वाभिधेयप्रतिपादनव्यापारमात्मनः शन्दो निवेदयतीति चेत्, तर्हि यत्रार्थे संकेतितः शन्दस्तस्यार्थस्य पुरुषाभिप्रेतस्य प्रतिपादकत्वं तस्य व्यापार इति न शब्दव्यापारो भावना । वक्त्रभिप्रायरूढार्थः कथं ? तस्य तथाभिधानात् । तथा च कथमनिष्टोमादिवास्येन भावकेन पुरुषस्य यागविषयप्रवृत्तिलक्षणो व्यापारो भाष्यते पुरुष. व्यापारेण बाधात्वर्थो यजनक्रियालक्षणो धात्वर्थेन फलं स्वर्गाख्यं, यतो भान्यभावफकरणरूपतया व्यंशपरिपूर्णा भावना विभाव्यत इति।
___" इस शद्वका यह अर्थ है" इस प्रकार वृद्ध व्यवहार द्वारा शद्वोंके वाच्यार्थीको समझानेवाले इशारोंको संकेत कहते हैं । शद अपने वाच्यार्थका प्रतिपादन करमारूप अपने ग्यापारको पुरुषके द्वारा किये गये संकेतग्रहणकी शक्तिसे निवेदन कर देता है । इस प्रकार भाट्टोंके कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो जिस अर्थमें शद्वका संकेत ग्रहण हो चुका है, पुरुषके अमिप्रायमें प्राप्त रहे उस अर्यका प्रतिपादकपना उस शद्वका व्यापार हुआ । इस ढंगसे शब्दका व्यापार तो भावना नहीं सिद्ध हो सका है। यदि कोई मट्ट यों कहे कि बक्ताके अभिप्रायमें आरूढ हो रहा अर्थ उस शद्वका कैसे मान लिया जाय ! बताओ। इसका उत्तर यही है कि तिस प्रकार शब्दके द्वारा वह अर्थ कहा जाता है। अतः तिस प्रकार शवभावनाका निराकरण हो जामेसे अग्निष्टोम,
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ज्योतिष्टोम आदिकी भावना करानेवाळे वाक्यों करके अनुष्ठाता पुरुषका याग विषयमें प्रवृत्ति कराना स्वरूप व्यापार भा कैसे भावित किया जायेगा ! और पुरुषव्यापारकरके याग क्रिया करना स्वरूप धातु अर्थ कैसे मावित किया जावेगा ! तथा धातु अर्थ करके चिरकालमें होनेवाला स्वर्ग मामका फल कैसे भावनायुक्त किया जा सकता है ! जिससे कि भावना करने योग्य और भावना करनेवाला तथा भावनाका करण इन रूपोंकरके तीन अंशोंसे परिपूर्ण होती हुई भावनाका विचार किया जाता । अथवा तीन अंशवाली मावना आत्मामें विशेषतया माई जाती रहे । अतः मट्टों द्वारा मानी गयी शदभावना पाक्यका अर्थ सिद्ध नहीं हो पाती है। .
पुरुषव्यापारी भावनेत्यत्रापि पुरुषो यागादिना स्वर्ग भावयतीति कथ्यते । न चैवं धात्वर्थभावना शद्वार्थः स्वर्गस्यासंनिहितत्वात् । प्रतिपादयितृविवक्षाबुद्धौ प्रतिभा. समानस्य शद्वार्थत्वे बौद्ध एव शद्वार्थ इत्यभिपतं स्यात् । तदुक्तं । " वक्तृव्यापारविषयो योर्थो बुद्धौ प्रकाशते । मामाण्यं तत्र शब्दस्य नार्थतखनिबंधनम् ॥” इति म भावनावा. दावतारो मीमांसकस्य, सौगतमवेशानुषंगादिति । . पुरुषका व्यापार भावना है । इस प्रकार भी भट्ट मीमांसकोंका कपन होनेपर यष्टा पुरुष याग भादि करके स्वर्गको भावता है, यह कहा जाता है। किन्तु इस प्रकार धातु अर्थ याग करके भावना किया गया फल तो शब्दका अर्थ नहीं है। क्योंकि शब्दका अर्थ निकटवती होना चाहिये और शब्द बोलते समय स्वर्ग तो सनिहित नहीं है । शब्दके सुनने पीछे न जाने कितने दिन पचात् याग किया जायगा और उसके बहुत दिन पीछे मरनेपर स्यात् स्वर्ग मिल सके । यदि मीमांसक यों कहें कि स्वर्ग भले ही उस समय वहां विद्यमान नहीं होय, फिर भी वक्ताको विवक्षापूर्वक हुई बुद्विमें स्वर्ग प्रतिमास रहा है । अतः बुद्धिमें समिहित हो जानेसे शब्दका वाच्यार्थ स्वर्ग हो सकता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यों तो बुद्धिमें पड़ा हुआ ही अर्थ शब्दका वाच्य अर्थ है, यह अभिमत हुआ । अर्थात-बौद्धोंने विवक्षा आखूढ हो रहे अर्थसे शब्दका वाचकपन माना है। वह बौद्धोंका मत ही माहोंको अभिमत हुआ। बुद्धि के समुदाय अपनेको मान रहे प्रज्ञाकर नामक बौद्धोंने यही बात अपने प्रथमें कही है कि पताके व्यापारका विषय हो रहा जो अर्थ श्रोताको बुदिमें प्रकाश रहा, उस ही अर्यको कहने सम्मको प्रमाणता है। यहां विधमान हो रहे वास्तविक अर्थ-तस्वको कारण मानकर शब्दका प्रामाण्य व्यवस्थित नहीं है। अर्थात-बौद्ध मानते हैं कि वक्ताके पुद्धिसम्बन्धी व्यापारसे जाना जा रहा अर्थ यदि शिष्यकी पुद्धिमें प्रकाशित होगया है, तो उस अंशमें शब्दप्रमाण है । बाघ अर्थ होय या नहीं, कोई बाकांक्षा नहीं । अतः पुरुषमावना सिद्ध नहीं हुई । इस प्रकार मह मीमांसकोंके दोनों भावना वादोंका अवतार होना प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं हुषा । क्योंकि बौद्धमतके प्रवेशका प्रसंग हो
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जाता है। अतः भावना वाक्यका अर्थ है, यह मीमांसकोंका विपर्ययज्ञान है, जो कि आहार्य कुश्वतज्ञान स्वरूप है।
तथा धात्वर्थों वाक्यार्थ इत्येकांतो विपर्ययः शुद्धस्य भावस्वभावतया विधिरूपत्वप्रसंगात् । तदुक्तं । " सन्मात्रं भावलिंगं स्यादसंपृक्तं तु कारकैः । धात्वर्यः केवळः शुद्धो भाव इत्यभिधीयते ॥” इति विधिवाद एव, न च प्रत्ययार्थशून्योर्धात्वर्थः कुतश्चिद्विधिपाक्यात् प्रतीयते तदुपाधेरेव तस्य ततः प्रतीतेः ।
तिसी प्रकार यज, पच, आदि धातुओंका पूजना, पकमा, आदि अर्थ ही वाक्यका अर्थ है। ऐसा एकान्त करना भी विपर्ययज्ञान है । क्योंकि शुद्ध धातुका अर्थ तो भावस्वरूप है, तिसकारण ब्रह्म अद्वैतवादियोंके यहां माने गये विधिरूपपनेका प्रसंग हो जावेगा। विधिको माननेवाले ब्रह्म अद्वैत वादियोंने उसीको अपने ग्रन्थोंमें कहा है कि शुद्ध सत्तामात्र ही भावोंका ज्ञापक चिन्ह है। वह कर्ता, कर्म, आदि कल्पित कारकोंसे मिला हुआ नहीं है । अन्य अर्थोसे और अपने अवान्तर विषयोंसे रहित जो केवळ शुद्ध धातुका अर्थ है, वह भाव ऐसा कहा जाता है । " तां प्रातिपदिकार्थञ्च धात्वर्थ च प्रचक्षते । सा सत्ता सा महानात्मा यामाहुस्त्वतलादयः । " धातु और प्रत्ययोंसे रहित हो रहे अर्थवान् शब्द स्वरूपकी प्रातिपदिकका संज्ञा है विद्वान् जन उस सत्ताको ही प्रातिपदिकका अर्थ और धातुका अर्थ भले प्रकार वखान रहे हैं। वह प्रसिद्ध हो रही सत्ता महान् परब्रह्मस्वरूप है जिसको कि स्ख, तल, अण् आदिक भाव प्रत्यय कह रहे हैं। इस प्रकार धातु अर्थ माननेपर तो विधिवाद ही प्राप्त हो जाता है, हां प्रत्ययके अर्थ संख्या, कारक, इनसे रहित हो रहा वह शुद्ध धातु अर्थ तो किसी भी विधि वाक्यसे प्रतीत नहीं हो रहा है। किन्तु उस प्रत्ययार्थ रूप विशेषणसे सहित हो रहे ही उस धातु अर्थकी उस विधि लिडन्त वाक्यसे प्रतीति हो रही है ।
प्रत्ययार्थस्तत्र प्रतिभासमानोपि न प्रधानं कर्मादिवदन्यत्रापि भावादिति चेत्, सहि पात्वर्थोपि प्रषानं मा भूत् प्रत्ययांतरेपि भावात् प्रकृतपत्ययापायेपीति समानं पश्यामः ।
यदि विधिवादको इष्ट करते हुये शुद्ध धातु अर्थको विधि वाक्यका अर्थ माननेवाले यों कहें कि यद्यपि यहां विधि वाक्यके अर्थमें प्रत्ययका अर्थ प्रतिभास रहा है । फिर भी वह प्रत्ययका अर्थ प्रधान नहीं है । क्योंकि कर्म, करण, आदिके समान अन्य स्थानोंमें भी प्रत्ययार्थ विद्यमान है । अर्थात्-गमि, पचि, पठि आदि धातुओंमें भी विधिलिंङ् या त प्रत्यय वर्त रहा है। स्व, तल्, आदि भाव प्रत्यय भी अन्य अनेक शद्वोंमें संपृक्त हो रहे हैं। शयीत, नश्यात् , भोक्तव्यं, चौर्य, दासता,
आदि शब्द तैसे प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार कहनेपर आचार्य कहते हैं कि तब तो धातुका अर्थ भी वाक्यका प्रधान अर्थ नहीं होवे। क्योंकि प्रकरणप्राप्त प्रत्ययोंके नहीं होनेपर भी वा धातु अर्थ
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अन्य लुट्, ऌट्, क्वा, तृच्, आदि दूसरे प्रत्ययोंमें भी वर्त रहा है । यक्ष्यति, यष्ठा, यष्वा, प्रयोग भी बोके जाते हैं। इस प्रकार हम जैन धातु अर्थ और प्रत्ययार्थ के विषयमें शंका समाधानोंको समान हो रहा देखते हैं ।
नन्वेवं धात्वर्थस्य सर्वत्र प्रत्ययेष्वनुस्यूतत्वात् प्रधानत्वमिष्यत इति चेत्, प्रत्ययार्थस्य सर्वधात्वर्थेष्वनुगतत्वात् प्रधानत्वमस्तु । प्रत्ययार्थविशेषः सर्वधात्वर्थाननुयायीति चेत्, धात्वर्थविशेषोपि सर्वप्रत्ययार्थाननुगाम्येव धात्वर्थ सामान्यस्य सर्वप्रत्ययार्थानुयायित्वमिति न विशेषसिद्धिः ।
पुनः विधिवादी अवधारण करते हैं कि इस प्रकार धातु अर्थ तो सम्पूर्ण ही टिङ्, लिट्, लुट्, आदि के प्रत्ययों में मालामें पुवे हुये सूतके समान ओतपोत हो रहा । अतः धातु अर्थको प्रधानपना माना जाता है । इस प्रकार कहनेपर तो हम कहेंगे कि प्रत्ययका अर्थ भी तो सम्पूर्ण यजि, भू, पचि, कृ, भू, आदि धातुओंके अर्थोंमें पीछे पीछे चलता हुआ अन्वित हो रहा है । अतः प्रत्ययार्थ मी प्रधान हो जाओ। इसपर अद्वैतवादी यदि यों कहें कि विशेष हो रहा प्रत्ययार्थ तो सभी धातु अर्थो में अनुयायी नहीं | अर्थात् — एक विवक्षित तिप् या तस्का अर्थ तो सभी मिप्, बस्, लुट, कि, तल, आदि प्रत्ययवाके धातु अर्थों में अन्वित नहीं हो रहा है । इस प्रकार कहने पर तो हम कहते हैं कि विशेष धातु अर्थ भी तो सम्पूर्ण प्रत्ययार्थों में अनुगामी नहीं ही है । पज धातुका अर्थ मला पचि, गमि, धातुओंके साथ लगे हुये प्रत्ययों के अर्थ में कहाँ ओतपोत होकर अनुगामी हो रहा है ? हां, सामान्यरूपसे धातु प्रत्यय अर्थों में अनुयायीपन है । इस कारण धातु अर्थ और प्रत्ययार्थमें अन्यत्र अनुगम नहीं अनुगम करना इस अपेक्षासे कोई अन्तर नहीं सिद्ध हुआ । ऐसी दशा में वाक्यका अर्थ शुद्ध धातु अर्थ नहीं हो सकता है ।
अर्थको सम्पूर्ण करना या
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तथा विधिर्वाक्यार्थ इत्येकांतोपि विपर्ययस्तस्य विचार्यमाणस्यायोगात् । तद्धि विधिविषयं वाक्यं गुणभावेन प्रधानभावेन वा विधौ प्रमाणं स्यात् १ यदि गुणभावेन सदाग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इत्यादेरपि तदस्तु गुणभावेन विधिविषयत्वस्य भावात् । ar aeमतानुसारिभिर्भावनाप्राधान्योपगमात् प्राभाकरैश्च नियोगगोचरत्वप्रधानांगीकरणात् । तौ च - भावनानियोगौ नासद्विषयो प्रवर्तेते प्रतीयेते वा सर्वथाप्यसतोः प्रवृत्तौ प्रतीतौ वा शशविषाणादेरपि तदनुषक्तेः सद्रूपतया च तयोर्विधिनांतरीयकत्वसिद्धेः सिद्धं गुणभावेन विधिविषयत्वं वाक्यस्येति न प्रमाणतापत्तेर्विप्रतिपत्तिः येन कर्मकांडस्य पारमार्थिकता न भवेत् ।
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तथा सत्तामात्र विधि ही विधिलिङ् बाक्यका अर्थ है । यह ब्रम अद्वैतवादियोंका एकान्त में। विपर्यय ज्ञान है। क्योंकि उस विधिका विचार किया जानेपर उसकी सिद्धि होनेका अयोग है। दखिये, यह विधिको विषय करनेवाला वाक्य क्या गौणपनेसे विधिको जानता हुआ प्रमाण समक्षा जायगा ! अथवा प्रधानरूपसे विधिको प्रतिपादन करता हुआ विधिमें प्रमाण माना जावेगा ! बतायो । प्रथमपक्षके अनुसार यदि गौणरूपसे विधिको कह रहा वाक्य प्रमाण बन जायगा, तब तो ब्रह्म अद्वैतवादियोंके यह" स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष अग्निहोत्र पूजनद्वारा हवन करे" इत्यादिक कर्मकाण्डके प्रतिपादक वाक्योंको भी प्रमाणपना हो जाओ। क्योंकि कर्मकाण्ड वाक्योंका अर्थ भी गौणरूपसे विधिको विषय करता हुआ वर्त रहा है। उन कर्मकाण्ड वाक्यों में भह मतका अनुसरण करनेवाले मीमांसकोंने मावना अर्थकी प्रधानता स्वीकार की है । और प्रमाकर मत अनुयायियोंने उन वाक्योंमें प्रधानरूपसे नियोगको विषय करनापन अंगीकृत किया है। वे भावना
और नियोग दोनों असर पदार्थको विषय करते हुये नहीं प्रवर्तते हैं । अथवा स्वकर्तव्यद्वारा असत् पदार्थको प्रतीति कराते हुए नहीं जाने जा रहे हैं। सभी प्रकारोंसे असत् हो रहे पदार्थोकी ( में ) प्रवृत्ति अथवा प्रतीति होना माना जावेगा, तब तो शशश्रृङ्ग, गजविषाण, आदिकी भी उन प्रवृत्तियां या प्रतीतियां हो जाने का प्रसंग हो जावेगा। इससे एक बात यह भी जब जाती है कि उन भावना और नियोगको सहपपने करके विधि के साथ अविनाभावीपना सिद्ध है। अतः प्रसिद्ध हो जाता है कि कर्मकाण्ड प्रतिपादक वाक्य गौणरूपसे सन्माप्रविधिको विषय करते हैं । इस कारण मीमांसकोंके ज्योतिष्टोम, अग्निष्टोम, विश्वजित् , अश्वमेध आदि वाक्योंकी प्रमाणताके प्रसंगका विवाद नहीं होना चाहिये । जिससे कि कर्मकाण्ड वाक्योंको पारमार्थिकपना नहीं होवे । अर्थात्-गौणरूपसे विधिको कहनेवाले कर्मकाण्ड वाक्य भी अद्वैतवादियोंको प्रमाण मानने पडेंगे।
__प्रधानभावेन विषिविषयं वेदवाक्यं प्रपाणमिति चायुक्तं, विधेः सत्यत्वे द्वैतावतारात् । तदसत्यत्वे प्राधान्यायोगात् । तथाहि-यो योऽसत्यः स स न प्रधानभावमनुभ. पति, थथा सदविद्याविलासा तथा चासत्यो विधिरिति न प्रधामभावेन तद्विषयतोपपत्तिः ।
द्वितीयपक्ष के अनुसार ब्रह्म अद्वैतवादी यदि यों कहें कि प्रधानरूपसे विधिको विषय करने वाळे उपनिषद् वाक्य प्रमाण हैं । आचार्य कहते हैं कि यह उनका कहना पुक्तियोंसे रहित है। क्योंकि वाक्य के अर्थ विधिको वास्तविक रूपसे सत्य माननेपर तो द्वैतवादका अवतार होता है । एक विधि और दूसरा ब्रह्म ये दो पदार्थ मान लिये गये हैं । यदि उस श्रोतव्य मन्तन्य आदिको विधिको अवस्तु भूत असत्य मानोगे तब तो विधिको प्रधानपना घटित नहीं होता है । उसीको अनुमान वाक्यद्वारा स्पष्ट फर हम दिखला देते हैं कि जो जो असत्य होता है, यह बह प्रधामपन का अनुभव नहीं करता है। जैसे कि उन ब्रह्म अद्वैतवादियों के यहां अविधाका विलास असत्य होता
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हुमा मप्रधान माना गया है और तिसी प्रकार का यह असत्य विधि है। इस कारण उस विधिको प्रधामपनसे वाक्यका विषय हो जाना सिद्ध नहीं हुआ।
स्यान्मतं न सम्यगवधारित विधेः स्वरूपं भवता तस्यैवमव्यवस्थितत्वात् । प्रतिमासमात्रादि पृथग्विधिः कार्यतया न प्रतीयते घटादिवत प्रेरकतया वा वचनादिवत् । कर्मकरण साधनतया हि तत्पतीतौ कार्यताप्रेरकताप्रत्ययो युक्तो नान्यथा । किं तर्हि द्रष्टव्योऽरेऽयमात्मा श्रोतव्यो अनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्य इत्यादि शब्दश्रवणादवस्थातरविलक्षणेन प्रेरितोहमिति जातातेनाकारेण स्वयमात्मैव प्रतिभाति, स एव विधिरित्युच्यते । तस्य ज्ञान विषयतया संबंधमधितिष्ठतीति प्रधानभावविभावनाविधेर्न विहन्यते, तथाविधवेदवाक्यादात्मन एव विधायकतया बुद्धौ प्रतिभासनात् । तदर्शनश्रवणानुमनन· निदिध्यासनरूपस्य विधीयमानतयानुभवात् । तथा च स्वयमात्मानं द्रष्टुं श्रोतुमनुमंतुं निध्यातुं, वा प्रवर्तते, अन्यथा प्रवृस्यसंभवेप्यात्मनः प्रेरितोहमित्यत्र गतिरप्रमाणिका स्यात् । तवो नासत्यो विधिर्यन प्रधानता तस्य विरुध्येत । नापि सत्यत्वे दैतसिद्धिः आत्मस्वरूपध्यतिरेकेण तदभावात् तस्यैकस्यैव तया प्रतिभासनात् इति ।
सम्भव है अद्वैतवादियोंका यह मन्तव्य होय, तदनुसार ये यों कहें कि नाप जैन या मीमासकोंने विधिका स्वरूप मळे प्रकार नहीं समझा है । जैसा आप समझें है, इस प्रकार तो उस विधिको व्यवस्था नहीं हो चुकी है। किन्तु यों है, इसलिये कि प्रतिभास सामान्यसे न्यारी घटादिकके समान कार्यरूपकरके विधि नहीं प्रतीत हो रही है। और वचन, चेष्टा, आदिके समान प्रेरकपनेकरके भी वह विधि. नहीं जानी जारही है। " विधीयते यः स विधिः " " विधीयतेऽनेन स विधिः " जो विधान किया जाय या जिस करके विधान किया जाय इस प्रकार कर्मसाधन या करणसाधनपने करके उस विधिकी प्रतीति होगयी होती, तब तो कार्यपन और प्रेरकपन स्वरूप करके विधिको प्रतीति करना युक्त होता । अन्यथा तो वैसा ज्ञान नहीं होसकता है। तब तो विधिका स्वरूप क्या है। इसके उत्तरमें हम अद्वैत वादियोंकी ओरसे यों समझो कि अरे संसारी जीव यह आरमा दर्शन करने योग्य है, अत्रण करने योग्य है, मनन करने योग्य है, पान करने योग्य है, " ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" ब्रमको जाननेवाला प्रमस्वरूप ही हो जाता है। " प्रमविदामोलि पर" " नाहं खवयमेवं सम्प्रत्यारमानं जानामि अहमस्मि इति नो इवेमानि भूतानि " " य ारमा अपहतयाभाविजरो विमृत्युः" इत्यादिक शद्रोंके सुननेसे अन्य अवस्था. मोसे विलक्षण होकर उत्पन हुई चेष्टारूप आकार करके में प्रेरा गया हूं। इस प्रकार स्वयं आत्मा ही प्रतिमासता है। और आत्मा ही विधि इस शब्दकरके कहा जाता है। उस विधिका ज्ञान विषयपने
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करके सम्बन्धको प्राप्त हो जाता है। अर्थात् - विधिका ज्ञान, विधिमें ज्ञान, ये सब अमेद होने से विधि स्वरूप ब्रह्म ही है, इस कारण विधिको प्रधानरूपसे वाक्य अर्थके विचारका विघात नहीं हो पाता है। क्योंकि तिस प्रकार विधिको कहनेवाले वेदवाक्योंसे आत्माका ही विधान कर्तापनेकरके बुद्धि में प्रतिभात हो रहा है । तथा उस आत्मा के दर्शन, श्रवण, अनुमनन, और ध्यानस्वरूपका विधिके कर्म हो रहेपनेकर के अनुभव हो रहा है । और तिस प्रकार होनेपर स्वयं आत्मा ही अपनेको देखने के लिये, सुनने के लिये, अनुमनन करनेके लिये और ध्यान करने के लिये प्रवर्तता है । अर्थात् आत्मा ही वेदवाक्य है । कर्ता, कर्म, क्रिया, भी स्वयं आत्मा ही है । अन्यथा यानी दूसरे प्रकारोंसे मानकर यदि तिस प्रकार अभेदले प्रवृत्ति होना असम्भव होता तो मैं स्वयं आत्मा से प्रेरित हुआ हूं इस प्रकार प्रतीति होना अप्रामाणिक हो जाता । तिस कारण सिद्ध होता है कि हम अद्वैतवादियों की मानी हुई विधि असत्य नहीं है । जिससे कि उस विधिको प्रधानरूपसे वाक्य अर्थपना विरुद्ध पड जाता। आप जैन या मीमांसकोंने विधिका सत्य यानी यथार्थपना होनेपर द्वैत सिद्धि हो जानेका प्रसंग दिया था, सो ठीक नहीं है । क्योंकि आत्मस्वरूप के अतिरिक्तपने से उस विधिका अभाव है। विधायकपनकरके, विधीयमानपनकरके, भावविधि करके, सब तिस प्रकार उस एक ही परमब्रह्मका प्रतिभास हो रहा है। विधि के असत्यपनेका पक्ष तो हम लेते ही नहीं है । स्यान्मतं से छेकर यहांतक विधिको पुष्ट करनेवाले अद्वैतवादियोंका पूर्वपक्ष हुआ । अब आचार्य महाराज समाधान करते हैं ।
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तदप्यसत्यं । नियोगादिवाक्यार्थस्य निश्चयात्मतया प्रतीयमानत्वात् । तथाहिनियोगस्तावदग्निहोत्रादिवाक्यादिवत् द्रष्टव्योरेऽयमात्मा इत्यादि वचनादपि प्रतीयते एव नियुक्तोहमनेन वाक्येनेति निरवशेषो योगो नियोगः प्रतिभाति मनागप्ययोग शंकानवतारादवश्यकर्तव्यता संप्रत्ययात् । कथमन्यथा तद्वाक्यश्रवणादस्य प्रवृत्तिरुपपद्यते, मेघध्वन्यादेरपि प्रवृत्तिप्रसंगात् ।
अद्वैतवादियों का वह कहना मी असत्य है क्योंकि वाक्यके अर्थ नियोग, भावना आदिकी मी निश्चय स्वरूपपनेकरके प्रतीति की जा रही है। उसीको हम प्रसिद्ध कर दिखाते हैं कि अग्नि होत्र, ज्योतिष्टोम आदिके प्रतिपादक वाक्यों आदिसे जैसे नियोग तो प्रतीत हो रहा है, वैसा ही "दृष्टव्योरेयमात्मा श्रोतव्यः " इत्यादि वचनसे भी नियोग प्रतीत हो रहा ही है। मैं " दृष्टव्योरे इस वाक्य करके नियुक्त हो गया हूं। इस प्रकार शेषरहित परिपूर्णरूपसे योग हो जाना रूप नियोग प्रतिभासता है। स्वप भी यहां योग नहीं होने की आशंकाका अवतार नहीं है । अतः अवश्य करने योग्य है, इस प्रकारका अच्छा ज्ञान हो रहा है। अन्यथा यानी अद्वैतप्रतिपादक वाक्योंद्वारा पूर्ण योग होना नहीं माना जावेगा तो उस दृष्टव्य आदि वाक्यके सुनने से इस श्रोता मनुष्यकी श्रवण, मनन आदि
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तत्वावचिन्तामणिः
करनेमें प्रवृत्ति होना कैसे सध सकेगा ! इतिकर्तव्यतारूप नियोगके ज्ञान विना ही यदि चाहे जिस शब्दसे प्रवृत्ति होना मान लिया जावेगा तो मेघगर्जन, समुद्रपूत्कार, आदि शब्दोंसे भी श्रोताओंकी प्रवृत्ति हो जानेका प्रसंग हो जावेगा, जो कि इष्ट नहीं है।
___ स्यादेतत् । मिथ्येयं प्रतीतिनियोगस्य विचार्यमाणस्य प्रवृत्तिहेतुत्वायोगात् । स हि प्रवर्तकस्वभावो वा स्यादतत्स्वभावो वा ? प्रथमकल्पनायां प्रभाकराणामिव ताथागता. दीनामपि प्रवर्तकः स्यात् । सर्वथा प्रवर्तकत्वात् । तेषां विपर्यासादप्रवर्तक इत्यपि न निश्चेतुं शक्यं परेषामपि विपर्यासात्मवर्तकत्वानुषंगात् । मामाकरा हि विपर्यस्तमनसः शब्दनियोगात् प्रवर्तते नेतरे अविपर्यस्तत्वादिति वदतो निवारयितुमशक्तेः ।
यदि बद्वैतवादियोंका लम्बा चौडा यह मन्तव्य होय कि वाक्यका अर्थ तो नियोग नहीं हो सकता है । अतः अद्वैत प्रतिपादक वाक्योंसे नियोगकी यह उक्त प्रकार प्रतीति करना मिथ्या है । नियोगका विचार किया जानेपर उसको प्रवृत्तिका हेतुपना नहीं घटित होता है । देखिये, हम अद्वैतवादी प्रभाकरोंके प्रति प्रश्न उठाते हैं कि वह तुम्हारा माना गया नियोग क्या प्रवृत्ति करा देना, इस स्वभावको धारता है ! अथवा उस प्रवृत्ति करा देना स्वभावोंको नहीं रखता है ! बताओ। यदि प्रथमपक्षकी कल्पना करोगे तब तो प्रभाकरोंके समान बौद्धोंको भी वह नियोग अग्निष्टोम शादि कर्मोंमें प्रवर्तक हो जायें । क्योंकि उस नियोगका स्वभाव सभी प्रकारसे प्रवृत्ति करा देना है। अग्निका स्वभाव यदि जला देना है तो वह काष्ट, वन, मूर्ख शरीर, पंडित शरीर, रत्न, कूडा, सबको एक स्वभावसे दग्ध कर देती है । यदि नियोगबादी यों कहें कि उन बौद्धोंको मिथ्याज्ञान हो रहा है। अतः नियोग उनको प्रवृत्त नहीं कराता है । जैसे कि सुवर्ण या अभ्रक अथवा भस्म को अग्नि नहीं जलाती है । इसपर हम यह कहते हैं कि इस बातका भी निश्चय नहीं किया जा सकता है । सम्भव है कि दूसरे प्रभाकरोंके भी विपर्ययज्ञान हो जानेसे नियोगको प्रवर्तकपनेका प्रसंग होगा। क्योंकि आरोप किया जा सकता है कि प्रभाकरोंका मन विपर्यय ज्ञानसे आक्रान्त हो रहा है । इस कारण वे शब्दके अर्थ नियोगसे कर्मकाण्डोंमें प्रवृत्ति कर रहे हैं। किन्तु दूसरे बौद्ध तो विपर्यय ज्ञानसे घिरे हुये मनको नहीं धारण करनेसे कर्मकाण्डमें प्रवृत्ति नहीं कर रहे है। इस प्रकार कह रहे हम अद्वैतवादियोंको रोका नहीं जा सकता है।
सौगतादिमतस्य प्रमाणबाधितत्वात् त एव विपर्यस्ता न प्राभाकरा इत्यपि पक्षपातमात्रं तन्मतस्यापि प्रमाणवाधनविशेषात् । यथैव हि प्रतिक्षणविनश्वरसकलार्थवचनं प्रत्यक्षादिविरुद्धं तथा नियोगतद्विषयादिभेदकल्पनमपि सर्व प्रमाणानां विधिविषयतयावधारणात सदेकत्वस्यैव परमार्थतोपपत्तेः।
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अभी विधवादी ही कहे जा रहे हैं कि नियोगवादी यदि यों कहें कि बौद्ध, चार्वाक, आदि दार्शनिकोंका मत तो प्रमाणोंसे बावित है। अतः वे बौद्ध आदिक ही विपर्यय ज्ञानी है । हम प्रभाकर मत अनुयायी तो विपरीतज्ञानी नहीं है। विधियादी कहते हैं कि यह भी नियोग वादियोंका कोरा केवळ पक्षपात है। क्योंकि उन नियोगवादी प्राभाकरोंका मत भी प्रमाणोंसे बाधित हो जाता है। बौद्धों की अपेक्षा प्राभाकरोंमें कोई विशेषता नहीं है। जैसे ही पत्थर चंद्र वैसे ही पाषाण चन्द्र, दोनों एकसे हैं। जिस ही प्रकार सम्पूर्ण अर्थोंको प्रतिक्षण विनाशशीक कहना यह atafat मत प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे विरुद्ध है, ऐसा तुम बौद्धोंके प्रति कह सकते हो, उस ही प्रकार प्राभाकरों के यहां मानी जा रही नियोग उनके विषय नियुज्यमान, नियोक्ता, आदि भेदोंकी कल्पना मी प्रमाणोंसे बाधित है, यों बौद्ध भी तुमसे कह सकते हैं । परमार्थरूपसे विचारा जाय तो सम्पूर्ण प्रमाणोंके द्वारा अद्वैत विधिका विषयपनेसे अवधारण किया जा रहा है। सत्, चित् ब्रह्म एकपनेको हो यथार्थपमा सिद्ध हो रहा है ।
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यदि पुनरप्रवर्तकस्वभावः शखनियोगस्तदा सिद्ध एव तस्य प्रवृत्तिहेतुत्वायोगः ।
अद्वैतवादी ही कहें जा रहे हैं कि द्वितीय पक्षके अनुसार फिर यदि प्राभाकर यों कहें कि शहका अर्थ नियोग तो प्रवर्तक स्वभाववाला नहीं है। तब तो हम विधिवादी कहते हैं कि उस नियोगको प्रवृत्तिके कारणपनका अयोग सिद्ध ही हो गया, यानी नियोग कर्मकाण्डका प्रवर्तक नहीं बन सका ।
फलरहिताद्वा नियोगमात्रान्न प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरप्रेक्षावस्वप्रसंगात् । प्रयोजनमनुद्दिश्य न मंदोपि प्रवर्तत इति प्रसिद्धेश्व । प्रचंडपरिदृढ वचननियोगादफलादपि प्रवर्तनदर्शनाददोष इति चेन, तन्निमित्तापायपरिरक्षणस्य फलत्वात् । तन्नियोगादप्रवर्तने हि ममापायोवश्यं भावीति तन्निवारणाय प्रवर्तमानानां प्रेक्षावतामपि तत्वाविरोधात् तर्हि वेदवचनादपि नियुक्तः प्रत्यवायपरिहाराय प्रवर्ततां " नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया " इति वचनात् । कथमिदानीं स्वर्गकाम इति वचनमवतिष्ठते, जुहुयात् जुहोतु होतव्यमिति किडुकोट्तव्यप्रत्ययांतनिर्देशादेव नियोगमात्रप्रतिपत्तेः, तत एव च प्रवृत्तिसंभवात् ।
अद्वैतवादी नियोगके ऊपर दूसरे प्रकारसे विचार चढ़ाते हैं कि वह नियोग फलरहित है ! अथवा फळसहित है ! बताओ । प्रथम पक्ष अनुसार फलरहित सामान्य नियोगसे तो हिताहितको विचारनेवाले प्रामाणिक पुरुषोंकी किसी भी कर्ममें प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। यों तो ऐसे प्रवृत्ति करनेवालेको अविचारपूर्वक कार्य करनेवालेपनका प्रसंग होगा । एक बात यह भी है कि प्रयोजनसिद्धिका उद्देश्य नहीं रखकर तो मंदबुद्धि या आलसी जीव भी नहीं प्रवृत्ति करता है। ऐसी कोकमें प्रसिद्धि हो रही है । इसपर नियोगवादी यों कहें कि तीव्र
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प्रतापी, महाक्रोधी, प्रभुके निष्फल भी वचननियोगसे प्रजाजनोंकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है । अर्थात् — अत्यन्त क्रोधी राजा अन्यायपूर्वक क्रिया करने में यदि प्रजाजनोंको नियुक्त कर देता है, उसके भय से निष्फल नियोग द्वारा मी प्रवृत्ति करनी पडती है, तब तो निष्फल नियोगसे भी प्रवृत्ति होना साथ गया कोई दोष नहीं है । इसपर अद्वैतवादी कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उत क्रोधी राजा या अधिकारीके निर्देश अनुसार प्रवृत्ति नहीं करनेको निमित्त मानकर उत्पन्न हुये विनाश या अपराध से अपनी चारों ओरसे रक्षा हो जाना ही फल है । प्रचंड राजाके नियोगसे यदि कथमपि प्रवृत्ति नहीं की जावेगी तो मेरी विनाश या मुझको दण्डप्राप्ति अवश्य होवेगी | इस कारण उस अपायके निवारण करनेके लिये प्रवृत्ति कर रहे विचारशील प्रामाणिक पुरुषोंको भी उस प्रेक्षावानूपका कोई विरोध नहीं है। यानी स्वार्थी राजा हमको यदि यों आज्ञा दे दें कि तुमको स्वदेशी वस्तुपर मूल्यसे आधा कर (महसूल) देना पडेगा । पण्डितजी ! तुम्हारी दो हजार से अधिक आय है । अतः तुमको प्रतिवर्ष दो पैसा रुपयाकी गणनासे अवश्य कर ( इन्कमटेक्स ) देना पडेगा । यद्यपि इस आज्ञापालनसे अधिकृत व्यक्तियोंको कोई अभीष्टफलकी प्राप्ति नहीं होती है । कोई पारितोषिक, सुख, पदस्थ नहीं मिल जाता है। फिर भी करको नहीं देनेसे कुरको, कारागृहवास, निंदा आदि अपायोंको भोगना पडता है । अतः वहां भी फल विद्यमान है । अतः वह नियोग सफल है । तब तो हम नियोगवादी कहेंगे कि यों तो नियुक्त पुरुषभाव आत्मक फलसे रहित हो रहे वैदिक वचनसे भी पाप कर्म के परिहारके लिये प्रवृत्ति करो । धर्मशास्त्रका वचन है कि प्रत्यवायोंके त्यागकी अभिलाषासे नित्यकर्म और नैमित्तिक कर्म अवश्य करने चाहिये । " मोक्षार्थी न प्रवर्तेत तत्र काम्यनिषिद्धयोः " किसी लौकिक कामनासे किये गये पुत्र इष्टि, विश्वजित् याग आदि काम्यं कर्म या कलंज भक्षण, शत्रुमारण, आदि निषिद्ध कर्मोंमें मोक्षका अर्थी नहीं प्रवर्तेगा। हां, त्रिकाल संध्या करना, उपासना करना, जप करना, देव, ऋषि, पितरोंके लिये M करना, प्राणायाम करना, आदि नित्यकर्म और मरणीश्राद्ध, ग्रहणश्राद्ध, पौर्णमासी यज्ञ, आदि नैमित्तिक कर्म तो मुमुक्षुको भी करने पडते हैं । इन नित्यकर्म और निमित्तसे होनेवाले कर्मोंको भले प्रकार करनेसे यद्यपि फल कुछ भी नहीं है । किन्तु नहीं करनेवालों के पापका लेप अवश्य हो जाता है । " अकुर्वन् विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यते " । जैसे कि राजाकी नियुक्त की 1 गयीं धाराओं ( कानून ) के अनुसार चलनेसे किसी प्रजाजनको पारितोषिक या प्रशंसापत्र ( सर्टिफिकिट ) नहीं मिल जाता है । किन्तु धाराओं के अनुसार नहीं चलनेवालोंको दण्ड अवश्य भोगना पडता है। इसी प्रकार फलरहित वेदवचनसे भी पापपरिहारका उद्देश्य लेकर प्रवृत्ति हो 'जावेगी । इस प्रकार नियोगवादियोंके कहनेपर तो हम विधिवादी कहते हैं कि उपर्युक्त प्रकारसे नियोगको फलरहित माननेपर अब प्राभाकरोंका फलको दिखलानेवाला " स्वर्गकामः " यह वचन भला कैसे व्यवस्थित हो सकेगा ? बताओ । हवन करें, हवन करो, हवन करना चाहिये, इस
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
प्रकारके टिड्कार लोट्लकार तव्य प्रत्ययको अन्तमें रखनेवाले पदोंके निर्देशसे ही सामान्यरूपसे नियोगकी प्रतिपत्ति होना और उस ही से प्रवृत्ति हो जाना सम्भव जाता है । स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला इस पदको देनेकी आवश्यकता नहीं है । नियोगवादियों को पूर्वापरविरुद्ध वचन नहीं कहना चाहिये ।
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फलसहितान्नियोगात् प्रवृत्तिसिद्धो च फलार्थितैव प्रवर्तिका न नियोगस्तमंतरेणापि फलार्थिनां प्रवृत्तिदर्शनात् । पुरुषवचनान्नियोगे अयमुपालंभो नापौरुषेयाग्निहोत्रादिवाक्यनियोगे तस्यानुपालभ्यत्वात् । इति न युक्तं, " सर्वे स्वल्विदं ब्रह्म " इत्यादिवचनस्याध्यनुपालभ्यत्वसिद्धेर्वेदांतवादपरिनिष्ठानात् । तस्मान्न नियोगो वाक्यार्थः कस्यचित्प्रवचिहेतुरिति ।
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अभी विधवादी ही कहें जारहे हैं । यदि द्वितीय पक्ष के अनुसार नियोगवादी फलसहित नियोगसे प्रवृत्ति होजानेकी सिद्धि करेंगे तब तो फलको अभिलाषुकता ही श्रोताओंको कममें प्रवृत्ति करानेवाली हो जावेगी । नियोग तो प्रवर्तक नहीं हुआ। क्योंकि उस नियोगके विना भी फटके अर्थी जीवोंकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है, अतः नियोगको सफल मानना भी व्यर्थ ही रहा । नियोगवादी फिर यों कहते हैं कि छौकिक पुरुषोंके वचनले जहाँ नियोग प्राप्त किया जाता } वहां तो आप विधिवादी यह उपर्युक्त उलाहना दे सकते हैं । किन्तु पुरुष प्रयत्न द्वारा नहीं बनाये गये वैदिक अग्निहोत्र आदि वाक्योंसे ज्ञात हुये नियोगमें उक्त उपालम्भ नहीं आते हैं। क्योंकि निर्दोष बेदवाक्यजभ्य वह नियोग तो उपालम्भ प्राप्त करने योग्य नहीं है । इसके उत्तर में विधवादी कहते हैं कि इस प्रकार नियोगवादियों का कहना युक्तिपूर्ण नहीं है क्योंकि यों तो हमारा माना हुआ यह वाक्य भी उलाहना प्राप्त करने योग्य नहीं होता हुआ सिद्ध हो जाता है कि यह सम्पूर्ण जगत् निश्चय कर परमब्रह्म स्वरूप है। यहां कोई पदार्थ भेदरूप नहीं है, इत्यादिक वाक्योंकी सिद्धि हो जानेसे अद्वैत प्रतिपादक वेदान्तवादको पूर्णरूप से निर्दोष प्रसिद्धि हो जाती हैं । तिस कारणसे वाक्यका अर्थ नियोग नहीं है, जिससे कि किसी जीवकी प्रवृत्तिका निमित्तकारण बन सके । " स्यादेतत् " से प्रारम्भ कर " प्रवृत्तिहेतुः " यहांतक नियोगवादियोंको धक्का देकर विधिवादियोंने अपना मन्तव्य पुष्ट किया है । अब श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान करते हैं ।
तदेतद्विधिवादिनोपि समानं विधेरपि प्रवृत्तिहेतुत्वायोगस्याविशेषात् । प्रकृतविकल्पानतिवृत्तेः । तस्यापि हि प्रवर्तकस्वभावत्वे वेदांतवादिनामिव प्राभाकरतायागतादीनामपि प्रवर्त्तकत्वप्रसक्तेरप्रवर्तकस्वभावात्तेषामपि न प्रवर्त्तको विधि: स्थात् । स्वयमविपर्यस्तास्ततः प्रवर्तते न विपर्यस्ता इवि चेत्, कृतः संविभागो विभाव्यतां । प्रमाणाबाधितेतरमताथयणा
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
manandinistentiation.
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दिति चेत्, तर्हि वेदांतवादिनः कथं न विपर्यस्ताः सर्वथा सर्वैकत्वमतस्याध्यक्षविरुद्धत्वात् परस्परनिरपेक्षद्रव्यगुणादिभेदाभेदमननवत् । तद्विपरीतस्यानेकांतस्य जात्यंतरस्य प्रतीतेः।
इस प्रकार विधिवादियोंकी ओरसे विकरुप उठाकर नियोगवादियोंके मतका जैसे यह खण्डन किया गया है, वैसा विचार चलानेपर विधिवादियों के ऊपर भी वही आपादन समानरूपसे लागू हो जाता है। वाक्यके अर्थ विधिको भी प्रवृत्तिका कारणपना नहीं घटित होताहै। अप्रवर्तकपनेकी अपेक्षा विधिकी नियोगसे कोई विशेषता नहीं है। प्रकरण में प्राप्त हुये विकल्पोंका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। प्रतिनारायणके चक्रसमान विधिवादीके ऊपर भी वे ही विकल्प उठाये जा सकते हैं । देखिये कि उस विधिका भी स्वभाव यदि नियमसे प्रवर्तकपना माना जायगा तो घेदान्तवादियों के समान प्रभाकर मत अनुयायी, बुद्धमत अनुयायी, चार्वाक बादि दार्शनिकोंकी भी अौतमें प्रवृत्ति करा देनेपनका प्रसंग विधिको प्राप्त होगा । अर्थात्-जो जिसका स्वभाव है वह ग्यारे न्यारे पुरुषों के लिये बदल नहीं सकता है। जैसे कि स्वर्गीके हाथमें भी मूसळ कूटनेवाला ही रहेगा । हां, यदि विधिको अप्रवर्तक स्वभाव माना जायगा तब उक्त दोष तो टल जाता है। किन्तु मप्रवर्तक स्वभाववाली विधिसे तो वेदान्तवादियोंकी भी प्रवृत्तिको करानेवाला विधि अर्थ नहीं हो सकेगा। यदि विधिवादी यों कहें कि स्वयं विपर्ययज्ञानको नहीं धार रहे हम विधिवादी तो उस विधिसे प्रवर्स नाते हैं। हां, जो मिथ्यावानी है थे उस विधिके द्वारा प्रवृत्ति नहीं कर पाते हैं । इस प्रकार विधिवादियोंके कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि उस सम्यग्ज्ञानीपन और मिथ्याज्ञानीपनका अच्छा विमाग होना भला किससे निर्णीत किया जाय ! बताओ। पदि तुम वेदान्तवादी इसके उत्तरमें यों कहो कि प्रमाणोंके द्वारा अबाधित किये गये मतका माश्रय करनेवाले सम्यग्ज्ञानी है, और इतर यानी प्रमाणोंसे बाधे जा रहे मतका माश्रय कर लेनेसे पुरुषके मिष्याज्ञानीपनका निर्णय कर लिया जाता है, इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो घेदान्तवादी ही विपर्ययज्ञानवाः क्यों नही विचार किये जायेंगे ! क्योंकि उनका सभी प्रकार सबको एक परमनापनेकी विधि करनेका मत तो प्रत्यक्षप्रमाणसे विरुद्ध है। प्रत्यक्ष प्रमाणद्वारा अमि, जल, सर्प, नोला बादि मिन भिन्न नाना पदार्थ प्रतीत हो रहे हैं । अतः " सर्वमेकं " यह विधिवादियोंका मन्तव्य प्रमाणोंसे पापित है। जैसे कि परस्परमें नहीं अपेक्षा रखतेपुर द्रव्य और गुण या अवयष गौर अवयवी बादिका सर्वया भेद तथा अभेद मानना प्रत्यक्षविरुद्ध है। क्योंकि उन सर्वथा मेद या बमेदोंसे विपरीत हो रहे तीसरी जातिबाले कथंचिद् भेद अमेद स्वरूप अनेकान्तकी प्रतीति हो रही । अर्थात्-द्रव्य, गुण आदिका सर्वथा भेद माननेषा मैयायिक हैं। सांख्य उनका अभेद मानते हैं। ये दोनों मत प्रमाणोंसे विरुद्ध है। हां, पर्याय और पर्यायीमें कथंचिद् भेद, अमेद, प्रतीत हो रहा है। इस प्रकार सर्वथा एकत्वको कहनेवाले विधिवादी मी विपर्ययज्ञामवाले हो जाते हैं।
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
फलरहितश्च विधिर्न प्रवर्तको नियोगवत् । सफलः प्रवर्तक इति चेत्, किंचिज्ज्ञानां फलार्थिनां फलाय दर्शनादेव ( फळोपदर्शनादेव ) प्रवृत्युपपत्तेः । पुरुषाद्वैते न कश्चित् कुतश्चित् प्रवर्तत इति चेत्, सिद्धस्तर्हि विधिरप्रवर्तको नियोगवदिति न वाक्यार्थः ।
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नियोग के समान विधिमें भी फलरहित और फलसहितपनेका विकल्प यों उठाया जाता है कि यदि विधि उत्तरकालमें होनेवाले फळसे रहित है, तब तो किसी भी श्रोताको प्रवृत्ति कराने बाकी नहीं हो सकती है, जैसे कि फलरहित नियोग प्रवर्तक नहीं माना गया था । यदि विधिवादीयों कहें कि फलों से सहित हो रही विधि प्रवर्तक है, तब तो हम जैन कहेंगे कि कुछ अल्प पदार्थोंको जाननेवाले अल्पज्ञ फळ अभिलाषी जीवोंकी फलप्राप्तिके लिये दर्शनसे ही या फल प्राप्ति की अभिलाषासे प्रवृत्ति होना सध जावेगा । विधिको प्रवर्तक कहना व्यर्थ है । फिर भी विधिवादी यों कहें कि भेदवादियों के यहां भले ही कोई कहीं किसीसे प्रवृत्ति करें, किन्तु हम अद्वैतवादियों के यहां ब्रह्माद्वैत में कोई भी किसीसे भी प्रवृत्ति नहीं करता है । इसपर हम जैन कहते हैं कि तब तो प्रवृत्ति नहीं करानेवाले नियोगके समान विधि भी वाक्यका अर्थ सिद्ध नहीं हुआ । फिर दूसरेपर ही कटाक्ष करना आप अद्वैतवादियोंने सीखा है । अपने दोष स्वयंको नहीं दीख रहे हैं ।
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पुरुषाद्वैतवादिनामुपनिषद्वाक्यादात्मनि दर्शनश्रवणानुमनननिध्यानविधाने प्यप्रवर्तने कुतस्तेषां तदभ्यासः साफल्यमनुभवति मत्तोन्मत्तादिमलापवत् कथं वा सर्वथाप्यप्रवर्तको विधिरेव वाक्यार्थो न पुनर्नियोगः ।
हम अद्वैतवादीसे पूंछते हैं कि यदि विधिको सर्वथा अप्रवर्तक माना जायगा और पुरुषाद्वैतवादियोंके यहां " दृष्टव्यो ” इत्यादि उपनिषद् के वाक्यसे आत्मामें दर्शन करना, श्रवण करना, अनुमनन करना, और ध्यान करना इन क्रियाओंमें भी यदि प्रवृत्ति नहीं मानी जावेगी तो उन अद्वैतवादियोंका उन दर्शन आदिक में अभ्यास कैसे होगा ? दर्शन आदिके विना वह उनका अभ्यास और किसी फलकी अपेक्षासे भला सफलताका अनुभव कैसे कर सकता है ? जैसे कि मदमत्त या उन्मत्त पुरुषोंके व्यर्थवचन सफल नहीं हैं । उसीके समान उपनिषद् वाक्यों का अभ्यास मी अनर्थक है । दूसरी बात यह है कि सभी प्रकारोंसे अप्रवर्तक हो रही विधि ही तो वाक्या अर्थ होय किन्तु अप्रवर्तक नियोग वाक्यका अर्थ नहीं होय, यह सर्वथा पक्षपात पूर्ण मन्तम्य भला कैसे माना जा सकता है ? अर्थात्-नहीं ।
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पटादिवत् पदार्थांतरत्वेनाप्रतिभासनात् नियुज्यमानविषयनियोक्तृधर्मत्वेन चानवस्थानान्न नियोगो वाक्यार्थ इति चेत् तदितरत्र समानं विधेरपि घटादिवत्पदार्थांतरत्वेनाप्रतिभासनाद्विधाप्यमानविषय विधायक धर्मत्वेन । व्यवस्थितेश्च ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यदि अद्वैतवादी यों कहें कि जैसे आत्मासे मिन कल्पित किये गये पट भादिक कार्य भिन्न पदार्थपने करके प्रतिमास रहे हैं, उसके समान नियोग तो मिन पदार्थपने करके नहीं प्रतिभास रहा है । तथा नियोगको प्राप्त किये गये श्रोता पुरुष या यज्ञ आदि विषयके धर्मपने करके या नियोग करनेवाले वेदवाक्यका धर्मस्वरूप करके वह नियोग व्यवस्थित नहीं हुआ है। अर्थात्जैसे नियुज्यमान पुरुषका धर्म होकर या नियोक्ताका धर्म होकर पट दीख रहा है, वैसा नियोग नहीं है । अतः दो हेतुओंसे नियोगकी व्यवस्था नहीं होनेसे नियोग वाक्यका अर्थ नहीं है, इस प्रकार विधिवादियोंके कहनेपर तो हमें कहना पडेगा कि वह कटाक्ष तो दूसरोंके यहां भी यानी तुम विधिवादियों के ऊपर भी समानरूपसे लग जाता है । विधिका भी घट आदिके समान पुरुषसे पृथक् पदार्थपने करके नहीं प्रतिभास होता है । तथा विधान करने योग्य दर्शन आदि या दृष्टव्य विषयका धर्म अथवा विधिको कहनेवाले बैदिक शद्वके धर्मपने करके विधिकी व्यवस्था नहीं हो रही है । अतः विधि भी वाक्यका अर्थ नहीं सिद्ध हो पाता है। ____ यथैव हि नियोज्यस्य पुंसो धर्मे नियोगे अननुष्ठेयता नियोगस्य सिद्धत्वादन्यथानुष्ठानोपरमाभावानुषंगात् । कस्यचित्तद्रूषस्यासिद्धस्याभावाद, असिद्धरूपतायां वा नियोज्यत्वविरोधाएंध्यास्तनंषयादिवत् । सिद्धरूपेण नियोज्यत्वे असिद्धरूपेण धानियोज्यता: मेकस्य पुरुषस्यासिदसिद्धरूपसंकरानियोज्येतरत्व विभागासिद्धस्तद्रूपासंकरे वा भेदपसंगादात्मनः सिद्धासिद्धरुपयोः संवधाभाषोऽनुपकारात् । उपकारकल्पनायामात्मनस्तदुपकायस्वे नित्यवहानिस्तयोरात्मोपकार्यत्वे सिद्धरूपस्य सर्वथोपकार्यत्वव्याघातोऽसिद्धरूपस्याप्युपकार्यत्वे गगनकुसुमादेपकार्यत्वानुपंगः । सिद्धासिद्धरूपपोरपि कथंचिदसिद्धरूपोपगमे प्रकृतपर्यनुयोगानिवृत्तेरनवस्थानुपंग इत्युपालंभः।
" यथैव " का अन्वय छह, सात, पंक्ति पीछे आनेवाले तथा शब्दके साथ करना चाहिये । श्री विद्यानन्द आचार्य नियोग और विधि दोनोंको ही नियोज्य या विर्धायमान पुरुषका धर्म तथा यागलक्षण विषय या विधेय विषयका धर्म एवं विधायक या नियोक्ता शब्दका धर्म न हो सकना ऍकसा बताये देते हैं । देखिये, जिस ही प्रकार नियोजने योग्य पुरुषका धर्म यदि नियोग माना जावेगा तो बद्वैतवादियोंकी ओरसे प्रामाकरोंके उपर नहीं अनुष्ठान करने योग्यपन आदि दोष धर दिये जाते हैं । यानी नियोज्य पुरुष बनादि कालसे स्वतः सिद्ध नित्य है तो उस आत्माका स्वभाव नियोग भी पूर्वकालोंसे सिद्ध है। अन्यथा यानी सिद्ध हो चुके पदार्थका भी अनुष्ठान किया आयगा तो अनुष्ठान करनेसे विराम लेनेके अभावका प्रसंग होगा । कृतका पुनः करण होने लगेगा तो सदा विधान होता ही रहेगा, किया जा चुका पदार्थ पुनः किया जायगा और फिर भी किया जा चुका किया जायगा । कमी भी विश्राम नहीं ले सकोगे । चर्वितका चर्वण अनन्तकालतक करते रहो।
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तत्वार्थोकवार्तिके
मतः पही अच्छा है कि बन चुके को पुनः नहीं बनाया जाता है। नित्य पुरुषके धर्म हो रहे, उस नियोगका कोई भाग असिद्ध तो है नहीं । हां, किसी असिद्ध रूपको नियोज्य माना जावेगा, तब तो पन्ध्यापुत्र, अश्वविषाण, बादिके समान सर्वथा असिद्ध पदार्थको नियोज्यपनेका विरोध है। पदि आमाके धर्म हो रहे नियोगको किसी एक सिद्धस्वरूपकरके नियोज्यपना और उस ही नियोगको असिदस्वरूपकरके अनियोग्यपना माना जावेगा, तब तो एक मारमाके सिदस्वरूप और जसिद्धस्वरूपोंका संकर हो जानेसे नियोज्यपन बोर बनियोज्यपनके विभागकी असिद्धि हो जावेगी । दूध और रेके समान संकरको प्राप्त हो रहे दो स्वभावोंसे पुक्त हुये नियोगसे अमिम आत्माका उन धोकरके विभाग सिद्ध नहीं होता है। पदि उन सिद्ध असिद्ध रूपोंका संकर होना नहीं मानोगे तो उन मिल दो रूपोंसे अमिन्न हो रहे आत्माके मेद हो जानेका प्रसंग या जावेगा । अथवा नित्य वात्मासे वे दो रूप न्यारे हो जायेंगे। ऐसी दशामें वे सिद्ध असिद्ध दो रूप मात्माके हैं । इस व्यवहारका नियामक सम्बन्ध तुम्हारे पास कोई नहीं है । क्योंकि राजाका पुरुष, गुरुका शिष्य या पुरुषका राजा, शिष्यका गुरु, यहाँ परस्परमें बाजीविका देना, चाकरी करना, पढाना, सेवा करना, आदि उपकार करनेसे स्वस्वामिसम्बन्ध गुरुशिष्यसम्बन्ध माने जाते हैं । किन्तु उपकार नहीं होनेके कारण उन सिद्ध असिद्धरूप और कटस्थ नित्य बास्माका कोई षष्ठी विधायक सम्बन्ध नहीं हो पाता है। यदि आत्मा और उन रूपोंमें उपकार करनेकी कल्पना की जायगी तो हम विधिवादी नियोगवादीसे पूछते हैं कि उन दो रूपों करके आत्माके उपर उपकार किया जायगा ! अथवा आत्माकरके दो रूपोंके ऊपर उपकार किया जायगा ! बतायो । प्रथम विकल्प अनुसार यदि उन दो रूपोंकरके आत्माको उपकार प्राप्त करने योग्य माना जायगा, तब तो आत्माके नित्यपनेकी हानि हो जायगी । क्योंकि जो उपकृत होता है, वह कार्य होता है । द्वितीय विकल्प अनुसार उन दो रूपोंको आत्माकरके उपकार प्राप्त करने योग्य मानोगे तो पहिला दोष ट गया। किन्तु सिद्ध हो चुके रूपको तो सभी प्रकारोसे उपकार्यपनका व्याघात है। कारण कि जो सिद्ध हो चुका है, उसमें उपकारको धारने योग्य कोई उत्पाय बंश शेष नहीं है । और दूसरे असिद्धरूपको भी यदि उपकार प्राप्त करने पोग्य माना मायगा, तब तो भाकाशपुष्प, शशविषाण आदि असिद्ध पदार्थीको भी उपकार खेळमेषापनका प्रसंग हो जायेगा। यदि नियोगवादी सिद्ध बसिद्ध दोनों रूपोंका मी कथंचिद् कोई स्वरूप बसिद्ध हो रहा स्वीकार करेंगे तो प्रकरण प्राप्त बोधकी निवृत्ति नहीं हो सकेगी। अर्थात् -सिद्ध असिद्ध रूपोंमें मी कपंचिद् सिद्ध बसिद्धपना स्वीकार किया जायगा, तो सिद्धके अनुष्ठानकी विरतिका अभाव दोष लगेगा, असिद्धरूप तो बण्यापुत्रके समान नियोज्य हो नहीं सकता है। इत्यादिक प्रभ उठते चले जायेंगे । अतः अनवस्था दोषका प्रसंग हो जायगा । इस प्रकार विधिवादीका नियोगवादीके उपर उगहना हो रहा है।
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तथा विघाप्यमानस्य पुरुषस्य धर्मे विधावपि सिद्धस्य पुंसो दर्शनश्रवणानुमननध्यानविधानविरोधात् । तद्विधाने वा सर्वदा तदनुपरतिप्रसक्तिः । दर्शनादिरूपेण तस्यासिद्धौ विधानव्याघातः कूर्मरोमादिवत् । सिद्धरूपेण विधाप्यमानस्य विधानेऽसिद्धरूपेण चाऽविधाने सिद्धासिद्धरूपसंकरात् विधाप्येतरविभागासिद्धिस्तदुपासंकरे वा भेदप्रसंगादारमनः सिद्धासिद्धरूपयोस्तत्संबंधाभावादिदोषा संजननस्याविशेषः ।
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तिस ही प्रकार नियोगवादीकी ओरसे हम जैनवादी भी विधिवादीके ऊपर वैसा ही उलाहना दे सकते हैं। देखिये, विधान कराये जा रहे पुरुषके धर्म माने गये विधिमें भी हम कहते हैं कि परिपूर्ण निष्पन्न होकर सिद्ध हो चुके श्रोता नित्यपुरुषके दर्शन, श्रवण, अनुमान और ध्यानके विधानका विरोध है । जो पहिले दर्शन आदिले रहित हैं, वह परिणामी पदार्थ ही दर्शन आदिका विधान कर सकता है, नित्य कृतकृत्य नहीं । यदि सिद्ध हो चुका पुरुष भी उन दर्शन खादिकोका विधान करेगा तो सर्वदा ही उन दर्शन आदिकोंसे विराम नहीं ले सकनेका प्रसंग होगा । क्योंकि दो, चार वार दर्शन आदि कर चुकनेपर भी पुनः पुनः सिद्ध हो चुके, पुरुषकी दर्शन आदिक विधिमें प्रवृत्ति होना मानते ही चले जायेंगे । ऐसी दशामें भुक्तका भोजन पुनः मुक्तका भोजन करने के समान कभी विश्राम नहीं मिल सकता है। यदि उस आत्मा के धर्मविधिकी दर्शन प्रवण आदि स्वरूपोंकर के सिद्धि हो चुकी नहीं मानोगे तब तो कष्ठपरोम, चन्द्र आताप, सूर्य कौमुदी आदि समान उस असिद्ध हो रही असद्रूप विधिके विधानका व्याघात है । जो असिद्ध है, उसका विधान नहीं और जिसका विधान है, वह सर्वथा असिद्ध पदार्थ नहीं है। यदि विधान करने योग्यका सिद्धस्वरूप करके विधान मानोगे और असिद्धरूप करके विधान नहीं होना मानोगे तो सिद्ध-असिद्धस्वरूपों का संकर हो जानेसे यह सिद्धरूप विधाप्य है और इससे प्यारा इतना असिद्धरूप विधान करने योग्य नहीं है, इस प्रकारके विभागकी सिद्धि नहीं हो सकी । यदि उन विधाय और अविधाप्य रूपोंका एकम एक हो जाना स्वरूपसांकर्य नहीं माना जायगा, तब तो उन दोनों रूपोंका आत्मासे भेद हो जानेका प्रसंग होगा । सर्वथा भिन्न पडे हुये उन सिद्ध बसिद्ध दो रूपोंका आत्माके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि दोनोंका परस्परमें कोई उपकार नहीं है । यदि सम्बन्ध जोडने के लिए उपकारकी कल्पना की जायगी तो पूर्वमें नियोगबादी के लिये उठाये गये संबंधका अभाव, उपकार कल्पनाका नहीं बन सकना, आदिक दोषोंका प्रसंग वैसाका बैसा ही तुम विधिवादियोंके ऊपर लग बैठेगा, सर्प और नागके समान नियोग और विधिमें कोई विशेषता नहीं है। आमा उपकार्य माननेपर आत्माका नित्यपना बिगडता है। यदि दो रूपोंको उपकार्य माना जायगा सो सिद्धरूप तो कुछ उपकार झेलता नहीं है । और गनश्रृङ्गके समान असिद्ध पदार्थ भी किसीकी ओरसे श्राये हुये उपकारोंको नहीं धार सकता है । फिर भी उन सिद्ध असिद्ध रूपोंको कथंचिद् असिद्ध -आनोगे ? तो वे जिस अंशमें सिद्ध होयंगे सिंहविषाणके समान दे उपकारको प्राप्त नहीं कर
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सकेंगे और सर्व अंगोंमें सिद्ध बन चुका पदार्थ मला काहेको उपकार झेलने लगा । अतः विधिवादीके मन्तव्य अनुसार विधाप्यमानका धर्म विधि नहीं सिद्ध हो चुकी । यहां नियोगवादीकी ओरसे आचार्यांने विधिवादीके ऊपर आपादन किया है। और अष्टसहस्री में नियोगवादीके ऊपर विधिवादी द्वारा कटाक्ष वर्षा किये जानेपर भट्ट मीमांसकोंने विधिवादीको आडे हाथ लिया है ।
तथा विषयस्य यागलक्षणस्य धर्मे नियोगे तस्यापरिनिष्पन्नत्वात् स्वरूपाभावाद्वाक्येन प्रत्येतुमशक्यत्वस्य विधावपि विषयधर्मे समानत्वात् कुतो विषयधर्मो विधिः
तिस ही प्रकार विधिवादी यदि नियोगवादीके ऊपर नियोगका निषेध करनेके लिये यों कटाक्ष करें कि प्राभाकरोंकी ओरसे यागस्वरूप विषयका धर्म यदि मियोग माना जावेगा आस्तां किन्तु वह याग अभी बनकर परिपूर्ण हुआ नहीं हैं । उपदेश सुनते समय तो उस यागका स्वरूप ही नहीं है । अतः अद्भूत यागके धर्म नियोगकी वाक्यकरके निर्णय करनेके लिये अशक्यता है । इसके उत्तर में आचार्य महाराज विधिवादकेि ऊपर भी यह अशक्यता दोष लगाये देते हैं। कि दर्शन, श्रवण आदि विषयोंके धर्म माने जाने रहे विधिमें भी जानने की अशक्यता दोष समान है । अर्थात् – " दृष्टव्योरेयमात्मा ” इत्यादि वाक्य सुननेके अवसरपर जब दर्शन, श्रवण ही नहीं तो उनका धर्म विधि भी विद्यमान नहीं है । असद्भूत पदार्थको वाक्यद्वारा प्रतीति नहीं हो सकती है । इस कारण विषयके धर्म माने गये नियोग के समान विधिकी भी सिद्धि कैसे हो सकती है ? अर्थात् — नहीं ।
पुरुषस्यैव विषयतयावभासमानस्य विषयत्वात्तस्य च परिनिष्पन्नत्वान्न तद्धर्मस्य विधेरसंभव इति चेत्, तर्हि यजनाश्रयस्य द्रव्यादेः सिद्धत्वात्तस्य विषयत्वात्कथं तद्धर्मो नियोगोपि न सिध्येत् १
यदि विधवादीयों कहें कि हम दर्शम, श्रवण आदिको विधिका विषय नहीं मानते हैं विषयपने करके प्रतिभास रहे परमब्रह्मको ही हम विधिका विषय मानते हैं । और पुरुष पहिलेसे ही परिपूर्ण बना बनाया नित्य है । इस कारण उस पुरुषरूप विषयके धर्म हो रही विधिका असम्भव नहीं है । इस प्रकार विधिवादियों के कहनेपर तो हम जैन नियोगवादीकी ओरसे यों कह देंगे कि तब तो पूजनके अधिकरण हो रहे द्रव्य आत्मा, पात्र, स्थान, आदिक पदार्थ भी पहिले से सिद्ध हैं । अतः उन द्रव्य आदिकों का विषय हो जानेसे उनका नियोग भी क्यों नहीं सिद्ध हो जावेगा ?
येन रूपेण विषयो विद्यते तेन तद्धर्मो नियोगोपीति तदनुष्ठानाभावे, विधिविषयो
येन रूपेणास्ति तेन तद्धर्मस्य विधेः कथमनुष्ठानं १ येनात्मना नास्ति तेनानुष्ठानमिति चेत् नियोगेपि समानं ।
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कारण उस बन चुके हुये सहारा देते हुये कह देंगे उस स्वरूप करके उसका
करके विधिका अनुष्ठान
यदि विधवादी यों कहें कि जिस रूपसे द्रव्यादिक विषय पूर्वसे विद्यमान हैं, उस स्वरूप करके उनका धर्म नियोग मी तो पहिले से ही विद्यमान है । इस नियोगका अनुष्ठान नहीं हो सकेगा । तब तो हम जैन नियोगवादीको कि ब्रह्म विधिका विषय जिस रूप करके सदा विद्यमान हो रहा है, विधि विषय भी निष्पन्न हो चुका है । ऐसी दशा में दृष्टव्य आदि वाक्यों भी कैसे किया जा सकता है बताओ । फिर भी विधिवादी यों कहें कि जिस स्वरूप करके विधि विषयी विद्यमान नहीं है, उस अंश करके विधिका अनुष्ठान किया जा सकता है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहनेपर तो वह अनुष्ठान नियोगमें भी समानरूपसे किया जा सकता है 1 अर्थात - जिस अंश करके नियोग विषयी विद्यमान नहीं है, उस भाग करके कर्मकाण्डि द्वारा नियोगका अनुष्ठान किया जाता है । नियोग और विधिमें कोई अन्तर नहीं है ।
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कथपसन्नियोगोऽनुष्ठीयते अप्रतीयमानत्वात् खरविषाणवत् इति चेत्, तत एव विधिरपि नानुष्ठेयः । प्रतीयमानतया सिद्धत्वादनुष्ठेयो विधिरिति चेत् नियोगोपि तथास्तु |
विधवादी कहते हैं कि अंशरूपसे असत् हो रहे नियोगका मला अनुष्ठान कैसे किया जा सकता है ? क्योंकि असत् पदार्थ प्रतीत नहीं किया जा रहा है । जो प्रतीत नहीं है, उसमें क्रिया नहीं की जा सकती है । अतः खरविषाणके समान असत् नियोगका करना नहीं बनता है । आचार्य कहते हैं कि यों कहने पर तो तिस ही कारणसे विधि भी अनुष्ठान करने योग्य नहीं ठहरेगी । क्योंकि आप अद्वैतवादियोंने भी विषय के असद्भूत अंश करके ही विधिका अनुष्ठान किया जाना माना था । यदि विधिवादी यों कहें कि हमारे यहां विधिको प्रतीति की जा रही है । अतः अप्रतीयमानत्व हेतु विधिमें नहीं रहा, किन्तु प्रतीत किये जा रहे स्वरूपकरके सिद्ध होनेके कारण विधिका तो अनुष्ठान किया जा सकता है । इस प्रकार विधिवादियोंके कहनेपर तो हम जैन कह देंगे कि नियोग भी तिस प्रकार अनुष्ठान करने योग्य हो जाओ, वह भी प्रतीति किये जा रहेपन करके सिद्ध है । अप्रतीयमानत्व हेतु वहां असिद्ध है । अतः विधिके समान नियोग भी प्रतीयमान होता हुआ अनुष्ठेय है । व्यर्थ पैंतरा बदलने से कार्य नहीं चलता है । 1
नन्वनुष्ठेयतयैव नियोगोवतिष्ठते न प्रतीयमानतया तस्याः सकलवस्तुसाधारणत्वात् अनुष्ठेयता चेत्प्रतिभाता कोन्यो नियोगो यस्यानुष्ठितिरिति चेत्, तर्हि विधिरपि न प्रतीयमानतया प्रतिष्ठामनुभवति किं तु विधीयमानतया सा चेदनुभूता कोन्यो विधिर्नाम : यस्य विधानमुपनिषद्वाक्यादुपवर्ण्यते ।
नियोगवादकी पुष्टिमें लग रहे जैनोंके ऊपर विधिवादीका प्रश्न है कि अनुष्ठान करने योग्यपने करके ही नियोगकी व्यवस्था हो रही है । प्रतीत किये जा रहेपन करके नियोगकी अवस्थिति
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नहीं हो रही है । क्योंकि वह कोरी अनुष्ठेयता तो सम्पूर्ण वस्तुओंमें सामान्यरूपकरके वर्त रही है । हो, यदि वह अनुष्ठेयता तुमको प्रतिभास हो चुकी होती तब तो वह नियोग प्रतिमासके अन्तरंगमें प्रविष्ट हो जाने के कारण नित्य ब्रह्मरूप ही हुआ। ब्रह्मसे मिन दूसरा नियोग क्या पदार्थ है ! जिसका कि अनुष्ठान करना कर्मकाण्डवाक्योंसे माना जा रहा है ! और नहीं प्रतिभास रहे पदार्थका तो सद्भाव ही नहीं माना जाता है । इस प्रकार अद्वैतवादियों का पर्यनुयोग होनेपर तो हम जैन मी अपने प्राज्ञ मित्र नियोगवादीको सहारा देते हुये कहते हैं कि यों तो विधि भी वर्तमानकालमें प्रतीयमानपने करके प्रतिष्ठाका अनुभव नहीं कर रही है। किन्तु वर्तमानमें विधान किये जा रहेपन करके जानी जा रही है। क्योंकि वह विधीयमानता सभी पदार्थोंमें साधारणरूपसे पायी जाती है । जब कि विधिको विधीयमानताका अनुभव हो चुका तो फिर उससे अन्य कौनसा अंश विधि नामका शेष रह गया है ! जिसका कि विधान करना " दृष्टव्यो इत्यादिक उपनिषदोंके वाक्योंसे वखाना जा रहा है । भावार्थ-अद्वैतवादी " घटः प्रतिभासते " " पटः प्रतिभासते " घट प्रतिमास रहा है, पट प्रतिमास रहा है, ऐसी प्रतिभास ( ज्ञान ) क्रियाकी समानाधिकरणतासे घट, पट आदि सभी पदार्थीको ब्रह्मस्वरूप मान लेते हैं। उनके पास घट, पट आदिकको ब्रह्मस्वरूप बनाने के लिये प्रतिभासमानपना यह बलवान् हेतु है। घटपटादयः प्रतिमासान्तःप्रविष्ठाः प्रतिमासमानत्वात् प्रतिभासस्वरूपवत्" । नियोग भी अनुष्ठान करने योग्य होकर प्रतिभास चुका है । जो प्रतिमास चुका है, उसकी वर्तमानकालमें प्रतीति नहीं हो रही है। अतः नियोगको अप्रतीयमान कह दिया था, यहां भविष्यकालका अनुष्ठेयपन और वर्तमानकालका प्रतीयमानपन तथा भूतका प्रतिभास हो चुकापन इस प्रकार कालोंका व्यतिकर दिखलाते हुये विद्वानोंमें अच्छा संघर्ष हो रहा है।
ननु दृष्टव्यादिवाक्येनात्मदर्शनादिविहितं ममेति प्रतीतेरप्रतिक्षेपार्हो विधिः कथमपाक्रियते ? किमिदानीमग्निहोत्रादिवाक्येन यागादिविषये नियुक्तोहमिति प्रतीतिर्न विद्यते येन नियोगः प्रतिक्षिप्यते । सा प्रतीतिरममाणमिति चेत्, विधिपतीतिः कथमप्रमाणं म स्यात् ? पुरुषदोषरहितवेदवचनोपजनितत्वादिति चेत्, तत एव नियोगपतीतिरप्यप्रमाण माभूत सर्वथाप्यविशेषात् । तथापि नियोगस्य विषयधर्मस्यासंभवे विधेरपि तद्धर्मस्थ न संभवः।
पुनः विधिवादी अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि दृष्टव्य, मन्तव्य, सोहम्, इत्यादि वाक्यों करके मुझको आत्मदर्शन आदिकी विधि हो चुकी है। इस प्रकार प्राति हो रही है। अतः खण्डन करने योग्य नहीं हो रही विधि भला नियोगवादियों द्वारा कैसे निराकृत की जा रही है ! इसपर आचार्य कहते हैं कि क्योंजी ! अग्निहोत्र, विश्वजित् आदि यागोंको कहनेवाले
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वाक्योंकरके मैं याग आदि विषयोंमें नियुक्त हो गया हूं, इस प्रकारकी प्रतीति क्या मर गई है। अब विद्यमान नहीं है, जिससे कि विधिवादियों करके नियोगका खण्डन किया जा रहा है। यदि विधिवादी यों कहें कि वह नियुक्तपनेको कह रही प्रतीति तो प्रमाण नहीं है। इस प्रकार विधिवादियोंके कहनेपर तो हम जैन भी कह देंगे कि तुम्हारी विधिको प्रतिपादन कर रही विहितपमेकी प्रतीति भी अप्रमाण क्यों नहीं हो जावेगी ! तुम्हारी प्रतीतिमें प्रमाणपनेका प्रकाशक क्या कोई रत्न जडा हुआ है ! इसपर विधिवादी यदि यों कहें कि पुरुषोंके राग, द्वेष, अज्ञान, आदि दोषोंसे रहित हो रहे अनादि, अकृत्रिम, वेदवाक्योंसे उत्पन्न हुई होनेके कारण विधिकी प्रतीति तो प्रमाणभूत है। इस प्रकार कहनेपर तो नियोगवादी भी कह सकते हैं कि तिस ही कारण यानी पुरुषोंके दोषोंसे कोरे बचे हुये अपौरुषेय वैदिक वचनोंसे उपजी हुई नियोगकी प्रीति भी अप्रमाण मत होको । सभी प्रकारोसे नियोगकी अपेक्षा विधिमें कोई विशेषता नहीं है। तिस प्रकार होनेपर भी नियोगको विषयका धर्म होना नहीं सम्मवता मानोगे तो उस अपने विषयके धर्म माने जा रहे विधिकी मी सम्भावना नहीं हो सकती है। यहांतक नियोज्य पुरुष और यागस्वरूप विषयके धर्म नियोगका विधाप्यमान पुरुषके अथवा विधेयके धर्म हो रहे विधिके साथ सम्पूर्ण अंशोंमें सादृश्य बता दिया है। अब तीसरे विधायक शब्द या नियोजक शब्दके धर्म माने जा रहे विधि और नियोगकी समानताको श्री विद्यानन्द आचार्य स्वकीय विद्वत्ताका चमत्कार दिखलाते हुये कहते हैं, अवधान लगाकर सुनिये।
शब्दस्प विधायकस्य च धर्मो विधिरित्यपि न निश्चेतुं शक्यं, नियोगस्यापि नियोक्तृशब्दधर्मत्वप्रतिघाताभाषानुषक्तेः । शब्दस्य सिद्धरूपत्वात्तद्धर्मो नियोगः कथमसिद्धो येनासी संपाद्यते कस्यचिदित्यपि न मन्तव्यं, विधिसंपादनविरोधात् सस्यापि सिद्धोपनिषद्वाक्यधर्मत्वाविशेषात् । प्रसिद्धस्यापि संपादने पुनः पुनस्तत्संपादने प्रवृश्यनुपरमात्कथमपनिषद्वचनस्य प्रमाणता अपूर्वार्थताविरहात् स्मृतिवत् । सस्य वाप्रमाणत्वे नियोगवाक्यं प्रमाणमस्तु विशेषाभावात् ।
दर्शन बादिका विधान कर रहे " दृष्टव्योरेयमात्मा " इत्यादिक शब्दका धर्म विधि है, इस प्रकार भी विधिवादियोंद्वारा निश्चय नहीं किया जा सकता है। फिर भी यदि विधायक शब्दके धर्म माने गये विधिका निश्चय कर लेंगे तो नियोगको भी "विश्वजिता यजेत" "ज्योतिष्टोमेन यजेत" इत्यादिक नियोक्ता शब्दोंके धर्मपनका प्रतिघात नहीं हो सकनेका प्रसंग होगा। अर्थात् नियोक्ता शब्दोंका धर्म नियोग जान लिया जायगा । यदि विधिवादी यों कटाक्ष करें कि शब्दको कूटस्थ नित्य माननेवाले मीमांसकोंके यहां शब्दका परिपूर्ण रूप सिद्ध है । अतः उस . शब्दका धर्म नियोग भळा बसिद्ध कैसे होगा ! जिससे कि वह नियोग कर्मकाण्ड वाक्योंद्वारा किसी भी श्रोताके यहाँ
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सम्पादित किया जाय । आचार्य कहते हैं कि यह भी विधिवादियोंको नहीं मानना चाहिये । क्योंकि यों तो विधिके सम्पादन करने का भी विरोध हो जावेगा । आप विधिवादियोंके यहां उस विधिको मी अनादिकाल से परिपूर्ण सिद्ध हो रहे वैदिक उपनिषद वाक्योंका धर्मपना माना गया है। 1 विधि और नियोग में नित्य शब्दों का धर्मपना अन्तररहित है । यदि सर्व अंशों में परिपूर्णरूप से अच्छा सिद्ध हो चुके पदार्थका भी संपादन करना माना जावेगा तो पुनः सिद्ध हो चुकेका पुनः संपादन किया जावेगा और फिर उस सिद्ध हो चुकेका भी अमुष्ठान किया जावेगा। इस प्रकार प्रवृत्तियां करते करते कभी विश्राम नहीं मिलेगा । इस कारण स्मृतिके समान अपूर्व अर्थका ग्राहीपना नहीं होनेसे आत्मप्रतिपादक वैदिक उपनिषद् के वचनोंको भला प्रमाणता कैसे आ सकती है ? यहां स्मृतिका दृष्टान्त आचार्य महाराजने नियोगवादीकी अपेक्षासे दे दिया है । स्याद्वाद सिद्धान्तमें अपूर्व अर्थकी प्राहिका होनेसे स्मृति प्रमाण मानी गयी है । यदि फिर भी विधिवादी गृहीतके ग्राहक उन उपनिषद् वचनोंको प्रमाण मानेंगे तो नियोगवाक्य भी प्रमाण हो जाओ । नियोगकी अपेक्षा विधिमें विशेषता करनेवाले कोई लाल नहीं जडे हुये हैं । पक्षपातरहित सद्विचारसे काम लीजिये ।
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स्यान्मतं, नियोगस्य सर्वपक्षेषु विचार्यमाणस्यायोगात्तद्वचनमप्रमाणं । तेषां हि न तावत्कार्य शुद्धं नियोगः प्रेरणानियोज्य वर्जितस्य नियोगस्यासंभवात् । तस्मिन् नियोगसंज्ञाकरणे स्वकं बलस्य कुर्दालिकेति नामांतरकरणमात्रं स्यात् । न च तावता स्वेष्टसिद्धिः । नियोगवादीके पीछे पडे हुये विधिवादियोंका सम्भवतः यो मन्तव्य होवें कि यदि नियोगका शुद्धकार्य आदि सभी ग्यारह पक्षोंमें विचार चलाया जायगा तो उस नियोगकी सिद्धि नहीं हो सकेगी । अतः नियोगको कहनेवाले उपनिषद वाक्य प्रमाण नहीं है। देखिये, सबसे पहिला उन नियोगवादियोंका शुद्धकार्य स्वरूप नियोग तो सिद्ध नहीं हो पाता है। क्योंकि " यजेत " यहां पडी हुई विधिलिङ्का अर्थ माने गये प्रवर्तकत्वरूप प्रेरणा और स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला नियोज्य श्रोतासे वर्जित हो रहे नियोगका असम्भव है। फिर भी ऐसे उस शुद्धकार्यमें " नियोग " ऐसी वाचक संज्ञा कर ली जावेगी तब तो यह अपने कंवलका " कुदारी " यह केवल दूसरा नाम स्वगृह में कर लेना समझा जायगा । किन्तु तितनेसे तुम्हारे इष्टकी सिद्धि नहीं हो सकती है । अर्थात् - प्रेरणा और नियोज्य पुरुषसे रहित हो रहे केवल शुद्धकार्यस्वरूप नियोगसे स्वर्ग उसी प्रकार नहीं मिल सकता है। जैसे कि कंबलको कुदारी मानकर उस कंबल से सडकका खोदना नहीं हो सकता है । अपने घर में मन माने धर लिये गये साधारण पदार्थोंके नाम लोकव्यवहार के उपयोगी नहीं हैं ।
शुद्धा प्रेरणा नियोग इत्यप्यनेनापास्तं, नियोज्यफलरहितायाः प्रेरणायाः प्रलापमात्रस्वात् । प्रेरणासहितं कार्ये नियोग इत्यप्यसंभवि, नियोज्याद्यसंभवे तद्विरोधात् । कार्यसहिता प्रेरणा नियोग इत्यप्यनेन निरस्तं ।
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शुद्ध प्रेरणा कर देना नियोग है यह द्वितीय पक्ष भी इस पूर्वोक्त और भविष्य में कहे जाने वाले वक्तव्य करके निरस्त कर दिया गया है। क्योंकि नियोगको प्राप्त करने योग्य पुरुष और नियोगके फल गाये गये स्वर्गसे रहित हो रही प्रेरणाको मानना केवळ निरर्थक बकवाद है । अतः ऐसी प्रेरणाको नियोग स्वरूपपना नहीं सिद्ध हो पाता है । तीसरे पक्ष अनुसार नियोगवादियोंका प्रेरणा से सहित हो रहा कार्य नियोग है, इस प्रकार कहना मी सम्भावना करने योग्य नहीं है। क्योंकि नियोज्य पुरुष ( नेगी ), नियोजक शब्द, आदिके विना उस नियोगके हो जानेका विरोध है । कार्य और प्रेरणा से ही नियोग नहीं सध जाता है । चतुर्थ पक्ष अनुसार कार्यसे सहित हो रही प्रेरणा नियोग है, यह विशेष्य विशेषणकी परावृत्ति कर मान लिया गया कथन भी इस उक्त कथन करके खण्डित कर दिया जाता है । नियोज्य और नियोजकके बिना कोई प्रेरणा नहीं बन सकती है ।
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कार्यस्यैवोपचारतः प्रवर्तकत्वं नियोग इत्यप्यसारं, नियोज्यादिनिरपेक्षस्य कार्यस्य प्रवर्तकत्वोपचारायोगात् कदाचित्कचित्परमार्थतस्तस्य तथानुपलंभात् । कार्यप्रेरणयोः संबंधी नियोग इति वचनमसंगतं ततो भिन्नस्य संबंधस्य संबंधिनिरपेक्षस्य नियोगत्वेनाघटनात् । संबंध्यात्मनः संबंधस्य नियोगत्वमित्यपि दुरन्वयं, प्रेर्यमाणपुरुषनिरपेक्षयोः संबंधात्मनोरपि कार्यप्रेरणयोः नियोगत्वानुपपत्तेः ।
भविष्य में किये जाने योग्य कार्यको ही उपचारसे प्रवर्तकपना नियोग है । यह पांचवां पक्ष भी निस्सार है । क्योंकि नियोज्य, नियोजक आदिकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले कार्यको उपचार से प्रवर्तकपना नहीं बन सकता है । मुख्यरूप से सिंह के असिद्ध होनेपर वीर पुरुषमें सिंहपनेका उपचार कर दिया जाता है । किन्तु यहां कभी कहीं वास्तविकरूपसे नियोज्य आदिसे रहित केवळ कार्यको 1 तिस प्रकार प्रवर्तकपना नहीं देखा गया है । नियोगवादियों का कार्य और प्रेरणा के सम्बन्धको नियोग कथन करना यह वचन भी पूर्वापर संगति से रहित है । क्योंकि सम्बन्धवाले कार्य और प्रेरणा स्वरूप सम्बन्धियोंसे निरपेक्ष हो रहे तथा उनसे भिन्न पडे हुये सम्बन्धको नियोगपने करके घटना नहीं होती है । अर्थात् सम्बन्धियोंसे सर्वथा भिन्न पडा हुआ सम्बन्ध तटस्थ पदार्थ के समान उनका नियोग नहीं हो सकता है । हां, यदि नियोगवादी कार्य और प्रेरणारूप सम्बन्धियोंसे अभिन्न तदात्मक हो रहे सम्बन्धको यदि नियोग मानेंगे इसपर तो हम विधिवादी कहते हैं कि उनका यह कहना भी पूर्वापर अन्य संगतिसे शून्य है । कठिनतासे भी नहीं समझा जा सकता है। क्योंकि प्रेरणा किये जा रहे, श्रोता पुरुषकी नहीं अपेक्षा रख रहे सम्बन्धी स्वरूप भी कार्य और प्रेरणा के सम्बन्धको नियोगपना नहीं बन पाता है । अर्थात् - कार्य और प्रेरणा से तदात्मक हो रहा भी सम्बन्ध जबतक सर्वाधिकारी पुरुषकी अपेक्षा नहीं करेगा, तबतक कथमपि नियोग नहीं
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हो सकता है । शिष्यकी अपेक्षा नहीं रखकर अध्ययन करनेकी प्रेरणा करना कठिनतासे मी समझने योग्य नहीं है । अतः सम्बन्धियों के साथ सम्बन्धका भेद अथवा अमेद इन दोनों पक्षों में नियोगकी व्यवस्था नहीं बन सकी।
तत्समुदायनियोगवादोप्यनेन प्रत्याख्यातः । कार्यप्रेरणास्वभावनिर्मुक्तस्तु नियोगो न विधिवादमतिशेते।
उन कार्य और प्रेरणाका परस्पर अविनाभूत होकर तदात्मक समुदाय होजाना नियोग है। यह नियोगवादियोंका सातवां पक्ष भी इस सम्बन्धवाले कथनसे ही निगकृत कर दिया जाता है । क्योंकि पुरुषके विना उन दोनों के समुदायको नियोग कहना उचित नहीं है । कार्य और प्रेरणास्वभावोंसे सर्वथा विनिर्मुक्त हो रहा नियोग तो विधिवादसे अधिक अतिशय धारी नहीं है। क्योंकि तुच्छ अभावको नहीं माननेवाले प्राभाकरोंके यहां कार्य और प्रेरणा स्वभावोंसे रहित हो रहा नियोग तो हमारी मानी हुयी विधिक सदृश ही पडेगा।
यत्पुनः स्वर्गकामः पुरुषोग्निहोत्रादिवाक्यनियोगे सति यागलक्षणं विषयमारूढमात्मानं मन्यमानः प्रवर्तत इति यंत्रारूढनियोगवचनं तदपि न परमात्मवादप्रतिकूलं, पुरुषाभिमानमात्रस्य नियोगत्ववचनात् तस्य चाविद्योदयनिबंधनत्वात् । भोग्यरूपो नियोग इति चायुक्तं, नियोक्तृप्रेरणाशून्यस्य भोग्यस्य तदभावानुपपत्तेः।
विधिवादी ही अपने मन्तव्यको बखाने जा रहे हैं कि जो फिर नौवें पक्षके अनुसार नियोग वादियोंने यों कहा था कि स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष आग्निहोत्र आदि वाक्यद्वारा नियोग प्राप्त होनेपर यागस्वरूप विषयके ऊपर आरूढ हो रहे अपनेको मान रहा संता प्रवर्त रहा है । इस प्रकार यंत्रासढस्वरूप नियोग है । सो यह उसका कथन भी परमब्रह्म वादके अनुकूल है। प्रतिकूल नहीं है । क्योंकि पुरुषपनेका केवल अभिमान करनेको नियोगपना कहा गया है और वह अभिमान तो अविद्याके उदयको कारण मानकर होगया है, यही हम विधिवादियोंका मन्तव्य है। दशवें पक्षके अनुसार भविष्य काळमें भोगने योग्य पदार्थस्वरूप नियोग है, यह कहना भी युक्ति रहित है । क्योंकि नियोक्ता पुरुष और प्रेरणासे शून्य हो रहे भोग्यको उस नियोगपनकी उपपत्ति नहीं हो सकती है।
पुरुषस्वभावोपि न नियोगो घटते, तस्य शाश्वतिकत्वेन नियोगस्य शाश्वतिकत्वमसंगात् । पुरुषमात्रविधेरेव तथा विधाने वेदांतवादिपरिसमाप्तेः । कुतो नियोगवादो नामेति ?
ग्यारहवें पक्ष अनुसार पुरुषस्वभाव माना जारहा नियोग भी नहीं घटित होता है । क्योंकि वह पुरुष तो नित्य है। इस कारण नियोगको भी नित्यपना हो जानेका प्रसंग होगा। जब कि
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नियोग नित्य ही है, तो वेद वाक्योंद्वारा उसका नवीन प्रतिपादन क्या किया जारहा है ? यदि तुम नियोगवादी केवल पुरुषकी विधिका ही तिस प्रकार नियोग वाक्योंद्वारा प्रतिपादन या अज्ञात ज्ञापन करना स्वीकार करोगे तब तो नियोगवादियोंकी वेदान्त वादमें परिपूर्ण रूपसे प्राप्ति हो जाती है। तो फिर नाममात्रको भी नियोगवाद भला किस ढंगसे सिद्ध हो सका ? यानी नहीं ।
तदेतदसारं सर्वथा विधेरपि वाक्यार्थानुपपत्तेः । सोपि हि शब्दादेरद्रष्टव्यतादिव्यवच्छेदेन रहितो यदीष्यते तदा न कदाचित्प्रवृत्तिहेतुः, प्रतिनियतविषयविधिनांतरीयकत्वात् प्रेक्षावत्प्रवृत्तेः तस्य वा तद्विषयपरिहाराविनाभावित्वात् कटः कर्तव्य इति यथा । न हि क कर्तव्यताविधिस्तद्व्यवच्छेदमंतरेण व्यवहारमार्ग्यमवतारयितुं शक्यः । परपरिहारसहितो विधिः शद्बार्थ इति चेत्, तर्हि विधिप्रतिषेधात्मकशद्वार्थ इति कुतो विध्येकांतवादप्रतिष्ठा प्रतिषेधैकांतवादवत् ।
" स्यान्मतं " से प्रारम्भ कर “ नामेति ” तक विधिवादियोंने नियोगके ग्यारहों पक्षोंका प्रत्याख्यान करदिया है । अत्र नियोगवादी मीमांसकको सहायता देते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि यह प्रसिद्धि में आरहा उन विधिवादियोंका कथन निस्सार है । क्योंकि विचार किया जानेपर विधिको भी वाक्यका अर्थपना सभी प्रकारोंसे घटित नहीं हो पाता है। देखिये " दृष्टव्यो रेयमात्मा " इन शद्व, चेष्टा, आदिकसे हो रही आत्मा के दृष्टव्यपन, मन्तव्यपन, आदिकी वह विधि भी अदृष्टव्य, अमन्तव्यपन, आदिके व्यवच्छेद करके रहित है ? या उन दृष्टव्य आदिसे मिनकी व्यावृत्ति करनेवाली है ? बताओ । अर्थात् - यहां विधिवादियोंके ऊपर दो प्रश्न उठाये जाते हैं. कि जैसे घटक विधि अबटोंकी व्यावृत्ति करनेसे रहित है ? या घटभिन्न हो रहे पट आदिकों के व्यवच्छेद से सहित है- ? उसी प्रकार यहां भी बताओ । प्रथम पक्ष अनुसार यदि दृष्टव्य आदिकी विधिको अदृष्टव्य आदिके अपोह करनेसे रहित मानोगे तब तो वह किसी भी पुरुषकी प्रवृत्तिका कारण कभी नहीं हो सकेगी। क्योंकि हित अहितको विचारनेवाले पुरुषोंकी प्रवृत्तियां प्रतिनियत हो रहे विषयकी विधि के साथ अविमाभाव रखती हैं । अर्थात् - घटकी विधि यदि अघटोंकी व्यावृत्ति करेगी तब तो नियत हो रहे घटमें ही बुद्धिमान् पुरुष प्रवृत्ति करेंगे । अन्यथा जो कुछ भी कार्य शयन, रुदन, आलस्य, अध्ययन आदिको कर रहे थे, उसको करते हुये ही कृतकृत्य हो सकते हैं। घटको छानेका या बनानेका नया कार्य करना उनको आवश्यक नहीं रहा । क्योंकि परका परिहार तो नहीं किया गया है । अथवा यह बात निर्णीत है कि उन प्रकरण प्राप्त नहीं हो रहे अप्रतिनियत विषयोंके परिहार करनेका प्रेक्षावान् के उस प्रवर्तन के साथ अविनाभाव हो रहा है। जैसे कि चटाईको बुनना चाहिये, ऐसा निर्देश देनेपर मृत्यकी कटमें कर्तव्यपनकी विधिको तो उस
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
विना योग्य व्यवहार
करते हुये ही प्रवृत्ति
चटाई से मिन पट, घट, मुकुट, आदि अप्रकृतक अर्थोकी व्यावृत्ति किये मार्ग में उतार नहीं सकते हो । भावार्थ - नियत कार्यों में तभिन्नोंका निषेध होना बनता है । इस दोषको टालनेके लिये द्वितीय पक्ष अनुसार यदि विधिवादी अन्योंका परिहार करनेसे सहित हो रही विधिको शद्वका अर्थ मानेंगे, इस प्रकार कइनेपर तो शद्वका अर्थ विधि और निषेध उभय आत्मक सिद्ध हुआ । इस कारण तुम विधिवादियों की केवल विधि एकान्तके पक्ष परिग्रहकी मा प्रतिष्ठा कहा से हुई ? जैसे कि बौद्धोंके केवल प्रतिषेध करनेको वाक्यका अर्थ माननेके पक्षकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है। अर्थात् - विधि और निषेध दोनों ही शद्वके अर्थ व्यवस्थित हुये । केवल विधि और केवल निषेध तो वाक्यके अर्थ नहीं ठहरे ।
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स्यान्मतं, परपरिहारस्य गुणीभूतत्वाद्विधेरेव प्रवृत्यंगत्वे प्राधान्याद्विधिः शद्वार्थ इति । कथमिदानीं शुद्धकार्यादिरूपनियोगव्यवस्थितिर्न स्यात् ? कार्यस्यैव शुद्धस्य प्रवृत्यंगतया प्रधानत्वोपपत्तेः, नियोज्यादेः सतोपि गुणीभावात् । तद्वत्प्रेरणादिव भावनियोगवादिनां प्रेरणादौ प्रधानताभिप्रायात् । तदितरस्य सतोपि गुणीभावाध्यवसायाद्युक्तो नियोगः शब्दार्थः ।
करना शद्वोंद्वारा अशक्य
सम्भव है विधिवादियों का यह मन्तव्य होवे कि यद्यपि परपदार्थोंका परिहार करना शद्वका अर्थ है, किन्तु वह परका परिहार गौण है । प्रधानपनेसे विधिको ही प्रवृत्तिका हेतुपना देखा जाता है । अन्य पदार्थ सैंकडों लाखोंका निषेध करनेपर भी श्रोताकी प्रवृत्ति इष्टकार्य में नहीं हो पाती है । क्योंकि परपदार्थ अनन्त हैं । अनन्तजन्मोंतक भी उनका निषेध है । हो, कर्तव्य कार्यकी विधि कर देनेसे नियुक्त पुरुषकी वहां तत्काळ प्रवृत्ति हो जाती है । अतः शद्वका प्रधानतासे अर्थ विधि है । अन्यका निषेध तो शद्वका गौण अर्थ है। इस प्रकार अद्वैतवादियों द्वारा स्वपक्षकी पुष्टि किये जानेपर आचार्य कहते हैं कि क्योंजी, अब यों शुद्ध कार्य, शुद्ध प्रेरणा, आदि स्वरूप नियोगकी व्यवस्था मला कैसे नहीं होवेगी । क्योंकि प्रवृत्ति करानेका मुख्य अंग होनेसे शुद्धकार्यको ही प्रधानपन बन जावेगा । और नियोज्य पुरुष, या विषय, आदिका विद्यमान होते सन्ते भी गौणपना मानलिया जावेगा । अर्थात् - शुद्धकार्य भी नियोगका अर्थ होगया । पुरुष, शद्ब, फल, आदिक वहां सभी विद्यमान हैं । फिर भी प्रधान होनेसे शुद्ध कार्यको नियोग कह दिया गया है। शेष सत्र अप्रधानरूपसे शद्वके वाध्य हो जाते हैं। उसके समान शुद्धप्रेरणा, कार्यसहिता प्रेरणा आदि स्वरूप नियोगको माननेवाळे प्राभाकरोंके यहां प्रेरणा आदिमें प्रधानपने का अभिप्राय है । और उनसे मिन्न पुरुष, फल आदि पदार्थोंके विद्यमान होते हुये भी उनको गौण रूपसे शद्वद्वारा जान लिया है । अतः नियोगको शद्वका अर्थ मानना समुचित है । फिर जान बूझकर मायाचारसे नियोगका प्रत्याख्यान क्यों किया जा रहा है !
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शुद्धकार्यप्रेरणादिषु स्वाभिप्रायात् कस्यचित्प्रधानभावेपि पराभिप्रायात्प्रधानत्वाभावादन्यतरस्यापि स्वभावस्याव्यवस्थितेनैकस्यापि शब्दार्थत्वमिति चेत्, तर्हि पुरुषाद्वैतवाद्याशयवशाद्विधेः प्रधानत्वेपि ताथागतमताश्रयणादप्रधानताघटनात् सोपि न प्रतिष्ठामटाव्येत विप्रतिपत्तिसद्भावाविशेषात् ।
विधवादी कहते हैं कि शुद्ध कार्य, शुद्ध प्रेरणा आदिमें प्राभाकरोंके अपने अभिप्रायसे किसी एकको प्रधानपना होते हुये भी दूसरे भट्ट वेदान्ती, बौद्ध आदिकोंके अभिप्रायसे प्रधानपना नहीं eate किया गया है । अतः शब्दके उन प्रधान अप्रधान दोनों अर्थोंमेंसे किसी एक भी स्वभाव रूप नियोगकी व्यवस्था नहीं हो पाती है । अतः एकको भी शब्दका वाध्यार्थपना नहीं है। इस प्रकार विधिवादियों के कहनेपर आचार्य कहते हैं कि तब तो पुरुषाद्वैतवादीके आशय के बशसे विधि को प्रधानपना होते हुये भी बौद्धमतके आश्रय से विधिको अप्रधानपना घटित हो रहा है । अतः वह विधि भी प्रतिष्ठाको अतिशयरूप से प्राप्त नहीं हो पाती है। क्योंकि कई दार्शनिकोंकी ओर से विवादोंका उपस्थित होकर खडा हो जाना विधि और नियोग दोनों में अन्तर रहित है । समान Resortथाको अवनत शिरसा पक्षपातरहित होकर एकसा स्वीकार कर लेना चाहिये ।
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प्रमाणरूपश्च यदि विधिः तदा प्रमेयमन्यद्वाच्यं । तत्स्वरूपमेष प्रमेयमिति चेत्, कथमस्यार्थद्वयरूपता न विरुध्यते १ कल्पनयेति चेत्, तर्ह्यन्यापोहः शब्दार्थः कथं प्रतिषिध्यते १ अप्रमाणत्वव्याघृश्या विधेः प्रमाणत्ववचनादप्रमेयत्वव्याषृश्या च प्रमेयत्वपरिकल्पनात् । प्राभाकरोंद्वारा माने गये नियोगमें जैसे विधिवादी द्वारा प्रमाण, प्रमेय आदिक विकल्प उठाये गये थे, उसी प्रकार अद्वैत ब्रह्मको माननेवाले विधिवादियोंके ऊपर भी आचार्योंद्वारा विकल्प उठाये जाते हैं कि विधिको यदि प्रमाणस्वरूप माना जायगा तो उस समय उस प्रमाणरूप विधि करके जानने योग्य प्रमेय पदार्थ कोई न्यारा कहना पडेगा । ऐसी दशा में प्रमाण और प्रमेय दो पदार्थोंका द्वैतपना प्राप्त होगा, जो कि आपके सिद्धान्तसे विरुद्ध है । यदि उस विधिस्वरूप ही प्रमेय पदार्थ माना जायगा, तब तो स्वभावोंसे रहित हो रही इस एक निरंश विधिको प्रमाण और प्रमेय दो पदार्थस्वरूपपना क्यों नहीं विरुद्ध हो जावेगा ? बताओ । यदि अद्वैतवादी यों कहें कि एक ही पदार्थ में कल्पना करके दो पदार्थ प्रमाण, प्रमेयपना बन सकता है। कोई विरोध नहीं है, इसपर हम जैन कहेंगे कि तब तो बौद्धोंकरके माना गया शब्दका अर्थ अन्यापोह तुम अद्वैतवादियों करके क्यों प्रतारणपूर्वक निषेधा जा रहा है ? अप्रमाणपनेकी व्यावृत्तिसे विधिको प्रमाणपना कह देना चाहिये | और अप्रमेयपनकी व्यावृत्तिकरके प्रमेयपना धर्म गढ लेना चाहिये । वस्तुतः प्रमेयत्व और अप्रमाणत्व तभी सुरक्षित रह सकते हैं, जब कि उनको अप्रमाणपन और अप्रमेयपन होनेसे व्यास किया जाता रहे । अन्यथा उस प्रमाण में या प्रमेयमें अप्रमाणपन या अप्रमेय
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
पन घुस पडेगा, जो कि उनकी सत्ताको चाट जायगा। बौद्धोंका अनुभव है कि सर्वागीण परिपूर्ण प्रमाण कोई भी ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान प्रमाण है । इसका अर्थ यही है कि यह ज्ञान अप्रमाण नहीं है। कोई पुरुष सुन्दर है, इसका अर्थ यह है कि यह कुरूप नहीं है । पण्डितका अर्थ मूर्खपने से रहित इतना ही है । वैसे परिपूर्ण सुन्दरता और अगाध पाण्डित्य तो बहुत विलक्षण पदार्थ हैं । शब्दोंके द्वारा तदितर पदार्थोंकी व्यावृत्तियां कही जाती हैं । हेतुके गुण हो रही विपक्षव्यावृत्तिका मूल्य अधिक है । पक्ष सत्त्वका इतना शुल्क नहीं है | अतः कल्पनासे विधिमें यदि अनेक स्वभाव माने जा रहे हैं तो कल्पित अन्यापोहको भी शका वाध्य अर्थ कह देना चाहिये । बौद्धोंसे माने गये शुद्ध सम्वेदन में अन्यापोहस्वरूप प्रमाणता और प्रमेयता धर्म पाये जाते हैं ।
पदार्थ स्वरूपाभिधायकत्वमंतरेणान्यापोहमात्राभिधायकस्य शद्वस्य क्वचित्प्रवर्तकस्वायोगादन्यापोहो न शब्दार्थ इति चेत्, तर्हि पदार्थस्वरूपाभिधायकस्यापि शद्धस्यान्यापोहानभिधायिनः कथमन्यपरिहारेण कंचित्प्रवृत्तिनिमित्तत्वसिद्धिः येन विधिमात्रं शद्वार्थः स्यात् ।
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विधिवादी कहते हैं कि शद्वको यदि पदार्थ के स्वरूपों की विधिका कथन करा देनापन तो नहीं माना जाय, केवल अन्योंकी व्यावृत्तिका ही कथन करना शद्वका कर्तव्य कहा जायगा तो किसी एक विवचित पदार्थ में ही शद्वका प्रवर्तकपना घटित नहीं होगा । अतः अन्यापोह शद्वका
हो जाने से शद्व द्वारा किसी
अर्थ नहीं है। अर्थात् - अन्यापोहको ही कहते रहने में चरितार्थ नियत एक पदार्थ में ही जो श्रोताकी प्रवृत्ति हो रही है वह नहीं बन सकेगी। ऐसी दशा में शद्वका उच्चारण व्यर्थ पडता है। हां, शद्वद्वारा विधिका निरूपण होना माननेपर तो किसी विशेष पदार्थ में ही अर्थी जीवकी प्रवृत्ति होना बन जाता है । अतः विधिवादी हम अन्यापोहको शद्वका वाय अर्थ नहीं मानते हैं । इस प्रकार अद्वैतवादियोंके कहनेपर हम जैन कहते हैं कि तब तो वस्तु विधिस्वरूपका कथन करनेवाले ही शद्वके द्वारा यदि अन्यापोहका कथन करना नहीं माना जायगा तो उस अन्यापोहको नहीं कहनेवाले शद्वका अन्योंका परिहार करके किसी एक नियत विषयमें ही प्रवृत्तिका निमित्तकारणपना भला कैसे सिद्ध होगा ! जिससे कि केवळ विधि ही शद्वका अर्थ हो सके । अर्थात् - जबतक विवक्षित पदार्थसे अतिरिक्त पडे हुये पदार्थोकी व्यावृत्ति नहीं की जायगी तबतक उसी नियत पदार्थ में प्रवृत्ति भला कैसे हो सकेगी ? विचारो तो सही ।
परमपुरुष एव विधिः स एव च प्रमाणं प्रमेयं चाविद्यावशादाभासते प्रतिभासमा - त्रव्यतिरेकेण व्यावृत्त्यादेरप्यसंभवादित्यपि दत्तोत्तरं, प्रतिभासव्यतिरिक्तस्य प्रतिभास्यस्यार्थस्य व्यवस्थापितात्वात् ।
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अद्वैतवादी कहते हैं कि परमब्रह्म ही तो विधि पदार्थ है और संसारी जीवोंको वही अविद्याके वशसे प्रमाणस्वरूप और प्रमेयस्वरूप प्रतिभास जाता है। सच पूछो तो केवल शुद्ध प्रतिमासके अतिरिक्तपमे करके व्यावृत्ति भादिका भी असम्भव है। अब आचार्य कहते हैं कि विधिवादियों के इस वक्तव्यका भी उत्तर दिया जा चुका है । क्योंकि प्रतिभाससे चोखे अतिरिक्त हो रहे प्रतिभासने योग्य घट, पट आदि अर्थोकी व्यवस्था करा दी जा चुकी है। अतः नियोगको प्रमाणपनेके समान विधिको भी प्रमाण आत्मक माना जायगा तो अनेक दोष आते हैं। .
प्रमेयरूपो विधिरिति वचनमयुक्त, प्रमाणाभावे प्रमेयरूपत्वायोगात्तस्यैव च द्वयरूपत्व विरोधात् । कल्पनावशाद्विधेयरूपत्वे अन्यापोहवादानुषंगस्याविशेषात् ।।
तो विधि प्रमेयस्वरूप है, इस प्रकार द्वितीय पक्ष अनुसार किसीका वचन भी युक्तिरहित है । क्योंकि प्रमाणको स्वीकार किये विना विधिमें प्रमेयस्वरूपपना नहीं घटता है । और उस एक ही विधि पदार्थको एकान्तवादियोंके यहां प्रमाणपन, प्रमेयपन, इन दो स्वरूपपनका विरोध है । यदि कल्पनाके वशसे विधिको प्रमाण, प्रमेय दोनों रूपपना माना जावेगा तो बौद्धोंके अन्यापोह वादका प्रसंग आता है । कोई अन्तर ऐसा नहीं है. जिससे कि विधिमें प्रमेयपन मानते हुये अन्य व्यावृत्तियां स्वीकार नहीं की जावें । एक विधिमें दोपना तो तभी आ सकता है, जब कि अप्रमाणपनकी व्यावृत्ति करके प्रमाणपना और अप्रेमयपनकी व्यावृत्ति करके प्रमेयपना उसमें धर दिया जाय । अन्यापोहको प्रमेय माने विना तो आपको प्रमेय न्यारा कहना पड़ेगा, अन्य कोई उपाय नहीं है।
प्रमाणप्रमेयोभयरूपो विधिरित्यप्यनेन निरस्तं भवतु । अनुभयरूपोऽसाविति चेत्, खरश्रृंगादिवदवस्तुतापत्तिः कथमिव तस्य निवार्यतां ?
- तब तृतीय विकल्पके अनुसार प्रमाण, प्रमेय उभयस्वरूप विधि मानी जाय, यह कल्पना भी इस उक्त कथन करके निराकृत कर दी गयी हुई समझो। क्योंकि दो रूपपनेमें जो दोष आते हैं वही दोष उभयरूप माननेमें प्राप्त होते हैं । दो अवयव जिसके हैं वह द्वय है । उभय भी वैसा ही है। यदि चतुर्थकल्पना अनुसार वह विधि अनुभयस्वरूप मानी जायगी अर्थात् प्रमाण प्रमेय दोनोंके साथ नहीं तदात्मक हो रहे, विधिको.वाक्यका अर्थ माना जायगा, तब तो खरविषाण, आकाशकुसुम, आदिके समान उस विधिको अवस्तुपनकी आपत्ति हो जाना भला किस प्रकार निवारण किया जा सकता है ! बताओ तो सही । अतः वाक्यका अर्थ विधि नहीं हो सकता है । इसपर अष्टसहस्रीमें और भी अधिक विस्तारसे विचार किया गया है। --" तथा यंत्रारूढो वाक्यार्थ इत्येकांतोपि विपर्यय एवान्यापोहमंतरेण तस्य प्रवर्तकत्वायोगाद्विधिवचनवत् । एतेन भोग्यमेव पुरुष एव वाक्यार्थ इत्यप्येकान्तो निरस्ता, नियोगविशेषतया च यंत्रारूढादेः प्रतिविहितत्वात् । न पुनस्तत्मतिविधानेतितरामादरोस्माकमित्युपरम्यते । ....
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
यंत्रमें बासढ हो जाना वाक्यका अर्थ है । इस प्रकार एकान्त करना भी कुश्रुतज्ञानरूप विपर्यय है । क्योंकि अन्यकी व्यावृत्ति किये विना उस यंत्रारूढको किसी ही विवक्षित विषयों प्रवृत्ति करा देनापन घटित नहीं होता है । जैसे कि वाक्यके द्वारा विधिका ही कथन होना मानने पर किसी विशेष ही पदार्थमें विधिको प्रवर्तकपना नहीं बनता है । इस उक्त कथन करके भोग्यरूप ही वाक्यका अर्थ है अथवा आत्मा ही वाक्यका अर्थ है, ये एकान्त भी निराकृत कर दिये गये है। क्योंकि ग्यारह प्रकार के नियोगोंका विशेष भेद हो जानेसे यंत्रारूढ पुरुषस्वरूप आदि नियोगोंका पूर्व प्रकरणों में खण्डन किया जा चुका है । अतः पुन उनके खण्डन करनेमें हमारा अत्यधिक आदर नहीं है । इस कारण अब विराम किया जाता है। मीमांसक और अद्वैतवादियों द्वारा नियोग भावना, और विधिको वाक्पका अर्थ मन्तव्य करना विपर्ययज्ञान है।
तथान्यापोह एव शब्दार्थ इत्येकांतो विपर्यया स्वरूपविषिमंतरेणान्यापोहस्यासंभवात् । वस्त्रभिप्रायारूढस्यार्थस्य विधिरेवान्यापोह इत्थं इति चेत्, तथैव बहिरर्थस्य विधिरस्तु विशेषाभावात् । तेन शब्दस्य संबंधाभावान शन्दात्तद्विपिरिति चेत्, तत एव वक्त्त्रभिप्रेतस्याप्यर्यस्य विधिर्माभूत् । तेन सहकार्यकारणभावस्य संबंधस्य सद्भावाच्छ. ब्दस्य तद्विधायित्वमिति चेन, विवक्षापंतरेणापि सुप्ताद्यवस्थायां शब्दस्य प्रवृत्तिदर्शनात्तकार्यत्वाव्यवस्थानात् । प्रतिक्षिप्तश्चान्यापोहेकातः पुरस्तादिति तर्कितं । -
तिसी प्रकार अन्यापोह ही शहका अर्थ है, यह बौद्धोंका एकान्त भी विपर्यय ज्ञान है। क्योंकि वस्तु के स्वरूपकी विधिके विना अन्यापोहका असम्भव है । जब कि किसीकी विधि करना ही नियत नहीं है तो अन्योंकी व्यावृत्ति किसकी की जाय ! यदि बौद्ध यों कहें कि वकाके अभिप्रायमें आरुढ हो रहे अर्थकी विधि ही तो इस प्रकार अन्यापोह हुई, अर्थात् -वस्तुभूत अर्थको शब्द नहीं छूता है। हां, विवक्षारूप कल्पनामें अभिरुढ हुये अर्थकी विधिको कर देता है । हमारे मममें माता अर्थ अभिप्रेत है, और मुखले भौजाई या चाची कहते हैं, तो शब्दका अर्थ मैया ही करना चाहिये । इस प्रकार बौद्धोंके कहने पर तो आचार्य महाराज कहते हैं कि तब तो तिस ही प्रकार बहिर्भूत वास्तविक अर्थकी शद्वारा विधि हो जाओ, विवक्षित अर्थकी विधि और बहिरंग वाच्य अर्यकी विधि करनेका कोई अन्तर नहीं है । यदि बौद्ध पों कहें कि उस बहिरंग अर्थके साथ शब्दका कोई सम्बन्ध वास्तविक वाच्यवाचक रूप नहीं है । पर्वत शद्का "पहाड " अर्थके साथ बादरायण सम्बन्ध गढलेना कोरा ढकोसला है, अतः शब्द द्वारा उस बहिर्मूत अर्थकी विधि नहीं की आसकती है । इस प्रकार बौद्धों के कहनेपर तो हम कहेंगे कि तिस ही कारण पानी योजक सम्बन्ध नहीं होनेसे वक्ताको विवक्षित हो रहे अर्थकी मी विधि मति ( नही ) होओ। यदि बौद्ध यों कहें कि शब्द की उत्पत्तिका कारण विवक्षा है। जैसे सत्यमनोगतका अर्थ सत्यमन है । उसी प्रकार
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विवक्षा प्राप्त अर्थ भी उपचारसे विवक्षा ही है । अतः उस विवक्षामें पडे हुये अर्थके साथ शब्दका कार्यकारणभाव सम्बन्ध विद्यमान हो रहा है। इस कारण शब्द उस विवक्षित अर्थकी विधिको करा देता है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि गाढरूपसे सोती हुई या मत्त मूछित आदि अवस्थाओंमें विवक्षाके विना मी शब्दकी प्रवृत्ति हो रही देखी जाती है। अतः उस विवक्षाके कार्यपन करके शद्बकी व्यवस्था नहीं है । हकलापन या तोतलेपनकी दशामें कुछ कहना चाहते हैं, और शब्द दूसरा ही मुखसे निकल पडता है । पद्मावतीके कहनेकी विवक्षा होनेपर वत्सराजके मुखसे वासवदत्ता शब्दका निकल जाना, ऐसे गोत्रस्खलन आदिमें विवक्षा और शद्बके अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेक व्यमिचार होते हुये देखे जा रहे हैं। श्री अन्ति परमेष्ठीकी दिव्यवाणी विवक्षाके विना खिरती है । अतः शद्वोंका अव्यभिचारी कारण विवक्षा नहीं है । दूसरी बात यह है कि पूर्वके प्रकरणों द्वारा अन्यापोहके एकान्तका भळे प्रकार खण्डन किया जा चुका है। इस कारण अधिक तर्कणा करनेसे क्या प्रयोजन ! । वहाँपर तर्क, वितर्कद्वारा यह निर्णीत हो चुका है कि एकान्तरूपसे अन्यापोहको कहते रहना वाक्यका प्रयोजन नहीं है। शद्वका कारण भी विवक्षा नहीं है।
नियोगो भावना धास्वर्थो विधियंत्रारूढादिरन्यापोहो वा यदा कैश्चिदेकांतेन विषयो वाक्यस्यानुमन्यते तदा तजनितं वेदनं श्रुताभासं प्रतिपत्तव्यं, तथा वाक्यार्थनिर्णीतेर्विधातुं दुःशकत्वादिति ।
___ नियोग, भावना, शुद्धधात्वर्थ, विधि, यंत्रारूढ, पुरुष आदिक अथवा अन्यापोह, ये एकान्त रूपसे जब कमी वाक्यके द्वारा विषय किये गये अर्थ किन्हीं मतावलम्बियोंकरके स्वसिद्धान्त अनुसार माने जाते हैं, उस समय नियोग आदिको विषय करनेवाले उन वाक्योंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान श्रुतशानामात समझना चाहिये । क्योंकि तिस प्रकार उनके मन्तव्य अनुसार वाक्य अर्यका निर्णय करना दुःसाध्य है। अर्थात् -उनके द्वारा माना गया वाक्यका अर्थ प्रमाणोंसे निर्णीत नहीं होता है। अतः वे उस समय कुश्रुतज्ञानी हैं । इस प्रकार मतिज्ञान श्रुतज्ञानोंके आभासोंका वर्णन कर दिया है। कारणविपर्यास, स्वरूपविपर्यास और भेदाभेदविपर्यासको अवलम्बन लेकर हुई अनेक सम्प्रदायोंके अनुसार जीवोंके अनेक कुहान उपज जाते हैं । सम्यग्ज्ञानका अन्तरंग कारण सम्यग्दर्शनके हो जानेपर चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ कर ऊपरके गुणस्थानोंमें विपर्यय ज्ञान नहीं सम्भवता है। हां, कामळ आदि दोषोंसे हये विपर्ययज्ञान तो चौथे गुणस्थानसे ऊपर भी बारहवें तक सम्भव जाते हैं । किन्तु वे सब अन्तरंग कारण सम्यग्दर्शनकी चासनीमें पगे हो रहे होनेसे सम्यग्ज्ञानरूपसे व्यपदेश करने योग्य हैं। यद्यपि उपशम श्रेणीमें और क्षपक श्रेणीमें बहिरंग इन्द्रियोंसे जन्य मतिज्ञानकी प्रवृत्ति प्रकट नहीं है । आत्माकी श्रुतज्ञानरूप ध्यानपरिणति है। फिर भी मतिज्ञानकी
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सम्भावना क्षयोपशम अनुसार बारहवें गुणस्थान तक बतायी गयी है। मानसमतिज्ञान वहां प्रकटरूपसे है। - का पुनरवधिविपर्यय इत्याह ।
शिष्यकी जिज्ञासा है कि फिर अवधिज्ञानका विपर्यय विभंग क्या है ? ऐसी जाननेकी इच्छा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
भवं प्रतीत्य यो जातो गुणं वा प्राणिनामिह । देशावधिः स विज्ञेयो दृष्टिमोहाद्विपर्ययः ॥ ११४ ॥ सत्संयमविशेषोत्यो न जातु परमावधिः । सर्वावधिरपि व्यस्तो मनःपर्ययबोधवत् ॥ ११५॥
भवको कारण मानकर अथवा क्षयोपशमरूप गुणको कारण मानकर प्राणियोंके उत्पन्न हुई जो देशावधि है, वह यहां दर्शमोहनीय कर्मका उदय हो जानेसे आत्मलाभ कर रही विपर्यय ज्ञान स्वरूप समच लेनी चाहिये । विशिष्ट प्रकारके श्रेष्ठ संयमके होनेपर मुनि महाराजके ही उत्पन्न हुई परमावधि तो कमी विपर्ययपनेको प्राप्त नहीं होती है, जैसे कि मनःपर्यय ज्ञानका विपर्यय नहीं होता है। भावार्थ-चरमशरीरी संयमी मुनिके हो रहे परमावधि और सर्वावधिज्ञान कदाचिद् भी विपरीत नहीं होते हैं और ऋद्धिधारी विशेष मुनिके हो रहा वह मनःपर्यय ज्ञान भी सम्यग्दर्शनका समानाधिकरण होनेसे विपर्यय नहीं होता है । अवधिज्ञानोंमें केवल देशावधि ही मिथ्यात्व या अनग्तानुबन्धी कर्मके उदयका साहचर्य प्राप्त होनेपर विपरीत ज्ञानरूप विभंग हो जाती है ।
___ परमावधिः सर्वावधिश्च न कदाचिद्विपर्ययः सत्संयमविशेषोत्थत्वात् मनापर्ययवदिति देशावधिरेव कस्यचिन्मिथ्यादर्शनाविर्भावे विपर्ययः प्रतिपाद्यते । -
परमावधि और सर्वाबाध तो ( पक्ष ) कमी विपरीत ज्ञानस्वरूप नहीं होती हैं ( साध्य )। अंतीव श्रेष्ठ संयम विशेषवाले मुनियोंमें उत्पन्न हो जानेसे (हेतु) । जैसे कि मनःपर्ययज्ञान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार अनुमानद्वारा दो अवधियोंका निषेध कर चुकनेपर शेष रही देशावधि ही किसी जीवके मिथ्यादर्शनके प्रकट हो जानेपर विपर्यय कह कर समझा दी जाती है। .. :
किं पुनः क प्रमाणात्मकसम्यग्ज्ञानविधौ प्रकृते विपर्ययं ज्ञानमनेकधा मत्यादि प्ररूपितं सूत्रकारैरित्याह ।
शिष्य पूछता है कि प्रमाणस्वरूप सम्यग्बानकी विधिका प्रकरण चलता हुषा होनेपर फिर क्या करनेके लिये सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजने मति आदिक तीन बानोंको अनेक प्रकारोंसे
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तत्वार्थचिन्तामणिः
विपर्ययज्ञानस्वरूप इस सूत्रद्वारा निरूपण किया है । ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान कहते हैं ।
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इति प्रमाणात्मविबोधसंविधौ विपर्ययज्ञानमनेकधोदितम् । विपक्षविक्षेपमुखेन निर्णयं सुबोधरूपेण विधातुमुद्यतैः ॥ ११६ ॥
इस पूर्वोक्त प्रकार प्रमाणस्वरूप सम्यग्ज्ञानकी भले प्रकार विधि करनेपर विपरीत पक्षके खण्डनको मुख्यतासे समीचीन बोधस्वरूप करके निर्णयको विधान करनेके लिये उद्यमी हो रहे श्री उमास्वामी महाराज करके अनेक प्रकारका विपर्ययज्ञान इस सूत्रद्वारा कह दिया गया है । भावार्थ- पहिले प्रकरणों में किया गया सम्यग्ज्ञानका निरूपण तभी निर्णीत हो सकता है, जब कि उनसे त्रिपरीत हो रहे मिथ्याज्ञानोंका ज्ञान करा दिया जाय । अतः तीनों मिध्याज्ञानोंसे व्यावृत्त हो रहा सम्यग्ज्ञान उपादेय है | चिकित्सक द्वारा दोषोंका प्रतिपादन किये विना रोगी उनका प्रत्याख्यान नहीं कर सकता है । विवक्षित पदार्थ की विधि हो जानेपर गम्यमान भी पदार्थोंकी कंठोक्त व्यावृत्ति करना विशेष निर्णय हो जाने के लिये आवश्यक कार्य है ।
पूर्व सम्यगवबोधस्वरूपविधिरूपमुखेन निर्णयं विधाय विपक्षविक्षेपमुखेनापि सं विधातुमुद्यतैरनेकधा विपर्ययज्ञानमुदितं वादिनोभयं कर्तव्यं स्वपरपक्षसाधनदूषणमिति न्यायानुसरणात् 1
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पहिले सम्यग्ज्ञानके स्वरूपका विधिस्वरूपकी मुख्यता करके निर्णय कर पुनः सम्यग्ज्ञानके विपक्ष हो रहे मिथ्याज्ञानोंके निराकरणकी मुख्यता करके भी उस निर्णयको विधान करनेके लिये उद्यमी हो रहे सूत्रकार करके अनेक प्रकारका विपर्ययज्ञान कह दिया गया है । यद्यपि सम्यग्ज्ञानोंकी विधिसे ही मिथ्याज्ञानोंका अनायास निवारण हो जाता है । अथवा मिथ्याज्ञानोंका अकेले निवारण कर देनेसे ही सम्यज्ञानों की परिश्रमके बिना विधि हो जाती है। फिर भी वादीको दोनों कार्य करने चाहिये | अपने पक्षका साधन करना और दूसरों के प्रतिपक्ष में दूषण उठाना इस नीतिका अनुसरण करनेसे ग्रन्थकारने दोनों कार्य किये हैं । अथवा श्री उमास्वामी महाराजने विधि मुख और निषेध मुख दोनोंसे सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानोंका प्रतिपादन किया है । अतः सिद्ध है कि समीचीनवादी विद्वान्को स्वपक्षसाधन और परपक्षमें दूषण ये दोनों कार्य करने चाहिये । आत्माको शरीर परिमाण साध चुकनेपर भी आत्माके व्यापकपन या अणुपनका खण्डन कर देने से अपना सिद्धान्त अच्छा पुष्ट हो जाता है । तालेको ताली घुमाकर लगा देते हैं । फिर भी खेचकर देख लेनेसे चित्तमें विशेष दृढता हो जाती है।
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तत्वार्थ लोक वार्तिके
स्वविधिसामर्थ्यात् प्रतिषेधस्य सिद्धेस्तत्सामर्थ्याद्वा स्वपक्षविधिसिद्धेर्मो भयवचनमर्थवदिति प्रवादस्यावस्थापितुमशक्तेः सर्वत्र सामर्थ्यसिद्धस्यावचनप्रसंगात् । स्वेष्टव्याघातस्यानुषंगात् । कचित्सामर्थ्यसिद्धस्यापि बचने स्याद्वादन्यायस्यैव सिद्धेः सर्व शुद्धम् ।
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यदि बौद्ध यों कहें कि अपने पक्षकी विधि कर देनेकी सामर्थ्य से ही प्रतिपक्षके निषेधकी सिद्धि हो जाती है । अथवा उस परपश्चके निषेधकी सिद्धि हो जाने से ही सामर्थ्य के बलसे स्वपक्ष
सिद्धि अर्थापत्ति से बन जाती है। अतः दोनोंका कथन करना व्यर्थ है। किसी प्रयोजनको नहीं रखता है । व्यर्थ वचनोंको कहनेवाला बादी निग्रहस्थानको प्राप्त हो जाता है। इसपर आचार्य कहते हैं कि उस उक्त प्रकारके प्रवादकी व्यवस्था नहीं करायी जा सकती है । इम अम्य प्रकरणों में धर्मकीर्ति के प्रवादका निराकरण कर चुके हैं। यदि बौद्धोंका वह उक्त विचार माना जायगा तो सभी स्थलों पर बिना कहे यों ही सामर्थ्य से सिद्ध हो रहे पदार्थके नहीं कथन करनेका प्रसंग हो जावेगा । ऐसी दशा में अपने इष्ट सिद्धान्तके व्याघात हो जानेका प्रसंग आ जावेगा । आप बौद्धोंने " यत् सत् तत्सर्वं क्षणिकं " इस व्याप्ति अनुसार समर्थन उपनय आदिका पुनरपि निरूपण किया है । किसी व्यक्तिकी विद्वत्ताका निषेध करनेपर भी मूर्खताका विधान नहीं हो जाता है । अथवा हेतुकी पक्ष में विधि कर देनेसे ही विपक्ष में निषेध नहीं हो जाता है । बहुतसे पण्डित निर्धन नहीं होते हुये भी धनाढ्य नहीं कहे जा सकते हैं। शुद्ध आत्मा या पुद्गल परमाणु न लघु हैन गुरु है । हां, सामर्थ्य से सिद्ध हो रहे भी पदार्थका यदि शब्द द्वारा निरूपण करना कहीं कहीं इष्ट कर लोगे तब तो स्याद्वादन्यायकी ही सिद्धि होगी । अतः अनेकान्त मत अनुसार सम्पूर्ण व्यवस्था निर्दोष होकर शुद्ध बन जाती है । अन्यथा नहीं बनती है ।
इति वार्यश्लोक वार्तिकाकारे प्रथमस्याध्यायस्य चतुर्थ माह्निकम् ।
इस प्रकार तत्वार्थसूत्र के लोकरूप वार्तिकोंके अलंकारस्वरूप भाष्य में प्रथम अध्यायका चौथा आहिक समाप्त हुआ ।
इस सूत्रका सारांश |
इस सूत्र के व्याख्यानमें प्रकरण इस प्रकार हैं कि मिध्यादृष्टि जीव और सम्यग्दृष्टि जीवका ज्ञान जब समान जाना जा रहा है, तो कैसे निर्णीत किया जाय ! कि मिथ्यादृष्टिका ज्ञान विपर्यय है। इसको दृष्टान्तसहित प्रदर्शन करनेके लिये श्री उमास्वामीरत्नाकरले सूत्रमणिका उद्धार हुआ है । सत् असत्का लक्षण कर सूत्रके अनुमान वाक्यको समीचीन बना दिया गया है। उम्मतका दृष्टान्त अच्छा घटा दिया है । आहार्य विपर्ययके मेदोंको समझाया है। सत् में असत् की कल्पनारूप विपर्यको बताकर
अनेक दार्शनिकोंके मन्तब्य अनुसार असत् में सत्की कश्पमाको दूसरी
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तत्वार्थचिन्तामणिः
जातिका आहार्य विपर्यय कहा है। श्रुतज्ञानमें आहार्य विपर्यय के समान सम्भवनेवाले आहार्य संशय और आहार्य अनध्यवसायको भी दृष्टान्तपूर्वक घटाया गया है । चार्वाक, शून्यवादी, बौद्ध, आदि दार्शनिकों के यहां जो विपरीत अभिनिवेश से अनेक ज्ञान हो रहे हैं, वे आहार्य विपर्यय हैं । पश्चात् मतिज्ञानके भेदों में सम्भव रहे विपर्ययको कहकर स्वार्थानुमानको आमास करनेवाले हेत्वाभासोंका निरूपण किया है। तीन प्रकारके हेत्वाभास माने गये हैं । अन्य हेत्वाभासोंका इन्हींमें अन्तर्भाव हो जाता है। यहां मध्यमें बौद्ध, नैयायिक, कपिल, आदिके सिद्धान्तोंको मिथ्या बताकर उनके साधक हेतुओंको वामास कर दिया है । और भी कई तत्वोंकी वर्णना की है । सादि अनन्त केवलज्ञानका अपूर्वार्थपना साधा गया है । यद्यपि केवलज्ञानीको एक ही समय में सभी पदार्थ भास जाते हैं । फिर भी पूर्वापर-कालसम्बन्धी विशिष्टताले वह ज्ञान अपूर्वार्थमाही है । कल के बासे आटेकी आज बनी हुई रोटीको आज खानेपर और कळके ताजे आटेकी कल बनी हुई रोटीको आज बासी खाने पर स्वाद न्यारा न्यारा है | धनी होकर हुये निर्धन और निर्धन होकर पीछे धनी हुये पुरुषोंके परिणाम विभिन्न हैं । अकिंचित्कर कोई पृथक् हेत्वाभास नहीं है । जैनों के यहां प्रमाणसंप्लक इष्ट है । इसके पश्चात् नियोग, भावना, आदिको वाक्यका अर्थ माननेवाले मीमांसक आदिका विचार चढाया है । नियोग के प्रभाकारोंने ग्यारह भेद किये हैं। प्रमाण आदिक आठ विकल्प उठाकर उनका खण्डन किया गया है । वेदान्तकी रीति से नियोगका खण्डन कराकर पुनः वेदान्तमतका भी निराकरण करदिया है। भाट्टों की मानी हुयीं दोनों भावनाओंका निराकरण किया गया है । शद्वभावना, अर्थभावना घटित नहीं होती हैं । शुद्ध धात्वर्थ भी वाक्यका अर्थ नहीं बन पाता है । तथा ब्रह्माद्वैत वादियोंकी मानी हुई विधि भी वाक्यका अर्थ नहीं है। इन सबका विस्तार के साथ विचार किया गया है । प्रवर्तक या अप्रवर्तक या सफल, निष्फल, नियोग के अनुसार विधिवाद में भी सभी दोष गिरादिये गये हैं। कुछ देरतक नियोगवादीका पक्ष लेकर आचार्य महाराजने विधिवादका विद्वत्तापूर्वक अच्छा उपहास किया है, जिसका कि अध्ययन करनेपर ही विशेष आनन्द प्राप्त होता है । . नियोगके ग्यारहों मेदोंका खण्डन कर विधि, निषेध, आत्मक स्याद्वाद सिद्धान्तको साधा है । विधि में भी प्रमाणपन आदिके विकल्प लगाकर अद्वैतवादका निराकरण किया है । यंत्रारूढ पुरुष आदि मैं वाक्यके अर्थ नहीं हैं। बौद्धोंका अन्यापोह तो कथमपि वाक्यका अर्थ नहीं घटित होता है । विवक्षाका के साथ अव्यभिचारी कार्यकारणभाव सम्बन्ध नहीं है । अतः नियोग, भावना, वर्थ, विधि, आदिको यदि वाक्यका अर्थ माना जायगा तो तज्जन्यज्ञान कुश्रुतज्ञान समझा जायगा ।
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ज्ञानों में केवल देशावधि ही कदाचिद् मिध्यात्वका उदय हो जानेसे विपर्यय रूप हो जाती है । परमावधि और सर्वावधि विपर्यय नहीं हैं । मन:पर्ययज्ञान भी विपरीत नहीं है । यद्यपि प्रमाण ज्ञानों के प्रतिपादक सूत्रोंसे ही परिशेष न्यायसे मिथ्याज्ञानोंकी सम्वित्ति हो सकती है । फिर भी वादी कर्तव्य स्वपक्षसाधन, परपक्षदूषण दोनों हैं । संबर और निर्जरासे मोक्ष होती है।
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तत्वार्थचोकवार्तिके
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अनेकान्तकी उपलब्ध होते हुये भी एकान्तोंका अनुपलम्भ होना साधा जाता है। श्री भईन्त परमेष्ठी के परमात्मपना सिद्ध हो चुकनेपर भी कपिल आदिकों में परमात्मपनका निषेध साधना अनिवार्य है । ताली फिरा देनेसे ही तालेका लग जाना जान चुकनेपर भी दृढ निश्चयके लिए तालेको । खींचकर पुनः खटका लिया जाता है । गुणोंका ग्रहण करो और साथमें दोषोंका प्रत्याख्यान भी करते जाओ । अतः दृढ निर्णय कराकर छुडाने के लिये मिथ्याज्ञानोंको हेतु, दृष्टान्त, पूर्वक प्रतिपादन करनेवाला सूत्र उमास्वामी महाराज द्वारा कहा गया है। प्रतिपक्षी दोषोंके सर्वथा निराकरण करनेसे ही शुद्ध मार्ग व्यवस्थित रह पाता है । यहांतक पहिले अध्यायका चतुर्थ आह्निक समाप्त किया गया है । ज्ञाने मैथ्यं विविच्य प्रमिविरससुखं स्वादयन् सौगतादीन् । काज्ञानादृते द्राक् स्वगुणमिह मणिर्व्यज्जयनोपलब्धः ॥ कुज्ञानादार्यलीढं जगदुपकृतिभिः स्वाभिरुद्धर्तुमिच्छन् । श्रीविद्यानन्दसूरिर्जयति विगतभीर्भाषितस्वामिसूत्रः || १॥
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सम्यग्दर्शन या जीव आदिक पदार्थोंका अधिगम करानेवाले और अभ्यई होनेसे पूर्व में प्रयुक्त किये गये प्रमाणोंका वर्णन हो चुका है । उस प्रमाणके अव्यवहित पश्चात् कहे गये नयोंका अब निरूपण करना अवसर प्राप्त है । अतः निरुक्तिसे ही लक्षणको अपने पेटमें रखनेवाली नयोंकीं भेदगणनाको कहनेवाले सूत्र रसायनकी प्राप्ति यहां मोक्षमार्ग की पारदीयसिद्धिको धारनेवाले श्री उमास्वामी महाराज द्वारा हो रही है, उसको अवधारिये ।
नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभृता नयाः॥३३॥
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शद्व सममिरूढ, और एवंभूत, ये सात नय हैं । यद्यपि प्रमाणोंसे नय भिन्न हैं । फिर भी शद्वों द्वारा जानने योग्य विषयको जतानेवाले श्रुतज्ञानके एक देश नय माने गये हैं । शद्व आत्मक और ज्ञान आत्मक नय हो जाते हैं । इसका विवेचन " प्रमाणनयैरधिगमः " इस सूत्र के व्याख्यानमें किया जा चुका है 1
किं कृत्वाधुना किं च कर्तुमिदं सूत्रं ब्रवीतीत्याह ।
अबतक क्या करके और अब आगे क्या करनेके लिये इस सूत्रको श्री उमास्वामी महाराज व्यक्त कर रहे हैं ? इस प्रकार तक शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य सूत्रकार के हार्दिक भावों अनुसार समाधान कहते हैं ।
निर्देश्याधिगमोपायं प्रमाणमधुना नयान् । नयैरधिगमेत्यादि प्राह संक्षेपतोऽखिलान् ॥ १ ॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
"प्रमाणनयैरधिगमः" 'मतिः स्मृतिः,' 'श्रुतं मतिपूर्व' इत्यादि सूत्रों द्वारा तत्त्वोंकी अधिगति करनेके प्रधान उपाय हो रहे प्रमाणका अबतक अवधारण कराके अब अधिगमके उपाय हो रहे सम्पूर्ण नयोंको संक्षेपसे सूत्रकार महाराज बढिया कह रहे हैं । " प्रमाणनयैरधिगमः " इस सूत्रमें " नयः " कहकर नयोंको भी अधिगमका करण कहा जा चुका है।
प्रमाणनयैरधिगम इत्यनेन प्रमाणं नयाश्चाधिगमोपाया इत्युद्दिष्टं । तत्र प्रमाणं तत्त्वार्याधिगमोपायं प्रपंचतो निर्देश्याधुना नयास्तदधिगमोपायानखिलान् संक्षेपतोन्यथा च व्याख्यातुमिदं प्राह भगवान् । कथं ? नयसामान्यस्य तल्लक्षणस्यैव संक्षेपतो विभागस्य विशेषलक्षणस्य च विस्तरतो नयविभागस्य अतिविस्तरतो नयमपंचस्य चात्र प्रतिपादनात् सर्वथा नयप्ररूपणस्य सूत्रितत्वादिति बमहे।
___ " प्रमाणनयैरधिगमः " ऐसे आकारवाळे इस सूत्र करके प्रमाण और नय ये अधिगम करनेके उपाय हैं, इस प्रकार कथन किया गया है। उन अधिगतिके उपायोंमें तत्वार्थोके अधिगमका उपाय हो रहे प्रमाणको विस्तारसे निरूपण कर अब उन तत्वार्थो या उनके अंशोंकी अधिगतिके उपाय हो रहे सम्पूर्ण नयोंको संक्षेपसे और दूसरे प्रकारोंसे यानी विस्तार, अतिविस्तारसे व्याख्यान करनेके लिये इस सूत्रको भगवान् ग्रन्थकार अच्छा कह रहे हैं। किस प्रकारसे ? इस सूत्रमें नयोंका उन तीन प्रकारोंसे प्रतिपादन किया है ! इसके उत्तरमें हम विद्यानन्द आचार्य गौरवसहित यों उत्तर कहते हैं कि प्रथम ही नय सामान्यका एक ही भेद स्वरूप निरूपण और उस नय सामान्यके लक्षणका ही संक्षेपसे प्रतिपादन किया गया है। तथा विभागका अभिप्राय करते हुये नयों के विशेष दो भेद कर उनके लक्षणका और विस्तारके साथ नयोंके विभागका प्रतिपादन किया है । और भी नयोंके विभागका अत्यन्त विस्तारसे नयोंके भेद प्रभेदोंका इस सूत्रमें विस्तृत कथन किया गया है । बात यह है कि प्रकाण्ड पाण्डित्यको धारनेवाले श्री उमास्वामी महाराजने इस उदात्त सूत्र द्वारा सभी प्रकारोंसे नयोंका प्ररूपण वर्णित कर दिया है । " गागरमें सागर " इसीको कहते हैं। एक ही सूत्रमें अपरिमित अर्थ भरा हुआ है।
तत्र सामान्यतो नयसंख्या लक्षणं च निरूपयन्नाह । __ तहां प्रथम विचारके अनुसार सामान्यरूपसे नयकी संख्याका और नयके लक्षणका निरूपण करते हुये श्री विद्यानन्द बाचार्य श्री उमास्वामी महाराजके हृय अर्थका स्पष्ट कथन करते हैं। उसको समझिये।
सामान्यादेशतस्तावदेक एव नयः स्थितः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजनात्मकः ॥२॥
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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
सामान्यकी विवक्षा करनेसे तो नय एक ही व्यवस्थित किया गया है चाहे कितने भी पदार्थ क्यों नहीं होवें, सामान्यरूपसे उनका एक ही प्रकार हो सकता है। दो, चार, बादिक नहीं। सामान्य पदार्थ या समान जातिवाळे पदार्थोंमें तिष्ठता दुभा सदृश परिणामरूप सामान्य यद्यपि अनेक व्यक्ति स्वरूप होता हुआ अनेक है, फिर भी सामान्यपना एक है। यहां सामान्यमें उपचारसे रखा गया एकत्व अर्थ प्रधान है। जैसे कि बालकके भाग्रह अनुसार सर्प या सिंहके खिलोनेको हो सर्प या सिंह कहा जाता है । बालकको खेलनेके लिये मुख्य सिंह या सर्पका उन शद्रोंकरके ग्रहण नहीं होता है। तथा अनेक एकोंमें रहनेवाले कई एकत्वोंका एकपना मी उपचरित हो रहा उपादेय है । सम्पूर्ण नयोंमें व्यापनेवाला नयका सामान्य लक्षण तो श्रीसमन्तभद्र आचार्यने आप्तमीमांसा यों कहा है कि " स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः " स्याद्वाद श्रुतज्ञान करके ग्रहण किये गये विशेष विशेषांशोंके विभागसे युक्त हो रहे अर्थोके विशेषको व्यक्त कर देनास्वरूप नय है। प्रमाणसे ग्रहण किये गये अर्थक एक देशको ग्रहण करनेवाला वक्ताका अभिप्राय विशेषनय है। ऐसा अन्यत्र कहा जा चुका है। " स्वार्थंकदेशनिणीति लक्षणो हि नयः स्मृतः " इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्यने पहिले कहा है। इन सबका तात्पर्य एक ही है।
सामान्यादेशातावदेक एव नयः स्थितः सामान्यस्यानेकत्वविरोधात् । स च स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नय इति वचनात् ।
सबसे पहिले सामान्यकी विवक्षासे विचारा जाय तो नय एक ही व्यवस्थित हो रहा है। क्योंकि सामान्यका अनेकपनेके साथ विरोध है । समान पदार्थोका सामुदायिक परिणाम महासत्ताके समान एक हो सकता है । भाव पदार्थका एकपना व्याकरण शास्त्रमें लिया गया है। वह निर्मूलक नहीं है। जैनसिद्धान्त अनुसार सामान्यमें कथंचिद् एकपना अपेक्षाओंसे सिद्ध है। और वह नय तो देवागम स्तोत्रमें यों लक्षणरूपसे कहा गया है कि स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा प्रकृष्टरूपसे जान लिये गये गुण, पर्याय आदि विभाग करके युक्त अर्थके विशेषोंका व्यंजक नय है। अर्थात्-अर्थके विशेष नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व, अनेकत्व, आदिको पृथक् पृथक् रूपसे प्रतिपादन करनेवाला नय होता है । अनेक स्वभावोंके साथ तदात्मक हो रहे परिपूर्ण अर्थको जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है।
और उस अर्थके अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखता हुआ अंशोंको जाननेवाला ज्ञान नय है । तथा अन्य धर्मोका निराकरण करता हुआ अंशमाही ज्ञान कुनय है। "अर्यस्यानेकरूपस्य धीःप्रमाणं तदंशधीः। नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तनिराकृतिः " ऐसा अन्यत्र भी कहा गया है।
ननु चेदं हेतोर्लक्षणवचनमिति केचित् । तदयुक्तं । हेतोः स्याद्वादेन प्रविभक्तस्याथस्य सकलस्य विशेष व्यंजयितुमसमर्थत्वादन्यत्रोपचारात् । हेतुजनितस्य बोधस्य व्यंजका प्रधानभावत एव युक्तः। स च नय एव स्वार्थकदेशव्यवसायात्मकत्वादित्युक्तम् ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यहां कोई यो शंका करते हैं कि आप्तमीमांसामें अहेतुवाद रूप स्याद्वाद आगम और हेतुवाद रूप नय इन दोनोंसे अलंकृत हो रहे तत्वज्ञानको प्रमाण कहते हुये श्री समन्तभद्र आचार्यके सन्मुख हेतुके लक्षणकी जिज्ञासा प्रकट किये जानेपर शिष्यके प्रति स्वामीजीने " सधर्मणैव साध्यस्य साध
दिविरोधतः " स्याद्वादप्रविमकार्थविशेषव्यञ्जको नयः" इस कारिका द्वारा हेतुका लक्षण कहा है। इसको नयका परिशुद्ध लक्षण तो नहीं मानना चाहिये । किसी प्रकरण वश कही गयी बातका अन्य प्रकरणोंमें भी वही अर्थ लगा लेना समुचित नहीं है । इस प्रकार कोई आक्षेप कर रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि उनका वह कहना युक्तिरहित है। क्योंकि हेतुकी स्याद्वाद करके प्रविभक्त किये गये सकल अर्थके विशेषकी व्यक्त ज्ञप्ति कराने के लिये सामर्थ्य नहीं है। भले ही उपचारसे हेतुको ज्ञापक कह दिया जाय । किन्तु उपचारके सिवाय वस्तुतः ज्ञापक तो चेतम ज्ञान ही होते हैं। हेतुसे उत्पन्न हुये बोधकी प्रधानरूपसे व्यंजना करनेवाला वह नय ज्ञान ही युक्त हो सकता है। अथवा हेतुसे उत्पन्न हुये ज्ञानका व्यंजक प्रधानरूपसे ही कार्यको करनेवाला कारण हो सकेगा और वह ज्ञानात्मक नय ही हो सकता है । क्योंकि करण भात्मक अपने और कर्मस्वरूप अर्यके एक देशका व्यवसाय करना स्वरूप नय होता है। इस प्रकार हम पहिले " प्रमाणनयैरधिगमः " सूत्रकी चौथी वार्तिकमें कह चुके हैं । अतः नय आत्मक हेतु ज्ञान तो साध्यका ज्ञापक है । जड हेतु ज्ञापक नहीं है । कचित् हेतु ज्ञानका अवलम्ब कारण हेतु मान लिया गया है। यथार्थरूपसे विचारा जाय तो ज्ञापकपक्षमें नय ही हेतु पडता है। क्योंकि साध्य अर्थनयस्वरूप हेतु करके ज्ञापित किया जाता है । अतः वह ज्ञानस्वरूप हेतुनयका ही लक्षण समझना चाहिये। जड हेतुका नहीं ।
नन्वेवं दृष्टेष्टविरुद्धनापि रूपेण तस्य व्यजको नयः स्यादिति न शंकनीयं " सधर्मजैव साध्यस्य साधादविरोधतः" इति वचनात् । समानो हि धर्मो यस्य दृष्टांतस्य तेन साधर्म्य साध्यस्य धर्मिणो मनागपि वैधाभावात् । ततोस्याविरोधेनैव व्यंजक इति निश्चीयते दृष्टान्तसाधाददृष्टांतोत्सरणादित्यनेन दृष्टविरोधस्य निवर्तनात् । न तु कयंचिदपि दृष्टांतवैधाददृष्टवैपरीत्यादित्यनेनेष्टविरोधस्य परिहरणात् दृष्टविपरतिस्य सर्वथानिष्टत्वात् ।
___ यहां पुनः किसीकी शंका है कि इस प्रकार तो प्रत्यक्ष प्रमाणद्वारा देखे गये और अनुमान आदि प्रमाणोंसे इष्ट किये गये स्वरूपोंसे विरुद्ध हो रहे स्वरूपों करके भी उस अर्थकी व्यञ्जनारूप इप्ति करानेवाला ज्ञान नय बन बैठेगा ! इसपर आचार्य कहते हैं कि यों तो शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि दृष्टान्त धर्मीके साथ इष्ट, अबाधित, असिद्ध स्वरूप साध्यका साधर्म्य हो जाने करके अविरोध रूपसे पदार्थ विशेषोंका ज्ञापक नयज्ञान है, ऐसा श्री समन्तभद्र भाचार्यने कहदिया है । जिस अन्वयदृष्टान्तका धर्म समान है, उसके साथ साध्यधर्मीका साधर्म्य होय । थोडा भी वैधर्म्य नहीं होना चाहिये । अर्थात्-निर्णीत किये गये दृष्टान्तके साथ प्रकरणप्राप्त साध्यका
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तत्वार्थश्वोकवार्तिके
साधर्म्य हो जानेसे ज्ञप्ति करनेमें कभी प्रत्यक्ष या अनुमान आदिसे विरोध नहीं आता है । तिस कारण इस अर्थका अविरोध करके ही नय ज्ञान व्यंजक है । ऐसा निश्चय कर लिया जाता है । अन्वय दृष्टान्तका साधर्म्य मिला देनेसे अन्य दृष्टान्तोंका निराकरण करदिया जाता है। इस कराण इस दृष्टान्त साधर्म्यके वचन करके दृष्ट प्रत्यक्ष प्रमाणसे आनेवाले विरोधकी निवृत्ति हो जाती है । अन्वय दृष्टान्तके विधर्मापने से यदि नय व्यंजक होता तो किसी भी प्रकार से प्रत्यक्ष द्वारा आये हुये विरोधकी निवृत्ति नहीं हो सकती थी और अदृष्ट वैपरीत्य यानी दृष्टसे विपरीतपना नहीं इस विशेषण करके तो अनुमान आदि प्रमाणोंसे आने योग्य विरोधोंका परिहार हो जाता है । क्योंकि दृष्ट विपरीत हो रहे अनुमान आदि विरुद्ध पदार्थोंका नयों द्वारा ज्ञान हो जाना सभी प्रकारोंसे अनिष्ट है । "सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यात" इस वाक्य करके दृष्टान्तसाधर्म्य और अदृष्टान्तवैधर्म्य ये दोनों अर्थ निकल आते हैं । अतः दृष्टान्तसाधर्म्यसे दृष्ट विरोध और अदृष्टान्त वैधर्म्यसे इष्ट विरोधकी निवृत्ति हो जाती है । प्रमाणोंसे अविरुद्ध स्वरूप करके उस साध्यका व्यंजक नयज्ञान होता है ।
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स्वयमुदाहृतश्चैवं लक्षणो नयः स्वामिसमंतभद्राचार्यैः । “ सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् " इति सर्वस्य वस्तुनः स्याद्वादप्रविभक्तस्य विशेषः सच्वं तस्य व्यंजको बोधः स्वरूपादिचतुष्टयाद् दृष्टसाधर्म्यस्य स्वरूपादिचतुष्टयात् सन्निश्चितं न पररूपादिचतुष्टयेन तद्वत्सर्वे विवादापनं सत् को नेच्छेत् ? कस्यात्र विप्रतिपत्तिरिति व्याख्यानात् ।
स्वामी श्री समन्तभद्र आचार्य महाराजने स्वयं अपने देवागम स्तोत्रमें इसी प्रकार लक्षणवाले नयको उदाहरण देकर समझा दिया है कि (6 सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् असदेव विपर्यासान्न चेन व्यवतिष्ठते " । चेतन, अचेतन, द्रव्य पर्याय आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको स्वरूप ( स्वद्रव्य ) आदि यानीं स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव इस स्वकीय चतुष्टयसे सत् स्वरूप ही कौन नहीं इच्छेगा । अर्थात् स्वचतुष्टयसे सम्पूर्ण पदार्थ अस्तिरूप हैं । यह एक नयका विषय है, तथा परकीय चतुष्टयसे सम्पूर्ण पदार्थ नास्ति स्वरूप ही हैं। यह दूसरा नय है । अन्यथा व्यवस्था नहीं है । स्वकीय अंशोंका उपादान और परकीय अंशोंका त्याग करना ही वस्तुके वस्तुत्वको रक्षित रखता है। इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार पृथक् पृथक् विशेष धर्मोसे गृहीत हुये सम्पूर्ण वस्तुका जो विशेष यानी सत्व है । उस अस्तित्वका स्वरूप आदि चतुष्टय व्यंजक ज्ञान नय है । दृष्ट पदार्थ के साथ साधर्म्यका स्वरूप आदि चतुष्टयसे वस्तुमें अस्तित्व निश्चित किया गया है। परकीय रूप, क्षेत्र, आदिके चतुष्टय करके वस्तुका अस्तित्व निर्णीत नहीं है । उसीके समान सभी विवाद में प्राप्त 1 हो रहे जीव, बन्ध, मोक्ष आदि पदार्थोंके अस्तित्वको कौन नहीं इष्ट करेगा ? अर्थात् - इस प्रकार ant विवक्षासे प्रमाण सिद्ध पदार्थोंके इस अस्तित्वमें भला किस विद्वानको विवाद पड़ा रहा सकता है । अर्थात् - किसीको भी नहीं । इस प्रकार उस कारिकाका व्याख्यान है ।
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तवायचिन्तामणिः
संक्षेपतो नयविभागमामर्शयति ।
सामान्यरूपसे नयकी संख्या और लक्षणको कहकर अब श्री विद्यानन्द आचार्य नयके संक्षेपसे विभागों का अच्छा परामर्श कराते हैं। या " आदर्शयति " ऐसा पाठ रखिये ।
संक्षेपाविशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ ।
द्रव्यार्थी व्यवहारांतः पर्यायार्थस्ततोऽपरः ॥ ३ ॥
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संक्षेपसे नय दो प्रकार माने गये हैं। प्रमाणका विषय वस्तु तो अंशी ही है । तथा द्रव्य और पर्याय उसके अंश हैं । वस्तुके विशेष धर्म करके द्रव्य और पर्यायको विषय करनेवाले द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय हैं । और उससे निराला पर्यायार्थिक नय है, जो कि ऋजुसूत्र से प्रारम्भ कर एवं भूततक भेदोंसे तदात्मक हो रहा है ।
विशेषतः संक्षेपाद्वौ नयौ द्रव्यार्थः पर्यायार्थथ । द्रव्यविषयो द्रव्यार्थः पर्यायविषयः पर्यायार्थः प्रथमो नैगमसंग्रहव्यवहारविकल्पः । ततोपरचतुर्धा ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूतविकल्पात् ।
सामान्यरूपसे विचार कर चुकनेपर अब विशेषरूपसे अपेक्षा होते सम्ते परामर्श चलाते हैं। कि संक्षेपसे नय दो है । एक द्रव्यार्थ है और दूसरा पर्यायार्थ है । वस्तुके नित्य अंश द्रव्यको विषय करनेवाला नय द्रव्यार्थ है और वस्तुके अनित्य अंश पर्यायोंको विषय करनेवाला नय पर्यायार्थका उदर अन्य भी शेयपदार्थोंको धार लेता है । पहिले द्रव्यार्थ नयके नैगम संग्रह और व्यवहार ये तीन विकल्प है । उससे भिन्न दूसरा पर्यायार्थ नय ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, और एवंभूत इन भेदोंसे चार प्रकारका है ।
विस्तरेणेति सप्तैते विज्ञेया नैगमादयः ।
तथातिविस्तरेणैतद्भेदाः संख्यातविग्रहाः ॥ ४ ॥
और भी विस्तार करके विशेषरूपसे विचारनेपर तो ये नय नैगम आदिक एवंभूत पर्यन्त सात हैं । इस प्रकार समझ लेना चाहिये । तथा अत्यन्त विस्तार करके नयके विशेषोंकी जिज्ञासा होनेपर संख्याते शरीरवाले इन नयोंके मेद हो जाते हैं । अर्थात्-शब्द वस्तुके धर्मको कहते रहते. 1 हैं । अतः जितने शब्द हैं उतने नय हैं, अकार, ककार, आदि वर्णोद्वारा बनाये गये अभिधायक शब्द संख्यात प्रकारके ही हैं, शब्दोंके मेद असंख्यात और अनन्त नहीं हो सकते हैं। कितना भी घोर परिश्रम करो पचासों अक्षरोंका या पदोंका सम्मेलन कर बनाये गये शब्द भी संख्यात ही बनेंगे, जो कि मध्यम संख्यात है । जैन सिद्धान्त अनुसार १ काख योजन लम्बे चौडे गोक
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
१ हजार योजन गहरे अनवस्था कुंड, शलाका कुंड, प्रतिशलाका कुंड, महाशलाका कुंडोंको बनाया जाय। अनवस्था कुंडको सरसोंसे शिखा भरकर जम्बूद्वीपसे परे दूने दूने विस्तारवाळे द्वीप समुद्रोंमें एक एक सरसोंको डालते हुये क्रम अनुसार पूर्व पूर्व कुंडके भर जानेपर- अग्रिमकुंडमें एक एक सरसों डालते डालते एक लाख योजन लम्बे चौडे, गोल एक हजार गहरे महाशलाकाको भरदेनेवाले अन्तिम अनवस्था कुंडकी सरसोंमेंसे एक कम कर देनेपर उत्कृष्ट संख्यात नामकी संख्या बनती हैं । बात यह है कि शब्दोंकी अपेक्षा नयोंके भेद अधिकसे अधिक मध्यमसंख्यात हैं। यह संख्या कोटि, अरब, खरब, नील, पद्म, आदि संख्याओंसे कहीं बहुत अधिक है ।
कृत एवमतः सूत्राल्लक्ष्यत इत्याह ।
इस श्री उमास्वामी महाराजके छोटेसे सूत्रके इस प्रकार सामान्य संख्या, संक्षेपसे भेद, विशेष स्वरूपसे विकल्प, और अत्यन्त विस्तारसे नयोंके विकल्प इस प्रकारकी सूचना किस ढंगसे जान ली जाती है ! इस प्रकार शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं । भावार्य-माताके उदरसे जन्म लेते ही बालक जिनेन्द्रदेवको इन्द्र आदिक देव सुमेरुपर्वतपर लेजाकर एक हजार आठ कलशोंसे उस लघुशरीर जिनेन्द्रबालकका अभिषेक करते हैं। यहां भी ऐसी शंकायें होना सुख्म हैं। किन्तु वस्तुके अनन्त शक्तियोंका विचार करनेपर वे शंकायें कर्पूरके समान उड जाती हैं। एक तिल बराबर रसायन औषधि सम्पूर्ण बम्बे चौडे शरीरको नीरोग कर देती है। पहाडी विच्छूके एक रत्तीके दश सहस्रयां भाग तुले हुये विषसे मनुष्यका दो मन शरीर विषाक्त हो जाता है । एक जो या अंगुलके समान लम्बी, चौडी छोटी मछलीके ऊपर लाखों मन पानीकी धार पडे तो भी वह नहीं घबडाती है । प्रत्युत कभी कभी नाचती घूमती किलोछे करती हुई हर्ष पूर्वक सैकडों गज ऊंची जलधारापर उसको काटती हुई ऊपर चढ जाती है। बात यह है कि मात्र अंगुलके असंख्यातवें भागमें समा जानेवाले छोटेसे पुद्गल स्कन्धके बिगड जानेपर सैकडों कोसतक बीमारियां फैल जाती हैं । सैकडों कोस लम्बी भरी हुई वारुदकी नालीको उडादेने के लिये अग्निकी एक चिनगारी पर्याप्त है । इसी प्रकार महामना पुरुषोंके मुखसे निकले हुये उदात्त शब्द अपरिमित अर्थको प्रतिपादन कर देते हैं । इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्यके मुखसे सुनिये ।
नयो नयो नयाश्चेति वाक्यभेदेन योजितः।
नैगमादय इत्येवं सर्वसंख्याभिसूचनात् ॥५॥
श्री उमास्वामी महाराजने इस सूत्रके विधेयदलमें नया इस प्रकार शब्द कहा है। वाक्यों या पदोंके भेद करके एक नय, दो नय और बहुतसे नय इस प्रकार एकशेषद्वारा योजना कर दी गयी है । इस ढंगसे नैगम आदि मात नयों के साथ " नयः" इस एक वचनका सामानाधिकरण्य
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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करनेसे सामान्य संख्या एकका बोध हो जाता है और " नयों " के साथ अन्वय कर देनेसे संक्षेपसे दो भेदवाले नय हो जाते हैं । तथा " नयाः " के साथ एकार्थ कर देनेसे विस्तार और प्रति विस्तारसे नयोंके भेद जान लिये जाते हैं । इस प्रकार गंभीर सूत्रद्वारा ही चारों ओरसे सम्पूर्ण संख्याओंकी सूचना कर दी जाती है । सदृश अर्थको रखते हुये समानरूपवाले पदोंका एक विभक्ति में एक ही रूप अवशिष्ट रह जाता है । घटश्व, घटश्व, घटश्व, कहने से एक घट शब्द शेष रह जायगा । अन्योंका लोप हो जायगा । ' यः शिष्यते स लुप्यमानार्थविधायी' और लोप किये जा चुके शब्दों के अर्थको वह बचा हुआ पद-कहता रहेगा । इस प्रकार एकशेष वृत्ति है । इसका पक्ष उतना प्रशस्त नहीं है जितना कि स्वाभाविक पक्ष उत्तम है । यानी तिस स्वभावसे हो ।" "" वह शब्द अनेक अर्थोको कह देता है । अथवा घटाः एक नय, दो नय, बहुत नय इन अर्थोको स्वभावसे ही प्रतिपादन करता रहता है । जैन सिद्धान्त अनुसार दोनों पक्ष अभीष्ट है ।
प्रकार शब्द शक्तिके
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नयाः यह शब्द
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नैगम संग्रहन्यवहार र्जुसूत्र शब्दसमभिरूदैवंभूता नयाः इत्यत्र नय इत्येकं वाक्यं, ते नौ द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिको इति द्वितीयमेते नयाः सप्तेति तृतीयं पुनरपि ते नयाः संख्याता शद्वत इति चतुर्थे । संक्षेपपरायां वाक्मवृत्तौ यौगपद्याश्रयणात् । नयश्च नयौ च नयाश्च नया इत्येकशेषस्य स्वाभाविकस्याभिधाने दर्शनात् । केषांचित्तथा वचनोपलंभाच्च न विरुध्यते ।
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शद्व, समभिरूढ, एवंभूत, सात नय हैं । इस प्रकार एक वचन लगाकर एक वाक्य तो यों है कि नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शङ्ख, समभिरूढ, एवंभूत, ये सातों एकनयस्वरूप हैं । और दूसरा वाक्य नयौ लगाकर यों है कि नैगम आदि सातों नय दो नयस्वरूप हैं। तथा ये सातों बहुत नयों स्वरूप हैं। यह तीसरा वाक्य है । फिर भी शदोंकी अपेक्षासे वे नैगम आदिक लाखों, करोडों आदि संख्यावाली संख्यातीं नये हैं । यह चौथा वाक्य भी सूत्रका है । सूत्रकार महाराज के वचनोंकी प्रवृत्ति संक्षेपसे कथन करनेमें तत्पर हो रही है । अतः युगपत् चारों वाक्योंके कथन करनेका आश्रय कर लेनेसे चार वाक्योंके स्थानपर एक ही सूत्रवाक्य रच दिया गया है । चार वाक्योंके बदले में एक वाक्य बनाना व्याकरण शास्त्र के प्रतिकूल नहीं है । किन्तु अनुकूल है । एक नय, दो नय और बहुत नय इस प्रकार द्वन्द्व समास करनेपर " नयाः यह एक पद बन जाता है । अनेक समान अर्थक पदोंके होनेपर शद्ब स्वभावसे ही प्राप्त हुये एक शेषका कथन करना शद्बों में देखा जाता है । तथा किन्हीं विद्वानोंके मत अनुसार एक नय, दो नय, बहुत नय, इस प्रकार अर्थकी विवक्षा होनेपर तिस प्रकार "" नयाः " ऐसे पहिले से ही बने बनाये कथनका उच्चारण दीख रहा है। अतः कोई विरोध नहीं आता है । परिपूर्ण 1 चन्द्रमाकी कृष्ण पक्ष द्वितीया आदि तिथियों में एक एक कळा राहु विमान द्वारा ढक जाती है। इस
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स्वार्थकोकवार्तिके
मन्तव्यकी अपेक्षा यह सिद्धान्त अच्छा है कि द्वितीया, तृतीया, आदिक तिथियों में स्वभावसे ही चन्द्रमाका उतना, उतना कमती प्रकाश आत्मक परिणाम होता है । चमकीले पदार्थों में सूर्य, रंगे हुये वस्त्र, दर्पण, अन्धकार, छाया, आदिसे कान्तिका विपरिणाम हो जाता है । यह ठीक है । फिर भी बहिरंग पदार्थोंकी नहीं अपेक्षा करके भी सुवर्ण, मोती, गिरगिटका शरीर, बलिष्ठ मनुष्य, अनेक प्रकारकी कान्तियोंको बदलता रहता है। शरीरसौन्दर्य कावण्य भी नये नये रंग छाता है । " प्रतिक्षणं यद्भवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः " । इन कार्यों में कारणोंकी अपेक्षा अवश्य है । क्योंकि विना कारणोंके कार्य होते नहीं हैं। फिर भी प्रसिद्ध हो रहे कान्तिके कारणोंका व्यभिचार देखा जाता है । अतः चन्द्रमाके स्वाभाविक उतनी उतनी कान्तिके समान शद्वकी स्वाभाविक शक्तिके अनुसार तिस प्रकार नयाः कह देने से चारों वाक्य उसके पेटमें गतार्थ हो जाते हैं । चन्द्रकी कान्तिके प्रथम पक्ष समान शद्वका पहिला पक्ष एकशेष भी गर्ह्य नहीं है ।
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अत्र वाक्यभेदे नैगमादेरेकस्य द्वयोश्व सामानाधिकरण्याविरोधाच्च गृहा ग्रामः देवमनुष्या उभौ राशी इति यथा ।
1
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जस्
अधिकरण
इस सूत्र वाक्योंका भेद करनेपर नैगम आदिक एकका और दोका नय शद्वके साथ समान 'अधिकरणपने का अविरोध हो जानेसे तिस प्रकार सूत्रवचन में कोई विरोध नहीं जाता है । जैसे कि अनेक गृह ही तो एक ग्राम है । सम्पूर्ण देव और मनुष्य ये दोनों दो राशि हैं। यहां और " सु " ऐसे न्यारे वचन के होते हुये भी अनेक गृहका एक प्रामके साथ समान पना निर्दोष माना गया है । " देवमनुष्याः " शद्व बहुवचनान्त है । और राशी द्विवचनान्त है । दोनोंका उद्देश्य विधेय भाव बन जाता है । उसी प्रकार " नैगमादयो नयः " " नैगमादयो नयौ ” " नैगमादयो नयाः इस प्रकार भिन्न वाक्य बनानेपर उद्देश्य बिधेय दलके शाद्वबोध करने में कोई हानि नहीं आती है।
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नन्वेवमेकत्व द्वित्वादिसंख्यागतावपि कथं नयस्य सामान्यलक्षणं द्विधा विभक्तस्य तद्विशेषणं विज्ञायत इत्याशंकायामाह ।
यहां शंका है कि इस प्रकार नयः, नयौ, नयाः, इस वाक्यभेद करके एकपन, दोपन, आदि संख्याका ज्ञान हो चुकनेपर भी द्रव्य और पर्याय इन दो प्रकारोंसे विभक्त किये गये नयका सामान्य लक्षण उनका विशेषण है, यह विशेषतया कैसे जाना जा सकता है ? ऐसी आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य स्पष्ट उत्तर कहते हैं ।
नयनां लक्षणं लक्ष्यं तत्सामान्यविशेषतः ।
नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः ॥ ६ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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तदंशो द्रव्यपर्यायलक्षणौ साध्यपक्षिणौ । . नीयेते तु यकाभ्यां तौ नयाविति विनिश्चितौ ॥ ७ ॥
जिस कारणसे कि उन सामान्य और विशेषरूपसे यहां नयोंका लक्षण दिखलाने योग्य है, तिस कारण जिस करके श्रुतज्ञानसे जाने हुये अर्थका अंश प्राप्त किया जाय यानी जाना जाय वह ज्ञान नियमसे नय कहा जाता है । प्रमाण आत्मक श्रुतबानसे जाने गये उस वस्तुके दो अंश हैं। एक द्रव्यस्वरूप अंश है। दूसरा पर्यायस्वरूप अंश हैं । जो कि नयों के द्वारा साधने योग्य पक्ष में प्राप्त हो रहे हैं। जिन दो नयों करके वस्तुके वे दो अंश प्राप्त करलिये जाय वे दो नय हैं। इस प्रकार विशेषतया दो नय निर्णीत करदिये गये हैं। नयका सामान्य लक्षण सभी विशेष नयोंमें घटित हो जाता है । सामान्य नयका विषय भी सभी नेय विषयोंमें अन्वित हो रहा है। ___ नीयतेऽनेनेति नय इत्युक्ते तस्य विषयः सामर्थ्यांदाक्षिप्यते । स च श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यांश इति तदपेक्षा निरुक्तिर्नयसामान्य लक्षणे लक्षयति, तथा नीयेते यकाभ्यां तौ नयावित्युक्ते तु द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको नयौ द्वौ तौ च द्रव्यपर्यायाविति तदपेक्षं निर्वचनं नयविशेषद्वयलक्षणं प्रकाशयति ।
जिस करके अंशका ज्ञान कराया जाय ऐसा ज्ञान नय है, इस प्रकार कह चुकनेपर उस नयका विषय तो विना कहे हुये भी शद्वकी सामर्थ्य द्वारा आक्षेपसे लब्ध हो जाता है। और वह विषय पहिले नहीं विषय होता हुआ श्रुतज्ञान नामक प्रमाण द्वारा अब विषय किये जा चुके प्रमेयका अंश है। इस कारण उस विषयकी अपेक्षा हो रही निरुक्ति यहां नयके सामान्य लक्षण में दिखग दी जाती है। यहां एक विषय और एक ही विषयी है । तथा जिन दो बापकों करके वस्तुके दो अंश गृहीत किये जाते हैं, वे दो नय हैं। इस प्रकार कहनेपर तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो नय ज्ञापक हुये और उनके विषय तो वस्तु के दो अंश द्रव्य और पर्याय हुये। इस प्रकार उन द्रव्य और पर्यायोंकी अपेक्षासे किया गया नय शब्दका निर्वचन तो नयके दोनों विशेष लक्षणोंका प्रकाश करा रहा है। दो विषयोंकी अपेक्षा दो ज्ञापक विषयी निर्णीत किये जाते हैं।
ननु च गुणविषयो गुणार्थिकोपि तृतीयो वक्तव्य इत्यत्राह।
यहां प्रश्न है कि वस्तुके अंश हो रहे द्रव्य, गुण, और पर्याय तीन सुने जाते हैं । जब कि द्रव्यको विषय करनेवाला द्रव्यार्थिक नय है और पर्याय अंश को जाननेवाला पर्यायार्थिक नय है । तब तो तिस ही प्रकार नित्यगुणोंको विषय करनेवाला तीसरा नय गुणार्थिक भी यहां कहना चाहिये । इस प्रकार प्रश्न होनेपर यहां श्री विद्यानन्दस्वामी उत्तर कहते हैं ।
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
गुणः पर्याय एवात्र सहभावी विभावितः। इति तद्गोचरो नान्यस्तृतीयोस्ति गुणार्थिकः ॥८॥
गुणार्थिक नय न्यारा नहीं है। पर्यायार्षिकमें उसका अन्तर्भाव हो जाता है । पर्यायका सिद्धान्त लक्षण " अंशकल्पनं पर्यायः " है, वस्तुके सद्भूत अंशोंकी कल्पना करना पर्याय है। द्रव्यके द्वारा हो रहे अनेक कार्योंको ज्ञापक हेतु मानकर कल्पित किये गये परिणामी नित्य गुण तो वस्तुके साथ रानेवाले सहभावी अंश हैं । अतः षट्स्थानपतितहानि वृद्धिओं से किसी भी एकको प्रतिक्षण प्राप्त हो रहे, अविभाग प्रतिच्छेदोंको धारनेवाली पर्यायों करके परिणमन कर रहे रूप, रस, चेतना, सुख, अस्तित्व, वस्तुत्व, आदिक गुण तो यहां सहभाबी पर्यायस्वरूप ही विचार लिये जा चुके हैं। इस कारण उन गुणोंको विषय करनेवाला भिन तीसरा कोई गुणार्थिक नय नहीं है। मावार्थ-पर्यायोंका पेट बहुत बड़ा है। द्रव्यके नित्य अंश गुण और उत्पाद व्यय ध्रौव्य, स्वप्रकाशकत्व, परप्रकाशकत्व, एकत्व, अनेकत्व, आदिक स्वभाव अविभाग प्रतिच्छेद ये सब पर्यायें हैं । एक गुणकी क्रममावी पर्याय एक समयमें एक होगी। जो कि अनेक अविभाग प्रतिच्छेदोंका समुदायरूप भाव अंश है। हां, स्वभावोंकी भित्ति परव्यपदेश किये जा रहे उत्पाद व्यय, ध्रौव्य, वा छोटापन बडापन ये पर्यायें तो एक साथ भी कई हो जाती है। जैसे कि एक समयमें मात्र फल हरा है । द्वितीय समयमें पीला है, पहिले समय आत्मामें दर्शन उपयोग है। दूसरे समय मतिज्ञान उपयोग है । रूपगुण या चेतना गुणकी ये उक्त पर्यायें क्रमसे ही होगी। एक समयमें अविभाग प्रतिच्छेदवाली दो पर्यायें नहीं हो सकती है। हां, हरितपनका नाश पीतताका उत्पाद और वर्ण सहितपनकी स्थिति ये तीनों पर्यायें पीत अवस्थाके समय विद्यमान हैं । कोई विरोध नहीं है । एक गुणकी अविभाग प्रतिच्छेदवाली दो पर्यायोंका एक समयमें विरोध है । इसी प्रकार गुणके सर्वथा प्रतिपक्षी हो रहे दूसरे गुणका एक द्रव्यमें सदा रहनेका विरोध है। जैसे कि पुद्गलमें रूप गुण है, रूपाभाव गुण पुद्गलमें कमी नहीं है । आत्मामें चेतना गुण, अचैतन्य गुण नहीं। धर्म द्रव्यमें गति हेतुत्व नामका भाव आत्मक अनुजीवी गुण है । अतः धर्मद्रव्यमें स्थितिहेतुत्व गुण नहीं पाया जा सकता है। बात यह है कि वस्तुद्वारा हो रहे कार्योकी अपेक्षा वस्तुमें गुण जुडे हुये माने जाते हैं। संसारमें किसी भी वस्तुसे विरुद्ध कार्य नहीं हो रहा है। अतः अनुजीवी दो विरुद्ध गुण एक द्रव्यमें कभी नहीं पाये जाते हैं। ये जो नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, बनेकत्व, आपेक्षिक हलकापन, भारीपन, अधिक मीठापन, न्यून मीठापन आदि स्वभाव, एक समयमें देखे जा रहे हैं, वे सब तो सप्तमंगीके विषय हो रहे स्वभाव है। नित्य परिणामी हो रहे अनुजीवी गुण नहीं है । वस्तुमें अनुजीवी विरुद्ध दो गुणोंको टिकनेके किये स्थान नहीं है । विरुद्ध सारिख दीखते हुये, धर्म वा स्वमाव चाहे जितने ठहर जाओ। विचारिये
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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कि पुद्गल द्रव्यमें रूप नामक नित्य गुणके समान यदि रूपामाष मी गुण जडा हुआ हो तो रूपगुण विचारा पुद्गलको नीले, पीले रंगसे परिणाम करावेगा और उसके विरुद्ध रूपाभाव तो पुद्गलको आकाशके समान सर्वथा नीरूप बनाये रखनेका अटूट परिश्रम करेगा। ऐसी विरुद्धोंके साय लडाईमें गुणोंके समुदाय पुद्गल द्रव्यका नाश हो जाना अनिवार्य है । पोखरमें साँडोंकी लडाई होनेपर मेंडकोंपर आपत्ति आ जाती है । इसी प्रकार चैतन्य, अचैतन्यके कार्योंमें वध्यघातक विरोध पड जानेसे द्रव्योंका नाश अवश्यम्भावी हो जावेगा जो कि अनिष्ट है । अतः द्रव्यमें अक्षुण्ण जुडे हुये अविरुद्ध परिणामी हो रहे नित्य गुण उसके अंश हैं। वे पर्यायार्थिक नयसे विषय कर लिये जाते हैं । उन गुणोंका अखण्ड पिण्ड नित्यद्रव्य तो द्रव्यार्थिक नयका विषय है।
पर्यायो हि द्विविधा, क्रमभावी सहभावी च । द्रव्यमपि विविधं शुद्धाशुद्धं च । तत्र संक्षेपशद्ववचने द्वित्वमेव युज्यते, पर्यायशद्वेन पर्यायसामान्यस्य स्वव्यक्तिन्यापिनोभिधानात् । द्रव्यशद्धेन च द्रव्यसामान्यस्य स्वशक्तिव्यापिनः कथनात् । ततो न गुणः सहभावी पर्यायस्तृतीयः शुद्धद्रव्यवत् ।
___ कारण कि पर्यायार्थिक नयका विषय हो रहा पर्याय दो प्रकारका है। एक क्रमक्रमसे होनेवाला बाल्य, कुमार, युवा, वृद्ध, अवस्थाके समान क्रममावी है। दूसरा शरीरके हाथ, पांव, पेट, नाक, कान, आदि अवयवोंके समान सहभावी पर्याय है, जो कि अखंडग्यकी नित्य शक्तियां हैं। तथा द्रव्यार्यि नयका विषय द्रव्य भी शुद्ध द्रव्य और अशुद्ध द्रव्यके भेदसे दो प्रकारका है । धर्म, अधर्म,आकाश,काल, तो शुद्ध द्रव्य ही है। हां, जीवद्रव्यमें सिद्ध भगवान् और पुद्गलमें परमाणु शुद्ध द्रव्य कहे जा सकते हैं । सजातीय दूसरे पुद्गल और विजातीय जीव द्रव्यके साथ बन्धको प्राप्त हो रहे घट, पट, जीवितशरीर आदिक अशुद्ध पुद्गल द्रव्य हैं। तथा विजातीय पुद्गल द्रव्यके साथ वंध रहे संसारी जीव अशुद्ध जीव द्रव्य हैं । यद्यपि अशुद्ध द्रव्य दो द्रव्योंकी मिली हुई एक विशेष पर्याय है। फिर भी उस मिश्रित पर्यायके अनेक गुण प्रतिक्षण भाव पर्यायोंको धारते हैं । अतः गुणवान होनेसे वह द्रव्य माना जाता है । तिस नयके संक्षेपसे विशेष भेदोंको कहनेवाले तीसरे वार्तिको " संक्षेपसे " ऐसा शब्द प्रयोग करनेपर उस नय शद्बमें द्विवचनपना ही उचित हो रहा माना जाता है। पर्याय शब्द करके अपनी नित्य अंश गुण, क्रममावी पर्याय, कल्पितगुण, स्वभाव, धर्म, अविभागप्रतिच्छेद, इन अनेक व्यक्तियोंमें व्यापनेवाले पर्यायसामान्यका कथन हो जाता है। और द्रव्य शब्दकरके अपनी नित्य, अनित्य शक्तियोंके धारक शुद्ध, अशुद्ध द्रव्योंमें न्यापनेवाले द्रव्यसामान्यका निरूपण हो जाता है। अशुद्ध द्रव्यकी नियत कालतक परिणमन करनेवाली पर्याप्ति, योग, दाहकत्व, पाचकत्व, आकर्षणशक्ति मारणशक्ति, आदि पर्याय शक्तियोंको यहां अनित्य शक्तियां पदसे पकडलेना चाहिये । जबकि पर्याय शब्दसे सभी पर्यायोंका ग्रहण होगया । तिस कारण सहभावी पर्याय हो रहा नित्य गुण कोई तीसरा नेय विषय नहीं है, जैसे कि शुद्ध द्रव्य
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तत्वार्थचोकवार्तिके
कोई न्यारा विषय नहीं है। द्रव्यार्थिक नयसे ही शुद्ध द्रव्य, अशुद्ध द्रव्य, सभी द्रव्योंका ज्ञापन हो जाता है। अतः दो नेय विषयोंको जाननेवाले द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो नय ही पर्याप्त हैं।
संक्षेपाविवक्षायां तु विशेषवचनस्य चत्वारो नयाः स्युः, पर्यायविशेषगुणस्येव द्रव्यविशेषशुद्धद्रव्यस्य पृथगुपादानप्रसंगात् ।
हो, नयोंके भेदोंका संक्षेपसे नहीं कथन करनेकी विवक्षा करनेपर तो विशेषोंको कहनेवाळे वचन बहुवचन " नयाः " बनाकर चार चार नय हो सकेंगे। एक भेद द्रव्यका बढ जायगा और दूसरा विशेष पर्यायका बढ जायगा, जब कि पर्यायके विशेष हो रहे गुणको जाननेके लिये गुणाथिक नय न्यारा माना जापगा तो द्रव्यके विशेष हो रहे शुद्ध द्रव्यको विषय करनेवाले शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके पृथक ग्रहण करनेक्स प्रसंग हो जावेगा । यो थोडे थोडेसे विषयों को लेकर नयों के चाहे कितने भी भेद किये जासकते हैं।
ननु च द्रव्यपर्याययोस्तद्वांस्तृतीयोस्ति तद्विषयस्तृतीयो मूळनयोऽस्तीति चेत् न, तत्परिकल्पनेऽनवस्थाप्रसंगाव द्रव्यपर्यायस्तद्वतामपि तद्वदंतरपरिकल्पनानुषक्तेदुर्निवारत्वात् ।
यहां दूसरी शंका है कि द्रव्य और पर्यायोंका मिलकर उन दोनोंसे सहित हो रहा पिंड एक तीसरा विषय बन जाता है। उसको विषय करनेवाला तीसरा एक द्रव्यपर्यायार्थिक भी मूल नय क्यों गिनाये जा रहे हैं । इसपर आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि यदि इस प्रकार उन नयोंकी मिला मिलकर चारों ओरसे कल्पना की जायगी तब तो अनवस्था दोष हो जानेका प्रसंग होगा। क्योंकि द्रव्य और पर्याय तथा उन दोनोंको धारनेवाले आश्रय इन तीनोंको मिलाकर एक नया विषय भी गढा जा सकता है। अतः उन तीनोंवाले न्यारे अन्य विषयको ग्रहण करनेवाली न्यारी न्यारी नयोंकी कल्पना करनेका प्रसंग कथमपि दुःखसे भी नहीं निवारा जा सकता है। अर्थात् जैनसिद्धान्त अनुसार द्रव्य अनेक हैं । एक एक द्रव्यमें अनन्ते गुण हैं । एक गुणमें त्रिकालसम्बन्धी अनन्त पर्यायें हैं । अथवा वर्तमान कालमें भी अनेक आपेक्षिक पर्यायें हो रही हैं। अनुजीवी गुणकी एक एक पर्यायमें अनेक अविभाग प्रतिच्छेद हैं । न जाने किस किस अनिर्वचनीय निमित्तसे किस किस गुणके कितने परिणाम हो रहे हैं । इस प्रकार पसरट्टेकी दूकान समान वस्तुके फैले हुये परिवारमेंसे चाहे जितनेका सम्मेलन कर अनेक विषय बनाये जा सकते हैं। ऐसी दशामें नियत विषयोंको जाननेवाले नयोंकी कोई व्यवस्था नहीं हो पाती है। अनवस्था दोष टल नहीं सकता है। सच पूछो तो द्रव्य और पर्यायोंका कथंचित् अभेद मान लेनेपर तीसरा, चौथा कोई सद्वान् ढूंढनेपर भी नहीं मिलता है। अतः दो नयोंके मान लेनेसे सर्व व्यवस्था बन जाती है। अनवस्था दोषको खल्प भी अवकाश नहीं प्राप्त होता है।
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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यदि तु यथा तवोवयवास्तद्वानवयवी पटस्तयोरपि तंतुपटयोर्नान्योस्ति तद्वांस्तस्याप्रतीयमानत्वात् । तथा पर्यायाः स्वभावास्तद्वद् द्रव्यं तयोरपि नान्यस्तद्वानस्ति प्रतीतिविरोषादिति मतिस्तदा प्रधानभावेन द्रव्यपर्यायात्मकवस्तुप्रमाणविषयस्ततोपोध्टतं द्रव्यमात्रं द्रव्यार्थिक विषयः पर्यायमात्रं पर्यायार्थिकविषय इति न तृतीयो नयविशेषोस्ति यतो मूळनयस्तृतीयः स्यात् । तदेवम् ।
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यदि आप शंकाकार यह सिद्धान्त समझ चुके हो कि जिस प्रकार तन्तु तो अवयव हैं । और उन तन्तुरूप अवयवोंसे सहित एक न्यारा अवयवी पट द्रव्य है । फिर उन दोनों तन्तु और पटका भी तद्वान् कोई तीसरा न्यारा आश्रय नहीं है। क्योंकि तीसरी कोटिपर जानकर कोई न्यारे उस अधिकरण की प्रतीति नहीं हो रही है । तिसी प्रकार पर्यायें तो स्वभाव हैं। और उन पर्यायोंसे सहित हो रहा पर्यायवान् द्रव्य है । किन्तु फिर उन दोनों पर्याय और द्रव्योंका उनसे सहित होता हुआ कोई न्यारा अधिकरण नहीं है । क्योंकि प्रतीतियोंसे विरोध होता है । अनवस्था दोष भी है । अतः तन्तुवान् पटका जैसे कोई तीसरा अधिकरण न्यारा नहीं है । उसी प्रकार द्रव्य और पर्यायोंका अधिकरण भी कोई न्यारा नहीं है । आचार्य कह रहे हैं कि इस प्रकार मन्तव्य होय तब तो बहुत अच्छा है । देखो प्रधान रूपसे द्रव्य और पर्यायके साथ तदात्मक हो रहे वस्तुको प्रमाण ज्ञान विषय करता है । उस अखंड पिंडरूप वस्तुसे बुद्धिद्वारा पृथग् भावको प्राप्त किया गया केवल नित्य अंश द्रव्य तो द्रव्यार्थिक नयका विषय है । और प्रमाणके विषय हो रहे वस्तुसे ज्ञान द्वारा अपोद्धार ( पृथग् - भाव ) किया गया केवळ पर्याय ( मात्र ) तो पर्यायार्थिक नयका विषय है । अब नयोंके द्वारा जानने योग्य द्रव्य और पर्यायोंसे न्यारा कोई तीसरा " तद्वान् " पदार्थ शेष नहीं रहजाता है । जिसको कि विशेषरूप से जानने के लिये तीसरा मूलनय माना जावे। हां, जो वस्तु प्रमाणसे जानी जारही है, वह तो प्रमेय है । अंशोंको जाननेवाले नयों करके " नेय " नहीं हैं । जैन सिद्धान्त अनुसार द्रव्य और पर्यायोंसे कथंचित् भेद, अभेद, आत्मक वस्तु गुम्फित हो रही है । तिस कारण इस प्रकार सिद्धान्त बन जाता है । सो सुनिये ।
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प्रमाणगोचरायांशा नीयते यैरनेकधा ।
ते नया इति व्याख्याता जाता मूलनयद्वयात् ॥ ९ ॥
जिन ज्ञानोंकरके प्रमाणके विषय हो रहे अर्थके अनेक अंश अभिप्रायों द्वारा जानकिये जाते हैं, वे ज्ञान नय हैं । और वे नय मूलभूत द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो नयोंसे प्रतिपन्न होते हुये अनेक प्रकारके बखान दिये जाते हैं ।
द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषपरिबोधकाः ।
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न मूलं नैगमादीनां नयाश्चत्वार एव तत् ॥ १० ॥
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तत्वार्थश्लोक वार्तिके
सामान्यस्य पृथक्त्वेन द्रव्यादनुपपत्तितः । सादृश्यपरिणामस्य तथा व्यंजनपर्ययात् ॥ ११ ॥ वैसादृश्यविवर्तस्य विशेषस्य च पर्यये ।
अंतर्भावाद्विभाव्येत द्वौ तन्मूलं नयाविति ॥ १२ ॥
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नैगम आदि सात नयोंके मूलकारण द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो नय हैं, किन्तु द्रव्यको, पर्यायको, सामान्यको, और विशेषको, चारों ओरसे समझानेवाली चार नयें ही नैगम आदिकों के मूल कारण नहीं हैं । तिस कारण दो नयोंको मूळ मानना चाहिये । सामान्यार्थिक नय मानना आवश्यक नहीं है । द्रव्यसे पृथकाने करके सामान्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है। क्योंकि जैन सिद्धान्तमें अनेक समान जातीय पदार्थोंके सदृशपने से हो रहे परिणामको सामान्य पदार्थ माना है । और तिस प्रकारका सदृश परिणाम तो द्रव्यकी व्यंजन पर्याय है । अनेक सदृश परिणामोंका पिंड हो रहा सामान्य पदार्थ तो द्रव्यार्थिक नय द्वारा ही जान लिया जाता है। अतः सामान्यार्थिक कोई तीसरा नय नहीं है। परीक्षा नुखमें " सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् " परापर विवर्त व्यापि द्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु खंड, मुण्ड, कपिला, धेनु, आदि अनेक गौओंमें रहनेबाले गोके समान तिर्यक् सामान्य अनेक घट, कलश आदि में सदृश परिणामरूप वर्त रहा है । यह द्रव्यस्वरूप ही है । तथा द्रव्यको पूर्वापर पर्यायोंमें व्यापनेवाला ऊर्ध्वता सामान्य है । जैसे कि स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायों में मुक्तिका ऊर्ध्वता सामान्य है । अथवा बाल्य, कुमार, यौवन, नारकी, पशु, देव, आदि पर्यायोंमें आत्मा द्रव्य ऊता सामान्य पडता है । ये दोनों सामान्यद्रव्य स्वरूप हैं । अतः द्रव्यार्थिक नयके विषय हैं । तथैव विसदृशपनरूप करके परिणाम हो रहे विशेषका पर्याय अन्तर्भाव हो जाता है । अतः विशेषका पर्यायार्थिक नय द्वारा भान हो जावेगा । चौथे विशेषार्थिक नयके माननेकी आवश्यकता नहीं है । श्री माणिक्यनन्दी आचार्य कहते हैं कि " एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्यायाः आत्मनि हर्षविषादादिवत् " " अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् " एक द्रव्यमें क्रम से होनेवाले परिणाम तो पर्याय नामके विशेष हैं, जैसे कि आत्मामें हर्ष, विवाद, आदि विशेष हैं । और न्यारे न्यारे अर्थो में प्राप्त हो रहा विलक्षणपनेका परिणाम है, यह व्यतिरेक नामका विशेष है । जैसे कि गाय, भैंस, घोडा, हाथी, आदि में विशेष है । ये सभी विशेष पर्यायोंमें अन्तर्भूत हो जाते हैं । इस कारण उन द्रव्य और पर्यायोंको मूळ कारण मानकर उत्पन्न हुये द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो ही मूल नय विचार लिये गये हैं । चार मूळ नय नहीं हैं । शाखायें चाहे जितनी बनालो अपने अभिप्रायों अनुसार घरकी बात है ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नामादयोपि चत्वारस्तन्मूलं नेत्यतो गतं । द्रव्यक्षेत्रादयश्चैषां द्रव्यपर्यायगत्वतः ॥ १३ ॥
इस उक्त कथनसे यह भी ज्ञात हो चुका है कि नाम आदिक भी चार उन नयोंके मूल नहीं हैं। और द्रव्य क्षेत्र आदिक विषय भी उन नयोंके उत्पादक मूळ कारण नहीं हैं । अर्थात्नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, इन चार विषयोंको मूलकारण मानकर नामार्थिक, स्थापनार्थिक, द्रव्यार्थिक, और भावार्थिक ये चार मूळ नय नहीं हो सकते हैं। अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काळ, माव इन विषयोंको मूल कारण मानकर द्रव्यार्थिक, क्षेत्रार्थिक, कालार्थिक, भावार्थिक ये चार मूल नय नहीं हो सकते हैं। क्योंकि इन नाम आदि चारों और द्रव्य, क्षेत्र, आदि चारोंकी द्रव्य और पर्यायोंमें ही प्राप्ति हो रही है। यानी ये सब द्रव्य और पर्यायोंमें अन्तर्भूत हैं । अतः मूळ नेय विषय द्रव्य और पर्याय दो ही हुए, अधिक नहीं।
भवान्विता न पंचैते स्कंधा वा परिकीर्तिताः ।
रूपादयो त एवेह तेपि हि द्रव्यपर्ययौ ॥ १४ ॥
द्रव्य, क्षेत्र, आदि चारके साथ भवको जोड देनेपर हो गये पांच भी मूल नेय पदार्थ नहीं हैं । अर्थात्-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव, इन पांचको विषय करनेवाली मूळ नय पांच नहीं हो सकती हैं । अथवा बौद्धोंने रूप आदिक पांच स्कन्धोंका अपने ग्रन्थोंमें चारों ओरसे निरूपण किया है, वे मी मूळ नेय विषय नहीं हैं । अर्थात्-रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, विज्ञानस्कन्ध, संज्ञास्कन्ध और संस्कारस्कन्ध इन पाच विषयों को मानकर मात्र मूळनय नहीं हैं। क्योंकि वे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, और भाव तथा रूपस्कन्ध आदि पांच भी यहां नियमसे द्रव्य और पर्यायस्वरूप ही है, पांचोंका दोमें ही अन्तर्माव हो जाता है। अतः दो ही द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक मूळ नय है, अधिक नहीं हैं।
तथा द्रव्यगुणादीनां षोढात्वं न व्यवस्थितं । षट् स्युर्मूलनया येन द्रव्यपर्यायगाहिते ॥१५॥
तिसी प्रकार वैशेषिकोंके यहां माने गये द्रव्य, गुण, आदिक माव पदार्थोंका छह प्रकारपना भी स्वतंत्र लत्त्वपनेसे व्यवस्थित नहीं हो सकता है । जिस कारणसे कि उन छह मूल कारण नेय विषयोंको जाननेवाले मूळ नय छह हो जावे । वे द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छहों भाव पदार्थ नियमसे द्रव्य और पर्यायोंमें ही अन्तर्गत हो रहे हैं । अर्थात् द्रव्य आदिक छहों भाव विचारे द्रव्य, पर्याय इन दो स्वरूप ही हैं । अतः दो ही मूलनय हैं, अतिरिक्त नहीं है। 29
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तत्वार्थोकवार्तिके
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आचार्यों के अभिप्राय से इन छह, सोलह, पच्चीस आदि पदार्थों का मानना भी इष्ट हो रहा ध्वनित हो जाता है । किसीसे व्यर्थ द्वेष करना नयवादियोंको उचित नहीं है । तभी तो सिद्धचक्र पाठमें ' षट्पदार्थवादिने नमः' ' षोडशपदार्थवादिने नमः' 'पंचविंशतितत्त्ववादिने नमः' यों मन्त्र बोलकर सिद्धपरमेष्ठीको अर्ध्य चढाकर स्तुति की गयी है ।
ये प्रमाणादयो भावा प्रधानादय एव वा । ते नैगमादिभेदानामर्था नापरनीतयः ॥ १६ ॥
जो नैयायिकों के द्वारा माने गये प्रमाण, प्रमेय, संशय, आदिक सोलह भाव पदार्थ तत्वभेद रूपसे माने गये हैं, अथवा प्रधान आदिक पच्चीस ही भावतस्त्र इस प्रकार सांख्योंने मूल पदार्थ स्वीकार किये हैं, वे भी नैगम आदिक भेदरूप विशेष नयोंके विषय हो सकते हैं । जैनसिद्धान्तमें निर्णय किये गये द्रव्य और पर्यायसे अन्य तत्त्वोंकी व्यवस्था करनेवाली कोई न्यारी नीति कहीं नहीं प्रवर्त रही है । अर्थात् -१ प्रमाण, २ प्रमेय, ३ संशय, ४ प्रयोजन ५ दृष्टान्त ६ सिद्धान्त ७ अवयव ८ तर्क ९ निर्णय १० वाद ११ जल्प १२ वितंडा १३ हेत्वाभास १४ छल १५ जाति १६ निग्रह स्थान ये नैयायिकों के सोकड पदार्थ मूलपदार्थ नहीं बन पाते हैं । किन्तु द्रव्य और पर्याय भेदप्रभेद हैं । और १ प्रकृति २ महान् ३ अहंकार ४ शद्वतन्मात्रा ५ स्पर्शतन्मात्रा ६ रूपतन्मात्रा • रसतन्मात्रा ८ गन्धतन्मात्रा ९ स्पर्शनइन्द्रिय १० रसना इन्द्रिय ११ त्राण इंद्रिय १२ चक्षु इन्द्रिय १३ श्रोत्र इन्द्रिय १४ वचन शक्ति १५ हाथ १६ पत्र १७ जननेन्द्रिथ १८ गुदेन्द्रिय १२. मन २० आकाश २१ वायु २२ तेज २३ जल २४ पृथ्वी और २५ पुरुष ये सांख्योंके पच्चीस तत्र भी मूळपदार्थ नहीं सिद्ध हो पाते हैं। द्रव्य और पर्यायके ही मेद प्रभेद हैं । अतः नयोंके विशेष प्रभेदोंसे भलें ही इनको न्यारा न्यारा जानकिया जाय किन्तु मूळपदार्थोको जानने की अपेक्षा दो ही मूलनय मानना यथेष्ट है । मूळ पदार्थों अथवा मूळ ज्ञानोंमें अधिक झगडा बढाना व्यर्थ है ।
प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धांतावयव तर्कनिर्णयवादजल्पवितंडा हेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानाख्याः षोडश पदार्थाः कैश्चिदुपदिष्टाः, तेपि द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायेभ्यो न जात्यंतरत्वं प्रतिपद्यंते, गुणादयश्च पर्यायान्नार्थंतरमित्युक्तमाचं । ततो द्रव्यपर्यायावेव तैरिष्टौ स्यातां, तयोरेव तेषामंतर्भावान्नामादिवत् ।
प्रमाण, प्रमेय, संशय, आदिक पदार्थ गौतम ऋषिद्वारा न्यायदर्शन में माने गये हैं । प्रमाका करण प्रमाण हैं । उसके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शद्व ये चार भेद हैं। प्रमाणके विषयको प्रमेय कहते हैं । आत्मा शरीर इन्द्रिय, अर्थ ( बहिरंग इंन्द्रियोंके विषय ) बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष,
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तत्वार्यचिन्तामणिः
प्रेत्यमाव, फल, दुःख, अपवर्ग, ये बारह प्रमेय हैं । एक पदार्थमें अनेक कोटिका विमर्श करना संशय है। जिसका उद्देश्य लेकर प्रवृत्ति की जाती है, वह प्रयोजन पदार्थ है। जिस अर्थमें लौकिक और परीक्षकोंकी बुद्धि समानरूपसे प्राहिका हो जाती है, वह दृष्टान्त है। शास्त्रका आश्रय लेकर ज्ञापनपन करके जिस अर्थको खीकार किया गया है, उसकी समीचीन रूपसे व्यवस्था कर देना सिद्धान्त है । वह सर्वतंत्र, प्रतितंत्र, अधिकरण, अभ्युपगम, मेदोंसे चार प्रकार है। परार्थानुमानके उपयोगी अंगोंको अवयव कहते हैं, जो कि अनुमानजन्य बोधके अनुकूल हैं। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, ये अवयवोंके पांच मेद हैं। विशेषरूपसे नहीं जाने गये तत्त्वमें कारणोंकी उपपत्तिसे तत्त्वज्ञानके लिये किया गया विचार तर्क है । विचार कर स्वपक्ष और प्रतिपक्षपने करके अर्थका अवधारण करना निर्णय है। अपने अपने पक्षका प्रमाण और तर्कसे जहा साधन
और उलाहना हो सके, जो सिद्धान्तसे अविरुद्ध होय पांच अवयवोंसे युक्त होय, ऐसे पक्ष और प्रतिपक्षके परिप्रहको वाद कहते हैं । वादमें कहे गये विशेषणों से युक्त होता हुआ जहां छल जाति और निग्रह स्थानोंकरके स्वपक्षका साधन और परपक्षमें उलाहने दिये जाते हैं, वह जल्प है। वही जब यदि प्रतिकूलपक्षकी स्थापनासे रहित है तो वह वितंडा हो जाता है । अर्थात् -नैयायिकोंका ऐसा मन्तव्य है कि वीतराग विद्वानों या गुरुशिष्योंमें वाद प्रवर्तता है। और परस्पर एक दूसरेको जीत लेनेकी इच्छा रखनेवाले पण्डितोंमें छल आदिके द्वारा जल्प नामक शास्त्रार्थ होता है । वितंडा करनेवाला पण्डिन केवळ परपक्षका खण्डन करता है। अपने घरू पक्षकी सिद्धि नहीं करता है। हेतुके लक्षणोंसे रहित किन्तु हेतु सरीखे दीखनेवाले असद्धेतुओंको हेत्वाभास कहते हैं । नैयायिकोंने ज्यभिचार, विरुद्ध, असिद्ध, सत्प्रतिपक्ष, और बाधित, ये पांच हेत्वामास माने हैं। वादीको इष्ट हो रहे अर्थसे विरुद्ध अर्थकी कल्पना कर उसकी सिद्धि करके वादीके वचनका विघात करना प्रतिवादीका छक है। वाक्छल, सामान्य छल और उपचार छक ये तीन उसके भेद हैं। साधर्म्य और वैधर्म्य आदि करके असमाचीन उत्तर उठाते रहना जाति है । उसके साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा, उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यप्तमा, प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा, प्रसंगसमा, प्रतिदृष्टान्तसमा, अनुत्पत्तिसपा, संशयप्तमा, प्रकरणसमा, अहेतुसमा, अर्थापत्तिसमा, अविशेषसमा, उपपतिसमा, उपलन्धिसमा, अनुपलब्धि समा, नित्यसमा, अनित्यसमा, कार्यसमा ये चौवीस मेद हैं । उद्देश्य सिद्धि के प्रतिकूल शाम हो जाना अथवा उद्देश्य सिद्धि के अनुकूल हो रहे सम्यग्ज्ञानका अभाव हो जाना निग्रहस्थान है। उसके प्रकार हो रहे १ प्रतिबाहानि २ प्रतिज्ञान्तर ३ प्रतिज्ञाविरोघ ४ प्रतिज्ञासन्यास ५ हेत्वन्तर ६ अर्थान्तर ७ निरर्थक ( अविज्ञातार्थ ९ अपार्थक १० अप्राप्तकाल ११ न्यून १२ अधिक १३ पुनरुक्त १५ अननुभाषण १५ अज्ञान १३ अप्रतिमा १. विक्षेप १८ मतानुज्ञा १९ पर्यनुयोज्योपेक्षण २० निरनुयोज्यानुयोग २१ अपसिद्धान्त २२ हेत्वामास इतने निग्रहस्थान है। इस प्रकार प्रमाण आदिक सोलह पदार्थोका किन्हीं ( नैया
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तत्त्वार्थकोकबार्तिके
यिकों ) ने उपदेश किया है। आचार्य कह रहे हैं कि वे सोलह भी पदार्थ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इस प्रकार वैशेषिकों द्वारा माने गये छह भाव तत्त्वोंसे न्यारी जातिवाले नहीं समझे जा रहे हैं । पंडित विश्वनाथ पंचाननका भी यही अभिप्राय है । वैशेषिकोंने गुणवान् या समवायिकारण हो रहे पदार्थको द्रव्य माना है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक, आत्मा, मन, ये द्रव्योंके नौ भेद हैं। जैनसिद्धान्त अनुसार “ द्रव्याश्रयाः निर्गुणा गुणाः " यह गुणका लक्षण निर्दोष है । किन्तु वैशेषिकोंने संयोग और विभागके समवायिकारणपन और असमवायिकारणपनसे रहित हो रहे सामान्यवान् पदार्थमें जो कारणता है, उसका अवच्छेदक गुणत्व माना है। भिन्नत्व निवेशसे द्रव्य और कर्ममें अतिव्याप्ति नहीं हो पाती है । गुणके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रन्यत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार ये चौवीस भेद हैं। जो द्रव्यके बाश्रय होकर रहे, गुणवाला नहीं होय, ऐसा संयोग और विभागमें किसी माव पदार्थ की नहीं अपेक्षा रखता हुआ कारण कर्म कहलाता है। उसके उत्क्षेपण, अधक्षेपण, बाकुञ्चन, प्रसारण, गमन ये पांच भेद है। नित्य होता दुभा जो अनेकोंमें समवाय सम्बन्धसे धर्वता है, वह सामान्य पदार्थ माना गया है। उसके परसामान्य और अपरसामान्य दो भेद है । अवसानमें ठहरता हुना, जो नित्य द्रव्योंमें वर्तता है, वह विशेष है। नित्य द्रव्योंकी परस्परमें व्यावृत्ति कराने वाले वे विशेष पदार्थ अनन्त हैं । नित्य सम्बन्धको समवाय कहते हैं। वस्तुतः वह एक ही है। वैशेषिक तुच्छ अमाव पदार्थके प्रागभाव, प्रध्वंसामाव, अत्यंताभाव, अन्योन्याभाव ये चार भेद स्वीकार करते हैं । किन्तु भावोंका प्रकरण होनेसे तुच्छ अभावका यहां अधिकार नहीं है। नैयायिकोंके सोलह पदार्थ तो इन द्रव्य आदि छहमें गर्भित हो ही जाते हैं। ऐसा न्यायवेत्ता विद्वानोंने यथायोग्य इष्ट कर लिया है। तिनमें द्रव्य तो द्रव्यार्थिक नयद्वारा जान लिया जाता है । और गुण, कर्म आदिक तो पर्यायसे न्यारे पदार्थ नहीं हैं। इस बातको हम प्रायः पूर्व प्रकरणोंमें कह चुके हैं। अतः गुण बादिकोंको पर्यायार्थिक नय विषय कर लेगा । तिस कारण उन काणाद, और गौतमीय विद्वानों करके द्रव्य और पर्याये ये दो नय ही अभीष्ट कर देने चाहिये । उन प्रमाण, प्रमेय आदि या द्रव्य, गुण, आदिक विषयोंका उन दो द्रव्य पर्यायोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे कि नाम आदिक या द्रव्य, क्षेत्र मादिका द्रव्य और पर्यायोंमें ही गर्भ हो जाना कह दिया गया है। - येण्याहुः। " मूळप्रकृतिरविकृतिर्महदायाः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिन विकृतिः पुरुषः " इति पंचविंशतिस्तत्त्वानीति । तैरपि द्रव्यपर्यायावेवांगीकरणीयौ मूलपकृतेः पुरुषस्य च द्रव्यत्वात्, महदादीनां परिणामत्वेन पर्यायत्वात् रूपादिस्कंधसंतानक्षणवत् । ततो नैगमादिभेदानामेवास्तेि न पुनरपरा नीतयः अपरा नीतिर्येषु त
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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एव परा नीतयः इति गम्यते, न चैतेषु द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यां नैगमादिभेदाभ्यां अपरा नीतिः प्रवर्तत इति तावेव मूलनयौ, नैगमादीनां तत एव जातत्वात् ।
जो भी कपिलमत अनुयायी यों कह रहे हैं कि मूलभूत प्रकृति तो किसीका विकार नहीं है । अर्थात् - प्रकृति किसी अन्य कारणसे उत्पन्न नहीं होती है। और महत्तव आदि सात पदार्थ प्रकृति और विकृति दोनों हैं । अर्थात्- महत्तत्त्व, अहंकार, शद्वतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, रस तन्मात्रा, गन्धतन्मात्रा ये पूर्व पूर्वकारणोंके तो विकार हैं । और उत्तरवर्ती कार्योंकी जननी प्रकृतियां
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। तथा ग्यारह इन्द्रिय और पांच पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, ये सोलह गण विकार ही हैं। क्योंकि इनसे उत्तर कालमें कोई सृष्टि नहीं उपजती है । शद्व तन्मात्रासे आकाश प्रकट होता है । शद्वतन्मात्रा और स्पर्शतन्मात्रा से वायु व्यक्त होती है । शद्वतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा और रूपतन्मात्रासे तेजोद्रव्य अभिव्यक्त होता है । शद्वतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा और रसतन्मात्रा से जल आविर्भूत होता है । शद्वतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, रसतन्मात्रा और गन्धतन्मात्रा से पृथ्वी उद्भूत होती है । प्रचयके समय अपने अपने कारणोंमें कीन होते हुये सब प्रकृति में तिरोभूत हो जाते हैं । पच्चीसवां तत्र कूटस्थ आत्मा तो न किसीका कारण हो रहा प्रकृति है । और किसीका कार्य भी नहीं है । अतः विकृति भी नहीं है । वह उदासीन, द्रष्टा, भोक्ता, चेतन, पदार्थ है । इस प्रकार सांख्योंने पचसि तत्व स्वीकार किये हैं । प्रकृति आदिके लक्षण प्रसिद्ध हैं। सच पूछो तो उनको भी द्रव्य, पर्याय दो ही पदार्थ स्वीकार कर लेने चाहिये । क्योंकि सत्त्रगुण, रजोगुण, तमोगुणोंकी साम्य अवस्थारूप प्रकृति तत्व और आत्म तत्व तो द्रव्य हैं। अतः द्रव्यार्थिक नयके विषय हो जायेंगे और महत्, अहंकार आदिक तो प्रकृतिके परिणाम हैं । अतः पर्याय हैं । ये तेईस अकेले पर्यायार्थिक नयके विषय हो जायेंगे । जब कि पच्चीस मूलतत्व ही नहीं हैं तो पच्चीस पदार्थोंको जानने के लिये पच्चीस मूळनयोंकी आवश्यकता कोई नहीं दीखती है । जैसे कि बौद्धों के माने गये रूप आदि पांच स्कन्धोंकी परिणमनेवाले परिणामों का क्षणिकपना इन द्रव्य या पर्यायोंसे भिन्न नहीं है। है । और पांच जातिके स्कन्धोंके क्षणिकपरिणाम पर्यायस्वरूप हैं । अतः चल सकता है । सजातीय और विजातीय पदार्थोंसे व्यावृत्त तथा परस्पर में सम्बन्धको प्राप्त नहीं हो रहे किन्तु एकत्रित हो रहे रूपपरमाणु, रसपरमाणु, गन्धपरमाणु, स्पर्शपरमाणु, तो रूप स्कन्ध हैं । सुख, दुःख, आदिक वेदनास्कन्ध हैं । सविकल्पक, निर्विकल्पक, ज्ञानोंके मेद प्रभेद तो विज्ञानस्कन्ध हैं । वृक्ष इत्यादिक नाम तो संज्ञास्कन्ध है । ज्ञानोंकी वासनायें या पुण्य, पापों की वासनायें संस्कारस्कन्ध हैं । ये सब मूळ दो नयोंके ही विषय हैं । तिस कारण से ऊपर कहे गये वे सम्पूर्ण अर्थ नैगम संग्रह आदि नयभेदों के ही विषय हैं । फिर कोई न्यारी नयोंके गढ़नेके लिये दूसरा नया मार्ग निकालना आवश्यक नहीं । कारिकामें पडे हुये " अपरनीतयः इस शब्द का
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संतान या प्रतिक्षण संतान तो द्रव्यस्वरूप दो नयोंसे ही कार्य
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तत्वार्ययोकवालिक
अर्थ यह समझा जाता है कि जिन अर्थोंमें दूसरी नीति है वे ही अर्थ मित्र नीतिवाले हैं। किन्तु इन चार, पांच, छह सोलह, पच्चीस, पदार्थोंमें तो नैगम आदि भेदोंको धारनेवाले द्रव्यार्षिक और पर्यायार्थिक दो मूल नयोंसे मिन कोई दूसरी नीति नहीं प्रवर्तती है । इस कारण वे दो ही मूळनय हैं। नैगम आदिक मेद प्रमेद तो उन दो से ही उत्पन्न हो जाते हैं।
तत्र नैगमं व्याचष्टे ।
सूत्रकारद्वारा गिनायी गयीं उन सात नयोंमेंसे प्रथम नैगम नयका व्याख्यान श्री विद्यानन्द स्वामी कहते है
तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः । सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थस्याभिधानतः ॥ १७ ॥
उन दो मूल नयोंके नैगम भादिक अनेक भेद हो जाते हैं । नैगम, संग्रह, व्यवहार तीन तो द्रव्यार्थिक नयके विभाग करनेसे हो जाते हैं । और पर्यायार्थिक नयका प्रकृष्ट विभाग कर देनेसे ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ एवंभूत ये चार मेद हो जाते हैं । अर्थकी प्रधानता हो जानेसे पहिली चार नये अर्थनय है। शेष तीन शब्दनय हैं । द्रव्यार्थिककी अपेक्षा अमेद और पर्यायार्थिककी अपेक्षा मेद हो जानेसे बहुत विकल्पवाळे नय हो जाते हैं । उन सात नयोंमें केवळ संकल्पका प्राहक नैगमनय माना गया है। जो कि अशुद्ध द्रव्यस्वरूप अर्थका कथन कर देनेसे कचित् संकल्प किये गये पदार्थकी उपाधिसे सहित है । सत्त्व, प्रस्थत्व आदि उपाधियां अशुद्ध द्रव्यमें लग रही हैं । भेदविवक्षा कर देनेसे मी अशुद्धता आ जाती है।
संकल्पो निगमस्तत्र भवोयं तत्प्रयोजनः। तथा प्रस्थादिसंकल्पः तदभिप्राय इष्यते ॥ १८ ॥
नैगम शब्दको मव अर्थ या प्रयोजन अर्थमें तद्धितका अण् प्रत्यय कर बनाया गया है। निगमका अर्थ संकल्प है, उस संकल्पमें जो उपजे अथवा वह संकल्प जिसका प्रयोजन होय तैसा यह नैगमनय है । तिस प्रकार निरुक्ति करनेसे प्रस्थ, इन्द्र आदिका जो संकल्प है, वह नैगम नयस्वरूप अभिप्राय इष्ट किया गया है। अर्थात्-कोई पुरुष कुल्हाडी या फरसा लेकर छकडी काटनेके लिये जा रहा है । तटस्थ पुरुष उसको पूंछता है कि आप किसलिये जा रहे हो ! वह तक्षक उस पूंछनेवालेको उत्तर देता है कि प्रस्थ या इन्द्र प्रतिमाके लिये में जा रहा हूं। यद्यपि उस समय एक सेर अन्न नापनेका बर्तन प्रस्थ या इन्द्रप्रतिमा सनिहित नहीं है। किन्तु तक्षकका संकल्प वैसा है । बस, इस संकल्पमात्रको विषय करलेनेसे नैगममय द्वारा प्रस्थ, इन्द्रप्रतिमा,
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तवायचिन्तामणिः
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जान की जाती है । मर्के ही कदाचित् अन्य सामग्री नहीं मिलनेपर वे पर्यायें नहीं बन सकें, फिर भी उनका संकल्प है । बनजानेवाले और नहीं भी बन जानेवाळे पदार्थोंके विद्यमान होने में संकल्पकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है । ज्ञाताका तैसा अभिप्राय होनेपर ही वह नय मानलिया जाता है। ईंधन, पानी आदिके ठानेमें व्यापार कर रहा पुरुष भात पकानेके अभिप्रायको इस नय द्वारा व्यक्त करदेता है । ऐसी दशा में वह असत्यभाषी नहीं है । सत्यवक्ता है ।
नन्वयं भाविनीं संज्ञा समाश्रित्योपचर्यते । अप्रस्थादिषु तद्भावस्तंडुलेष्वोदनादिवत् ॥ १९ ॥ इत्यसद्वहिरर्थेषु तथानध्यवसानतः । स्ववेद्यमान संकल्पे सत्येवास्य प्रवृत्तिः ॥ २० ॥
यहां किसी प्रतिवादीका भिन्न प्रकार ही अवधारण है कि यह नैगम नयका विषय तो भविष्य में होनेवाली संज्ञा का अच्छा आश्रय कर वर्तमान में भविष्यका उपचार युक्त किया गया है, जैसे कि प्रस्थ, चौकी, सन्दूक आदिके नहीं बनते हुये भी कोरी कल्पनाओंमें उनका सद्भाव गढ लिया गया है । अथवा चावलोंमें भात, खिचडी, हिस्से ( चावलों का बनाया गया पकवान ) आदिका व्यवहार कर दिया जाता है । अर्थात् विषयोंमें केवल भविष्यपर्यायकी अपेक्षा व्यवहार कर दिया जाता है। इसके लिये विशेष नयज्ञान माननेकी आवश्यकता नहीं है। अब आचार्य कहते हैं कि यह तुम्हारा कहना प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि बहिरंग बर्थोंमें तिस प्रकार भावी संज्ञाकी अपेक्षा अध्यवसाय नहीं हो रहा है। थोडा विचारो तो सही कि जब लकड़ी काटने को जा रहा है, या चौका बर्तन कर रहा है, उस समय ककडी या चावल सर्वथा नहीं हैं, वरहे या हाटसे पीछे आयेंगे, फिर भी भविष्यपर्यायोंका व्यवहार मला कौनसी भूतपर्यायों में करेगा ! असत् पदार्थमें तो उपचार नहीं किया जाता है । किन्तु असत् पदार्थका भिन्न कालों में संकल्प हो सकता है। अपने द्वारा जाने जा रहे संकल्पके होनेपर ही इस नयकी प्रवृत्ति होना माना गया है। किसीका संकल्प होगा तभी तो उसके अनुसार सामग्री मिलायेगा, प्रयत्न करेगा । अन्यथा चाहे जिससे चाहे कुछ भी कार्य बन बैठेगा, मळे ही संकल्पित पदार्थ वर्तमानमें कोई अर्थक्रिया नहीं कर रहा है, फिर भी इस नैगमनयका विषय यहां दिखला दिया है । और मैं तो कहता हूं कि संकल्पित पदार्थोंसे भी अनेक कार्य हो जाते हैं । स्वप्नमें नाना ज्ञान संकल्पों द्वारा हो जाते हैं। बहुतसे भय, हास्य, आदि भी संकल्पोंसे होते हैं । संसार में अनेक कार्य संकल्पमात्रमे हो रहे हैं। कहांतक गिनाये जाय कच्छपी संकल्प उसके बच्चों की अभिवृद्धिका कारण है । दरिद्र पुरुषोंके संकल्प उनके दुःखके कारण बन रहे हैं। कैई ठलुआ पुरुष व्यर्थ संकल्प, विकल्पोंकरके पापबन्ध करते रहते हैं ।
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. तत्वार्यलोकवार्तिके
यद्वा नैकं गमो योत्र स सतां नैगमो मतः । धर्मयोधर्मिणोऽपि विवक्षा धर्मधर्मिणोः ॥२१॥
अपवा जो नैगम नयका दूसरा अर्थ यों किया जाता है कि " न एक गमः नैगमः " नो धर्म और धर्मी से एक ही अर्थको नहीं जानता है, किन्तु गौण, प्रधानरूपसे धर्म, धर्मी, दोनोंको विषय करता है, वह सज्जन पुरुषोंके यहां. नैगमनय माना गया है। अन्य नयें तो एक ही धर्मको जानती हैं। किन्तु नैगमनय द्वारा जानने में दो धर्मोकी अथवा दो धर्मियोंकी या एक धर्म दूसरे धर्माकी विवक्षा हो रही है । अतः जैसे कि जीवका गुण सुख है, या जीव सुखी है, यों नैगमनय द्वारा दो पदार्थोकी बप्ति हो जाती है।
प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वतः। इत्ययुक्तं इह ज्ञप्तेः प्रधानगुणभावतः ॥ २२ ॥ प्राधान्येनोभयात्मानमर्थं गृह्णद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपंचेन निवेदितम् ॥२३॥
यहां कोई शिष्य आपादन करता है कि जब धर्म धर्मा दोनोंका यह नैगम नय ग्राहक है, तब तो यह नय प्रमाणस्वरूप ही हो नायगा । क्योंकि धर्म और धर्मीसे अतिरिक्त कोई तीसरा पदार्थ तो प्रमाणद्वारा जाननेके लिये वस्तुमें शेष रहा नहीं है । इसपर आचार्य कहते हैं कि शिष्य का यों आक्षेप करना युक्त नहीं है। क्योंकि यहां नैगम नयमें धर्म धर्मी से एककी प्रधान और दूसरेकी गौणरूपसे ज्ञप्ति की गयी है । परस्परमें गौण प्रधानरूपसे मेद अमेदकको निरूपण करनेवाला अभिप्राय नैगम कहा जाता है, तथा धर्मधर्मी दोनोंको प्रधानरूपसे या उभय आत्मक वस्तुको ग्रहण कर रहा ज्ञान तो प्रमाण कहा गया है । अन्य ज्ञान ओ केवळ धर्मको ही या धर्मी को ही अथवा गौणप्रधानरूपसे धर्मधर्मी दोनोंको ही विषय करते हैं, वे प्रमाण नहीं है, नय हैं। इस सिद्धान्तको हम विस्तार करके पूर्व प्रकरणोंमें निवेदन कर चुके हैं । अतः नैगम नयको प्रमाणपनका प्रसंग नहीं आता है " जीवगुणः सुखं ” यहां प्रथमान्त मुख्य विशेष्यक शाब्दबोध करनेपर विशेषण हो रहा जीव अप्रधान है और सुख विशेष्य होनेसे प्रधान है तथा "सुखी जीवः" यहां विशेष्य होनेसे जीव प्रधान है और विशेषण होनेसे सुख अप्रधान है। दोनोंको नैगमनय विषय कर लेता है । और प्रमाण तो प्रधानरूपसे द्रव्य पर्याय उभय आरमक अर्थको विषय करता है। अतः प्रमाण और नैगममें महान् अन्तर है।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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संग्रहे व्यवहारे वा नांतर्भावः समीक्ष्यते।
नैगमस्य तयोरेकवस्त्वंशप्रवणत्वतः ॥ २४ ॥ किसीकी शंका है कि प्रमाणसे नैगमका विषय विशेष है। अतः नगमका प्रमाणमें भले ही अन्तर्भाव नहीं होय, किंतु थोडे विषयवाले नैगमका स्वल्पविषयग्राही संग्रहनय अथवा व्यवहारनय में तो अन्तर्भाव हो जायगा ! अब आचार्य कहते हैं कि यह विचार करना अच्छा नहीं है। क्योंकि उन संग्रह और व्यवहार दोनों नयोंकी एक ही वस्तु अंशको जाननेमें तत्परता हो रही है । अर्थात्-नैगम तो धर्म और धर्मी या दोनों धर्मी अथवा दोनों धर्मोको प्रधान और गौणरूपसे जान लेता है। किन्तु संग्रह और व्यवहारनय तो वस्तुके एक ही अंशको विषय करते हैं। अतः इन से नैगमका पेट बडा है । दूसरी बात यह है कि संग्रह तो सद्भूत पदार्थोका ही संग्रह करता है और नैगम सत्, असत्, समी पदार्थों का संकल्प कर लेता है। यहां असत् कहनेसे " आकाश पुष्प " आदि असत् पदार्थोको नहीं पकडना, किन्तु सत् होने योग्य पदार्थ यदि संकल्प अनुसार नहीं बने या नहीं बनेंगे, वे यहां असत् पदार्थ माने गये हैं । जैसे कि इन्द्र प्रतिमाको बनानेके लिए संकल्प किये जा चुकनेपर पुनः विघ्नवश काठ नहीं लाया गया अथवा लकडी लाकर भी उस लकडीसे इन्द्रप्रतिमा नहीं बन सकी, यों ही लकडी जल गयी या घुन गयी । ऐसी दशामें वह इन्द्रका अभिप्राय असत् पदार्थका संकल्प कहा जाता है।
नर्जुसूत्रादिषु प्रोक्तहेतवो वेति षण्नयाः । संग्रहादय एवेह न वाच्याः प्रपरीक्षकैः ॥२५॥
ऋजुसूत्र शब्द सममिरूढ, एवंभूत, इन प्रकारवाले नयोंमें भी नैगमका अन्तर्भाव नहीं हो पाता है। क्योंकि इसका कारण भले प्रकार कहा जा चुका है । अर्थात्-ये ऋजुसूत्र आदिक भी वस्तुके एक बंशको ही जाननेमें लालीन रहते हैं । इस कारण नैगमके विना संग्रह आदिक छह ही नय हैं । यह अच्छे परीक्षक विद्वानोंको यहां नहीं कहना चाहिये । सबसे पहिले नैगमनयका मानना अत्यावश्यक है।
सप्तैते नियतं युक्ता नैगमस्य नयत्वतः।
तस्य त्रिभेदव्याख्यानात् कैश्चिदुक्ता नया नव ॥ २६ ॥
नैगमको भी नयपना हो जानेसे ये नय नियमसे सात ही मानने योग्य हैं । उस नैगमके तीन भेदरूप व्याख्यान कर देनेसे किन्हीं विद्वानोंने नौ नय कहे हैं । अर्थात्-पर्याय नैगम, द्रव्य
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नैगम, और द्रव्यपर्यायनैगम, इस प्रकार नैगमके तीन भेद तथा संग्रह आदिक छह भेद इस ढंगसे नय नौ प्रकारका अन्य ग्रन्थोंमें कहा गया है । इसमें हमको कोई विरोध नहीं है । तात्पर्य एक ही बैठ जाता है।
तत्र पर्यायगस्त्रेधा नैगमो द्रव्यगो द्विधा । द्रव्यपर्यायगः प्रोक्तश्चतुर्भेदो ध्रुवं ध्रुवैः ॥२७॥
तिन नैगमके भेदोंमें पर्यायोंको प्राप्त हो रहा नैगम तो तीन प्रकारका है और दूसरा द्रव्यको प्राप्त हो रहा नैगम दो प्रभेदवाला है । तथा द्रव्य और पर्यायको विषय करनेवाला तीसग नैगम तो ध्रुवज्ञानी पुरुषोंकरके निश्चितरूपसे चार भेदवाळा ठीक कहा गया है । अर्थात्-पर्यायनैगमके अर्थपर्याय नैगम १ व्यंजनपर्यायनैगम २ अर्थव्यंजनपर्यायनैगम ३ ये तीन प्रभेद हैं । और दूसरे द्रव्यनैगमके शुद्धद्रव्यनैगम, अशुद्धद्रव्यनैगम ये दो प्रभेद हैं । तथा तीसरे द्रव्यपर्याय नैगमके शुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम १ शुद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम २ अशुद्धद्रव्यपर्यायनैगम ३ अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम ४ ये चार प्रकार हैं । इस प्रकार नैगमके नौ और संग्रह भादिक छह यों नयोंके पन्द्रह भेद हो जाते हैं।
अर्थपर्याययोस्तावद्गणमुख्यस्वभावतः । कचिद्वस्तुन्यभिप्रायः प्रतिपत्तुः प्रजायते ॥२८॥ यंथा प्रतिक्षणं ध्वंसि सुखसंविच्छरीरिणः । इति सत्तार्थपर्यायो विशेषणतया गुणः ॥ २९ ॥ संवेदनार्थपर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् ।
प्रतिगच्छन्नभिप्रेतो नान्यथैवं वचोगतिः ॥३०॥
उनमेंसे नैगमके पहिले प्रभेदका उदाहरण यों हैं कि किसी एक वस्तुमें दो अर्थपर्यायोंको गौण मुख्यस्वरूपसे जानने के लिये नयज्ञानी प्रतिपत्ताका अच्छ। अभिप्राय उत्पन्न हो जाता है। जैसे कि शरीरधारी आत्माका सुखसम्वेदन प्रतिक्षण नाशको प्राप्त हो रहा है । यहाँ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, युक्त सत्तारूप अर्थपर्याय तो विशेषण हो जानेसे गौण है । और सम्वेदनस्वरूप अर्थपर्याय तो विशेष्यपना होनेके कारण मुख्यताको प्राप्त हो रही संती अभिप्रायमें प्राप्त की गयी है। अन्यथा यानी दूसरे ढंगोंसे इस प्रकार कथनद्वारा ज्ञप्ति नहीं हो सकेगी । भावार्थ-" आत्मनः सुखसम्वेदनं क्षणिकं " यहां आत्माका सुखसम्वेदन क्षणक्षणमें उपजरहा नष्ट हो रहा है, यह नैगमनयने
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जाना । यहां सम्वेदन नामक अर्थपर्यायको विशेष्य होनेके कारण मुख्यरूपसे जाना गया है । और प्रतिक्षण उत्पाद व्ययरूप अर्थपर्यायको विशेषण होनेके कारण नैगम नयद्वारा गौण रूपसे जाना गया है । अन्यथा उक्त प्रयोग कैसे भी नहीं बन सकता था । सुख और सम्बेदनका आत्मामें कथंचित् अभेद है । अथवा चेतना गुणकी ज्ञानस्वरूप अर्थपर्यायको प्रधानता से और सुख गुणकी अपर्याय हो रहे लौकिक सुखको गौणरूपसे नैगम नय जानता है ।
सर्वथा सुखसंवित्योर्नानात्वेभिमतिः पुनः । स्वाश्रयाचा पर्याय नैगमाभोऽप्रतीतितः ॥ ३१ ॥
जिनपर्यायों विषयीकुरुतेजसा । गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नैगमः ॥ ३२ ॥ . सचैतन्यं नरीत्येवं सत्वस्य गुणभावतः । प्रधानभावतश्वापि चैतन्यस्याभिसिद्धितः ॥ ३३ ॥
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हां, सभी प्रकारोंसे फिर परस्पर में सुख और सम्बेदनके नानापन में अभिप्राय रखना अथवा अपने आश्रय हो रहे आत्मासे सुख और ज्ञानका भेद माननेका आग्रह रखना तो अर्थपर्याय नैगमका आभास है । क्योंकि एक द्रव्यके गुणोंका परस्पर में अथवा अपने आश्रयभूत द्रव्यके साथ सर्वथा भेद रहना नहीं प्रतीत हो रहा है ।
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तयोरत्यंतभेदोक्तिरन्योन्यं स्वाश्रयादपि ।
ज्ञेयो व्यंजनपर्यायनैगमाभो विरोधतः ॥ ३४ ॥
कोई नैगम नयका दूसरा प्रभेद तो एक धर्मी में गौण प्रधानपनेसे दो व्यंजन पर्यायों को शीघ्र विषय कर लेता है, जैसे कि " आत्मनि सत् चैतन्यं " आत्मामें सत्व है, और चैतन्य है । इस प्रकार यहां विशेषण हो रही सत्ताकी गौणरूपसे इप्ति है । और विशेष्य हो रहे चैतन्यकी भी प्रधानभाव से सर्वतः इप्ति सिद्ध हो रही है। अतः दोनों भी व्यंजन पर्यायोंको यह नैगम विषय कर रहा है। सूक्ष्मपया'योंको अर्थपर्याय कहते हैं । और व्यक्त ( प्रकट ) हो रही पर्यायें व्यंजन पर्याय हैं ।
इस उक्त नयका आभास यों है कि उन सत्ता और चैतन्यका परस्परमें अत्यन्त भेद कहना rest अपने अधिकरण हो रहे आत्मासे भी सत्ता और चैतन्यका अत्यन्त मेद बके जाना
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तो व्यंजनपर्याय नैगमाभास है। क्योंकि गुणोंका परस्परमें और अपने मायके साथ कथंचित् अभेद वर्त रहा है। अतः ऐसी दशामें सर्वथा भेद कथन करते रहनेसे नैयायिकाको विरोध दोष प्राप्त होता है।
अर्थव्यंजनपर्यायौ गोचरीकुरुते परः। धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधतः॥३५॥
पर्यायनैगमके तीसरे प्रभेदका उदाहरण यों है कि धर्मात्मा पुरुषमें सुखपूर्वक जीवन प्रवर्त रहा है। छात्र प्रबोधपूर्वक घोषण कर रहा है । इत्यादि प्रयोगोंके अनुरोधसे कोई तीसरा न्यारा नैगम नय विचारा अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय दोनोंको विषय करता है।
भिने तु सुखजीवित्वे योभिमन्येत सर्वथा ।
सोर्थव्यंजनपयोयनैगमाभास एव नः ॥ ३६॥
इसका नयाभास यों है कि जो प्रतिवादी सुख और जीवनको सर्वथा मिन बमिमानपूर्वक मान रहा है, अथवा बात्मासे भिन्न दोनोंको करप रहा है, वह तो हमारे यहां अर्थव्यंजनपर्यायका आभास है । यानी यह झूठा नय कुनय है । आयुःकर्मका उदय होनेपर विवक्षित पर्यायमें अनेक समयतक प्राणोंका धारण करना जीवन माना गया है । और आत्माके अनुजीवी गुण हो रहे सुखका सातावेदनीय कर्मके उदय होनेपर विभावपरिणति हो जाना यहां लौकिक सुख लिया गया है। हां, कभी कभी धर्मास्माको सम्यग्दर्शन होजानेपर अतीन्द्रिय आत्मीय सुखका भी अनुभव हो जाता है । वह स्वाभाविक सुखमें परिगणित किया जावेगा।
शुद्धद्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रेति यो नयः। स तु नैगम एवेह संग्रहव्यवहारजः ॥ ३७॥
पर्यायनैगमके तीन भेदोंका लक्षण और उदाहरण दिखलाकर अब द्रव्य नैगमके भेद और उदाहरणोंको दिखाते हैं कि जो नय शुद्धद्रव्य या अशुद्धद्रव्यको तिस प्रकार जाननेका अभिप्राय रखता है, वह नय तो यहां संग्रह और व्यवहारसे उत्पन्न हुआ नैगमनय ही कहा जाता है।
सव्व्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् ।
इत्येवमवगंतव्यस्तद्भेदोक्तिस्तु दुर्नयः ॥ ३८॥
तिस प्रकार अन्वयका विशेषरूपकरके निश्चय हो जानेसे सम्पूर्ण बस्तुओंको सत् द्रव्य इस प्रकार कहनेवाला अभिप्राय तो शुद्ध द्रव्यनैगम है। क्योंकि सभी पदार्थोंमें किसी भी स्वकीय
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परकीय भावोंकी नहीं अपेक्षा कर सत्पने या द्रव्यपनेका अन्वय जाना जा रहा है । संग्रह नयके अनुसार यह नैगम नय दो धर्मियोंको प्रधान गौणरूपसे विषय कर रहा है। हां, सत्पने और द्रव्यपनेके सर्वथा मेदको कह रहा तो यह नय दुर्नय हो जायगा । अर्थात् - वैशेषिक पण्डित ara और द्रव्यत्वको परस्पर में भिन्न मानते हैं । और जातिमान्का जातियोंसे भेद स्वीकार करते हैं, यह उनका शुद्धद्रव्यनैगमाभास है ।
यस्तु पर्यायवद्रव्यं गुणवद्वेति निर्णयः ।
व्यवहारनयाज्जातः सोऽशुद्धद्रव्यनैगमः ॥ ३९ ॥
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जो नय " पर्यायवान् द्रव्य है अथवा गुणवान् द्रव्य है, इस प्रकार निर्णय करता है, वह न तो व्यवहारनयसे उत्पन्न हुआ अशुद्धद्रव्यनैगम है व्यवहारनय केवळ एक ही धर्म या धर्मीको जानता है । किन्तु यह अशुद्ध द्रव्यनैगम नय तो धर्म, धर्मी, दोनोंको विषय करता है । इस दो प्रकारके द्रव्यनैगमको संग्रह और व्यवहारसे उत्पन्न हुआ इसी कारण कह दिया गया है किं पहिले एक एक विषयको जाननेके लिये संग्रह, व्यवहार, नय प्रवर्त जाते हैं। पीछे धर्म, धर्मी, या दोनों धर्म, अथवा दोनों धर्मियोंको प्रधान, गौणरूपसे जाननेके लिये यह नव प्रवर्तता है ।
तद्भेदेकातवादस्तु तदाभासोनुमन्यते ।
तथोक्तेर्बहिरंतश्च प्रत्यक्षादिविरोधतः ॥ ४० ॥
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पर्याय और पर्यायवान्का एकान्तरूपसे भेद मानते रहना अथवा उन गुण और गुणका सर्वथा भेद स्वीकार करनेका पक्ष पकडे रहना तो उस अशुद्ध द्रव्य नैगमका आभास माना जा रहा है। क्योंकि बहिरंग कहे जा रहे बट, रूप, पट, पटत्व, आदि तथा आत्मा ज्ञान, आदि अन्तरंग पदार्थों में तिस प्रकार मेद कहते रहनेसे प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकरके विरोध आता है ।
शुद्धद्रव्यार्थ पर्याय नैगमोस्ति परो यथा । सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेस्मिन्नितीरणम् ॥
४१ ॥
अब नैगमके द्रव्यपर्याय नैगम मेदके चार प्रमेदोंका वर्णन करते हैं । तिनमें पहिला शुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय नैगम तो न्यारी भांतिका इस प्रकार है कि इस संसार में सुख पदार्थ शुद्ध सत् स्वरूप होता हुआ क्षणमात्रमें नष्ट हो जाता है, यों कहनेवाला यह नय है । यहां उत्पाद, व्यय, धौव्य, रूप सपना तो शुद्धद्रव्य है । और सुख अर्थपर्याय है । विशेषण हो रहे शुद्ध द्रव्यको गौणरूपसे और विशेष्य हो रहे अर्थपर्याय सुखको प्रधानरूपसे यह नय विषय करता है ।
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सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्नमेवेति संमतिः ।
दुर्नीतिः स्यात्साधत्वादिति नीतिविदो विदुः ॥ ४२ ॥
सुखस्वरूप अर्थपर्यायसे सत्त्वको सर्वथा भिन्न ही मानते रहना इस प्रकारका सामिमान अभिप्राय तो दुर्नाति है। क्योंकि सुख और सत्त्वके सर्वथा मेद माननेमें अनेक प्रकारकी बाधाओंसे सहितपना है । इस प्रकार नयोंके जाननेवाले विद्वान् समझ रहे हैं। यानी सुख और सवका सर्वथा मेदका अभिमान तो शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय नैगमका आभा है 1
क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चयः । विनिर्दिष्टशेर्यपर्यायाशुद्धद्रव्य गनैगमः ॥ ४३ ॥
यह संसारी जीव एक क्षणतक सुखी है । इस प्रकार विशेष निश्चय करनेवाला विषयी नय तो अर्थपर्याय अशुद्धद्रव्य को प्राप्त हो रहा नैगम विशेषरूपेण कहा गया है। यहां सुख तो अर्थ पर्याय है, और संसारी जीव अशुद्धद्रव्य है । अतः इस नयसे अर्थपर्यायको गौणरूप से और अशुद्धद्रव्यको प्रधानरूपसे विषय किया गया है ।
सुखजीव भिदोक्तिस्तु सर्वथा मानवाधिता ।
दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधेर संशयात् ॥ ४४ ॥
सुखका और जीवका सर्वथा भेदरूपसे कहना तो दुर्नय ही है। क्योंकि गुण और गुण में सर्वथा भेद कहना प्रमाणोंसे बाधित है। जिन विद्वानोंके प्रबोध परिशुद्ध हैं, उन्होंने संशयरहितपसे इस बात को कहा है कि सुख और जीवका सर्वथा भेद कहना अर्थपर्याय अशुद्धद्रव्य नैगमामास है, यह समझलेना चाहिये ।
गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्ययो ।
नैगमोन्यो यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णयः ॥ ४५ ॥
तीसरा शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय नैगम इन दोनोंसे भिन्न इस प्रकार है, जो कि शुद्धद्रव्य और व्यंजन पर्यायको विषय करता है । जैसे कि यह सत्वामान्य चैतन्यस्वरूप है, इस प्रकारका निर्णय करना शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय नैगम नय है। यहां सत् सामान्य तो शुद्धद्रव्य है । और उसका चैतन्यपना व्यंजनपर्याय है। गौणरूप और प्रधानरूपसे यह नय दोनोंको जानलेता है ।
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विद्यते चापरोशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्ययौ । अर्थीकरोति यः सोत्र ना गुणीति निगद्यते ॥ ४६ ॥ भिदाभिदाभिरत्यंतं प्रतीतेरपलापतः । पूर्ववन्नैगमाभासौ प्रत्येतव्यौ तयोरपि ॥ ४७ ॥
इनसे भिन्न चौथा द्रव्यपर्याय नैगमनय तो यहां वह विद्यमान है जो कि अशुद्धद्रव्य और व्यंजनपर्यायको विषय करता है । जैसे कि मनुष्य गुणी है, इस प्रकार इस नय द्वारा कहा जाता है । यहां गुणवान् तो अशुद्धद्रव्य है और मनुष्य व्यंजनपर्याय है । कथंचित् अभेदरूपसे दोनोंको यह न जान लेता है । इन दो नयोंके द्वारा विषय किये गये पदार्थोंका परस्पर में सर्वथा भेद अथवा सर्वथा अतीव अमेद करके कथन करना तो उन दोनोंके भी पूर्वके समान दो नैगमामास समझ लेने चाहिये | क्योंकि अत्यन्त भेद या अमेइ पक्ष लेनेसे प्रतीतियोंका अपलाप ( छिपाना ) होता है । अतः सत् और चैतन्यके सर्वथा मेद या अभेदका अभिप्राय शुद्धद्रव्य व्यंजनपर्याीय नैगमका आभास है तथा मनुष्य और गुणीका सर्वथा मेद या अभेद जान लेना अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय नैगमका आभास है ।
नवधा नैगमस्यैव ख्यातेः पंचदशोदिताः ।
नयाः प्रतीतिमारूढाः संग्रहादिनयैः सह ॥ ४८ ॥
इस उक्त प्रकार नैगमनयका नौ प्रकार व्याख्यान करनेसे संग्रह आदिक छह नयोंके साथ प्रतीतिमें आरूढ हो रहीं नये पन्द्रह कह दी गयीं हैं ।
त्रिविधस्तावन्नैगमः । पर्यायनैगमः, द्रव्यनैगमः, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति । तत्र प्रथमस्त्रेधा | अर्थपर्यायनैगमो व्यंजन पर्याय नैगमोऽर्थ व्यंजनपर्यायनैगमच इति । द्वितीयो द्विधा । शुद्धद्रव्यनैगमः, अशुद्धद्रव्यनै ममश्चेति । तृतीयश्चतुर्धा । शुद्धद्रव्यार्थ पर्यायनैगमः, शुद्धद्रव्यव्यंजन पर्यायनैगमः, अशुद्धद्रव्यार्थ पर्यायनैगमः, अशुद्धद्रव्यव्यं जनपर्यायनैगम श्रेति, नवधा नैगमः साभास उदाहृतः परीक्षणीयः । संग्रहादयस्तु वक्ष्यमाणा षडिति सर्वे पंचदश नयाः समासतः प्रतिपत्तव्याः ।
उक्त कथनमें नैगमके भेदोंकी सूची इस प्रकार है कि सबसे पहिले नैगमनय तीन प्रकारका माना गया है। पर्यायनैगम, द्रव्यनैगम और द्रव्यपर्यायनैगम । ये नैगमके मूलभेद तीन हैं । तिनमें पहिला भेद पर्यायनैगम तो अर्थपर्यायनैगम, व्यंजनपर्यायनैगम और अर्थव्यंजनपर्यायनैगम, इस
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ढंमसे तीन प्रकारका है तथा दूसरा द्रव्यनैगम तो शुद्धद्रव्यनैगम अशुद्धद्रव्यनैगम । इस ढंगसे दो प्रकार है। तया तीसरा द्रव्यपर्यायनैगम तो शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम १ शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम २ अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम ३ अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम ४, इन स्वरूपोंसे चार प्रकार है। इस प्रकार नौ प्रकारका नैगमनय उनके आभासोंसे सहित हमने उदाहरणपूर्वक कहा है। जो कि प्रकाण्ड विद्वानोंकरके परीक्षा करने योग्य है । अथवा चारों ओरसे अन्य भी उदाहरण उठाकर विचार कर लेने योग्य है । और संग्रह भादिक छह नय तो भविष्यमें कहे जानेवाले हैं । इस प्रकार नौ और छहको मिलाकर सर्व पंद्रह नय संक्षेपसे समझ लेने चाहिये ।
तत्र संग्रहनयं व्याचष्टे ।
नैगम नयके भविष्यकालमें कहीं जानेवाली उन छह नयोंमेंसे अब संग्रहनयका श्री विद्यानन्दस्वामी ब्याख्यान करते हैं।
एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं संग्रहो नयः। खजातेरविरोधेन दृष्टेष्टाभ्यां कथंचन ॥ ४९ ॥ समेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते । निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते ॥ ५० ॥ शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मानं संग्रहः परः। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह ॥ ५१ ॥
अपनी सत्तास्वरूप जातिके दृष्ट, इष्ट, प्रमाणोंद्वारा अविरोध करके सभी विशेषोंका कथंचित एकपने करके ग्रहण करना संग्रह नय है। संग्रहमें सं शब्दका अर्थ समस्त है । और ग्रहका अर्थ जान लेना है । अनेक गौओंको देखकर “ यह गौ है" और " यह भी वही गौ है " इस प्रकारकी बुद्धियां होने और शोंकी प्रवृत्तियां होनेके कारण सादृश्य स्वरूपको जाति कहते हैं। सम्पूर्ण पदार्थीका एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थोंमें वर्त रहा सम् शब्द यहां पकडा जाता है। तिस कारण होनेपर उस संग्रह नयका लक्षण संग्रहशद्वकी निरुक्तिसे ही विचारा जाता है। परसंग्रह नय तो सत्तामात्र शुद्ध द्रव्यका अभिप्राय रखता है । और सत् है, इस प्रकार सबको एकपनेसे ग्रहण करनेवाला वह संग्रह नय यहां सर्वदा सम्पूर्ण विशेषपदार्थोमें उदासीनताको धारण करता है । " सत्, सत्, " इस प्रकार कहनेपर तीनों कालके विवक्षित, अविवक्षित सभी जीव, अजीवके भेदप्रभेदोंका एकपमेकरके संग्रह हो जाता है।
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upnimashan......
निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायणः ।
तदाभासः समाख्यातः सद्भिदृष्टेष्टबाधनात् ॥ ५२ ॥
अब परसंग्रह नयके समान प्रतिभास रहे खोटे परसंग्रहनयका उदाहरणसहित लक्षण करते हैं कि जो नय सम्पूर्ण विशेषोंका निराकरण कर केवल सत्ताके अद्वैतको कहनेमें तत्पर हो रहा है, वह तो सज्जन विद्वानों करके ठीक भांति परसंग्रहामास बखाना गया है। कारण कि अकेले सत् या ब्रह्मको कहते रहनेपर प्रत्यक्षप्रमाण और अनुमानप्रमाणसे बाधा उपस्थित होती है । जिसको कि हम पहिले कह चुके हैं । अर्थात्-बालक वृद्ध या कीट जीवोंको भी प्रत्यक्षसे अनेक पदार्थ दीख रहे हैं । नाना पदार्थीको भले ही अनुमानसे जान लो ।
अभिन्न व्यक्तिभेदेभ्यः सर्वथा बहुधानकं । महासामान्यमित्युक्तिः केषांचिद्दुर्नयस्तथा ॥ ५३॥ शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि । संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोन्यत्र दर्शितम् ॥ ५४ ॥
साख्योद्वारा माना गया प्रधान तस्व तो अहंकार, तन्मात्रा, आदि तेईस प्रकारकी विशेष व्यक्तियोंसे या विशेष व्यक्तोंसे सर्वथा अभिन्न होता हुआ महासामान्यस्वरूप है। " त्रिगुणमविवेकिविषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि " (सांख्यतत्त्वकौमुदी ) इस प्रकार किन्हीं कापिलोंका तैसा मानना खोटा नय है, यानी परसंग्रहामास है । तथा अन्या शब्दाद्वैतवादियों का अकेले शब्द ब्रह्मको ही स्वीकार करना और ब्रह्माद्वैतवादियोंका विशेषोंसे रहित केवल अदयपुरुष तत्त्वको स्वीकार करना तथा योगाचार या वैमाषिक बौद्धोंका शुद्ध सम्वेदनाद्वैतका पक्ष पकडे रहना ये भी कुनय हैं। परसंग्रहामास हैं, इसको भी हम पहिले अन्य स्थानों में बहुत वार दिखला चुके हैं। विशेषोंसे रहित होता हुआ सामान्य कुछ भी पदार्थ नहीं हैं । सुशिष्यकी कृतघ्नताके समान अलीक है।
द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापरः । पर्यायत्वं च निःशेषपर्यायव्यापिसंग्रहः ॥५५॥ तथैवावांतरान भेदान संगृबैकत्वतो बहुः । वर्ततेयं नयः सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृतेः ॥ ५६ ॥
परसंग्रहनयको कहकर अब अपरसंग्रहनयका वर्णन करते हैं । परमसत्तारूपसे सम्पूर्ण भावोंके एकपनका अभिप्राय रखनेवाळे परसंग्रहद्वारा गृहीत अंशोंके विशेष अंशोंको जाननेवाला अपरसंग्रह
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तत्वार्यशोकवार्तिके
नय है । सत्के व्याप्यद्रव्य और पर्याय है । सम्पूर्ण द्रव्योंमें व्यापनेवाळे द्रव्यत्वको अपरसंग्रह स्वकीय अभिप्रायद्वारा जान लेता है और दूसरा अपर संग्रह तो सम्पूर्ण पर्यायोंमें व्यापनेवाले पर्यायत्वको जाम लेता है । तिस ही प्रकम और इनके भी व्याप्य हो रहे बहुतसे अवान्तर भेदोंका एकपनेसे संग्रह कर यह नय जानता हुआ वर्त रहा है। अपने प्रतिकूल पक्षका निराकरण नहीं करनेसे यह समीचीन नय समझा जावेगा और अपने अवान्तर सत्तावाले विषयोंके प्रतिपक्षी महासत्तावाले या तव्याप्यव्याप्य अन्य व्यक्तिविशेषोंका निषेध कर देगा तो कुनय कहा जावेगा । जैसे कि अपर संग्रहके विषय द्रव्यपनेके व्याप्य हो रहे सम्पूर्ण जीव द्रव्योंका एकपनेसे संग्रह करना अथवा कालत्रयवर्ती पर्यायों में द्रवण कर रहे अजीवके पुद्गल, धर्म, आदि मेदोंका संग्रह कर लेना तथा पर्यायोंके विशेष भेद सम्पूर्ण घटका या सम्पूर्ण पटोंका एकपनेसे संग्रह करना अपर संग्रहनय है। इस प्रकार व्यवहारनयसे पहिले अनेक विशेष व्यापि सामान्योंको जानता हुआ यह अपरसंग्रहनय बहुत प्रकारका वर्त रहा है।
स्वव्यक्त्यात्मकतैकांतस्तदाभासोप्यनेकधा। प्रतीतिनाधितो वोध्यो निःशेषोप्यनया दिशा ॥ ५७॥
उस अपर संग्रहका आमास मी अनेक प्रकारका है । अपनी व्यक्ति - और जातिके सर्वथा एक बात्मकपनेका एकान्त तो प्रतीतियोंसे बाधित हो रहा अपर संग्रहामास समझना चाहिये । यह एक उदाहरण उपलक्षण है । इस ही संकेतसे सम्पूर्ण भी अपर संग्रहाभास समझ लेना । अर्थात्घट सामान्य और घटविशेषोंका सर्वथा भेद या अभेद माननेका आग्रह करना अपर संग्रहामास है ।
द्रव्यत्वं द्रव्यात्मकमेव ततो तरभूतानां द्रव्याणामभावादित्यपरसंग्रहाभासा, प्रतीतिविरोधात् । तथा पर्यायत्वं पर्यायात्मकमेव ततार्थातरभूतपर्यायासत्वादिति तत्त्वं तत एव । तथा जीवत्वं जीवात्मकमेव, पुगळवं पुद्गलात्मकमेव, धर्मत्वं धर्मात्मकमेव, अधर्मत्वं अधर्मात्मकमेव, आकाशत्वं आकाशात्मकमेव, कालत्वं कालात्मकमेवेति चापरसंग्रहाभासाः। जीवत्वादिसामान्यानां स्वव्यक्तिभ्यो भेदेन कचित्मतीतेरन्यथा तदन्यतरकोपे सर्व
लोपानुषंगात् । • आचार्य कह रहे हैं कि जो कोई सांख्यमत अनुयायी द्रव्यस्व सामान्यको द्रव्य व्यक्तियों के साथ तदात्मक हो रहा ही मानते हैं, क्योंकि उस द्रव्यत्वसे भिन्न हो रहे द्रव्योंका अभाव है। यह उनका मानना प्रतीतियोंसे विरोध हो जाने के कारण अपरसंग्रहाभास है । तिसी प्रकार पर्यायस्वसामान्य भी पर्याय आत्मक ही है । उस पर्याय सामान्यसे सर्वथा अर्थान्तरभूत हो रहे पर्यायोंका असद्भाव है । यह भी तिस ही कारण यानी प्रतीतिविरोध हो जानेसे वहां अपरसंग्रहामास है। तथा जीवत्व अनेक जीवोंका तदात्मक ही हो रहा धर्म है । पुद्गलस्व सामान्य पुद्रा व्यक्तिस्वरूप ही
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तवार्य चिन्तामणिः
है। धर्मदव्यपना धर्मद्रव्यस्वरूप ही है । अधर्मस्व अधर्मद्रव्यस्वरूप ही है । आकाशस्म धर्म आकाश स्वरूप ही है । कालस्व सामान्यकालपरमाणुओं स्वरूप ही है। ये जाति और व्यक्तियोंके सर्वथा अभेद एकान्तको कहनेवाले सब अपरसंग्रहाभास है। क्योंकि जीवत्व पुद्गलव आदि सामान्योंकी अपने विशेष व्यक्तियोंसे कथंचित् मेद करके प्रतीति हो रही है । अन्यथा यानी कथंचित् भेद नहीं मान कर दूसरे अशक्य विवेचनस्व आदि प्रकारों से उनका सर्वथा अभेद मानोगे तो उन दोनोंमेंसे एकका लोप हो जानेपर बचे हुये शेषका भी लोप हो जायगा । ऐसी दशामें सबके लोप हो जानेका प्रसंग बाता है। अर्थात्-विशेषका सामान्यके साथ अभेद माननेपर सामान्यमें विशेष लीन हो जायगा । एवं विशेषोंका प्रलय हो जानेपर सामान्य कुछ भी नहीं रह सकता है। धडके मर जानेपर सिर जीवित नहीं रह सकता है । इसी प्रकार अपेदपक्ष अनुसार विशेष व्यक्तियों में सामान्यके लीन हो जानेपर विशेषोंका नाश अनिवार्य है। ईसके मध्यवर्ती झोपडे तीव्र अग्नि लगनेपर मिले हुये झोंपडोंका जल जाना अवश्यम्भावी है । सिरके मर जानेपर धड जीवित नहीं रह पाता है । यहां विशेष यह है कि जाति और व्यक्तियोंका सर्वथा भेद माननेवाळे वैशेषिक जन एक ही व्यक्तिमें रहनेवाले धर्मको जाति स्वीकार नहीं करते हैं । " व्यक्तरभेदस्तुस्यत्वं संकरोथानवस्थितिः । रूपहानिरसम्बन्धो जातिबाधकसंग्रहः ।। किंतु जैन सिद्धान्तमें धर्म, अधर्म, और आकाशको एक एक ही द्रव्य स्वीकार किया गया है। फिर भी त्रिकालसम्बन्धी परिणामोंकी अपेक्षा धर्मद्रव्य अनेक हैं। उनमें एक "धर्मव" धर्म जाति ठहर सकता है । स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार सामान्यको सर्वथा एक मानना इष्ट नहीं है । व्यक्तियोंसे कथंचित् अमिन होता हुआ सामान्य एक है अनेक भी है। इसी प्रकार अधर्म और आकाशमें भी सदृशपरिणामरूप जातिका सद्भाव विना विरोध के संगत हो जाता है । कथंचित भेद, अमेद, सर्वत्र भर रहे हैं।
तया क्रममाविपर्यायत्वं क्रमभाविपर्यायविशेषात्मकमेव, सहभाविगुणत्वं तद्विशेषात्मकमेवेति वापरसंग्रहाभासौ प्रतीतिप्रतिघातादेव । एवमपरापरद्रव्यपर्यायभेदसामान्यानि स्वव्यरक्यात्मकान्येवेत्यभिप्रायाः सर्वेप्यपरसंग्रहाभासाः प्रमाणबाधितत्वादेव बोद्धव्या: प्रतीत्यविरुदस्यैवापरसंग्रहमपंचस्यावस्थितत्वात् ।
द्रव्य व्यक्कियां और द्रव्यजातियोंका अभेद कह कर अब पर्यायोंका अपनी जातिके साथ अभेद माननेको नयामास कहते हैं । जो कोई प्रतिवादी क्रममावी पर्यायत्वसामान्यको क्रम क्रमसे होनेवाले विशेष पर्यायों स्वरूप ही कह रहा है, अथवा सहभाषी पर्याय गुणत्वको उस गुणत्व सामान्यके विशेष हो रहे अनेक गुण भात्मक ही इष्ट किये बैठा है, ये दोनों भी प्रतीतियों द्वारा प्रतिघात हो जानेसे ही अपरसंमहाभास समझने चाहिये । इसी प्रकार और भी आगे आगेके उत्तरोत्तर द्रव्य या पर्यायों के भेद प्रभेदरूप सामान्य द्रव्यत्व, ( पृथिवीत्व, घटत्व आदिक ) भी अपनी अपनी
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तत्वार्थलोकवार्तिके
न्यक्तियां द्रव्य और पर्यायस्वरूप ही हैं। ये अभिप्राय भी सभी प्रमाणोंसे बाधे गये होनेके कारण ही अपरसंग्रहके आभास समझलेने चाहिये । क्योंकि प्रतीतियोंसे नहीं विरूद्ध हो रहे ही पदार्थीको विशेष करनेवाले नयोंको अपरसंग्रह नयके प्रपंच (कौटुम्बिकविस्तार ) की व्यवस्था की जा चुकी है।
व्यवहारनयं प्ररूपपति। संग्रहनयका वर्णन कर श्री विद्यानन्द स्वामी अब क्रमप्राप्त व्यवहार नयका प्ररूपण करते हैं। संग्रहेण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकः । योवहारो विभागः स्याद्यवहारो नयः स्मृतः ॥५०॥ सचानेकप्रकारः स्यादत्तरः परसंग्रहात् ।
यत्सत्तद्रव्यपयोयाविति प्रागृजुसूत्रतः॥ ५९॥
संग्रह नय करके ग्रहण किये जा चुके पदार्थोका विधिपूर्वक जो अवहार यानी विभाग होगा वह पूर्व आचार्योकी आम्नाय अनुसार व्यवहारनय माना गया है। अर्थात्-विभाग करनेवाला व्यवहारनय है । और वह व्यवहारनय तो परसंग्रहसे उत्तरवर्ती होकर ऋजुसूत्र नयसे पहिले वर्तता हुआ अनेक प्रकारका है । परसंग्रहनयने सत्को विषय किया था। जो सत् है वह द्रव्य और पर्याय रूप है । इस प्रकार विभाग कर जाननेवाला व्यवहारनय है । यद्यपि अपरसंग्रहने भी द्रव्य और पर्यायोंको जान लिया है, किन्तु अपरसंग्रहने सत्का भेद करते हुये उन द्रव्यपर्यायोंको नहीं जाना है। पहिलेसे ही विभागको नहीं करते हुये युगपत् सम्पूर्ण द्रव्योंको जान लिया है। अथवा दूसरे अपरसंग्रहने झटिति सम्पूर्ण पर्यायोंको विषय कर लिया है । किन्तु व्यवहारने विभागको करते हुऐ जाना है । व्यवहारके उपयोगी हो रहे भले ही महासामान्यके भी भेदोंको जाने,वह न्यबहार नय है।
कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणाधितोन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ॥६०॥
द्रव्य और पर्यायोंके आगेपित किये गये कल्पित विभागोंको जो नय कदाग्रहपूर्वक धार लेता है वह तो प्रमाणोंसे बाधित होता हुआ इस व्यवहारनयसे न्यारा व्यवहार नयाभास जानना चाहिये । क्योंकि द्रव्य और पर्यायोंका विभाग कल्पित नहीं है।
परसंग्रहस्तावत्सर्वं सदिति संगृह्णाति, व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति यत्सत्चद्व्यं पर्याय इति । यथैवापरसंग्रहः सर्वद्रव्याणि द्रव्यमिति संगृह्णाति सर्वपर्यायाः पर्याय इति ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
व्यवहारस्तद्विभजते यद्द्द्रव्यं तज्जीवादिषड्विधं यः पर्यायः सद्विविधः क्रमभावी
सहभावी चेति ।
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संग्रह करता है और कि जो सत् है वह
द्रव्यपनेसे संग्रह कर
सबसे पहिले परसंग्रह तो " सम्पूर्ण पदार्थ सत् हैं " इस प्रकार व्यवहार नय तो उन सत् पदार्थोंके विभाग करनेका यो अभिप्राय रखता है द्रव्य या पर्याय है तथा जिस ही प्रकार अपर संग्रहनय सम्पूर्ण द्रव्योंको एक देता है और सम्पूर्ण त्रिलोक त्रिकाळवर्त्ती पर्यायको एक पर्यायपनेसे संग्रह कर लेता है । किन्तु व्यवहार नय तो उस द्रव्य और पर्यायका विभाग यों कर डालता है कि जो द्रव्य है वह जीव पुद्गल, आदि छह प्रकार है और जो पर्याय है वह क्रमभावी और सहभावी इस ढंगसे दो प्रकार है ।
पुनरपि संग्रहः सर्वान् जीवादीन् संगृह्णाति जीवः पुद्गलो धर्मोऽधर्मः आकाश काळ इति क्रमभुवश्च पर्यायान् क्रमभाविपर्यांय इति, सहभाविपर्यायांस्तु सहभाविपर्याय इति । व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति यो जीवः स मुक्तः संसारी च यः पुद्गलः सोणुः स्कंधश्च, यो धर्मास्तिकायः स जीवगतिहेतुः पुद्गलगतिहेतुश्च, यस्त्वधर्मास्तिकायः स जीवस्थितिहेतुरजीव स्थितिहेतुश्च पर्यायतो द्रव्यतस्तस्यैकत्वात् । तथा यदाकाशं तल्लोकाकाशमलोकाकाशं च यः काल स मुख्यो व्यावहारिकश्चेति यः क्रमभावी पर्यायः स क्रियारूपोऽक्रियारूपश्च विशेषः यः सहभाषी पर्यायः स गुणः सदृशपरिणामश्च सामान्यमिति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रपंच: प्रागृजुसूत्रात्परसंग्रहादुत्तरः प्रतिपत्तव्यः, सर्वस्य वस्तुनः कथंचित्सामान्यविशेषात्मकत्वात् । न चैवं व्यवहारस्य नैगमत्वप्रसक्तिः संग्रहविषयप्रविभागपरत्वात् सर्वत्र नैगमस्य तु गुणप्रधानोभयविषयत्वात् ।
अपर संग्रहकी एक वार प्रवृत्ति हो चुकनेपर फिर भी उसका व्याप्य हो रहा अपर संग्रह नय तो सम्पूर्ण जीव आदिकोंको जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल इस प्रकार व्याप्य हो रहे अनेक जीव आदिका संग्रह करता है तथा क्रमसे होनेवालीं अनेक सजातीय पर्यायोंको ये क्रमभावी पर्याय हैं इस प्रकार संग्रह करता है एवं सहभावी अनेक जातिवालीं पर्यायोंको तो ये सहभावी पर्याय है, इस प्रकार संग्रह करता है। किन्तु यह व्यवहार नय तो उन संग्रह नय द्वारा गृहीत विषयोंके विभाग करने की यों अभिलाषा करता है कि जो जीवद्रव्य है वह मुक्त और संसारी है और जो पुद्गलद्रव्य है वह अणुस्वरूप और स्कन्धस्वरूप हैं, जो धर्मास्तिकाय है वह जीवकी गतिका कारण और पुद्गलकी गतिका कारण यों दो प्रकार है तथा जो अधर्मास्तिकाय है वह तो जीवोंकी स्थितिका कारण और पांचो अजीवों की स्थितिका कारण, यों दो प्रकार या छह प्रकार है । अथवा अवके छह मे पीछे अपर संप्रइसे विभक्त कर व्यवहार करना । धर्म अर्धम द्रव्यों का
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तत्त्वार्यश्शोकवार्तिके
दैविध्यपना या अनेकपना तो पर्यायोंकी अपेक्षासे ही है। दव्यरूपसे वे दोनों एक एक ही हैं तथा जो आकाशदव्य है वह लोकाकाश और अलोकाकाशरूप है, जो काळ द्रव्य है, वह अणुस्वरूप मुख्य काल, और समय आवलिका आदि व्यवहारस्वरूप है। इस प्रकार द्रव्यके भेद प्रमेदोंकर संग्रहकर व्यवहारनय द्वारा उनका विभाग कर दिया जाता है। मुक्त जीवोंका भी जघन्य अवगाहनावाले, मध्यम अवगाहनावाले, उत्कृष्ट अवगाहना वाले, या द्वीपसिद्ध, समुद्रसिद्ध, प्रत्येक बुद्ध, बोधितबुद्ध मादि धर्मोकरके संग्रह कर पुनः व्यवहार नयसे उनका भेदेन प्ररूपण किया जा सकता है । संसारीके त्रप्स, स्थावर, मनुष्य, स्त्री, देव, नारकी आदि स्वरूप करके संग्रह कर पुनः व्यवहार उपयोगी विभाग किया जा सकता है। इसी प्रकार पर्यायोमें समझना। जो क्रममावी पर्यायें संगृहीत गई हैं वह परिस्पंद आत्मक क्रियारूप और अपरिस्पंद भात्मक प्रक्रिया रूप होती हुई विशेष स्वरूप है और जो सहभावी पर्याय है वह नित्यगुणस्वरूप है और सदृश परिणाम प्रामक सामान्य रूप है। यहां भी क्रियारूप पर्यायोंकें भ्रमण, तिर्यग्गमन, ऊर्ध्व गमन, आदि भेद किये जा सकते हैं। अक्रियारूप पर्यायोंके ज्ञान, सुख, क्रोध, ध्यान, सामायिक, अध्ययन, आदि भेद हो सकते हैं। गुणोंके भी अनुजीवी, प्रतिजीवी, पर्यायशक्ति, सामान्यगुण, विशेष गुण, ये भेद किये जा सकते हैं । सामान्यका भी गोव, पशुत्व, जीवत्व, आदि रूप करके विमाग किया जा सकता है । इस प्रकार उत्तर उत्तर होनेवाला संग्रह और व्यवहार नयका प्रपंच ऋजुसूत्र नयसे पहिले पहिले
और परसंग्रहसे उत्तर उत्तर अंशोंकी विवक्षा करनेपर समझ लेना चाहिये । क्योंकि जगदको सम्पूर्ण वस्तुएँ सामान्य और विशेषके साथ कथंचित् एक आरमक हो रही है । अतः नयको उपजानेवाले पुरुषका अभिप्राय सामान्यरूपसे जानकर विशेषोंको जानने के लिये प्रवृत्त हो जाता है । इस उक्त प्रकार कथन करनेपर व्यवहार नयको नैगमपने का प्रसंग नहीं भाता है। क्योंकि व्यवहार नय तो संग्रहद्वारा विषय किये जा चुके पदार्थका व्यवहार उपयोगी सर्वत्र बढिया विभाग करनेमें तत्पर हो रहा है और नेगमनय तो अत्यधिक गौण और प्रधान हो रहे दोनों प्रकारके धर्म धर्मियोंको विषय करता है अर्थात्-व्यवहार तो एक सद्भूत अंशके भी व्यवहार उपयोगी अंशोंको जानता है। किन्तु नैगम नय तो प्रधानभूत या गौणभूत हो रहे सत्, असत्, वंश, मंशियोंको जान लेता है। नेगमनयका क्षेत्र व्यवहारसे असंख्य गुणा बडा है।
यः पुनः कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायविभागमभिपैति स व्यवहाराभासः, प्रमाणपापि. तत्वात् । तथाहि-न कल्पनारोपित एव द्रव्यपर्यायप्रविभागः स्वार्थक्रियाहेतुत्वादन्यथा तदनुपपत्तेः वंध्यापुत्रादिवत् । व्यवहारस्य मिथ्यात्वे तदानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता धन स्यात्, स्वमादिविनमानुकूल्येनापि तेषां प्रमाणत्वमसंगात् । तदुक्तं । “व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता, नान्यथा पाध्यमानानां, तेषां च तत्वसंगतः॥" इति ।
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तत्वायचिन्तामणिः
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और जो नय पुनः कल्पनासे आरोपे गये द्रव्य और पर्यायके विभागका अभिप्राय करता है, वह कुनय होता हुआ व्यवहारामास है । क्योंकि यदि द्रव्य और पर्यायके विभागको वास्तविक नहीं माना जावेगा तो प्रमाणोंसे बाधा उपस्थित हो जावेगी। उसीको अनुमान बना कर आचार्य महोदय स्पष्ट दिखलाते हैं कि द्रव्य और पर्यायका अच्छा हो रहा विभाग (पक्ष ) कोरी कल्पनाओंसे आरोप किया गया नहीं है ( साध्य ) अपने अपने द्वारा की जाने योग्य अर्थक्रियाका हेतु होनेसे (हेतु ) अन्यथा यानी द्रव्य और पर्यायके विभागको कल्पनासे गढ लिया गया माननेपर तो उन कल्पित द्रव्य और पर्यायोंसे उस अर्थक्रियाकी सिद्धि नहीं हो सकेगी, जैसे कि वन्ध्याके पुत्रसे कुटुम्ब संतान नहीं चल सकती है । आकाशके पुष्पसे सुगन्ध प्राप्ति नहीं हो सकती है, इत्यादि ( व्यतिरेकदृष्टान्त ) यदि द्रव्य या पर्यायोंकी कोरी कल्पना करनेवाले बौद्ध यों कहें कि ये सब अर्थ क्रिया करनेके या " यह अंश द्रव्य है " " इतना अंश पर्याय हैं" ये सब व्यवहार तो मिथ्या हैं, जैसे कि दुकरियापुरान या किम्बदन्तियां झूठी हुआ करती हैं। अब आचार्य कहते हैं तब तो उस व्यवहारके अनुकूळपने करके मानी गयी प्रमाणोंकी प्रमाणता भी नहीं हो सकेगी, अन्यथा स्वप्न, मूछित, भादिके प्रान्त व्यवहारोंकी अनुकूलतासे भी उन स्वप्न आदिके ज्ञानोंको प्रमाणपनका प्रसंग मा जावेगा ।वही तुम्हारे प्रन्थोंमें कहा जा चुका है कि लौकिक व्यवहारोंकी अनुकूलता करके प्रमाणोंका प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है। दूसरे प्रकारोंसे ज्ञानोंकी प्रमाणता (प्रधानता) नहीं है । अन्य प्रकारोंसे प्रमाणपना माननेपर बाधित किये जा रहे उन स्वमशान या भ्रान्त ज्ञान अथवा संशय ज्ञानोंको भी उस प्रमाणपनेका प्रसंग हो जावेगा । अर्थात्-दिनरात लोकव्यवहारमें आनेवाले कार्य तो द्रव्य और पर्यायोंसे ही किये जा रहे देखे जाते हैं। व्यवहारी मनुष्य लौकिक व्यवहारोंसे ज्ञानको प्रमाणताको जान लेता है। शीतळ वायुसे जलके ज्ञानमें प्रामाण्य जान लिया जाता है। अमुकुछ, प्रतिकूल, व्यवहारोंसे शत्रुता, मित्रता, परीक्षित हो जाती है । पठन, पाठन, चर्चा, निर्णायकशक्तिसे प्रकाण्ड विद्वत्ताका निर्णय कर पिया जाता है। यदि ये व्यवहार मिथ्या होते तो ज्ञानोंकी प्रमाणताके सम्पादक नहीं हो सकते थे । यदि झूठे व्यवहारोंसे ही ज्ञानमें प्रमाणता आने लगेगी तब तो मिथ्याज्ञान भी सबसे ऊंचे प्रमाण बन बैठेंगे । महामूर्ख जन पण्डितोंकी गद्दियोंको हडप लेंगे। किन्तु ऐसी अन्धेर नगरीकी व्यवस्था प्रामाणिक पुरुषोंमें स्वीकार नहीं की गयी है। अतः वास्तविक द्रव्य और पर्यायों के विभागोंके व्यवहारको जता रहे व्यवहारनयका वर्णन यहांतक समाप्त हो चुका है। तदनुसार श्रद्धा करो, एकान्तको छोडो।
सांप्रतमृजुसूत्रनयं सूत्रयति। ।
व्यवहार नयको कह कर अब वर्तमान काळमें चौथे ऋजुसूत्र नयका श्री विद्यानन्द स्वामी सूचन कराते हैं। जैसे कि धीरमे योग्य काठ या तोडने योग्य पटियामें सूतका सीधा चिहकर इधर
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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
उधर दृष्टि व ही वेष्टित कर दी जाती है वैसे ऋजुसूत्र नयका विषय वर्तमानकालकी पर्याय नियत है ।
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ऋजुसूत्रं क्षणध्वंसि वस्तु सत्सूत्रयेदृजु । प्राधान्येन गुणीभावाद्द्रव्यस्यार्पणात्सतः ॥ ६१ ॥
ऋजुसूत्र नय पर्यायको विषय करनेवाला है । क्षण में ध्वंस होनेवाली वस्तुके सद्भूत व्यक्त रूपका प्रधानता करके ऋजुसूत्र नय अच्छा सूचन (बोध) करा देता है । यद्यपि यहां नित्य द्रव्य विद्यमान है तो भी उस सत् द्रव्यकी विवक्षा नहीं करनेसे उसका गौणपमा है । अर्थात् द्रम्पकी भूतपर्यायें तो नष्ट हो चुकी हैं और भविष्यपर्यायें नहीं जाने कब कब उत्पन्न होगीं । अतः यह नय वर्तमानकाळकी पर्यायको ही विषय करता है । त्रिकालान्वयी द्रव्यकी विवक्षा नहीं करता है । यद्यपि एक क्षणके पर्यायसे ही पढना, पचना, घोषणा, व्यान करना, प्रामान्तरको जाना आदिक अनेक लौकिक कार्य नहीं सघ सकते हैं । किन्तु यहां केवल इस नयका विषय निरूपण कर दिया है लोक व्यवहार तो सम्पूर्ण नयोंके समुदायसे साधने योग्य है । " सामग्रीजानिका नैकं कारणं ,, 1
निराकरोति यद्रव्यं बहिरंतश्च सर्वथा ।
स तदाभोऽभिमंतव्यः प्रतीतेरपलापतः ॥ ६२ ॥
जो बौद्धों द्वारा माना गया ज्ञान वर्तमान पर्यायमात्रको ही ग्रहण करता है और बहिरंग अन्तरंग द्रव्यों का सभी प्रकारसे खण्डन करता है वह उस ऋजुसूत्र नयका आभास ( कुनय ) मानना चाहिये । क्योंकि बौद्धोंके अभिप्राय अनुसार माननेपर प्रमाण प्रसिद्ध प्रतीतियोंका छिपाना हो जाता है । अर्थात् - सभी पर्यायें द्रव्यसे अन्वित होरही हैं। विना द्रव्यके परिणाम होना असम्भव है । सूत्र भले हीं केवळ पर्यायोंको ही जाने, किन्तु द्रव्यका खण्डन नहीं करे ।
कार्यकारणता चेति ग्राह्यग्राहकतापि वा ।
वाच्यवाचकता चेति कार्थसाधनदूषणं ॥ ६३ ॥
अन्वित द्रव्योंको नहीं माननेपर बौद्धोंके यहां कार्यकारण भाव अथवा ग्राह्यग्राहक माब और वायवाचक भाव भी कहां बन सकते हैं। ऐसी दशामें भला कहां स्वकीय इष्ट अर्थका साधन औरपरपक्षका दूषण ये विचार बन सकेंगे ? पदार्थोंको कालान्तरस्थायी माननेपर ही कार्यकारण भाव बनता है । कुलाल, मृत्तिका अनेक क्षणोंतक ठहरेंगे, तभी घटको बना सकेंगे । क्षणमात्रमें नष्ट होनेवाले तन्तु और कोरिया विचारे वस्त्रको नहीं बना सकते हैं। ऐसे ही ज्ञान और ज्ञेयमें ग्राह्यग्राहक
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
भाव या लेज और पानी भरे कलरामें प्राह्यग्राहक मात्र कुछ कालतक उनकी स्थिति माननेपर ही घटित हो पाता है तथा शब्द और अभिधेय वाच्यवाचक भाव तभी बन सकता है जब कि श और पदार्थकी कुछ कालतक तो अवश्य स्थिति मानी जाय । वक्ता के मुखप्रदेशपर ही निकलकर नष्ट हो जानेवाले शद्व यदि श्रोता के कानमें ही न जायेंगे तो वक्ता शद्वका संकेत ग्रहण नहीं कर सकता है। उन्हीं शब्दोंका सादृश्य तो व्यवहारकालके शद्वोंमें लाना होगा। वक्ता के द्वारा दिखाया गया अर्थ श्रोताकी अख उठानेतक नष्ट हो जायगा तो ऐसे क्षणिक अर्थ में वाध्यता कैसे आसकती है ? उसको तुम बौद्ध विचारो । क्षणवर्ती शद्धोंसे श्रोता कुछ भी नहीं समझ सकता है । वादी प्रतिषादियोंके कुछ कालतक ठहरनेपर ही स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण सम्भवते हैं, अन्यथा नहीं ।
लोकसंवृत्तिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः ।
hi सिध्द्यदाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना ॥ ६४ ॥
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तथा इस प्रकार द्रव्यका अपह्नव कर क्षणिक पक्षमें लौकिक व्यवहारसत्य और परमार्थ रूपसे सत्य ये कहां सिद्ध हो सकेंगे ? जिसका कि आश्रय कर बौद्धोंके यहां बुद्धोंका धर्म उपदेश देना बन सके । अर्थात् - वास्तविक कार्यकारणभाव माने विना व्यवहारसत्य और परमार्थसत्यका निर्णय नहीं हो सकता है । वाच्यवाचक भाव माने विना सुगतका धर्मोपदेश कानी कौडीका भी नहीं है ।
सामानाधिकरण्यं क विशेषणविशेष्यता ।
साध्यसाधनभावो वा काधाराधेयतापि च ॥ ६५ ॥
त्रिकालमें अवित रहनेवाले द्रव्यको माने विना सामानाधिकरण नहीं बन सकता है। क्योंकि दो पदार्थ एक वस्तुमें ठहरें तब उन दोनें समान अधिकरणपना होय । सूक्ष्म, असाधारण, क्षणिकविशेषों में समानाधिकरणपना असम्भव है । और बौद्धोंके यहां विशेषण विशेष्यपना नहीं बन सकता है । कारण कि संयोग सम्बन्धसे पुरुषमें दण्ड ठहरे, तब पीछे उनका विशेष्यविशेषण भाव माना जाय, किन्तु बौद्धों यहां कोई पदार्थका कहीं आधार आधेयभाव नहीं माना गया है । विशेष्यको अपने रंगसे रंग देनेवाले धर्मको विशेषण कहते हैं । ये सब कार्य क्षणमात्रमें कथमपि नहीं हो सकते तथा बौद्धोंके यहां साध्यसाधनभाव अथवा आधारभधेयभाव भी नहीं घटित हो पाते हैं । साध्यसाधनभाबके लिये व्याप्तिग्रहण, पक्षवृतित्व ज्ञान, सादृश्यप्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिस्मरण, इनकी
श्यकता है । क्षणिकमें ये कार्य घटित नहीं होते हैं। अवयवी, साधारण, काळान्तरस्थायी, पायोंमें आधारभधेयभाव सम्भवता है । क्षणिक, परमाणु, विशेषों में नहीं
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वार्थकोकवार्तिके
संयोगो विप्रयोगो वा क्रियाकारकसंस्थितिः । सादृश्यं वैसदृश्यं वा स्वसंतानेतरस्थितिः ॥ ६६ ॥ समुदायः क च प्रेत्यभावादिद्रव्यनिह्नवे । बंधमोक्षव्यवस्था वा सर्वथेष्टाऽप्रसिद्धितः ॥ ६७ ॥
नित्य परिणामी द्रव्यको नहीं स्वीकार करने पर बौद्धों के यहां संयोग अथवा विभाग तथा क्रियाकारककी व्यवस्था और सादृश्य, वैसादृश्य अथवा स्वसंतान परसंतानों की प्रतिष्ठा एवं समुदाय और मरकर जन्म लेना स्वरूप प्रेत्यभाव या साधर्म्य आदिक कहां बन सकेंगे ? अथवा बन्ध, मोक्ष, की व्यवस्था कैसे कहां होगी ? क्योंकि सभी प्रकारोंसे इष्ट पदार्थोंकी तुम्हारे यहां प्रसिद्धि नहीं हो रही है । अर्थात् परस्पर मद्दीं संसर्गको प्राप्त हो रहे स्वलक्षण क्षणिक परमाणुओंके ही मामनेपर बौद्धों के यहां संयोग नहीं बनता है, तब तो संयोगको नाशनेवाला गुण ( धर्म ) विभाग नहीं बन सकेगा । क्रिया, कारककी व्यवस्था तो तभी बनती है, जबकि " जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्धते, अपक्षयते, विनश्यति " ये क्रियायें कुछ काकमें हो सकें । स्वतंत्रपना, बनायागयापना, असाधकतमपना, सम्प्रदानता, अपादानता, अधिकरणता ये क्षणिकपक्ष में नहीं सम्भवते हैं । क्षणिक पक्ष में अहमिंद्रोंके समान सभी परमाणुयें न्यारे न्यारे राजा हैं । अतः यह इसका कार्य है, यह इसका कारण है, यह निर्णय करना क्षणिकपक्ष में दुर्घट है। सभी क्षणिक परिणामोंको सर्वथा भिन्न माननेपर सादृश्यका असम्भव है । वैसादृश्य में भी कुछ मिलना हो जानेकी आवश्यकता है, तभी विसशोका भाववैसादृश्य सम्बन्ध घटित होता है। भैंसा और बैलमें पशुपन, जीवपन या द्रव्यत्वसे सादृश्य होनेपर ही वैसादृश्य शोभता है । लक्ष्मण और रावण में प्रतियोगित्व ( शत्रुभाव) सम्बन्ध था | अपने त्रिकालवर्त्ती परिणामोंकी सन्तान और अन्य जीवोंकी सन्ताने तो अन्वेता द्रव्यके माननेपर ही घटिल होती है, अन्यथा नहीं । और समुदाय तो अनेक क्षणोंका कथंचित् एकीकरण करनेपर ही बनता है देशिक समुदाय और कालिक समुदाय तो परिणामोंका कथंचित् एकीभाव माननेपर सम्भवता है। तथा मरके जन्म तो वही ले सकेगा जो यहां से वहांतक अन्वित रहेगा । मरा तो कोई क्षण और किसी अन्य क्षणिक परिणामने जन्म के लिया तो उसका प्रेत्यभाव नहीं माना जा सकता है । ऐसी दशामें पुण्य, पापके, भोग भी उसको नहीं मिल सकेंगे । इसका अष्टसहस्री में अच्छा विचार किया गया है । क्वा प्रत्ययवाले वाक्य दो आदि क्रियाओं में व्यापनेवाले अन्वयी द्रव्यको वांछते हैं । तथा न भी क्षणिक मतमें नहीं प्रसिद्ध होता है । सर्वधा विभिन्न हो रहे विशेष पदार्थों में समानता नहीं सम्भवती है। इसी प्रकार क्षणिक पक्ष बन्ध, मोक्ष तत्त्वकी व्यवस्था नहीं हो सकती है । सर्वथा क्षणिकचित्त भला किससे बंध सकेगा ! नाशस्वरूप मोक्षको स्वाभाविक माननेपर सम्यक्स्व,
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aratर्थचिन्तामणिः
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संज्ञा, संज्ञी, वाक्कार्य, कर्म, आदिक आठ हेतुओंसे मोक्ष मानना विरुद्ध पडता है । जो ही बंधा था उसीकी ही मोक्ष नहीं हो सकी । अतः बौद्धोंके यहां सभी प्रकारोंसे इष्ट पदार्थोंकी प्रसिद्धि नहीं हो पाती है । हां, वास्तविक द्रव्य और पर्यायोंके मान लेने पर उक्त सभी व्यवस्था ठीक बन जाती है ।
क्षणध्वंसिन एव बहिरंतश्च भावाः क्षणद्वयस्थाष्णुत्वेपि तेषां सर्वदा नाशानुपपतेः कौटस्थप्रसंगात् क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधादवस्तुतापत्तेः । इति यो द्रव्यं निराकरोति सर्वथा सोत्रर्जुसूत्राभासो हि मन्तव्यः प्रतीत्यतिक्रमात् । प्रत्यभिज्ञानप्रतीतिर्हि बहिरंतश्चैकं द्रव्यं पूर्वोत्तरपरिणा प्रवर्ति साधयंती बाधविधुरा प्रसाधितैव पुरस्तात् । तस्मिन् सति प्रतिक्षणविनाशस्येष्टत्वान्न विनाशानुपपत्तिर्न भावानां कौटस्थापत्तिः यतः सर्वथार्थं क्रिया विरोधात् अवस्तुता स्यात् ।
बौद्ध मन्तव्य है कि सम्पूर्ण बहिरंग अन्तरंग पदार्थ एक क्षण ही ठहरकर द्वितीय क्षण में को प्राप्त हो जानेवाले हैं । यदि पदार्थोंको एक क्षणसे अधिक दो क्षण भी स्थितिशील मान किया जायगा तो सदा उन पदार्थोंका नाश हो जाना नहीं बन सकेगा, यानी कभी उनका नाश नहीं हो सकेगा। जो दो क्षण ठहर जायगा वह तीसरे आदि क्षणोंमें भी टिकेगा । ऐसी दशा हो जानेसे पदार्थों कूटस्थ नित्यपनेका प्रसंग आवेगा । कूटस्थ पक्ष अनुसार क्रम और अक्रमसे अर्थक्रिया होनेका विरोध है | अतः अवस्तुपनका प्रसंग आजायगा । अर्थात् -" द्वितीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वं क्षणिकथं " जिसकी दूसरे क्षणमें मृत्यु हो जाती है, वह क्षणिक है। सभी सदूत पदार्थ एक क्षणतक ही जीवित हो रहे हैं । दूसरें क्षणमें उनका समूलचूल नाश हो जाता है। यदि दूसरे क्षण में पदार्थका जीवन मान लिया जाय तो तीसरे, चौथे, पांचवें, क्षण आदि भी दूसरे, तीसरे, चौथे आदि क्षणोंकी अपेक्षा दूसरे क्षण हैं । अतः अनन्तकालतक पदार्थ स्थित रहा आवेगा । कभी उसका नाश नहीं हो सकेगा । जैसे कि "आज नगद कल उधार" देनेवालेको कभी उधार देनेका अवसर नहीं प्राप्त होता है । कूटस्थ पदार्थमें अर्थक्रिया नहीं होनेसे वस्तुत्वकी व्यवस्था नहीं है । अतः पहिके पीछे कुछ भी अन्वय नहीं रखते हुये सभी पदार्थ क्षणिक हैं । इस प्रकार कह रहा जो सौत्रान्तिक बौद्ध त्रिhorrant द्रव्यका खण्डन कर रहा है । आचार्य कहते हैं कि उसका वह ज्ञान सभी प्रकारोंसे ऋजुसूत्र नयाभास नियमसे मानना चाहिये । क्योंकि बौद्धोंके मन्तव्य अनुसार पदार्थोंको क्षणिक माननेपर प्रामाणिक प्रतीतियोंका अतिक्रमण हो जाता है । कारण कि प्रत्यभिज्ञान प्रमाण1 स्वरूप प्रतीति ही बाधक प्रमाणोंसे रहित होती हुई अपने पहिले पीछे कालके पर्यायोंमें वर्त रहे बहिरंग अन्तरंग एक द्रव्यको सधा रही हमने पहिले प्रकरणों में अच्छे प्रकार सिद्ध करा ही दी है । भावार्थ-स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायों में मिट्टी के समान अनेक बहिर्भूत पर्यायोंमें एक पुद्गल द्रव्यना व्यवस्थित है । तथा आगे पीछे कालों में होनेवाले अनेक ज्ञान सुख इच्छा आदि पर्यायोंमें एक
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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
अन्तरंग आत्मा द्रव्य पुवरहा है । इस नित्यद्रव्यको जाननेवाला बाधारहित प्रत्यभिज्ञान प्रमाण कहा जा चुका है । हो, द्रव्यार्थिक नय अनुसार उस अन्त्रित नित्य द्रव्यको मान चुकनेपर तो पर्यायार्थिक नयसे भावोंका प्रतिक्षण विनाश होना हमें अभीष्ट है । अतः विनाशकी असिद्धि नहीं हुई, विनाशके मान लेने पर पदार्थोंके सर्वथा कूटस्थपनका प्रसंग नहीं आ पाता है, जिससे कि कूटस्थ पदार्थमें सभी प्रकारोंसे अर्थक्रिया हो जानेका विरोध हो जानेसे अवस्तुपना आ जाता । अतः द्रव्यको नहीं निवारते हुये क्षणिक पर्यायोंको विषय करनेवाला ऋजुसूत्र नय है और सर्वथा निरन्वय क्षणिक परिणामोंको जाननेवाला ऋजुसूत्र नयाभास है ।
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योपि च मन्यते परमार्थतः कार्यकारणभावस्याभावान्न ग्राह्मग्राहकभावो वाच्यवाचकभावो वा यतो बहिरर्थः सिध्येत् । विज्ञानमात्रं तु सर्वमिदं त्रैधातुकमिति, सोपि चर्जुसूत्राभासः स्वपरपक्षसाधनदूषणाभावप्रसंगात् ।
विचारा जाय तो न कोई सौत्रान्तिकके यहां विषयको बनने से प्राह्मग्राहक भाव
जो भी योगाचार बौद्ध यों मान रहा है कि वास्तविक रूपसे किसीका कारण है और कोई किसीका कार्य भी नहीं है । हमारे भाई कारण और ज्ञानको कार्य माना गया है। किन्तु कार्यकारणभावके नहीं भी हम शुद्धसम्बेदन | द्वैतवादियों के यहां नहीं बनता है और वाध्यवाचकभाव भी हमारे यहां नहीं माना गया है। जिससे कि बहिरंग अर्थोकी सिद्धि हो सके । यह सम्पूर्ण जगत् तो केवळ विज्ञान स्वरूप है । कार्यकारणभाव या प्राह्मग्राहकभाव अथवा वाच्यवाचकभाव इन तीनों धातुओंका समुदाय विज्ञानमय है । शुद्ध विज्ञानके अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं है। इस प्रकार मान रहे योगाचारका वह विचार भी ऋजुसूत्र नयामास है । क्योंकि कार्यकारणभाव आदिको वास्तविक माने बिना स्वपक्ष के साधन और परपक्ष के दूषण देनेके अभावका प्रसंग हो जावेगा । ज्ञेयज्ञायक माननेपर और वायवाचक माननेपर स्वपक्षसिद्धि और परपक्षदूषण को वचन द्वारा समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं ।
लोकसंवृत्या स्वपक्षस्य साधनात् परपक्षस्य बाधनात् दूषणाददोष इति चेन्न, लोकसंवृतिसत्यस्य परमार्थसत्यस्य च प्रमाणतोसिद्धेः तदाश्रयणेनापि बुद्धानामधर्मदेशना दुषणद्वारेण धर्मदेशनानुपपत्तेः ।
जाता
कल्पित लोकव्यवहारसे स्वपक्षका साधन और परपक्षका बाधन हो जानेसे दूषण दे दिया है । अतः कोई दोष नहीं है। अब आचार्य कहते हैं कि इन विज्ञानाद्वैतवादियोंको यह तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि लौकिक व्यवहारसे सत्य हो रहे और परमार्थरूपसे सत्य हो रहे पदार्थ की तुम्हारे यहां प्रमाणोंसे सिद्धि नहीं हो सकी है। अतः उस लोकव्यवहारका आश्रय करने से भी बुद्ध भगवानोंका अधर्म उपदेशके दूषणद्वारा धर्म उपदेश देना नहीं बन सकता है । अर्थात् धर्मका
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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उपदेश तभी सिद्ध हो पाता है, जब कि अधर्मके उपदेशमें दूषण उठाये जा सकें । ये सब वाच्यवाचक भाव माननेपर और लोकव्यवहारको सत्य माननेपर सध सकता है। अन्यथा नहीं । और यों मान लेनेसे तो योगाचारके यहां द्वैतपनका प्रसंग माया ।
एतेन चित्राद्वैतं, संवेदनाद्वैत, क्षणिकमित्यपि मननमृजुसूत्राभासतामायातीत्युक्तं वेदितव्यं ।
इस उक्त कथनसे बौद्धोंका चित्राद्वैत अथवा सम्वेदनाद्वैतको क्षणिक मानना यह भी ऋजुसूत्राभासपने को प्राप्त हो जाता है, यह कह दिया गया समझ लेना चाहिये । अर्थात्-ज्ञानके नीलाकार, पीताकार, हरित आकार,क्षणिकत्व बाकार,विशेष आकार, इन आकारोंका पृथक् विवेचन नहीं किया जा सकता है । अतः स्वयं रुचती हुयी चित्रताको धारनेवाला यह चित्राद्वैत ज्ञान है, ऐसा बाद भी कुनय है । ग्राह्य, ग्राहक, सम्पित्ति इन तीनों विषयोंसे रहित माना जा रहा शुद्ध सम्बेदन अद्वैत भी ऋजुसूत्रका कुनय जान लेना चाहिये ।
किं च सामानाधिकरण्याभावो द्रव्यस्योभयाधारभूतस्य निवात् । तथा च कुतः । शदादेर्षिशेष्यता क्षणिकत्वकृतकत्वादेः साध्यसाधनधर्मकलापस्य च तद्विशेषणता सिध्येत तदसिदौ च न साध्यसाधनभावः साधनस्य पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वानुपपतेः । कल्पनारोपितस्य साध्यसाधनमावस्येष्टेरदोष इति चेन, बहिरर्थत्वकल्पनायाः साध्यसाधनधर्माधारानुपपत्ते, कचिदप्याधाराधेयतायाः संभवाभावात् ।
अणिकवादी बौद्धोके यहां दूसरे ये दोष भी आते हैं कि क्षणिक परमाणुरूप पक्षमें समान अधिकरणपना नहीं बनता है। क्योंकि दो परिणामोंके आधारभूत समानद्रव्यको स्वीकार नहीं किया गया है और तैसा होनेपर शब्द आदिको विशेष्यपना नहीं सिद्ध हो सकेगा। तथा क्षणिकत्व बादिक साध्य और कृतकत्व आदिक साधनभूत धोके समुदायको उन शब्द आदि पक्षका विशेषणपना नहीं बन पावेगा और जब विशेष्यविशेषण भाव सिद्ध नहीं हो सका तो क्षणिकत्व और कृतकत्वमें साध्य, हेतु, पना नहीं बन सका । ऐसी दशामें हेतुके धर्म माने गये पक्षवृत्तित्व और सपक्षसत्व नहीं सिद्ध हो पाते हैं । अर्थात्-शद ( पक्ष ) क्षणिक है ( साध्य ) कृतक होनेसे (हेतु ) यहां अनुमान प्रयोगमें पक्ष विशेष्य होता है। बाध्य और हेतु उसमें विशेषण होकर रहते हैं । हेतुमें पक्षवृत्तित्व,
पक्षसत्व और विपक्षव्यावृत्तत्व ये तीन धर्म रहते हैं तथा पक्षमें रहनेकी अपेक्षा हेतु और साध्यका सामानाधिकरण्य है। अतः हेतुमें ठहरनेकी अपेक्षा पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षन्यावृत्ति इन तीनों धर्मों में समान अधिकरणपना है । कालान्तरस्थायी सामान्य पदार्थ या द्रव्यके माननेपर ही समानाधिकरणपना बनता है, अन्यथा नहीं । यदि बौद्ध यों कहें कि कल्पनासे आरोप कर लिया गया साध्यसाधन भाव हमको अभीष्ट है, अतः कोई दोष नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं
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तत्त्वार्थ चोकवार्तिके
कहना । क्योंकि बहिरंग अर्थपनेकी कल्पनाको साध्यधर्म और साधनधर्मका आधारपना नहीं बन सकता है । तुम्हारे यहां कहीं भी तो वास्तविक रूपसे आधार, आधेय, भावकी सम्भावना नहीं मानी गयी है। कचित् मुख्यरूपसे सिद्ध हो रहे पदार्थका अन्यत्र उपचार कर लिया जा सकता है। सर्वथा कल्पितपदार्थ तो किसीका आधार नहीं हो सकता है । लोकमें पतनका प्रतिबन्ध करनेवाले वस्तुभूत पदार्थको किसीका आधार माना गया है । कल्पित थंभा सतखनी हवेली के बोझको नहीं डाट सकता है। अतः क्षणिक पक्षमें आधार आधेयभाव नहीं बना ।
किं च, संयोगविभागाभावो द्रव्याभावात् क्रियाविरहश्च ततोन कारकव्यवस्था यतः किचित्परमार्थतोऽर्थक्रियाकारि वस्तु स्यात् । सदृशेतरपरिणामाभावश्च परिणामिनो द्रव्यस्यापसवात् । ततः स्वपरसंतानव्यवस्थितिविरोधः सदृशेतरकार्यकारणानामत्यंतमसंभवात् । समुदायायोगश्च, समुदायिनो द्रव्यस्यानेकस्यासमुदायावस्थापरित्यागपूर्वकसमुदायावस्थामपाददानस्यापहवात् । तत एव न प्रेत्यभावः शुभाशुभानुष्ठानं तत्फलं च पुण्यं पापं बंधी वा व्यवतिष्ठते यतो संसारमोक्षव्यवस्था तत्र स्यात् सर्वथापीष्टस्यामसिद्धः।
और भी यह बात है कि बौद्धोंके यहाँ द्रव्य नहीं माननेसे संयोग और विभागका अभाव हो जाता है तथा क्षणिक पक्षमें क्रियाका विरह है, तिस कारणसे क्रियाकी अपेक्षा होनेवाले कार - कोंकी व्यवस्था नहीं हो पाती है । जिससे कि कोई वस्तु वास्तविकरूपसे अर्थक्रियाको करनेवाली हो जाती। तथा बौद्धोंके यहां परिणामी द्रव्यका अपह्नव (छिपाना) करनेसे सदृश परिणाम (सादृश्य) और विसदृश परिणाम ( वैसादृश्य ) का अभाव हो जाता है और ऐसा हो जाने से अपने पूर्व अपर क्षणोंके संतानकी व्यवस्थाका और दूसरों के चित्तोंके सन्तानकी व्यवस्था कर देनेका विरोध आता है। क्योंकि सदृश कार्य कारणों और विसदृश कार्यकारणोंका तुम्हारे यहां अत्यन्त असम्भव है। ऐसी दशामें सन्तानोंका सांकर्य हो जानेसे तुम स्वयं अपने डीलमें स्थिर नहीं रह सकते हो । तथा क्षणिक पक्षमें समुदाय नहीं बन सकता है । क्योंकि अनेकमें स्थिर हो रहे और असमुदाय अवस्थाका परित्यागपूर्वक समुदाय अवस्थाको ग्रहण कर रहे एक समुदायी द्रव्यका जान बूझकर छिपाव किया गया है । तिस ही कारण यानी एक अन्वेता द्रव्यके नहीं स्वीकार करनेसे बौद्धोंके यहां मर कर जन्म लेना या शुभ, अशुभ, कर्मोका अनुष्ठान करना अथवा उन शुभाशुभ कर्मोका फल पुण्य, पाप, प्राप्त होना, तथैव उन पुण्य, पापका, आत्माके साथ बन्ध हो जाना आदिकी व्यवस्था नहीं हो पाती है, जिससे कि उस क्षणिक पक्षमें संसार और मोक्षकी व्यवस्था बन सके । सभी प्रकारोंसे इष्ट हो रहे पदार्थोकी प्रसिद्धि नहीं हो सकी है । अतः बौद्धोंके विचार कुनय हैं।
___ संवृत्या हि नेष्टस्य सिद्धिः संवृतेमषात्वात् । नापि परमार्थतः पारमार्थिकैकद्रव्यसि दिप्रसंगात् तदभावे तदनुपपत्तेरिति परीक्षितमसद्विद्यानंदिमहोदये ।
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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व्यावहारिक कल्पना करके तो तुम बौद्धों के यहांइष्ट पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है । क्योंकि संवृत्तिको झूठा माना गया है । और वास्तविकरूपसे भी तुम्हारे यहां इष्ट तत्त्वोंकी सिद्धि नहीं हो सकती है । क्योंकि यों तो परमार्थभूत हो रहे एक अन्वित त्रिकालवर्ती द्रव्यकी सिद्धि हो जानेका प्रसंग हो जावेगा । उस परिणामी अन्वेता द्रव्यको नहीं माननेपर तो वास्तविक इष्ट हो रहे धर्मोपदेश, साध्यसाधनभाव, प्रेत्यभाव, बन्ध, मोक्ष, आदि इष्टपदार्थोंकी सिद्धि नहीं हो सकेगी । इस सिद्धान्त हम हमारे बनाये हुये " विद्यानन्दमहोदय" नामक ग्रन्थमें कई बार परीक्षा कर चुके हैं । विशेष जिज्ञासुओं को उस ग्रन्थका अध्ययन कर अपनी तृप्ति कर लेनी चाहिये । यहां अधिक विस्तार नहीं किया जाता है ।
शब्दनयमुपवर्णयति ।
चार अर्थ नयोंका वर्णन कर अब श्री विद्यानन्द स्वामी शब्दनयका सुमधुर वर्णन करते हैं । कालादिभेदतोर्थस्य भेदं यः प्रतिपादयेत् ।
सोत्र शब्दनयः शब्दप्रधानत्वादुदाहृतः ॥ ६८ ॥
1
जो नय काल, कारक, लिंग आदि के भेद अर्थके भेदको समझा देता है, वह नय यहां शब्दकी प्रधानता से शब्दनय कह दिया गया है । अर्थात् शब्दके वाध्य अर्थपर दृष्टि कराने की अपेक्षा यह नय शब्दनय है । पहिलेके चार नयोंकी दृष्टि शब्द के वाध्य अर्थका लक्ष्य रखते हुये नहीं थी । " शब्दप्रधानो नयः शब्दनयः " " अर्थप्रधानो नयः अर्थनयः " I
काळकारकलिंगसंख्यासाधनोपग्रह भेदाद्भिन्नमर्थ शपतीति शब्दो नयः शब्दप्रधानस्वादुदाहृतः । यस्तु व्यवहारनयः कालादिभेदेप्यभिन्नमर्थमभिप्रैति तमनूद्य दूषयन्नाह ।
भूत, भविष्यत्, वर्तमान, काल या कर्म, कर्त्ता, कारण, आदि कारक अथवा स्त्री, पुम्, नपुंसकलिंग, तथा एक वचन, द्विवचन बहुवचन संख्या और अस्मद् युष्मद् अन्य पुरुषके अनुसार उत्तम, मध्यम, प्रथम, पुरुष संज्ञाओंका साधन एवं प्र, परा, उप, सम् आदि उपसर्ग, इस प्रकार इनका आदि भेदों से जो नय भिन्न अर्थको चिल्लाता हुआ समझा रहा है, यों यह शब्दमयका निरुक्तिले अर्थ लब्ध हो जाता है । शब्दकी प्रधानतासे शब्दनय कहा गया है । और इसके पूर्वमें जो व्यवहारनय कहा गया है, वह तो काळ, आदिके भेद होनेपर भी अभिन्न अर्थको समझानेका अभिप्राय रखता है । उस व्यवहार नयको अनुवाद कर श्रीविद्यानन्द स्वामी दूषित कराते हुये स्पष्ट कथन करते हैं ।
विश्वदृश्वास्य जनिता सूनुरित्येकमाहृताः । पदार्थ कालभेदेपि व्यवहारानुरोधतः ॥ ६९ ॥
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
करोति क्रियते पुष्यस्तारकऽऽपोऽभ इत्यपि । कारकव्यक्तिसंख्यानां भेदेपि च परे जनाः ॥ ७० ॥ एहि मन्ये रथेनेत्यादिकसाधनभिद्यपि । संतिष्ठेतावतिष्ठतेत्याधुपग्रहभेदने ॥७१॥ तन श्रेयः परीक्षायामिति शद्धः प्रकाशयेत् । कालादिभेदनेप्यर्थाभेदनेतिप्रसंगतः ॥ ७२ ॥
विश्वं दृष्टवान् इति विश्वदृश्वा, जो सम्पूर्ण जगतको पहिले देख चुका है, वह विश्वदृश्या कहा जाता है । जनिता यह "जनी प्रादुर्भावे " धातुके लुट् लकारका भविष्यकालका व्यंजक रूप है। भूतकालसम्बन्धी विश्वदश्वा और भविष्यत्काळसम्बन्धी जनिताका समानाधिकरण होकर अन्वय हो जाना विरुद्ध है । किन्तु व्यवहारके अनुसार काळमेद होनेपर मी इस सिद्धार्थ राजाके " विश्वको देख चुका पुत्र होगा" इस प्रकार एक ही पदार्यका सादर ग्रहण किया जा चुका है। भावार्थ-व्यवहारनय विश्वदृश्वा और जनिता पदोंका सामानाधिकरण्य कर एक अर्थ जोड देती है। इसमें विशिष्ट चमत्कारके अर्थको निकालना व्यवहारनयको अभिप्रेत नहीं है । जो ही विश्वं दृक्ष्यतिका अर्थ है, वही विश्वदृश्वाका अर्थ वटित हो जाता है । न्यारे न्यारे काठोंका विशेषण लग जानेसे अर्थमें भेद नहीं हो जाता है । तथा " देवदत्तः कटं करोति ” देवदत्त चटाईको बुनता है और " देवदत्तेन कटः क्रियते " देवदत्त करके चटाई बुनी जा रही है, यहां स्वतंत्रता और पराधीनताका भेद होते हुये मी व्यवहारनय उक्त दोनों वाक्योंका एक ही अर्थ माने हुये है । कर्ता. कारक और कर्मकारकके भेदसे अर्थका भेद नहीं हो जाता है । तथा एक व्यक्ति पुष्यनक्षत्र, और तारका अनेक व्यक्ति, इस प्रकार एक अनेक या पुंल्लिंग, स्त्रीलिंगका, भेद होनेपर भी दूसरे मनुष्य यहां अर्थभेद नहीं मानते हैं। ऐसे ही " आप " यह शद्ध बहुवचन है, स्त्रीलिंग है
और " अम्मः " शब्द एकबचन है नपुंसकलिंग है । ये दोनों शब्द पानीको कहते हैं। यहां भी लिंग और संख्याके भेद होनेपर भी अनेक मनुष्य व्यवहार नयके अनुसार अर्थभेदको नहीं मानते हैं । तथा "ये बालक इधर आओ" तुम यह समझते होंगे कि मैं रथपर चढकर जाऊंगा, किन्तु अब तुम समझो कि मैं नहीं जा सकूँगा । तुम्हारा पिता चला गया। (तेरा बाप भी कमी गया था !), ऐसे उपहासके प्रकरणपर मध्यमपुरुषके स्थानपर उत्तमपुरुष और उत्तमपुरुषके स्थानपर मध्यमपुरुष हो जाता है। मध्यमपुरुष " मन्यसे के स्थान पर उत्तमपुरुष " मध्ये " हो गया है और यास्यामि के स्थानपर यास्यसि हो गया है । यहां साधनका मेद होनेपर भी व्यवहार
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नय की अपेक्षा कोई अर्थमेद नहीं माना गया है । " मन्यसे, यास्यामि" का जो अर्थ निकलता है, वही " मन्ये " " यास्यसि" का अर्थ है। किन्तु शब्दनयके अनुसार दूसरेके मानसिक विचारोंका अनुवाद करनेमें या हंसीमें ऐसा परिवर्तन हुआ है। व्याकरणमें युष्मत्, अस्मत् का ही बदलना कहा है, प्रथम पुरुषका भी सम्भव जाता है। देखिये, एक मित्र दूसरेसे कह रहा है कि वह तीसरा देवदत्त मनमें विचारता होगा कि मैं रथमें बैठ कर जाऊंगा, किन्तु नहीं जायगा उसका पिता गया । ' एतु मन्ये रथेन यास्यति यातस्ते पिता' यहां मन्यतेके स्थानपर मन्ये और यास्यामिके बदले यास्यति हो सकता है । किन्तु इसका निषेध कर दिया है। तथा " समवप्रविभ्यः स्थः " इस सूत्रसे बात्मने पद करनेपर संतिष्ठेत, अप्रतिष्ठेत, प्रतिष्ठेत, या संहरति, विहरति, परिहरति, आहरति, यहां उपसर्गोके भेद होनेपर भी स्थूलबुद्धि व्यवहारियोके यहां एक ही अर्थ सगझा जा रहा है। " उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते " इस नियमको माननेके लिये वे बाध्य नहीं होना चाहते हैं। किन्तु ये उक्त प्रकार उनके मन्तव्य परीक्षा करनेपर श्रेष्ठ नहीं ठहर सकेंगे। इस प्रकार शब्दनय प्रकाशित कर देवेगा । क्योंकि काल, कारक आदिके भेद होनेपर भी यदि अर्थका भेद नहीं माना जायगा तो अतिप्रसंग हो जावेगा । तू और तुम या आहार और परिहार, पठ्यते, पठामि इत्यादिके प्रसिद्ध हो रहे मिन्न मिन्न अर्थोके एक हो जानेसे जगत्में अनर्थ हो जावेगा। समर्थ भी व्यर्थ हो जावेगा।
ये हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन 'धातुसंबंधे प्रत्यया' इति सूत्रमारभ्य विश्वश्वास्य पुत्रो जनिता भावि कृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेप्येकपदार्थमाहता यो विश्वं दृक्ष्यति सोस्य पुत्रो जनितेति भविष्यकाळेनातीतकालस्याभेदोभिमतः तथा व्यवहारदर्शनादिति । तन्न श्रेयः परीक्षायां मूलक्षतेः कालभेदेप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसंगात् रावणशंखचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्तेः । आसीद्रावणो राजा शंखचक्रवर्ती भविष्यतीति शद्वयोमिनविषयत्वान्नैकार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत् तत एव । न हि विश्वं दृष्टवानिति विश्वदृश्वेतिशतस्य योर्चातीतकालस्य जनितेति शद्धस्यानागतकालः। पुत्रस्य भाविनोतीतत्वविरोधात् । अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत्, तर्हि न परमार्थतः कालभेदेप्यभिन्नार्थव्यवस्था ।
जो भी कोई पण्डित व्याकरणशास्त्र जाननेवालोंके व्यवहारकी नीतिके अनुरोधसे यों अर्थ मान बैठे हैं, लकारार्थ प्रकियाके " धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः " धातुके अर्थोके सम्बन्धमें जिस कालमें जो प्रत्यय पूर्व सूत्रोंमें कहे गये हैं, वे प्रत्यय उन कालोंसे अन्य कालोंमें भी हो जाते हैं, इस सूत्रका आरम्भ कर विश्वको देख चुकनेवाला पुत्र इसके होगा या होनहार जो कर्तव्य होनेवाला था यह होगया, चार दिन पीछे आनेवाली चतुर्दशी एक तिथिका क्षय हो जानेसे तीन दिन
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तत्वार्य शोकवार्तिके
पीछे ही आगई, ऐसे इन प्रयोगोंमें काळभेद होनेपर भी एक ही वाच्यार्थका वे पण्डित आदर कर मान बैठे हैं । जो सम्पूर्ण जगत्को देखेगा वह प्रसिद्ध पुत्र इस ( महासेन राजा ) के होगा, इस प्रकार भविष्यमें होनेवाले कालके साथ अतीतकाळका अभेद मान लिया गया है। क्योंकि स्थूल बुद्धिवालोंकी मातृभाषामें तिस प्रकारका व्यवहार हो रहा देखा जाता है । प्रमुने किसी मृत्यको द्वितीयाके दिन आज्ञा दी की एकादशीको तुम दूसरे गांवको जाना, वहां डाकुओंका प्रम्बध करना है। अपने कुटुम्बमें ही रहते हुये भृत्यको प्रामान्तरको जाना अभीष्ट नहीं था । वह नौमीको विचारता है कि अरे, बहुत शीघ्र परसों हि एकादशी हो गई खेद है । " श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगद् जग. निवासो वसुदेव सद्मनि । वसन्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिरण्यगर्भागभुवं मुनि हरिः" इत्यादि स्थलोंपर वसन् ( वर्तमानकाल ) और ददर्श ( भूतकाल ) के भेद होनेपर मी एक अर्थकी संगति कर दी गयी है। अब शब्दनयका आश्रय कर आचार्य महाराज कहते हैं कि परीक्षा करनेपर वह वैयाकरणोंका मन्तव्य श्रेष्ठ नहीं ठहरता है, इसमें मूलसिद्धान्तकी क्षति हो जाती है । यदि कालका भेद होनेपर भी अर्थका भेद नहीं माना जावेगा तो अतिप्रसंग दोष होगा। अतीतकालसम्बन्धी रावण और भविष्य कालमें होनेवाले शंख नामक चक्रवर्तीका एकपना प्राप्त हो जावेगा । अर्थात्-रावण और चक्रवर्ती दोनों एक व्यक्ति बन बैठेंगे । कोई इस प्रसंगका यों वारण करना चाहता है कि रावण राजा पूर्वकालमें हुआ था और शंखनामक चक्रवर्ती भविष्यकालमें होगा। इस प्रकार दो शब्दोंकी मिन्न भिन्न अर्थोमें विषयता है । इस कारण दोनों राजा एक व्यक्तिरूप अर्थ नहीं पाते हैं। आचार्य कहते हैं कि यों कहनेपर तो प्रकरणमें विश्वदृश्वा ( भूतकाल ) और जनिता ( भविष्यकाल ) इन दो शब्दोंका मी तिस ही कारण यानी मिन मिन्न अर्थको विषय कर देनेसे ही एक अर्थपना नहीं होओ । कारण कि देखो जो सबको देख चुका है, ऐसे इस विश्वदृश्ना शब्दका जो अर्थ भूतकाल सम्बन्धी पुरुष होता है, वह भविष्यकाल सम्बन्धी उत्पन्न होवेगा, इस जनिता शब्दका अर्थ नहीं है। भविष्यकाळमें होनेवाले पुत्रको अतीतकाल सम्बन्धीपनका विरोध है । जैसे कि स्वर्ग और पातालके कुलावे नहीं मिलाये जा सकते हैं, उसी प्रकार कोई भी पुत्र एक टांग चिर अतीतकाल की नावपर और दूसरी टांगको भविष्यकालकी नावपर धरकर नहीं जन्मता है । फिर भी यदि कोई यों कहें कि भूतकालमें भविष्यकाळपनेका अध्यारोप करनेसे दोनों शब्दोंका एक अर्थ अभीष्ट कर लिया गया है, तब तो हम कहेंगे कि कालभेद होनेपर भी वास्तविकरूपसे अर्थोके अभेदकी व्यवस्था नहीं हो सकी । बस, यही तो शब्दनयद्वारा हमें समझाना है। विश्वं दृश्यति सोऽस्य पुत्रो जनिता इसके सरल अर्थसे विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता इसका अर्थ चमत्कारक है । ''तुम पढोगे और मैं तुमको देखूगा" इसकी अपेक्षा पढ चुके हुये तुमको में देखेंगा, इसका अर्थ विलक्षण प्रतीत हो रहा है । थोडेसे चमत्कारसे ही सालङ्कारता आ जाती है। साहित्य कलामें और क्या रक्खा है ! प्रकृष्ट विद्वान् तो "शास्त्रेषु भ्रष्टाः कवयो भवन्ति" ऐसा कहा करते हैं।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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तथा करोति क्रियते इति कारकयोः कतृकर्मणोर्भेदेप्यभिन्नमर्थत एवाद्रियंते स एव करोति किंचित् स एव क्रियते केनचिदिति प्रतीतेरिति । तदपि न श्रेयः परीक्षायां । देवदत्तः कटं करोतीत्यत्रापि कर्तृकर्मणोर्देवदत्तकटयोरभेदप्रसंगात् ।
तिस ही प्रकार वे वैयाकरण जन " करोति " इस दशगणीके प्रयोगकी संगतिको करने - वाले कर्त्ता कारक और किया जाय जो इस प्रकार कर्म प्रक्रिया के पद की संगति रखनेवाले कर्मकारक इन दो कारकोंका भेद होनेपर भी अभिन्न अर्थका आदरपूर्वक ग्रहण कर रहे हैं । देवदत्त किसी अर्थको कर रहा है, इसका जो हि अर्थ है और किसी देवदत्त करके कुछ किया जाता है, इसका भी वही अर्थ है, ऐसी प्रतीति हो रही है । इस प्रकार वैयाकरणों के कहनेपर आचार्य कहते हैं कि परीक्षा करने पर वह भी श्रेष्ठ नहीं ठहर पायेगा। क्योंकि यों कर्त्ता और कर्मके अभेद माननेपर तो देवदत्त चटाईको रचता है । इस स्थळमें भी कर्ता हो रहे देवदत्त और कर्म बन रहे चटाई के अभेद हो जानेका प्रसंग हो जावेगा । अतः स्वातंत्र्य या परतंत्रताको पुष्ट करते हुहे यहां भिन्न भिन्न अर्थका मानना आवश्यक है ।
तथा पुष्यस्तारके (का इ) त्यत्र व्यक्तिभेदेपि तत्कृतार्थमेकमाद्रियंते, लिंगमशिष्यं लोकाश्रयत्वादिति । तदपि न श्रेयः, पटकुटीत्यत्रापि पटकुट्योरेकत्वप्रसंगात् तल्लिंग भेदाविशेषात् ।
तिसी प्रकार वे वैयाकरण पुष्पनक्षत्र तारा है, यहां व्यक्तियां या लिंग के भेद होनेपर भी के द्वारा किये गये एक ही अर्थका आदर कर रहे हैं। कई ताराओंका मिल कर बना एक पुष्यनक्षत्र माना गया है । तथा पुष्य शद्व पुल्लिंग है, और तारका शद स्त्रीलिंग है । फिर भी दोनोंका अर्थ एक है । उन व्याकरणवेत्ताओंका अनुभव है कि लिंगका विवेचन कराना शिक्षा देने योग्य नहीं है । किसी शद्बके लिंगका नियत करना लोकके आश्रय है । लोकमें अग्नि श स्त्रीलिंग कहा जाता है । किन्तु शास्त्र में पुल्लिंग है, विधि शद्वका भी यही हाल है । इंग्रेजीमें चंद्रमाको स्त्रीलिंग माना गया है । एक ही स्त्रीको कहनेवाले दार स्त्री, कलत्र, शद न्यारे लिंगोंको धार रहे हैं। आयुधविशेषको कहनेवाला शक्ति शद्व स्त्रीलिंग है । अस्त्र शब्द नपुंसकलिंग है । अब आचार्य कहते हैं कि वह वैयाकरणका कथन भी श्रेष्ठ नहीं है । क्योंकि व्यक्ति या लिंगका भेद होनेपर भी यदि अर्थ भेद नहीं माना जायगा तो पुलिंग पट और स्त्रीलिंग घडिया या झोंपडी यहां भी पट और कुटीके एक हो जानेका प्रसंग हो जायगा। क्योंकि उन शब्दों के लिंगका भेद तो अन्तररहित है, यानी जैसा पुष्प और तारकामें लिंगका भेद है, वैसा ही पट और कुटीमें लिंगका भेद है । फिर इनका एक अर्थ क्यों नहीं मान लिया जावे ।
तथापोंभ इत्यत्र संख्याभेदेप्येकमर्थं जळाख्यमादृताः संख्याभेदस्या भेदकत्वात् गुर्वादिवदिति । तदपि न श्रेयः परीक्षायां । घटस्तंतव इत्यत्रापि तथाभावानुषंगात् संख्याभेदाविशेषात् ।
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तिसी प्रकार वे वैयाकरण आपः इस स्त्रीलिंग बहुवचन शब्द और " अम्भः इस नपुंसकलिंग एक वचन शब्द यहां संख्या मेद होनेपर एक जल नामक अर्थका आदरण कर बैठ गये हैं । उनके यहां संख्याका भेद अर्थका भेदक नहीं माना गया है, जैसे कि गुरु, साधन आदि में संख्याका भेद होनेपर अर्थ भेद नहीं है । अर्थात् - " कोष्ठेष्टिकापाषाणः गुरुः " मृत्तिकादण्डकुळाळाः घटसाधनं” अन्नप्राणाः गुरुत्रः सन्ति " यहां संख्या मेद होनेपर भी अर्थभेद नहीं है । एक गुरु व्यक्तिको या राजाको बहुवचनसे कहा जाता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि वह वैयाकरणोंका कथन भी परीक्षाकी कसौटीपर श्रेष्ठ नहीं उतरता है। देखो, यों तो एक घट और अनेक तंतुयें यहां भी संख्या के भेदसे तिस प्रकार एकपन हो जानेका प्रसंग होगा । क्योंकि संख्या का भेद " आपः " और " जळ ' के समान घट और तंतुओंमें एकसा है। यहां वहां कोई विशेषता नहीं है । किन्तु एक घट और अनेक तंतुओंका एक अर्थ किसीने भी नहीं स्वीकार किया है | अतः शब्दनय संख्याका मेद होनेपर अर्थके मेदको व्यक्तरूपसे बता रहा है ।
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एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेपि पदार्थमभिन्नमादृताः “ प्रहासे मन्यवाचि युष्नन्मन्यतेरस्मदेकवच्च " इति वचनात् । तदपि न श्रेयः परीक्षायां, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्युष्प्रत्साधना भेदेप्येकार्थत्वप्रसंगात् ।
विदूषक, इधर आओ, तुम मनमें मान रहे होगे कि मैं उत्तम रथ द्वारा मेढे में जाऊंगा किन्तु तुम नहीं जाओगे, तुम्हारा पिता भी गया था ? इस प्रकार यहां साधनका भेद होनेपर भी वे व्यवहारी जन एक ही पदार्थको आदर सहित समझ चुके हैं। ऐसा व्याकरणमें सूत्र कहा है कि जहां बढिया हंसी करना समझा जाय वहां " मन्य " धातुके प्रकृतिभूत होनेपर दूसरी धातुओंके उत्तम पुरुषके बदले मध्यम पुरुष हो जाता है । और मन्यति धातुको उत्तम पुरुष हो जाता है, जो कि एक अर्थका वाचक है । किन्तु वह भी उनका कथन परीक्षा करनेपर अत्युत्तम नहीं घटित होता है । क्योंकि यों तो मैं पका रहा हूं, तू पचाता है, इत्यादिक स्थलोंमें भी अस्मद् और युष्मत् साधन के अभेद होनेपर भी एक अर्थपनेका प्रसंग होगा ।
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तथा “ संतिष्ठते अवतिष्ठत " इत्यत्रोपसर्गभेदेप्यभिन्नमर्थमादृता उपसर्गस्य धात्वमकत्वादिति । तदपि न श्रेयः । तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसंगात् । ततः काळादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसंगादिति शद्वनयः प्रकाशयति ।
तिसी प्रकार संस्थान करता है, अवस्थान करता है, इत्यादिक प्रयोगों में उपसर्गके भेद होनेपर भो अभिन्न अर्थको पकड बैठे हैं । वैयाकारणोंकी मनीषा है कि धातुके केवल अर्थका ही द्योतन करनेवाले उपसर्ग होते हैं । क्रिया अर्थके वाचक धातुऐं हैं, उसी अर्थका उपसर्ग द्योतन कर
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देते हैं । उपसर्ग किसी नवीन अर्थके वाचक नहीं हैं। इस प्रकार उनका कहना भी प्रशंसनीय नहीं है । क्योंकि यों तो ठहरता है और प्रस्थान ( गमन ) करता है, इन प्रयोगों में भी स्थितिक्रिया और गमनक्रिया के अभेद हो जानेका प्रसंग होगा । तिप्त कारणसे यह सिद्धान्त करना चाहिये कि काल, कारक, संख्या, आदिके मेद हो जानेसे शब्दों का अर्थ भिन्न ही हो जाता है । अन्यथा यानी ऐसा नहीं मानकर दूसरे प्रकारसे मानोगे तो अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात् - पण्डितमन्य, पण्डितं - मन्य या देवानां प्रिय, देवप्रिय, आदिमें भी भेद नहीं हो सकेगा । किन्तु ऐसे स्थलोंपर भिन्न भिन्न अर्थ है । इस बातको शद्वनय प्रकाशित कर देता है, यह समझो।
तद्भेदेप्यर्थाभेदे दूषणांतरं च दर्शयति ।
उस शद्वके भेद होनेपर भी यदि अर्थका भेद नहीं माना जायगा तो अन्य भी अनेक दूषण आते हैं । इस रहस्यको श्री विद्यानन्द आचार्य दिखलाते हैं ।
तथा कालादिनानात्वकल्पनं निःप्रयोजनम् । सिद्धं कालादि कार्यस्येष्टस्य तत्त्वतः ॥ ७३ ॥
तिस प्रकार माननेपर यह बडा दूषण आता है कि लकारोंमें या कृदन्तमें अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में काल, संख्या आदिके नानापनकी कल्पना करनेका प्रयोजन कुछ नहीं सिद्ध हो पाता है | एक ही काल या एक ही उपसर्ग आदि करके वास्तविकरूपसे अभीष्ट कार्यकी सिद्धि हो जायगी ।
कालादिभेदादर्थस्य भेदोस्त्विति हि तत्परिकल्पनं प्रयोजनवन्नान्यथा स च नास्तीति निःप्रयोजनमेव तत् । किं चः
कारण कि काल, कारक, लिंग आदिके भेदसे यदि अर्थका भेद ठहराओ, तब तो उन काल आदिका सभी ढंगोंसे कल्पना करना प्रयोजनसहित हो सकेगा, अन्यथा नहीं । किन्तु व्यवहार नयका आलम्बन करनेवालेके यहां वह अर्थमेद तो नहीं माना गया है । इस कारण वह काल आदिके नानापन की कल्पना करना प्रयोजनरहित ही है, दूसरी बात एक यह भी है सो सुनो !
कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैर्विधीयतां ।
येषां कालादिभेदेपि पदार्थैकत्वनिश्चयः ॥ ७४ ॥
जिन वैयाकरणों यह काळ, कारक आदिके भेद होनेपर भी पदार्थके एकपनेका निर्णय हो रहा है । पर्वते वसति, पर्वतमधिवसति इन दोनोंका अर्थ एक ही है । दार और अबकाका एक ही अर्थ है । उन व्यवहारियों करके अनेक काळ, कारक, लिंग, आदिमें से किसी एक ही कालकी
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या कारक आदिकी कल्पना कर लेनी चाहिये । तीन काल, छह कारक, तीन लिंग, प्र, परा, आदि अनेक उपसर्ग क्यों माने जा रहे हैं । शब्दकृत और अर्थकृत गौरव क्यों लादा जा रहा है ! अतः शब्दशक्तिके अनुसार परिशेषमें उनको अर्थभेद मानना आवश्यक पडेगा। पर्वतके ऊपर सामान्य पथिकके समान निवास करनेपर पर्वतमें निवास कहा जाता है। और पर्वतके ऊपर अधिकार कर पर्वतका आक्रमण करते हुये वीरतापूर्वक जो पर्वतके ऊपर निवास किया जाता है, वहां " उपान्वध्याङ् वसः " इस सूत्रसे आधारकी कर्म संज्ञा होकर द्वितीया हो जाती है । विनीत, निर्बल, सुकुमार स्त्रीके लिये अबळा शब्द आता है। तथा पुरुषार्थ रखनेवाली और अवसरपर दुष्टोंको हथखंडे लगानेवाली स्त्री के लिये दार शब्द प्रयुक्त किया जाता है । गिलका भेद, कारकका भेद, उपसर्ग आदिकका भेद व्यर्थ नहीं पडता है।
कालभेदेप्यभिन्नार्थः । कालकारकलिंगसंख्यासाधनभेदेभ्यो भिन्नोऽर्थो न भवतीति स्वरुचिप्रकाशनमात्रं । कालादिभेदागिन्नोर्थः इत्यत्रोपपत्तिमावेदयति ।
कालके भेद होनेपर भी अर्थ अमिन ही है, काल, कारक, लिंग, संख्या, साधनके मेद हो जानेसे अर्थभिन नहीं हो पाता है। इस प्रकार वैयाकरणोंका कथन केवल अपनी मनमानी रुचिका प्रकाश करना है । वस्तुतः विचारा जाय तो काल आदिके भेदसे अर्थमें भेद हो जाता है। इस विषयमें ग्रन्थकार युक्तिको स्वयं निवेदन करें देते हैं, सुनिये ।
शद्वः कालादिभिभिन्नाभिन्नार्थप्रतिपादकः । कालादिभिन्नशद्वत्वाचाक्सिद्धान्यशद्ववत् ॥ ७५॥
शद्ध ( पक्ष ) काल, कारक, आदिकों करके मिन मिन अर्थका प्रतिपादन कर रहा है। ( साध्य ) क्योंकि वे काल, उपसर्ग आदिके सम्बन्धसे रचे गये मिन मिन प्रकारके शब्द हैं । (हेतु) जैसे कि तिस प्रकारके सिद्ध हो रहे अन्य घट, पट, इन्द्र पुस्तक आदिक शद्ध बिचारे भिन्न भिन्न अर्थोके प्रतिपादक हैं । ( दृष्टान्त )
सर्वस्थ कालादिभिन्नशद्वस्याभिन्नार्थप्रतिपादकत्वेनाभिमतस्य विवादाध्यासितत्वेन पक्षीकरणात्र केनचिद्धेतोय॑मिचारः । प्रमाणबाधित पक्षः इति चेन्न, कालादिभिन्नशद्धस्याभिन्नार्यस्वग्राहिणः प्रमाणस्य भिन्नार्थग्राहिणा प्रमाणेन बाधितत्वात् ।
वैयाकरणोंने काल, कारक, आदिसे भिन्न हो रहे जिन शब्दोंको अभिन्न अर्थका प्रतिपादकपने करके अभीष्ट कर रखा है, उन विवादमें प्राप्त हो रहेपन करके सभी शब्दोंको यहां अनुमान प्रयोगमें पक्षकोटिमें कर लिया गया है । अतः किसी भी शब्दकरके हमारे हेतुका व्यभिचार दोष नहीं हो पाता है। यदि कोई यों कहे कि आपका प्रतिज्ञारूपी पक्ष तो प्रत्यक्ष या
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अनुमान प्रमाणोंसे बाधित है । कृत शब्द या कृतक शब्द, कर्म, कार्मण, देव, देवता, जानाति, बिजानाति, आदिमें शब्दों के भेद होनेपर भी अर्थभेद नहीं दीखता है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, क्योंकि काल आदिके योगसे भिन्न हो रहे शब्द के अभिन्न अर्थपनेको ग्रहण करनेवाले प्रमाण ( ज्ञान ) की उनका भिन्न भिन्न अर्थको प्रहण करनेवाले प्रमाण करके बांधा प्राप्त हो जाती है । अर्थात्-काल आदिके भेद होनेपर पर भिन्न भिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाला प्रमाण उस अभिन्न अर्थग्राही ज्ञानका बाधक है । जो स्वयं बाध्य होकर मर चुका है, वह दूसरोंका बाधक क्या होगा ? किये गये पदार्थको कृत कहते हैं। अपनी उत्पत्तिमें अन्य कारणोंके व्यापार की अपेक्षाको रखनेवाले भावको कृतक कहा गया है । स्वार्थिक' क प्रत्ययका कथन करना तिस प्रकारके शब्दोंकी प्रसिद्धि अनुसार समझनेवाले प्रति व्यर्थ नहीं है । दूसरे ढंगोंसे काघव कर उच्चारण करनेसे उस वादीको संतोष नहीं हो सकता है । देवकी अपेक्षा देवता शब्द अधिक अर्थको लिये हुये है ।
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समभिरूढमिदानीं व्याचष्टे ।
शब्दयका विस्तार के साथ वर्णन कर श्री विद्यानन्दस्वामी अब क्रमप्राप्त समभिरूढ नयका व्याख्यान करते हैं ।
पर्यायशब्दभेदेन भिन्नार्थस्याधिरोहणात् ।
नयः समभिरूढः स्यात् पूर्ववच्चास्य निश्चयः ॥ ७६ ॥
पर्यायवाची अनेक शब्दोंके भेद करके भिन्न भिन्न अर्थका अधिरोह हो जानेसे यह नय समभिरूढ हो जाता है । पूर्वके समान इसका निश्चय कर लेना चाहिये । अर्थात् - व्यवहार नयकी अपेक्षा शब्द नयद्वारा गृहीत अर्थमें जैसे मिन अर्थपना साधा है, उसी प्रकार शब्दनयसे समभिरूढ नपके भिन्न होने का विचार कर लेना चाहिये ।
विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेपि शद्बोऽभिन्नार्थमभिप्रेति भविता भविष्यतीति च कालभेदाभिमननात् । क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्यः तारकोडुः आपो वाः अंभः सळिऴमित्यादिपर्यायभेदेपि चाभिन्नमर्थ शद्बो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननात् । समभिरूढः पुनः पर्यायभेदेपि भिन्नार्थानभित्रैति । कथं ?
विश्वको देख चुका, सबको देख चुका, या जल, सकिल, वारि अथवा स्त्री, योषित्, अबला, नारी, आदिक पर्यायवाची शब्दोंके भेद होनेपर शद्व नय इनके अर्थको अभिन्न मान रहा है । भविता ( लुट् ) और भविष्यति ( लृट्) इस प्रकार पर्यायभेद होनेपर भी कालका भेद नहीं होनेसे शद्वय दोनोंका एक ही अर्थ मान बैठा है । तथा किया जाता है, विधान किया जाता
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है। इन दोनोंका अर्थ एक है शद्वनय की अपेक्षा तो करता है, और विधान करता है दोनोंका अर्थ एक ही है । पुल्लिंग पुष्य और तिष्यका एक ही पुष्य नक्षत्र अर्थ है । स्त्रीलिंग तारका और उडुका सामान्य नक्षत्र अर्थ अमिन है । स्त्रीलिंग अप और वार शद्वका एक ही जल अर्थ है । नपुं. सकलिंग अम्भस् और सलिल शब्दोंका वही पानी एक अर्थ है । इत्यादिक पर्यायोंके भेद होनेपर भी शद्वनय तो अभिन्न अर्थोको मान रहा है। शद्वनय की मनीषा, कारक, लिंग, वचन, आदिका भेद हो जानेसे ही अर्थका भेद मानने की है । लिंग या कारकके अभेद होनेपर पर्यायवाची अनेक शब्दोंका अर्थ एक ही पडता है । किन्तु फिर यह समभिरूढ नय तो पर्यायवाची शब्दोंका भेद होनेपर मी भिन्न भिन्न अर्थोको अभिलषता है। विश्वदृश्वाका अर्थ न्यारा है। और सर्वदृश्वाका अर्थ न्यारा है । सर्व कहनेसे कुछ भी शेष नहीं रहता है । तथा करोति और विदधातिका अर्थ न्यारा है असाधारण कार्यको बढिया करनेमें “ विदधाति " आता है। अम्भस् और सलिलका अर्थ भी भिन्न भिन्न जल है। ये सब कैसे भिन्न हैं ! इस बातको स्वयं ग्रन्थकार वार्तिक द्वारा प्रतिपादन करते हैं।
इन्द्रः पुरंदरः शक्र इत्याद्या भिन्नगोचराः।
शद्वा विभिन्नशद्वत्वाद्वाजिवारणशद्ववत् ॥ ७७ ॥
सौधर्म इन्द्रके वाचक इन्द्र, पुरन्दर, शक्र, शचीपति, सहस्राक्ष इत्यादिक शब्द ( पक्ष ) भिन्न भिन्न अर्थको विषय कर रहे हैं ( साध्य ) विविध प्रकारके भिन्न शब्द होनेसे ( हेतु ) जैसे कि पक्षी या घोडेको कहनेवाला " वाजी" शब्द और हाथीको कहनेवाला न्यारा " वारण" शब्द भिन्न भिन्न अर्थोको कह रहा है । ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात्-शब्दभेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिये । पर्यायवाची शब्द न्यारे न्यारे अर्थोंमें आरूढ हो रहे हैं । हां, अनेक प्रकारकी ऋद्धि, सम्पत्ति, विभूति, देवांगनायें आदिका उत्कट ऐश्वर्य होनेसे वह सौधर्म नामका जीव इन्द्र कहलाता है । तथा पौराणिक मत अनुसार किसी नगरीका विदारण करनेसे वही जीव पुरन्दर कहा गया है। तथा जम्बूद्वीपको उलटनेकी शक्तिका धारण करनेसे वही जीव " शक" इस नामको पा गया है। और इन्द्राणीका स्वामी होनेसे शचीपति कहा गया है । जन्मे हुये जिनेन्द्र भगवान्को दो नेत्रोंसे देखता हुआ तृप्तिको नहीं प्राप्तिकर उनके दर्शन के लिये हजार नेत्रोंको बना लेनेकी अपेक्षा सहास्राक्ष कहा गया है । इसी प्रकार अन्य पर्यायवाची शब्दोंके भी भिन्न भिन्न अर्थ लगा लेना चाहिये । संकेतग्रहणके अवसरपर या भिन्न भिन्न धातु या प्रत्ययोंसे शब्दसिद्धि करते समय शब्दोंकी न्यारे न्यारे अर्थोमें रूढि हो रही अनुभवमें आ रही है । तभी तो " हन् " धातुका गति अर्थ होते हुये भी दूषित समझा जाता है। उपकारी चन्द्रमाका वर्णन करते समय "कलंकलाञ्छन" शब्दका प्रयोग निन्दनीय है।
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ननु चात्र भिन्नार्थत्वे सांध्ये विभिन्नशद्वत्वहेतोरन्यथानुपपत्तिरसिद्धेति न मंतव्यं, साध्यनिवृत्तौ साधननिवृत्तेरत्र भावात् । भिन्नार्थत्वं हि व्यापकं वाजिवारणशद्वयोर्विभिन्नयोरस्ति गोशद्धे वाभिनेपि तदस्ति विभिन्नशद्वत्वं तद्व्याप्यं साधनं विभिन्नार्थ एव साध्यस्ति नोभिन्नार्थत्वे, ततोन्यथानुपपत्तिरस्त्येव हेतोः ।
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यहां कोई प्रतिवादी यों अवधारण मान बैठा है कि इस अनुमान प्रयोग में भिन्न भिन्न अपने को साध्य करने पर विभिन्न शद्वपन हेतु की अपने साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति असिद्ध है । यानी साध्यके नहीं ठहरने पर हेतुका नहीं ठहरनारूप व्याप्ति नहीं बन चुकी है । इस पर आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाचिये । क्योंकि साध्यकी निवृत्ति होनेपर साधन की निवृत्ति हो जानेका यहां सद्भाव है । विशेष स्वरूप करके भिन्न हो रहे वाजी और वारण शद्वों में व्यापक हो रहा भिन्न भिन्न अर्थपना साध्य वर्त रहा है । अथवा सदृश स्वरूप करके भिन्न हो रहे ग्यारह गो राहों में भी वह वाणी आदि भिन्न अर्थपना साध्य विद्यमान है । अतः वह साध्यका व्याप्य हो रहा विभिन्नशद्वपना हेतु तो विभिन्न अर्थरूप साध्यके होनेपर ही ठहर सकता है । अभिन्न अर्थपना होनेपर नहीं ठहर सकता है । तिस कारणसे हेतुकी अन्यथानुपपत्ति है ही । समीचीन व्याप्तिको रखनेवाला हेतु अवश्य साध्यको साथ देता है । नाना अर्थोका उल्लंघन कर एक अर्थकी अभिमुखता से रूढ करानेवाला होने के कारण भी यह नय समभिरूढ कहा जाता है । गौ यह शद्व, वचन, दिशा, जल, पशु, भूमि, रोम, वज्र, आकाश, बाण, किरण, दृष्टि इन ग्यारह अर्थोंमें वर्तमान हो रहा सींग, सास्नावाले पशु रूढ हो रहा है । जितने शद्ब होते हैं, उतने अर्थ होते हैं । इसी प्रकार दूसरा उपनियम यों भी है कि जितने अर्थ होते हैं, उतने शद्व भी होते हैं । ग्यारह अर्थीको कहनेवाले गो शद्व भी ग्यारह हैं । गकारके उत्तरवर्ती ओकार इस प्रकार समान
hi अनुपूर्वी होने के कारण एकके सदृश शब्दोंको व्यवहार में एक कह दिया गया है । अतः अनेक गोशों द्वारा ही अनेक वाणी आदि अर्थोकी इप्ति होती है । इस नयका अर्थकी ओर लक्ष्य जानेपर अपने अपने स्वरूपों में सम्पूर्ण पदार्थों का आरूढ रहना भी समभिरूढ नय द्वारा नीत कर किया जाता है । जैसे कि आप कहां रहते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर मिलता है कि, अपनेमें आप रहता है । निश्चयनयसे सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने स्वरूपमें हैं ।
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संप्रत्येवंभूतं नयं व्याचष्टे ।
अब श्री विद्यानन्द आचार्य इस अवसरपर सातवें एवंभूत नयका व्याख्यान करते हैं ।
तत्क्रियापरिणामोर्थस्तथैवेति विनिश्चयात् ।
एवंभूतेन नीयेत क्रियांतरपराङ्मुखः ॥ ७८ ॥
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तस्वार्थचोकवार्तिके
एवंभूत नयकरके उसी क्रियारूप परिणामको धार रहा अर्थ तिस प्रकार करके ही यों विशेष रूपसे निश्चय कर लिया जाता है। अतः यह नय अन्य क्रियाओंमें परिणत हो रहे उस अर्थको जाननेके लिए अभिमुख नहीं होता है । अर्थात्-जिस समय पढा रहा है, उसी समय अध्यापक कहा जायगा । भोजन करते समय वह अध्यापक नहीं है । जिस धातुसे जो शब्द बना है, उस धातुके अर्थ अनुसार क्रियारूप परिणमते क्षणों ही वह शब्द कहा जा सकता है । एवंभूत मय अन्य क्रियारूप परिणत हो रहे अर्थसे परान्मुख रहता है ।
समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य चक्रव्यपदेशमभिप्रति, पशोर्यमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथारूढेः सद्भावात् । एवंभूतस्तु शकनक्रियापरिणतमेवार्थ तत्क्रियाकाले शक्रमभिप्रैति नान्यदा । कुत इत्याह ।
कारण कि सममिरूढनय तो जम्बूद्वीपके परिवर्तनकी सामर्थ्य धारनारूप क्रियाके होनेपर अथवा नहीं होनेपर देवोंके राजा हो रहे इन्द्ररूप अर्थका शक इस शब्द करके व्यवहार करनेका अभिप्राय रखता है। जैसे कि सींग, सास्नावाले पशुकी गमन क्रियाके होनेपर अथवा गमन क्रिया के नहीं होनेपर बैठी अवस्थामें भी गौका व्यवहार हो जाता है । क्योंकि तिस प्रकार रूढिका सद्भाव है। यानी दूसरे ईशान, सनत्कुमार आदि इन्द्र या अहमिन्द्र भी जम्बूद्वीपके पलटनेकी शक्तिको धारते हैं। फिर भी शक शब्द सौधर्म इन्द्रमें रूढ हो रहा है । इसी प्रकार " गच्छति स गौः " इस निरुक्तिद्वारा बनाया गया गौ शब्द भी बैठी हुयी चलती हुयी, सोती हुयी, गायमें या खाते हुये, लादते हुये सभी अवस्थाओंको धारनेवाले बैलमें रूढ हो रहा है। " गोवलीवर्द " न्यायसे स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और मपुंसकलिंग तीनों जातिके गौ पकडे जाते हैं । किन्तु एवंभूत नय तो उस प्रकारकी सामर्थ्य रखनेकी क्रिया करने रूप परिणतिको प्राप्त हो रहे अर्थको ही उस क्रियाके अवसरमें "शक" कहनेका अभिप्राय रखता है। पूजा करते समय, अभिषेक करते समय, भोगउपभोग भोगते समय, आदि अन्य कालोंमें "शक" इस नाम कथनका अभिप्राय नहीं रखता है। किस कारणसे यह व्यवस्था बन रही है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
यो यं क्रियार्थमाचष्टे नासावन्यत्कियं ध्वनिः । पठतीत्यादिशद्वानां पाठाद्यर्थत्वसंजनात् ॥ ७९ ॥
जो वाचकशब्द क्रियाके जिस अर्थको चारों ओरसे व्यक्त कह रहा है, वह शब्द अन्य क्रिया कर रहे अर्थको नहीं कह पाता है। अन्यथा पढ रहा है, खा रहा है, इत्यादिक शद्वोंको पढाना पचाना आदि अर्थके वाचकपनका प्रसंग हो जावेगा । जो पढ रहा छात्र है, वह उसी
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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समय पढाने वाला अध्यापक नहीं है । धान्य पक रहा है, अग्नि या आतप पका रहा है । नवगणी क्रियाका अर्थ न्यारा है । और ण्यन्तके प्रयोगका अर्थ भिन्न है । अतः अपनी अपनी प्रत्ययवती प्रकृति के द्वारा वाच्य क्रियामें परिणत हो रहे अर्थका इस एवंभूत नय द्वारा विज्ञापन होता रहता है । " पाकावर्थत्व संजनात् " ऐसा पाठ माननेपर तो यों अर्थ कर किया जाय कि पढ रहा है, का अर्थ पक रहा है भी हो जावेगा । इस प्रसंगको रोकनेवाला कोई नहीं है ।
न हि कश्चिदक्रिया शद्बोस्यास्ति गौरव इति जातिशद्ध | भिमतानामपि क्रियाशद्ध - त्वात् आशुगाम्यश्व इति, शुक्लो नील इति गुणशद्वाभिमता अपि क्रियाशद्वा एव । शुचिभवनाच्छुक्लः नीलानाभील इति देवदत्त इति यदृच्छशद्वाभिमता अपि क्रियाशद्वा एव देव एव (एनं देयादिति देवदत्तः यज्ञदत्त इति । संयोगिद्रव्यशद्वाः समवायिद्रव्यशद्वाभिमताः क्रियाशद्वा एव । दंडोस्यास्तीति दंडी विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यादि पंचती तु शद्वानां प्रवृत्तिः व्यवहारमात्रान्न निश्चयादित्ययं मन्यते ।
प्रायः सभी शद्ब भू आदिक धातुओंसे बने हैं। भू आदिक धातुऐं तो परिस्पंद और अपरिस्पंद रूप क्रियाओं को कह रही हैं, जगत् में ऐसा कोई 'शद्व नहीं है, जो कि क्रियाका वाचक नहीं होय । अश्व, गो, मनुष्य आदिक शब्द अश्त्रत्व आदि जातिको कह रहे स्वीकार कर लिये गये हैं। वे भी क्रियाशद्व ही हैं । यानी क्रियारूप अर्थोको ही कह रहे हैं। शीघ्र गमन करनेवाला अश्व कहा जाता है । अश भोजन " धातुसे अश्त्र शब्द बनानेपर स्वाने वाला कहा जाता है । गमन करनेवाला पदार्थ गौ कहा जाता है । जो शुक्ल, नील, रस आदि शद्व गुणवाचक स्वीकार किये गये हैं, वे भी क्रियाशद्व ही है । शुचि होना यानी पवित्र हो जाना क्रियासे शुक्ल है । to रंगरूप क्रियासे नील है । रसा जाय यानी चाटना रूप क्रियासे रस माना गया है । इसी प्रकार यदृच्छा शद्वों करके स्वीकार किये गये देवदत्त, यज्ञदत्त इत्यादिक शब्द भी क्रिया शद्ब ही हैं । लौकिक जनकी इच्छा के अनुसार बालक, पशु आदिके जो मन चाहे नाम रख लिये जाते हैं । वे देवदत्त आदिक यदृच्छाशद्व हैं । देव ही जिसको देवे वह पुरुष इस क्रिया अर्थको धारता हुआ देवदत्त है । यज्ञमें जिस बालकको चुका है, यों वह यज्ञदत्त है । इस प्रकार यहां भी यथायोग्य क्रियाशद्वपना घटित हो जाता है । भ्रमण, स्यन्दन, गमन, धावति, आगच्छति, पचन, आदि क्रियाशद्व तो क्रिया वाचक हैं ही। संयोग सम्बन्धसे दंड जिसके पास वर्तरहा है, सो वह दंडी पुरुष है । इस प्रकारकी क्रियाको कह रहे संयोगी द्रव्यशद्व भी क्रियाशद्व ही हैं । तथा समवाय सम्बन्धसे सींगरूप अवयव जिस अवयवी बैल या महिषके वर्त रहे हैं, वह विषाणी है । इत्यादि प्रकार मान लिये गये समवायी द्रव्यशद्ब भी क्रियाशब्द ही हैं। सभी शब्दों में क्रियाशद्वपना घट जाता है । जातिशब्द गुणशब्द क्रियाशब्द एवं संयोगीशब्द, समवायीशब्द या यदृच्छाशब्द और सम्बन्ध वाचकशब्द इस प्रकार प्रसिद्ध हो
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तत्वार्थ श्लोक वार्तिके
रही शब्दों की पांच प्रकारकी प्रवृत्ति तो केवल व्यवहारसे ही है, निश्वयसे नहीं है, इस सिद्धान्तको यह एवंभूत मान रहा है। श्री अकलंकदेव भगवान्ने ज्ञानपरिणत आत्माको एवंभूतका सूक्ष्म विषय कहा है । जिस ज्ञान करके जो हो चुका है, उस करके ही उसका अध्यवसाय कराया जाता है 1 जैसे कि सौधर्म इन्द्रको इन्द्र नहीं कह कर देवदत्तकी इन्द्रके ज्ञानसे परिणमी हुयी आत्माको ही या इन्द्रज्ञान को ही इन्द्र कहना । अथवा आग है, इस प्रकारके ज्ञानसे परिणत हो रही आत्मा ही अग्नि है, यह एवंभूतनयका विषय है । " मूळोण्णपहा अग्गी " उष्णस्पर्शवाले पौगलिक पदार्थको एवंभूत नयसे अग्नि नहीं कहा जाकर ज्ञानको अग्नि कहना यह इसका परमसूक्ष्म विषय समझा जाता है । एवमेते शब्दसमभिरूढैवंभूतनयाः सापेक्षाः सम्यक्, परस्परमनपेक्षास्तु मिथ्येति प्रतिपादयति ।
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और प्रतिपक्षी धर्मोकी
।
अन्यथा प्रमाण और
इस प्रकार ये शद्ब, समभिरूढ, एवंभूत तीन नय यदि अपेक्षाओं से सहित हो रहे हैं, तब तो समीचीन नय हैं । और परस्पर में अपेक्षा नहीं रखते हुये केवळ एकान्तसे अपने विषयका आग्रह करनेवाले तो ये तीनों मिथ्या हैं । कुनय हैं अर्थात् 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् ' ( श्री समन्तभद्राचार्यः ) । प्रतिपक्षी धर्मका निराकरण करनेवाले कुनय हैं अपेक्षा रखनेवाले सुनय हैं । अपेक्षासहितपनका अर्थ उपेक्षा रखना है नयों में कोई अन्तर नहीं ठहर सकेगा । प्रमाणोंसे उन धर्मोकी और अन्य धर्म या धर्मोकी भी प्रतिपत्ति हो जाती है । तथा नयसे अन्य धर्मोका निराकरण नहीं करते हुये उसी धर्मकी प्रतिपत्ति होती है । किन्तु दुर्नयसे तो अन्य धर्मोका निराकरण करते हुये एक ही धर्मका आग्रह किया जाता है । इस बातको स्वयं ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी समझाये देते हैं । पहिले चार नयका आभास तो साथ के साथ लगे हात कह दिया गया है । अब शद्व समभिरूढ, एवंभूत तीनों नयोंका आभास यहां एक साथ कहें देते हैं । सुनिये और समझिये ।
एतेन्योन्यमपेक्षायां संतः शद्वादयो नयाः । निरपेक्षाः पुनस्ते स्युस्तदाभासाविरोधः ॥ ८० ॥
ये शद्व आदिक तीन नय परस्पर में स्वकीय स्वकीय विषयोंकी अथवा अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखनेपर तो सन्तः यानी समीचीन नय हैं । किन्तु परस्पर में नहीं अपेक्षा रखते हुये तो फिर वे तीनों उनके आभास हैं । अर्थात्-शद्वनय यदि सममिरूढ और एवंभूतके नेय धर्मोकी अपेक्षा नहीं रखता है, तो यह शद्वामास है । तथा समभिरूढ नय यदि शद्ब और एवंभूतके विषयका निराकरण कर केवल अपना ही अधिकार जमाना चाहता है, तो वह समभिरूढाभास है । इसी प्रकार एवंभूत भी शब्द और समभिरूढ के विषयका तिरस्कार करता हुआ एवंभूताभास है । क्योंकि
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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ऐसा करनेसे विरोध दोष आता है । धर्ममें अनेक धर्मोके विद्यमान होनेपर यदि दूसरोंकी सम्पत्तिका नाश कर अपना ही दबदबा गांठा जायगा तो स्पष्टरूपसे विरोध दोष आकर खडा हो जाता है । वस्तुतः विचारा जाय तो अपने भाइयोंकी या अपने आश्रयदाताओंकी सदा अपेक्षा करनी चाहिये किन्तु उनकी उपेक्षा करने की भी उपेक्षा कर उनके सर्वथा नाश करनेका अभिप्राय किया जायगा तो यह कुनीति है, यो द्वन्द्वयुद्ध मच जायगा । शरीरके हाथ, पांव, मुख, नेत्र, आदि अवयव ही यदि किसी खाद्य या पेयपदार्थको हडपना चाहेंगे तो सब परस्परकी ईण्यामें घुलकर मर जावेंगे । हां, मिलकर उसका उपभोग करनेसे वे परिपुष्ट बने रहेंगे ।
के पुनरत्र सप्तसु नयेष्वर्थप्रधानाः के च शब्दप्रधाना नया: १ इत्याह ।
इन सातों नयोंमें कितने तो फिर अर्थकी प्रधानतासे व्यवहार करने योग्य नय है ? और इन सातोंमें कौनसे नय शब्दकी प्रधानतापर प्रवर्त रहे हैं ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी समाधान कहते हैं ।
तत्रर्जुसूत्रपर्यंताश्चत्वारोर्थनया मताः ।
त्रयः शब्दनयाः शेषाः शब्दवाच्यार्थगोचराः ॥ ८१ ॥
उन सात नयोंमें नैगमसे प्रारम्भ कर ऋजुसूत्र पर्यन्त चार तो अर्थनय मानी गयी हैं । बादरायण सम्बन्ध के सदृश केवल वाध्य वाचक सम्बन्धकी अत्यल्प अपेक्षा रखते हुये प्रतिपादक शब्द करके अथवा कचित् शब्द के बिना भी परिपूर्ण अर्थपर दृष्टि रखनेवाले नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र ये चार नय हैं। शेष बचे हुये नय तो वाचक शब्दद्वारा कहे गये अर्थको विषय करने वाले शब्द, समभिरूढ, एवंभूत, ये तीन शद्वनय हैं। इन तीनोंकी शब्दके वाच्य अर्थमें विशेषरूपसे तत्परता रहती है । और पहिले चार नयोंकी अर्थकी ओर विशेष लक्ष्य रहता है । यहाँ आज्ञाप्रधानी और परीक्षाप्रधानीके श्रद्धेय विषयोंके समान गौण, मुख्य, रूपने अर्थ और शब्दद्वारा वाध्यकी व्यवस्था कर निर्वाह कर लेना चाहिये ।
कः पुनरत्र बहुविषयः कश्चाल्पविषयो नय इत्याह ।
पुनः विनीत शिष्यका प्रश्न है कि इन सात नयों में कौनसा नय बहुत ज्ञेयको विषय करता है ? और कौनसा नय अल्पज्ञेयको विषय करता है ? तिसके उत्तरमें आचार्य महाराज - वार्तिकको कहते हैं । साथमें कौन नय कार्य है ? और कौनसा नय कारण है ? यह प्रश्न भी छिपा हुआ है, उसका भी उत्तर दे देवेंगे ।
पूर्वः पूर्वो नयो भूमविषयः कारणात्मकः ।
परः परः पुनः सूक्ष्मगोचरो हेतुमानि ॥ ८२ ॥
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यहां पहिले पहिले कहा गया नय तो बहुत पदार्थोंको विषय करनेवाला है । और कारण स्वरूप हो रहा है । किन्तु फिर पौछे पीछे कहा गया नय तो अल्प पदार्थोंको विषय करता है । और कार्यस्वरूप है । अर्थात् — बहुत विषयोंको जाननेवाले नैगम की प्रवृत्ति हो चुकनेपर उसके व्याप्य हो रहे अल्प विषयोंको जानता हुआ संग्रह नय प्रवर्तता है। अधिक विषयोंको जानमेवाळे संग्रहकी प्रवृत्ति हो चुकनेपर उसके व्याप्य स्तोक विषयोंको इसी प्रकार आगे भी नयोंमें लगा लेना तथा यहां लौकिक कार्यकारणभाव तो अव्यवहित पूर्ववर्ती व्यापारवाले और उत्तरवर्त्ती पदार्थों में सम्भवता है ।
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जान रहा व्यवहार नय प्रवर्त्तता है । कार्यकारणभाव विवक्षित है । शास्त्रीय उसके उपकारको झेलनेवाले अव्यवहित
तत्र नैगमसंग्रहयोस्तावन्न संग्रहो बहुविषयो नैगमात्परः । किं तर्हि, नैगम एव
संग्रहात्पूर्वं इत्याह ।
सबसे पहिले उन नयोंमें यह विचार है कि नैगम, संग्रह, नयों में परली ओर कहा गया संग्रहनय तो पूर्ववत्ती नैगमसे अधिक विषयवाला नहीं है, तो क्या है ? इसका उत्तर यही है कि नैगमनय ही संग्रहनयसे पूर्व में कहा गया अधिक पदार्थोंको विषय करता है । इस बातको स्वयं ग्रन्थकार कहते हैं ।
सन्मात्रविषयत्वेन संग्रहस्य न युज्यते । महाविषयताभावाभावार्थान्नैगमान्नयात् ॥ ८३ ॥ यथा हि सति संकल्पस्तथैवासति वेद्यते । तत्र प्रवर्तमानस्य नैगमस्य महार्थता ॥ ८४ ॥
सद्भूत पदार्थ और असद्द्भुत अभाव पदार्थ दोनों संकल्पित अर्थोको विषय करनेवाले नैगम नयसे केवल सद्भूत पदार्थोंको विषय करनेवाला होनेसे संग्रह नयकी अधिक विषयज्ञता उचित नहीं है । भावार्थ – संकल्प तो विद्यमान हो रहे अथवा भूत, भविष्यत् कालमें हुये, होनेवाले, या कदाचित् नहीं भी होनेवाले अविद्यमान पदार्थोंमें भी उपज जाता है । किन्तु संग्रहनय केवल सद्भूत पदार्थोंको ही जानता है । असद्भूत अर्थोंको नहीं छूता है । अतः नैगमसे संग्रहका विषय अल्प है । कारण कि जिस प्रकार सत् पदार्थों में संकल्प होता है, उसी प्रकार असत् पदार्थों में भी होता हुआ संकल्प जाना जा रहा है। अतः उस असत् अर्थमें भी प्रवर्त रहे नैगमनयको महाविषयोंका ज्ञातापन है ।
संग्रहाद्व्यवहारो बहुविषय इति विपर्ययमपाकरोति ।
संप्रनयसे व्यवहारनय अधिक विषयवाला है, इस विपर्ययज्ञानका ग्रन्थकार प्रत्याख्यान करते हैं ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः संग्रहाद्यवहारोपि सद्विशेषावबोधकः । न भूमविषयोशेषसत्समूहोपदर्शिनः ॥ ८५॥
संग्रह नयसे व्यवहारनय भी अल्पविषयवाला है। क्योंकि पूर्ववर्ती संग्रहनय तो सभी सत् पदार्थोको विषय करता है । और यह व्यवहारनय तो सत् पदार्थों के विषय हो रहे अल्प पदायोका बापक है । अतः सम्पूर्ण सत पदार्थोके समुदायको दिखलाने वाले संग्रह मयसे व्यवहारनय अधिक विषयग्राही नहीं है।
व्यवहाराहजुसूत्रो बहुविषय इति विपर्यासं निरस्यति ।
व्यवहारनय की ओक्षा ऋजुसूत्र नय बहुत पदार्थोको विषय करता है, इस प्रकार हो रहे किसीके विपर्यय ज्ञानका श्री विद्यानन्द स्वामी निराकरण करते हैं।
नर्जुसूत्रः प्रभूतार्थो वर्तमानार्थगोचरः । कालात्रितयवृत्त्यर्थगोचराद्यवहारतः ॥८६॥
भूत, भविष्यत, वर्तमान तीनों कालमें वर्त रहे अर्थोको विषय करनेवाले व्यवहार नयसे केवल वर्तमान कालके अर्थोको विषय कर रहा ऋजुसूत्र नय तो बहु विषयज्ञ नहीं है। अर्थाब-व्यवहारनय तीनों काल के पदार्थोको विषय करता है । और ऋजुसूत्र नय केवल वर्तमान कालकी पर्यायको विषय करता है । अतः अल्प विषय है । और व्यवहारका कार्य है।
ऋजुसूत्राच्छवो बहुविषय इत्याशंकामपसारयति ।
किसी की शंका है कि ऋजुसूत्र मयसे शद्वनयका विषय बहुत है। श्री विद्यानन्द स्वामी इस आशंकाको निकालकर फेंकें देते हैं । सुनिये ।
कालादिभेदतोप्यर्थमभिन्नमुपगच्छतः। नर्जुसूत्रान्महार्थोत्र शद्वस्तद्विपरीतवित् ॥ ८७ ॥
काल, कारक आदिका भेद होते संते फिर भी अभिन ही अर्थको अभिप्रेत कर रहे ऋजुसूत्र नयसे शब्दनथ उससे विपरीत यानी कालादिके मेदसे भिन्न हो रहे अर्थोको जान रहा है। अर्थात्-ऋजुसूत्र नय तो काल आदिसे भिन्न हो रहे मी अनेक अर्थोको अभिन्न करता हुआ जान लेता है। और शब्दमय तो काल आदिसे भिन्न हो रहे एक एक अर्थको ही जान पायेगा। .
शब्दात्समभिरूढो महाविषय इत्यारेका हंति ।
शब्दसे सममिरूढ नय, अत्यधिक विषयोको नानता है । इस प्रकारकी आशंकाको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा हटाये देते हैं ।
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
शब्दात्पर्यायभेदेनाभिन्नमर्थमभीप्सिनः। न स्यात्समभिरूढोपि महार्थस्तद्विपर्ययः ॥ ८॥
भिन्न भिन्न पर्यायोंको ग्रहण करनेवाले पर्याय वाचक शब्दोंके भेद होनेपर फिर भी उस करके अभिन्न अर्थको ही अभीष्ट करनेवाले शब्दनयसे समभिरुढ नय भी उस शब्दसे विपरीत प्रकार का है। अर्थात्-शब्दनय तो एकलिंगवाळे या समान वचनवाले पर्यायवाचक शब्दोंके भेद होनेपर भी एक ही अभिन्न अर्थको जानता था। किन्तु यह समभिरूढ नय पर्यायवाचक शब्दोंके भेदसे भिन्न भिन्न स्वरूपोंकरके कहे जा रहे अर्थोको विषय करता है।
समभिरूढादेवंभूतो भूमविषय इति चाकूतमपास्यति ।
समभिरूढ नयसे एवंभूत नयका विषय अधिक है, इस प्रकारके कुचोद्यका आचार्य महाराज पृथक्कार करें देते हैं।
क्रियाभेदेपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छतः।
नैवंभूतः प्रभूतार्थो नयः समभिरूढतः ॥ ८९ ॥
शद्वोंमें पडी हुई भिन्न भिन्न धातुओंकी क्रियाओंके भेद होनेपर भी उसी अभिन्न अर्थको स्वीकार कर रहे समभिरूढ नयसे एवंभूत नय प्रचुरविषयवाला नहीं है । एवंभूत नय तो पढाते समय ही पाठक कहेगा, किन्तु समभिरूढ नय खाते, पीते, पूजते समय भी अध्यापकको पाठक समझता रहता है । इस प्रकार नयोंके लक्षण और नयामासोंका विवेक तथा नयोंके विषयका अल्प बहुस्वपन अथवा पूर्ववर्ती उत्तरवर्तीपनका व्याख्यान यहांतक किया जा चुका है । अब नयोंके दूसरे प्रकरणका प्रारम्भ किया जाता है ।
कथं पुनर्नयवाक्यप्रवृत्तिरित्याह।
नय सप्तमीको बनाने के लिये शिष्यका प्रश्न है कि महाराज फिर यह बताओ कि नयों के सप्तभंगी वाक्य मला कैसे प्रवर्तते हैं ? इस प्रकार शिष्यकी तीव्र जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
नैगमाप्रतिकूल्येन न संग्रहः प्रवर्तते ।
ताभ्यां वाच्यमिहाभीष्टा सप्तभंगीविभागतः ॥ ९०॥ संग्रहनय तो नैगमके अप्रतिकूलपनकरके नहीं प्रवर्तता है । अर्थात्-संग्रहकी प्रवृत्ति नैगमनयकी प्रतिकूलतासे है । नैगम यदि अस्तिको कहेगा तो संग्रह नास्ति धर्मको उकसायगा । अतः
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तत्वायचिन्तामणिः
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उन दोनों नैगम संग्रहनोंसे यहां अभीष्ट हो रही सप्तमंगी अनेक भेदों करके कह लेनी चाहिये । यानी नैगमनयकी अपेक्षा संकल्पित इन्द्रका अस्तित्व मानकर और संग्रहनयसे उसका नास्तित्व अभिप्रेत कर सात मंगोंका समाहार एक नयसप्तभंगी बना लेना चाहिये । इसी प्रकार अन्य भी विभाग कर देनेसे सप्तमंगीके अनेक भेद हो जाते हैं।
नैगमव्यवहाराभ्यां विरुद्धाभ्यां तथैव सा ।
सा नैगमर्जुसूत्राभ्यां तादृग्भ्यामविगानतः ॥ ९१ ॥
तिस ही प्रकार विरुद्ध सरीखे हो रहे अत एव अस्तित्व और नास्तित्वके प्रयोजक बन रहे नैगम और व्यवहारमयसे भी वह सप्तभंगी रच लेनी चाहिये । तथा तिन्हीके सदृश विरुद्ध हो रहे नैगम और ऋजुसूत्र दो नयोंसे अस्तित्व, नास्तित्वको, कल्पित कर अनिन्दित मार्गसे वह सप्तमंगी बमा लेनी चाहिये।
सा शद्वानिगमादन्यायुक्तात् समभिरूढतः। - सैवंभूताच सा ज्ञेया विधानप्रतिषेधगा ॥ ९२ ॥
एवं वही सप्तभंगी नैगमसे और शद्वनयसे विधि और प्रतिषेधको प्राप्त हो रही बन गयी है। तथा नैगम और अन्य, मिन्न, आदि शब्दों करके कहे जा चुके सममिरूढ नयसे भी विधि और निषेधको प्राप्त हो रही वह एक न्यारी सप्तभंगी है । तथा विरुद्ध हो रहे नैगम और एवंभूतसे विधान करना और निषेध करना धर्मोको ले रही वह सप्तभंगी पृथक् समझनी चाहिये ।
संग्रहादेश्र शेषेण प्रतिपक्षेण गम्यताम् ।
तथैव व्यापिनी सप्तभंगी नयविदां मता ॥ ९३॥
जैसे नैगमकी अपेक्षा अस्तित्वको रख कर शेष छह नयोंकी अपेक्षासे नास्तित्वको रखले हुये छह सप्तमंगियां बनायी गयी है, इसी प्रकार संग्रह आदि नयोंसे अस्तित्व को व्यवस्थापित कर शेष उत्तरवर्ती प्रतिपक्षी नयों करके भी तिस ही प्रकार व्याप्त हो रहीं सप्तभंगीयां यों समझ लेनी चाहिये । ये सभी सप्तमंगिया नयवेत्ता विद्वानोंके यहां ठीक मान ली गयी हैं।
विशेषैरुत्तरैः सर्वैर्नयानामुदितात्मनाम् ।
परस्परविरुद्धार्थेद्ववृत्तेर्यथापथम् ॥ ९४ ॥
पूर्व पूर्व में जिनके स्वरूप कह दिये गये है, ऐसी सम्पूर्ण नयों की उत्तर उत्तरवर्ती विशेष हो रही सम्पूर्ण नयों के साथ सप्तगियां बन जाती हैं। परस्परमें विरुद्ध सरीखे अर्थीको विषय 36
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तत्वार्थोकवार्तिके
करनेवाले नयों के साथ यथायोग्य कलह हो जानेकी प्रवृत्ति हो जानेसे अस्तित्व और नास्तित्व के प्रयोजक धर्म घटित हो जाते हैं ।
प्रत्येया प्रतिपर्यायमविरुद्धा तथैव सा ।
प्रमाणस भंगी तां विना नाभिवाग्गतिः ॥ ९५॥
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प्रत्येक पर्यायमें तिली प्रकार नयस्तभंगी सम्झ लेनी चाहिये, जिस ही प्रकार कि वह प्रमाण सप्तभंगी अविरुद्ध होती हुई पूर्वप्रकरणोंसे व्यवस्थित की जा चुकी है । उस नयप्तभंगी के विना चारों ओरसे वचन बोलनेका उपाय नहीं घटित हो पाता है । विशेष यह दीखता है कि
सप्तमं नास्तित्वकी व्यवस्था करानेके लिये विरुद्ध धर्म अपेक्षणीय हैं और प्रमाण सप्तभंगीमें नास्तित्व धर्मकी व्यवस्था के लिए अविरुद्ध आरोपित धर्मसे नास्तित्वकी व्यवस्था है ! अथवा सर्वथा भिन्न पदार्थों की अपेक्षा विरुद्ध पदार्थों की ओरसे मी नास्तित्व बन जाता है । प्रमाणसप्तभंगी और नय सप्तभंगीमें अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखना और अन्य धर्मोकी उपेक्षा रखना यह भेद तो प्रसिद्ध ही है ।
इइ तावन्नैगमस्य संग्रहादिभिः सह षड्तिः प्रत्येकं षट् सप्तभंग्यः, संग्रहस्य व्यवहारादिभिः सह वचनात् पंच, व्यवहारस्यर्जुसूत्रादिभिश्चतस्रः, ऋजुसूत्रस्य शब्दाभिस्तिस्रः, शब्दस्य समभिरूढादिभ्यां द्वे, समभिरूढस्यैव भूतेनैका, इत्येकविंशतिमूलन यसप्तभंग्यः पक्षप्रतिपक्षतया विधिप्रतिषेधकल्पनयाव गंतव्याः ।
यहां नैगमनयकी संग्रह व्यवहार आदिक छह नयोंके साथ एक एक होती हुई छह सप्तभगियां बन जाती हैं। अर्थात् - नैगम नयकी अपेक्षा अस्तित्व १ और संग्रहसे नास्तित्व २ क्रम उभय ३ अक्रमसे अवक्तव्य ४ नैगम और अक्रमसे अस्ति अवक्तव्य ५ संग्रहसे और अक्रमसे नास्ति अवक्तव्य ६ नैगम और संप्रहसे तथा अक्रमसे विवक्षा करनेपर अस्तिनास्ति, अवक्तव्य, ७ इन सात मंगोंवाली एक सप्तमंगी हुई । इसी प्रकार नैगमसे विधिकी कल्पना कर और व्यवहार, ऋजुसूत्र शब्द, समधिरूढ और एवंभूतसे प्रतिषेधकी कल्पना कर दो । मूलभंगोंको बनाकर शेष पांच मंगोंको क्रम, अक्रम आदिसे बनाते हुये पांच सप्तमंगियां बना लेना । नैगमनयकी संग्रह आदिके साथ छह सप्तमंगियां हुयीं । तथा संग्रहनयकी अपेक्षा विधिकी कल्पना कर और व्यवहारनयकी अपेक्षासे प्रतिषेध कल्पना करते हुये दो मूळ भंग बना कर सप्तभंगी बना लेना । इसी प्रकार संग्रहकी अपेक्षा त्रिधिकी कल्पना कर ऋजुसूत्र, शद्व, समभिरूढ और एवंभूत नयोंकी अपेक्षा नास्तित्व मान कर अन्य चार सप्तभंगियां बना लेना । इस प्रकार संग्रहनयकी व्यवहार आदिके साथ कथन कर देनेसे एक एक प्रति एक एक सप्तभंगी होती हुई पांच सप्तमंगिया हुयीं तथा व्यवहारकी अपेक्षा अस्तित्व कल्पना कर और ऋजुसूत्र की अपेक्षा नास्तित्वको मान कर इन दो मूळभंगों से एक सप्तभंगी बनाना । इसी
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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प्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षा अस्तित्व मान कर शब्द, समभिरूढ और एवंभूतसे नास्तित्वको कल्पते हुये तीन सप्तभंगियां और भी बना लेना । ये व्यवहारनयकी ऋजुसूत्र आदिके साथ बन कर चार सप्तमंगिगां हुयी तथा ऋजुसूत्रकी अपेक्षा विधिकी कल्पना अनुसार शब्द आदिक तीन नयोंके साथ निषेधकी कल्पना कर दो दो मूल भंगोंको बनाते हुये ऋजुसूत्रनयकी शब्द आदि तीनके साथ तीन सप्तभंगियां हुयीं । तथा शब्द्वनयकी अपेक्षा विधि कल्पना कर और सममिरूढके साथ निषेध कल्पना करते हुये दो मूलमंगोंसे एक सप्तभंगी बनाना । इसी प्रकार शद्बद्वारा विधि और एवंभूत द्वारा निषेधकी कल्पना कर दो मूलभंगोंसे दूसरी सप्तभंगी बना लेना । यों शब्दकी समभिरूढ आदि दो नयोंके साथ दो सप्तमंगियां हुयीं। तथा समभिरूढकी अपेक्षा अस्तित्वकी कल्पना कर और एवंभूतकी अपेक्षा नास्तित्वको मानते हुये दो मूलभंगोंसे एक सप्तभंगी बना लेना। इस प्रकार स्त्रकीय पक्ष हो रहे पूर्व पूर्व नयों की अपेक्षासे विधि और प्रतिकूल पक्ष माने गये, उत्तर उत्तर नयोंकी अपेक्षासे प्रतिषेधकी कल्पना करके सात मूळनयों की इक्कीस सप्तमंगियां हो गयीं, समझ लेनी चाहिये ।
तथा नवानां नैगमभेदानां दाभ्यां परापरसंग्रहाभ्यां सह वचनादष्टादश सप्तभंग्यः, परापरव्यवहाराभ्यां चाष्टादश, ऋजुसूत्रेण नव, शद्धभेदैः पद्धिः सह चतुरपंचाशत्, समभिरूढेन सह नव, एवंभूतेन च नत्र, इति सप्तदशोत्तरं शतं ।
नयोंकी मूल सप्तमंगियोंके भेद हो चुके, अब नयोंके उत्तर भेदों द्वारा रची गयीं सप्तभंगियोंको गिनाते हैं। उसी क्रम अनुसार अर्थपर्याय नैगम १ व्यंजनपर्याय नैगम २ अर्थव्यंजनपर्याय नैगम ३ शुद्धद्रव्य नैगम ४ अशुद्धद्रव्य नैगम ५ शुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगम ६ अशुद्धद्रव्याथपर्याय नैगम ७ शुद्धव्यव्यंजनपर्याय नैगम ८ अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय नैगम ९ इस प्रकार नैगमके नौ भेदोंका पर, अपर,इन दो प्रकारके संग्रह नयोंके साथ कथन करनेसे अठारह सप्तभंगियां हो जाती हैं। अर्थात्-अर्थपर्याय नैगमकी अपेक्षा अस्तित्व कल्पना कर परसंग्रहकी अपेक्षा नास्तित्व मानते हुए दो मूलभंगोंकी भित्तिपर एक सप्तभंगी बना लेना । इसी प्रकार नौऊ नेगमोंकी अपेक्षा अस्तित्व मानते हुए दोनों संग्रहोंसे प्रतिषेध करते हुए अठारह सप्तभंगियां बन गयीं । तथा नौ नैगमके भेदोंकी अपेक्षा अस्तित्व मानकर पर, अपर, इन दो व्यवहार नयोंकरके नास्तित्वको मानते हुये दो दो मूळमंगोंसे एक एक सप्तमंगी बनाते हुए ये भी अठारह सप्तभंगियां होगई। तथा ऋजुसूत्रका एक ही भेद है । अतः नौ नैगमोंसे विधिकी कल्पना कर और ऋजुसूत्रनयसे प्रतिषेध करते हुये दो दो मूभंगोंद्वारा ये नौ सप्तमंगियां हुयीं। शब्दनयके काल कारक लिंग संख्या साधन उपसर्ग ये छह भेद हैं। नैगमके नौऊ मेदोंसे अस्तित्वको मानते हुये और शब्दनयके छहऊ मेदोंसे नास्तित्वको कल्पते हुये दो दो मूल भंगोंसे एक एक सप्तभंगीको बनाकर नौ छक
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तत्वार्थ छोकवार्तिके
चौअन सप्तमंगियां बना लीजियेगा । तथा नोऊ नैगमोंसे पहिले अस्तित्व भंगको साध कर और सम मिरूढसे दूसरे नास्तित्व भंगकी कल्पना कर एक एक सप्तभंगी बनाते हुये नैगमकी समभिरूढ के साथ नौ सप्तमंगियां बना लेना । ऐसे ही नौ नैगमोंमेंसे एक एक नैगमकी अपेक्षासे विधि कल्पना कर और एवंभूत नयसे निषेध कल्पना करते हुये नौ नैगमके भेदोंकी एवंभूत के साथ नौ सप्तमंगियां बन गयीं समझ लेनी चाहिये । इस प्रकार नैगमकी १८+१८ +९+५४+९+९=११७ यों एक सौ सत्रह उत्तर सप्तभंगियां हुयीं ।
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तथा संग्रहादिनयभेदानां शेषनयभेदैः सप्तभंग्यो योज्याः । एवमुत्तरनय सप्तभंग्यः पंचसप्तत्युत्तरशतं ।
संग्रहों की एक प्रकार साथ दो दो मूल
एक समभिरूढके साथ
तिसी नैगमके प्रकारों अनुसार संग्रह आदिक नयोंके भेदोंकी उत्तर उत्तर शेष बचे हुये tihari साथ अस्तित्व, नास्तित्वकी विवक्षा कर सप्तभंगियां बना लेनी चाहिये अर्थात्- दोनों संप्रहनयोंकी अपेक्षा अस्तित्वको मान कर और दोनों व्यवहारनयोंसे नास्तित्वको मान कर दो दो मूलमंगों द्वारा एक एक सप्तभंगी बनाते हुये संग्रहके पर, अपर, भेदोंकी व्यवहार के पर, अपर, दो भेदों के साथ चार सप्तमंगियां हुथीं। दो संग्रहों की अपेक्षा अस्तित्वको मानते हुये और ऋजुसूत्र से गढ कर दो मूलमंगों द्वारा सप्तभंगीको बनाते हुये पर, अपर, ऋजुसूत्र के साथ दो सप्तभंगिया हुयीं । तथा दो संग्रहोंकी छह प्रकारके शद्वनयके भंग करके सप्तभंगी बना कर बारह सप्तभंगियां हुयीं । तथा दो संग्रहों की विधि प्रतिषेध कल्पना करते हुये दो सप्तमंगियां बनाना । इसी प्रकार दो संग्रहों की अपेक्षा विधि करते हुये और एवंभूतकी अपेक्षा निषेध करते हुये दो सप्तमंगियां हुयीं । इस प्रकार संप्रहृनयके भेदों की शेषनयोंके भेदोंके साथ ४+२+१२+२+२= २२ बाईस सप्तभंगियां हुयीं । तथा व्यवहारनयके दो भेदोंकी अपेक्षा अस्तित्व मान कर और ऋजुसूत्र के एक भेदकी अपेक्षा नास्तित्व मान कर दो मूळ मंगोंले एक एक सप्तभंगी बनाते हुये दो सप्तमंगियां हुयीं । और दो व्यवहारनयोंकी छह प्रकारके शङ्खनयों के साथ अस्तित्व, नास्तित्वकी कल्पना करते हुये बारह सप्तभंगियां बना लेना और दो प्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षा अस्तित्वकी कल्पना कर समभिरूढ के साथ नास्तित्वको मानते हुये दो सप्तमंगियां बना लेना और दो व्यवहारनयोंकी अपेक्षा विधान करते हुये एवंभूतकी अपेक्षा नास्तित्वको कल्पित कर दो सप्तमंगियां बना लेना, इस प्रकार व्यवहारनयके दो भेदों की शेषनय या नयभेदोंके साथ २+१२+२+२ = १८ अठारह सप्तमंगियां हुयीं । तथा ऋजुसूत्रकी सप्तमंगियां यों हैं कि एक ऋजूसूत्रकी छह प्रकारके शब्दनयके साथ अस्तिाव, नास्तित्वको विवक्षित कर छह सप्तभंगियां हुयीं, यद्यपि ऋजुसूत्रकी अपेक्षा अस्तित्व कल्पित कर और समभिरूढकी अपेक्षा नास्तित्वकी कल्पना कर एक सप्तभंगी तथा ऋजुसूत्रकी अपेक्षा अस्तित्व और एवभूतकी अपेक्षा नास्तित्व मान कर दो मूल भंगोंद्वारा दूसरी सप्तभंगी इस प्रकार दो सप्तभंगिय
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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अन्य भी हो सकती थीं । किंतु ये दो सप्तमंगियां मूलनयकी इक्कीस सप्तभंगियों में गिनाई जा चुकी हैं। नयोंके उत्तर भेदोंकी सप्तमंगियोंमें उक्त दो सप्तमंगियोंके गिनानेका प्रकरण नहीं है अतः एक प्रकार के ऋजुसून की शेष उत्तरनय भेदोंके साथ ६ छह ही सप्तभंगियां हुयीं । तथा शब्दनयके भेदोंकी सप्तमंगियां इस प्रकार हैं कि छह प्रकारके शब्दनयकी अपेक्षा अस्तित्व मानकर एक ही प्रकार के सममिरूढनयकी अपेक्षा नास्तित्वकी कल्पना करते हुये दो मूलभंगोंद्वारा छह सप्तमंगियां बना लेना और छह शब्दनयके भेदोंकी अपेक्षा अस्तित्व मान कर एक प्रकारके एवंभूतकी अपेक्षा नास्तित्वको मानते हुए छह सप्तभंगियां बना लेना । इस प्रकार शब्दन के मेदोंकी बचे हुये दो नयोंके साथ ६+६= १२ बारह सप्तमंगियां हुयीं । समभिरूढ और एवंभूतका कोई उत्तरमेद नहीं है । अतः समभिरूढकी एवंभूत के साथ अस्तित्व या नास्तित्व विवक्षा करनेपर उत्पन्न हुई एक सप्तभंगी मूळ इक्कीस सप्तगंगियोंमें गिनी जा चुकी है। उत्तर सप्तभंगीमें उसको गिनने की आवश्यकता नहीं है, गिन भी नहीं सकते हैं । इस प्रकार उत्तर नयोंकी ११७+२२+१८+६+१२ = १७५ एक सौ पिचत्तर सप्तमंगियां हुयीं ।
तथोत्तरोत्तरनयसप्तभंग्योपि शद्वतः संख्याताः प्रतिपत्तव्याः ।
तिस प्रकार भेद प्रभेद करते हुये उत्तर उत्तर नयोंकी सप्तभंगियां भी लाखों, करोडों, होती हुयीं शोंकी अपेक्षा संख्यात सप्तभंगियां हो जाती हैं। क्योंकि जगत् में संकेत अनुसार वाच्य अर्थोको प्रतिपादन करनेवाले शह केवळ संख्याते हैं । असंख्यात या अनन्त नहीं हैं। चौसठ अक्षरोंके द्वारा संयुक्त अक्षर बनाये जाय तो एक कम एकट्टि प्रमाण १८४४६७४४००३७०९५५१६१५ इतने एक एक होकर अपुनरुक्त अक्षर बन जाते हैं। तथा संकेत अनुसार इन अक्षरोंको आगे पीछे घर कर या स्वरोंका योग कर एकस्वर पद, एक स्वरवाले पद, दो स्वरवाले पद, तीन स्वरवाळे पद, चार स्वरवाले पद, पांच स्वरवाले पद, एवं अ ( निषेध या वासुदेव ) इ ( कामदेव ) स ( क्रोध उक्ति ) मा ( लक्ष्मी ) कु ( पृथ्वी ) ख ( आकाश ) घट (घडा) अग्नि ( आग ) करी (हाथी) मनुष्य, भुजंग, मर्कट, अजगर, पारिजात, परीक्षक, अभिनन्दन, साम्परायिक, सुरदीर्घिका, अङ्ग खल्लरी, अम्यवकर्षण, श्रीवत्सलाञ्छन, इत्यादि पद बनाये जावें तो पद्मों, संखों,
नांग, नलिन, आदि संख्षाओंका अतिक्रमण कर संख्याती सप्तभंगियां बन जातीं समझ लेनी चाहिये, जो कि जघन्य परीता संख्यातसे एक कम हो रहे उत्कृष्ट संख्यात नामकी संख्या के भीतर हैं।
इति प्रतिपर्यायं सप्तभंगी बहुधा वस्तुन्येकत्राविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना प्राग्बदुक्ताचार्यैः नाव्यापिनी नातिव्यापिनी वा नाप्यसंभविनी तथा प्रतीतिसंभवात् । तद्यथासंकल्पनामात्रग्राहिणो नैगमस्य तावदाश्रयणाद्विधिकल्पना, प्रस्थादिसंकल्पमात्रं प्रस्थाधानेतुं
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
गच्छामीति व्यवहारोपलब्धेः । भाविनि भूतवदुपचारात्तथा व्यवहारः तंदुकेष्वोदनव्यवहारवदिति चेन्न, प्रस्थादिसंकल्प्यस्य तदानुभूयमानत्वेन भावित्वाभावात् प्रस्थादिपरिणामाभिमुखस्य काष्ठस्य प्रस्थादित्वेन भावित्वात् तत्र तदुपचारस्य प्रसिद्धिः । प्रस्थादिभावाभावयोस्तु तत्संकल्पस्य व्यापिनोनुपचरितत्वात् । न च तद्व्यवहारो मुख्य एवेति ।
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इस प्रकार प्रत्येक पर्याय में बहुत प्रकारसे सप्तभंगियां बना लेनी चाहिये । एक वस्तु अविरोध करके विधि और प्रतिषेध आदिकी कल्पना करना आचार्योंने सप्तभंगी कही है । पहिले प्रकरणों में कही गयी प्रमाण सप्तभंगीके समान यह नयसप्तभंगी भी अनेक प्रकारसे जोड लेनी चाहिये । प्रश्नके वशसे एक वस्तु या वस्तुके अंशमें विधि और प्रतिषेधकी कल्पना करना यह सप्तभंगीका लक्षण निर्दोष है । लक्ष्य के एकदेशमें रहनेवाले अन्याप्तिदोषकी इसमें सम्भावना नहीं है और यह सप्तभंगी अतिव्याप्ति दोषसे युक्त नहीं है, तथा असम्भव दोषवाली मी नहीं है । क्योंकि तिस प्रकार प्रतीतियों से वस्तुमें सातों भंग सम्भव जाते हैं। उसी निर्णयको यहां इस प्रकार समझ लेना चाहिये कि सबसे पहिले केवळ संकल्पको ही ग्रहण करनेवाले नैगमनयका आश्रय लेनेसे विधिकी कल्पना करना। क्योंकि प्रस्थ, इन्द्रप्रतिमा, आदिके केवल संकल्पस्वरूप जो प्रस्थ आदिक हैं उनको earth लिये जाता हूं, इस प्रकार व्यवहार हो रहा देखा जाता है । अर्थात् - प्रस्थका छाना नहीं है । किन्तु प्रस्थ के केवळ संकल्पका लाना है । अढैयाके चतुर्थांश अन्नको समालेनेवाले काष्ठनिर्मित पात्रको प्रस्थ कहते हैं । इस प्रस्थ के संकल्पकी नैगमनय के द्वारा विधि की गयी है । यदि कोई यों कहे कि भविष्य में होनेवाले पदार्थ में द्रव्यनिक्षेपसे हो चुके पदार्थ के समान यहां उपचारसे तिस प्रकारका व्यवहार कर लिया जाता है, जैसे कि कच्चे चावलोंमें पके भातका व्यवहार हो जाता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि उस नैगमनयकी प्रवृत्तिके अवसरपर प्रस्थ आदि के संकल्पका ही या संकल्पको प्राप्त हो रहे प्रस्थ आदिका ही अनुभव किया जा रहा है। इस कारण उस संकल्पको भविष्यकाळ सम्बन्धपिनेका अभाव है । प्रस्थ इन्द्र आदिका संकल्प तो वर्तमान कालमें विद्यमान है, संकल्प विचारा भविष्य में होनेवाला नहीं है। प्रस्थ, प्रतिमा, आदिक पर्यायस्वरूप होनेके लिये अभिमुख हो रहे काठको प्रस्थ, प्रतिमा, आदिकपने करके भविष्यकाळ सम्बधीपना है । अतः उस काष्ठमें उन प्रस्थ आदिपनेके उपचारकी अच्छी सिद्धि हो जाती है । किन्तु नैगम नयका विषय तो मुख्य ही है । क्योंकि प्रस्थ आदिके सद्भाव होनेपर या उनका अभाव होनेपर दोनों दशामें व्याप रहे उन प्रस्थ आदि सम्बन्धी संकल्पको तो अनुपचरितपना है । किन्तु द्रव्यनिक्षेपकी आड लेकर किया गया भावी में भूतपन वर्तमानपन के समान उसका व्यवहार तो मुख्य नहीं है । अर्थात् - द्रव्यनिक्षेपका विषय तो वर्तमान कालमें नहीं विद्यमान है । किन्तु नैगमका विषय संकल्प मुख्य होकर इस कालमें वर्त रहा है । अतः नैगम
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तत्वायचिन्तामणिः
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नयकी अपेक्षा प्रस्थ आदि की विधिको करनेवाला पहिला भंग बना लेना चाहिये। शेष छह नयोंकी अपेक्षा दूसरा भंग बनायो ।
तत्पतिसंग्रहाश्रयणात्मविषेषकल्पना न प्रस्थादिसंकल्पमात्र प्रस्थादि सन्मात्रस्य तथा प्रतीतेः असतः प्रतीतिविरोधादिति व्यवहाराश्रयणात् द्रव्यस्य तथोपलब्धेरद्रव्यस्यासतः सतो वा प्रत्येतुमशक्तेः पर्यायस्य तदात्मकत्वादन्यथा द्रव्यांसरत्वप्रसंगादिति ऋजुसूत्राश्रयणात्सर्यायपात्रस्य प्रस्थादित्वे नोपलब्धेः, अन्यथा प्रतीत्यनुपपत्तेरिति शद्धाश्रयणात् कालादिभेदाद्भिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वादन्यथातिप्रसंगात् । इति समभिरूढाश्रयणात् पर्यायभेदेन भिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वात् अन्यथातिप्रसंगादिति, एवंभूताश्रयणात् प्रस्थादिक्रियापरिणतस्यैवार्थस्य प्रस्थादित्वादन्यथातिप्रसंगादिति । तथा स्यादुभयं क्रमार्पितोभयनयार्पणात् स्यादवक्तव्यं, सहार्पितोभयनयाश्रयणात् अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भंगा यथायोगमुदाहायर्या इत्येताः षट्सप्तभंग्यः ।
उस संकल्पित प्रस्थ आदिके प्रति संग्रहनयके आश्रयसे प्रतिषेधकी कल्पना करना। क्योंकि केवळ प्रस्थ आदिका मानसिक संकल्प ही तो प्रस्थ, प्रतिमा, आदिक स्वरूप पदार्थ नहीं है। संकल्प तो असत् पदार्थो का भी हो जाता है । परन्तु तिस प्रकार प्रस्थ आदिके सद्भावपने करके तो केवल विद्यमान हो रहे पदार्थोकी ही प्रतीति हो सकती है। असत् पदार्थकी प्रतीति होनेका विरोध है । जब कि वस्तुभूत प्रस्थ आदिक नहीं है, तो वे संग्रहनयकी अपेक्षा यों नास्तित्व धर्मद्वारा प्रतिषिद्ध कर दिये जाते हैं । व्यवहारनयके आश्रयसे भी प्रतिषेध कल्पना कर लेना । क्योंकि सद्भावके होनेपर उसके व्याप्य हो रहे द्रव्यकी तिस प्रकार प्रस्थ, इन्द्रप्रतिमा आदिपने करके उपलब्धि हो पाती है । नैगमनयद्वारा केवल संकल्पित कर लिए गये असत् पदार्थकी अथवा संग्रहनयद्वारा सद्भूत जान लिये गये भी पदार्थको व्यवहारनयद्वारा तबतक प्रतीति नहीं की जा सकती है, जबतक कि वह द्रव्यपने करके या सामान्य पर्यायपने करके ब्यवहृत होता हुआ विभक्त नहीं किया गया होय । प्रकरणमें प्रस्थरूपपर्यायको उस प्रस्थ आत्मकपना है । यदि ऐसा नहीं मानकर दूसरे प्रकारोंसे मानोगे तो प्रस्थ, घट, पट, आदिको मिन भिन्न द्रव्य हो जानेका प्रसंग होगा । भावार्थ-व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय द्रव्य या पर्यायकी प्रस्थ आदि रूपकरके विधि कर सकता है। कोरे संकल्पको प्रस्थ नहीं कहना चाहता है। अतः व्यवहारनयसे भी प्रतिषेध कल्पनाकर दूसरे भंगको पुष्ट करो । इसी प्रकार ऋजुसूत्रनयके आश्रयसे प्रतिषेध कल्पना करो । ऋजुसूत्रनयके विचार अनुसार पात्ररूपसे बनाई जा चुकी केवल प्रस्थ, प्रतिमा, आदि पर्यायोंकी प्रस्थ आदिपने करके प्रतीति की जाती है । दूसरे प्रकारोंसे अर्थात्-संकल्प या सन्मात्र अथवा केवळ द्रव्य कह देनेसे ही प्रस्थ पर्यायकी प्रतीति होना नहीं बन पाता है । इस कारण ऋजुसूत्रनयसे भी नास्तित्व भंगको
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तत्वार्थकोकवार्तिके
साध लेना । तथा शब्दनयके आश्रयसे प्रतिषेध कल्पना करना, क्योंकि काल, कारक आदिके मेह से भिन हो रहे अर्थको प्रस्थ आदिपना है । अन्यथा यानी दूसरे ढंगोंसे प्रस्थ आदिकी व्यवस्था करनेपर अतिप्रसंग हो जायगा । कोरे काठ या पांचसेरीके पात्रको भी प्रस्थ कह लेनेके लिये कोई रोक नहीं सकेगा । इस कारण शब्दनयसे नास्तित्व भंगको सिद्ध करो। तथा छटे समभिरूढनय का आश्रय नेसे प्रतिषेधकी कल्पना करो । क्योंकि प्रस्थ, पल्य, आदि पर्यायवाचक शब्दोंके भेद हो जाने करके मिन मिन हो रहे अर्थको प्रस्थ आदिपना है। अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा। अर्थात्-पूर्व नयोंके व्यापक अर्थोमें समभिरूढनय वर्त जायगा तथा इसी प्रकार नैगम नयकी अपेक्षा विधि की कल्पना करते हुये एवंभूतनयका आश्रय करनेसे निषेध की कल्पना करना । क्योंकि प्रस्थ आदि की क्रिया करनेमें परिणत हो रहे ही अर्थको प्रस्थ आदिपना है। अन्यथा माननेपर अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात्-जिस समय नापनेके लिये पात्रमें गेंहू, धान, भले प्रकार स्थित हो रहे हैं, उसी समयकी पात्र अवस्थाको प्रस्थ कहना चाहिये । खाली रखे हुये पात्रको प्रस्थ नहीं मानना चाहिये । अन्यथा गडबड फैल जायगी। जगत्में चाहे जिस पदार्थको चाहे जिस शद्बकरके कह दिया जावेगा। विचार करने पर प्रतीत होता है कि जन्मभरमें एक बार भी पढा देनेसे मनुष्य पाठक कहा जा सकता है । एक चेतना गुणके होनेसे सम्पूर्ण गुणोंका पिण्ड आत्मा चेतन कह दिया जाता है । एक दिन या एक घण्टे व्यभिचार या चोरी करनेसे जन्मभरके लिये व्यभिचारी या चोर वह गिना जाता है। किन्तु एवंभूतनयकी मनीषा न्यारी है । अतः एवंभूतकी परिणतिको मूलकारण समझो । उसको छोड देने पर समी शाखायें तितर बितर हो जाती हैं। पूर्व नयोंके व्यापक विषयको एवंभूत नहीं पकडती है । इसकी अपेक्षा परवस्तुओंको चुराता हुआ ऐडे पर पकडा गया चोर चोट्टा है। न्यायालयमें खडा हुआ वही मनुष्य चोर नहीं है। इसी प्रकार व्यभिचारीकी व्यवस्था समझो । अतः छह प्रकारोंसे दो मूलभंगोंकी बनाना । इसी प्रकार तीसरा भंग क्रमसे अर्पित किये गये दोनों नयोंकी अर्पणासे कथंचित् उभय बना लेना तथा एक साथ कहनेके लिये अर्पित किये दोनों नयके आश्रय कचित् अवक्तव्य यों चौथा भंग बनाना। तथा जिनके उत्तर कोटिमें अवक्तव्य पडा हुआ है, ऐसे बचे हुये अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अस्तिनास्ति अवक्तव्य, ये तीन भंग भी यथायोग्य विवाक्षाओंका योग मिलाने पर उदाहरण करने योग्य हैं । इस प्रकार ये छह सप्तमंगियां समझा दी गयी हैं ।
तथा संग्रहाश्रयतो विधिकल्पना स्यात् सदेव सर्वमसतोऽप्रतीतेः खरश्रृंगवदिति तत् प्रतिषेधकल्पना व्यवहाराश्रयणान्न स्यात्, सर्व सदेव द्रष्यत्वादिनोपलब्धेव्यादिरहितस्य सन्मात्रस्यानुपलब्धेश्चेति ऋजुसूत्राश्रयणात् प्रतिषेधकल्पना न सर्व स्यात् । सदेव वर्तमानापादन्येन रूपेणानुपलब्धेरन्यथा अनायनंतसत्तोपलंभप्रसंगादिति शब्दाश्रयणा
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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प्रतिषेधकल्पना न सर्व स्यात्सदेव कालादिभेदेन भिन्नस्यार्थस्योपलब्धेरन्यथा कालादिभेदानर्थक्यप्रसंगादिति समभिरूढाश्रयात्प्रतिषेधकल्पना न सर्व सदेव स्थात्, पर्यायभेदेन भिन्नस्यार्थस्योपलब्धेरन्यथैकपर्यायत्वप्रसंगात् इति । एवंभूताश्रयात् प्रतिषेधकल्पना न सर्व सदेव तत्क्रियापरिणतस्यैवार्थस्य तथोपपत्तेरन्यथा क्रियासंकरप्रसंगात् इति । तथोभयनय क्रमाक्रमार्पणादुभयावक्तव्यकल्पना, विधिनयाश्रयणात्सहोभयनयाश्रयणाच्च विध्यवक्तव्यकल्पना प्रतिषेधन याश्रयणात् सहो भयनयात्रयणाच्च प्रतिषेधावक्तव्यकल्पना क्रमाक्रमोभयनयाश्रयणात्तदुभयावक्तव्यकल्पनेति पंचसप्तभंग्यः ।
तिमी नैगमनयकी पद्धति अनुसार संग्रहनयका आश्रय करनेसे विधिक कल्पना होगी । सम्पूर्ण प्रतीत किये जा रहे पदार्थ सद्भूत ही हैं। गर्दभके सींग समान असत् पदार्थोंकी प्रतीति नहीं हो पाती है । इस प्रकार संग्रहनयसे सब सत् हैं । " स्यात् सदेव सर्व " ऐसा पहिला भंग बनाना तथा व्यवहारनयके आश्रयसे उसके निषेधकी कल्पना करना " न स्यात् सर्व सदेव ", किसी अपेक्षा सम्पूर्ण पदार्थ केवल सत्रूप ही नहीं हैं। क्योंकि व्यवहारमें द्रव्यपने या पर्यायपने करके पदार्थोकी उपलब्धि हो रही है । द्रव्यगुणपर्याय या उत्पादव्ययधौन्यसे रहित हो रहे कोरे सत् की स्वप्न में भी उपलब्धि नहीं है । अन्यथा यानीं द्रव्य और पर्यायके विना कोरा सत् दीख जायगा तो जीव या घटका उपलम्भ करनेपर उसकी अनादिकाल से अनन्तकाळतक वर्त रही सत्ताके उपलम्म हो जानेका प्रसंग होगा । किन्तु व्यवहारी जनोंको लम्बी चौडी, कोरी, सत्ताका उपलम्भ नहीं होता है । भले ही द्रव्य और पर्यायों में विशेषण हो रहे सत्का ज्ञान हो जाय । अतः व्यवहारनयसे कोरे सत्की निषेध कल्पना की गयी है । इसी प्रकार ऋजुसूत्र नयके आश्रयसे प्रतिषेधकी कल्पना करना " न सर्व स्यात् सदेव " सभी पदार्थ कथंचित् सत्रूप ही नहीं है । क्योंकि वर्तमान पर्यायस्वरूपसे अन्य स्वरूपों करके पदार्थोंकी उपलब्धि नहीं हो रही है । अन्यथा यानी ऋजुसूत्रनयसे वर्तमान पर्यायोंके अतिरिक्त पर्यायोंकी भी विधि दीखने लगेगी, तो अनादि, अनन्त, काळकी पर्यायोंका सद्भाव दीख जाना चाहिये | यह प्रसंग टल नहीं सकता है । श्रतः संग्रहनयसे सत् की विधिको करते
ये सूत्र नयसे प्रतिषेध कल्पना करना अच्छा जच गया। इसी प्रकार शद्वनयके आश्रयसे प्रतिषेध कल्पना कर लेना " न सर्व स्यात् सदेव " सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् सत्रूप ही नहीं हैं । क्योंकि काल, कारक, संख्या आदिके भेदकर के भिन्न भिन्न हो रहे अर्थोंकी उपलब्धि हो रहीं है । अर्थात्-काल आदिकसे भिन्न हो रहा पदार्थ तो जगत् विद्यमान है । शेष कोई कोरा सत् पदार्थ नहीं है । अन्यथा काल, कारक, आदिके मेद करनेके व्यर्थपनका प्रसंग होगा, जो कि इष्ट नहीं है । इसी प्रकार समभिरूढनय के आश्रयसे प्रतिषेध कल्पना कर लेना । सभी पदार्थ कथंचित् सत्
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तत्वार्थशोकवार्तिके
रूप ही नहीं हैं । क्योंकि पर्यायोंको कहनेवाले पर्यायवाची शद्वोंके भेद करके भिन्न भिन्न अर्थोकी उपलब्धि हो रही है। अन्यथा एक ही पर्यायवाची शब्दकरके कथन हो जानेका प्रसंग होगा। अथवा पदार्थकी एक ही पर्याय मान लेनेसे प्रयोजन सध जाने चाहिये । देवोंको अमर, निर्जर, देव, आदि शद्बोंसे या स्त्रीको अबला, सीमन्तिनी, मुग्धा, शद्बोंसे कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। अपमृत्यु नहीं होने की अपेक्षा देव अमर कहे जाते हैं । बुढापा नहीं आनेकी अपेक्षा वे निर्जर कहे जाते हैं। क्रीडा करनेकी पर्यायोंसे वे देव हैं, तथा गर्भ धारणकी अपेक्षा स्त्री है। निर्बलता धर्मकरके वह अबला है, सुन्दर केशपाश होनेसे वह सीमन्तिनी है । भोलेपनकी अपेक्षा स्त्रीको मुग्धा कहते हैं । इस प्रकार भिन्न भिन्न पर्यायोंसे युक्त पदार्थ तो समभिरूढ नयकी दृष्टिसे सत् है। शेष कोरे सत् तो असत् ही हैं । तथा संग्रहनयकी अपेक्षा विधिकी कल्पना करते हुये तभी एवंभूतनयके आश्रयसे प्रतिषेधकी कल्पना कर लेना " न स्यात् सर्व सदेव " सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् सतरूप ही नहीं हैं। क्योंकि उस उस क्रियामें परिणम रहे ही अर्थको तिस प्रकार होना बनता है। अन्य ढंगोंसे सद्भूतपना मान लेनेपर क्रियाओंके संकर हो जानेका प्रसंग हो जायगा । तेलीका काम तमोलीसे नहीं लिया जा सकता है । हिंसक नर क्षमाधारी नहीं हो सकता है । व्यभिचारी और ब्रह्मचारीकी क्रिया एक नहीं है । अतः संग्रहनयके द्वारा कोरे सत्की विधि हो जानेपर भी क्रिया परिणतियोंके विना यह नय उसको असत् ही यों कहता जायगा, जैसे कि आप्तपुरुष द्वारा भाईके आ जानेका सद्भाव जान करके भी अन्धी स्त्री तबतक उस भाईका असद्भाव मानती है, जबतक कि उसको वह भ्रातृरूपसे शारीरिक मिलनद्वारा मिलता नहीं है या प्रियसम्भाषण क्रियाको करता नहीं है। इस प्रकार संप्राकी अपेक्षा विधिकल्पना और व्यवहार आदि पांच नयोंसे निषेधकल्पना करते हुये पांच प्रकार के दो मूलभंग बना लेना तथा संग्रह व्यवहार या संग्रह ऋजुसूत्र आदि यों दो दो मयके क्रम और अक्रमकी विवक्षा कर देनेसे तीसरे उभय भंग और चौथे अवक्तव्य भंगकी कल्पना कर लेना चाहिये । और विधि प्रयोजक संग्रहनयका आश्रय करनेसे तथा साथ कहनेके लिये उभय नयोंका आश्रय कर लेनेसे पांचवां अस्ति अवक्तव्य भंग बना लेना तथा प्रतिषेधके प्रयोजक नयोंका आश्रय कर लेने और एक साथ दो नयोंके अर्थ प्रतिपादन करनेका आश्रय करनेसे छठे प्रतिषे. धावक्तव्य धर्मको कल्पना कर लेनी चाहिये तथा क्रमसे अक्रमसे और उभय नयोंके एक साथ प्रतिपादनका आश्रय करनेसे उन वीधि निषेधके साथ दोनोंका अवक्तव्य नामका सातवा भंग बन जाता है । इस प्रकार संग्रहसे विधिकी विवक्षा कर और उत्तरवर्ती पांच नयोंसे निषेधकी विवक्षा कर दो मूलभंगोंके द्वारा पांच सप्तभंगियां यहांतक बना दी गयी हैं।
तथा व्यवहारनयाद्विधिकल्पना सर्व द्रव्याद्यात्मकं प्रमाणप्रमेयव्यवहारान्यथानुपपत्तेः कल्पनामात्रेण तव्यवहारे स्वपरपक्षव्यवस्थापननिराकरणयोः परमार्यतोनुपपत्तरिति
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तत्वार्थचिन्तामणिः
तं प्रति तावदृजुसूत्राश्रयात्प्रतिषेधकल्पना न सर्व द्रव्याद्यात्मकं पर्यापमात्रस्योपलब्धेरिति शब्दसमभिरूढैवंभूताश्रयात् प्रतिषेधकल्पना न सर्व द्रव्याद्यात्मकं, कालादिभेदेन, पर्यायभेदेन क्रियाभेदेन च भिन्नस्यार्थस्योपलब्धेः इति । प्रथमद्वितीयभंगौ पूर्ववदुत्तरे भंगा इति चतस्रः सप्तभंग्यः प्रतिपत्तव्याः ।
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तथा तीसरे व्यवहारनयसे विधिकी कल्पना करना " स्यात् सर्व द्रव्याद्यात्मकं " सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् द्रव्यपर्याय आदिक स्वरूप हैं। क्योंकि अन्यथा यानी पदार्थोंके द्रव्य, पर्याय, आदि स्वरूप माने विना प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता, आदिके व्यवहार नहीं बन सकते हैं । बौद्धोंके अनुसार कोरी कल्पनासे उन प्रमाण, प्रमेयपनका व्यवहार माना जायगा तो स्वपक्षकी सिद्धि करादेने और परपक्षका निराकरण कर देनेकी यथार्थ रूपसे व्यवस्था नहीं बन सकेगी । इसके लिये वस्तुभूत द्रव्य या पर्यायों को मानते हुये प्रमाण, प्रमेय, व्यवहार साधना पडता है । द्रव्य या स्थूळपर्यायोंको माननेवाले उस व्यवहारीके प्रति तो अब ऋजुसूत्र नयका आश्रय करनेसे दूसरे भंग प्रतिषेधकी कल्पना करो " न सर्व द्रव्याद्यात्मकं " सभी पदार्थ कथंचित् द्रव्य या सहभावी पर्यायों स्वरूप ही नहीं हैं। क्योंकि हमें तो केवल वर्तमानकाल की सूक्ष्म, स्थूल पर्यायें ह्रीं दीख रही हैं । द्रव्य या भेद प्रभेदवान् चिरकालीन पर्यायें तो नहीं दीख रही हैं । अतः नास्तित्व भंग सिद्ध हो गया । इसी प्रकार शद्व समभिरूढ और एवंभूत नयोंके आश्रयसे प्रतिषेध की यों कल्पना करना कि " न सर्व द्रव्याद्यात्मकं " सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् द्रव्य, पर्याय आदि स्वरूप ही नहीं हैं । क्योंकि काल, कारक, आदिके मेद करके अथवा पर्यायवाची शब्दोंके वाच्य अर्थका भेद करके तथा भिन्न भिन्न क्रिया परिणतियोंके भेद करके भिन्न भिन्न अर्थोकी उपलब्धि हो रही है। कोरे द्रव्य और पर्याय ही नहीं दीख रहे हैं। इस प्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षा पहिला मंग और शेष चार नयोंकी अपेक्षा दूसरा दूसरा भंग बना कर पहिले दूसरे भंगों को बना देना । पश्चात् पूर्वक्रमके अनुसार क्रम अक्रम आदि द्वारा ( करके ) शेष उत्तरवर्ती पांच मंगोंको बना ना । इस प्रकार ये चार सप्तमंगियां समझ लेनी चाहिये ।
तथर्जुमूत्राश्रयाद्विधिकल्पना सर्व पर्यायमात्रं द्रव्यस्य क्वचिदव्यवस्थितैरिति तं प्रति शब्दाश्रयात्प्रतिषेधकल्पना । समभिरूदैवं भूताश्रयाश्च न सर्व पर्यायमात्रं काळादिभेदेन पर्यायभेदेन क्रियाभेदेन च भिन्नस्य पर्यायस्योपपत्तिमन्वादिति । द्वौ भंगौ क्रमाक्रमार्पितोभयनयास्तृतीयचतुर्थभंगा : त्रयोन्ये प्रथमद्वितीयतृतीया एव वक्तव्योत्तरा यथोक्तनययोगादवसेया इति तिस्रः सप्तभंग्यः ।
तिसी प्रकार ऋजुसूत्रनयका आश्रय लेनेसे विधिकी कल्पना करना " सर्व जगत् पर्यायमात्र - मस्ति ” सम्पूर्ण पदार्थ केवल पर्यायस्वरूप ही हैं । नित्यद्रव्यकी कहीं भी व्यवस्था नहीं है । इस प्रकार ऋजुसूत्रनयसे अस्तित्वकी कल्पना करनेवाले उस वादीके प्रति शब्दनयका आश्रय लेनेसे
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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
निषेधकी करपना कर लेना तथा समभिरूढनय और एवंभूतनयका आश्रय लेनेसे भी निषेधकी कल्पना कर लेना चाहिये । क्योंकि सभी पदार्थ केवल काल आदि द्वारा अभेदको धारनेवाली पर्यायों स्वरूप नहीं हैं । किन्तु काळ, लिंग, आदिके भेद करके अथवा भिन्न भिन्न पर्यायवाची शन्दोंके भेद करके एवं न्यारी न्यारी क्रिया परिणतियों करके भिन्न हो रही पर्यायें ही सिद्धिमार्गपर कांई जा चुकी हैं । अर्थात्-शब्द, सममिरूढ और एवंभूत, नय तो काल, कारक, रूढि और क्रिया परिणतियोंसे पृथक् पृथक् बन रही पर्यायोंका ही सत्त्व मानते हैं। वर्तमानकालकी सामान्यरूपसे हो रही पर्यायोंका अस्तित्व नहीं मानते हैं । अतः तीन प्रकारोंसे दूसरा भंग बन गया । मूलभूत दो भंगोंको बनाकर क्रम और अक्रमसे यदि दो नयोंको विवक्षित किया जायगा तो तीन प्रकारके तीसरे, चौथे, भंग बन जायंगे । जिनकी उत्तर कोटिमें अवक्तव्य पद लग गया है, ऐसें प्रथम द्वितीय और तीसरे भंग ही प्रक्रिया अनुसार ऊपर कहे गये नयोंके योगसे पांचवें, छठे, सातवें ये अन्य तीन भंग समझ लेने चाहिये । इस प्रकार ऋजुसूत्रनयसे अस्तित्वकी कल्पना करते हुये और शब्द सममिरूद, एवंभूत नयोंसे नास्तित्वको मानते हुये दो मूल भंगोंके द्वारा तीन सप्तभंगियां हुई ।
तथा शवनयाश्रयात् विधिकल्पना सर्व कालादिभेदाद्भिनं विवक्षितकालादिकस्यार्थस्थाविवक्षितकालादित्वानुपपत्तेरिति । तं प्रति समभिरूद्वैवंभूताश्रया प्रतिषेधकल्पना न सर्व कालादिभेदादेव भिन्नं पर्यायभेदात् क्रियाभेदाच भिन्नस्यार्थस्य प्रतीतेः इति मूलभंगद्वयं पूर्ववत् परे पंचभंगाः प्रत्येया इति द्वे सप्तभंग्यौ ।
तिसी प्रकार शद्वनयका माश्रय कर लेनेसे विधिकी कल्पना करना कि काल, कारक,आदिसे विभिन्न होते हुये सभी पदार्थ अस्तिस्वरूप हैं। क्योंकि विवक्षाको प्राप्त हो रहे काल, कारक, आदिकसे विशिष्ट हुए अर्थको अविवक्षित काल, कारक आदिसे सहितपना असिद्ध है । अर्थात्-सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने नियत काक, कारक, वचन, आदिको लिये हुये जगतमें विद्यमान हैं । इस प्रकार अस्तित्वकी कल्पना करनेवाले उस वादीके प्रति समभिरूढ़ और एवंभूत नयका आश्रय लेती हुई प्रतिषेध कल्पना कर लेनी चाहिये । कारण कि केवल काल, कारक, भादिके भेद होनेसे ही भिन मिन्न हो रहे सभी पदार्थ जगत में नहीं है। किन्तु पर्यायोंके मेदसे और क्रिया परिणतियोंके भेदसे मिन मिन वर्त रहे पदार्थोकी प्रतीति हो रही है । जब कि ये सममिरूढ और एवं मूतनय पर्याय और क्रिया परिणतियोंसे युक्त होकर परिणमें हुये पर्यायोंकी सत्ताको मानती हैं, तो ऐसी दशामें शद्वनयका व्यापक विषय इनकी दृष्टि में नास्ति ठहरता है । इस प्रकार दो मूल मंगोको बनाते हुये पूर्व प्रक्रियाके समान शेष परले पांच भंगों को भी प्रतीत कर लेना चाहिये । इस प्रकार शद्वनयकी अपेक्षा अस्तित्व और समभिरूढ एवं. भूतोंकी अपेक्षा नास्तित्व धर्मको मानते हुये दो मूल भंगों द्वारा एक एक सप्तभंगीको बनाते हुये दो सप्तभंगियां बन गयी समझ लेनी चाहिये ।
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तवार्थचिन्तामणिः
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तया समभिरूढ्याश्रया विविधकल्पना सर्व पर्यायभेदाद्भिनं विवक्षितपर्यायस्याविक क्षितपर्यायत्वेनानुपलब्धेरिति तं प्रत्येवंभूताश्रया प्रतिषेधकल्पमा न सर्व पर्यायभेदादेव भिजे क्रियाभेदेन पर्यायस्य भेदोपलब्धेरिति । एतत्संयोगजाः पूर्ववत्परे पंचभंगा प्रत्येतव्या इत्येका सप्तभंगी । एवमेवा एकविंशतिसप्तभंग्यः।
तथा समभिरूढ नयका आश्रय कर विधिकी यों कल्पना करना कि सम्पूर्ण पदार्थ न्यारी म्यारी पर्यायोंको कहनेवाले पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे भिन्न हो रहे ही अस्तिस्वरूप हैं, क्योंकि ' विवक्षामें प्राप्त की गयी पर्यायकी अविवक्षित अन्य पर्यायपने करके उपलब्धि नहीं हो पाती है । इस प्रकार कहनेवाले उस विद्वान्के प्रति एवंभूतनयका आश्रय लेती ई प्रतिषेधकी कल्पना कर लेना । क्योंकि पर्याय भेदोंसे ही मिन्न हो रहे सभी पदार्थ जगत में अस्ति हैं, यह नहीं हैं। किन्तु न्यारी न्यारी क्रियापरिणतियोंके मेद करके पर्यायोंके भेदकी उपलब्धि हो रही है। अतः एवंभूत की दृष्टिसे उस उस क्रिया परिणमते हुये ही अर्थ आ रहे हैं । रसोईको बनाते समय ही वह पाचक है । खाते, गाते, नहाते, सोते, जाते, सभी समयोंमें वह पाचक नहीं है । अतः सममिरूढ नयद्वारा जिस धर्मकी विधि की गयी थी, उसी धर्मका एवं भूतद्वारा प्रतिषेध कर दिया गया है। इन विधि और निषेधके संयोगसे जायमान अन्य पांच भंग भी पूर्वप्रक्रियाके समान समझ लेने चाहिये । अर्थात-सममिरूढ और एवंभूत नयोंकी क्रमसे विवक्षा करनेपर तीसरा उभय भंग है। समभिरूढ और एवंभूतके गोचर हो रहे धर्मोकी युगपत् विवक्षा करनेपर चौथा अवक्तव्य भंग है । विधिके प्रयोजक सममिरूढ नयका आश्रय करने और समभिरूढ, एवंभूत दोनों नयोंके एक साथ कथनका पाश्रय करनेसे पांचवा विधि अवक्तव्य भंग है । प्रतिषेधके प्रेरक एवम्भूत नयका आश्रय लेलेने और सममिरूढ एवंभूत दोनोंको एक साथ कहनेका आश्रय कर लेनेसे छट्ठा प्रतिषेधावक्तव्य भंग है । विधि प्रतिषेधोंके नियोजक नयोंका आश्रय करनेसे और युगपत् सममिरूढ एवंभूतोंकी विवक्षा हो जानेसे सातवें विधिप्रतिषेधावक्तव्य भंगकी कल्पना कर लेनी चाहिये । यह एक सप्तभंगी हुई । इस प्रकार छह, पांच, चार, तीन, दो, एक, ६+५+४+३+२+१=२१ ये सब मिलाकर इक्कीस सप्तभंगियां हुई।
वैपरीत्येनापि तावत्या प्रपंचतोभ्यूह्या । .
विपरीतपने करके भी उतनी ही संख्यावाली २१ सप्तभंगियां विस्तारसे स्वयं अपने आप तर्कणा करने योग्य हैं। अर्थात्-एवंभूतनयकी अपेक्षा रसोईको बनाते समय ही मनुष्य पाचक है। अन्य पर्यायोंमें या बहुवचन आदि कवस्थामें मन करनेका पर्यायमें, सामान्य मनुष्यपनके व्यवहारमें संगृहीत सत् पदार्थोंमें, और संकल्पित पदार्थोमें, वह पाचक नहीं है । अतः एवंभूत नयकी अपेक्षा अस्तित्व धर्मको मानकर शेष छह नयोंकी अपेक्षा नास्तित्वको गढते हुये दो मूल भंगोंकी मित्ति पर
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तत्वार्यश्चोकवार्तिके
छह सप्तभंगियां बना लेना । तथा सममिरूढसे विधिकी कल्पना करते हुये शब्द, ऋजुसूत्र, व्यवहार, संग्रह, और नैगम नयकी अपेक्षासे नास्तित्वको कल्पते हुये पांच सप्तभंगियां बना लेना । सममिरूढ नयकी मनीषा है कि सभी पदार्थ अपने अपने वाच्य पर्यायोंमें ही आरूढ हो रहे हैं । इसकी व्याप्य दृष्टिमें पूर्व पूर्व नयों के व्यापक विषय उसी प्रकार नहीं दीखते हैं, जैसे कि भूरे बछडेमें गौ पमेके व्यवहारको सीख कर बालक अन्य पीली काली गायें या बडे बडे बैलोंमें गौपनेका व्यवहार नहीं करना चाहता है । या कूपमंडूक ( कूएका मेंडका ) समुद्रको अपने क्षेत्र हो रहे कुएसे बढा हुआ मानने के लिये उद्युक्त नहीं है । अतः समभिरूढसे अस्तित्व और शब्द आदिकसे नास्तित्व ऐसे दो मूल मंगोंसे पांच सप्तभंगियां बन जाती हैं । तथा शब्द नयकी अपेक्षा अस्तित्व और ऋजुसूत्र, व्यवहार, संग्रह, नैगमोंकी अपेक्षा नास्तित्वको मानते हुये दो मूल भंगोंसे चार सप्तभंगियां बन जाती हैं । शद्वनयका उस अनुदार पुरुष या किसी अपेक्षा संतोषी मनुष्यके समान ऐसे हार्दिक भाव हैं कि थोडी कमाई अपने लिये और अधिक कमाई दूसरोंके लिये होती है । काल, कारक, आदिकसे भिन्न हो रहे पदार्थ ही इसको दीख रहे हैं। संकल्पित या संगृहीत अथवा सम्बे चौडे व्यवहारमें आनेवाले पदार्थ या सरळ पर्यायें मानों हैं ही नहीं । तथा ऋजुसूत्रकी अपेक्षा पहिले अस्तित्व भंगको कल्पना कर व्यवहार, संग्रह, नैगम नयोंसे दूसरे नास्तित्व भंगको गढते हुये दो मूळ भंगोंद्वारा तीन सप्तभंगियां बना लेना । ऋजुसूत्रनय वर्तमान पर्यायोंपर ही दृष्टि रखती है। व्यवहार करने योग्य या संग्रह प्रयोजक धर्म अथवा लम्बे चौडे संकल्प इनको नहीं छूती है । शश (खरगोश ) अपनी आंखों के ढक लेने पर अन्य पदार्थोके अस्तित्वको नहीं स्वीकार करता है । ऋजुसूत्रनयका उस स्वार्थी मनुष्यके समान यह संकुचित विचार है कि जगत्में मलाई या यशोवृद्धि के कार्योको करनेवाले पुरुष अपनी शारीरिक आर्थिक क्षतियोंको झेलते हुये प्राप्त लौकिक सुखोंसे भी वंचित रह जाते हैं । गोदकेको छोडकर पेटके की आशा लगाना मूर्खता है। तथा व्यवहारनयसे अस्तित्वकी कल्पना कर संग्रह, नैगम, नयोंसे प्रतिषेधकी कल्पना करते हुये दो मूलभंगोंद्वारा दो सप्तमंगियां बना लेना । व्यवहारमें आ रहे द्रव्य, पर्याय, आदिक ही पदार्थ हैं । सत् सामान्यसे संगृहीत हो रहे पदार्थ कहीं एकत्रित नहीं हो रहे हैं। अपना अपना लोटा छानो । नियत कार्यसे अधिक कार्यको करनेवालोंसे दोनों काम अधूरे रह जाते हैं । " जाको कारज ताको छाजे गदहा पीठ मोगरा वाजै " चोरोंके घुस आनेपर प्रभूको जगानेके लिये आलसी कुत्तेके कार्यको भी सम्हालनेवाला गधा विचारा मोगरोंसे पीटा गया। तथा संग्रहनयकी अपेक्षासे अस्तित्व मानते हुये नैगम की अपेक्षा नास्तित्वभंगकी कल्पना कर पूर्वोक्त पद्धति अनुसार एक सप्तमंगी बना लेनी चाहिये । संग्रहनय विचारता है कि अपना नियत ही कार्य करो। " कार्य हि साधयेद् धीमान् कार्यध्वंसो हि मूर्खता " "तेता पांव पसारिये जेती लम्बी सौड" । भले ही राजकुमार सरोवरमें डूब मरे किन्तु खबाने क्रीडा कराने, कपडे पहराने, गहना पहनाने, दूध पिलाने, घोडापर बैठाने, सुलानेके लिए
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तत्वार्थचिन्तामणिः
जो सात सेवक रखे गये हैं, साथ हो रहे उनमें से किसीका भी कर्तव्य डूब मरनेसे बचाना नहीं है । अपने कर्तव्योंसे इतर कर्तव्योंका भी संकल्प कर अवसरको साध लेना इसने नहीं सीखा है । इस प्रकार विपरीतपने करके भी ६+2+४+३+२+१ = २१ इक्कीस सप्तमंगियां हुयीं । उत्तर वर्ती नयों करके पूर्ववर्त्ती नयोंके विषयका सर्वथा निषेध नहीं कर दिया गया है । जिससे कि इनको कुनयपनेका प्रसंग प्राप्त होय, किन्तु उपेक्षा भाव है । पूर्वकी सप्तभंगियों में भी तो उत्तरवर्ती नयों द्वारा प्रतिषेध कल्पना उपेक्षाभावोंके अनुसार ही की गयी थी । अन्य कोई उपाय नहीं । न्यारी न्यारी विवक्षाओं के अनुसार अन्य ढंगोंसे भी कई प्रकारकी सप्तभंगियां बनायीं जा सकती हैं। श्रेष्ठ वक्ताको पदार्थों के स्वभावोंकी भित्तिपर बहुत कुछ कह देनेका अधिकार प्राप्त है । " ज्यों केलाके पात पात पात में पात, त्यो पण्डितकी वातमें बात बातमें बात, ”। यदि इसमें वस्तु स्वभावोंके अनुसार इतना अंश प्रविष्ट (घटित ) हो जाय तो उक्त सिद्धान्त अक्षरशः सत्य है । " यावतो भंगास्तावन्तः प्रत्येकं स्वभावभेदाः " । यह विद्यामें आनन्द को माननेवाले आचार्योंका सब ओरसे भद्रोंको करने वाला अकळंक सिद्धान्त है ।
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तथोत्तरनय सप्तभंग्यः सर्वाः परस्परविरुद्धार्थयोर्द्वयोर्नवभेदप्रभेदयोरेकतरस्य स्वविपविधौ तत्प्रतिपक्षस्य नयस्यावळंबनेन तत्प्रतिषेधे मूलभंगद्वयकल्पनया यथोदितन्यायेन तदुत्तरभंगकल्पनया च प्रतिपर्यायमवगंतव्याः । पूर्वोक्तप्रमाणसप्तभंगीवत्तद्विचारच कर्तव्यः । प्रतिपादितनय सप्तभंगीष्वपि प्रतिभंगं स्यात्कारस्यैवकारस्य च प्रयोगसद्भावात् ।
1
तिसी प्रकार मूळ नयोंके समान उत्तर नयोंकी भी सम्पूर्ण सप्तमंगियां समझ लेनी चाहिये । परस्पर में विरुद्ध हो रहे दो अर्थोंमेंसे किसी भी एककी अथवा नैगमनयके नौ भेद प्रभेदोंमेंसे किसी भी एककी अपने गृहीत विषय अनुार विधि करनेपर और उसके प्रतिपक्ष हो रहे नयका आश्रय लेनेसे उस धर्मका प्रतिषेध करनेपर दो मूलभंगों की कल्पना करके पूर्वमें कही गयी यथायोग्य न्यायपद्धति से और उन दोके उत्तरवर्ती पांच मंगोंकी कल्पना करके प्रत्येक पर्याय में सप्तभंगियां समझ केनी चाहिये | अर्थात्-नैगमके नौ भेदोंमें परस्पर अथवा संग्रह आदिके उत्तर मेदोंके अनुसार दो मूलमंगोंको बनाते हुये सैकडों सप्तभंगियां बनायी जा सकती हैं। प्रश्नके बशसे एक वस्तुम विधिनिषेधोंकी व्यस्त और समस्त रूपकरके कल्पना करना सप्तभंगी है । अर्थ पर्याय नैगमकी अपेक्षा विधिकी कल्पना कर और परसंग्रहका अवलम्ब लेकर निषेधकी कल्पना करते हुये दो मूढ भंगो करके सप्तभंगी बना लेना । पूर्व प्रकणोंमें कहीं गयीं प्रमाणसप्तभंगियोंके समान नयसप्तमंगियोंका विचार भी कर लेना चाहिये । अर्थात् - " प्रमाणनयैरधिगमः " सूत्रमें अडतालीसवीं वार्त्तिक से छप्पनवीं वार्तिकतक प्रमाणसप्तभंगीका जिस ढंगसे विचार किया गया है, वही नयसप्तभंगीमें लागू हो जाता है । प्रमाण सप्तभंगीमें अम्य धर्मोकी अपेक्षा
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
रहती है। और नयसप्तभंगीमें अन्य धर्मोकी उपेक्षा रहती है । इन समझा दी गयीं उक्त सभी नयसप्तभंगियोंमें प्रत्येक मंगके साथ कथंचित्को कहनेवाले स्यात्कारका और व्यवच्छेदको करनेवाले एवकारका प्रयोग करना विद्यमान समझो। " स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः " सत्यकी छाप स्यात्कार है । दृढताका बोधक एवकार है ।
तासां विकलादेशत्वादेश्च सकलादेशत्वादेस्तत् सप्तभंगीतः सकलादेशात्मिकाया विशेष व्यवस्थापनात् । येन च कारणेन सर्वनयाश्रयाः सप्तधा वचनमार्गाः प्रवर्तते ।
___ उन नय सप्तभंगियोंको विकलादेशशद्वएना है । और विकलज्ञानपना है, तथा विकल अर्थपना आदि है। किन्तु प्रमाण सप्तभंगियोंको सकलादेश शद्बपना आदि है। इस कारण सकलादेश स्वरूप हो रही उस प्रमाणसप्तभंगीसे इस नयसप्तभंगीके विशेष हो जानेकी व्यवस्था करा दी गयी है । अनन्त सप्तमंगियोंके विषय हो रहे अनन्त धर्मसप्तकस्वभाव वस्तुका काल, आत्मरूप, आदि करके अभेदवृत्ति या अभेद उपचार करके प्रकाश करनेवाला वाक्य सकलादेश है। और एक सप्त भंगीके विषय हो रहे स्वभावोंका प्रकाशक वाक्य विकलादेश है । जिस कारणसे कि वस्तु स्वभावों अनुसार सात प्रकारके संशय, जिज्ञासा और प्रश्न उठते हैं, इसी कारण सम्पूर्ण नयोंके अवलम्ब हो रहे सात प्रकारके ही वचनमार्ग प्रवर्त रहे हैं । न्यून और अधिक वाक्योंकी सम्भावना नहीं है।
सर्वे शद्वनयास्तेन परार्थप्रतिपादने । स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननयाः स्थिताः ॥ ९६ ॥ वै नीयमानवस्त्वंशाः कथ्यतेऽर्थनयाश्यते ।
त्रैविध्यं व्यवतिष्ठते प्रधानगुणभावतः ॥ ९७ ॥
तिस कारणसे ये सभी सातों नय दूसरे श्रोताओं के प्रति वाच्य अर्थका प्रतिपादन करनेपर तो शब्दस्वरूप नय हैं और ज्ञान करनेवाले आत्माको स्वार्थीका प्रकाश करनेकी विवक्षा होनेपर ये सभी नय ज्ञानस्वरूप व्यवस्थित हो रहे हैं। " नीयतेऽनेन इति नयः " यह करणसाधन व्युत्पत्ति करनेपर उक्त अर्थ लब्ध हो जाते हैं । स्वयं आत्माको ज्ञान और अर्थका प्रकाश तो ज्ञानस्वरूप नयोंकरके हो सकता है और दूसरों के प्रति ज्ञान और अर्थका प्रकाश होना शब्दस्वरूप नयों करके सम्भवता है । तथा " नीयन्ते ये इति नयाः " यो कर्मसाधन नयशब्दकी निरुक्ति करने पर तो निश्चय कर वस्तुके ज्ञात किये जा रहे अंश वे अर्थस्वरूप नय हैं । इस प्रकार प्रधान और गौणरूपसे ये नय तीन प्रकार होते हुये व्यवस्थित हो रहे हैं । अर्थात्--प्रधानरूपसे ज्ञानस्वरूप ही नय हैं ।
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किन्तु गौणरूपसे नय वाचक शब्दको भी नय कह देते हैं । तथा गौण गौण रूपसे वाथ्य अर्थको भी नय कह देते हैं । जगत् में ज्ञान, शब्द और अर्थ तीन ही पदार्थ गणनीय हैं । " बुद्धिशब्दार्थ संज्ञास्तास्तिस्रो बुध्धादिवाचिकाः " ऐसा श्री समन्तभद्र स्वामीने कहा है । ज्ञाननय प्रमाताको स्वयं अपने लिये अर्थका प्रकाश कराते हैं। शब्दनय दूसरोंके प्रति अर्थका प्रकाश कराते हैं । अर्थमय तो स्वयं प्रकाशस्वरूप हैं । इसी प्रकार यह भी समझ लेना चाहिये कि कोई भी सूत्र या श्लोक अथवा लक्षण ये सब ज्ञान या शब्दस्वरूप हैं । गोम्मटसार, अष्टसहस्त्री, सर्वार्थसिद्धि इत्यादि ग्रन्थ सब ज्ञानरूप या शब्दस्वरूप है । लिपि अक्षरों या लिखित पत्रोंको ग्रन्थ कहना तो मात्र उपचरितोपचार है । उन ज्ञान या शब्दोंके विषय या वाध्य हो रहे प्रमेय अर्थ हैं ।
किं पुनरमीषां नयानामेकस्मिन्नर्थे प्रवृत्तिराहोस्वित्प्रतिविशेषोस्तीत्याह ।
किसी जिज्ञासुका प्रश्न है कि इन सभी नयोंकी फिर क्या एक ही अर्थमें प्रवृत्ति हो रही है ? अथवा क्या कोई विलक्षणताका सम्पादक विशेष है । ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी इसके समाधानको कहते हैं ।
यत्र प्रवर्तते स्वार्थे नियमादुत्तरो नयः । पूर्वपूर्वी नयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते ॥ सहस्रेष्टशती यद्वत्तस्यां पंचशती मता । पूर्व संख्योत्तरस्यां वै संख्यायामविरोधतः ॥ ९९ ॥
९८ ॥
जिस जिस स्वार्थको विषय करनेमें उत्तरवर्ती मय नियमसे प्रवर्त रहा है, उस स्वार्थको जानने में पूर्व पूर्ववर्ती नय प्रवृत्ति करता हुआ नहीं रोका जाता है। जैसे कि सहस्रमें आठसौ समा जाते हैं । और उस आठसौ संख्यामें पांचसौ गर्भित हो रहे माने जाते हैं । पूर्वसंख्यानियमसे उत्तरसंख्या में वर्त जाती है, कोई विरोध नहीं है । भावार्थ-व्यवहारनय द्वारा जाने गये पदार्थ में संग्रहनय और नैगम नय प्रवर्त सकते हैं । कोई विरोध नहीं है । पूर्ववर्ती नयका विषय व्यापक है और उत्तरवर्ती नयोंका विषय व्याप्य है । पूर्ववर्ती नये उत्तरवर्ती नयोंकी जननी हैं ।
1
I
परः परः पूर्वत्र पूर्वत्र कस्मान्नयो न प्रवर्तत इत्याह ।
किसीका प्रश्न है कि उत्तर उत्तरवर्ती नयें पूर्व पूर्वकी नयोंके विषयोंमें कैसे नहीं प्रवर्तती
है ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं ।
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पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथायातानुवर्त्यते ।
तथोचरनयः पूर्वनयार्थसकले सदा ॥ १०० ॥
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तत्वार्यशोकवार्तिके
जिस प्रकार उत्तर उत्तरवर्तिनी संख्या यथायोग्य चली आरही पूर्व पूर्वकी संख्याओंमें नहीं अनुवर्तन की जा रही है, तिसी प्रकार उत्तरवर्ती नय तो पूर्ववर्ती नयोंके परिपूर्ण विषयमें सदा नहीं प्रवर्तती हैं। जैसे कि पांचसौमें पूरे आठसौ नहीं रहते हैं, केवल आठसौमें सहस्त्र रुपये नहीं ठहर पाते हैं, उसी प्रकार पूर्व नयों के व्यापक विषयोंमें अल्पग्राहिणी उत्तरवर्ती नयें नहीं प्रवर्त पाती है। यहां वैशेषिकोंके द्वारा माने गये अवयवोंमें अवयवीकी वृत्तिके समान पूर्व संख्यामें उत्तर संख्याको नहीं धरना चाहिये। क्योंकि केवल पहली संख्यामें पूरी उत्तरसंख्या नहीं ठहर पाती है। अपने पूरे अवयवोंमें एक अवयी ठहर जाता है । अतः दृष्टान्त विषम है।
प्रमाणनयानामपि परस्परविषयगमनविशेषेण विशेषितश्चेति शंकायामिदमाह ।
पुनः किसीकी आशंका है कि यों तो प्रमाण और नयोंका भी परस्परमें विषयों के गमनकी विशेषता करके कोई विशेष प्राप्त हो चुका होगा ! बताओ । इस प्रकार आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य इस बातको स्पष्ट रूपसे कहते हैं।
नयार्थेषु प्रमाणस्य वृत्तिः सकलदेशिनः । भवेन तु प्रमाणार्थे नयानामखिलेषु सा ॥ १०१ ॥
सकल वस्तुका आदेश कर जतानेवाले प्रमाणकी प्रवृत्ति तो नयों द्वारा गृहीत किये गये अर्थोंमें अवश्य होवेगी। किन्तु नयोंकी वह प्रवृत्ति इस प्रमाणद्वारा गृहीत अर्थोंमें संपूर्ण अंशोंमें नहीं होगी। जब कि प्रमाणद्वारा अभेदवृत्ति करके वस्तुके सम्पूर्ण अंशोंको जान लिया गया है । और नयोंद्वारा वस्तुके एक अंश या कतिपय अंशोंको ही जाना गया है, ऐसी दशामें व्यापकग्राही प्रमाण तो नयोंके विषयमें प्रवृत्ति कर लेता है। किन्तु नये प्रमाणगृहीत समी अंशोंको स्पर्श नहीं कर पाती हैं। एक बात यह भी है कि नय जिस प्रकार अन्तस्तलस्पर्शी होकर वस्तुके अंशको जता देता है, उस ढंगसे प्रमाणकी या श्रुतज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं है। तभी तो प्रमाण, नय, दोनोंको स्वतंत्रतासे अधिगमका करण माना गया है । फांस निकालने के लिये छोटी चीमटी जैसा कार्य करती है, वह काम बडे चीमटासे नहीं हो सकता है । घरके भीतर गुप्त भागमें रखे हुये रुपया सुवर्ण, रत्न आदि धनको प्रकाशनेके लिये जितना अच्छा कार्य दीपकसे हो सकता है, उतना सूर्य से नहीं हो सकता है। हां, केवलज्ञानकी बात न्यारी है। फिर भी कहना पडता है कि छोटे बच्चोंको गोदमें बैठानेसे जो वात्सल्यरस उद्भूत होता है, वह परिपूर्ण युवा या बुढा बुढीको गोदमें बैठाल लेनेसे नहीं आता । अविचारक ज्ञानोंमें युगपत् सबको जाननेवाले केवलज्ञानकी प्रशंसा है। किन्तु विचार करनेवाले ज्ञानोंमें नयज्ञानोंकी प्रतिष्ठा है।
किमेवं प्रकारा एव नयाः सर्वेप्यास्तद्विशेषाः संति ? अपरेपीत्याह ।
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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कोई पूछता है कि क्या इतने ही प्रकारके उपर्युक्त कहे अनुसार सभी नये कही जाती हैं ? अथवा और भी उनके विशेषभेद हैं ? अर्थात्-दो, सात, पन्द्रह आदिक ही नये हैं या और भी इनके अधिक मेद हैं ? बताओ। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानंद आचार्य कहते हैं कि कहे गये प्रकारोंसे अतिरिक्त भी नये विद्यमान हैं । इस बातको वे वार्तिक द्वारा कहें देते हैं । सो सुनिये । संक्षेपेण नयास्तावद्याख्यातास्तत्र सूचिताः ।
तद्विशेषाः प्रपंचेन संचिंत्या नयचक्रतः ॥ १०२ ॥
श्री उमास्वामी महाराजने उस नयप्रतिपादक सूत्रमें संक्षेपसे नयोंकी सूचना कर दी है । तद नुसार कुछ भेद, प्रभेद, करते हुये श्री विद्यानन्द स्वामीने उन नयोंका व्याख्यान कर दिया है। फिर भी अधिक विस्तारसे उन नयोंके विशेष मेदप्रमेदोका नयचक्र नामक ग्रन्थसे विद्वान् पुरुषों करके अच्छा चिन्तवन करलेना चाहिये ।
एवमधिगमोपायभूताः प्रमाणनया व्याख्याताः ।
इस प्रकार अधिगम के प्रकृष्ट उपाय हो रहे प्रमाण और नयोंका यहांतक व्याख्यान कर दिया गया है । " प्रमाणनयैरधिगमः " आदिक पहिले कई सूत्रों में प्रमाणोंका व्याख्यान है । और 1 प्रथम अध्यायके इस अन्तिमसूत्रमें नयोंका विवरण किया गया है । प्रमाणनयस्वरूप ही तो न्याय है । इति नयसूत्रस्य व्याख्यानं समाप्तं ।
इस प्रकार नयोंका प्रतिपादन करनेवाले " नैगम संग्रह व्यवहारर्जुसूत्रशद्वसमइस सूत्रका व्याख्यान यहांतक समाप्त हो चुका है ।
"
मिरूढैवंभूता नयाः
इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र के प्रकरणों की सूची इस प्रकार है कि अधिगमके उपायभूत प्रमाणोंका वर्णन कर चुकने पर अब नयों का वर्णन करनेके लिये सूत्रका रचा जाना आवश्यक बताते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य ने इस सूत्र में ही नयके लक्षण और भेदप्रभेदोंका अन्तर्भाव हो रहा समझा दिया है । नयका सिद्धान्तलक्षण नयशद्वकी निरुक्तिसे लब्ध हो जाता है । श्री उमास्वामी महाराजके अभिप्राय अनुसार श्री समन्तभद्र आचार्यने नयकी परिभाषा की है। नयके विभागोंका परामर्श कराते हुये विद्वत्तापूर्वक "नयाः " पदका व्याकरण किया है । गुणार्थिक नयका पर्यायार्थिक में अन्तर्भाव हो जाता है। मूलनय दो ही हैं । चार, पांच, छह, सोव्ह, पच्चीस, नहीं हैं। पश्चात् नैगमके मेद प्रभेदोका उदाहरणपूर्वक लक्षण करते हुये तदाभासोंको दर्शाया है । संप्रहनय और संग्रहामासको दिखाते हुये एकान्तवादियोंका निराकरण कर दिया है । व्यवहारनय द्वारा किये गये विभागका विचार करते हुये व्यवहारको नैगमपना नहीं हो जानेका विवेचन कर दिया है । अन्य मतियों के
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तत्वार्थकोकवार्तिके
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EAMERISTMETHERamanus........................................
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विचार अनुसार ही प्रमाणोंकी प्रमाणताको कुछ देर के लिये इष्ट करते हुये व्यबहारको पुष्ट किया है। ऋजुसूत्र नयकी पुष्टि करते हुये क्षणिक एकान्तका प्रत्यारव्यान कर दिया है । शब्दमयका लक्षण करते हुये काल आदिका भेद होनेपर भिन्न अर्थपनेको अन्वय व्यतिरेक द्वारा साधते हुये शब्दशक्तिका निरूपण किया है। इसी प्रकार समभिरूढनयद्वारा शब्दकी ग्रन्थियोंको सुलझाया गया है। एवंभूत नयका लक्षण कर सभी प्रकारके शब्दोंको क्रियावाचीपना समझा दिया गया है। कुनय, सुनयका विवेक कर अर्थनय शब्दनयोंकी गिनती गिनाते हुये नयोंके अल्पविषय, बहुविषयपनेका निर्णय कर दिया है । इसमें उठाये गये विपर्ययोंका निराकरण किया है। पश्चात् प्रमाणसप्तभंगीके समान नयसप्तभंगियोंको बनानेके लिये प्रकरण उठाया गया है। मूलनयोंकी इक्कीस सप्तभंगियोंको बना कर उत्तरनयोंकी एकसौ पिचत्तर सप्तमंगियां बनाई हैं। पूर्व पूर्व नयोंकी अपेक्षा विधिकी कल्पना करते हुये उत्तर नयों द्वारा प्रतिषेधकी कल्पना कर झट सप्तभंगियां बना ली जाती हैं। अनुलोम, प्रतिलोम, करके तथा उत्तरनयोंद्वारा अभिप्रेत किये गये धर्मोकरके अनेक सप्तभंगियां बन जाती हैं। वस्तुमें तदात्मक हो रहे धर्मोकी भित्तिपर अनेक भंगोंकी कल्पनायें हो जाती हैं। " स्यात् "
और " एव" शब्दका प्रयोग करना सर्वत्र आवश्यक है। सकलादेशसे प्रमाण सप्तभंगी और विकलादेशसे नयसप्तभंगीकी व्यवस्था है । किसी धर्मका आश्रय कर उसके द्वारा पहिले भंगको बताकर प्रतिपक्षधर्मकी अपेक्षासे द्वितीय भंगको बना लेना चाहिये । दोनों धर्मोकी क्रमसे विवक्षा करनेपर तीसरा भंग उभय बना लेना । तथा दोनों धर्मोके साथ कहनेका अभिप्राय रखनेपर चौथा अबक्तव्य भंग बन जाता है । पहिले और चौथेको जोड देनेसे पांचवां तथा दूसरे और चौथेको जोड देनेसे छठा एवं तीसरे और चौथेको मिला देनेसे सातवां भंग बन जाता है। अतिरिक्त भंगोंकी कल्पना नहीं हो सकती है । दो अस्तित्व या दो नास्तित्व अथवा दो अवक्तव्य एक मंगमें महीं ठहर सकते हैं । जगत्में एक धर्मकी अपेक्षा सात ही वचनोंके मार्ग सम्भवते हैं। न्यून या अधिक नहीं । ये नये शब्दनय, ज्ञाननय, अर्थनय, तीन प्रकारकी हैं । उत्तरवर्ती नयोंकी प्रवृत्ति होनेपर पूर्वनय नियमसे प्रवर्त जाती हैं। किन्तु पूर्वनयोंकी प्रवृत्ति होनेपर उत्तरनयोंका प्रवर्तना माज्य है । प्रमाण और नयोंका मी परस्परमें इसी प्रकार विषयगमन होता है । इस प्रकार नयोंका वर्णन कर अधिक विस्तारसे जाननेवालोंके प्रति नयचक्र प्रन्थका चिन्तवन करनेके लिये हितोपदेश देकर श्री विद्यानन्द स्वामीने इस नय प्रतिपादक सूत्रके विवरणको समाप्त किया है।
पूर्णार्थज्ञरविप्रमाणविषयांशाभासनेस्रोपमा । भाट्टन्याकरणज्ञसौगतजनानुत्सारयन्तोऽपथात् ॥ संख्याताः प्रभिदा निदर्शन तदाभानेकभङ्ग यन्विताः। स्वायत्ताखिलवाङ्मयैर्दधतु वो ज्ञप्ति नयाः स्वामिभिः ॥१॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।
तत्त्वार्थाधिगमभेदः। यहांतक पहिले अध्यायके सूत्रोंका विवरण कर अब श्री विद्यानन्द स्वामी विद्वानोंके अति उपयोगी हो रहे प्रकरणका प्रारम्भ करते हैं, जिसका कि परिशीलन कर उन्नतमीब होते हुये जैन विद्वान् स्वयं तत्त्वोंका अध्यवसाय कर दूसरोंके हृदयमें तत्त्वज्ञानको ठीक ठीक दृढतापूर्वक जमा देवें और निर्दोष सनातन जैनधर्मका दुन्दुभिनिनाद जगत्में विस्तार देवें । - अथ तत्त्वार्थाधिगमभेदमाह। इसके अनन्तर श्रीविद्यानन्द आचार्य तत्वार्थोकी अधिगतिके भेदको समझाते हुये कहते हैं।
तत्त्वार्थाधिगमस्तावत्प्रमाणनयतो मतः । सर्वः स्वार्थः परार्थों वाध्यासितो द्विविधो यथा ॥१॥
" प्रमाणनयैरधिगमः " इस सूत्रके द्वारा श्री उमास्वामी महाराजने तस्वार्थीका अधिगम सबसे पहिले प्रमाण और नयों करके होता हुआ स्वीकार किया है। तथा इस सिद्धान्तका यथायोग्य निर्णय पूर्व प्रकरणोंमें श्री विद्यानन्द आचार्य द्वारा करा दिया गया है कि वही सभी अधिगम स्वके लिये अथवा दूसरों के लिये होता हुआ दो प्रकारका है।
अधिगच्छत्यनेन तत्त्वार्थानधिगमयत्यनेनेति वाधिगमः स्वार्थो ज्ञानात्मका, परार्थो वचनात्मक, इति प्रत्येयम् ।
श्री उमास्वामी महाराजके सूत्रमें पडे हुये अधिगम शब्द करके ही उक्त दोनों अर्थ घनित हो जाते हैं । जीव इस ज्ञानकरके तत्त्वार्थीको स्वतंत्रतापूर्वक आनता है । इस प्रकार अधि उपसर्ग पूर्वक " गम् " धातुसे नवगणीमें विग्रह कर अच् प्रत्ययका विधान करनेसे अधिगम शब्द बनाया जाता है । इसका अर्थ ज्ञानस्वरूप अधिगम है। और अधिपूर्वक गम् धातुसे ण्यन्त प्रक्रियामें णिच् प्रत्यय करते हुये पुनः अच् प्रत्ययकी विधिद्वारा जो अधिगम शब्द बनाया जाता है, वह अधिगतिके प्रेरक शब्दको कह रहा है । बामस्वरूप आधिगम तो स्व के लिये उपयोगी है। और वचनस्वरूप अधिगम अन्य श्रोताओं के लिये उपयोगी है । इस प्रकार प्रतीति कर लेनी चाहिये ।
पराधिगमस्तत्रानुद्भवद्रागगोचरः। जिगीषु गोचरश्चेति द्विधा शुद्धधियो विदुः ॥२॥
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२९१
तत्त्वार्थचोकवार्तिके
शुद्धबुद्धियोंको धारनेवाले विद्वान् उन दो प्रकारके अधिगमोंमें परार्थ अधिगम ( वाद ) को दो प्रकारका समझ रहे हैं । पहिला तो जिन सज्जनोंके कोई रागद्वेष नहीं, उन वीतराग पुरुषोंमें हो रहा वचनव्यवहार स्वरूप है । गोचरका अर्थ विषय है, सप्तमी विभक्तिका अर्थ कहींपर विषयपना होता है। " विषयत्वं सप्तम्यर्थः " । तथा दूसरा अधिगम तो परस्परमें जीतनेकी अभिलाषाको रखनेवाले वादी पुरुषों में प्रवर्तता है । अर्थात्-वीतराग पुरुषों में होनेवाला और विजगीषु पुरुषों में प्रवर्तनेवाला इस प्रकार शब्द आत्मक पदार्थ अधिगम दो प्रकारका है।
सत्यवाग्भिर्विधातव्यः प्रथमस्तत्ववेदिभिः । यथा कथंचिदित्येष चतुरंगो न संमतः ॥३॥
वीतराग पुरुषों में होनेवाला पहिला शब्दस्वरूप अधिगम तो सत्यवचन कहनेवाले तत्त्ववेत्ता पुरुषोंकरके विधान करने योग्य है । यह संवाद तो यथायोग्य चाहे किसी भी प्रकारसे कर लिया जाता है । सभ्य, सभापति, वादी और प्रतिवादी इन चार अंगोंका होना यहाँ बावश्यक नहीं माना गया है । भावार्थ-जब विचार करनेवाले सज्जन पुरुष हैं, तत्त्वज्ञानको करनेके लिये उनका शुभ प्रयत्न है तो एकान्तमें दो ही अंशोंसे यह प्रवर्त जाता है । तीन या चार मी होय तो कोई बाधा नहीं है । किन्तु सभ्य और सभापतियोंकी चलाकर कोई आवश्यकता नहीं है।
प्रवक्त्राज्ञाप्यमानस्य प्रसभज्ञानपेक्षया । तत्त्वार्थाधिगमं कर्तुं समर्थोऽथ च शास्वतः ॥४॥ विश्रुतः सकलाभ्यासाज्ञायमानः स्वयं प्रभुः।
ताइक्सभ्यसभापत्यभावेपि प्रतिबोधकः ॥ ५॥
यह वीतराग पुरुषों में होनेवाला वाद तो प्रकृष्ट माननीव वक्ताके द्वारा आज्ञापित किये जा रहे पुरुषका हठज्ञानी पुरुषोंकी नहीं अपेक्षा करके तत्वार्थीका अधिगम करनेके लिये समर्थ है।
और वह वाद सर्वदा हो सकता है । अर्थात्-प्रकृष्ट ज्ञानी पुरुषके आज्ञा अनुसार कोई भी कदाप्रहको नहीं करनेवाला पुरुष चाहे जब तत्त्वार्थीका निर्णय करनेके लिये सम्बाद कर सकता है । जो प्रकृष्टवक्ता सम्पूर्ण विषयोंके शास्त्रका अभ्यास करनेसे जगत् प्रसिद्ध विद्वान् होकर जाना जा रहा है, और जो स्वयं दूसरोंको समझाने के लिये समर्थ होता हुआ उनको स्वकीय सिद्धान्तके घेरेमें घेरनेके लिये प्रभुता युक्त है, वह तिस प्रकारके अन्य सभ्य और सभापतिके अभाव होनेपर भी निर्णिनीषु पुरुषों को प्रतिबोध करा देता है।
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तरवायचिन्तामणिः
साभिमानजनारभ्यश्चतुरंगो निवेदितः । तज्ज्ञैरन्यतमापायेप्यर्थापरिसमाप्तितः ॥ ६ ॥ जिगीषयां विना तावन्न विवादः प्रवर्तते । ताभ्यामेव जयोन्योन्यं विधातुं न च शक्यते ॥ ७ ॥
परस्पर में जीतने की इच्छा रखनेवाले वादियोंमें प्रवर्त रहा दूसरे प्रकारका वाद ( शास्त्रार्थ ) तो अभिमानी पुरुषोंके द्वारा आरम्भा जाता है । उस वादके वादी, प्रतिवादी, सभ्य, और सभापति, ये चार अंग उस शास्त्रार्थके मर्मको जाननेवाले विद्वानोंकरके निवेदन किये गये हैं । उन चार अंगों में से किसी भी एक अंगके नहीं विद्यमान होनेपर परिपूर्ण रूपसे प्रयोजनकी सिद्धि नहीं हो पाती है। देखिये, एक दूसरेको जीतने की इच्छा रखनेवाले दो वादी, प्रतिवादियोंके बिना तो विवाद कैसे भी नहीं प्रवर्तता है । और उन दोनों ही करके परस्परमें जीत हो जानेका विधान नहीं किया जा सकता है । अर्थात् दूल्हा दुलहिनके विना जैसे विवाह नहीं होता है, वैसे दो बादी, प्रतिवादियोंके विना विवाद नहीं हो पाता है । अपने अपने पक्षको बढिया बता रहे अभिमानी वादी, 1 प्रतिवादियोंकी वास्तविक रूपसे जयकी व्यवस्था करनेके लिये सभ्यपुरुषोंकी और सुप्रबन्धके लिये प्रभुकी आवश्यकता है 1
वादिनः स्पर्द्धया वृद्धिरभिमानप्रवृद्धितः ।
सिद्धे वाचाकलंकस्य महतो न्यायवेदिनः ॥
८॥
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• न्यायशास्त्रको परिपूर्ण जाननेवाले महान् विद्वान् अकलंक देवकी वाणी से जब यह सिद्ध हो चुका है कि वादी और प्रतिवादी पुरुषोंके प्रति स्पर्धा करके वृद्धिको प्राप्त होता हुआ अभिमान प्रकृष्टरूपसे बढ रहा है । इस कारण वे अपना पराजय और दूसरेका विजय माननेके लिये कथमपि तत्पर नहीं हैं, तब जयविधान और उपद्रवनिराकरणके लिये जिगीषुओंसे अतिरिक्त पुरुषों की भी आवश्यकता है ।
स्वप्रज्ञापरिपाकादिप्रयोजनेति केचन ।
तेषामपि विना मानादुद्वयोर्यदि स संमतः ॥ ९॥ तदा तत्र भवेद्यर्थः सत्प्राश्निकपरिग्रहः ।
ज्ञेयं प्रश्नवशान्नैव कथं तैरिति मन्यते ॥ १० ॥
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
कोई पण्डित इस प्रकार कह रहे हैं कि वीतरागकथाक समान विजिगीषुओंका वाद भी दो ही वादी प्रतिवादियोंमें प्रवर्त जाता है । उस वादकी प्रवृत्तिके प्रयोजन तो अपनी अपनी प्रजाका परिपाक होना या अन्य विद्यार्थियों के लिये युक्तिओंका संकलन करना अभ्यास बढाना आदिक हैं। मल्ल मी तो अपने अखाडेमें अभ्यास, दाव पेच सीखना आदिका लक्ष्य रखकर कटाकटीसे लडते हैं। इसपर आचार्य कहते हैं कि उन पण्डितोंके यहां भी प्रमाणोंके बिना ही यदि वह दोनोंका प्रज्ञापरिपाक होना भले प्रकार मान लिया है, तब तो उस अवसरपर श्रेष्ठ सभ्योंका या प्राश्निक पुरुपोंका एकत्रित करना व्यर्थ ही होगा । किन्तु उन पण्डितोंकरके यह कैसे माना जा सकता है कि प्रश्नके वशसे ही ज्ञेयपदार्थ व्यवस्थित नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि प्रानिकोंका मिलना तो अच्छा है।
तयोरन्यतमस्य स्यादभिमानः कदाचन । तन्निवृत्त्यर्थमेवेष्टं सभ्यापेक्षणमत्र चेत् ॥ ११ ॥ राजापेक्षणमप्यस्तु तथैव चतुरंगता। वादस्य भाविनीमिष्टामपेक्ष्य विजिगीषताम् ॥ १२ ॥
यदि वे यों कहें कि हम वादी प्रदिवादी और प्राश्निक इम तीन अंगोंसे वादके होनेको मानते हैं। उन दो वादी, प्रतिवादियोंमेंसे किसी एकको यदि कभी अमिमान हो जायगा और उस कषायके अनुसार असभ्य आचरण होने लग जाय तो उसकी निवृत्तिके लिए सभ्य प्राश्निकोंकी अपेक्षा करना यहां वादमें इष्ट कर लिया है। " अपक्षपतिता प्राज्ञाः सिद्धान्तद्वयवेदिनः, असद्वादनिषेद्धारः प्राश्निकाः प्रग्रहा इव" जो वादी और प्रतिवादीका पक्षपात करनेसे रहित होवें, अच्छे बिद्वान् होस्, वादी प्रतिवादी दोनोंके सिद्धान्तोंके जाननेवाले होवे, असमीचीनवादकी प्रवृत्ति करने को निषेध करनेवाले हो, वे पुरुष प्रानिक होते हैं, जैसे कि बैलों या घोडोंको लगाम वशमें रखती हुई अनिष्ट मार्गकी ओर नहीं झुकने देती है, उसी प्रकार प्राश्निक पुरुष भी वादी प्रतिवादियोंको मर्यादामें स्थित रखते हैं । इस प्रकार यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि तब तो चौथे अंग राजाकी भी अपेक्षा वादमें हो जाओ और तिस प्रकार होनेपर ही वाद चार अंगोसे सहित हो रहा माना गया है । विजयकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंको इष्ट हो रही भविष्यमें होनेवाली नीतनेकी इच्छाकी अपेक्षा कर वादके चार अंग मानना अच्छा जचता है। भावार्थ-अपने अपने पक्षको दृढ अखण्डनीय मान रहे वादी और प्रतिवादी दोनों इस बातको इष्ट करते हैं कि हमारी जीत राजा और प्रानिक विद्वानोंके समक्षमें होय । अभिमान या अनीतिका निराकरण कर ठीक प्रबन्धको राजा ही कर कर सकता है।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सभ्यैरनुमतं तत्त्वज्ञानं दृढतरं भवेत् । इति ते वीतरागाभ्यामपेक्ष्यास्तत एव चेत् ॥ १३ ॥ महेश्वरस्यापि स्वशिष्यप्रतिपादने ।
सभ्यापेक्षणमप्यस्तु व्याख्याने च भवादृशां ॥ १४ ॥
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यदि कोई यों कहें कि सभामें बैठे हुए प्रानिकोंकरके अनुमतिको प्राप्त हो रहा तत्वज्ञान अधिक दृढ हो जावेगा । इस कारण वादमें उन तीसरे अंग सम्योंकी अपेक्षा करनी चाहिये । अब आचार्य कहते हैं कि तब तो तिस ही कारणसे यानी तत्रज्ञानकी दृढताके सम्पादनार्थ वीतरागवादी प्रतिवादियों के द्वारा भी उन सभ्योंकी अपेक्षा की जानी चाहिये । सज्जन विद्वानोंका परस्पर में सम्वाद होनेपर यदि सभ्य विद्वानों करके उस तत्त्वबोधकी अनुमति दे दी जायगी तो वह तत्वज्ञान बहुत पक्का होता हुआ सबको ग्राह्य हो जायगा । और इस प्रकार वीतराग कथा में भी सभ्योंकी अपेक्षा यदि मान ली जायगी, तत्र तो नैयायिकोंके महान् ईश्वरको भी अपने शिष्योंके प्रति खोंका प्रतिपादन करनेमें सभ्योंकी अपेक्षा माननी पडेगी । तथा आप सदृश पण्डितोंके व्याख्यानमें भी सम्योंकी अपेक्षा आवश्यक बन बैठेगी । किन्तु ऐसा एकान्त प्रतीत नहीं हो रहा है। स्वयं महेश्वरः सभ्यो मध्यस्थस्तत्त्ववित्त्वतः । प्रवक्ता च विनेयानां तत्त्वख्यापनतो यदि ॥ १५ ॥ तदान्यपि प्रवक्तैवं भवेदिति वृथा तव । प्राश्निकापेक्षणं चापि समुदाऽयमुदाहृतः ॥ १६ ॥
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यदि नैयायिक यों कहें कि महेश्वर तो स्वयं सभ्य है, और तस्वोंका यथार्थबेत्ता होनेसे मध्यस्थ है । तथा विनीत शिष्यों के प्रति तत्त्वों की स्थापना करा देनेसे या प्रसिद्धि करा देनेसे वह ईश्वर प्रकृष्ट वक्ता भी है। तब तो हम जैन कहेंगे कि अन्य विद्वान् भी इसी प्रकार प्रकृष्ट बा हो जावेगा, इस प्रकार तुम्हारा प्राशिनकोंकी अपेक्षा करना कहना भी वृथा ही पडा, जो कि आपने यह बडे हर्ष के साथ कहा है ।
यथा चैकः प्रवक्ता च मध्यस्थोभ्युपगम्यते ।
तथा सभापतिः किं न प्रतिपाद्यः स एव ते ॥ १७ ॥ मर्यादातिक्रमाभावहेतुत्वाद्बोध्यशक्तितः । प्रसिद्धप्रभावात्तादृग्विनेयजनवद्ध्रुवम् ॥ १८ ॥
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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
स्वयं बुद्धः प्रवक्ता स्यात् बोध्यसंदिग्धधीरिह ।
तयोः कथं सहैकत्र सद्भाव इति चाकुलं ॥ १९ ॥
जिस प्रकार कि एक ही ईश्वर प्रवक्ता और मध्यस्थ हो रहा तुमने स्वीकार कर लिया है, इस प्रकार वही ईश्वर तुम्हारे यहां तिस प्रकार सभापति और प्रतिपादन करने योग्य शिष्य भी क्यों न हो जावें ! एक ही पुरुष वादके चारों अंगोंको धारनेवाला बन गया। कारण कि सभापतिका कार्य मर्यादाका अतिक्रमण नहीं करा देना है । मर्यादाके व्यतिक्रमके अभावका हेतु हो जानेसे वह ईश्वर समापति हो सकता है । सभापतिपन के लिये उपयोगी हो रहा प्रभाव भी ईश्वरमे प्रसिद्ध है । अथवा आद्य ज्ञानके लिये उत्पत्तिका कारण प्रभाव भी ईश्वरका प्रसिद्ध है । तथा अन्य विनीत शिष्य जनोंके समान बोध प्राप्त करने योग्य शक्ति होनेसे निश्चय कर तिस प्रकारका वह प्रतिपाद्य शिष्य हो जाओ। अनेकान्तवादी तो एक वस्तुमें अनेक धर्मोको मानते हुये अनेकान्तको स्वीकार करते हैं। किन्तु ये नैयायिक एक धर्मी में ही वादी, प्रतिवादो, सभ्य, सभापति, इन चार धर्मियोंकी सत्ताको मान बैठे हैं, यह आश्चर्य है । भला विचारो तो सही कि जो ही यहां स्वयं बुद्ध होता हुआ प्रकृष्ट वक्ता होय और वही बोध कराने योग्य होता हुआ पठनीय विषयमें संदेहको धारनेवाली बुद्धिको रखनेवाला शिष्य होय, उन दोनोंका एक पदार्थमें साथ साथ सद्भाव कैसे पाया जा सकता है ? यह तुम नैयायिकोंके लिये विशेष आकुलताको उत्पन्न करनेवाला काण्ड उपस्थित हुआ। एक ही ईश्वर तो व्याख्यात और शिष्य दो नहीं हो सकता है।
प्राश्निकत्वप्रवक्तृत्वसद्धावस्यापि हानितः।
स्वपक्षरागौदासीनविरोधस्यानिवारणात् ॥ २०॥
तिस प्रकार ईश्वरमें प्रतिपादकत्व और प्रतिपाद्यत्व दो धर्भ एक साथ नहीं ठहर सकते हैं। उसी प्रकार ईश्वरके प्राश्निकपन और प्रवक्तापनके सद्भावकी भी हानि हो जाती है । क्योंकि प्रवक्ता तो अपने पक्षमें राग रखता है और प्रानिक जन दोनों पक्षमें उदासीन (तटस्थ) रहते हैं । एक ही पुरुषमें स्वपक्ष राम और उदासीनपनके विरोधका तुम निवारण नहीं कर सकते हो।
पूर्व वक्ता बुधः पश्चात्सभ्यो न व्याहतो यदि ।
तदा प्रबोधको बोध्यस्तथैव न विरुध्यते ॥ २१ ॥
यदि आप यों कहें कि वही पण्डित पहिले तो प्रवक्ता होता है और पीछे वह प्राश्निक या मध्यस्थ सभ्य हो जाता है । कोई व्याघात दोष नहीं है । तब तो हम नैयायिकसे कहेंगे कि तिस ही
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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प्रकार वह प्रवोध करानेवाला या प्रबंध करनेवाला सभापति और प्रतिपादन करने योग्य प्रतिवादी या शिष्य भी हो जाओ । कोई विरोध नहीं आता है । सर्वत्र अनेकान्तका साम्राज्य है ।
वक्तृवाक्यानुवदिता स्वस्य स्यात्प्रतिपादकः । तदर्थं बुध्यमानस्तु प्रतिपाद्योनुमन्यताम् ॥ २२ ॥
संता अपना प्रतिप्रतिपाद्य मान लिया
वह एक ही पुरुष स्वयं वक्ता हो रहा अपने वाक्योंका अनुवाद करता पादक हो जावेगा और उन वाक्योंके अर्थको समझ रहा संता तो वही स्वयं जाओ । अर्थात् - जैसे एकान्त में गानेवाला पुरुष स्वयं प्रतिपादक है, और उन गेय शब्दों के अर्थको जान रहा प्रतिपाद्य हो जाता है, उसीके समान एक विद्वान् प्रतिपाद्य और प्रतिपादक मान लिया जाय ।
तथैकागोपि वादः स्याच्चतुरंगो विशेषतः ।
पृथक् सभ्यादिभेदानामनपेक्षाच सर्वदा ॥ २३ ॥
और तैसा होनेपर वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति, इन चार अंगों द्वारा हो रहा वाद अब केवल एक अंगवाला भी हो जावेगा । न्यारे न्यारे चार व्यक्तियों में और सभ्य, सभापति, वादी, प्रतिवादी बन रहे एक व्यक्तिमें कोई विशेषता नहीं है । जब कि सभ्य, सभापति, आदि चार भिन्न भिन्न व्यक्तियोंकी पृथक् पृथक् रूपसे सदा अपेक्षा नहीं है, इससे सिद्ध होता है कि चारोंके चार धर्मोसे युक्त हो रहे एक व्यक्तिके होनेपर भी वाद ठन जाना मान लेना चाहिये । यथा वाद्यादयो लोके दृश्यंते तेन्यभेदिनः । तथा न्यायविदामिष्टा व्यवहारेषु ते यदि ॥ २४ ॥ तदाभावान्स्वयं वक्तुः सभ्या भिन्ना भवंतु ते । सभापतिश्च तद्बोध्यजनवत्तच्च नेष्यते ॥ २५ ॥
यदि आप नैयायिक यों कहें कि जैसे लौकिक कार्यों में विवाद कर रहे वे वादी, प्रतिवादी, आदिक लोक में अन्योंका भेद करनेवाले देखे जाते हैं, तिसी प्रकार न्यायशास्त्रको जाननेवाले विद्वा
व्यवहारों में भी वे अन्यका भेद करनेवाले इष्ट कर लिये गये हैं । अर्थात - किसी गृह, खेत, ग्राम, सम्पत्ति, बहिष्कार करना, अपमान करना, परस्त्रीसेवन, द्यूत आदि विषयोंमें टंटा करनेवाले जैसे भेदनीतिको डालकर अन्यको भेद डालते हैं, या लडाई कर बैठते हैं, उसी प्रकार शास्त्रार्थ में भी कदाचित् अन्योंका मेद करना सम्भव जाता है । इस पर आचार्य कहते हैं कि तब तो पदाथका स्वयं बखान करनेवाले वक्तासे सभासद पुरुष तुम्हारे यहां भिन्न ही होवें । और उस वक्ता के
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
द्वारा समझने योग्य पुरुषके समान सभापति भी पृथक् होना चाहिये । किन्तु वह सभ्य, सभापति, और प्रतिवादीका भिन्न भिन्न होकर स्थित रहना तुमने इष्ट नहीं किया है ।
जिगीषाविरहात्तस्य तत्त्वं बोधयतो जनान् ।
न सभ्यादिप्रतीक्षास्ति यदि वादे क सा भवेत् ॥ २६ ॥ ततो वादो जिगीषायां वादिनोः संप्रवर्तते । सभ्यापेक्षणतो जल्पवितंडावदिति स्फुटं ॥ २७ ॥
यदि आप नैयायिक यों कहें कि श्रोताजनोंके प्रति तत्वों को समझाते हुये उस ईश्वर के जीतने की इच्छा का अभाव है । इस कारण सभ्य, सभापति आदिकी प्रतीक्षा नहीं की जाती है, तब तो हम जैन कहते हैं कि सभ्य, सभापति, आदिक की वह प्रतीक्षा मला वादमें भी कहां होगी ? किन्तु आप नैयायिकोंने वह सभ्य आदिकोंकी अपेक्षा वादमें स्वीकार करली है । तिस कारणसे यह व्यक्त रूपसे सिद्ध हो जाता है कि वाद ( पक्ष ) वादी प्रतिवादियोंकी परस्परमें जीतने की इच्छा होनेपर ही अच्छा प्रवर्तता है ( साध्य ), प्राश्निक या सभ्य पुरुषोंकी अपेक्षा होनेसे ( हेतु ) । जल्प और वितंडा के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात् जल्प वितंडा जैसे जीतको चाहनेवाले ही पुरुषों में प्रवर्तते हैं, उसी प्रकार वाद भी विजिगीषु पुरुषोंमें प्रवर्तता है। वीतराग कथाको वाद नहीं कहना चाहिये ।
तदपेक्षा च तत्रास्ति जयेतरविधानतः । तद्वदेवान्यथान्यत्र सा न स्यादविशेषतः ॥ २८ ॥ सिद्धो जिगीषतोर्वादश्चतुरंगस्तथा सति । स्वाभिप्रेतव्यवस्थानाल्लोक प्रख्यातवादवत् ॥ २९ ॥
उस वाद में ( पक्ष ) उन सभ्योंकी अपेक्षा हो रही है, ( साध्य ), जय और पराजयका विधान होनेसे ( हेतु ) उन जल्प और बितंडा के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । अन्यथा यानी साध्यके विना केवल हेतुका ठहरना मान लिया जायगा तो अन्य अल्प या वितंडामें भी वह सम्बोंकी अपेक्षा नहीं हो सकेगी। क्योंकि जल्प और वितंडासे वादमें कोई अधिक विशेषता नहीं है । अतः तैसा होनेपर यह सिद्धान्त अनुमान द्वारा निर्णीत हो जाता है, कि सभ्य, सभापति, बादी, प्रतिबादी इन चार अंगोंको धारता हुआ बाद ( पक्ष ) जीतने के इच्छा रखनेवाले दो वादियोंमें प्रवर्तता है ( साध्य ) । अपने अपने अभिप्रेत हो रहे विषयकी परिपूर्ण शक्तियों द्वारा व्यवस्था करना होने से
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तत्वार्थचिन्तामणिः
३.१
(हेतु ) जैसे कि लोकमें प्रसिद्ध हो रहे वाद ( मुकद्दमा लडना या आखाडे मल्ल युद्ध होना ) हैं, (अन्वय दृष्टान्त )। बात यह है कि वीतराग पुरुषोमें होनेवाला शब्द आत्मक अधिगम वाद नहीं है। किन्तु हाथीके साथ हाथीका लडना, तीतर, मुर्गा, कुत्ता आदिका युद्ध या मल्लके साथ मल्लका लडना, इस प्रकार जीतनेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंमें वाद प्रवर्तता है । नैयायिकों द्वारा माना गया वीतरागोंमें वाद प्रवर्तनका पक्ष तो युक्तियोंसे रहित है । इसको विवरणमें और भी अधिक स्पष्ट किया जायगा।
___ ननु च पाश्निकापेक्षणाविशेषेपि वादजल्पवितंडानां न वादो जिगीषतोस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वरहितत्वात् । यस्तु जिगीषतोर्न स तथा सिद्धो यथा जल्पो वितंडा च तथा बादः तस्मान्न जिगीषतोरिति । न हि वादस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्यो भवति जल्पवितंडयोरेव तथात्वात् । तदुक्तं । " तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थे जल्पवितंडे बीजमरोहसंरक्षणार्थ कंटकशाखावरणवदिति । तदेतत्पळापमात्रं, वादस्यैव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वोपपत्तेः । तथाहि-वाद एव तत्त्वाध्यवसायरक्षणार्थः प्रमाणतर्कसाधनोपार्कभत्वे सिद्धांताविरुद्धत्वे पंचावयवोपपन्नत्वे च सति पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वात्, यस्तु न तथा स न यथा आक्रोशादिः, तथा च वादस्तस्मात्तत्वाध्यवसायरक्षणार्थ इति युक्तिसद्भावात् । न तावदयमसिदो हेतुः प्रमाणतर्कसाधनोपालंभः सिद्धांताविरुद्धः पंचावयवोपपन्नः पक्षमतिपक्षपरिग्रहो वाद इति वचनात् ।।
यहां नैयायिकोंका अपने पक्षको पुष्ट करनेके लिये अवधारण है कि यद्यपि वाद, जल्प, और वितंडा इन तीनोंके बीच प्राश्मिक पुरुषोंकी अपेक्षा करनेमें कोई विशेषता नहीं है, फिर भी वाद ( पक्ष ) जीतनेकी इच्छा रखनेवाले विजिगीषुओंमें नहीं प्रवर्तता है (साध्य ) । क्योंकि वाद विचारा तत्त्वनिर्णयकी अच्छी रक्षा इस प्रयोजनके धारकपनसे रहित हो रहा है (हेतु) । जो तो विजिगीषुओंके प्रवर्त रहा है, वह तिस प्रकार तत्त्वनिर्णयका संरक्षण करनारूप प्रयोजनसे रहित नहीं है, जैसे कि जल्प और वितंडा हैं, ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) । तिस प्रकार तत्त्व निर्णयके संरक्षणके लिये वाद नहीं है ( उपनय ) । तिस कारणसे विजिगीषु पुरुषोंमें वाद नहीं प्रवर्तता है। (निगमन ), अर्थात्-धनाढ्योंके पुत्रको रक्षा जैसे दाईयां करती हैं, धान्य उपजे हये खेतकी रक्षा झाडीके काटों द्वारा बना ली गयी मैड करती है, उसी प्रकार तत्वज्ञानका परिपालन लधारीके समान जल्प और वितंडासे होता है । निर्णय और वाद तो फल या धान्यके समान रक्षणीय पदार्थ हैं। रत्नोंकी रक्षा गढसे है, रत्न स्वयं रक्षक नहीं है। इसी प्रकार तत्त्वज्ञानोंका संरक्षक नहीं होनेके कारण वाद विजिगीषुओंमें नहीं प्रवर्तता है । किन्तु वीतरागपुरुषोंका संलाप वाद है। उक्त अनुमानमें दिया गया हेतु स्वरूपसिद्ध नहीं है । पक्षमें वर्त रहा है। देखिये । तत्त्वोंके अध्यवसायकी
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संरक्षणाके लिये नहीं होता है। जल्प और वितंडाके ही तिस प्रकार तत्वनिर्णयका संरक्षण करना रूप प्रयोजनसहितपना बन रहा है । वही " न्यायदर्शन पुस्तकमें गौतम ऋषिने चौथे अध्यायके अन्तमें कहा है कि जल्प और वितंड। दोनों तो तत्त्वोंके निर्णयकी भले प्रकार संरक्षणा करनेके लिये हैं। जैसे कि बीजके बोनेपर उपजे हुये छोटे छोटे अङ्करोंकी समीचीन रक्षाके लिये बंवूल, बेरिया, झडवेरिया आदिक कंटकाकीर्ण वृक्षोंकी शाखाओं करके किया गया आवरण ( मैड ) उपयोगी है। छळ या असत् उत्तर आदि प्रयुक्त किये जाय तो पररक्षाका विघात हो जानेसे वे स्वपक्षकी रक्षा करा देते हैं । यहांतक नैयायिक कह चुके । अब आचार्य महाराज कहते हैं कि उनका यह कहना केवळ अनर्थक बकवाद है। यथार्थमें विचारा जाय तो वादको ही तत्त्वनिर्णयकी संरक्षणारूप प्रयोजनसे सहितपना सवता है । उसीको स्पष्ट करते हुये यों अनुमान बनाकर दिखलाते है कि वाद ही ( पक्ष ) तत्वों के निर्णयकी रक्षा करनेके लिये है ( साध्य ) । प्रमाण
और तर्ककरके स्वपक्षसाधन करना और परपक्षमें उलाहना देना होते संते तथा सिद्धान्तसे अविरुद्धपना होते संते तथा अनुमान के पांच अवयवोंसे सहितपना होते संते पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह करना होनेसे ( हेतु ) जो तिस प्रकार तत्त्वनिर्णयका संरक्षण करना स्वरूप प्रयोजनको लिये हुये नहीं है, वह उक्त हेतुप्से सहित नहीं है, जैसे कि गाली देना, रोना, उन्मत्तप्रलाप करना आदिक वचन ( व्यतिरेक दृष्टान्त ), और तिस प्रकार हेतुके पूरे शरीरको साधनेवाला वाद है ( उपनय ) । तिस कारणसे वह वाद ही तत्त्व निर्णयके रक्षणरूप प्रयोजनको लिये हुये है। (निगमन )। यह अनुमानप्रमाण रूप युक्तिका सद्भाव है । सबसे पहिले उपर्युक्त यह हेतु असिद्ध नहीं है । न्यायसूत्रमें आप नैयायिकोंके यहां बादका लक्षण इस प्रकार कहा गया है कि प्रमितिका कारण प्रमाण और अविज्ञात तत्त्वमें कार मोंकी उपपत्तिसे तत्वज्ञानके लिये किये गये विचार रूप तर्कसे जहां स्वपक्षका साधन किया जाय और परपक्षमें दूषण दिया जाय तथा जो सिद्धान्तसे अविरुद्ध होय तथा जो प्रतिज्ञा, हेतु उदाहरण, उपनय, निगमन पांच अवयवोंसे सहित होय ऐसा होता हुआ जो वादमें पडे हुये पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह करना है। यानी युक्ति प्रत्युक्ति रूप वचन रचना है, वह वाद है । आप नैयायिकोंके मत अनुसार ही हेतु पक्षमें बहुत अच्छी तरहसे घटित हो जाता है।
पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहादित्युच्यमाने जल्पेपि तथा स्यादित्यवधारणविरोधस्तत्परिहारार्थ प्रमाणतर्कसाधनोपालंभत्वादि विशेषणं । न हि जल्पे तदस्ति, यथोक्तोपपन्नछलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालंभो जल्प इति वचनात् । तत एव न वितंडा तथा प्रसज्यते पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहरहितत्वाच ।
हेतुमें लगा दिये गये विशेषणोंकी सार्थकताको कहते हैं कि यदि हेतुका शरीर पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह करना मात्र इतना कह दिया जाय तो तिस प्रकार पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह
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करना तो जल्पमें भी पाया जाता है । अतः " वाद एव " वाद ही इस प्रकार किये गये एवकार द्वारा अवधारणस्वरूप नियमका विरोध होगा। यानी पक्षमें हमारे द्वारा डाग गया एवकार व्यर्थ पडेगा । व्यभिचार दोष भी हो जायगा । अतः उसके परिहारके लिये प्रमाण या तर्कोसे सिद्धि करना, उलाहने देना, सिद्धान्तसे अविरुद्ध होना, आदिक विशेषण हेतुके दिये गये हैं। जब कि जल्पमें वह प्रमाण, तोसे साधन, उलाहना देना आदि विशेषण नहीं हैं। क्योंकि गौतमजीने न्यायसूत्रमें तुम्हारे यहां यों कहा है कि यथायोग्य ऊपर कहे गये वादके लक्षणसे युक्त होय किन्तु छळ ( कपट ) जाति (असत् उत्तर) और निग्रहस्थानों करके साधना और उलाहने जहां दिये जाय वह जल्प है । अर्थात्-जल्प नामक शास्त्रार्थमें प्रमाण या तोंसे साधन और उलाहने नहीं होते हैं। मळे ही अपने अपने मनमें कल्पित कर लिये प्रमाण तर्कोसे साधन और उपालम्भ दे दिया जाय, किन्तु छल आदिक करके जहां स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण उठाये जाते हैं वह जल्प है। अतः हमारा हेतु व्यभिचारी नहीं है। पक्षमें एवकार लगाना उपयुक्त पड गया। तथा वितंडा भी तिस ही कारणसे यानी हेतुके विशेषण नहीं घटित होनेसे तिस प्रकार तत्त्वाध्यवसायोंका संरक्षक नहीं हो सकता है । अर्थात्-वितंडामें तिस प्रकार वाद बन जानेका प्रसंग नहीं हो सकता है । वह तत्त्वनिर्णयका रक्षक भी नहीं है, जो कि नैयायिकोंने मान रखा है। क्योंकि पक्ष और प्रतिपक्षके परिग्रहसे रहित वह वितंडा है । अतः जल्प और वितंडाका तिरस्कार कर वाद ही तत्त्व निर्णयका संरक्षण करनेवाला सम्मवता है।
पक्षपतिपक्षौ हि वस्तुधर्मावेकाधिकरणी विरुद्धौ एककालावनवसितौ वस्तुविशेषौ वस्तुनः सामान्येनाधिगतत्वाच विशेषावगमनिमिचौ विवादः। एकाधिकरणाविति नानाधिकरणौ विचारं न प्रयोजयत उभयोः प्रमाणेनोपपत्तेः । तद्यथा अनित्या बुद्धिनित्य
आत्मेति अविरुद्धावप्येवं विचारं न प्रयोजयतः । तद्यथा क्रियावद्रव्यं गुणवच्चेति विरुद्धौ। तावुक्तौ । तथाभिन्नकालौ न विवादाही यथा क्रियावद्व्यं नि:क्रियं च कालभेदे सतीत्येककालावित्युक्तं । तथावसितौ विचारं न प्रयोजयेते निश्चयोत्तरकालं विवादाभावादि. त्यनवसितौ निर्दिष्टौ । एवं विशेषणविशिष्टयोधर्मयोः पक्षपतिपक्षयोः परिग्रह इत्थंभावनियमः। एवं धर्मायं धर्मी नैवं धर्मेति वा सोऽयं - पक्षपतिपक्षपरिग्रहो न वितंडायामस्ति सप्रतिपक्षस्थापनाही नो वितंडा इति वचनात् । तथा यथोक्तो जल्पः प्रतिपक्षस्थापनाहीनतया विशेषितो वितंडात्वं प्रतिपद्यते । वैतंडिकस्य च स्वपक्ष एव साधनवादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षी हस्तिपतिहस्तिन्यायेन स च वैतडिको न साधनं वक्ति केवलं परपक्षनिराकरणायैव प्रवर्तत इति व्याख्यानात् ।
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वादमें वादी प्रतिवादियों द्वारा जिन पक्ष और प्रतिपक्षका प्ररिग्रह किया जाता है, वे पक्ष और प्रतिपक्ष कैसे होने चाहिये इसका विचार करते हैं, जिससे कि वितंडामें अतिव्याप्ति नहीं हो 1 कारण कि पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों तो वस्तुके स्वभाव हो रहे धर्म हैं । वे दोनों एक अधिकरण में ठहरनेवाले होने चाहिये । पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों परस्पर में विरुद्ध होय एक ही कालमें दोनों विचारको प्राप्त हो रहे होंय, पक्ष प्रतिपक्ष दोनोंका अभीतक निश्चय नहीं हो चुका होय, ऐसे पक्ष और प्रतिपक्ष होने चाहिये इन पक्ष प्रतिपक्षोंके विशेषणों की कीर्ति इस प्रकार है कि वे पक्ष प्रतिपक्ष वस्तुके विशेष धर्म होय, क्योंकि सामान्य रूपसे वस्तुको हम जान चुके हैं, विशेष धर्मो जानने के निमित्त ही तो यह विवाद चलाया गया है । जैसे कि शद्वको सामान्य रूपसे जानकर उस शद्ब के नित्यत्व, अनित्यत्व, धर्मोका निर्णय करनेके लिये विचार चलाया है । तथा वे पक्ष और प्रतिपक्ष एक ही अधिकरणमें ठहर रहे होय, अनेक अधिकरणोंमें वे ठहर रहे धर्म तो वादी प्रतिवादियोंको विचार करनेके लिये प्रयुक्त नहीं कराते हैं। क्योंकि दो अधिकरणोमें ठहर रहे दो पक्ष प्रतिपक्ष धर्मोकी प्रमाण करके सिद्धि मानी जा रही है । उसको इस प्रकार समझ लीजिये कि बुद्धि अनित्य है और आत्मा नित्य है । यहां अनित्यस्व धर्म तो बुद्धिमें रक्खा है, और नित्यत्व धर्म आत्मामें ठहराया है । एक ही वस्तुमें दो विरुद्धधर्म रहते तो शास्त्रार्थ किया जाता । पुद्गलको क्रियावान् और आकाश को क्रियारहित माननेमें किसीका झगडा नहीं है। इस प्रकार अविरुद्ध हो रहे भी धर्म वादियोंको विचार करनेमें प्रेरक नहीं होते हैं । उसको इस प्रकार समझिये कि जैसे द्रव्य क्रियावान् है और क्रियारहित भी है। एक ही शरीर में बैठकर लिखनेपर हाथोंमें क्रिया है । अन्य शरीर के भागों में क्रिया नहीं है । वायुके चलनेपर वृक्षकी शाखाओं में क्रिया है । जड या स्कन्ध क्रिया नहीं है अथवा द्रव्य क्रियावान् है और द्रव्य गुणवान् है । ये अविरुद्ध हो रहे दो धर्म विचार मार्गपर आरूढ नहीं किये जाते हैं । इस कारण वे पक्ष प्रतिपक्ष हमने विरुद्ध हो रहे कहे हैं । तिसी प्रकार भिन्न भिन्न कालमें वर्त रहे दो विरुद्धधर्म तो विवाद करने योग्य नहीं हैं । जैसे कि द्रव्य क्रियावान् भो है और क्रियारहित भी है । कालके भेद होनेपर द्रव्यमे क्रियारहितपना और क्रियासहितपना घटित हो जाता है। जो ही घट (पर्याय) खाने, लेजानेपर या उठाने धरनेपर, क्रिया वान है वही घर दिया गया घडा थोडी देर पीछे क्रियारहित भी है। जैनमत अनुसार चलता फिरता देवदत्त क्रियावान् है । और अन्य कालोंमें स्थिर हो रहा देवदत्त निष्क्रिय भी है। इस कारण एक ही कामें प्राप्त हो रहे धर्म ही पक्ष प्रतिपक्ष होते हैं, यह कहा गया था । तथा निर्णीत हो चुके धर्म भी वादी प्रतिवादियोंको विचार करनेके लिये नहीं प्रयुक्त कराते हैं । क्योंकि निश्चय कर चुकने के उत्तरकालमें विवाद नहीं हुआ करता है । इस कारण वे पक्ष प्रतिपक्ष हमने अनिश्चित इस प्रकार निर्देशको प्राप्त कर दिये हैं कह दिये गये हैं ) । इस प्रकार उक्त विशेषणोंसे विशिष्ट हो रहे पक्ष प्रतिपक्षरूप धर्मोका परिग्रह करना वाद है। परिग्रहका अर्थ तो " इसी प्रकार हो
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सकता है " यह नियम करना है। यानी यह धर्मी मेरे मन्तव्य अनुसार इस प्रकार के धर्मसे ही युक्त हो रहा है । अथवा तुम्हारे मन्तव्य अनुसार इस प्रकार धर्मको नहीं धारता है । वह प्रसिद्ध हो रहा यह पक्ष, प्रतिपक्षोंका उक्ति प्रत्युक्तिरूप कथन करना तो वितंडामें नहीं है । गौतमसूत्र में वितंडाका लक्षण यों लिखा है कि वह जल्पका एक देश यदि प्रतिपक्षकी स्थापनासे हीन होय तो वितंडा हो जाता है । इसका अभिप्राय यों है कि तिस प्रकार उपर्युक्त कथन अनुसार जल्प यदि प्रतिपक्षकी स्थापनाके हीनपने करके विशेष प्राप्त करदिया जाय तो वितंडापनको प्राप्त हो जाता है । वितंडवाद प्रयोजनको धारनेवाले वादीका स्वकीयपक्ष ही साधनवादीके पक्षकी अपेक्षासे " हस्तिप्रतिइस्ति "" न्याय करके प्रतिपक्ष समझ लिया जाता है । अर्थात् — उरली पार परली पार कोई नियत तट नहीं हैं । इस ओर लडनेके लिये खडा हुआ हस्ती ही दूसरे हस्तीकी अपेक्षा प्रतिहस्ती मानकिया जाता है । इसी प्रकार शद्वके अनित्यत्वको सिद्ध करनेवाले नैयायिकके पक्षकी अपेक्षा जो प्रतिपक्ष शद्वका नित्यपना पडेगा वही नैयायिकके पक्षका खण्डन करनेवाले वैतंडिकका स्वकीय (निजी) पक्ष है । वह वैतंडिक विद्वान् अपने पक्षको पुष्ट करनेके लिये किसी हेतु या युक्तिको नहीं कहता है । केवल दूसरों द्वारा साधे गये पक्षके निराकरण करनेके लिये ही प्रवृत्ति करता है । इस प्रकार वितंडा के लक्षणसूत्रका व्याख्यान किया गया है ।
ननु वैतंडिकस्य प्रतिपक्षाभिधानः स्वपक्षोस्त्येवान्यथा प्रतिपक्षहीन इति सूत्रकारो ब्रूयात् न तु प्रतिपक्षस्थापनाहीन इति । न हि राजहीनो देश इति च कश्चिद्राज पुरुषहीन इति वक्ति तथा अभिप्रेतार्थाप्रतिपत्तेरिति केचित् । ते पि न समीचीनवाचः, प्रतिपक्ष इत्यनेन विधिरूपेण प्रतिपक्षहीनस्यार्थस्य विवक्षितत्वात् । यस्य हि स्थापना क्रियते स विधिरूपः प्रतिपक्षो न पुनर्यस्य परपक्षनिराकरणसामर्थ्योन्नतिः सोत्र मुख्यविधिरूपतया व्यवतिष्ठते तस्य गुणभावेन व्यवस्थितेः ।
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यहां कोई विद्वान् यों अवधारण कर रहे हैं कि वितंडा नामक शास्त्रार्थको करनेवाले पण्डितका भी प्रतिपक्ष है नाम जिसका ऐसा गांठ ( निजी ) का पक्ष है ही । अन्यथा न्यायसूत्रको बनानेवाले गौतमऋषि वितंडाके लक्षण में प्रतिपक्षसे हीन ऐसा ही कह देते, किन्तु प्रतिपक्षकी स्थापना करनेसे रहित ऐसा नहीं कहते । राजासे हीन हो रहा देश है, ऐसा अभिप्राय होनेपर राजाके पुरुषोंसे हीन देश हो रहा है, यों तो कोई नहीं कह देता है। क्योंकि तैसा कहनेपर अभिप्रायको प्राप्त हो रहे अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं हो पाती है । भावार्थ — जो प्रतिवादीके प्रतिकूल पक्ष है, वही dish वादीका स्वपक्ष है । सूत्रकार गौतमने तभी तो प्रतिपक्षकी स्थापना करनेसे रहित वैतंडिकको बताया है । राजा अपने अधीन सभी नगरों या ग्रामोंमें एक एकमें नहीं बैठा रहता है । हां, राजा के अंग हो रहे पुरुष वहां राजसत्ताको जमाये हुये हैं । वैतंडिकको प्रतिपक्षसे रहित नहीं कहा है। इस
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प्रकार कोई कह रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि वे भी कोई विद्वान् समीचीन वाणीको कहनेवाले नहीं है । क्योंकि प्रतिपक्षकी स्थापनासे हीन ऐसे सूत्रकारके इस कथन द्वारा विधिरूप करके प्रतिपक्षसे हीन हो रहा वैतंडिक है । यही अर्थ विवक्षाप्राप्त है । अर्थात्-जैसे साधनवादी अपने पक्षको स्वरूपकी विधि करके पुष्ट कर रहा है, उस प्रकार वैतंडिक अपने पक्षका विधान नहीं कर रहा है । जिसकी नियमसे स्थापना की जाती है वह विधिस्वरूप प्रतिपक्ष है । किन्तु परपक्षके निराकरणकी सामार्थ्यसे जिसका उन्नयन कर लिया है, यानी अर्थापत्ति या ज्ञानलक्षणासे जिसकी प्रतिपत्ति हो जाती है, वह यहां मुख्य विधिस्वरूप करके व्यवस्थित नहीं हो रहा है। हां, गौण रूपसे उसकी व्यवस्था भले ही हो जाय ।
जल्पोपि कश्चिदेवं प्रतिपक्षस्थापनाहीनः स्यान्नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्चप्रसंगादिति परपक्षप्रतिषेधवचनसामर्थ्यात् सात्मकं जीवच्छरीरमिति स्वपक्षस्य सिद्धेविधिरूपेण स्थापनाविरहादिति चेन्न, नियमेन प्रतिपक्षस्थापनाहीनत्वाभावाजल्पस्य । तत्र हि कदाचित्स्वपक्षविधानद्वारेण परपक्षप्रतिषेधः कदाचित्परपक्षप्रतिषेधद्वारेण स्वपक्षविधानमिष्यते नैवं वितंडायां परपक्षप्रतिषेधस्यैव सर्वदा तत्र नियमात् ।
___ कोई विद्वान् कहते हैं कि यों तो जल्प भी कोई कोई इस प्रकार प्रतिपक्षको स्थापनासे हीन हो जावेगा । देखिये, जल्पवादी कहता है कि यह जीवित शरीर (पक्ष) आत्मारहित नहीं है (साध्य) क्योंकि प्राण चलना, नाडी धडकना, उष्णता आदिसे सहितपनका यहां प्रसंग प्राप्त हो रहा है । अन्यथा अप्राणादिमत्वप्रसंगात् यानी यह शरीर यदि आत्मासे रहित होता तो प्राण आदिके रहितपन का प्रसंग आता । इस प्रकार परपक्षके निषेधको करनेवाले वचनकी सामर्थ्यसे ही जीवित शरीर सात्मक है, तिस प्रकारके स्वपक्षकी सिद्धि हो जाती है। यहां स्वतंत्र विधिरूप करके जल्पवाद के पक्ष की स्थापनाका विरह है। अब आचार्य कहते हैं कि यों तो नहीं कहना । क्योंकि नियमकरके प्रतिपक्षकी स्थापनासे हीनपना जल्पके नहीं है । अर्थात्-जल्पवादी साधनवादीके प्रतिपक्ष हो रहे अपने पक्षकी स्थापनाको कंठोक्त कर भी सकता है। किन्तु वैतंडिक अपने पक्षकी स्थापनाको नहीं करता है । कारण कि उस जल्पमें कभी कभी मुख्यरूपसे अपने पक्षकी विधिके द्वारा गौणरूपसे परपक्षका निषेध कर दिया जाता है । और कभी कभी प्रधानरूपसे परपक्षके निषेधद्वारा गौणरूपसे अपने पक्षका विधान इष्ट कर लिया जाता है । किन्तु वितंडामें इस प्रकार नहीं हो पाता है। क्योंकि वहां वितंडामें सदा परपक्षके निषेध करनेका ही नियम हो रहा है । अतः जल्पसे वितंडामें अन्तर है।
नन्वेवं प्रतिपक्षोपि विधिरूपो वितंडायां नास्तीति प्रतिपक्षहीन इत्येव वक्तव्य स्थापनाहीन इत्यस्यापि तथाऽसिद्धेः स्थाप्यमानस्याभावे स्थापनायाः संभवायोगादिति
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
चेन्न, अनिष्टप्रसंगात् । सर्वथा प्रतिपक्षहीनस्यार्थस्यानिष्टस्य प्रसक्तौ च यथा वितंडायां साध्यनिर्देशाभावस्तस्य चेतसि परिस्फुरणाभावश्च तथार्थापत्यापि गम्यमानस्य प्रतिपक्षस्याभाव इति व्याहतिः स्याद्वचनस्य गम्यमानस्वपक्षाभावे परपक्षप्रतिषेधस्य भाविविरोधात् । प्रतिपक्षस्थापनाहीन इति वचने तु न विरोधः सर्वशून्यवादिनां परपक्षपतिषेधे सर्व: शून्यमिति स्वपक्षगम्यमानस्य भावेपि स्थापनाया गम्यमानायास्तद्वद्भावाभावे वा शून्यताव्याघातात् ।
फिर कोई विद्वान् यहां अवधारण करते हैं कि इस प्रकार कहनेपर जब वितंडामें कोई प्रतिपक्ष भी विधिस्वरूप नहीं है, यों तो सूत्रकारको " प्रतिपक्षहीन " इस प्रकार ही कहना चाहिये । प्रतिपक्षकी स्थापन से हीन, ऐसे इस कथनकी मी तिस प्रकार माननेपर सिद्धि नहीं हो पाती है। क्योंकि स्थापन करने योग्य हो रहे पदार्थके अभाव होनेपर स्थापनाकी सम्भावना करना युक्त नहीं है । अर्थात्-वैतंडिकके यहां जब प्रतिपक्ष ही नहीं है, सूत्रकारको प्रतिपक्षकी स्थापनासे हीन ऐसा नहीं कह कर प्रतिपक्षसे हीन यों ही सीधा कह देना चाहिये था। अब आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि अनिष्टका प्रसंग हो जायगा । वैतडिक सभी प्रकारों करके प्रतिपक्षसे हीन होय इस प्रकारका अर्थ अनिष्ट है । और अनिष्ट अर्थका प्रसंग प्राप्त हो जानेपर तो जिस प्रकार वितंडामें अपने साध्य हो रहे धर्मके कथन करनेका अभाव है और उस साध्यकी मनमें परिस्फूर्ति होनेका अभाव है, उसी प्रकार यदि विना कहे ही अर्थापत्ति प्रमाण द्वारा जाने जा रहे भी प्रतिपक्षका अभाव हो जायगा तो यह वचनका व्याघात दोष हो जावेगा अर्थात्-ऐसी दशामें वैतंडिक एक अक्षर भी नहीं बोल सकता है । शद्बके नित्यपनका अभिप्राय रखता हुआ ही अथवा शद्बके अनित्यपनको नहीं माननेका आग्रह रखनेवाला पुरुष ही शब्दके अनित्यत्वका निराकरण करनेके लिये उद्युक्त होता है । यदि वैतंडिकका अर्थापत्ति से भी जानने योग्य निजपक्ष नहीं माना जावेगा तो परपक्षके निषेधके हो जानेका विरोध है । अर्थात्-शब्दके अनित्यत्वका खण्डन करनेके समान शरके नित्यत्वका भी खण्डन कर बैठेगा । ऐसी दशामें वह विरुद्धभाषी वैतंडिक विचारकोंकी सभासे पृथक्कृत हो जायगा । हाँ, प्रतिपक्षको स्थापनासे हीन इस प्रकार सूत्रकार द्वारा कथन करनेपर तो कोई विरोध नहीं आता है + अर्थात्-वैतंडिकका साधनवादीके प्रतिकूल पक्ष हो रहा प्रतिपक्ष ही स्वपक्ष है। हां, वह उस निजपक्षकी हेतु, दृष्टान्त, आदिसे स्थापना नहीं कर रहा है । देखिये, सर्वको शून्य कहने वाले वादियोंके द्वारा प्रमाण, प्रमेय, आदिको माननेवाले दूसरे विद्वानोंके पक्षका निषेध किये जानेपर यद्यपि शून्यवादियोंके " सम्पूर्ण जगत् शून्य है" " निःस्वभाव है " इस प्रकार गम्यमान निजपक्षका सद्भाव है, तो भी गम्यमान हो रही स्थापनाका उस स्वपक्षके समान यदि सद्भाव नहीं माना जायगा तब तो शून्यताका ही व्याधात हो
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जायगा । अर्थात - शून्यवादी भर्के ही अपने पक्षकी स्थापना नहीं करें, किन्तु तत्वोंके माननेवाले दूसरे वादियों के पक्षका निराकरण कर देनेसे उनके अभिमत शून्यवादको स्थापना परिशेषन्यायसे गम्यमान हो जाती है। यदि वह शून्यवादकी स्थापना गम्यमान भी नहीं होती तो शून्यपनेका ही व्याघात हो जाता, जो कि उसको इष्ट नहीं है ।
तर्हि प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वेन तमभ्युपेयादित्यत्रापि प्रतिपक्षहीनमपि चेति वक्तव्यं, सर्वथा प्रतिपक्षहीनवादस्यासंभवादिति चेत् । क एवं व्याचष्टे सर्वप्रतिपक्षीनमिति ? परतः प्रतिज्ञामुपादित्समानस्तच्वबुभुत्साप्रकाशनेन स्वपक्षं वचनतोनवस्थापयस्वदर्शनं साधयेदिति व्याख्यानात् तत्र गम्यमानस्य स्वपक्षस्य भावात् स्वपक्षमनवस्थापयमिति भाष्यकारवचनस्यान्यथा विरोधात् ।
कहने पर किसी विद्वान्का कटाक्ष है कि तब तो प्रतिपक्षसे हीन होरहे को भी प्रयोजन साधने के लिये अभिलाषीपन करके उसको स्वीकार करलेवे, इस प्रकार यहां भी और प्रतिपक्षसे हीन भी है, ऐसा वार्त्तिक कहदेना चाहिये । अर्थात् – प्रतिपक्ष स्थापनाहीन इस सूत्र के परिशेष रहे अर्थके लिये प्रतिपक्षद्दीन भी यह उपसंख्यान करना चाहिये। क्योंकि सर्वथा प्रतिपक्षसे हीन हो रहे वादा असम्भव है । यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कौन व्याख्यान कर रहा है कि सभी प्रकार प्रतिपक्षों से हीन वितंडा होना चाहिये ? " सप्रतिपक्षस्थापनाहनो वितंडा ” इसका व्याख्यान यों किया गया है कि परवादीसे प्रतिज्ञाको ग्रहण करनेकी इच्छा रखता हुआ वैतंडिक तस्वको जानने की इच्छाका प्रकाश करके स्वकीय पक्षको वचनोंद्वारा व्यवस्थापित नहीं करता हुआ अपने सिद्धान्तदर्शनकी सिद्धि करा देवें । क्योंकि वहाँ शब्दोंद्वारा प्रतिपादन किये विना यों ही जाने जा रहे अपने पक्षकी सत्ता है । अन्यथा यानी इस प्रकार व्याख्यानको नहीं कर दूसरे प्रकारोंसे माननेपर तो अपने पक्षको व्यवस्थापित नहीं कराता हुआ इस भाष्यकारके वचनका विरोध हो जावेगा । अर्थात् उक्त सूत्रके भाष्यमें वात्स्यायन ऋषिने यों कहा है कि " यद्वै खलु तत्परप्रतिषेधलक्षणं वाक्यं स वैतंडिकस्य पक्षः, न त्वसौ साध्यं कश्चिदर्थ प्रतिज्ञाय स्थापतीति तस्माद् यथा न्यासमेवास्त्विति " दूसरे वाद के साध्यका निषेध करना स्वरूप वाक्य ही वैतंडिकका पक्ष है । वह वैतंडिक किसी साध्यविशेत्रकी प्रतिज्ञा कर स्थापन नहीं करता है । यानी वैतंडिक पण्डित अपने पक्षकी व्यवस्थाको नहीं करा रहा है । अपनी गांठकी प्रतिज्ञाको नहीं ग्रहण करता हुआ तत्त्व समझने की इच्छा का प्रकाश नहीं कर रहा है। केवल दूसरों के पक्ष का खण्डन कर देनेसे अर्थापत्तिद्वारा वैतंडिकके सिद्धान्त दर्शनका अन्य जन अनुमान लगा किया करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वितंडा सर्वथा प्रतिपक्षकी सिद्धिसे रीता नहीं है ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
कुतोन्यथा भाष्यकारस्यैवं व्याख्यानमिति चेत्, सर्वथा स्वपक्षहीनस्य वादस्य जल्पवितंडावदसंभवादेव । कथमेवं वादजल्पयोर्वितंडातो भेदः १ प्रतिपक्षस्थापनाहीनत्वाविशेषादिति चेत्, उक्तमत्र नियमता प्रतिपक्षस्थापनाया हीना वितंडा, कदाचित्तया हीनी वादजल्पाविति । केवलं वादः प्रमाणतर्कसाधनोपलंभत्वादि विशेषणः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः । जल्पस्तु छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालंभश्च यथोक्तोपपन्नश्चेति वितंडातो विशिष्यते ।
कोई पूंछता है कि भाष्यकार वात्स्यायनका अन्य प्रकारोंसे व्याख्यान नहीं कर इसी प्रकार का व्याख्यान करना कैसे ठीक समझा जाय ? यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि जल्प और वितंडाके समान स्वपक्षसे सर्वथा हीन हो रहे वादका असम्भव ही है । अर्थात्-जैसे जल्प और वितंडामें उच्यमान या गम्यमान स्वपक्ष विद्यमान है, उसी प्रकार वादमें भी स्वपक्ष विद्यमान है । फिर कोई प्रश्न उठाता है कि इस प्रकार स्वपक्षके होनेपर वितंडासे वाद और जल्पका भेद कैसे हो सकेगा ? बताओ। क्योंकि प्रतिकूल पक्षकी स्थापनासे रहितपनकी अपेक्षा इन तीनोंमें कोई विशेषता नहीं है । यों कहनेपर तो आचार्य समाधान करते हैं कि हम इस विषयमें पहिले ही कह चुके हैं कि नियम करके जो प्रतिपक्षकी स्थापनासे हीन है, वह वितंडा है। और कभी कभी स्वरूपकरके प्रतिपक्षसे हीन हो रहे वाद और जल्य हैं । अर्थात्-वितंडामें तो सर्वदा प्रतिपक्षको स्थापना नहीं ही होती है। किन्तु वाद और जल्पमें कभी प्रतिपक्षकी स्थापना हो जाती है और कभी प्रतिपक्षकी स्थापना नहीं भी होती है । हां, केवल बादमें प्रमाण और तर्को करके स्थापना और प्रतिषेध किये जाते हैं। अपने सिद्धान्तको स्वीकार कर उससे अविरुद्ध वाद होना चाहिये, इत्यादि विशेषणोंसे सहित हो रहा पक्ष प्रतिपक्षका परिग्रह करना वाद है। और जल्प तो छल जाति और निग्रह स्थानोंकरके साधन करना, उपालम्भ देना, इनसे युक्त है और ऊपर कहे हुये वादके लक्षण से जो कुछ उपपत्ति युक्त होय, उससे सहित है । इस कारण वितंडासे वाद और जल्पमें विशेषता प्राप्त हो जाती है। ___ तदेवं पक्षपतिपक्षपरिग्रहस्य जल्पे सतोपि प्रमाणतर्कसाधनोपलंभत्वादिविशेषणाभावाद्वितंडायामसत्वाच्च न जल्पवितंडयोस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वसिद्धिः प्रकृतसाधनायेनेटविघातकारीदं स्यादनिष्टस्य साधनादिति वाद एव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वाजिगीपतोर्युक्तो न जल्पवितंडे ताभ्यां तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणासंभवात् । परमार्थतः ख्यातिलाभपूजावत् ।
तिस कारण अबतक यों सिद्ध हुआ कि वादके लक्षणका विशेष्य दल बनरहा पक्ष प्रतिपक्ष परिग्रह करमा यद्यपि जल्पमें विद्यमान हो रहा है, तो भी प्रमाण तोंसे साधन या उलाहना देना सिद्धान्त अविरुद्ध होना आदि विशेषगोंके नहीं घटित होनेसे जल्सको तत्त्वनिर्णयका संरक्षकपना
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तचार्य को कवार्तिके
प्रकृत हेतु से सिद्ध नहीं होता है तथा वितंडामें तो विशेष्य दल पक्ष प्रतिपक्ष परिग्रह और विशेषण दल प्रमाण तर्कसे साधना उलाहना आदिके नहीं घटित होनेसे तत्व निर्णयका संरक्षण अपना प्रकरण प्राप्त साधनेसे सिद्ध नहीं हो पाता है । अर्थात् - आचार्य मद्दाराजने पूर्व में वादही को तत्त्वनिर्णयका रक्षकपना साधनेके लिये जो वादके पूरे लक्षणको हेतु बनाकर अनुमान कहा था वह ठीक है। जल्प और वितंडामें हेतु नहीं ठहरता है । जिससे कि अनिष्टका साधन हो जाने से यह हेतु इष्टसाध्यके विघातको करनेवाला हो जाय । इस कारण वाद ही तत्व निर्णयके संरक्षण अर्थ उपयोगी होनेसे जीतने की इच्छा रखनेवाले पुरुषों में प्रवर्त रहा है । यह युक्त है । नल्प और वितंडा तो तत्रनिर्णय के रक्षक नहीं हैं । अतः जिगीषुओंमें नहीं प्रवर्तते हैं । jarat दूसरी बात है । उन जल्प वितंडाओं करके परमार्थ रूपसे तत्त्वनिर्णयका भळे प्रकार रक्षण होना असम्भव है । जैसे कि विद्वानों में प्रकृष्ट विद्वत्तापने की प्रसिद्धि आर्थिक लाभ, या यशोलाभ, तथा पूजा सत्कार ये जल्न वितंडाओंसे नहीं होते हैं । उसी प्रकार जल्प वितंडाओंसे तत्वनिर्णयकी रक्षा नहीं हो पाती है । अतः उक्त हेतु अन्यत्र नहीं रह कर वाद हीमें ठहरता है । उन करके तो निग्रह कर दिया जाता है । वह तत्त्वबुभुत्सा नहीं है ।
तस्याध्यवसायो हि तत्त्वनिश्चयस्तस्य संरक्षणं न्याय बळात्सकळ बाधकनिराकरणेन पुनस्तत्र बाधकमुद्भावयतो यथाकथंचिन्निर्मुखीकरणं चपेटादिभिस्तत्पक्ष निराकरणस्यापि तत्वाध्यवसाय संरक्षणत्वप्रसंगात् । न च जल्पवितंडाभ्यां तत्र सकळवाधकपरिहरणं छळजात्याद्युपक्रपपराभ्यां संशयस्य विपर्यासस्य वा जननात् । तत्वाध्यवसाये सत्यपि हि वादिनः परनिर्मुखीकरणे प्रवृत्तौ प्रानिकास्तत्र संशेरते विपर्ययस्यन्ति वा किमस्य तवा - ध्यवसायोस्ति किं वा नास्तीति । नास्त्येवेति वा परनिर्मुखीकरणपात्रे तत्वाध्यवसाय रहितस्यापि प्रवृत्तिदर्शनात्वोपपळववादिवत् तथा चाख्यातिरेव प्रेक्षावत्सु अस्य स्यादिति कुतः पूजालाभो वा ?
तत्त्वका अध्यवसाय तो नियम करके तत्वोंका निश्चय करना है । उसका संरक्षण करना यह है कि प्रमाणोंकरके अर्थपरीक्षण स्वरूप न्यायकी सामर्थ्य से सम्पूर्ण बाधकों का निराकरण कर देना है । किन्तु फिर उसमें बाधक प्रमाणोंको उठा रहे प्रतिवादीका चाहे जैसे तैसे अन्याय या अनुचित मार्ग द्वारा बोक रोक देना संरक्षण नहीं अन्यथा दूसरेके मुखका बोल रोक देना तो थप्पड, घूंसा, मंत्रप्रयोग, मर्मच्छेदकवचन, चीक झपट्टा कर देना आदि निंध प्रयत्नों करके उस विद्वान् के पक्ष के निराकरणको भी तत्त्वनिर्णय रक्षकपनका प्रसंग आ जावेगा भावार्थ - प्रमाणोंद्वारा सकल बाधकोंका निराकरण कर देनेसे तत्वनिर्णयकी रक्षा होती है । चाहे जैसे मनमानी ढंगले किसीको निर्मुख कर देने से तस्त्रनिर्णय नहीं हो पाता है । नादिरशाही से
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न्यायमार्ग रक्षित नहीं रह पाता है। देखिये, जल्प और वितंडासे उस प्रतिज्ञा वाक्यमें उठाये गये सम्पूर्ण बाधकोंका परिहार नहीं हो पाता है । क्योंकि वे जल्प या वितंडामें प्रवर्त रहे पण्डित तो छल, असमीचीन उत्तर, निग्रह करना आदिका उपक्रम लगानेमें तत्पर हो रहे हैं । अतः उन जल्प वितंडाओंसे संशय या विपर्यय उत्पन्न हो जाता है । तत्त्वनिर्णय नहीं हो पाता है। कारण कि वादी पण्डितके तत्राका निर्णय होनेपर भी यदि उसकी दूसरोंको जैसे तैसे किसी उपायसे चुप कर देने में ही प्रवृत्ति होगी तो वहां बैठे हुये प्राश्निक सभ्य उसके विषय यों संशय करने लग जाते हैं कि इस बादीके क्या तवोंका अध्यवसाय है ! अथवा क्या नहीं है ? तथा प्राश्निक पुरुष यों विपरीत ज्ञान कर बैठते हैं कि इस वादीके तत्र निर्णय है ही नहीं । क्योंकि स्वपक्षसिद्धिको मुखसे बोल रहे प्रतिवादीके केवल चुप कर देनेमें तो तस्वनिर्णयसे रहित हो रहे भी वादीकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है । जैसे कि तखोंका उपछव माननेवाले वादीकी स्वयं तत्त्वनिर्णय नहीं होते हुये भी दूसरोंके चुप करनेमें प्रवृत्ति हो रही है । यही अवस्था जाल्पिक और वैतंडिककी है और तैसा होनेपर विश्वारशीळ प्रेक्षवान् पुरुषों में इसकी अप्रसिद्धि ही हो जावेगी । ऐसी दशा में सरकार पुरस्काररूप पूजा अथवा काम तो भला कैसे प्राप्त हो सकता है ! तुम्हीं विचारो ।
ततश्चैवं वक्तव्यं वादो जिगीषतोरेव तत्वाध्यवसाय संरक्षणार्थत्वादन्यथा तदनुपपत्तेः । पराभ्युपगममात्रा ज्जल्पवितंडावत्वात् निग्रहस्थानवत्त्वाच्च । न हि वादे निग्रहस्थानानि न संति । सिद्धांताविरुद्धः इत्यनेनापसिद्धांतस्य पंचावयवोपपन्न इत्यत्र पंचग्रहणान्न्यूनाधि - कयोरवयवोपपन्नग्रहणाद्धेत्वाभासपंचकस्य प्रतिपादनादष्टानां निग्रहस्थानानां तत्र नियमव्याख्यानात् ।
तिस कारण अबतक सिद्धि कराते हुये यों कहना चाहिये कि वाद ( पक्ष ) जीतने की इच्छा रखनेवाले दो वादी प्रतिवादियों का (में) ही प्रवर्तता है (साध्य ) । तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण अर्थपना होनेसे ( हेतु ) अन्यथा यानी जिगीषुओंमें होने बिना वाद में वह तत्त्व निर्णयकी संरक्षकता नहीं होने पावेगी इस व्याप्तिको दिखाते हुये पहिला हेतु कहा है । तथा दूसरे नैयायिकों के केवळ स्वीकार करनेसे जल्प, वितंडा सहितपना होनेसे ( दूसरा हेतु ) अर्थात् - नैयायिकोंने जल्प और वितंडाका जिगीओंमें प्रवर्तना स्वयं इष्ट किया है। इनके धर्म वादमें भी रह जाते हैं। अथवा नैयायिकोंने तत्त्व निर्णय के रक्षक जल्प वितंडाओंकी जिगीषुओं में प्रवृत्ति मानी है । अतः जल्प और वितंडाको अष्टान्त समझो तथा निग्रहस्थानोंसे सहितपना होनेसे ( तीसरा हेतु ) यानी वादमें वादी प्रतिवादियों द्वारा तिरस्कार वर्धक या पराजयसूचक निग्रहस्थान उठाये जाते हैं । अतः सिद्ध होता है कि बाद परस्पर में एक दूसरेको जीतने की इच्छा रखनेवालोंमें प्रवर्तता है । वाद में निग्रह स्थान नहीं हैं, यह कोई नहीं समझ बैठे । क्योंकि वादके लक्षण में सिद्धान्त अविरुद्ध ऐसा पद पडा हुआ
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
है । इस करके वादमें अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थानके उठानेका नियम वखाना है। और वादके लक्षणमें " पंचावयवोपपन्नः " ऐसा विशेषण कहा गया है । इसमें पांच इस पदके ग्रहणसे न्यून
और अधिक नामक निग्रहस्थानके उठानेका नियम कहा गया है । तथा 'अवयवोपपन्न' यानी अवयवोंसे सहित इस पदके ग्रहणसे पांचों हेत्वाभास नामक निग्रहस्थानोंका उठाना वहां वादमें नियमित कहा गया है। अर्थात्-सिद्धान्तसे अविरुद्ध वाद होना चाहिये, इससे धनित होता है जो वादी या प्रतिवादी सिद्धोतसे विरुद्ध बोळेगा उसके ऊपर अपसिद्धान्त नामका निग्रहस्थान उठा दिया जायगा " सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात् कथाप्रसंशोऽपसिद्धान्तः " वात्स्यायन ऋषि इसका अर्थ यों करते हैं कि किसी अर्थके तिस प्रकार होनेकी प्रतिज्ञा कर पुनः प्रतिज्ञा किये गये अर्थक विपर्ययरूप अनियमसे कथाका प्रसंग करा रहे विद्वानके अपसिद्धान्त निग्रहस्थान हो जाता है। पांचों ही अवयव होने चाहिये । अन्यथा न्यून और अधिक मामक निग्रहस्थान लागू हो जानेसे वह विद्वान् निग्रहीत हो जावेगा । प्रतिज्ञा,हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, इन पांच अवयवों से एक भी अवयव करके यदि हीन बोला जायगा. तो न्यून निग्रहस्थान कहावेगा और हेतु या उदाहरण अधिक बोल दिये जायंगे तो अधिक नामक निग्रहस्थान हो जायगा। तथा पांचों अवयव कहने चाहिये । यदि प्रतिज्ञा नहीं कही जायगी तो आश्रयासिद्ध हेत्वाभास नामक निग्रहस्थान उसपर लगा दिया जायगा। प्रतिज्ञा कहदेनेपर तो आश्रय पक्ष हो जाता है । हेतु अवयवसे युक्त यदि याद नहीं होगा तो स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नामक निग्रह स्थानसे वह पण्डित ग्रस लिया जावेगा। हेतु कह देनेपर तो वह हेतु पक्षमें ठहर जाता है। अतः स्वरूपा सिद्ध नहीं है। अन्वयदृष्टान्त नहीं कहनेपर विरुद्धहेत्वाभास निग्रहस्थान उठा दिया जाता है । जो हेतु सपक्षमें रहेमा वह विरुद्ध नहीं हो सकता है। व्यतिरेक दृष्टान्त नहीं देनेसे अनेकान्तिकहेत्वाभास निग्रहस्थान उठा दिया जावेगा । जो हेतु विपक्षमें नहीं बर्तेगा वह व्यभिचारी नहीं होगा । उपनयसे युक्त नहीं कहनेपर बाधित हेत्वभास नामक निग्रहस्थान दिया जासकता है। जो साध्य करके व्याप्त हो रहे हेतुसे युक्त पक्ष है, वहां साध्यकी बाधा नहीं है। निगमनसे युक्त नहीं कहनेपर सत्प्रतिपक्ष नामका निग्रह स्थान उठा दिया जाता है। व्याप्तिको रखनेवाले हेतुका व्यापक साध्य यदि वहां वर्त रहा है तो साध्याभावका साधक दूसरा हेतु वहां कथमपि नहीं भटक सकता है । इस प्रकार अपसिद्धान्त, न्यून, अधिक, और पांच हेत्वाभास ऐसे आठ निग्रह स्थानोंका उठाना उस वादमें बखाना गया है। विजिगीषा रखनेवाले ही पण्डित दूसरोंके ऊपर निग्रहस्थान उठा सकते हैं । अत जिगीषु पुरुषोंमें ही वाद प्रवर्तता है।
ननु वादे सतामपि निग्रहस्थानानां निग्रहबुध्योद्भावनाभावान्न जिगीषास्ति । तदुक्तं तर्कश न भूतपूर्वगतिन्यायेन वीतरागकथात्वज्ञापनादुद्भावनियमो लभ्यते तेन सिद्धांताविरुद्धः पंचावयवोपपन्न इति चोत्तरपदयोः समस्तनिग्रहस्थानाद्युपलक्षणार्थत्वाद् वादेऽ. प्रमाणबुध्या परेण छळजातिनिग्रहस्थानानि प्रयुक्तानि न निग्रहबुध्योद्भाव्यते किंतु
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तत्वार्थचिन्तामणिः
निवारणबुध्या तत्वज्ञानायावयवयोः प्रवृत्तिर्न च साधनाभासो दूषणाभावो वा तत्वज्ञान हेतु. रतो न तत्प्रयोगो युक्तः इति। तदेतदसंगतं। अल्पवितंडयोरपि तथोद्भावननियमप्रसंगातयोस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणाय स्वयमभ्युपगमात् । तस्य छलजातिनिग्रहस्थानः कर्तुमशक्यत्वात् ।
यहाँ नैयायिक अपने सिद्धान्तका अवधारण करते हैं कि वीतरागोंमें ही वाद प्रवर्तता है। यद्यपि वादमें आठ निग्रहस्थानोंका सद्भाव है, तो भी दूसरेका निग्रह करनेकी बुद्धि करके निग्रहस्थानोंका उठाना नहीं होनेसे वहां परस्परमें जीतनेकी इच्छा नहीं है । वही हमारे ग्रन्थोंमें कहा गया है कि तर्क शब्द करके भूतपूर्वका ज्ञान होना इस न्यायके द्वारा वादमें वीतरागकथापनका ज्ञापक हो रहा है। अतः निग्रहस्थानोंके उद्भावका नियम प्राप्त हो जाता है । तिस कारण इस प्रकार " प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भ " के उत्तरमें पडे हुये " सिद्धान्ताविरुद्ध " और " पंचावयवोपपन" इन दो पदोंके द्वारा सम्पूर्ण निग्रहस्थान, छक जाति, आदिका उपलक्षणरूप प्रयोजनसहितपना है। अतः वादमें अप्रमाणपनेकी बुद्धि करके दूसरों के प्रति छळ, जाति, निग्रहस्थानोंका प्रयोग किया है। दूसरेका निग्रह करनेकी बुद्धिसे छल आदिक नहीं उठाये गये हैं। किन्तु दोषोंके निवारणकी सद्विचारबुद्धिसे छल आदिक उठाये गये हैं । हम दोनों वादी प्रतिवादियोंकी प्रवृत्ति तत्त्वज्ञान करनेके लिये है। दूसरेके हेतुको हेत्वाभास बना देना अथवा अपने हेतुमें दूषण नहीं आने देना हमारा लक्ष्य नहीं है । हेवामास कर देना या दूषण नहीं आने देना कोई तत्त्वज्ञानका कारण नहीं है। इस कारण उन छळ भादिकका प्रयोग करना युक्त नहीं है । भावार्थ-न्याय भाष्यमें लिखा है कि अवयवोंमें प्रमाण और तर्कका अन्तर्भाव हो जानेपर पुनः पृथकरूपसे प्रमाण और तर्कका ग्रहण करना साधन और उपालम्भके व्यतिषंगका ज्ञापक है । सोलह पदार्थोंमें वादके पहिले तर्क और निर्णय पदार्थ हैं । वीतराग कथामें यहाँ यह होना चाहिये, यह नहीं होना चाहिये, इस प्रकार तत्त्वज्ञान के लिये किया गया विचार तर्क है । विमर्षण कर पक्ष प्रतिपक्षोंकरके अर्थ अवधारण करना निर्णय है। तर्क और निर्णयके समय किया गया विचार जैसे वीतरागताका कारण है, वैसे ही वादमें भी वीतरागोंका विचार होता है। उसमे हार जीतके लिये निग्रहस्थान आदिका प्रयोग नहीं है। ऐसे जघन्य कार्योंमें तत्वनिर्णय नहीं हो पाता है । यहांतक नैयायिक वादको वीतराग कथापन साधनेके लिये अनुनय कर चुके । अब आचार्य कहते हैं कि यह सब उनका कहना पूर्व अपर संगतिसे रहित है। क्योंकि यों तो जल्प और वितंडामें भी निग्रहस्थान मादिका तिस प्रकार यानी निग्रह बुद्धिंसे नहीं, किन्तु निवारण बुद्धिसे उठाने के नियमका प्रसंग हो जायगा । उन जल्प वितंडा दोनोंको नैयायिकोंने स्वयं तत्त्वनिर्णयकी संरक्षा करनेके लिए स्वीकार किया है । छल, जाति, निग्रह स्थानोंकरके वह तत्त्वनिर्णय नहीं किया जा सकता है।
परस्य तूष्णीभावार्थ जल्पवितंडयोश्छलायुद्भावनमिति चेन,तथा परस्य तूष्णीभावासंभवादसदुत्तराणामानंत्यान्यायवलादेव परनिराकरणसंभवात् । सोयं परनिराकरणा
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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
यान्ययोगव्यवच्छेदेमाव्यवसिताद्यनुज्ञानं तत्त्वविषयप्रज्ञापारिपाकादि च फलमभिप्रेत्य वादं कुर्वन् परं निग्रहस्थाननिराकरोतीति कथमविरुद्धवाक् न्यायेन प्रतिवादिनः स्वाभिमायाभिवर्तनस्यैव निग्रहत्वादलामे वा ततो निग्रहत्वायोगात् । तदुक्तं । " आस्तां तावदलामादिरयमेव हि निग्रहः । न्यायेन विजिगीषूणां स्वाभिप्रायनिवर्तनम् ॥” इति सिद्धमेतत् जिगीषतोर्वादो निग्रहस्थानवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति ।
दूसरोंको चुप करनेके लिये जल्प और वितंडामें छल आदिक उठाये जाते हैं, यह तो नहीं कहना । क्योंकि तिस प्रकार छळ आदिकके उठानेसे तो दूसरेका चुप रहना असम्भव है। क्योंकि असमीचीन उत्तर अनन्त पडे हुये हैं। अतः दूसरा अनेक जातियोंद्वारा प्रत्यवस्थान करता जायगा, कोई रोक नहीं सकता है । वस्तुतः देखा जाय तो समीचीन न्यायकी सामर्थ्य से ही दूसरेका निराकरण करना सम्भवता है । अन्यथा नहीं, सो यह प्रसिद्ध नैयायिक अनिणीत, संदिग्ध, विपर्यस्त, आदिका ज्ञान हो जाना और जाने हुये तात्त्विक विषयोंमें प्रज्ञाका परिपाक दृढता आदि हो जाना रूप फळका अभिप्राय कर दूसरोंके निराकरणके लिये अन्यके योगका व्यवच्छेद करके वादको कह रहा संता निग्रहस्थानों करके दूसरेका निराकरण कर रहा है । ऐसा कहनेवाला नैयायिक पूर्वापर अविरुद्ध बोलनवाला कैसे समझा जा सकता है ! अर्थात्-उद्देश्य तो इतना पवित्र है। किन्तु जघन्यमार्ग पकड रखा है। सच पूछो तो प्रतिवादीका न्याय मार्ग करके स्वकीय अभिप्रायसे निवृति करा देना ही निग्रह है। अपने आग्रहीत अभिप्रायोंसे निवृत्त करा कर यदि वादीने प्रतिवादीको अपने समीचीन सिद्धान्तोंका लाम नहीं करा लिया है तो इन छळ आदिकोंसे उस प्रतिवादीका निग्रह कथमपि नहीं हो सकता है। वही ग्रन्थों में कहा है कि नाम नहीं होना, प्रसिद्धि नहीं होना, सत्कार नहीं होना, आदिक तो दूर ही रहो, ये तो सब पीछेकी बाते हैं । हम तो कहते हैं कि जीतनेकी इच्छा रखनेवालोंमेंसे किसी एकका किसी एकके द्वारा न्यायपद्धति करके नियमपूर्वक स्वकीय अभिप्रायोंसे निवृत करा देना यही निग्रह है । इस कारण यह राद्धान्त सिद्ध हो जाता है कि वाद (पक्ष ) जीतनेकी इच्छा कर रहे विद्वानोंमें प्रवर्तता है ( साध्य ) । अन्यथा निग्रहस्थान सहितपना असिद्ध हो जावेगा। यहांतक छव्वीसवीं कारिकाके व्याख्यानका उपसंहार कर दिया गया है।
स च चतुरंगा स्वाभिप्रेतस्वव्यवस्थानफळत्वाल्लोकमख्यातवादवत् । तथाहि ।
और अट्ठाईसवीं वार्तिकके परामर्श अनुसार वह वाद ( पक्ष ) सभ्य, सभापति, वादी, प्रतिवादी, इन चार अंगोंके होनेपर प्रवर्तता है ( साध्य ) । अपने अपने अभिप्राय अनुसार इष्ट हो रहे अपने ही पक्षकी व्यवस्था करा देना रूप फलसे सहित होनेसे ( हेतु ) जैसे कि कोकमे विजिगीषुमोके भके प्रकार प्रसिद्ध हो रहे वाद अपनी अपनी पक्षकी पुष्टि हो जाना उद्देश्य कर किये गये
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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चार अंगवाले हैं । न्यायाधीश
साक्षी या दर्शक २ वादी २ और प्रतिवादी ४ इन चार अंगों के
होनेपर लौकिक वाद ( मुकद्दमा ) प्रवर्तता है । इसी बातको ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी वार्तिकों द्वारा स्पष्ट कहते हैं ।
मर्यादातिक्रमं लोके यथा हंति महीपतिः ।
तथा शास्त्रेप्यहंकारग्रस्तयोर्वादिनोः क्वचित् ॥ ३० ॥
जिस प्रकार लोक में मर्यादाका अतिक्रमण करनेवाले या मर्यादाके अतिक्रमको राजा नष्ट कर देता है । उसी प्रकार कहीं कहीं शास्त्र में भी गर्वसे प्रसे गये वादी प्रतिवादियोंके हुये मर्यादा अतिक्रमको सभापति या राजा नाश कर देता है । अर्थात्-बांधी हुई मर्यादाको तोडनेवाले अभिमानी वादी प्रतिवादियोंको राजा नियत मर्यादा में ही अपनी शक्ति द्वारा रक्षित रखता है । अन्यथा प्रवर्तनेपर दण्डित कर देता है ।
वादिनोर्वादनं वादः समर्थे हि सभापतौ । समर्थयोः समर्थेषु प्राश्निकेषु प्रवर्तते ॥ ३१ ॥
अपनी अपनी योग्य सामर्थ्यसे युक्त हो रहे वादी प्रतिवादियोंका वाद तो सामर्थ्य युक्त सभापति होनेपर और समर्थ प्राशिनकों के होनेपर प्रवर्तता है । अर्थात्-वादी, प्रतिवादी, सम्म, और सभापतिके, अपनी अपनी समुचित सामर्थ्य से सहित होनेपर वाद प्रवर्तता है ।
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सामर्थ्यं पुनरीशस्य शक्तित्रयमुदाहृतम् ।
येन स्वमंडलस्याज्ञा विधेयत्वं प्रसिद्ध्यति ॥ ३२ ॥ मंत्रशक्त्या प्रभुस्तावत्स्वलोकान् समयानपि । धर्मन्यायेन संरक्षेद्विप्लवात्साधुसात् सुधीः ॥ ३३ ॥ प्रभुसामर्थ्यतो वापि दुर्लध्यात्मबलैरपि । स्वोत्साहशक्तितो वापि दंडनीतिविदांवरः ॥ ३४ ॥
सम्पूर्ण सभा अधिपतिकी सामर्थ्य तो फिर मंत्रशक्ति, प्रभुशक्ति, उत्साहशक्ति, ये तीन शक्तियां कहीं गयीं हैं । जिस शक्तित्रपसे उस सभापतिका अपने सम्पूर्ण अधीन मण्डलको अपनी आज्ञा के अनुसार विधान करने योग्यपना गुण प्रसिद्ध हो जाता है। तीन तीन शक्तियों में से सबसे पहिली मंत्र शक्ति के द्वारा तो वह दूरदर्शी प्रभु अपने जनोंको और अपने सिद्धान्तों को भी धार्मिक न्याय करके उप
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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
ससे साधुओं के अधीन अच्छी रक्षा कर लेवेगा । या साध्वसः यानी भयसे स्वकीय वर्गको रक्षित रखेगा और वह सभापति अपनी दूसरी प्रभुता सामर्थ्य से तो अलंघनीय या दुःसाध्यपूर्वक लंघनीय आत्मीय aai करके भी स्वर्ग और स्वसिद्धान्तों की रक्षा कर लेता है । अथवा दंडनीति शास्त्रोंको जानने वाळे विद्वान में श्रेष्ठ हो रहा वह सभापति अपनी तीसरी उत्साह शक्तिद्वारा भी शासित प्रजाकी उपसर्गौसे संरक्षा कर सकेगा ।
रागद्वेषविहीनत्वं वादिनि प्रतिवादिनि ।
न्यायेऽन्याये च तद्वत्त्वं सामर्थ्यं प्राश्निकेष्वदः || ३५ ॥ सिद्धांतद्वयवेदित्वं प्रोक्तार्थग्रहणत्वता । प्रतिभादिगुणत्त्वं च तत्त्वनिर्णयकारिता ॥ ३६ ॥ जयेतरव्यवस्थायामन्यथानधिकारता ।
सभ्यानामात्मनः पत्युर्यशो धर्म च वांछतां ॥ ३७ ॥
मध्यस्थ या प्रानिकोंमें वह सामर्थ्य होना चाहिये कि वादी और प्रतिवादी में रागद्वेषसे विहीनपना तथा न्याय और अन्याय के होनेपर न्यायसहितपना और अन्यायसहितपना बखानना तथा वादी प्रतिवादी दोनोंके सिद्धान्तों का ज्ञातापन एवं वादी और प्रतिवादीद्वारा भळे प्रकार कहे गये अर्थका ग्राहकपना तथा नव नव उन्मेषशालिनी बुद्धि, निपुणता, लोकचातुर्य आदि गुणोंसे युक्तपना एवं तवोंके निर्णयका कर्त्तापन इस प्रकारकी शक्तियां प्रानिकों में होनी चाहिये । अर्थात् सभ्यजन किसी वादी या प्रतिवादी में पक्षपात नहीं रखें, रागद्वेषरहित होय, न्यायकी प्रवृत्ति होनेपर न्याय कहें और अन्याय वर्तनेपर अन्याय कहें, दोनोंके सिद्धान्तोंको जाने, तथा कहें हुये अर्थको समझ के, प्रतिमा आदि गुणोंसे युक्त होय, तत्त्वका निर्णय करा सके, तब तो वादी, प्रतिवादीयोंके जय या पराजयकी व्यवस्था करनेमें वे नियामक समझें जायंगे । अन्यथा जय पराजय करने में उन सामर्थ्यरहित प्राश्निकको कोई अधिकार प्राप्त नहीं है । अपने यश और धर्मकी वांछा करनेवाले तथा सभापतिके यश और धर्मको चाहनेवाले सभ्यपुरुषोंकी उक्त प्रकार सामर्थ्य होना अत्यावश्यक है ।
कुमारनंदिनश्चाहुर्वादन्यायविचक्षणाः ।
राजप्राश्निक सामर्थ्यमेवंभूतम संशयम् ॥ ३८ ॥
वाद करनेमें और प्रमाणों करके अर्थ परीक्षणा करनेस्वरूप न्यायमें अत्यन्त प्रकाण्ड विद्वान् श्री कुमारनन्दी भट्टारक तो राजा और प्राश्निकों की इस उक्त प्रकार हुई सामर्थ्यको संशयरहित कह रहे हैं।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
एकतः कारयेत्सभ्यान वादिनामेकतः प्रभुः । पश्चादभ्यर्णकान वीक्ष्यं प्रमाणं गुणदोषयोः ॥ ३९ ॥
अब इनके बैठनेका क्रम बतलाते हैं कि सभापति महोदय इन वादी प्रतिवादियोंके एक बोरसे सभ्य प्रानिकों की स्थितिको करा देवें और एक ओरसे उन प्राश्निकोंके पीछे समीपवर्ती दर्शकोंको करा देवें । तब वादी प्रतिवादियोंके गुण दोषोंमें प्रमाणको ढूंढना चाहिये ।
लौकिकार्थविचारेषु न तथा प्राश्निका यथा ।
शास्त्रीयार्थविचारेषु वा तज्ज्ञाः प्राश्निका यथा ॥४०॥ लोकसम्बन्धी अर्थोके विचारों ( मुकदमा ) में जिस प्रकार प्रानिक होते हैं। उस प्रकार शास्त्रसम्बन्धी अर्यके विचारों में वैसे प्राश्निक नहीं होते हैं । किन्तु शास्त्रार्थके विचार करनेमें उस विषय को यथायोग्य परिपूर्ण जाननेवाले पुरुष मध्यस्थ होते हैं ।
सत्यसाधनसामर्थ्यसंप्रकाशनपाटवः ।। वाद्यजेयो विजेता नो सदोन्मादेन केवलम् ॥४१॥ समर्थसाधनाख्यानं सामर्थ्य वादिनो मतं । सा ववश्यं च सामर्थ्यांदन्यथानुपपन्नता ॥ ४१ ॥
समीचीन हेतुकी सामर्थ्यका अच्छा प्रकाश करनेमें दक्षतायुक्त वादी विद्वान् दूसरोंके द्वारा जीतने योग्य नहीं है । किन्तु दूसरोंको विशेषरूपसे जीतनेवाला है। केवल चित्तविभ्रमसे सदा वादी विजेता नहीं होता है। साध्यको साधनेमें समर्थ हो रहे हेतुका कथन करना ही वादीकी सामर्थ्य मानी गयी है, और वह हेतुकी सामर्थ्य तो साध्यके साथ अन्यथा अनुपपत्ति होना है। जो कि वादीकी शक्तिरूपसे अति भावश्यक मानी गयी है। यानी साध्यके विना हेतुका नहीं ठहरना हेतुकी सामर्थ्य है । इस प्रकार वादीकी सामर्थ्य कह दी है।
सदोषोद्भावनं चापि सामर्थ्य प्रतिवादिनः । दूषणस्य च सामर्थ्य प्रतिपक्षविघातिता ॥ ४३ ॥
प्रविवादीकी सामर्थ्य मी समीचीन दोषोंका उत्थान करना है। और दूषणकी शक्ति तो प्रतिपक्ष यानी वादीके पक्षका विशेष रूपसे घात कर देना है। अर्थात्-जैसे कि धनुर्धारीकी सामर्थ्य उत्तम बाणका होना है। और बाणकी शक्ति तो शत्रुपक्षका विघात करना है।
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तत्वार्थचोकवार्तिके
ननु यथा सभापतेः पाश्निकानां च सामर्थ्यमविरुद्धमुक्तं वादिनोः साधनषदणयोश्च परस्परव्याघातात् । तथाहि-यदि वादिनः सम्यक्साधनवचनं सामध्ये साधनस्य चान्यथानुपपन्नत्वं तदा कथं तत्र प्रतिवादिनः सदोषोद्भावनं सामर्थ्य संसाध्यं दृषणस्य च पक्षविघातितावत्कथमितरदिति परस्परव्याहतं पश्यामः । तदन्यतमासमर्थत्वे वा यथा समर्थे सभापतौ प्राश्निकेषु वचनं वादस्तथा समर्थयोर्वादिपतिवादिनोः साधनदूषणयोश्चेति व्याख्यानमनुपमन्नमायातमिति कश्चित् । तदसत् । वादिपतिवादिनो साधनदूषणवचने क्रमतः प्रवृत्तौ विरोधाभावात् । पूर्व तावद्वादी स्वदर्शनानुसारितया समर्थः साधनं समर्थमुपन्यस्यति पश्चात्पतिवादी स्वदर्शनालंबनेन दोषोद्भावनसमर्थ सद्दषणं तत्सामर्थ्य प्रतिपक्षविघातिता न विरुध्यते ।
यहां किसीकी एक बड़ी अच्छी शंका है कि जिस प्रकार सभापति और प्राश्मिकोंकी सामर्थ्य एक दूसरेके अविरुद्ध कही गयी है, वैसी वादी प्रतिवादियोंकी शक्तियां अविरुद्ध नहीं है । क्योंकि वादीकी सामर्थ्य समीचीन साधन करके साध्यको साधना है । और प्रतिवादीकी सामर्थ्य उसमें समीचीन दूषण देना है । किन्तु इन दोनों सामोका परस्परमें व्याघात हो जावेगा । उसीको हम स्पष्ट कर दिखलाये देते हैं कि यदि वादीने समीचीन हेतु कहा है, हेतुकी सामर्थ्य तो आपने अन्यथानुपपत्ति बतायी थी तब भला वहां ऐसी दशामें प्रतिवादीके द्वारा समीचीन दोषका उत्थान कराना रूप सामर्थ्य समीचीन कैसे साधी जा सकती है। और दूसरी दूषणकी सामर्थ्यमें प्रतिपक्षका विघातकपना कैसे साधा जावेगा ! जैसे यह नहीं उसी प्रकार वह नहीं इसको हम परस्परमें न्याघातको प्राप्त हो रहा देख रहे हैं । अर्थात्-वादी यदि समीचीन हेतुको बोल रहा है, तो प्रतिवादी उसमें समीचीन दोष नहीं उठा सकता है । और यदि प्रतिवादी अपनी शक्ति अनुसार समीचीन दोषको उठा रहा है तो सिद्ध है कि वादीने अपनी नियत शक्ति अनुसार समीचीन हेतु नहीं बोला था। ऐसी अवस्थामें दोनोंकी सामर्थ्य कथमपि ठीक ठीक नहीं सघ सकी । व्याघात दोषका यह अच्छा उदाहरण है । तथा उन वादी प्रतिवादी सभ्य सभापतियोंमेंसे यदि एक भी असमर्थ होगा तो जिस प्रकार समर्थ सभापति अथवा समर्थ प्रानिकों के होनेपर तत्व निर्णयार्थकता करना वाद है, तिस प्रकार समर्थ हो रहे वादी और प्रतिवादी तथा वादीकी शक्ति समर्थ साधन और प्रतिवादीकी शक्ति समर्थदूषगके होते संते शास्त्रार्य व्याख्यान होना असिद्ध आपडा । यानी समर्थ सभापति और सभ्यों के होनेपर शास्त्रार्थ हो सकता है। किन्तु यथोक्त समर्थ वादी प्रतिवादीयोंके होनेपर बाद तीन काल में भी नहीं हो सकता है। इस प्रकार कोई पण्डित शंकाकार कह रहा है। अब आचार्य कहते हैं कि इसका वह कहना अभ्यर्ह नहीं है । क्योंकि वादीकी साधनके कथन करने में और प्रतिवादीकी दूषणके कथन करनेमें प्रवृत्ति होनेपर कोई विरोध
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं आता है। देखिये, सबसे पहिले वादी तो अपने दार्शनिक सिद्धान्तके अनुसारीपनेकरके समर्थ होता हुआ अन्यथानुएपत्तिस्वरूप सामर्थ्यसे युक्त हो रहे हेतुका निरूपण करता है । उसके पीछे अपने दर्शनका अवलम्ब करके दोषोंका उठानारूप सामर्थ्यसे युक्त हो रहा प्रतिवादी समीचीन दूषणका प्ररूपण करता है । उस दूषणकी प्रतिपक्षका विघातकपनारूप सामर्थ्य ऐसी दशामें विरुद्ध नहीं पड रही है । मावार्थ-जैसे कि सर्वथा क्षणिकपमेको सिद्ध करनेके लिये बौद्धने " सर्व क्षणिकं. सत्त्वात् " सभी पदार्थ क्षणिक हैं, सत् होनेसे, यह अनुमान प्रयोग किया, बौद्ध दर्शनके अनुसार वादी समर्थ है। क्योंकि क्षणिकपन साध्यको साधने में समर्थ हो रहे सत्त्व हेतुका प्रकथन कर रहा है। और बौद्धमत अनुसार सत्त्व हेतुमें क्षणिकपनके साथ अधिनाभाव रखना रूप सामर्थ्य विद्यमान है। दूसरी ओर मीमांसक मत अनुयायी प्रतिवादी अपने सिद्धान्तका अवलम्ब करके समीचीन दोषको उठानेस्वरूप सामर्थ्यसे युक्त होकर यों कह रहा है कि बौद्धोंका हेतु विरुद्धहेत्वाभास है । प्रत्यभिज्ञायमानपन होनेसे या वाचक शब्दका परार्थपना होनेसे सभी शब्द नित्य हैं। किसी भी शब्दका समूलचूळ नाश नहीं हो पाता है । सर्वथा क्षणिक शद्बमें अर्थक्रिया भी नहीं हो सकती है। इत्यादि प्रकारसे प्रतिपक्षका विघातकपना-रूप सामर्थ्य प्रतिवादीके दूषणमें विद्यमान है। पुनः बौद्ध अपने सिद्धान्तको पुष्ट करनेके लिये हेतु प्रयोग करता है। पीछे प्रतिवादी भी उसमें समीचीन दोषोंको उठा देता है । इ । प्रकार अपने अपने सिद्धान्तोंके अनुसार समीचीन हेतु और समीचीन दूषणोंका प्रयोग करना अक्षुण्ण सध जाता है। युक्ति, सदागम और अनुभव इनसे जो सिद्धान्त अन्तमें निर्णीत होता है, वह सिद्धान्त यदि वादीके विचार अनुसार है, तब तो प्रतिवादीके दूषण असमीचीन दूषण समझे जायगे और वह अन्तिम सिद्धान्त यदि प्रतिवादीके अनुकूल है, तो वादीके हेतु हेत्वामास ज्ञात कर लिये जायगे । हां, यदि बीचमें वादी या प्रतिवादीने अपना पक्ष निर्दोष होते हुये भी व्यर्थ कथन उपकथन, किया है, वह प्रशस्त दूषण या समीचीन हेतुओंके साथ नहीं गिना जावेगा। कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि वादीका सिद्धान्त निर्दोष है। किन्तु प्रतिवादी अपनी अकाट्य तर्को द्वारा वादीके हेतुओंको दूषित कर देता है। अथवा कदाचित् असमीचीन सिद्धान्तको भी सुदक्ष वादी हेतुओंसे सिद्ध कर देता है । किन्तु निर्बळ वादी अपने सत्पक्षकी रक्षा करता हुआ उस वादीके हेतुओंमें दोष नहीं उठा सकता है। ऐसी दशामें जयपराजयकी व्यवस्था भले ही चाहे जैसी हो जाय, किन्तु सर्वमान्य सिद्धान्तका निर्णय यों नहीं हो पाता है । मांसभक्षणको पुष्ट करनेवाला कुती पुरुष शुद्ध अन्न, फल, भोजन का पक्ष ले रहे मोठे प्रतिवादीको हरा देता है। एतावता सिद्धान्त व्यवस्था नहीं निर्णीत कर दी जाती है। प्रकरणमें यह कहना है कि अन्तिम निणीति या सर्वमान्य सिद्धान्त अनुसार नहीं, किन्तु अपने अपने दर्शन अनुसार बादी प्रतिवादियोंका समीचीन हेतु और समीचीन दोष उठाना ये दोनों कार्य अविरुद्ध बन जाते हैं।
का पुनरियं प्रतिपक्षविषातितेत्याह ।
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तत्वार्थ श्लोक वार्तिके
आप जैनोंने प्रतिवादीके दूषणकी सामर्थ्य प्रतिपक्षका विघातकपना कहा था, अब आप फिर यह बता दीजिये कि यह प्रतिपक्षका विघातकपना क्या है ? क्या किसीको मारा या पीटा जाता है ? या किसीका अंगच्छेद किया जाता है ! या किसीके पंख उडा दिये जाते हैं ? विशेषरूप घातकपने का अर्थ यहां क्या लिया जाय ? विनीत तर्की शिष्यकी ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
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सा पक्षांतरसिद्धिर्वा साधनाशक्ततापि वा । तोर्विरुद्धता यद्वदभासांतरतापि च ॥ ४४ ॥
गृहीत किये गये पक्षसे दूसरे पक्षकी सिद्धि हो जाना अथवा प्रकृत साध्यको साधनेवाले तुका अशक्तपना मी प्रतिपक्ष विघातकपन है । तथा वादीके हेतुका विरुद्धपना जिस प्रकार प्रतिप्रक्षका विघातकपन है, उसी प्रकार वादीके हेतुका अन्य हेत्वाभासों द्वारा दूषित कर देना भी प्रतिपक्ष विघातकत्व है । भावार्थ - बादमें किसीका घात या ताडन, पीडन नहीं किया जाता है । किन्तु वादी के पक्ष से दूसरे पक्षकी सिद्धि हो जाना अथवा वादीके हेतुको अपने साध्यको साधने में अशक्त कर देना, या उसके हेतुको विरुद्ध कर देना अथवा वादीके हेतुमें अन्य व्यभिचार, असिद्ध, आदि हेत्वाभासों का उठा देना यही प्रतिवादीके द्वारा उठाये गये श्रेष्ठदूषण में प्रतिपक्षका विघातकन है । पण्डितों के बाद में ग्रामीण या हिंसकों कीसी प्रवृत्ति नहीं हो पाती है। अतः कोई अभ्य अनिष्टको चिन्ता करनेका अवसर नहीं है ।
साधनस्य स्वपक्षघातिता पक्षांतरसाधनत्वं यथा विरुद्धत्वं स्वपक्षसाधनाशक्तत्वमात्रं वा यथानैकांतिकत्वादि साधनाभासत्वं दुद्भवने स्वपक्षसिद्धेरपेक्षणीयत्वात् । तदुक्तं । " विरुद्धं हेतुमद्भव्यवादिनं जयतीतरः । आभासांतरमुद्भाव्य पक्षसिद्धिमपेक्षते । " इति ।
वादीका ग्रहण किया हुआ पक्ष प्रतिवादीका प्रतिपक्ष है । प्रतिवादी श्रेष्ठ दूषणके उठाने द्वारा वादीके साधनका विधात कर देता है । अतः वादीके हेतुका अपने निज पक्षका विधात क्या है ? इसका उत्तर यही है कि अपने अभीष्ट पक्षसे न्यारे हो रहे दूसरे पक्षका प्रतिवादी द्वारा साधन किया जाना है । जिस प्रकार कि वादीके हेतुमें विरुद्धपना उठाना अथवा वादीके हेतुको अपने पक्ष साधनमें केवल अपना उठा देना भी है । अथवा जैसे अनैकान्तिकपन, सत्प्रतिपक्षपन आदिक अन्य हेत्वाभास का प्रतिवादी द्वारा उठाया जाना भी प्रतिपक्षका विघातकत्व है । किन्तु उसके उद्भावन करनेमें प्रतिवादीको अपने पक्ष की सिद्धि अपेक्षणीय है । अर्थात् -- प्रतिवादी अपने स्वपक्षको सिद्ध करता हुआ ही वादीको वामामोंके उठाने द्वारा जीत सकता है । अन्यथा नहीं । aft प्रन्थोंमें इस प्रकार कहा गया है कि वादीसे इतर प्रतिवादी विद्वान् विरुद्ध हेतुका उद्भाव कर
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तखार्यचिन्तामणिः
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या अन्य हेत्वाभासोंका उत्थान कर वादीको जीत लेता है । किन्तु इसमें प्रतिवादीके निजपक्षकी सिद्धिकी अपेक्षा आवश्यक है । अर्थात्-केवल समीचीन दोष उठा देनेसे प्रतिवादी जीतको नहीं लूट सकता है । उत्तम बने हुये मोदकोंमें भी त्रुटि बतायी जा सकती है। किन्तु मोदक बनाने बालेको वही जीत सकेगा, जो उनसे भी परम उत्तम मोदक बना सकेगा। अतः प्रतिवादीको उचित है कि वह श्रेष्ठ दूषणोंको उठाते हुये अपने पक्षकी पुष्टि भी करे। अन्यथा वह जय प्राप्त करनेका अधिकारी नहीं है।
न चैवमष्टांगो वादः स्यात्तत्साधनतद्वचनयोर्वादिसामर्थ्यरूपत्वात् सहषणतद्वचनयोश्च प्रतिवादिसामर्थ्यरूपत्वादिगंतरत्वायोगात नैवं प्रभुः सभ्यो वा वादिप्रतिवादिनो सामर्थ्य तयोः स्वतंत्रत्वात् । ततो नाभिमानिकोपि वादो यंग एव वीतरागवादवदिति शक्यं वक्तुं, चतुर्णामंगानामन्यतमस्याप्यपाये अर्थापरिसमाप्तेरित्युक्तमायं ।
यदि यहां कोई यों कहे कि इस प्रकार सिद्धान्त करनेपर तो वाद अष्ट अंगवाला हो जावेगा। अर्थात्-१ सभापति २ सभ्य ३ वादी ४ वादीका समर्थ साधन ५ वादी द्वारा अविनाभावी हेतुका कहा जाना ६ प्रतिवादी ७ प्रतिवादी द्वारा समीचीन दोषका उठाना ८ प्रतिपक्ष विघातक दूषणका कहना, इस प्रकार पहिले चार अंग और " समर्थ " आदि एकतालीसवीं बियासळीसवीं वार्तिकों द्वारा कहे गये चार अंग यों वादके आठ अंग हुये आते हैं। बांठ अंगवाला वाद तो किसीने स्वीकार नहीं किया है। यों कहनेपर आचार्य समझाते हैं कि यह नहीं कहना । क्योंकि उस वादीके समर्थसाधनका आख्यान और अन्यथानुपपनहेतुका कथन, ये दोनों बादीकी सामर्थ्य स्वरूप पदार्थ हैं। अतः षादी नामक बंगमें ये दोनों गर्मित हो जाते हैं। तथा समीचीन दोषका उठाना और उस प्रतिपक्षविघातक दूषणका कथन करना ये दोनों प्रतिवादीकी सामर्थ्य स्वरूप हैं । अतः प्रतिवादी नामक अंगमें ये दोनों गर्मित हो जाते हैं । अतः वादके चार ही अंग हैं । इन चारके अतिरिक्त अन्य अंगोंके उपदेश देने या संकेत फरनेका अभाव है । यदि कोई यों कटाक्ष कर दे कि इस प्रकार तो सभापति अथवा सभ्य भी वादी . प्रतिवादियोंकी सामर्थ्य हो जायंगे । अर्थात्-नैयायिक शक्तिको स्वतंत्र पदार्थ नहीं मानते हैं। किन्तु पृथ्वीकी निजशक्ति पृथ्वीत्व है । और कारणोंकी शक्ति अन्य सहकारी कारणोंका प्राप्त हो जाना है । वनमें या शून्यगृहमें अकेले मनुष्यको भय लगता है । परन्तु अपने पास शस्त्र होनेपर या कई अन्य मनुष्योंका साथ होनेपर भय न्यून लगता है । वे मनुष्य परस्परमें एक दूसरेकी शक्ति हो जाते हैं। ऐसी दशामें मनुष्यकी शक्तियां आयुध या अन्य सहकारी कारण हैं । लोकमें भी धन या कुटुम्ब अथवा राजा या प्रतिष्ठित पुरुषोंकी ओरसे प्राप्त हुआ अधिकार ये मनुष्यकी बलवती शक्तियां मानी जाती हैं । शास्त्रोंका संचय पण्डित की शक्ति है । शास्त्रोंका संविधान योद्धा की शक्ति है।
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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अतः बहिर्भूत पदार्थ शक्ति हो सकता है । इसी प्रकार वादी और प्रतिवादीके सहकारी कारण हो रहे सभ्य और सभापति भी उनकी शक्तियां हो जायेंगी, तब तो संक्षेप करनेपर या अन्तर्भाव कर ने मार्गका सहरा लेनेपर वादके दो ही अंग ठहरते हैं । इस कटाक्षके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नहीं समझना । क्योंकि सभ्य और सभापति दोनों स्वतंत्र शक्तिशाली पदार्थ हैं । वे वादी प्रतिवादियोंके अधीन नहीं । अतः अभिमानकी प्रेरणासे प्रवर्त हो रहा भी वाद वादी और प्रतिवादी यों दो अंगवाला ही नहीं है । जैसे कि वीतराग पुरुषोंमें हो रहा वाद ( संवाद ) दो अंगवाला ही है । यह वीतराग वाद यहां व्यतिरेक दृष्टांत है । इस प्रकार वादको हम चार ही अंगवाला कह सकते हैं । वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति इन चार अंगों में से किसी भी एक अंगका अभाव हो जानेपर प्रयोजन सिद्धिकी परिपूर्णता नहीं हो सकती है । इस बातको हम प्रायः कई बार कह चुके हैं ।
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एवमयमाभिमानिको वादो जिगीषतोर्द्विविध इत्याह ।
इस प्रकार यह विजिगीषुओं का अभिमानसे प्रयुक्त किया गया वाद दो प्रकारका है । इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य कह रहे हैं।
इत्याभिमानिकः प्रोक्तस्तात्त्विकः प्रातिभोपि वा । समर्थवचनं वादश्चतुरंगो जिगीषतोः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार जीतने की इच्छा रखनेवाले विद्वानोंका समर्थहेतु या समर्थदूषणका कथन करना द बहुत अच्छा कह दिया है ! वह चार अंगवाला है और अभिमान से प्रयुक्त किया गया है । उस वाद दो भेद हैं । एक वादका प्रयोजन तत्वोंका निर्णय करना है । अतः वह तात्त्विक है और दूसरा वाद अपनी अपनी प्रतिभा बुद्धिको बढानेका प्रयोजन रखकर अथवा किसी भी इष्ट, अनिष्ट, उपेक्षित बातको पकड कर प्रतिभा द्वारा उसको भी सिद्ध कर देना है। ऐसा वाद प्रातिभ है । अर्थात् - तात्विक और प्रातिभ दो प्रकारके वाद होते हैं ।
पूर्वाचार्योंपि भगवानमुमेव द्विविधं जल्पमावेदितवानित्याह ।
श्रीमान् परममहात्मा भगवान् पहिले आचार्य भी उस ही जल्प नामक वादको दो प्रकाका निवेदन कर चुके हैं। इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकद्वारा कहते हैं ।
द्विप्रकारं जग जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् ।
त्रिषष्टेर्वादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥ ४६ ॥
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तलार्यचिन्तामणिः
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त्रेसठ वादियोंको जीतनेवाले श्रीदत्त आचार्य स्वकृत " जल्पनिर्णय " नामक प्रन्थमें अल्पको दो प्रकार स्वरूप कह चुके हैं । एक तत्त्वोंको विषय करनेवाला जल्प है। दूसरा नवीन नवीन अर्थोकी युक्तियोंके उन्दोधको करनेवाली प्रतिमा बुद्धिसे होनेवाला जल्प प्रातिम अर्थोको विषय कर रहा प्रातिम है।
का पुनर्जयोत्रेत्याह।
हे भगवन् ! फिर यह बतलाइये कि यहां वादमें जय क्या पदार्थ है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य करते हैं।
तत्रेह तात्त्विके वादेऽकलंकैः कथितो जयः। स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिनः ॥ ४७ ॥
उन दो प्रकारके वादों से इस तात्विक वादमें श्री अकलंकदेव महाराजोंकरके जय व्यवस्था यों कही गई है कि वादी और प्रतिवादी से किसी एकके निज पक्षकी सिद्धि हो जाना ही अन्य दूसरे वादीका निग्रह है। अर्थात्-अष्टशती ग्रन्थमें धर्मकीर्ति बौद्धके मन्तव्यका निराकरण करते हुये श्री अकलंकदेवने दूसरेके निग्रह करने और अपनी जय करनेमें स्त्रपक्ष सिद्धिको प्रधानकारण माना है। वादीके ऊपर केवल दोष उठा देनेसे प्रतिवादी नहीं जीत सकता है । प्रतिवादीको अपने पक्ष की सिद्धि करना आवश्यक है । तभी प्रतिवादीको जय प्राप्त होगा अन्यथा नहीं।
कथं ?
यहां कोई पूछता है कि श्री अकलंकदेव द्वारा कहा गया सिद्धान्त युक्त कैसे है ! इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है, सो सुनो।
स्वपक्षसिद्धिपर्यंता शास्त्रीयार्थविचारणा । वस्त्वाश्रयत्वतो यद्वलौकिकार्थे विचारणा ॥४८॥
जैसे कि लौकिक अर्थोंमें विचार करना वस्तुके आश्रयपनेसे होता है, उसी प्रकार शास्त्र सम्बन्धी अर्थोकी विचारणा अपने पक्षकी सिद्धिपर्यंत होती है, पीछे नहीं । अर्थात-लौकिक जन परस्परमें तभीतक विवाद करते हैं, जबतक कि अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति नहीं हो चुकी है। इष्ट हो रहे भूमि, धन, यश, मान, प्रतिरोध आदि वस्तुओंकी प्राप्ति हो चुकनेपर टंटा उठा लिया जाता है। या झगडा मिट जाता है। वैसे ही वादी या प्रतिवादी दोनोंमेंसे कोई यदि अपने पक्षको सिद्ध नहीं कर सकेगा, तबतक तो वाद प्रवृत्त रहेगा। स्वपक्षकी सिद्धि हो चुकनेपर कथाका अवसान हो जायगा।
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तस्वार्थकोकवार्तिके
का पुनः स्वस्य पक्षो यत्सिद्धिर्जयः स्यादिति विचारयितुमुपक्रमते ।।
यहां कोई पुनः प्रश्न करता है कि बताओ ! अपना पक्ष क्या है ? जिस स्वपक्षकी सिद्धि हो जाना जय हो सके । इस तत्त्वका विचार करनेके लिये श्री विद्यानंद आचार्य प्रथम आरम्मरूप प्रक्रमको भविष्य अन्धद्वारा चलाते हैं।
जिज्ञासितविशेषोत्र धर्मी पक्षो न युज्यते । तस्यासंभवदोषेण बाधितत्वात्खपुष्पवत् ॥ ४९ ॥ कचित्साध्यविशेषं हि न वादी प्रतिपित्सते । स्वयं विनिश्चितार्थस्य परबोधाय वृत्तितः ॥५०॥ प्रतिवादी च तस्यैव प्रतिक्षेपाय वर्तनात् । जिज्ञासितो न सभ्याश्च सिद्धांतद्वयवेदिनः ॥५१॥
यहाँ प्रकरणमें जिसकी जिज्ञासा हो रही है, ऐसा कोई धर्माविशेष पक्ष हो जाय यह युक्त नहीं है । क्योंकि उस जिज्ञासित विशेषधर्मीकी असम्भव दोष करके बाधा प्राप्त हो जाती है, जैसे कि आकाशके पुष्पका असम्भव है । अर्थात्-शब्दके नित्यत्व अथवा अनित्यत्व या आत्माके व्यापकपन अथवा अव्यापकपन तथा बेदके पुरुषकृतत्व अथवा अपौरुषेयपन आदिका जब विचार चलाया जा रहा है, उस समय वादी, प्रतिवादी, या सभ्यजनों से किसीको किसी बातके जाननेकी इच्छा नहीं है। अतः जिस शब्दके नित्यत्व या अनित्यत्व की जिज्ञासा हो रही है, वह पक्ष है। यह पक्षका लक्षण असम्भव दोषसे युक्त है । देखिये, वादी तो अपने इष्ट पक्षको सिद्ध कर रहा है। वह किसी भी धीमें किसी साध्य विशेषकी प्रतिपत्ति करना नहीं चाहता है। क्योंकि जिस वादीने पहिले विशेषरूपसे अर्थका निश्चय कर लिया है, उस वादीकी दूसरोंके समझाने के लिये प्रवृत्ति हुषा करती है । अतः वादीकरके जिज्ञासित नहीं होने के कारण पक्षका लक्षण निज्ञासितपना असम्भवी हुमा । तथा सन्मुख बैठे हुये प्रतिवादीकी भी प्रवृत्ति उस वादीके प्रतिक्षेप (खण्डन ) करनेके लिये हो रही है । अतः प्रतिवादीकी अपेक्षासे भी जिज्ञासितपना पक्षका लक्षण असम्भव दोष प्रस्त है। सभ्योंकी अपेक्षासे भी पक्ष विचारा जिज्ञासा प्राप्त नहीं है। क्योंकि सभामें बैठे हुये प्राश्निक तो वादी, प्रतिवादी दोनोंके सिद्धान्तोंका परिज्ञान रखनेवाले हैं । अतः वैशेषिकोंने पक्षका लक्षण " सिषापयिषाविरहविशिष्टसिद्धेरभावः पक्षता " साधनेकी इच्छाके विरहसे विशिष्ट हो रही सिद्धिका अभाव पक्षता माना है । इसको व्यतिरेक मुखसे नहीं कहकर यदि अन्वय मुखसे कहा आय तो कुछ न्यून होता हुआ जिज्ञासित विशेष ही पक्ष पडता है। जानने की इच्छा नहीं होनेपर भी
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तत्वार्थचिन्तामणिः
बादलोंका विशिष्ट गर्जन होनेसे मेघवृष्टिका अनुमान कर किया जाता है । अतः व्यतिरेक मुखसे पक्षका लक्षण उन्होंने किया है । किन्तु यह लक्षण असम्भव दोष प्रस्त है 1 स्वार्थानुमाने वाद्ये च जिज्ञासितेति चेन्मतं ।
वादे तस्याधिकारः स्यात् परप्रत्ययनादृते ॥ ५२ ॥
यदि वैशेषिक यों कहें कि परार्थानुमानमें और विजिगीषुओंके वादमें भले ही जिज्ञासित विशेष धर्मी पक्ष नहीं बने, किन्तु स्वार्थानुमानमें अथवा आदिमें कहे गये वीतराग पुरुषोंके बाद में तो निज्ञासितपना पक्ष हो जायगा । इस प्रकार वैशेषिकोंका मन्तव्य होनेपर अचार्य कहते हैं कि दूसरे प्रतिवादियोंको युक्तियों द्वारा प्रत्यय जहां कराया जाता है, उसके अतिरिक्त अन्य वाद में उस पक्षका अधिकार हो सकेगा । अर्थात् - विजिगीषुओं में प्रवर्त रहे तात्त्विक वाद में पक्षका लक्षण जिज्ञासितपना नहीं बन पाता है ।
जिज्ञापयिषितात्मेह धर्मी पक्षो यदीष्यते ।
लक्षणद्वयमायातं पक्षस्य ग्रंथघातिते ॥ ५३ ॥
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यदि वैशेषिक यों इष्ट करें कि विजिगीषुओंके वाद में जिस साध्यवान् धर्मीकी ज्ञापित कराने की इच्छा उत्पन्न हो चुकी है, तत्स्वरूप धर्मी ( ण्यन्तप्रेरक ) यहां पक्ष हो जायगा । इस पर आचार्य कहते हैं कि यों तो तुम वैशेषिकोंके यहां पक्षके दो लक्षण प्राप्त हुये, जो कि तुम्हारे पक्ष के क्षणको कहनेवाले ग्रन्थका घात कर देते हैं । अर्थात् - जिज्ञासित विशेषधर्मको पक्ष कहना और जिज्ञापयिषित धर्मीको पक्ष कहना, यह दो लक्षण तो पक्षके एक ही लक्षणको कहनेवाले प्रथका विघात कर देते हैं, जिससे कि तुमको अपसिद्धान्त दोष लगेगा ।
तथानुष्णोभिरित्यादिः प्रत्यक्षादिनिराकृतः ।
स्वपक्षं स्यादतिव्यापि नेदं पक्षस्य लक्षणं ॥ ५४ ॥
वैशेषिकों द्वारा माने गये पक्षके लक्षण में असम्भव दोषको दिखा करके आचार्य अब अतिव्याप्तिको दिखलाते हैं कि पक्षका लक्षण यदि जिज्ञासितपना माना जायगा तो किसीको अनिके अनुष्णपको जानने की इच्छा उपज सकती है । धर्म सेवनसे दुःख प्राप्ति हो जाने की जिज्ञासा हो सकती है । ऐसी दशा में प्रत्यक्षप्रमाण, अनुमानप्रमाण, आगमप्रमाण, आदिसे निराकरण किये गये अनि अनुष्ण है, जम्बूद्वपिका सूर्य स्थिर है, धर्मसेवन करना दुःख देनेवाला है, इत्यादिक मी स्त्रपक्ष हो जावेंगे । अतः अतिव्याप्ति दोष हुआ । इस कारण वैशेषिक या नैयायिकों द्वारा माना गया यह पक्षका लक्षण निर्दोष नहीं है ।
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तत्वार्थचोकवार्तिके
लिंगात्साधयितुं शक्यो विशेषो यस्य धर्मिणः ।
स एव पक्ष इति चेत् वृथा धर्मविशेषवाक् ॥ ५५ ॥
जिस धर्मीके साध्यरूप विशेषधर्मका यदि ज्ञापक हेतुकर के साधन किया जा सके वही पक्ष
है । इस प्रकार किसीके कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि यों तो साध्यरूप विशेषधर्मका कथन करना व्यर्थ पडेगा । क्योंकि पक्ष के शरीरमें ही साध्य आ चुका है। अतः केवल धर्मीको कह देनी चाहिये । साध्यवान् धर्मीको पक्ष कहने की आवश्यकता नहीं रही ।
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लिंग येनाविनाभावि सोर्थः साध्योवधार्यते । न च धर्मी तथाभूतः सर्वत्रानन्वयात्मकः ॥ ५६ ॥ न धर्मी केवलः साध्यो न धर्मः सिद्धघसंभवात् । समुदायस्तु साध्येत यदि संव्यवहारिभिः ॥ ५७ ॥ तदा तत्समुदायस्य स्वाश्रयेण विना सदा । संभवाभावतः सोपि तद्विशिष्टः प्रसाध्यताम् ॥ ५८ ॥ तद्विशेषपि सोन्येन स्वाश्रयेणेति न कचित् । साध्यव्यवस्थितिर्मूढचेतसामात्मविद्विषाम् ॥ ५९ ॥
ज्ञापक हेतु जिस साध्यरूप धर्मके साथ अविनाभाव रखता है, वह पदार्थ साध्य है, यह निर्णय किया जाता है । तिस प्रकार अविनाभावको प्राप्त हो रहा धर्मी तो साध्य नहीं है। क्योंकि धर्मसे विशिष्ट हो रहा धर्मी सभी स्थानोंपर अनन्यय स्वरूप है । अर्थात्-जहां जहां धूम है, वहां वहां अग्नि है | यह अन्वय तो ठीक बन जाता है । किन्तु जहां जहां धूमवान् (पर्वत) है, वहां वहां अग्निमान् ( पर्वत ) है । ऐसा अन्वय ठीक नहीं बनता है। हेतुकी तो साध्य के साथ व्याप्ति हैं, हेतुमान्का साध्यमान् के साथ अविनाभाव नहीं हैं । हेतुके साथ अधिकरणको लगाकर पुनः व्याप्ति बनानेसे अन्वयदृष्टान्त नहीं मिलता है । परीक्षामुखमें लिखा है कि " व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव अन्यथा तदघटनात् अतः केवळ धर्मी ही साधने योग्य पक्ष नहीं है । क्योंकि अकेले धर्मी या धर्मकी सिद्धि होनेका असम्भव है । देखे जा रहे पर्वतकी सिद्धि करना आवश्यक नहीं है । और स्मरण किये जा रहे या व्याप्तिज्ञान द्वारा जाने जा रहे अग्निको मी साधनेकी आवश्यकता नहीं है। यहां समीचीन व्यवहारको करनेवाले पुरुषों करके धर्मी और धर्मका समुदाय यदि साधा जावेगा, तब तो सर्वदा उस समुदायका अपने
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आश्रयके बिना सम्भव नहीं है । अतः वह समुदाय भी अपने उस आश्रयसे विशिष्ट हो रहा प्रकर्ष रूपसे साधने योग्य करना चाहिये और उसका विशेष वह विशिष्ट समुदाय भी अपने अन्य पाश्रय करके विशिष्ट हो रहा साधा जावेगा । इस प्रकार करते करते अनवस्था हो जायगी। आत्माके साथ विद्वेष करनेवाले मूढचित्त वैशेषिकोंके यहां यों कहीं भी साध्यकी व्यवस्था ( अवस्थिति ) नहीं हो सकती है। भावार्थ-वैशेषिक जन आत्माको स्वयं ज्ञ नहीं मानते हैं । किन्तु सर्वथा भिन्न ज्ञानका समवाय हो जानेसे आत्माको ज्ञानवान् मान लेते हैं । ऐसी दशामें उनका आत्मा स्वयं अपनी गांठसे जड बना रहा । मनको भी वैशेषिक सर्वथा जड मानते हैं । भावमनका चैतन्य उन्हें अमीष्ट नहीं है। श्री समन्तमद्राचार्यने "कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न कचित,एकान्तमहरक्तेषु नाथ स्वपरवैरिषु" इस आप्तमीमांसा कारिका द्वारा एकान्तवादियोंको स्वयं निजका वैरी कहा है। प्रकरणमें धर्म
और धर्माके समुदायको साध्य बनानेपर फिर ऐसे साध्यके साथ हेतुका किसी अन्वय दृष्टान्तमें अविनाभाव साधनेपर अन्य आश्रयोंकी कल्पना करते करते अनवस्था दोष हो जाता है, यों कहा है।
विनापि तेन लिंगस्य भावात्तस्य न साध्यता । ततो न पक्षतेत्येतदनुकूलं समाचरेत् ॥ ६०॥ धर्मिणापि विना भावात्वचिल्लिंगस्य पक्षता।
तस्य माभूत्ततः सिद्धः पक्षः साधनगोचरः ॥ ६१ ॥
यदि कोई वैशेषिकोंके विरोधमें यों कहें कि उस धर्मविशिष्ट धर्मारूप पक्षके विना भी शापक हेतु वर्त जाता है, इस कारण उस समुदायको प्रतिज्ञा बनाते हुये साध्यपना नहीं है। तिस कारण उस समुदायको पक्षपना नहीं है, इसपर आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार यह कथन करना तो हमारे अनुकूल मार्गका मले प्रकार आचरण करेगा। दूसरी बात यह है कि कहीं कहीं धर्माके विना भी ज्ञापकहेतुका सद्भाव पाया जाता है । अतः उस धर्मीको पक्षपना नहीं हो सकता है । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि स्वार्थानुमानके समान वादमें भी शक्य, अभिप्रेत, अप्रसिद्ध माने गये साध्यको साधनेवाले हेतुका विषय हो रहा धर्मी ही पक्ष मानना चाहिये ।
यादृगेव हि स्वार्थानुमाने पक्षा शक्यत्वादिविशेषणः साधनविषयस्ताहगेव परार्थानुमाने युक्तः स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनाय प्रेक्षावतां परार्थानुमानप्रयोगात्, अन्यथा तल्लक्षणस्यासंभवादिदोषानुषंगात् ।
कारण कि स्वयं ज्ञप्ति करनेके लिये हुये स्वार्थानुमानमें जिस प्रकारका ही शक्यत्व आदि विशेषणोंसे युक्त हो रहा और ज्ञापक हेतुका विषय हो रहा प्रतिज्ञारूप पक्ष है, उस ही प्रकारका
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पक्ष परार्थानुमानमें भी स्वीकार करना युक्त है । अपनेको हुये निश्चयके समान अन्य पुरुषोंको निश्चयकी उत्पत्ति करने के लिये विचारशाळी तार्किक पुरुषोंके द्वारा परार्थानुमानका प्रयोग किया जाता है | अतः यही पक्षका लक्षण ठीक है । अन्य प्रकारोंसे उस पक्षके लक्षणके करने में असम्भव अतिव्याप्ति आदि दोषोंकी प्राप्ति हो जानेका प्रसंग होगा ।
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का पुनः पक्षस्य सिद्धिरित्याह ।
पक्षका क्षण हम समझे, फिर अब यह बताओ कि पक्षकी सिद्धि क्या पदार्थ है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य श्लोक वार्त्तिकद्वारा उत्तर कहते हैं ।
सभ्यप्रत्यायनं तस्य सिद्धिः स्याद्वादिनोथवा ।
प्रतिवादिन इत्येष निग्रहो न्यतरस्य तु ॥ ६२ ॥
समामें स्थित हो रहे प्राश्निकजनोंके प्रतिज्ञान कराते हुये वादीके उस उपर्युक्त पक्षकी जो सिद्धि होगी दोनोंमेंसे एक हो रहे प्रतिवादीका यही तो निग्रह होगा अथवा प्रतिवादीके उस प्रतिज्ञा रूप पक्षकी सभ्योंके सन्मुख सिद्धि हो जाना ही वादीका निग्रह हो जाना है ।
वादिनः स्वपक्षप्रत्यायनं सभायां स्वपक्षसिद्धि, प्रतिवादिनः स एव निग्रहः, प्रतिवादिनोथवा तत्स्वपक्षसिद्धिर्वादिनो निग्रह इत्येतत्प्रत्येयम् । तथोक्तं । 46 'स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहन्यस्य वादिनः । नासाधनांगवचनं नादोषोद्भावनं द्वयोः ।। " इति ।
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विद्वान् पुरुषोंसे भरी हुई सभा में अपने निजपक्षका ज्ञापन कराना ही वादीके स्वपक्षकी सिद्धि है । वही प्रतिवादीका निग्रह है । अथवा प्रतिवादीके उस अपने पक्षकी सिद्धि हो जाना ही वादीका निग्रह है यों वह विश्वास करने योग्य मार्ग है । उसी प्रकार प्रन्थोंमें कहा गया है कि वादी प्रतिवादियों में से एक के स्वपक्षकी सिद्धि हो जाना ही उससे भिन्न दूसरे वादीका निग्रह यानी पराजय है । वादी के लिये आवश्यक हो रहे साधनके अंगों का कथन करना यदि कथमपि नहीं हो सके तो एतावता ही वादीका निग्रह नहीं हो जाता है । जबतक कि दोनोंमेंसे एक हो रहे प्रतिवादी पक्षकी सिद्धि नहीं हो जाय अथवा प्रतिवादीके लिये आवश्यक बता दिया गया दोषोंका उठाना यदि कदाचित् नहीं भी हो सके तो इतनेसे ही प्रतिवादीका पराजय तबतक नहीं हो सकेगा, जबतक कि वादी अपने पक्षकी सिद्धिको सभ्योंके समक्ष नहीं कर सके । इस प्रकार दोनोंके जय पराजयकी व्यवस्था निर्णीत कर दी गयी है ।
अत्र परमतमनूद्य विचारयति ।
इस प्रकरण में दूसरे बौद्धोंके मतका अनुवाद कर श्री विद्यानन्द आचार्य विचार करते हैं ।
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असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमन्यत्तन्न युक्तमिति केचन ॥ ६३ ॥ स्वपक्षं साधयन् तत्र तयोरेको जयेद्यदि । तूष्णीभूतं ब्रुवाणं वा यत्किंचित्तत्समंजसम् ॥ ६४ ॥
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बौद्धोंका मन्तव्य है कि वादीको अपने पक्षके साधन करनेवाले अंगोंका कथन करना चाहिये । वादी यदि स्वेष्टसिद्धिके कारण प्रतिज्ञा आदि अंगोंका कथन नहीं करेगा तो वादीका पराजय हो जायगा । तथा प्रतिवादीका कर्त्तव्य तो वादीके साधनोंमें दोष उठाना है । प्रतिवादी यदि समीचीन दोषोंको नहीं उठावेगा या अन्ट सन्ट अदोषोंको उठावेगा तो प्रतिवादीका पराजय हो जायेगा । इस प्रकार वादी या प्रतिवादी दोनोंके निग्रहस्थान प्राप्त करनेकी व्यवस्था कर दी गयी है। इससे मिन्न अन्य कोई निग्रहस्थान माना जावेगा, वह तो युक्तिपूर्ण नहीं होगा । इस प्रकार कोई बौद्ध मत अनुयायी कथन कर रहे हैं । उसपर अब आचार्य कहते हैं कि उन वादी, प्रतिवादी, दोनों में से कोई भी एक अपने पक्षकी सिद्धि करता हुआ यदि चुप हो रहे या जो कुछ मी मनमानी बक रहे दूसरेको जीतेगा कहोगे तब तो उन बौद्धोंका कथन न्यायपूर्ण है । अर्थात् - केवल साधनाम वचन ही वादीका निग्रहस्थान नहीं । हां, प्रतिवादी पक्षकी सिद्धि हो चुकनेपर वादीका असाधनांग वचन करना वादीका पराजय करा देता है । यों वादक पक्षकी सिद्धि हो चुकमेवर प्रतिवादीका दोष नहीं उठाना उस प्रतिवादीके निग्रहका प्रयोजक है, अन्यथा नहीं ।
सस्यमेतत्, स्वपक्षं साधयन्नेवासाधनांगवचनाददोषोद्भावनाद्वा वादी प्रतिवादी वा तूष्णीभूतं यत्किचित्रुवाणं वा परं जयति नान्यथा केवळं पक्षो वादिप्रतिवादिनोः सम्यक् साधनदुषणवचनमेवेति पराकूतमनूद्य प्रतिक्षिपति ।
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बौद्ध कहते हैं कि यह स्याद्वादियोंका कहना ठीक है कि अपने पक्षकी सिद्धि कराता हुआ ही वादी अथवा प्रतिवादी उन असाधनांग वचनसे अथवा दोषोत्थान नहीं करनेसे सर्वथा चुपचाप हो रहे अथवा जो भी कुछ भाषण कर रहें दूसरोंको जीत लेता है । अन्यथा नहीं जीत पाना है । केवल बात यह है कि वादीका पक्ष समीचीन साधनका कथन करना ही माना जाय और प्रतिवादका पक्ष समीचीन दूषणका कथन करना ही माना जाय । इस प्रकार दूसरोंकी कुचेष्टाका अनुवाद कर श्री विद्यानन्द आचार्य आक्षेपका प्रत्याख्यान करते हैं। यहां आचार्योंने सर्वथा चुप हो रहे या कुछ भी अंड बंड बक रहे वादी या प्रतिवादीका भी पराजय होना तभी माना है, जब कि जीतनेवाला अपने पक्षकी सिद्धि कर चुका होय । अन्यथा किसीके भी पक्षकी सिद्धि नहीं होने से कोई भी जयका अधिकारी नहीं है ।
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सत्साधनवचः पक्षो मतः साधनवादिनः । सद्दषणाभिधानं तु स्वपक्षः प्रतिवादिनः ॥ ६५ ॥ इत्ययुक्तं द्वयोरेकविषयत्वानवस्थितेः । स्वपक्षप्रतिपक्षत्वासंभवाद्भिन्नपक्षवत् ॥ ६६ ॥
साधनवादीका पक्ष श्रेष्ठ साधनका कथन करना माना गया है। और प्रतिवादीका निजपक्ष तो समीचीन दूषणका कथन करना इष्ट किया गया है । इस प्रकार किसीका कथन करना न्याय्य नहीं है । क्योंकि दोनोंके एक विषयपनेकी व्यवस्था नहीं है । अतः स्त्रपक्षपन प्रतिपक्षपनका असम्भव है । जैसे कि सर्वथा भिन्न हो रहे पक्षों में स्त्रपक्षपनकी व्यवस्था नहीं है । अर्थात् सिद्धि किसीकी की जा रही है और दूषण कहीं का भी उठाया जा रहा है। ऐसी दशा में स्वपक्षपनेका प्रतिपक्षपनेका निर्णय करना कठिन है । जैसे कि नैयायिकोंका प्रतिवाद करनेपर आत्माके व्यापकपनका जैन खण्डन कर देते हैं । किन्तु तितने से उनका पक्ष यह नहीं प्रतीत हो पाता है कि जैन आत्माको अणुपरिमाणवाला मानते हैं, या मध्यमपरिमाणवाला स्वीकार करते हैं, अथवा आत्मा उपात्त शरीर के बरोबर है, अंगुष्ठमात्र है । या समुद्घात अवस्था में और भी लम्बा चौडा हो जाता है, कुछ निर्णय नहीं । तथा मीमांसकों द्वारा शब्द के अनित्यत्वका खण्डन करनेके अवसरपर वादी नैयायिकों के अनित्य शब्दका यह पता नहीं
ग पाता है कि नैयायिक शब्दको कालान्तरस्थायी अनित्य मानते हैं ? या दो क्षणतक ठहरनेवाला स्वीकार करते हैं ? या बौद्धोंके समान एक क्षणतक ही शब्दका ठहरना बताते हैं ? कुछ पता नहीं चलता है । दूसरी बात यह है कि बौद्धोंके मत अनुसार पक्ष के लक्षणका निर्णय नहीं हो सका है । इस कारण से भी पक्ष प्रतिपक्षका असम्भव है ।
वस्तुन्येकत्र वर्तेते तयोः साधनदूषणे ।
तेन तद्वचसोर्युक्ता स्वपक्षेतरता यदि ॥ ६७ ॥ तदा वास्तवपक्षः स्यात्साध्यमानं कथंचन । दृष्यमाणं च निःशंकं तद्वादिप्रतिवादिनोः ॥ ६८ ॥
रहे हैं । तिस
एक वस्तु दोनों वादी, प्रतिवादियोंके साधन करना और दूषण देना प्रवर्त कारणसे उनके वचनों में स्वपक्षपना और प्रतिपक्षपना युक्त हो जायगा । यदि बौद्ध यों कहेंगे तब तो वादीके द्वारा कैसे न कैसे ही साधा जा रहा और प्रतिवादीके द्वारा शंका रहित होकर दूषित किया जा रहा वस्तु ही वास्तविक पक्ष उन वादी प्रतिवादियोंका सिद्ध हो जाता है ।
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यद्वस्तु शब्दानित्यत्ववादिनां साध्यमानं वादिना, दृष्यमाणं व प्रतिवादिना तदेव वादिनः पक्षः शक्यत्वादिविशेषणस्य साधनविषयस्य पक्षध्वव्यवस्थापनात् । तथा यहूषणवादिना शद्बादि वस्तु अनित्यत्वादिना साध्यमानं वादिना दृष्यमाणंत देव प्रतिवादिनः पक्ष इति व्यवतिष्ठते न पुनः साधनवचनं वादिनः, दुषणवचनं च प्रतिवादिनः, पक्ष इति विवादाभावात्तयोस्तत्र विवादे वा यथोक्तलक्षण एव पक्ष इति तस्य सिद्धेरेकस्य जयोऽपरस्य पराजयो व्यवतिष्ठते, न पुनरसाधनांगवचनमात्रमदोषोद्भवानमात्रं वा । पक्षसिध्यविनाभावि - नस्तु साधनांगस्यावचनं वादिनो निग्रहस्थानं प्रतिपक्षसिद्धौ सत्यां प्रतिवादिन इति न निवार्यत एव । तथाहि ।
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शद्वके नित्यपनको कहनेवाले मीमांसक वादियों के यहां जो वस्तु मीमांसक वादी करके साधी जा रही है और नैयायिक या बौद्ध प्रतिवादी करके वह शद्बका वस्तुभूत नित्यपना यदि दूषित किया जा रहा है तो वहीं वादीका पक्ष है। क्योंकि साठवीं वार्तिकके पीछे टीकामें शक्यपन, अप्रसिद्धपन आदि विशेषणसे युक्त हो रहे और ज्ञापक हेतुके विषय हो रहे को पक्षपनकी व्यवस्था की जा चुकी है। तथा जो शद्व आदिक वस्तु इस दूषणवादी नैयायिक प्रतिवादी करके अनित्यपन अव्यापकपन आदिक धर्मोसे युक्त साथी जा रही है और वादी मीमांसककरके दूषित की जा रही है वही तो प्रतिवादीका पक्ष है, यह व्यवस्था हो रही है । किन्तु फिर वादीका साधन वश्वन करना पक्ष है, और प्रतिवादीका दूषण उठानेका वचन करना पक्ष है, यह व्यवस्था कर देना ठीक नहीं है। क्योंकि उन दोनों वादी प्रतिवादियोंका उस साधनकथन या दूषणकथनमें कोई विवाद नहीं है । इस बातको बालक भी जानता है कि वादी अपने पक्षकी पुष्टि करेगा, प्रतिबादी उसमें दूषण लगायेगा । परन्तु ये पक्ष या प्रतिपक्ष कथमपि नहीं हो सकते हैं । यदि उन बादी प्रतिवादियोंका उसमें विवाद होने लगे तब तो यथायोग्य कहे गये लक्षणसे युक्त हो रहा ही पक्ष सिद्ध हुआ । इस कारण ऐसे उस पक्षकी सिद्धि हो जानेसे ही एकका जय और दोनोंमेंसे दूसरे एकका पराजय होना व्यवस्थित हो जाता है । किन्तु फिर केवल असाधनांगका कथन करदेना वादीका निग्रह और प्रतिवादीका विजय नहीं है । अथवा केवळ दोषोंका उत्थान नहीं करना ही प्रतिवादीका निग्रह और वादीका जय नहीं है । हां, पक्षसिद्धि के अविनाभावी हो रहे साधनांगका तो अवचन करना वादीका निग्रहस्थान है । यह प्रतिवादीके द्वारा अपने निज प्रतिपक्षकी सिद्धि होनेपर ही होगा । अतः इस तत्वका निवारण हमारे द्वारा नहीं किया जारहा ही है । उसी बातको श्री विद्यानन्द स्वामी स्पष्ट कर दिखलायें देते हैं ।
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पक्षसिध्यविनाभावि साधनावचनं ततः ।
निग्रहो वादिनः सिद्धः स्वपक्षे प्रतिवादिनि ॥ ६९ ॥
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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
तिस कारणसे सिद्ध हो जाता है कि प्रतिवादीके स्वपक्षकी सिद्धि हो चुकने पर यदि पक्षसिद्धिके अविनाभावी साधनोंका अकथन वादी द्वारा किया जायगा तो वादीका निग्रह बना बनाया है। कोई ढील नहीं है ।
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सामर्थ्यात् प्रतिवादिनः सद्दृषणानुद्भावनं निग्रहाधिकरणं वादिनः पक्षसिद्धौ सत्यामित्यवगंतव्यं ।
विना कहे ही इस वार्तिककी सामर्थ्य से यह तत्त्व भी समझ लेना चाहिये कि श्रेष्ठ दूषण नहीं उठाना, प्रतिवादीका निग्रहस्थान है । किन्तु वादीके पक्षकी सिद्धि हो चुकनेपर यह नियम लागू होगा अन्यथा नहीं । यह भली भांति समझ लेना चाहिये ।
तथा वादिनं साधनमात्रं ब्रुवाणमपि प्रतिवादी कथं जयतीत्याह ।
केवल साधनको ही कह रहे वादीको भी मला प्रतिवादी कैसे जीत लेता है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज समाधान कहते हैं ।
विरुद्धसाधनोद्भावी प्रतिवादीतरं जयेत् । तथा स्वपक्षसंसिद्धेर्विधानं तेन तत्त्वतः ॥ ७० ॥
हेतुओं द्वारा अपने पक्षकी सिद्धिको कह रहे वादीके हेतुमें विरुद्धहेत्वाभास दोषको उठानेCar प्रतिवादी नीचे हो रहे दूसरे वादीको तिस प्रकार स्वपक्षकी मळे प्रकार सिद्धि करनेसे जीत ढेगा । तिस कारण वास्तविक रूपसे स्वपक्ष सिद्धिका विधान करना अत्यावश्यक है ।
दूषणांतरमुद्भाव्य स्वपक्षं साधयन् स्वयं ।
जयत्येवान्यथा तस्य न जयो न पराजयः ॥ ७१ ॥
अन्य दूषणोंको उठाकर प्रतिवादी अपने पक्षकी सिद्धिको स्वयं करता हुआ ही वादीको जीतता है । अन्यथा यानी स्वपक्षकी सिद्धि नहीं करनेपर तो उस प्रतिवादीकी न जीत होगी और न पराजय होगा यह नियम समझो ।
यच धर्मकीर्तिनाभ्यधायि साधनं सिद्धिस्तदंगं त्रिरूपं लिंगं तस्यावचनं वादिनो निग्रहस्थानं । तथा साधनस्य त्रिरूपलिंगस्याङ्गं समर्थनं व्यतिरेकनिश्चयनिरूपणात्, तस्य विपक्षे वाधकप्रमाणवचनस्य हेतोः समर्थनत्वात् तस्यावचनं वादिनो निग्रहस्थानमिति च नैयायिकस्यापि समानमित्याह ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
और भी बौद्धमत अनुयायी धर्मकीर्तिने जो यों कहा था कि असाधनाङ्ग वचनका अर्थ यह है कि साधन यानी सिद्धि उसका अङ्ग यानी कारण तीन रूपवाला ज्ञापक हेतु है। उस त्रिरूपलिंगका कथन नहीं करना वादीका निग्रहस्थान है । अर्थात्-पक्षमस्व, सपक्ष सत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति ये तीन स्वरूप हेतुके माने गये हैं। अनुमानके प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, ये तीन अंग हैं। वादी यदि स्वपक्षसिद्धिके लिये तीन रूपबाळे हेतुका कथन नहीं करेगा तो उसका निप्रहस्थान हो जायगा। तथा "असाधनांग वचनका" दूसरा अर्थ यह है कि साधन यानी तीन रूपबाला लिंग उसका अंग समर्थन है। व्यतिरेकनिश्चयका निरूपण करना होनेसे उस हेतुका विपक्षमें वाधक प्रमाणके वचनको समर्थन कहते हैं। उस समर्थनका कथन नहीं करना वादीका निग्रहस्थान है। भावार्थ-"हेतोः साध्येन व्याप्तिं प्रसाध्य पक्षे सत्त्वप्रदर्शनं समर्थनं " साध्यके अभाव होनेपर हेतुका अमाव दिखलाया जाना व्यतिरेक है । हेतुकी साध्यके साथ व्याप्तिको साधकर धीमें उस हेतुका अस्तित्व साध देना समर्थन है । यह अन्वय मुखसे समर्थन हुआ और व्यतिरेकके निश्चयका निरूपण करनेसे विपक्षमें बाधक प्रमाणका कथन करना भी व्यतिरेक मुखसे समर्थन है । यदि वादी इस व्यतिरेक मुखसे किये गये समर्थनका निरूपण नहीं करेगा तो वादीका निग्रहस्थान हो जायगा । इस प्रकार बौद्ध आचार्य धर्मकीर्तिके कह चुकनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि वह कथन तो नैयायिकको भी समानरूपसे लागू होगा । इसी बातको वार्तिक द्वारा श्री विद्यानन्द बाचार्य स्पष्ट कहते हैं।
स्वेष्टार्थसिद्धरंगस्य त्र्यंशहेतोरभाषणं । तस्यासमर्थनं चापि वादिनो निग्रहो यथा ॥ ७२॥ पंचावयवलिंगस्याभाषणं न तथैव किम् । तस्यासमर्थनं चापि सर्वथाप्यविशेषतः॥७३॥
अपने इष्ट अर्थकी सिद्धिके अंग हो रहे तीन अंशवाले हेतुका अकथन करना तथा उस तीन अंशवाळे हेतुका समर्थन नहीं करना जिस प्रकार वादीका निग्रहस्थान (पराजय ) है, उसी प्रकार हम नैयायिकोंके माने हुये पांच अवयववाळे हेतुका अभाषण और उस पांच अवयववाले हेतुका समर्थन नहीं करना भी क्यों नहीं वादीका निग्रहस्थान होगा । सभी प्रकारोंसे बौद्धोंकी योजना से नैयायिकोंके योजनामें कोई विशेषता नहीं है । भावार्थ-बौद्ध यदि तीन अंगवाळे हेतुका कथन नहीं करना वादीका निग्रहस्थान बतायेंगे तो नैयायिक पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, बबाधित विषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व इन पांच अवयवोंसे सहित हो रहे हेतुका नहीं कथन करना या समर्थन नहीं करना निग्रहस्थान बतादेंगे । असिद्ध, विरुद्ध, व्यभिचारी, बाधित, सत्प्रतिपक्ष, इन पांच
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
हेत्वाभासों के निवारण अर्थ हेतुके पांच अवयवोंका स्वीकार करना अत्यावश्यक है और अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, इन पांच अवयवोंका मानना अनिवार्य है । ऐसी दशा में हेतुके तीन ही रूपोंका कथन या समर्थन करनेवाले बौद्धोंका नैयायिकों के मत अनुसार सर्वदा निग्रह होता रहेगा । इसी प्रकार कोई अन्य पण्डित यदि भागासिद्ध, आश्रयासिद्ध, प्रतिज्ञार्थैकदेशासिद्ध, अशक्यत्व, अनभिप्रेतत्व आदि दोषोंके दूर करनेके लिये हेतुके रूप पांचसे भी अधिक आठ, नौ कर दें, तब तो बौद्ध और नैयायिक, दोनों सदा निगृहीत होते रहेंगे । अपने मनमानी हेतुके अंगों की संख्याको गढकर यदि दूसरोंका निग्रह कराया जाय, तब तो बडी अव्यवस्था फैल जावेगी । यहां आचार्योंने बौद्धोंके अनुदात्त विचारोंका नैयायिकोंके मान्तव्य अनुसार निवारण कर दिया है । दूसरोंके मतके खण्डनका यह उपाय अच्छा है ।
ननु च न सौगतस्य पंचावयवसाधनस्य तत्समर्थनस्य वाडवचनं तत्र निगमनांतस्य सामर्थ्याद्गम्यमानत्वात् तद्वचनस्य पुनरुक्तत्वेना फलत्वादित्यपि न संगतमित्याह ।
बौद्ध अपने मतका अवधारण करते हैं कि पांच अवयववाले हेतुका अथवा उसके समर्थनका कथन नहीं करना कोई बौद्धका निग्रहस्थान नहीं है। क्योंकि वहां निगमनपर्यन्त अवयवोंका विना कहे तुकी सामर्थ्य से ही अर्थापत्तिद्वारा ज्ञान कर लिया जाता है । उस गम्यमानका भी यदि कथन किया जायगा तो पुनरुक्त हो जानेके कारण वह निष्फळ ( व्यर्थ ) पडेगा । अतः बौद्धोंके ऊपर नैयायिकों का कटाक्ष चल नहीं सकता है । अत्र आचार्य कहते हैं कि यह बौद्धों का कहना भी पूर्वापर संगतिको लिये हुये नहीं है । इस बातका ग्रन्थकार वार्त्तिकद्वारा कथन करते हैं ।
सामर्थ्याद्गम्यमानस्य निगमस्य वचो यथा । पक्षधर्मोपसंहारवचनं च तथाऽफलम् ॥ ७४ ॥
जिस प्रकार कि समर्थित हेतुकी सामर्थ्य से बिना कहे हुये ही जाने जा रहे निगमन अवयव का कथन करना निष्फळ है, उसी प्रकार पक्षमें वर्त रहे हेतुके उपसंहाररूप उपनयका कथन करना भी अफल पडेगा । अर्थात् - बौद्धोंने उपनयका वचन स्थान स्थानपर किया है। यदि गम्यमानका कथन करना नैयायिकोंका व्यर्थ है, तो बौद्धोंके उपनयका कथन भी निरर्थक पडेगा । ऐसी दशामें बौद्धों के ऊपर पुनरुक्त या निरर्थक निग्रहस्थान उठाया जा सकता है।
ननु च पक्षधर्मोपसंहारस्य सामर्थ्याद्गम्यमानस्यापि हेतोरपक्षधर्मत्वेनासिद्धत्वस्य व्यवच्छेदः फलमस्तीति युक्तं तद्वचनमनुमन्यते यत्सत्तत्सर्व क्षणिकं यथा घटः संच शब्द इति । तर्हि निगमनस्यापि प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयानामेकार्थत्वोपदर्शनं फलमस्ति तद्वचनमपि युक्तिमदेवेत्याह ।
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तत्वायचिन्तामणिः
बौद्ध पुनः अपने उसी सिद्धान्तको जमानेके लिये अवधारण करते हैं कि पक्ष धर्मोपसंहाररूप उपनयका कहे विना यद्यपि सामर्थ्य से ज्ञान कर लिया जाता है। फिर भी किसीको पक्षमें वृत्तिपना नहीं होनेके कारण यदि हेतुके स्वरूपासिद्ध हेत्वाभासपनेकी शंका हो जाय तो उस मसिद्धपमका व्यवच्छेद करना उपनय कथनका फळ विद्यमान है । इस कारण उस पक्षधर्मोपसंहारका कथन करना युक्त माना जा रहा है। देखिये " सर्व क्षणिक सत्वात " सभी पदार्थ क्षणिक हैं, सत्पना होनेसे, इस अनुमानमें जो जो सत् हैं, वे सभी क्षणिक हैं जैसे कि घडा, दीपकलिका, बिजली, आदिक । यों अन्वय दृष्टान्त दिखाते हुये शब्द भी सत्त्व हेतुवाला है। यह उपनय वाक्य कहा है। उपनय कथन करनेसे हेतुका पक्षमें ठहर जाना होनेके कारण स्वरूपसिद्धिका व्यवच्छेद हो जाता है । यों बौद्धोंके कहनेपर तो नैयायिकको सहारा देते हुये आचार्य कहते हैं कि तब तो भळे ही निगमन नामक पांचवें अवयवका यों ही विना कहे ज्ञान हो जाय, फिर भी प्रतित्रा, हेतु, उदाहरण, उपनय इन चार अवयवोंका एक ही साध्य विषयकी साधना रूप प्रयोजनको दिखलाना निगमनका फल है। यानी पहिले चारों ही अवयव अन्तमें सब निगमनमें गिरते हैं। जैसे कि पानी निपानमें जमा हो जाता है । या सूने खलिहानमें बार, युवा, वृद्ध कबूतर एक साथ गिरते हैं। "वृद्धा युवानः, शिशवः, कपोताः, खले यथामी युगपत्पतंति, तथैव सर्वे युगपत्पदार्थाः, परस्परेणान्वयिनो भवन्ति "। उसी प्रकार सबका ध्येय निगमनसिद्धि है । अतः उस निगमनका कथन करना भी युक्ति सहित ही है । इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा कहते हैं । उसको अवधान लगाकर सुनिये ।
तस्यासिद्धत्वविच्छिचिः फलं हेतोर्यथा तथा । निगमस्य प्रतिज्ञानाघेकार्थत्वोपदर्शनम् ॥ ७५॥
जिस प्रकार उस उपनयका फल हेतुके असिद्ध हेत्वाभासपनका विच्छेद करना है, उसी प्रकार निगमनका फल प्रतिज्ञा, हेतु आदि चार अवयवोंका एक प्रयोजनसहितपना दिखलाना है। अर्थात्-व्यर्थ पडते हुये भी उपनयको बौद्धोंने यदि सार्थक बनाया है तो चारों अवयवोंका एक उसी साध्यका निर्णय करना प्रयोजन निगमनका है । अतः पांचों अवयवोंका कथम बावश्यक है, अन्यथा निग्रह होगा।
न हि प्रतिज्ञादीनामेकार्थत्वोपदर्शनमंतरेण संगतत्वमुपपद्यते भिन्नविषयप्रतिज्ञादिवत् । - देखो,प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण आदिकोंका एक ही अर्थपनको दिखलाये बिना उनकी परस्परमें संगति नहीं बनती है । जैसे कि मिन मिन साध्यको विषय करनेवाले प्रतिज्ञा, हेतु, भादिकी संगति नहीं बन पाती है । भावार्थ-" शरोऽनित्यः " शब्द अनित्य है, यह प्रतिज्ञा की जाय
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
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" वन्हिमान् धूमातका धूम हेतु " पकड कियाजाय " जो जो रसवाम् हैं वे वे रूपवान् हैं जैसे कि आम्रफल, यह उदाहरण कहींका उठा लिया जाय और " छायासे व्याप्य हो रहे छत्र हेतुसे युक्त यह स्थान है, यह कहींका उपनय जोड दिया जाय, तिस कारण आत्मा अव्यापक है, यह कहीं का निगमन उठा लिया जाय, ऐसे भिन्न भिन्न प्रतिज्ञा आदिकी जैसी एक ही अर्थको साधने में संगति नहीं बैठती है, उसी प्रकार निगमनको कहे विना समीचीन अनुमानके चारों अवयवोंकी भी एक अर्थको साधने के लिये संगति नहीं मिलेगी । चारों अवयव इधर उधर मारे मारे फिरेंगे, अतः उपनयसे भी अच्छा प्रयोजन निगमनका सबको एक में अन्वित करदेना है ।
तथा प्रतिज्ञातः साध्यसिद्धौ हेत्वादिवचनमनर्थकं स्यादन्यथा तस्या न साधनांगतेति यदुक्तं तदपि स्वमतघातिधर्मकीर्तेरित्याह ।
तथा बौद्धोंने एक स्थानपर यह भी आग्रह किया है कि प्रतिपाद्य शिष्यके अनुरोधसे प्रतिज्ञा, हेतु, आदिक जितना भी कुछ कहा जायगा वह साधनांगका कथन है । उससे निग्रह नहीं हो पाता है । हां, यदि उससे भी अतिरिक्त भाषण किया जायगा तो असाधनाङ्गका कथन हो जानेसे वादीका निग्रहस्थान हो जायगा । जब कि प्रतिज्ञावाक्यसे ही साध्यकी सिद्धि होने लगजाय तो हेतु दृष्टान्त, आदिका, कथन करना व्यर्थ पडेगा । अन्यथा यानी प्रतिज्ञासे साध्य सिद्धि हो जानेको नहीं मानोगे तो उस प्रतिज्ञाको साध्यसिद्धिका साधक अंगपना नहीं बन पायेगा । इस कारण हेतु, दृष्टान्त, आदिके कथन भी कचित् वादके लिए निग्रहस्थान में गिरानेवाले हो जायेंगे। यह जो बौद्धोंने कहा था वह भी धर्मकीर्ति बौद्ध विद्वान् के निजमतका घात करनेवाला है, इसी बातको श्री विद्यानन्द वार्तिक द्वारा कहते हैं । बात यह है कि वादीको प्रतिवादी या शिष्यके अनुरोधसे कथन करनेका नियम करना अशक्य है । जीतने की इच्छा को लिये हुये बैठा हुआ प्रतिवादी चाहे जैसे कहनेवाले वादीकी भर्त्सना कर सकता है कि तुमने थोडे अंग कहे हैं। मैं इतने स्वल्प साधनांगों से साध्यनिर्णय नहीं कर सकता हूं अथवा तुमने बहुत साधनांगों का निरूपण किया है । मैं थोडे ही में समझा सकता था । क्या मैं निरा मूर्ख हूं ! दूसरी बात यों है कि यों तो स्वार्थिक प्रत्ययका कथन या कहीं कहीं " संश्व शद इस प्रकार उपनय वचन भी अतिरिक्त वचन होनेसे पराजय करानेके लिये समर्थ हो जावेंगे। तभी तो श्री अकलंक देवने अष्टशती में "त्रिलक्षणवचनसमर्थनं च असाधनांगवचनमपजयप्राप्तिरिति व्याहृतं " हेतुके त्रिकक्षणवचनका समर्थन करना और असाधनांगवचनसे पराजय प्राप्ति बतलाना यह बौद्धोंका निरूपण व्याघात दोषसे युक्त कहा है । इसका स्पष्टी करण अष्टसहस्री में किया है ।
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प्रतिज्ञातोर्थसिद्धौ स्याद्धेत्वादिवचनं वृथा ।
नान्यथा साधनागत्वं तस्या इति यथैव तत् ॥ ७६ ॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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तत्त्वार्थनिश्चये हेतोदृष्टान्तोऽनर्थको न किम् । सदृष्टान्तप्रयोगेषु प्रविभागमुदाहृताः ॥ ७७ ॥
प्रतिज्ञावाक्यसे ही अर्थकी सिद्धि हो चुकनेपर पुनः हेतु आदिकका वचन करना वृथा पडेगा अन्यथा उस प्रतिज्ञाको साध्यसिद्धिका अंगपना नहीं घटित होता है। जिस ही प्रकार बौद्ध यों कहते हैं, उस ही प्रकार हम कटाक्ष कर सकते हैं कि हेतुसे ही तत्त्वार्थोका निश्चय हो जानेपर पुनः दृष्टान्तका कथन करना व्यर्थ क्यों नहीं पडेगा ! किन्तु समीचीन दृष्टान्तोंसे सहित हो रहे प्रयोगोंमें विभाग सहित साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्तोंको कहा गया है।
सतोSतिविपरीतव्यतिरेकत्वं प्रदर्शितव्यतिरेकत्वमिति । न च वैधर्म्यदृष्टांतदोषाः क्वचिन्न्यायविनिश्चयादौ प्रतिपाद्यानुरोधतः सदृष्टांतेषु सत्पयोगेषु सविभागमुदाहृतान पुनः साधनांगत्वानियमात् । तदनुद्भावनं प्रतिवादिनो निग्रहाधिकरणं वादिना स्वपक्षस्यासाधनेपीति ब्रुवाणः सौगतो जडत्वेन जडानपि छलादिना व्यवहारतो नैयायिकान् जयेत् । किं च । - वैधर्म्य दृष्टान्तका निरूपण करनेके लिये व्यतिरेक दिखलाना पडता है। उस साध्यरूप अर्थसे अतिरिक्त हो रहे विपरीतके साथ व्यतिरेकपना बतला देना ही व्यतिरेकपनका दिखला देना है। इस प्रकार दिये गये वैधर्म्य दृष्टान्तके दोष किन्हीं " न्यायविनिश्चिय, जल्पनिर्णय " आदि ग्रन्थों में प्रतिपाद्योंके अनुरोधसे दृष्टान्तसहित समीचीन प्रयोगोंमें विभागसहित भहें ही नहीं कहे गये होय, किन्तु फिर साधनांगपनेके अनियमसे उन दोषोंका निरूपण नहीं किया गया है। अर्थात्-कोई प्रामाणिक ग्रन्थोंमें श्री अकलंकदेवने वैधर्म्य दृष्टान्त या साधर्म्य दृष्टान्तका कथन . करना बताया है । तथा उनके दोषोंका भी निरूपण किया है। यह साधनांगपमेके अनियमसे व्यवस्था नहीं की गयी है । प्रतिपायोंके अनुरोधसे चाहे कितने भी अंगोंको कहा जा सकता है। वादीके द्वारा स्वपक्षकी सिद्धि नहीं किये जानेपर मी यदि उन दोषोंका नहीं उठाना प्रतिवादीका निग्रहस्थान हो जाता है, इस प्रकार कह रहा बौद्ध तो अपने जडपनेसे उन जड नैयायिकोंको जीत रहा है । जो कि छळ, जाति, आदि करके विद्वानोंमें वचन व्यवहार किया करते हैं। अर्थात्-वानवान् आत्माको नहीं माननेवाले बौद्ध जड हैं । और ज्ञानसे सर्वथा भिन्न मामाको माननेके कारण नैयायिक जड हैं । नैयायिक तो छल आदि करके जीतनेका अभिप्राय रखता है। किन्तु बौद्ध तो यों ही परिश्रम किये बिना वादीको जितना चाहता है । मला स्वपक्ष सिद्धिके विना जीत केसे हो सकती है ! विचारो तो सही। यहांकी पंक्तियोंका विशेषज्ञ विद्वान् गवेषणापूर्वक विचार कर लेवें। मैंने स्वकीय अल्प क्षयोपशम अनुसार लिख दिया है। श्री विद्यानन्द आचार्य यहां दूसरी बात यह भी कहते हैं कि
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तत्वार्थश्वोकवार्तिके
सत्ये च साधने प्रोक्ते वादिना प्रतिवादिनः । दोषानुद्भावने च स्यान्न्यकारो वितथेपि वा ॥ ७८ ॥ प्राच्ये पक्षेऽकलंकोक्तिर्द्वितीये लोकबाधिता ।
द्वयोर्हि पक्षसंसिद्धयभावे कस्य विनिग्रहः ॥ ७९ ॥ - वादी विद्वान करके समीचीन निर्दोषहेतुके भले प्रकार कह चुकनेपर और प्रतिवादीद्वारा दोषोंका उत्थापन नहीं करनेपर क्या प्रतिवादीका तिरस्कार होगा ? अथवा क्या वादीके द्वारा असत्य, सदोष, हेतुके कथन करनेपर और प्रतिवादीकी बोरसे दोषोंके नहीं उठानेपर प्रतिवादीका पराजय होगा ! बताओ। इन दो पक्षों से पूर्वका पक्षग्रहण करनेपर तो श्री अकंलक देवका निष्कलंक सिद्धान्त ही कह दिया जाता है। अर्थात्-वादीके द्वारा समीचीन हेतुके प्रयुक्त करमेपर और प्रतिवादीके द्वारा दोष नहीं उठाये जानेपर नियमसे प्रतिवादीका पराजय और वादीका जय हो जायगा। यही स्याद्वादियोंका निरवध सिद्धान्त है । हां, दूसरे पक्षका अवलम्ब लेनेपर तो लोकमें जन समुदाय करके बाधा उपस्थित कर दी जावेगी । कारण कि वादी और प्रतिवादी दोनोंके पक्षकी भळे प्रकार सिद्धि हुये विना भला किसका विशेष रूपसे निग्रह कर दिया गया समझा जाय ? अर्थात्-वादीने झूठा हेतु कहा और प्रतिवादीने कोई दोष नहीं उठाया ऐसी दशामें दोनोंके पक्षकी सिद्धि नहीं हुई है। अतः न तो प्रतिवादी करके वादीका निग्रह हुआ और न वादीकरके प्रतिवादी निग्रह स्थानको प्राप्त किया गया । फिर भी सदोष हेतुको कहनेवाले वादीका जय माना जायगा तो ऐसा निर्णय देना लोकमें बाधित पडेगा। इस कारण स्वपक्षकी सिद्धि करते हुये वादी करके दोषोंको नहीं उठानेवाळे प्रतिवादीका तिरस्कार प्राप्त होजाना मानना चाहिये ऐसा जैन सिद्धान्त है।
अत्रान्ये पाहुरिष्टं नस्तथा निग्रहणं द्वयोः। तत्त्वज्ञानोक्तिसामर्थ्यशून्यत्वस्याविशेषतः ॥ ८ ॥ यथोपात्तापरिज्ञानं साधनाभासवादिनः । तथा सद्दषणाज्ञानं दोषानुद्भाविनः समं ॥ ८१ ॥
इस द्वितीय पक्षके विषयमें अन्य कोई विद्वान् अपने मतको अच्छा समझते हुये यों कह रहे हैं कि तिस प्रकार वादीके द्वारा झूठा हेतु प्रयुक्त किये जानेपर और प्रतिवादी द्वारा दोष नहीं उठानेपर दोनों वादी प्रतिवादियोंका निग्रह हो जाना हमारे यहां इष्ट किया गया है। क्योंकि तत्त्वज्ञानपूर्वक कथन करनेकी सामर्थ्यसे रहितपना दोनों वादी प्रतिवादियों के विद्यमान है।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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कोई विशेषता नहीं है । जिस प्रकार हेत्वाभास यानी झूठे हेतुका प्रयोग करनेवाले वादीको ग्रहण किये गये स्वकीय पक्षका परिज्ञान नहीं है । तभी तो वह असत्य हेतुका प्रयोग कर गया है । तिसी प्रकार दोषको नहीं उठानेवाले प्रतिवादीको समीचीन दूषणका ज्ञान नहीं है । इस प्रकार अपने अपने कर्तव्य हो रहे तत्त्वज्ञानपूर्वक कथन करनेकी सामर्थ्यसे रहितपना दोनोंके समान है।
जानतोपि सभाभीतेरन्यतो वा कुतश्चन । दोषानुद्धावनं यद्वत्साधनाभासवाक् तथा ॥ ८१॥
यदि कोई प्रतिवादीका पक्षपात करता हुआ यों कहें कि अनेक विद्वानोंकी सभाका डर लग जानेसे अथवा अन्य किसी भी कारणसे प्रतिवादी दोषोंको जामता हुआ भी वादीके हेतुमें दोष नहीं उठा रहा है । इस कटाक्षका अन्य विद्वान् टकासा उत्तर देते हुये यों निवारण कर देते हैं कि जिस प्रकार प्रतिवादीके लिये यह पक्षपात किया जाता है, उसी प्रकार वादीके लिये भी पक्षपात हो सकता है कि वादी विद्वान् समीचीन हेतुका प्रयोग कर सकता था। किन्तु सभाके डरसे अथवा उपस्थित विद्वानोंकी परीक्षणा करनेके अभिप्रायसे या सदोष हेतुसे भी निर्बल पक्षकी सिद्धि कर देनेका पाण्डित्य प्रदर्शन करनेके आदि किसी भी कारणसे वह वादी हेत्वाभासका निरूपण कर रहा है। इस प्रकार तो दोनोंके तत्वज्ञानपूर्वक कथन करनेकी सामर्थ्यका निर्वाह किया जा सकता है।
दोषानुद्भावने तु स्याद्वादिना प्रतिवादिने । परस्य निग्रहस्तेन निराकरणतः स्फुटम् ॥ ८२॥ अन्योन्यशक्तिनिर्घातापेक्षया हि जयेतर-। व्यवस्था वादिनोः सिद्धा नान्यथातिप्रसंगतः ॥ ८३॥
वादी करके प्रतिवादीके लिये दोषोंका उत्थापन नहीं करनेपर उस करके दूसरेका निग्रह तो स्पष्टरूपसे परपक्षका निराकरण कर देनेसे होगा, अन्यथा नहीं । अतः परस्परमें एक दूसरेकी शक्तिका विघात करनेकी अपेक्षासे ही वादी प्रतिवादियोंके जय और पराजयकी व्यवस्था सिद्ध हो रही है। अन्य प्रकारोंसे जय या पराजयकी व्यवस्था नहीं समझना । क्योंकि अतिप्रसंग दोष हो जावेगा । भावार्थ"अत्रान्ये " यहांसे लेकर पांच कास्किाओंमें अन्य विद्वानोंका मन्तब्य यह ध्वनित होता है कि जित किसी भी प्रकारसे वादी या प्रतिवादीकी शक्तिका विशेषघात हो जानेसे प्रतिवादी या वादीका जय मान लेना चाहिये।
इत्येतद्दर्विदग्धत्वे चेष्टितं प्रकटं न तु । वादिनः कीर्तिकारि स्यादेवं माध्यस्थहानितः ॥ ८४॥
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तत्वार्यकोकवार्तिक
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अब आचार्य महाराज उक्त अन्य विद्वानोंके प्रति कहते हैं कि इस प्रकार यह अन्ध विद्वानोंका कथन करना तो अपने दुर्विदग्धपनेके निमित्त ही प्रकटरूपसे चेष्टा करना है। मळे प्रकार समझानेपर भी मिथ्या आग्रहवश अपने झूठे पक्षका कोरा अभिमान कर सत्यपक्षका ग्रहण नहीं करना दुर्विदग्धपना है। किसी भी अन्टसन्ट उपायसे प्रतिवादीकी शक्तिका विघात करना यह प्रयत्न तो बादीकी कीर्तिको करनेवाला नहीं है । इस प्रकार निध प्रयत्न करनेसे अन्य तटस्थ बैठे हुये सभ्य पुरुषों के मध्यस्थपनेकी भी हानि हो जाती है । अर्थात्-आंखमें अंगुली करना, मर्मस्थलोंमें बाघात पहुंचा देना, आदि अनुचित उपायोंसे युद्ध ( कुस्ती ) करनेवाले मल्ल या प्रतिमल्लको जैसे मध्यस्थ पुरुष निषिद्ध कर देते हैं, इसी प्रकार अयुक्त उपायोसे जय लूटनेवाळे वादीका मध्यस्थों द्वारा निकृष्ट मार्ग छुड़ा देना चाहिये था । यदि मध्यस्थ जन वादीके अनुचित अभिनय (तमाशा) को चुप होकर देख रहे हैं, ऐसी दशामें उन पक्षपातियोंके मध्यस्थपनकी हत्या हो जाती है।
दोषानुद्भावनाख्यानाद्यथा परनिराकृतिः। तथैव वादिना स्वस्य दृष्टा का न तिरस्कृतिः ॥८५॥
प्रतिवादी द्वारा दोषोंके नहीं उठाये जानेका कथन कर देनेसे जिस प्रकार दूसरे प्रतिवादीका निराकरण ( पराजय ) होना मान लिया गया है, उस ही प्रकार अपने मान लिये गये वादीका भी तिरस्कार हो रहा क्या नहीं देखा गया है ? क्योंकि वादीने समीचीन हेतु नहीं कहा था। यह वादीका तिरस्कार करनेके लिये पर्याप्त है।
दोषानुद्भावनादेकं न्यक्कुर्वति सभासदः । साधनानुक्तितो नान्यमित्यहो तेतिसजनाः ॥ ८६ ॥
प्राचार्य कहते हैं कि सभामें बैठे हुये मध्यस्थ पुरुष दोनों वादी प्रतिवादियोंमेंसे एक प्रतिबादीका तो न्यकार ( तिरस्कार ) कर देते हैं, किन्तु समीचीन साधनका नहीं कथन करनेसे दूसरे वादीका तिरस्कार नहीं करते हैं, ऐसी बुद्धपने की क्रिया करनेपर हमें उनके ऊपर आचर्य आता है। उपहाससे कहना पडता है कि वे सभ्य पुरुष आवश्यकतासे अधिक सज्जन है। यानी परम मूर्ख हैं। जो कि पक्षपातवश वादीके प्रयुक्त किये गये हेत्वाभासका लक्ष्य नहीं रखकर प्रतिवादीका दोष नहीं उठाने के कारण वादी द्वारा पराजय कराये देते हैं। ऐसे सभासदोंसे न्यायकी प्राप्ति होना बसम्भव है । सज्जनताका अतिक्रमण करनेवालोंसे निष्पक्ष न्याय नहीं हो पाता है।
अत्र परेषामाकूतमुपदर्य विचारयति ।
इस प्रकरणमें श्री विद्यानन्द आचार्य दूसरे विद्वानोंकी स्वमन्तव्यपुष्टिकी चेष्टाको दिखलाकर विचार करते हैं। सो सुनिये ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
पक्षसिद्धिविहीनत्वादेकस्यात्र पराजये । परस्यापि न किं नु स्याज्जयोप्यन्यतरस्य नु ॥ ८७ ॥ तथा चैकस्य युगपत्स्यातां जयपराजयौ । पक्षसिद्धीतरात्मत्वात्तयोः सर्वत्र लोकवत् ॥ ८८ ॥
छह कारिकाओं द्वारा अपर विद्वान् अपने मन्तव्यको दिखलाते हैं कि यहां अपने पक्षकी सिद्धिसे रहित हो जाने के कारण यदि एक ( प्रतिवादी ) का पराजय हो जाना इष्ट कर लिया जायगा तो दूसरे (वादी) का भी पराजय क्यों नहीं हो जावेगा। क्योंकि साधनाभासको कहने वाला वादी और दोषोंको नहीं उठानेवाला प्रतिबादी दोनों ही अपने अपने पक्षकी सिद्धिसे रहित होते हुये भी एक ( वादी ) का जय होना मानोगे तो दोनोंमेंसे बचे हुये अन्य एक ( प्रतिवादी ) का भी जय क्यों नहीं मान लिया जावे ? और तिस प्रकार होनेपर एक ही वादी या प्रतिकादी एक समय में एक साथ जय पराजय दोनों हो जावेंगे । क्योंकि लोकमें जैसे जय पराजयकी व्यवस्था प्रसिद्ध है, उसी प्रकार सभी शास्त्रीय स्थानों में भी स्वपक्षकी सिद्धि कर देनेसे जय हो जाना और पक्षसिद्धि नहीं हो जानेसे पराजय प्राप्ति हो जाना व्यवस्थित है । वे जय और पराजय पक्षसिद्धि और पक्षकी असिद्धिस्वरूप ही तो हैं ।
तदेकस्य परेणेह निराकरणमेव नः ।
पराजयो विचारेषु पक्षासिद्धिस्तु सा क नुः ॥ ८९ ॥ पराजयप्रतिष्ठानमपेक्ष्य प्रतियोगिनां ।
लोके हि दृश्यते याक सिद्धं शास्त्रेपि तादृशम् ॥ ९० ॥
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तिस कारण दूसरे विद्वान् करके एक वादी या प्रतिवादीका निराकरण हो जाना ही हमारे यहां एकका विचारोंमें पराजय माना गया है। ऐसी दशा में किसी एक मनुष्यके पक्षकी वह असिद्धि तो कह रही ? अपने प्रतिकूल हो रहे प्रतियोगी पुरुषोंकी अपेक्षा कर जिस प्रकार कोकमें पराजय प्राप्तिकी प्रतिष्ठा देखी जा रही है। उसी प्रकार शास्त्र में भी पराजय प्रतिष्ठा सिद्ध है । इस विषय में लौकिक मार्ग और शास्त्रीय मार्ग दोनों एकसे हैं ।
सिद्ध्यभावः पुनर्दृष्टः सत्यपि प्रतियोगिनि ।
साधनाभावतः शून्ये सत्यपि च स जातुचित् ॥ ९१ ॥
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तत्वार्थचोकवार्तिके
तन्निराकृतिसामर्थ्यशून्ये वादमकुर्वति । पराजयस्ततस्तस्य प्राप्त इत्यपरे विदुः ॥ ९२ ॥
प्रतिकूल कहनेवाले प्रतियोगी मनुष्य के होनेपर भी पुनः समीचीन हेतुका अभाव हो जानेसे सिद्धिका अभाव देखा गया है । और कभी कभी प्रतियोगीका सर्वथा अभाव हो जानेपर भी वह सिद्धिका अभाव देखा गया है । तिस कारण यह सिद्ध होजाता है कि उस प्रतियोगी के निराकरण करने की सामर्थ्य से शून्य होनेपर वादको नहीं करनेवाले मनुष्य के होनेपर उससे उसका पराजय प्राप्त हो जाता है । भावार्थ - दूसरेको अन्यके निराकरणकी सामर्थ्य से रहित कर दिया जाय, वह मनुष्य वाद करने योग्य नहीं रहे, तब उसका पराजय माना जावेगा । इस प्रकार कोई दूसरे विद्वान् अपने मनमें समझ बैठे हैं । अब आचार्य महाराज इनका समाधान करते हैं ।
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तत्रेदं चिंत्यते तावत्तन्निराकरणं किमु । निर्मुखीकरणं किं वा वाग्मिस्तत्तत्त्वदूषणम् ॥ ९३ ॥ नात्रादिकल्पना युक्ता परानुग्राहिणां सतां । निर्मुखीकरणावृत्ते बोधिसत्त्वादिवत्कचित् ॥ ९४ ॥
उन पर विद्वानोंके उक्त अभिमतपर अब यह विचार चलाया जाता है कि उन्होंने जो पहिले यह कहा था कि दूसरे करके एकका निराकरण हो जाना ही हमारे यहां पराजय माना गया है । इसमें हमारा यह प्रश्न है कि उसके निराकरणका अर्थ क्या, उसको बोलनेवाले मुखसे रहित ( चुप ) कर देना है ? अथवा क्या सयुक्त वचनोंद्वारा उसके अभीष्ट तत्त्वमें दूषण प्रदान करना है ! बताओ । इन दोनों पक्षोंमेंसे आदिके पक्ष की कल्पना करना तो युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि शान्तिप्रेमी विद्वान् माने गये बोधिसत्व आदिक विद्वानोंके समान दूसरोंके ऊपर अनुग्रह करनेवाले सज्जन पुरुषोंकी कहीं भी किसीको चुप करनेके लिये प्रवृत्ति नहीं होती है । अर्थात् - बौद्धों के यहां बोधिसत्त्व आदिक पुरुषोंकी प्रवृत्ति सर्व प्राणियोंके साथ वात्सल्यभाव रखनेवाली स्वीकार की है। उसी प्रकार सर्व कृपालु तत्त्व निर्णायकोंकी प्रवृत्ति प्राणियों के ज्ञान सम्पादनार्थ है । जैसे तैसे किसी भी उपायसे दूसरोंका मुख रोकने ( बन्द ) के लिये नहीं होती है।
द्वितीय कल्पनायां तु पक्षसिद्धेः पराजयः ।
सर्वस्य वचनैस्तत्त्वदूषणे प्रतियोगिनाम् ।। ९५ ।।
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तत्वायचिन्तामणिः
सिद्धयभावस्तु योगिनामसति प्रतियोगिनि ।
साधनाभावतस्तत्र कथं वादे पराजयः ॥ ९६ ॥
यदि युक्तिपूर्ण वचनोंकरके उसके माने हुये तत्त्वोंमें दूषण देना इस प्रकार दूसरे पक्षकी कल्पना करनेपर तो यह जेनसिद्धान्त ही प्राप्त हो जाता है कि स्वकीय पक्षकी सिद्धि करनेसे और समीचीन वचनों करके दूसरे प्रतिकूल वादियों के माने हुये तत्त्वोंमें दूषण देनेपर ही अन्य सबका पराजय हो सकता है । अर्थात्-अपने पक्षकी सिद्धि और दूसरेके तत्त्वोंमें दोष देनेपर ही अपना जय और दूसरेका पराजय होना व्यवस्थित है । यही अकलंकसिद्धान्त है । आपने जो " सिद्धयमाव पुनदृष्टः सत्यपि प्रतियोगिनि ” इस कारिकाद्वारा कहा था, उसमें हमारा यह कहना है कि प्रतियोगी प्रतिवादीके नहीं होनेपर योग रखनेवाले वादियोंके पास समीचीन साधनका अभाव होजानेसे तो वादीके पक्षकी सिद्धिका अभाव है। उस दशामें वादीके द्वारा प्रतिवादीका बादमें भला पराजय कैसे हो सकता है ? अर्थात्-नहीं ।
यदैव वादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः । राजन्वति सदेकस्य पक्षासिद्धिस्तथैव हि ॥ ९७ ॥ सा तत्र वादिना सम्यक् साधनोक्तेर्विभाव्यते । तूष्णीभावाच नान्यत्र नान्यदेत्यकलंकवाक् ॥ ९८ ॥
जिस ही काळमें समुचित राजाके सभापति होनेपर समीचीन राजा, प्रजासे, युक्त हो रहे देशमें वादी और प्रतिवादीके पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह हो रहा है। वहां एक वादीके समीचीन पक्षकी सिद्धि हो जानेपर उसी समय दूसरे प्रतिवादीका तिस ही प्रकार पक्षं असिद्ध हो जाता है, ऐसा नियम है । उस अवसरपर वादीके द्वारा समीचीन साधनका कथन करनेसे और प्रतिवादीके चुप हो जानेसे वह प्रतिवादीके पक्षकी असिद्धि विचार ली जाती है। अन्य स्थलोंमें और अन्य कालोंमें पक्षकी बसिद्धि नहीं, इस प्रकार श्री अकलंकदेव स्वामीका निर्दोष सिद्धान्त वाक्य है।
तूष्णींभावोथवा दोषानासक्तिः सत्यसाधने ।
वादिनोक्ते परस्येष्टा पक्षसिद्धिर्न चान्यथा ॥ ९९ ॥ ___वादीके द्वारा कहे गये सत्य हेतुमें प्रतिवादीका चुप रह जाना अथवा सत्य हेतुमें दोषोंका प्रसंग नहीं उठाना ही दूसरे वादीकी पक्ष सिद्धि इष्ट की गयी है । अन्य प्रकारोंसे कोई पक्षसिद्धिकी व्यवस्था नहीं मानी गयी है।
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तत्त्वार्यशोकवार्तिके
कस्य चित्तत्त्वसंसिध्यप्रतिक्षेपो निराकृतेः । कीर्तिः पराजयोवश्यमकीर्तिदिति स्थितम् ॥ १० ॥
यों माननेपर किसी भी वादी या प्रतिवादीके अभीष्ट तत्त्वोंकी भळे प्रकार सिद्धि करनेमें कोई आक्षेप नहीं पाता है। दूसरेके पक्षका निराकरण करनेसे एककी यशस्कीर्ति होती है,
और दूसरेका पराजय होता है, जो कि अवश्य ही अपकीर्तिको करनेवाला है। अतः स्वपक्षकी सिद्धि करना और परपक्ष का निराकरण करना ही जयका कारण है । इस कर्त्तव्यको नहीं करने माळे वादी या प्रतिवादीका निग्रहस्थान हो जाता है । यह सिद्धान्त व्यवस्थित हुआ।
असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः।
न युक्तं निग्रहस्थानं संधाहान्यादिवत्ततः ॥ १०१॥ तिस कारणसे यह बात आई कि बौद्धोंके द्वारा माना गया असाधनांगवचन और बदोषोद्भावन दोनोंका निग्रहस्थान यह उनका कथन युक्त नहीं है। जैसे कि नैयायिकों द्वारा माने गये प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर आदिक निग्रह स्थानोंका उठाया जाना समुचित नहीं है । भावार्थ-वादीको अपने पक्षसिद्धिके अंगोंका कथन करना आवश्यक है । यदि वादी साधनके अंगोंको नहीं कह रहा है, अथवा असाधनके अंगोंको कह रहा है, तो वह वादीका निग्रहस्थान है तथा प्रतिवादीका कार्य वादीके हेतुओंमें दोष उत्थापन करना है । यदि प्रतिवादी अपने कर्त्तव्यसे विमुख होकर दोषोंको नहीं उठा रहा है, या नहीं लागू होनेवाले कुदोषोंको उठा रहा है, तो यह प्रतिवादीका निग्रह स्थान है । अब आचार्य कहते हैं कि यह बौद्धों द्वारा मानी गवी निग्रहस्थानकी व्यवस्था किसी प्रकार प्रशस्त नहीं है। जैसे कि नैयाथिकोंके निबृहस्थानोंकी व्यवस्था ठीक नहीं है।
के पुनस्ते प्रतिज्ञाहान्यादय इमे कथ्यंते ? प्रतिज्ञाहानिः, प्रतिज्ञांतरं, प्रतिज्ञाविरोषः, प्रतिज्ञासंन्यासः, हेत्वंतरं,अधोतरं, निरर्थक, अविज्ञाताथै, अपार्थकं, अप्राप्तकालं, पुनरुक्तं, अननुभाषणं, अज्ञानं, अप्रतिभा, पर्यनुयोग्यानुपेक्षणं, निरनुयोज्यानुयोगः, विक्षेपा, मतानुज्ञा, न्यूनं, अधिकं, अपसिद्धान्ता, हेत्वाभासः, छलं, जातिरिति । तत्र प्रतिज्ञाहानिनिग्रहस्थानं कथमयुक्तमित्याह ।
किसी विनित शिष्यका प्रश्न है कि वे पुनः नैयायिकों द्वारा कल्पित किये गये प्रतिज्ञाहानि आदिक निग्रहस्थान कौनसे है ! इसके उत्तरमें आचार्य महाराज कहते हैं कि वे निग्रहस्थान हमारे द्वारा अनुवाद रूपसे वे कहे जा रहे हैं । सो सुनो, प्रतिज्ञाहानि १ प्रतिज्ञान्तर २ प्रतिशाविरोध ३ प्रतिज्ञासन्यास ४ हेत्वन्तर ५ अर्थान्तर ६ निरर्थकं ७ अविज्ञातार्थ ८ अपार्थक ९
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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nomenam
अप्राप्तकाल १० पुनरुक्त ११ अननुभाषण १२ अज्ञान १३ अप्रतिमा १४ पर्यनुयोग्यानुपेक्षणं १५ निरनुयोज्यामुयोग १६ विक्षेप १७ मतानुज्ञा १८ न्यून १९ अधिक २० अपसिद्धान्त २१ हेत्वाभास २२ छळ २३ जाति २४ इस प्रकार हैं । नैयायिकोंने प्रमाण, प्रमेय, आदि सोलह मूल पदार्थ माने हैं। उनमें हेत्वाभास, छल, और जाति पदार्थ भी परिगणित हैं । छल और जातिका पृथक् व्याख्यान कर तथा हेत्वाभासको निग्रहस्थानोंके प्रतिपादक सूत्रमें गिमा देनेसे निग्रहस्थान बाईस समझे जाते हैं। इनके लक्षणोंका निरूपण स्वयं ग्रन्थकार अग्रिम प्रन्थमें करेंगे। उन निग्रहस्थानोंमें पहिले नैयायिकों द्वारा कहा गया प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान किस प्रकार अयुक्त है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी इस प्रकार समाधान कहते हैं ।
प्रतिदृष्टांतधर्मस्य यानुज्ञा न्यायदर्शने । स्वदृष्टांते मता सैव प्रतिज्ञाहानिरैश्वरैः ॥ १०२ ॥
सृष्टिके कर्ता ईश्वरकी उपासना करनेवाले नैयायिकोंने अपने गौतमीय न्यायदर्शनमें प्रतिज्ञाहानिका लक्षण यों माना है कि अपने दृष्टान्तमें प्रतिकूल पक्ष सम्बन्धी दृष्टान्तके धर्मकी जो स्वीकारता कर लेना है वही प्रतिज्ञाहानि है । इसका व्याख्यान स्वयं ग्रन्थकार करेंगे।
प्रतिदृष्टांतधर्मानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिरित्यक्षपादवचनात् । एवं सूत्रमनूय परीक्षणार्थे भाष्यमनुषदति ।
गौतम ऋषिके बनाये हुये न्यायदर्शनके पांचवे अध्यायका दूसरा सूत्र अक्षपादने यों कहा है कि " प्रतिदृष्टान्तधर्मानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः " इस प्रकार गौतमके सूत्रका अनुवाद कर गौतमसूत्रपर वात्स्यायनऋषि द्वारा किये गये भाष्यकी परीक्षा करनेके लिये श्री विद्यानन्द स्वामी अनुवाद करते हैं। गौतम ऋषिका ही दूसरा नाम अक्षपाद है। न्यायकोषमें अक्षपादकी कथामें यों लिखी हुई है कि गौतमने अपने द्वैत प्रतिपादक मतका खण्डन करनेवाले वेदव्यासके आंखोंसे नहीं दर्शन करने (देखने) की प्रतिज्ञा लेली थी । किन्तु कुछ दिन पश्चात अद्वैतवादका आदरणीय रहस्य गौतमको प्रतीत हुआ तो वे वेदव्यासका दर्शन करनेके लिये आकुलित हुये। किन्तु प्रतिज्ञा अनुसारसे वदनस्थित चक्षुषोंसे व्यासजीका दर्शन नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने तपस्याके बळसे पांवोंमें चक्षु बनाई। इन चक्षुओंसे व्यासका दर्शन किया "अक्षिणी अथवा अक्षे पादयोः यस्य स बक्षपाद:" इस प्रकार अक्षपाद शद्धका व्यधिकरण बहुव्रीहि समास किया है । यह केवळ किम्बदन्ती है । जैन सिद्धान्त अनुसार विचारा जाय तो पांवोंमे आंखे नहीं बन सकती हैं। आंखोंकी निर्वृत्ति और उपकरण वदनप्रदेशमें ही सम्भवते हैं । यों देशावधि ( विमङ्ग ) से भले ही कोई अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कर ले, यह बात दूसरी है।
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साध्यधर्मविरुद्धेन धर्मेण प्रत्यवस्थिते । अन्यदृष्टांतधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्यनुजानतः ॥ १०३ ॥ प्रतिज्ञाहानिरित्येव भाष्यकाराग्रहो न वा । प्रकारांतरोप्यस्याः संभवाचित्तविभ्रमात् ॥ १०४॥
" न्यायभाष्य " में लिखा है कि " साध्यधर्म प्रत्यनीकेन धर्मेण प्रत्यवस्थिते प्रतिदृष्टान्त धर्मस्वदृष्टान्तेऽभ्यनुजानन् प्रतिज्ञां जहातीति प्रतिज्ञाहानिः ” अपने अमीष्ट साध्यस्वरूप धर्मसे विरुद्ध हो रहे धर्मकरके प्रत्यवस्थान ( दूषण ) उठानेपर अन्य प्रतिकूल दृष्टान्तके धर्मको अपने इष्ट दृष्टान्तमें स्वीकार कर लेनेवाले वादीका प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान हो जाता है । यह कथंचित् उचित है । किन्तु इस ही प्रकार प्रतिज्ञाहानि हो सकती है । अन्य कोई उपाय नहीं, ऐसा भाष्यकार वात्स्यायनका आग्रह करना ठीक नहीं है । क्योंकि वक्ताके चित्तमें विभ्रम हो जानेसे या अन्य प्रकारों करके भी इस प्रतिज्ञाहानिके हो जानेकी सम्भावना है । सच पूछो तो यह दृष्टान्तहानि है। बहुतसे मनुष्य अपने पक्षकी तो अक्षुण्णरक्षा करते हैं। किन्तु यहां वहांके प्रकरणोंकी मस्तिष्कको पचानेवाले वावदूकोंके सन्मुख उपेक्षापूर्वक स्वीकारता देदेते हैं । तभी उनसे पिंड छूटता है।
विनश्वरस्वभावोयं शब्द ऐन्द्रियकत्वतः। यथा घट इति प्रोक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते ॥ १०५॥ दृष्टमंद्रियकं नित्यं सामान्यं तद्वदस्तु नः। . शरोपीति स्वलिंगस्य ज्ञानात्तेनापि संमतं ॥ १०६ ॥ कामं घटोपि नित्योस्तु सामान्यं यदि शाश्वतं । इत्येवं भाष्यमाणेन प्रतिज्ञोत्पाद्यते कथम् ॥ १०७ ॥
प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थानका उदाहरण यों है कि यह शब्द ( पक्ष ) विनाश हो जाने स्वभाववाला है ( साध्य ) इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञानका विषय होनेसे (हेतु ) जैसे कि घडा ( दृष्टान्त ) । इस प्रकार वादीके द्वारा मळे प्रकार कह चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान करता है कि इन्द्रिय जन्य ज्ञानका विषय सामान्य तो नित्य देखा जा रहा है । उसीके समान शब्द भी हमारे यहां नित्य हो जायो, पश्चात् इस प्रकार अपने कहे ऐन्द्रियिकत्व लिंगके हेत्वाभासपनेका ज्ञान हो जामेसे उस वादीने भी वादका अन्त नहीं कर यो सम्मत कर लिया कि अच्छी बात है। यदि सामान्य (जाति) नित्य है तो यथेष्ट रूपसे घट भी नित्य हो जालो । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने
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तत्वार्थचिन्तामणिः
वाला बादी अपने दृष्टान्त घटका नित्यपन स्वीकार करता हुआ निगमन पर्यन्त पक्षको छोड दे रहा प्रतिज्ञाकी हामि कर देता है । इस ढंगसे सूत्रका भाष्य कह रहे वात्स्यायनके द्वारा भला प्रतिज्ञाहानि कैसे उपजाई जाती है ! " प्रतिज्ञा हाप्यते कथं " पाठ अच्छा दीखता है। भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि वादीने प्रतिदृष्टान्तके धर्मको स्वदृष्टान्तमें स्वीकार कर लिया है। प्रतिज्ञाको तो नहीं छोडा है ऐसी दशामें यह प्रतिज्ञाहानि भला कहां रही ? नैयारिकोंने ऐन्द्रियक पदार्थोंमें रहनेवाले जातिका भी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष होना अमीष्ट किया है।
दृष्टांतस्य परित्यागात्स्वहेतोः प्रकृतक्षतेः । निगमांतस्य पक्षस्य त्यागादिति मतं यदि ॥ १०८ ॥ तथा दृष्टांतहानिः स्यात्साक्षादियमनाकुला। . साध्यधर्मपरित्यागाद् दृष्टांते स्वेष्टसाधने ॥ १०९ ॥
यदि भाष्यकार वात्स्यायमका मन्तव्य यों होय कि " न खल्वयं ससाधनस्य दृष्टान्तस्य नित्यत्वं प्रसज्जयनिगमनान्तमेव पक्षं जहाति पक्षं महत् प्रतिज्ञां जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात् पक्षस्पेति " यह साधन बादी हेतुसे सहित हो रहे घट दृष्टान्तके नित्यपनेके प्रसंगको स्वीकार करता हुआ निगमनपर्यन्त ही पक्षको छोड देता है । यही नहीं समझना, किन्तु पक्षका परित्याग करता हुषा प्रतिज्ञाकी हानि कर देता है। क्योंकि पक्षके आश्रयपर प्रतिज्ञा उठी रहती है। पक्षके छूट जानेपर प्रतिज्ञा छूट जाती है। भाष्यकार मानते हैं कि दृष्टान्तका परित्याग होजानेसे अपने हेतुसे प्रकरणप्राप्त साध्यको क्षति हो जाती है। अतः निगमनपर्यन्त पक्षका त्याग हो जानेसे यह प्रतिज्ञाहानि है । अर्थात्-दृष्टान्तकी हानि हो जानेसे प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, पांचोंकी हानि हो जाती है । अब आचार्य कहते हैं कि तब तो साक्षात् आकुलता रहित होती हुई यह दृष्टान्तकी हानि होगी। क्योंकि अपने इष्ट साधनद्वारा साध लिये गये घटरूपी दृष्टान्तमें ही अनित्यत्वरूप साध्य धर्मका परित्याग कर दिया गया है। प्रतिज्ञाका तो त्याग नहीं किया है। अर्थात्-इसको प्रतिज्ञाहानि नहीं कहकर दृष्टान्तहानि कहना चाहिये था।
पारंपर्येण तु त्यागो हेतूपनययोरपि । र उदाहरणहानी हि नानयोरस्ति साधुता ॥ ११ ॥
निगमस्य परित्यागः पक्षबाधेपि वा स्वयं । तथा च न प्रतिज्ञातहानिरेवेति संगतत् ॥ १११ ॥
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यदि भाष्यकारका यह अभिप्राय होय कि साक्षात् रूपसे भले ही यह दृष्टान्तहानि होय किन्तु परम्परासे प्रतिज्ञाका भी त्याग हो चुका है । अतः यह प्रतिज्ञाहानि कही जा सकती है । इस प्रकार कहने पर आचार्य कहते हैं कि यों तो हेतु और उपनयकी हानि भी कही जानी चाहिये क्योंकि उदाहरण ( दृष्टान्त ) की हानि हो जानेपर नियमसे इन हेतु और उपनयकी समीचीनता स्थिर नहीं रहपाती है । प्रतिज्ञास्वरूप पक्षका बाधा हो जानेपर स्वयं निगमनका परित्याग भी हो 1 जाता है । अतः निगमन हानि भी हुई और तिस प्रकार हो जानेपर प्रतिज्ञा किये गये की ही हानि है । इस प्रकार भाष्यकारका एकान्त आग्रह करना संगत नहीं है ।
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पक्षत्यागात्प्रतिज्ञायास्त्यागस्तस्य तदाश्रितेः । पक्षत्यागोपि दृष्टान्तत्यागादिति यदीष्यते ॥ ११२ ॥ हेत्वादित्यागतोपि स्यात् प्रतिज्ञात्यजनं तदा । ततः पक्षपरित्यागाविशेषानियमः कुतः ॥ ११३ ॥
यदि भाष्यकार वात्स्यायन यों इष्ट करें कि पक्षका त्याग हो जानेसे प्रतिज्ञाका भी त्याग हो जाता है। क्योंकि वह उसके आश्रित है, दृष्टान्तका त्याग हो जानेसे पक्षका त्याग भी हो गया है । इसपर आचार्य कहते हैं कि तब तो हेतु, उपनय आदिके त्यागसे भी प्रतिज्ञाका त्याग हो जावेगा । क्योंकि उस हेतु आदिकके त्यागसे पक्षका परित्याग कर देना यहां वहाँ विशेषताओंसे रहित हैं। ऐसी दशा हो जानेसे भाष्यकार द्वारा किया गया नियम कैसे रक्षित रह सकता है ? अर्थात् —जब हेतु आदिकके त्यागसे भी प्रतिज्ञा की हानि सम्भवती है तो पक्षके त्यागसे ही प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान हो जाता है । यह नियम तो नहीं रहा ।
साध्यधर्म प्रत्यनीकधर्मेण प्रत्यवस्थितः प्रतिदृष्टांतधर्म स्वदृष्टांतेनुजानन् प्रतिज्ञां जहातीति प्रतिज्ञाहानिः । यथा अनित्यः शब्दः ऐदियकत्वात् घटवदिति ब्रुवन् परेण दृष्टद्रियकं सामान्यं नित्यं कस्मान्न तथा शद्ध इत्येवं प्रत्यवस्थितः । प्रयुक्तस्य हेतोराभासतामवस्यन्नपि कथावसानमकुर्वन्निश्चयमतिलंध्य प्रतिज्ञात्यागं करोति, यद्यद्रियकं सामान्यं नित्यं कामं घटोपि नित्योस्तु इति । स खल्वयं ससाधनस्य दृष्टांतस्य नित्यत्वं प्रसज्जन्निगमांतमेव पक्षं च परित्यजन् प्रतिज्ञां जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात्पक्षस्येति भाष्यकारमतमालूनविस्तीर्णमादर्शितम् ।
न्यायभाष्यका देख भी है कि साध्यस्वरूप धर्मके प्रतिकूल ( उल्टा ) धर्म करके प्रत्यवस्थानको प्राप्त हुआ वादी यदि प्रतिकूल दृष्टान्तके धर्मको अपने इष्ट दृष्टान्त में स्वीकार करनेकी
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अनुमति दे देता है तो वह अपनी पूर्वमें की गयी प्रतिज्ञाको छोड देता है। इस कारण यह वादीका प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान है। जैसे कि शब्द अनित्य है (प्रतिज्ञा) इन्द्रिय जन्य ज्ञान करके ग्रहण करने योग्य होनेसे ( हेतु ) घटके समान ( अन्वयदृष्टान्त ), इस प्रकार वादी कह रहा है। ऐसी दशामें दूसरे प्रतिवादी करके यों प्रत्यवस्थान दिया गया यानी वादीको प्रतिकूल पक्ष पर अवस्थित करनेके लिये दोष उठाया गया कि नित्य होकर अनेकोंमें समवाय सम्बन्धसे वर्त रहा सामान्य पदार्थ देखो । इन्द्रियनन्य ज्ञान द्वारा देखा जा रहा है। जब यह सामान्य नित्य है तो तिस ही प्रकार शब्द भी नित्य क्यों नहीं हो जावे ! इस प्रकार कटाक्ष युक्त कर दिया गया वादी अपने द्वारा प्रयुक्त किये गये ऐन्द्रियकत्व हेतुके व्यभिचारी हेत्वाभासपनेको जानता हुआ भी वाद कथाके अन्तको नहीं करता हुआ स्वकीय निश्चयका उल्लंघन कर यो प्रतिज्ञाका त्याग कर देता है कि इन्द्रियजन्य ज्ञानसे जाना जा रहा सामान्य यदि नित्य है तो घट भी भले ही नित्य हो जाओ। हमारा क्या बिगडता है ? निश्चयसे इस प्रकार कह रहा सो यह वादी हेतुसे सहित हो रहे दृष्टान्तके निस्यपनका प्रसंग कराता हुआ और निगमन पर्यन्त ही पक्षको छोड रहा संता प्रतिज्ञाका त्याग कर रहा है, यह कहा जाता है, क्योंकि पक्षके आश्रय प्रतिज्ञा है। इस प्रकार भाष्यकार वात्स्यायनका लम्बा चौडा मन्तव्य उक्त ग्रन्थ द्वारा चारों ओरसे छिन मिन्न कर वखेर दिया गया आचार्य महाराजने दिखला दिया है।
प्रतिज्ञाहानिसूत्रस्य व्याख्यां वार्तिककृत्पुनः । करोत्येवं विरोधेन न्यायभाष्यकृतः स्फुटम् ॥ ११४ ॥ दृष्टश्चांते स्थितश्चायमिति दृष्टांत उच्यते । खदृष्टांतः स्वपक्षः स्यात् प्रतिपक्षः पुनर्मतः ॥ ११५॥ प्रतिदृष्टांत एवेति तद्धर्ममनुजानतः । वपक्षे स्यात्प्रतिज्ञानमिति न्यायाविरोधतः ॥ ११६ ॥ सामान्यमैंद्रियं नित्यं यदि शदोपि तादृशः । नित्योस्त्विति बुवाणस्यानित्यत्वत्यागनिश्चयात् ॥ ११७ ॥
न्यायवार्तिक प्रन्थको करनेवाळे " उद्योतकर " पण्डितजी प्रतिज्ञाहानिके प्रतिपादक लक्षणसूत्रकी व्याख्याको न्यायभाष्यकार वात्स्यायनका विरोवकरके यों स्पष्टरूपसे करते हैं । अर्थात्"प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः” इस सूत्रका अर्थ जो न्यायभाष्यकारने किया है, वह ठीक नहीं । किन्तु उसके विरुद्ध इस प्रकार उसका तात्पर्य है कि देखा हुआ होता संता जो
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विचारके अन्तमें स्थित हो रहा है, इस प्रकार यह दृष्टान्त कहा जाता है। अतः दृष्टान्तका अर्थ पक्ष हुआ। स्वदृष्टान्तका अर्थ स्वपक्ष होगा और फिर इसी प्रकार प्रतिदृष्टान्तका अर्थ प्रतिपक्ष ही माना गया। इस प्रकार उस प्रतिपक्षके धर्मको स्वपक्षमें स्वीकार करनेवाले पुरुषके न्यायके विरोधसे जो इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेना है कि इन्द्रियग्राह्य सामान्य यदि नित्य है तो तैसा इन्द्रियप्राह्य होता हुआ शब्द भी नित्य हो जाओ, इस प्रकार कह रहे वादीके शब्दके नित्यस्वकी प्रतिज्ञाका त्याग हो गया है, ऐसा निश्चय है । अर्थात्-शब्दके अनित्यपनकी प्रतिज्ञाको छोड देनेवाळे वादीके प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान मानना चाहिये। भाष्यकारने जो घट भी नित्य हो जाओ, इस प्रकार दृष्टान्तके छोड देमेसे प्रतिज्ञाहानि बतलायी है । वह न्यायसिद्धान्तसे विरुद्ध पडती है ।
इत्येतच न युक्तं स्यादुद्योतकरजाड्यकृत् । प्रतिज्ञाहानिरित्थं तु यतस्तेनावधार्यते ॥ ११८ ॥ सा हेत्वादिपरित्यागात् प्रतिपक्षप्रसाधना । प्रायः प्रतीयते वादे मंदबोधस्य वादिनः ॥ ११९ ॥ कुतचिदाकुलीभावादन्यतो वा निमिचतः ।
तथा तद्वाचि सूत्रार्थो नियमान व्यवस्थितः ॥ १२० ॥
अब आचार्य महाराज कहते हैं कि चिन्तामणिके ऊपर उद्योत नामक टीकाको करनेवाले उद्योतकर का इस प्रकार यह कहना युक्त नहीं है। विचारा जाय तो ऐसा कहना उद्योतकरकी जडताको व्यक्त करनेवाला है । उद्योत करनेवाला चन्द्रमा शीतल जलमय स्वभाववाग है, कविजन "रलयोर्डलयोश्चैव शषयोर्वबयोस्तथा " इस नियमके अनुसार ल और ड का एकत्वारोप कर लेते हैं अतः उद्योतकरमें जडता स्वभावसे प्राप्त हो जाती है। जिस कारणसे कि उस उद्योतकर करके इस ही प्रकारसे प्रतिबाहानिका होना जो नियमित किया जाता है, सो ठीक है। क्योंकि हेतु, दृष्टान्त आदिके परित्यागसे भी वह प्रतिज्ञाहानि हो सकती है । जबतक कि प्रतिवादीद्वारा अपने प्रतिपक्ष की भळे प्रकार सिद्धि नहीं की जायगी, तबतक वादीका निग्रहस्थान नहीं हो सकता है। प्रायः अनेक स्थलोंपर वादमें प्रतीत हो रही है कि मन्दज्ञानवाले वादीकी किसी भी कारणसे आकुलता हो जानेके करण अथवा अन्य किसी भय बादिक निमित्तकारणोंसे तिस प्रकार वह वादी भातुर होकर झट अपनी प्रतिज्ञाको छोडकर विपरीत प्रतिज्ञाको कर बैठता है। ऐसी दशामें नियमसे उनके कहे गये वचनोंमें सूत्रका अर्थ यथार्थ व्यवस्थित नहीं हो सका । आप्तके ही वचन यथार्थ व्यवस्थित हो सकते हैं, अबानियोंके नहीं।
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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manumannamasuminatantnanatantananandamannmenian
___ यथाह उद्योतकरः दृष्टाश्चासावंते च व्यवस्थित इति दृष्टांतः स्वपक्षा, प्रतिदृष्टांत: प्रतिपक्ष प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षभ्यनुजानन् प्रतिज्ञा जहाति । यदि सामान्यमैंद्रियकं नित्यं शब्दोप्येवमस्त्विति तदेतदपि तस्य जाड्यकारि संलक्ष्यते । इत्थमेव प्रतिज्ञाहानेरवधारयितुमशक्तेः । प्रतिपक्षप्रसाधनादि प्रतिज्ञायाः किल हानिः संपद्यते सा तु हेत्वादिपरिः त्यागादपि कस्यचिन्मंदबुद्धर्वादिनो वादे पायेण प्रतीयते न पुनः प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षेभ्युनुजानत एव येनायमेकप्रकारः प्रतिज्ञाहानौ स्यात् । तथा विक्षेपादिभिराकुलीभावात् प्रकृत्या सभाभीरुत्वादन्यमनस्कत्वादेर्वा निमित्तात् । किंचित्साध्यत्वेन प्रतिज्ञाय तद्विपरीतं प्रतिजनिरुपलभ्यत एव पुरुषभ्रांतेरनेककारणत्वोपपत्तेः। ततो नाप्तोपज्ञमेवेदं सूत्रं भाष्यकारस्य वार्तिककारस्य च व्यवस्थापयितुमशक्यत्वात् युक्त्यागमविरोधात् ।
उद्योतकर जो सूत्रका अर्थ इस प्रकार कह रहे हैं कि इष्ट होता हुआ जो वह विचार धर्म कोटिमें व्यवस्थित हो रहा है, इस प्रकार निरुक्ति करनेसे दृष्टान्तका अर्थ स्वकीय पक्ष है। और सूत्रमें कहे गये प्रतिदृष्टान्त शब्दका अर्थ प्रतिपक्षके धर्मकी स्वपक्षमें अच्छी अनुमति करता हुआ वादी प्रतिज्ञाका हान कर देता है कि ऐन्द्रियिक जाति यदि नित्य है तो इस प्रकार शब्द भी नित्य हो जाओ । यहांतक उद्योतकर विद्वान्के कह चुकनेपर, अब आचार्य कहते हैं कि उद्योतकरका यह प्रसिद्ध कहना भी उसके जडपनेको करनेवाला भळे प्रकार दीख रहा है। क्योंकि इस ही प्रकारसे यानी प्रतिपक्षके धर्मका स्वपक्षमें स्वीकार कर लेनेसे ही प्रतिज्ञाहानि हो जानेका नियम नहीं किया जा सकता है । कारण कि प्रतिपक्षकी अच्छी सिद्धि कर देनेसे ही प्रतिज्ञाकी हानिका संपादन होना सम्भवता है । यह हानि तो हेतु आदिके परित्यागसे भी किसी किसी मन्द बुद्धिवाले वादीके प्रायः करके हो रही वादमें प्रतीत हो जाती है। किन्तु फिर प्रतिपक्षके धर्मको स्वपक्षमें स्वीकार कर लेनेसे ही प्रतिज्ञाहानि नहीं है, जिससे कि प्रतिज्ञहानि निग्रहस्थानमें प्रतिपक्षके धर्मको स्वपक्षमें स्वीकार कर लेना यह एक ही प्रकार होय । अर्थात-प्रतिज्ञाहानि अनेक प्रकारसे हो सकती है । तिस प्रकार तिरस्कार, फटकार, गौरव दिखा देना, घटाटोप करना, विक्षेप, आदि करके वादोंके आकुलित . परिणाम हो जानेसे अथवा स्वभावसे ही सभामें भयभीतपनेकी प्रकृति होनेसे या वादीका चित्त इधर इधर अन्य प्रकरणोंमें लग जाने आदि निमित्तोंसे किसी धर्मको साध्यपने रूपसे प्रतिज्ञा कर उस साध्यसे विपरीत धर्मको कुछ देरके लिये स्वीकार करनेकी प्रतिज्ञा कर लेना देखा ही जाता है। क्योंकि पुरुषको भ्रान्तज्ञान होनेके अनेक कारण बन जाते हैं । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि यह गौतम ऋषिका कहा गया सूत्र यथार्थ वक्ता आप्तके द्वारा कहा गया नहीं है। क्योंकि भाष्यकार
और वार्तिककारको अभीष्ट हो रहे सूत्रार्थकी व्यवस्था नहीं की जा सकती है। युक्ति और भागमसे विरोध पाता है। बाघ ज्ञानको उपना कहते हैं, जो त्रिकालत्रिलोकदर्शी सर्वज्ञ देवकी गाम्ना
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तत्वार्थश्लोक वार्तिके
यसे चले आ रहे सूत्र हैं। वे ही युक्ति और आगमसे विरोध नहीं पडने के कारण आप्तोप हैं। अतः प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थानका प्रतिपादक सूत्र और उसका वार्त्तिक या भाष्यमें किया गया व्याख्यान निर्दोष नहीं है ।
अत्र धर्मकीर्तेर्दूषणमुपदर्श्य परिहरन्नाह ।
अब यहां बौद्धगुरु धर्मकीर्तिके द्वारा दिये गये दूषणको दिखलाकर श्री विद्यानन्द आचार्य उस दोषका परिहार करते हुये स्पष्ट व्याख्यान करते हैं, सो सुनिये ।
यस्त्वाद्रियकत्वस्य व्यभिचाराद्विनश्वरे ।
शब्दे साध्ये न हेतुत्वं सामान्येनेति सोप्यधीः ॥ १२१ ॥ सिद्धसाधनतस्तेषां संधाहानेश्च भेदतः । साधनं व्यभिचारित्वात्तदनंतरतः कुतः ॥ १२२ ॥ सास्त्येव हि प्रतिज्ञानहानिर्दोषः कुतश्चन । कस्यचिन्निग्रहस्थानं तन्मात्रात्तु न युज्यते ॥
१२३ ॥
यहां जो धर्मकीर्ति बौद्ध यों कह रहा है कि शब्दको (में) विनश्वरपना साध्य करनेपर ऐन्द्रिकत्व हेतुका सामान्य पदार्थकरके व्यभिचार हो जाने से वह ऐन्द्रियकत्व हेतु समीचीन नही है । व्यभिचारी हेत्वाभास है । इस प्रकार कह रहा वह धर्मकीर्ति भी बुद्धिमान नहीं है । क्योंकियों कहनेपर तो उन मैयायिक विद्वानोंके यहां सिद्धसाधन हो जावेगा । अर्थात् - धर्मकीर्ति के ऊपर नैयायिक सिद्धसाधन दोष उठा सकते हैं । प्रतिज्ञाहानि नामक दोषसे भेद होनेके कारण वादीका हेतु किसी भी कारण से उसके अव्यवहित कालमें व्यभिचारी भी हो जाय तो इसमें नैयायिकों की कोई क्षति नहीं है । एतावता वह प्रतिज्ञाहानि दोष तो किसी न किसी कारणसे है ही । किन्तु कर देना तो युक्ति
• बात यह है कि केवल उस प्रतिज्ञाहानिसे ही किसी भी वादीका निग्रहस्थान
पूर्ण नहीं है ।
येषां प्रयोगयोग्यास्ति प्रतिज्ञानुमितीरणे । तेषां तद्वानिरप्यस्तु निग्रहो वा प्रसाधने ॥ १२४ ॥ परेण साधिते स्वार्थे नान्यथेति हि निश्चितं । स्वपक्षसिद्धिरेवात्र जय इत्याभिधानतः ॥ १२५ ॥
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ખર
बौद्ध जन जब प्रतिज्ञावाक्यका अनुमानमें प्रयोग करना योग्य नहीं मानते हैं, उनके यहां प्रतिज्ञाहानि दोष नहीं सम्भवता है। हां, जिनके यहां अनुमितिके कथन करनेमें प्रतिज्ञा वाक्य प्रयोग करने योग्य माना गया है, उनके यहां उस प्रतिज्ञाकी हानि भी निग्रहस्थान हो जाओ । किन्तु प्रतिवादी अपने पक्षकी सिद्धि करदेना रूप प्रयोजनको प्रकृष्ट रूपसे साधनेपर वादीका निग्रह कर सकता है । जब कि दूसरे प्रतिवादीने स्वकीय सिद्धान्त अर्थकी समीचीन हेतुओं द्वारा साधना कर दी है, तभी प्रतिवादी करके वादीका निग्रह संभव है । अन्यथा नहीं । अर्थात् - प्रतिवादी अपने पक्षको तो नहीं साधे और वादीके ऊपर केवल प्रतिज्ञाहानि उठादे, इतनेसे ही वादीका निग्रह नहीं हो सकता है । यह सिद्धान्त नियमसे निश्चित करलेना चाहिये । क्योंकि स्वकीय पक्षकी सिद्धि कर देनेसे ही यहां जयव्यवस्था मानी गयी है । वस्तुतः स्वपक्षकी सिद्धि कर देना ही जय है । यह श्री अकळंक देव आदि महर्षियोंने कथन किया है।
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गम्यमाना प्रतिज्ञा न येषां तेषां च तत्क्षतिः । गम्यमानैव दोषः स्यादिति सर्वं समंजसम् ॥
१२६ ॥
और जिन विद्वानोंके यहां प्रतिज्ञा गम्यमान मानी गयी है, अर्थात्-शद्वों द्वारा नहीं कही जाकर सामर्थ्य से या अभिप्रायसे प्रतिज्ञा समझली जाती है, उन पण्डितोंके यहां तो उस प्रतिज्ञाकी कोई क्षति ( हानि ) नहीं । जब प्रतिज्ञा गम्यमान है तो उस प्रतिज्ञाकी हानि भी अर्थापत्ति से गम्यमान होती हुई ही दोष होवेगा । इस प्रकार उक्त अकलंक सिद्धान्त स्वीकार करनेपर तो सम्पूर्ण व्यवस्थानीति युक्त बन जाती है । हां, नैयायिक और बौद्धोंके विचारानुसार व्यवस्था तो नीतिमार्ग से बहिर्भूत है ।
न हि वयं प्रतिज्ञाहानिर्दोष एव न भवतीति संगिरामहे अनैकांतिकत्वात् साधनदोषात् पश्चात् तद्भावात् ततो भेदेन प्रसिद्धेः । प्रतिज्ञां प्रयोज्यां सामर्थ्यगम्यां वा वदतस्तद्धानेस्तथैवाभ्युपगमनीयत्वात् सर्वथा तामनिच्छतो वादिन एवासंभवात् केवलमेतस्मादेव निमित्तात् प्रतिज्ञाहानिर्भवति प्रतिपक्षसिद्धिमंतरेण च कस्यचिन्निग्रहाधिकरणमित्येतन्न क्षम्यते तवव्यवस्थापयितुमशक्तेः ।
आचार्य कहते हैं कि प्रतिज्ञाहानि नामका कोई दोष ही नहीं है, इस प्रकार हम प्रतिज्ञापूर्वक अंगीकार नहीं करते हैं । यदि वादी अपनी अंगीकृत प्रतिज्ञाकी हानिको कर देता है, यह उसकी बडी त्रुटी है। वादी तुका दोष अनैकान्तिक हो जानेसे पीछे उस प्रतिज्ञाहानिका सद्भाव हो रहा है । अतः उस प्रतिज्ञाहानिकी उस व्यभिचार दोषसे भिन्नपनकर के प्रसिद्ध है । जो विद्वान् शद्वों द्वारा प्रयोग करने योग्य उच्यमान अथवा शद्वोंसे नहीं कहकर अर्थापत्ति द्वारा सामर्थ्य से गम्य
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तत्त्वार्यशोकवार्तिके
मान कथन कर रहे हैं, उनके यहां उस प्रतिज्ञाकी हानि भी तिप्त ही प्रकार उच्यमान या गम्यमान स्वीकार कर लेनी चाहिये । सभी प्रकारोंसे उस प्रतिज्ञाको नहीं चाहनेवाले वादीका तो जगत्में असम्भव ही है। अब हमको यहां केवल इतना ही कहना है कि केवल इतने छोटे निमित्तसे ही प्रतिबाहानि होती है, और प्रतिवादी द्वारा प्रतिपक्षकी सिद्धि किये विना ही चाहे जिस किसी भी वादीको निग्रहस्थान प्राप्त हो जाय, इस व्यवस्थाको हम जैन नहीं सह सकते हैं। ऐसा अन्धेर नगरीका न्याय हमको अभीष्ट नहीं है । क्योंकि ऐसे पोले या पक्षपातग्रस्त नियमोंसे तत्वोंकी व्यवस्था नहीं करायी जा सकती है । यह पक्की बात है, उसको गाठमें बांध लो।
प्रतिज्ञांतरमिदानीमनुवदति ।
नैयायिकों द्वारा माने गये दूसरे प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थानका श्री विद्यानन्द आचार्य इस समय अनुवाद करते हैं।
प्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थस्य धर्मविकल्पतः ।
योसौ तदर्थनिर्देशस्तत्प्रतिज्ञांतरं किल ॥ १२७ ॥
गौतम सूत्रके अनुसार दूसरे निग्रहस्थानका लक्षण यों है कि प्रतिज्ञा किये जा चुके अर्थका निषेध करनेपर धर्मके विकल्पसे जो वह साध्यसिद्धि के लिये उसके अर्थका निर्देश करना है, वह प्रतिज्ञान्तर नामक निग्रहस्थान सम्भवता है।
प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञांतरं तल्लक्षणसूत्रमनेनोक्तमिदं व्याचष्टे ।
वादी द्वारा प्रतिज्ञात हो चुके अर्थका प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करनेपर वादी उस दूषणकी उद्धार करमेकी इच्छासे धर्मका यानी धर्मान्तरका विशिष्ट कल्प करके उस प्रतिज्ञात अर्थका अन्य विशेषणसे विशिष्टपने करके कथन कर देता है, यह प्रतिज्ञान्तर है । इस कथन करके गौतम ऋषि द्वारा किये गये उस प्रतिज्ञान्तरके लक्षणसूत्रका कथन हो चुका है। इसीका श्री विद्यानन्द आचार्य व्याख्यान करते हैं।
घटोऽसर्वगतो यद्वत्तथा शद्वोप्यसर्वगः । तद्वदेवास्तु नित्योयमिति धर्मविकल्पनात् ॥ १२८ ॥ सामान्येनेंद्रियत्वस्य सर्वगत्वोपदर्शितं । व्यभिचारेपि पूर्वस्याः प्रतिज्ञायाः प्रसिद्धये ॥ १२९॥
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शब्दोऽसर्वगतस्तावदिति सन्धांतरं कृतम् । तच तत्साधनाशक्तमिति भाष्ये न निग्रहः ॥ १३०॥
शब्द अनित्य है ऐन्द्रियिक होमेसे पटके समान, इस प्रकार वादीके कहनेपर प्रतिवादीद्वारा अनित्यपनेका निषेध किया गया । ऐसी दशामें वादी कहता है कि जिस प्रकार घट असर्वगत है, उसी प्रकार शब्द भी अव्यापक हो जाओ और उस ऐन्द्रियक सामान्यके समान यह शब्द भी नित्प हो जालो । इस प्रकार धर्मकी विकल्पना करनेसे ऐन्द्रियिकत्व हेतुका सामान्य नामको धारनेवाली जाति करके व्यभिचार हो जानेपर मी वादीद्वारा अपनी पूर्वकी प्रतिज्ञाकी प्रसिद्धिके लिये शब्दके सर्वव्यापकपना विकल्प दिखलाया गया कि तब तो शब्द असर्वगत हो जाओ । इस प्रकार वादीने दूसरी प्रतिज्ञा की । किन्तु वह दूसरी प्रतिज्ञा तो उस अपने प्रकृत पक्षको साधनेमें समर्थ नहीं है। इस प्रकार भाष्यप्रन्थमें वादीका निग्रह होना माना जाता है । किन्तु यह प्रशस्त मार्ग नहीं है। भावार्थ-दृष्टान्त-घट और प्रतिदृष्टान्त सामान्यके सधर्मापनका योग होनेपर धर्ममेदसे यों विकल्प उठाया जाता है कि इन्द्रियोंसे ग्राह्य सामान्य सर्वव्यापक है, और इन्द्रियों से ग्राह्य घट अल्पदेशी है। ऐसे धर्मविकल्पसे अपनी साध्यकी सिद्धि के लिये वादी दूसरी प्रतिज्ञा कर बैठता है कि यदि घट असर्वगत है, तो शब्द भी घटके समान अव्यापक हो जाओ । इस प्रकार वादीका निन्ध प्रयत्न उसका निग्रहस्थान करा देता है । आचार्य महाराज आगे चलकर इसका निषेध दूसरे ढंगसे करेंगे ।
अनित्यः शब्दः ऐंद्रियकत्वाद्घटवदित्येक: सामान्यमैंद्रियकं नित्यं कस्मान तथा शब्द इति द्वितीयः । साधनस्थानकांविकत्वं सामान्येनोद्भावयति तेन प्रतिज्ञातार्थस्य प्रतिषेधे सति तं दोषमनुदरन् धर्मविकल्पं करोति, सोयं शब्दोऽसर्वगतो घटवदाहोस्वित्सर्वगतः सामान्यवदिति ? यद्यसर्वगतो पटवत्तदा तद्वदेवानित्योस्त्विति ब्रूते । सोयं सर्वगतत्वासर्वगतत्वधर्मविकल्पातदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञांतरं अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञातोऽसर्वगतो अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञाया अन्यत्वात् । तदिदं निग्रहस्थानं साधनसामर्थ्यापरिज्ञानाद्वादिनः । न चोचरपतिज्ञापूर्वप्रतिज्ञां साधयत्यतिप्रसंगात् इति परस्याकृतं ।
__ शब्द ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्य ) बहिरंग इन्द्रियोंद्वारा ग्राह्य होनेसे ( हेतु ) घटके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) इस प्रकार कोई एक वादी कह रहा है । तथा इन्द्रियजन्य ज्ञानोंसे ग्रहण करने योग्य सामान्य यदि नित्य है तो क्यों नहीं शब्द भी तिस ही प्रकार नित्य हो जावे, इस प्रकार दूसरा प्रतिवादी कह रहा है । वह वादीके ऐन्द्रियिकत्व हेतुका सामान्य करके व्यभिचार दोष हो जानेको उठा रहा है। ऐसी दशामें वादीके प्रतिज्ञात अर्थका उस प्रतिवादीद्वारा निषेध हो जाने पर वादी उस व्यभिचार दोषका तो उद्धार नहीं करता है। किन्तु एक न्यारे धर्मके विकल्पको कर
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तत्वार्यकोकवार्तिक
देता है कि जो यह प्रसिद्ध शब्द क्या घटके समान अव्यापक है ? अथवा क्या सामान्य पदार्थके समान सर्वव्यापक है ! इसका तुम प्रतिवादी उत्तर दो । यदि घटके समान शब्द असर्वगत है, तब तो उस घटके समान ही वह शब्द अनित्य हो जाओ, इस प्रकार वादी कह रहा है । आचार्य कहते हैं अथवा भाग्यकार कहते हैं कि सो यह वादी शब्दके व्यापकपन और अव्यापकपन धर्मोके विकल्पसे उस प्रतिवात अर्थका कथन करता है । यह कथन वादीका दूसरी प्रतिज्ञा करना हुषा । क्योंकि शब्द अनित्य है, इस प्रतिज्ञासे अव्यापक अनित्य शब्द है, इस प्रतिज्ञाका भेद है । तिस कारण यह वादीका निग्रहस्थान है। क्योंकि वादीको अपने प्रयुक्त हेतुकी सामर्थ्यका परिज्ञान नहीं है। उत्तरकालमें की गयी दूसरी प्रतिज्ञा तो पहिली प्रतिज्ञाको नहीं साध देती है। यदि ऐसा होने लगे तो अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात्-चाहे जो भिन्न प्रतिज्ञा चाहे जिस साध्यको साध देवेगी और यो शब्दके अनित्यपनकी प्रतिज्ञा पर्वतमें अग्निको भी साध देवे। अतः सिद्ध होता है कि प्रतिज्ञान्तर करना वादीका निग्रहस्थान है। इस प्रकार दूसरे नैयायिक विद्वानोंकी अपने सिद्धान्त अनुसार चेष्टा हो रही है।
अत्र धर्मकीः षणमुपदर्शयति ।
यहाँ प्रतिज्ञान्तरमें धर्मकीर्तिके द्वारा दिये गये दूषणको श्री विद्यानन्द आचार्य निम्नलिखित बार्तिकों द्वारा दिखाते हैं।
नात्रेदं युज्यते पूर्वप्रतिज्ञायाः प्रसाधने । प्रयुक्तायाः परस्यास्तद्भावहानेन हेतुवत् ॥ १३१ ॥ तदसर्वगतत्वेन प्रयुक्तादेंद्रियत्वतः । शद्वानित्यत्वमाहायमिति हेत्वंतरं भवेत् ॥ १३२ ॥ न प्रतिज्ञांतरं तस्य कचिदप्यप्रयोगतः। प्रज्ञावतां जडानां तु नाधिकारो विचारणे ॥ १३३ ॥ विरुद्धादिप्रयोगस्तु प्राज्ञानामपि संभवात् ।
कुतश्चिद्विभ्रमात्तत्रेत्याहुरन्ये तदप्यसत् ॥ १३४ ॥
धर्मकीर्ति बौद्ध कहते हैं कि यहां प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थानमें यह नैयायिकोंका कथन करना युक्त नहीं पड़ता है। क्योंकि पहिली प्रतिज्ञाके द्वारा अच्छा साध्य साधन करनेपर पुनः प्रयुक्त की गयी उत्तरवर्तिनी दूसरी प्रतिज्ञाको उस प्रतिज्ञापनेकी हानि हो जाती है, जैसे कि विरुद्ध
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दूसरे हेतुके प्रयुक्त किये जानेपर पूर्वके हेतुको हेतुपनेकी हानि हो जाती है। हां, बौद्ध अनुमान में प्रतिज्ञाका प्रयोग करना आवश्यक नहीं मानते हैं । यह वादी अपने प्रयुक्त किये गये इन्द्रियज्ञानप्राह्मत्व हेतुसे उस असर्वगतपने करके शद्वके अनित्यत्वपनेको कहता है । इस प्रकार कहने से तो हेत्वन्तर यानी दूसरा हेतु हो जायगा, प्रतिज्ञान्तर तो नहीं हुआ। क्योंकि विचारशालिनी प्रज्ञाको धारनेवाके विद्वानों के यहां प्रतिज्ञा या प्रतिज्ञान्तरका कहीं भी प्रयोग करना नहीं देखा जाता है । जो अर्थापत्ति या सामर्थ्य प्रतिज्ञावाक्यको नहीं समझ सकते हैं, उन जड बुद्धियोंका तो तत्वोंके विचार करने में अधिकार नहीं है। हां, विरुद्ध, व्यभिचार, आदि हेत्वाभासों का प्रयोग करना तो विशिष्ट विद्वानोंके यहां भी किसी एक विभ्रमके हो जानेसे वहां सम्भव जाता है । इस प्रकार कोई अन्य बौद्ध कह रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि उन बौद्धोंका वह कहना भी प्रशंसनीय नहीं है कारण कि:
प्रतिज्ञातार्थसिद्धयर्थं प्रतिज्ञायाः समीक्षणात् ।
भ्रांतैः प्रयुज्यमानायाः विचारे सिद्धहेतुवत् ॥ १३५ ॥ प्राज्ञेोपि विभ्रमाद्ब्रूयाद्वादेऽसिद्धादिसाधनम् । स्वपक्षसिद्धिर्येन स्यात्सत्त्वमित्यतिदुर्घटम् ॥ १३६ ॥
भ्रान्त पुरुषकरके प्रतिज्ञा किये गये पदार्थ की सिद्धिके लिये विचारकोटिमें मुख द्वारा प्रयुक्त की गयी अन्य प्रतिज्ञा भी बोली जा रही देखी जाती है । जैसे कि पूर्वहेतुकी सिद्धिके लिये दूसरा सिद्धहेतु कह दिया जाता है । बुद्धिमान् पुरुष भी कदाचित् विभ्रम हो जानेसे वादमें असिद्ध, विरुद्ध, आदि हेतुको कह बैठेगा । किन्तु जिस हेतु करके स्वपक्षकी सिद्धि होगी, उस हेतुका 1 प्रशस्तपना निर्णीत किया जावेगा । इस कारण बौद्धोंका कहना कथमपि घटित नहीं हो पाता
अत्यन्त दुर्घट है ।
ततो प्रतिपत्तिवत्प्रतिज्ञांतरं कस्यचित्साधनसामर्थ्यापरिज्ञानात् प्रतिज्ञाहानिवत् ।
तिस कारण किसी एक वादीको साधनकी सामर्थ्यका परिज्ञान नहीं होनेसे प्रतिज्ञाहानि के समान प्रतिज्ञान्तर नामक निग्रहस्थानकी प्रतिपत्ति नहीं हो पाती है । अप्रतिपत्तिका अर्थ आरम्भ करने योग्य कार्यको अज्ञानप्रयुक्त नहीं करना या पक्षको स्वीकार कर उसकी स्थापना नहीं करना अथवा दूसरे सन्मुखस्थित विद्वान् के द्वारा स्थापित किये गये पक्षका प्रतिषेध नहीं करना और प्रतिषेध किये जा चुके स्वपक्षका पुनः उद्धार नहीं करना, इतना है । " अविज्ञातार्थ " या अज्ञाननिप्रहस्थानस्वरूप अप्रत्तिपत्तिका अर्थ कर पुनः उपमानमें वति प्रत्यय करना तो क्लिष्ट कल्पना है ।
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तत्वार्थकोकवार्तिके
आगे प्रतिज्ञाहानिवत् पडा ही हुआ है । बात यह है कि बौद्धोंके अनुसार प्रतिज्ञान्तरके निषेधकी व्यवस्था युक्त नहीं है।
तर्हि कथमिदमयुक्तमित्याह ।
किसीका प्रश्न है कि तो आप आचार्य महाराज ही बताओ, यह प्रतिज्ञान्तर किस प्रकार अयुक्त है ! ऐसी विनीत शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
ततोनेनैव मार्गेण प्रतिज्ञांतरसंभवः । इत्येतदेव नियुक्तिस्तद्धि नानानिमित्तकं ॥ १३७ ॥ प्रतिज्ञाहानितश्चास्य भेदः कथमुपेयते । पक्षत्यागविशेषेपि योगैरिति च विस्मयः ॥ १३८ ॥
तिस कारणसे नैयायिकोंने जो मार्ग बताया है, उस ही मार्ग करके प्रतिज्ञान्तर नामका निनहस्थान सम्भवता है, इस प्रकार ही यह आग्रह करना तो युक्तिरहित है। क्योंकि वह प्रतिबान्तर अन्य अनेक निमित्तोंसे भी सम्भव जाता है । हम जैन नैयायिकोंसे पूछते हैं कि आप इस प्रतिबान्तर का प्रतिबाहानि निग्रहस्थानसे मिलपना कैसे स्वीकार करते हैं ! बताओ । जब कि पक्षस्वरूप प्रतिज्ञाका त्याग प्रतिज्ञाहानिमें है और प्रतिज्ञान्तरमें भी कोई अन्तर नहीं है, तो फिर नैयायिकोंकरके प्रतिज्ञान्तर न्यारा निग्रहस्थान मान लिया गया है । इस बातपर हमको बडा आश्चर्य आता है।
प्रतिदृष्टांतधर्मस्य स्वदृष्टांतेभ्यनुज्ञया । यथा पक्षपरित्यागस्तथा संधांतरादपि ॥ १३९ ॥ स्वपक्षसिद्धये यद्वत्संधांतरमुदाहृतं । भ्रांत्या तद्वच्च शरोपि नित्योस्त्विति न किं पुनः ॥ १४०॥ शद्वानित्यत्वसिद्धयर्थं नित्यः शब्द इतीरणं । स्वस्थस्य व्याहतं यद्वत्तथाऽसर्वगशद्ववाक् ॥ १४१ ॥
नैयायिकोंके यहां जिस प्रकार प्रतिकूल दृष्टान्तके धर्मकी स्वकीय दृष्टान्तमें अनुमति देदेनेसे वादीके पक्षका परित्याग ( प्रतिज्ञाहानि ) हो जाता है, उसी प्रकार प्रतिज्ञान्तरसे भी वादीके पक्षका परित्याग हो जाता है । तथा जिस ही प्रकार वादीने अपने पक्षकी सिद्धिके लिये भ्रमके
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वश होकर प्रतिज्ञान्तरका कथन कर दिया है, उस ही के समान वादीने प्रतिज्ञाहानिके अवसर पर शव भी नित्य हो जाओ ऐसा कह दिया है । अतः प्रतिज्ञान्तरको प्रतिज्ञाहानि ही फिर क्यों नहीं मानलिया जाय ! तिसरी बात यह है कि शर्के अनित्यपनकी सिद्धि के लिये स्वस्थ ( विचारशील अपने होशमें विराज रहे ) वादीका जिस प्रकार शब्द नित्य हो जाओ, यह प्रतिज्ञाहानिके अवसर पर कथन करना व्याघात युक्त है, उसी प्रकार प्रतिज्ञान्तरके समय स्वस्थवादीका शब्दके असर्वगतपनेकी दूसरी प्रतिज्ञाका कथन करना मी व्याघातदोषसे युक्त है । अर्थात्-विचारशील विद्वान् वादी न प्रतिज्ञाहानि करता है, और न प्रतिज्ञान्तर करता है। स्थूलबुद्धिवाले अस्वस्थ वादियों की बात न्यारी है । सङ्गतिपूर्वक कहनेवाला पण्डित पूर्वापर विरुद्ध या असंगत बातोंको कह कर बदतोव्याघात दोषसे युक्त हो जाय यह अलीक है।
ततः प्रतिज्ञाहानिरेव प्रतिज्ञांतरं निमित्तभेदात्तद्भेदे निग्रहस्थानांतराणां प्रसंगात् । तेषां तत्रांतर्भावे प्रतिज्ञांतरस्येति प्रतिज्ञाहानावन्तर्भावस्य निवारयितुमशक्तेः।
आचार्य कहते हैं कि तिस कारणसे सिद्ध हुआ कि थोडेसे निमित्तके भेदसे प्रतिज्ञाहानि ही तो प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान हुआ । प्रतिज्ञान्तरको न्यारा निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिये । यदि उन निमित्तोंका स्वल्पभेद हो जानेपर न्यारे न्यारे निग्रहस्थान माने जावेंगे, तब तो बाईस या चौबीस निग्रहस्थानोंसे न्यारे अनेक अनिष्ट निग्रहस्थानोंके हो जानेका प्रसंग हो जावेगा । उन अतिरिक्त निग्रहस्थानोंका यदि उन परिसंख्यात निग्रहस्थानोंमें ही अन्तर्भाव किया जायगा, तब तो प्रतिवान्तर निग्रहस्थानका इस प्रकार प्रतिज्ञाहानिमें अन्तर्भाव हो जानेका निवारण नहीं किया जा सकता है। अतः नैयायिकोंकरके प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थानका स्वीकार करना हम समुचित नहीं समझते हैं।
प्रतिज्ञाविरोधमन्द्य विचारयन्नाह ।
अब श्री विद्यानन्द आचार्य प्रतिज्ञाविरोध नामक तीसरे निग्रहस्थानका अनुवाद कर विचार चलाते हुये कहते हैं।
प्रतिज्ञाया विरोधो यो हेतुना संप्रतीयते । स प्रतिज्ञाविरोधः स्यादित्येतच न युक्तिमत् ॥ १४२ ॥
प्रयुक्त किये गये हेतुके साथ प्रतिज्ञावाक्यका जो विरोध अच्छा प्रतीत हो रहा है, वह प्रतिज्ञाविरोध नामका तीसरा निग्रहस्थान होगा । किन्तु यह नैयायिकोंका कथन युक्तिसहित नहीं है।
" प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोध" इति सूत्रं । यत्र प्रतिज्ञा हेतुना विरुध्यते हेतुश्च प्रतिज्ञायाः स प्रतिज्ञाविरोधो नाम निग्रहस्थानं, यथा गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं भेदेनाग्रहणादिति न्यायवार्तिकं । तच्चन युक्तिमत् ।
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रतिज्ञावाक्य और वाक्यका विरोध हो जाना प्रतिज्ञाविरोध है । इस प्रकार गौतम ऋषिका बनाया हुआ न्यायदर्शनका सूत्र है। जहां हेतुकरके प्रतिज्ञाका विरोध हो जाय और प्रतिज्ञासे हेतु विरुद्ध पड जाय वह प्रतिज्ञाविरोध नामका निग्रहस्थान है। जैसे कि द्रव्य पक्ष ) गुणोंसे मिन्न है ( साध्य ), क्योंकि भिन्नपनेसे ग्रहण नहीं होता है ( हेतु ) । अर्थात् - द्रव्य से गुणभिन्न प करके नहीं दीखता है । इस प्रकार न्यायवार्त्तिक ग्रन्थ है । यहां द्रव्यसे गुण भिन्न है, इस प्रतिज्ञाका गुण और द्रव्यका भिन्न भिन्न ग्रहण नहीं होना इस हेतुके साथ परस्पर में विरोध है । अतः वादीको " प्रतिज्ञाविरोध " निग्रहस्थान प्राप्त हुआ । किन्तु यह न्यायवार्त्तिकका कथन युक्तियों सहित नहीं है ।
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प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञात्वे हेतुना हि निराकृते । प्रतिज्ञाहानिरेवेयं प्रकारांतरतो भवेत् ॥ १४३ ॥
आचार्य कहते हैं कि जब विरुद्ध हेतुकरके प्रतिज्ञाका प्रतिज्ञापन निराकृत हो चुका है, तो यह एक दूसरे प्रकारसे प्रतिज्ञाहानि ही हो जावेगी । न्यारा निग्रहस्थान नहीं ठहरा । द्रव्यं भिन्नं गुणात्स्वस्मादिति पक्षेभिभाषिते । रूपाद्यर्थांतरत्वेनानुपलब्धेरितीर्यते ॥ १४४ ॥ न हेतुतस्तेनासंदेहं भेदसंगरः ।
तदभेदस्य निर्णीतेस्तत्र तेनेति बुध्यताम् ॥ १४५ ॥
भाकर कहते हैं कि यदि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिर्नोपपद्यते, अथ रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिः । गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यमिति नोपपद्यते, गुणव्यतिरिक्तञ्च द्रव्यं रूपादिभ्यश्वार्थान्तरस्यानुपलब्धिरिति विरुध्यते व्याहन्यते न सम्भवतीति " | द्रव्य ( पक्ष ) अपने गुणोंसे मिन्न है ( साध्य ), क्योंकि रूप, रस, आदि गुणोंसे भिन्न अर्थपने करके द्रव्यकी उपलब्धि नहीं हो रही है । इस प्रकार वादीद्वारा पक्षका कथन कर चुकनेपर यों कहा जाता है कि यदि हेतुकी रक्षा करते हो तो गुणभेदस्वरूप साध्यकी रक्षा नहीं बन सकती है । और यदि साध्यकी रक्षा करते हो तो रूपादिकसे मिन्नकी अनुपलब्धि होना यह हेतु नष्ट हुआ जाता है। जिस कारण से कि हेतु व्यवस्थित है, उससे भेद सिद्ध करने की प्रतिज्ञा निस्सन्देह नष्ट हो जाती है। क्योंकि वहां उस हेतुकरके द्रव्य के साथ उन गुणोंके अभेदका निर्णय हो रहा है, यह समझ लेना चाहिये ।
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तोर्विरुद्धता वा स्याद्दोषोयं सर्वसंमतः ।
प्रतिज्ञादोषता त्वस्य नान्यथा व्यवतिष्ठते ॥ १४६ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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eenner
अथवा यह हेतुका विरुद्धता नामक दोष है, जो कि सभी वादियोंके यहां मले प्रकार मान लिया गया है। आप नैयायिकोंके यहां भी विरुद्धहेत्वाभास माना गया है। इस प्रतिज्ञाविरोधको अन्य प्रकारों से प्रतिज्ञासम्बन्धी दोषपना तो नहीं व्यवस्थित होता है। अर्थात्-यह हेतुका विरुद्ध नामक दोष है । प्रतिज्ञाका दोष नहीं है । हेत्वाभासोंकी निग्रहस्थानोंमें गणना करना क्लुप्त है। फिर " प्रतिज्ञाविरोध" नामका तीसरा निग्रहस्थान व्यर्थ क्यों माना जा रहा है!
यदपि उद्योतकरेणाभ्यधायि एतेनैव प्रतिज्ञाविरोधोप्युक्तः, यत्र प्रतिज्ञा स्ववचनेन विरुध्यते यथा “ श्रमणा गर्भिणी" नास्त्यात्मेति वाक्यांतरोपप्लवादिति, तदपि न युक्तमित्याह ।
__जो भी वहां उद्योतकर पण्डितने यह कहा था कि इस उक्त कथन करके ही प्रतिवाविरोध नामक निग्रहस्थान भी कहा जा चुका है। जहां अपने वचन करके ही अपनी प्रतिज्ञा विरुद्ध हो जाती है। जैसे कि " तपस्विनी या दीक्षिता स्त्री गर्भवती है " " अपना आत्मा नहीं है।" "मैं चिल्लाकर कह रहा हूं कि मैं चुप हूं" इत्यादिक प्रयोग स्वकीय वचनोंसे ही विरुद्ध पड जाते हैं। जो तपस्विनी है, वह पुरुष संयोग कर गर्भ धारण नहीं कर सकती है और जो गर्भधारणा कर रही है, वह तपस्विनी नहीं है । गर्भधारणके पश्चात् वैराग्य हो जाय तो भी उस स्त्रीको बालक प्रसव और शुद्धि होनेके पीछे ही दीक्षा दी जा सकती है । तपस्या करती हुयी भ्रष्ट होकर यदि गर्भिणी हो जायगी तब तो उसकी तपस्या अवस्था ही नष्ट होगई समझी जायगी। यो प्रतिज्ञाविरोधके लक्षणमें जहां प्रतिज्ञा स्ववचनसे विरुद्ध हो जाय वहां इतना अन्य वाक्यका उपस्कार करना चाहिये । यहांतक उद्योतकर कह चुके । अब प्राचार्य कहते हैं कि वह कहना भी उयोतकरका युक्तिसहित नहीं है । इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा स्पष्ट कहते हैं।
प्रतिज्ञा च स्वयं यत्र विरोधमधिगच्छति ।
नास्त्यात्मेत्यादिवत्तत्र प्रतिज्ञाविधिरेव न ॥ १४७ ॥ जिस प्रकरणमें अपने वचनकरके ही धर्म और धर्मीका समुदाय वचनस्वरूप प्रतिज्ञा स्वयं विरोधको प्राप्त हो जाती है जैसे कि कोई जीव यों कह रहा है कि आत्मा नहीं है, अथवा एक पुरुष यों कहता है कि मेरी माता बन्ध्या है, या कोई पुत्र यों कहे कि मैं किसी भी मां, बापका अपत्य नहीं हूं इत्यादिक प्रतिज्ञायें स्वयं विरोधको प्राप्त हो रही हैं। उन प्रकरणोंमें सच पूछो तो प्रतिबाकी विधि ही नहीं हुई है । अर्थात्-स्ववचनोंसे बाधित हो रहे प्रतिज्ञा वाक्यके स्थळपर बादी स्वयं अपनी प्रतिबाकी हानि कर बैठता है।
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तत्वार्यशोकवार्तिके
तद्विरोषोद्भावनेन त्यागस्यावश्यंभावित्वात् । स्वयमत्यागानेयं प्रतिज्ञाहानिरिति चेत् न, तद्विरुद्धत्वप्रतिपसेरेव न्यायबलात्यागरूपत्वात् । यत्किचिदवदतोपि प्रतिज्ञाकृत्तिसिद्धेवदतोपि दोषत्वेनैव तत्त्यागस्य व्यवस्थितेः।
कारण कि प्रतिवादीके द्वारा उस वादीकी प्रतिज्ञामें विरोध दोष उठादेनेसे वादीको प्रतिज्ञाका त्याग अवश्य ही हो जावेगा। अतः प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थान तो प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान ही ठहरा । यदि यहां कोई यों कहे कि प्रतिवादीके द्वारा विरोध दोष उठा देनेपर वादीने स्वयं कंठोक्त तो अपनी प्रतिज्ञाकी हानि नहीं की है। हां, वादी खयं प्रतिज्ञाका त्याग कर देता तब तो प्रतिज्ञाहानिमें प्रतिज्ञाविरोधका अन्तर्भाव हो जाता, अन्यथा नहीं। अतः यह प्रतिज्ञाहानि नहीं है । अब आचार्य महाराज कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि प्रतिवादी करके विरोध दोष उठानेपर वादीको उस स्वकीय प्रतिज्ञा वाक्यके विरुद्धपनेका मनमें निर्णय हो जाना ही तो न्यायमार्गकी सामर्थ्य से प्रतिज्ञाका त्याग करदेना स्वरूप है । स्ववचनविरुद्ध वाक्यको वादीने कहा, प्रतिवादीने विरोध उठाया, ऐसी दशामें वादी यदि कुछ भी नहीं कहकर चुप बैठ गया है, अपनी प्रतिज्ञाका विरोध स्वमुखसे स्वीकार नहीं करता है तो भी उस वादीकी प्रतिज्ञाका छेद हो जाना सिद्ध हो जाता है (कृती छेदने )। हा, यदि वादी जो कुछ भी अण्ट सण्ट पुनः बक रहा है तो भी वादीके कथनका दोषसहितपना हो जाने करके ही उस प्रतिज्ञाके त्यागकी व्यवस्था करदी जाती है । अतः कथंचित् अल्पीयान् अन्तरके होनेपर भी प्रतिज्ञाहानिसे प्रतिज्ञाविरोधको न्यारा निग्रहस्थान मानना समुचित प्रतीत नहीं होता है।
___ यदपि तेनोक्तं हेतुविरोधोपि प्रतिज्ञाविरोध एव एतेनोक्तो यत्र हेतुः पतिज्ञया बाध्यते यथा सर्व पृथक् समूहे भावशदप्रयोगादिति, तदपि न साधीय इत्याह ।
तथा उस उद्योतकर पण्डितजीने यह भी कहा था कि इस पूर्वोक्त कथन करके हेतुका विरोध होना भी प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थान ही कह दिया गया समझ लेना, अर्थात्-हेतुविरोधको न्यारा निग्रहस्थान नहीं मानकर प्रतिज्ञाविरोधमें ही उसका अन्तर्माव कर लेना चाहिये । जिस प्रकरणमें प्रतिज्ञा वाक्य करके हेतुवाक्य बाधित हो जाता है, जैसे कि सम्पूर्ण पदार्थ (पक्ष) पृथक् पृथक् हैं (साध्य), समुदायमें माव या पदार्थशद्वका प्रयोग होनेसे ( हेतु ) इस अनुमानमें पृथग्मावको साध रही प्रतिज्ञाकरके भाव शब्द द्वारा समुदायका कथन करनारूप हेतु विरुद्ध पडता है। अर्थात्-पदार्थाका अमिश्रण साधलेनेपर पुनः उनका मिश्रण कथन करना विरुद्ध है । यह भी एक ढंगसे वादीका प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थान हुआ ठहरा । माता, पिताके, पाप जैसे कुछ सन्तानको भुगतने पडते हैं, वैसे हेतुके दोष भी प्रतिज्ञापर आ गिरते हैं । अब श्री विषानन्द आचार्य कहते हैं कि उद्योतकरका वह कहाना भी बहुत अच्छा नहीं है। इस बातका प्रन्यकार वार्तिक द्वारा स्पष्ट निरूपण करते हैं सो सुनिये ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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हेतुः प्रतिज्ञया यत्र बाध्यते हेतुदुष्टता।
तत्र सिद्धान्यथा संधाविरोधोतिप्रसज्यते ॥ १४८ ॥ ..
हेतु जहाँ प्रतिज्ञा करके बाधित कर दिया जाता है, वहां हेतुका दुष्टपना सिद्ध है । भला प्रतिज्ञा तो दूषित नहीं हो सकती है । निर्दोषको व्यर्थमें दोष लगाना सर्वथा बन्याय है । अन्यथा चाहे निसके दोषको चाहे जिस किसीके माथे यदि मढ दिया जायगा तो प्रतिज्ञाविरोधका भी अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात्- प्रतिज्ञाविरोधको भी हेतुविरोधमें गर्भित कर सकते हैं । या दृष्टान्त, उपनय, निगमनके, विरोधदोष भी निर्दोष प्रतिज्ञापर चढ बैठेंगे। यों तो प्रतिज्ञाविरोधका क्षेत्र बहुत बढ जायगा । कई निग्रहस्थान इसीमें समा जायेगे।
सर्व पृथक्समुदाये भावशद्वप्रयोगतः । इत्यत्र सिद्धया भेदसंधया यदि बाध्यते ॥ १४९ ॥ हेतुस्तत्र प्रसिद्धेन हेतुना सापि बाध्यता । प्रतिज्ञावत्परस्यापि हेतुसिद्धेरभेदतः ॥ १५० ॥ भावशदः समूहं हि यस्यैकं वक्ति वास्तवं । तस्य सर्वं पृथक्तत्त्वमिति संधाभिहन्यते ॥ १५१ ॥
सम्पूर्ण पदार्थ न्यारे न्यारे हैं, ( प्रतिज्ञा)। क्योंकि समुदायमें भाव शद्बका प्रयोग होता है। इस प्रकार इस अनुमानमें प्रसिद्ध हो रही भेदसिद्धिकी प्रतिवाकरके यदि समुदायमें माव शद्बका बोला जाना यह हेतु बाधित कर दिया जाता है, तो प्रमाणोंसे सिद्ध हो रहे हेतुकरके वह प्रतिज्ञा भी बाधित कर दी जाओ । क्योंकि पदार्थोको मिन्न मिन्न साध रही प्रतिज्ञाकी सिद्धि जैसे नैयायिकोंके यहां प्रमाणसे हो रही है, उसीके समान दूसरे अद्वैतवादियोंके यहां अथवा परसंग्रहनयकी अपेक्षा जैनोंके यहां मी पदार्थोके समुदायरूप हेतुकी प्रमाणोंसे सिद्धि हो रही है । कोई भेद (विशेषता ) नहीं है । अथवा समुदायको साधनेपर पदार्थोके पृथग्भाव इस हेतुकरके समुदायको साधनेवाली प्रतिज्ञाका विरोध हो जाता है। एक बात यह भी है, जैनेंद्री नीतिके अनुसार कथंचित् शन्द लगा देनेसे पृथग्भाव करके समुदायका कोई विरोध नहीं पडता है । यह अतिप्रसंग हुआ । अतः उद्योतकरका कहना प्रशस्त नहीं है । जिस अद्वैतवादीके यहां मावशब्द या सत् शब्द वस्तुभूत एक समुदायको कह रहा है, उसके यहां सम्पूर्ण तत्व पृथक् पृथक् हैं । इस प्रकारकी प्रतिज्ञा चारों ओरसे नष्ट हो जाती है। अतः प्रसिद्ध हेतुकरके प्रतिज्ञाका बाधा प्राप्त हो जाना भी प्रतीतिसिद्ध है।
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
विरुद्धसाधनाद्वायं विरुद्ध हेतुरागतः । समूहावास्तवे हेतुदोषो नैकोपि पूर्वकः ॥ १५२ ॥ सर्वथा भेदिनो नानार्थेषु शब्दप्रयोगतः । प्रकल्पितसमूहेष्वित्येवं हेत्वर्थनिश्वयात् ॥ १५३ ॥ तथा सति विरोधोयं तद्धेतोः संध्या स्थितः । संधाहानिस्तु सिद्धेयं हेतुना तत्प्रबाधनात् ॥ १५४ ॥
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अथवा यह वादी द्वारा कहा गया हेतु प्रतिज्ञासे विरुद्ध साध्यको साधनेवाला होनेसे विरुद्ध स्वाभास है, यह बात आयी । अतः प्रतिवादी करके वादीके ऊपर विरुद्ध हेत्वाभास उठाना चाहिये । बौद्धजन समुदायको वास्तविक नहीं मानते हैं । उनके यहां संतान, समुदाय, अवयवी ये सब कल्पित माने गये हैं । नैयायिक, जैन, मीमांसक, विद्वान् समुदायको वस्तुभूत मानते हैं । ऐसी दशा में हमारा प्रश्न है कि वादीकर के कहे गये हेतुमें पडा हुआ समुदाय क्या वास्तविक है ? अथवा कल्पित है ! बताओ । यदि समुदायको अवास्तविक कल्पित माना जायगा, तब तो पूर्ववर्त्ती एक भी हेतुका दोष वादीके ऊपर लागू नहीं होता है । क्योंकि सौत्रान्तिक बौद्धों के यहां सम्पूर्ण पदार्थ सर्वथा भेदसे सहित हो रहे हैं । उनके यहां मिथ्यावासनाओं द्वारा अच्छे ढंगसे कल्पना कर लिये गये समूहस्वरूप वास्तविक भिन्न मिन अनेक अर्थों में भावशब्दका प्रयोग हो रहा है । इस प्रकार हेतुके अर्थका निश्चय हो जानेसे कोई दोष नहीं जाता है। हां, यदि समुदाय वास्तविक पदार्थ है, तैसा होनेपर यह उस हेतुका प्रतिज्ञावाक्य करके विरोध हो जाना स्थित होगया। हां, यह प्रतिज्ञाहानि तो सिद्ध है । क्योंकि हेतुकरके उस प्रतिज्ञावाक्यकी अच्छे ढंगसे बाधा हो चुकी है । अतः हेतुविरोधको ही प्रतिज्ञाविरोध कहना ठीक नहीं है ।
यदप्यभिहितं तेन, एतेन प्रतिज्ञया दृष्टांतविरोधो वक्तव्यो हेतोश्च दृष्टांतादिभिर्विरोधः प्रमाणविरोधश्च प्रतिज्ञाहेत्वोर्यथा वक्तव्य इति, तदपि न परीक्षाक्षममित्याह ।
और भी जो उन उद्योतकर पण्डितजीने कहा था कि इस पूर्वोक्त विचारके द्वारा प्रतिज्ञा करके दृष्टान्तका विरोध भी कहना चाहिये । और हेतुका दृष्टान्त, उपनय, इत्यादि करके विरोध भी कह देना चाहिये । तथा अन्य प्रमाणोंसे बाधा प्राप्त हो जाना भी वक्तव्य है । जैसे कि प्रतिज्ञा और हेतुका विरोध कथन करने योग्य है, उसी प्रकार अन्य विरोध भी वक्तव्य हैं । सूत्रोक्त प्रमेय से जहां अधिक बात कहनी होती है, वहां वक्तव्यं, वाध्यं, इष्यते, या उपसंख्यानं, ऐसे प्रयोग
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छाये जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि वह उद्योतकरका कहना भी परीक्षा भारको सहन करने में समर्थ नहीं है । इसीको ग्रन्थकार वार्तिक द्वारा स्पष्ट कहते हैं ।
दृष्टान्तस्य च यो नाम विरोधः संघयोदितः । साधनस्य च दृष्टान्तप्रमुखैर्मानवाधनम् ॥ १५५ ॥ प्रतिज्ञादिषु तस्यापि न प्रतिज्ञाविरोधता । सूत्रारूढतयोक्तस्य भांडालेख्यनयोक्तिवत् ॥ १५६ ॥
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दृष्टान्तका प्रतिज्ञा करके और भी जो कोई विरोध कहा गया है तथा दृष्टान्त प्रभृतिकर के हेतुका विरोध कहा गया है, एवं प्रतिज्ञा आदिकोंमें प्रमाणोंके द्वारा बाधा या विरोध आ जाना निरूपण किया है, उसको भी " प्रतिज्ञाविरोध - निग्रहस्थानपना " नहीं है । क्योंकि गौतम सूत्रमें प्रतिज्ञा और हेतुके विरोधको प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान रूपसे आरूढपने करके कहा गया है । जैसे कि मिट्टी पाषण या धातुके बने हुये बर्तन भाण्डों में जो प्रथमसे उकेर दिया जाता है, वह चिरकाल तक स्थिर रहता है, इस नीतिके कथन समान सूत्रमें आरूढपने करके कहे गये तत्वको ही प्रतिज्ञाविरोध में लेना चाहिये, अधिकको नहीं ।
प्रतिज्ञानेन दृष्टांतबाधने सति गम्यते ।
तत्प्रतिज्ञाविरोधः स्याद् द्विष्ठत्वादिति चेन्मम् ॥ १५७ ॥ हंत हेतुविरोधोपि किं नैषोभीष्ट एव ते । दृष्टांतादिविरोधोपि हेतोरेतेन वर्णितः ॥ १५८ ॥
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यदि उद्योतकरका यह मन्तव्य होय कि प्रतिज्ञा करके दृष्टान्तकी बाधा हो जानेपर स्वयं अर्थापत्ति से यह जान लिया जाता है कि वह प्रतिज्ञाविरोध है । तिस कारण दृष्टान्तविरोध, प्रमाविरोधको प्रतिज्ञाविरोधमें ही वक्तव्य कहा गया है । क्योंकि विरोध पदार्थ दोमें ठहरता है । दृष्टान्त और प्रतिज्ञाका विरोध तो दृष्टान्त और प्रतिज्ञा दोनों में समाजाता है । अतः दृष्टान्तविरोधको " प्रतिज्ञाविरोध कह सकते हैं । साझेकी दूकानका आधिपत्य एक व्यक्तिके लिये भी व्यवहृत हो जाता है । इस प्रकार उद्योतकरका मन्तव्य होनेपर तो आचार्य महाराज कहते हैं कि हमको खेदके साथ कहना पडता है कि यह हेतुविरोध भी तुम्हारे यहां क्यों अभीष्ट कर लिया गया है । तथा हेतुका दृष्टान्त आदिके साथ विरोध भी स्वतंत्र रूप से न्यारा निग्रहस्थान क्यों नहीं मान किया गया है । इस कथनसे यह भी वर्णनायुक्त ( कथित ) कर दिया गया है । जब कि प्रतिज्ञा-
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हानि, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञान्तर इनको योडाप्ता अन्तर हो जानेसे ही न्यारा निग्रहस्थान मान लिया गया है, तो प्रतिज्ञाविरोधके समान हेतुविरोध, दृष्टान्तविरोधको, स्वतंत्र निग्रहस्थान मान लेना चाहिये ।
निग्रहस्थानसंख्यानविघातकृदयं ततः। यथोक्तनिग्रहस्थानेष्वंतर्भावविरोधतः ॥ १५९ ।।
और तैसा होने से यह कई निग्रस्थानोंका बढ़ जाना तुम्हारे अभीष्ट हो रहे निग्रहस्थानोंकी नियत संख्याका विधात करनेवाला होगा। क्योंकि नैयायिकोंकी आम्नाय अनुसार कहे गये निग्रहस्थानोंमें अन्तर्भाव हो जानेका तो विरोध है । अथवा हेतुविरोध, दृष्टान्तविरोध, आदिका यदि प्रतिज्ञाविरोधमें गर्म किया जायगा तो प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञासंन्यास, इनका भी प्रतिज्ञाहानिमें अन्तर्भाव कर लेनेसे कोई विरोध नहीं पड़ता है।
प्रत्यक्षादिप्रमाणेन प्रतिज्ञाबाधनं पुनः। प्रतिज्ञाहानिरायाता प्रकारांतरतः स्फुटम् ॥ १६० ॥ निदर्शनादिबाधा च निग्रहांतरमेव ते ।
प्रतिज्ञानश्रुतेस्तत्राभावात्तद्वाधनात्ययात् ॥ १६१ ॥
यदि फिर प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंकरके प्रतिज्ञाकी बाधाको प्रतिज्ञाविरोध कहा जायगा, तब तो यह सर्वथा स्पष्टरूपेण एक दूसरे प्रकारसे प्रतिज्ञाहानि ही कही गयी आयी । प्रतिज्ञा विरोधको न्यारा दूसरे निग्रहस्थान माननेपर तो दृष्टान्त विरोध, हेतुविरोध, उपनयविरोध, निगमन विरोध, प्रत्यक्षविरोध, अनुमानविरोध, आदिक भी तुम्हारे यहां न्यारे न्यारे ही निग्रहस्थान मानने पडेंगे । प्रतिकूल ज्ञानके श्रवणका वहां अभाव है । अतः उन दृष्टान्तविरोध आदि निग्रहस्थानोंके अवसरपर उनके बाधा प्राप्त होनेके अभाव है।
पदप्यवादि तेन परपक्षसिद्धेन गोत्वादिनानैकांतिकचोदनाविरुद्धति यः परपक्षसिदेन गोत्वादिना व्यभिचारयति तद्विरुद्धमुत्रं वेदितव्यम् । अनित्यः शद्धः ऐंद्रियकत्वात् घटवदिति केनचिद्रौद्धं प्रयुक्तं, नैयायिकसिद्धन गोत्वादिना सामान्यन हेतोरनैकांतिकत्वचोदना हि विरुद्धमुत्सरं सौगतस्यानिष्टसिद्धेरिति । तदपि न विचाराईमित्याह ।
और भी उस उद्योतकरने जो यह कहा था कि दूसरे नैयायिक या वैशेषिकोंके पक्षमें प्रसिद्ध हो रहे गोत्व, घटाव, अश्वत्व, आदि नित्य जातियों करके व्यभिचारी हेत्वाभासपनेका कुचोद्य उठाना
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तो विरुद्ध है । इसका अर्थ यो है कि जो दूसरोंके पक्षपातसे आक्रान्त दर्शन में प्रसिद्ध हो रहे गोव, महिषत्व आदि नित्य सामान्यों करके हेतुका व्यभिचार उठा रहा है, वह उसका उत्तर विरुद्ध समझ लेना चाहिये | किसी मळे ममुष्यने बौद्धोंके प्रति यों कहा कि शब्द ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्य ), ऐन्द्रियकपना होनेसे ( हेतु ) घटके समान ( दृष्टान्त ) यों कह चुकनेपर नैयायिकों के यहां प्रसिद्ध हो रहे गोत्व आदि सामान्य करके ऐन्द्रियकत्व हेतुके व्यभिचारीपनकी कुतर्कणा उठाना तो नियमसे बौद्धोंका विरुद्ध उत्तर है । क्योंकि बौद्धोंको इससे अनिष्टकी सिद्धि हो जावेगी । बौद्धजन घटके समान सामान्यको मी अनित्य माननेके लिये संनद्ध हैं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार उद्योतकरका वह कहना भी विचार करनेमें योग्य नहीं ठहरता है । इस बातको ग्रन्थकार स्पष्ट कर कहते हैं ।
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गोत्वादिना स्वसिद्धेन यानैकांतिकचोदना । परपक्षविरुद्धं स्यादुचरं तदिहेत्यपि ॥ १६२ ॥ न प्रतिज्ञाविरोधेंतर्भावमेति कथंचन ।
स्वयं तु साधिते सम्यग्गोत्वादो दोष एव सः ॥ १६३ ॥ निराकृतौ परेणास्यानैकांतिकसमानता ।
हेतोरेव भवेचावत् संधादोषस्तु नेष्यते ॥ १६४ ॥
बैलपना, सिंहत्व, आदिक जातियां स्वकीय पक्षके अनुसार बौद्धोंके यहां अनित्यं मानी जा रही हैं । अतः अपने यहां सिद्ध हो रहे गोत्व आदिक करके जो व्यभिचारीपनका चोच उठाया जायगा वह उत्तर भी तो यहां दूसरोंके पक्षसे विरुद्ध पडेगा, अतः वह व्यभिचार दोष किसी भी प्रकारसे प्रतिज्ञा बिरोधनामक निग्रहस्थान में अन्तर्भावको प्राप्त नहीं हो सकता है। हां, स्वयं अपने यहां मले प्रकार गोत्व, अश्त्रत्व, आदिके साध चुकनेपर तो वह दोष ही है । किन्तु दूसरे प्रतिवादी करके इस वादीके पक्षका निराकरण कर देनेपर वह हेतुका ही अनैकान्तिक हेत्वाभासपना दोष होगा । फिर प्रतिज्ञाका तो दोष वह कथमपि नहीं माना जा सकता है ।
यदप्यभाणि तेन, स्वपक्षानपेक्षं च तथा यः स्वस्वपक्षांनपेक्षं हेतुं प्रयुंक्ते अनित्यः शद्र ऐंद्रियकत्वादिति स स्वसिद्धस्य गोत्वादेरनित्यत्वविरोधाद्विरुद्ध इति । तदप्यपेशतमित्याह ।
और भी जो उस उद्योतकर महाशयने कहा था कि " स्वपक्षानपेक्षं है कि था जो नैयायिक अपने निजपक्षकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले हेतुका
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च "
इसका अर्थ यह प्रयोग करता है, जैसे
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कि इन्द्रियजन्य ज्ञान द्वारा ग्राह्य होनेसे शब्द अनित्य है । इस प्रकार अपने नैयायिक या वैशेषिक के मत में प्रसिद्ध हो रहे गोत्व, अश्वत्व, आदि जातियोंके अनित्यपनका विरोध हो जानेसे वह हेतु विरुद्ध है । भावार्थ – कोई नैयायिक व्यभिचारस्थल में पडे हुये अपने अभीष्ट नित्य सामान्यकी अपेक्षा नहीं कर यों समझता हुआ कि बौद्धके यहां तो सामान्यको अवस्तु या अनित्य माना गया है । यदि बौद्धके प्रति ऐन्द्रियकत्व हेतुसे शद्वका अनित्यपना सिद्ध करने लगे तो भी नैयायिकका हेतु विरुद्ध पड जायगा | क्योंकि नैयायिक या वैशेषिकों के यहां जातियोंके अनित्यपनका विरोध है । इस प्रकार उद्योतकरका अभिप्राय है। आचार्य कहते हैं कि उनका वह कहना मी चातुर्यपूर्ण नहीं है । इसको वार्त्तिककार स्वयं स्पष्ट कर कह देते हैं ।
तावैन्द्रियकत्वे तु निजपक्षानपेक्षिणि ।
स प्रसिद्धस्य गोत्वादेरिति तत्त्वविरोधतः ।। ९६५ ।। स्याद्विरोध इतीदं च तद्वदेव न भिद्यते । अनैकांतिकतादोषात्तदभावाविशेषतः ॥ १६६ ॥
अपने पक्षकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले ऐन्द्रियकत्व देतुके होनेपर तो नैयायिकको विरोध दोष लागू होगा। क्योंकि उसके यहां प्रसिद्ध हो रहे गोत्व आदि सामान्यको उस अनित्यपनका विरोध है । अतः वह हेतु प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थानका प्रयोजक होगा, इस प्रकार उद्योतकरका अभिप्राय हमको प्रशस्त नहीं जचता है । घूम, व्यापकपन आदिको साधने के लिये दिये गये अग्नि, प्रमेयस्व, आदि प्रसिद्ध व्यभिचारी हेत्वाभासों के समान यह ऐन्द्रियकत्व हेतुके ऊपर उठाया गया विरुद्ध दोष तो अनैकान्तिक दोषसे भिन्न नहीं माना जाता है । क्योंकि हेतुके ठहर जानेपर उस साध्यके नहीं ठहरनेकी अपेक्षा यहां कोई विशेषता नहीं है। अतः इसको प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान नहीं मानकर क्लृप्त आवश्यक दोष रूप से माने गये ) अनैकान्तिक दोषमें अन्तर्भाव करलेना चाहिये । वादीतरप्रतानेन गोत्वेन व्यभिचारिता । हेतोर्यथा चैकतरसिद्धेनासाधनेन किम् ॥ १६७ ॥ प्रमाणेनाप्रसिद्धौ तु दोषाभावस्तदा भवेत् । सर्वेषामपि नायं विभागो जडकल्पितः ॥ १६८ ॥
जिस प्रकार कि बादी और प्रतिवादी दोनोंके यहां प्रसिद्ध हो रहे गोत्व, सामान्य करके हेतुका व्यभिचार दोष है, उसी प्रकार वादी या प्रतिवादी दोनोंमेंसे किसी मी एकके यहां प्रसिद्ध हो रही गोल जाति करके भी व्यभिचार हो सकता है । अर्थात् उद्योतकरका यह अभिप्राय प्रतीत
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होता है कि वादी, प्रतिवादी, दोनोंके यहां प्रमाणोंसे सिद्ध किये पदार्थ करके तो व्यभिचार दोष वादीके ऊपर उठाया जायगा और किसी एकके यहां ही प्रसिद्ध हो रहे पदार्थकरके तो वादीके ऊपर प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान उठाया जायगा । इसपर बाचार्योका यह कहना है कि एक हीके यहां प्रसिद्ध हो रहे नित्य गोत्वकरके भी वादीके ऊपर व्यभिचार दोष ही उठाना चाहिये । साध्यको नहीं साधनेवाले ऐसे खोटे हेतुसे क्या कार्य होगा ? यानी कुछ नहीं । हां, दोनोंके यहां जो पदार्थ प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं है, उस पदार्थकरके उस व्यभिचार दोष उठानेकी प्रेरणा करना तो दोष नहीं है, किन्तु समीके यहां दोषाभाव ही उस समय माना गया है। तिस कारणसे यह विभाग करना जडपुरुषों के द्वारा कल्पित किया गया ही समझा जाता है । उद्योतकर (चंद्रविमान) स्वयं जड है । उसके द्वारा वादी और प्रतिवादी दोनोंके यहां प्रसिद्ध हो रहे पदार्थकरके तो व्यमिचार दोषका उठाया जाना और एकके यहां प्रसिद्ध हो रहे पदार्थकरके प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान का उठाया जाना, इस प्रकार जो विभाग किया है, वह जडकी कल्पना कहनी पडती है। नैयायिकोंने ज्ञानसे सर्वथा मिन कह कर आत्माको अज्ञ मान लिया है। अतः नैयायिक जीव जड हुये।
सोयमुद्योतकर स्वयमुभयपक्षसंपतिपत्रस्त्वनैकांतिक इति प्रतिपचमानो वादिनः प्रतिवादिन एव प्रमाणतः सिद्धन गोत्वादिनानैकांतिकचोदनेन हेतोविरुखमुत्तरं ब्रुवाणमतिक्रमेत कथं न्यायवादी ? अप्रमाणसिद्धेन तु सर्वेषां तच्चोदनं दोषाभास एवेति तद्विभागं कुर्वन् जडत्वमात्मनो निवेदयति ।
वाचार्य कहते हैं कि यह प्रसिद्ध हो रहा उद्योतकर विद्वाम् स्वयं इस तत्वको समझ रहा है कि वादी, प्रतिवादी, दोनोंके पक्षोंमें जो भळे प्रकार व्यभिचारीपनेसे निर्णीत कर लिया गया है, वह अनेकान्तिक हेत्वाभास है। किन्तु यहां केवळ वादीके ही पक्षमें अथवा प्रतिवादीके ही दर्शनमें प्रमाणसे सिद्ध हो रहे गोत्व आदि सामान्पकरके हेतुके व्यभिचार दोषको तर्कणा करनेसे विरुद्ध उत्तरको कहनेवालेका अतिक्रमण करेगा। भला ऐसी दशामें वह न्यायपूर्वक कहनेवाला कैसे हो सकता है ! अर्थात्-दोनों या एकके भी यहां प्रसिद्ध हो रहे नित्य गोत्व करके ऐन्द्रियिकत्व हेतुका व्यभिचारीपना नहीं मानकर दोष उठानेवाले के उत्तरको विरुद्ध कह देना यह ज्योतकरका न्याय करना उचित नहीं है । हाँ, जो पदार्थ दोनों वादी प्रतिवादियोंके यहां अथवा एकके भी यहां प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं, उस पदार्थ करके अनेकांतिकपनेका कुचोध उठाना तो सब दार्शनिकोंके या दोषामास ही माना गया है । इस कारण उस विरुद्ध उत्तररूप प्रतिवाविरोध निग्रहस्थान और
अनैकान्तिकपनके विभागको कह रहा उद्योतकर पण्डित अपने आप अपना जडपना व्यक्त करनेका . विज्ञापन दे रहा है। यानी जडपनेका इससे अधिक और निवेदन क्या हो सकता है!
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अत्र प्रतिज्ञावचनादेवा साधनांगवचनेन वादिनिगृहीते प्रतिज्ञाविरुद्धस्थानिग्रहत्व में - वेति धर्मकीर्तिनोक्तं दूषणमसंगतं गम्यमानः प्राह ।
यहां धर्मकीर्ति नामक बौद्धगुरु कहते हैं कि प्रतिज्ञाका कथन कर देनेसे ही असाधनांगका वादीद्वारा कथन हो जाने करके वादीके निग्रह प्राप्त हो जानेपर पुनः उसके ऊपर प्रतिज्ञाविरुद्ध दोष उठाना तो उचित नहीं है । अतः प्रतिज्ञाविरोधको निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिये । आचार्य कहते हैं कि प्रतिज्ञाविरोधके ऊपर धर्मकीर्ति द्वारा कहा गया यह दूषण असंगत है । इस बातको समझाते हुये ग्रन्थकार स्वयं भले प्रकार स्पष्ट कहते है ।
प्रतिज्ञावचनेनैव निगृहीतस्य वादिनः ।
न प्रतिज्ञाविरोधस्य निग्रहत्वमितीतरे ॥ १६९ ॥ तेषामनेकदोषस्य साधनस्याभिभाषणे । परेणैकस्य दोषस्य कथनं निग्रहो यथा ॥ १७० ॥ तथान्यस्यात्र तेनैव कथनं तस्य निग्रहः । किं नेष्टो वादिनोरेवं युगपन्नग्रहस्तव ॥
१७१ ॥
अतः बादी जब
चुका तो पुनः
प्रतिज्ञा के बचन करके ही निग्रहस्थानको प्राप्त हो चुके वादीके ऊपर पुनः प्रतिज्ञाविरोधका निग्रहस्थानपना ठीक नहीं है । अर्थात्-इम बौद्धों के यहां साध्यको नहीं साधनेवाले अंगोंका वादीद्वारा कथन करना बादीका असाधनांग वचन नामक निप्रहस्थान हो जाता माना गया है । हमारे यहां समर्थन युक्त हेतुका निरूपण कर देना ही साध्यका साधक अंग माना गया है। प्रतिज्ञाका कथन करना, दृष्टान्तका निरूपण करना ये सब असाधन अंगोंका कथन है । शब्द अनित्य है, ऐसी प्रतिज्ञा बोल रहा है, एतावता ही वादीका निग्रह हो उसके ऊपर दूसरा निग्रहस्थान उठाना मरे हुये को पुनः मारनेके समान ठीक नहीं है । अतः प्रतिज्ञाविरोध नामका कोई निग्रहस्थान नहीं है । इस प्रकार कोई दूसरे धर्मकीर्ति आदि बौद्ध विद्वान् कह रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि उन बौद्धोंके यहां अनेक दोषबाले साधनका कथन करनेपर वादीका दूसरे प्रतिवादीकर के जैसे एक दोषका कथन कर देना ही निग्रहस्थान है, तिस ही प्रकार यहां भी उस ही वादीकर के साधन के अंगों से भिन्न अंगका कथन करना उस वादीका निग्रह क्यों नहीं इष्ट कर लिया जाय ! | भावार्थ - वादके ऊपर प्रतिवादी द्वारा दोषोंका नहीं उठाया जाना प्रतिवादीका अदोषोद्भावन निग्रहस्थान है । वादीने यदि व्यभिचार, असिद्ध, बाधित, सत्प्रतिपक्ष इन कई दोषोंसे युक्त अनुमानका प्रयोग किया कि आकाश गन्धवान् है ( प्रतिज्ञा ), स्नेहगुण
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होनेसे (हेतु ) यहाँ प्रतिवादी यदि एक ही बाधित या असिद्ध किसी दोषको उम देता है, तो प्रतिवादीका निग्रह है। अर्थात् प्रतिवादीको सभी दोष उठाने चाहिये । उसी प्रकार वादीके ऊपर एकके सिवाय अन्य निग्रहस्थानोंका उत्थापन करना समुचित है। दूसरी बात यह है कि इस प्रकार होनेपर तुम्हारे यहां वादी या प्रतिवादी दोनोंका एक ही समयमें निग्रह हो जावेगा। क्योंकि वादी तो असाधनके अंगोंका कथन कर रहा है। और प्रतिवादी अपने कर्तन्यरूपसे माने गये सम्पूर्ण दोष उत्थापनके करनेमें प्रमादी हो रहा है। अतः धर्मकीर्ति महाशयका विचार धर्मपूर्वक यशको बढानेवाला नहीं है।
साधनावयवस्यापि कस्यचिद्वचने सकृत् ।
जयोस्तु वादिनोन्यस्यावचने च पराजयः ॥ १७२ ॥ , किसी भी एक साधनके अवयवका कथन करनेपर एक ही समयमें वादीका जय और अन्य (दूसरे ) साधन अवयवका नहीं कथन करनेपर वादीका पराजय हो जाना चाहिये । अर्थात्किसी स्थळमें साधन के अवयव यदि कई हैं, और वादीने यदि एक ही साधनांगका निरूपण किया है, और दूसरे साधनांगोंका कथन नहीं किया है। ऐसी दशामें साधनाशके कहने और साधनाङ्गके नहीं कहनेसे वादीका एक साथ जय और पराजय प्राप्त हो जानेका प्रसंग आजावेगा।
प्रतिपक्षाविनाभाविदोषस्योद्भावने यदि । वादिनि न्यक्कृतेन्यस्य कथं नास्य विनिग्रहः ॥ १७३॥ तदा साध्याविनाभावि साधनावयवेरणे ।
तस्यैव शक्त्युभयाकारेन्यस्यवाक् च पराजयः ॥ १७४ ॥
यदि बौद्ध यों कहें कि प्रतिकूल पक्षके अविनाभावी दोषका प्रतिवादी द्वारा उत्थापन हो जानेपर वादीका तिरस्कार हो जाता है, तब तो हम कहते हैं कि साध्यके साथ अविनामाव रखनेवाले साधनरूप अवयवका कथन करनेपर वादी द्वारा इस अन्य प्रतिवादीका विशेष रूपसे निग्रह क्यों नहीं हो जावेगा ? जब कि उस साध्याविनामावी हेतुके कथन करनेसे ही दूसरे प्रतिवादीका पराजय हो जाता है। इस कारिकाका उत्तरार्ध कुछ अशुद्ध प्रतीत होता है । विद्वान् जन समझकर व्याख्यान करलेवें।
विरुद्धोद्भावनं हेतोः प्रतिपक्षप्रसाधनं । यथा तथाविनाभाविहेतूक्तिः स्वार्थसाधना ॥ १७५॥
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साधनावयबोनेकः प्रयोक्तव्यो यथापरः। तथा दोषोपि किं न स्यादुद्भाव्यस्तत्र तत्त्वतः ॥ १७६ ॥ तस्मात्प्रयुज्यमानस्य गम्यमानस्य वा स्वयं । संगरस्याव्यवस्थानं कथाविच्छेदमात्रकृत् ॥ १७७ ॥
जिस प्रकार कि वादीके हेतुका विरुद्ध दोष उठा देना प्रतिवादीके पक्षकी अच्छी सिद्धि हो जाना है, उसी प्रकार वादी द्वारा अविनाभावी हेतुका कथन करदेना वादीके स्वार्थकी सिद्धि हो जाना है। जिस प्रकार कि वादीद्वारा साधनके अनेक दूसरे अवयवोंका प्रयोग करना उचित है, उसी प्रकार प्रतिवादी द्वारा वास्तविक रूपसे अनेक दोषोंका उत्थापन करना भी समुचित क्यों नहीं होगा ! तिस कारणसे सिद्ध हो जाता है कि चाहे प्रतिज्ञा स्वयं कंठोक्त प्रयुक्त की जा रही होय अथवा बौद्धोंके यहां विना कहे यों ही ( अर्थापत्ति द्वारा ) जान ली गयी होय, उस प्रतिज्ञाकी जो उक्त तीन निग्रहस्थानोंद्वारा व्यवस्था नहीं होने देना है । वह केवल निग्रहस्थान देकर वादमें विघ्न डाल देना मात्र है। यों केवल कथाका विच्छेद कर देनेसे प्रतिवादीद्वारा वादीका पराजय होना सम्भव नहीं है।
___ संगरः प्रतिज्ञा तस्य वादिना प्रयुज्यमानस्य पक्षधर्मोपसंहारवचनसामर्थ्याद्गम्यमानस्प वा यदव्यवस्थानं स्वदृष्टांते प्रतिदृष्टांतधर्मानुज्ञानात् प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधेन धर्मविकल्पात तदर्यनिर्देशादा प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधात् प्रतिज्ञाविरोधाद्वा प्रतिवादिनापद्यत तत्कथाविच्छेदमा करोति न पुनः पराजयं वादिनः स्वपक्षस्य प्रतिवादिनावश्यं साघनीयत्वादिति न्यायं बुध्यामहे ।
कोषके अनुसार संगरका अर्थ प्रतिज्ञा है । उस प्रतिज्ञा वचन नामक संगरका वादीकरके कंठोक्त प्रयोग किया जा रहा होय, अथवा पक्षमें हेतुरूप धर्मके उपसंहार (धेर देना जैसे वाडेमें पशुओंको घेर दिया जाता है ) करनेके कथनकी सामर्थ्यसे अर्थापत्तिद्वारा यों विना कहे उसको जान लिया गया होय, ऐसी प्रतिबाकी जो ठीक ठीक व्यवस्था नहीं होने देना है, वह. केवळ छेडी हुई वाद कथाका अवसान कर देना है। इसमें रहस्य कुछ नहीं है । मळे ही स्वकीय दृष्टान्त में वादीद्वारा प्रतिवादीके प्रतिकूळ दृष्टान्तके धर्मकी स्वीकारता करनारूप प्रतिज्ञाहानिसे प्रतिज्ञाकी अव्यवस्था कर लो और चाहे प्रतिज्ञात अर्थका निषेध कर धर्मान्तरके विकल्पसे उस प्रतिज्ञातार्थका निर्देश करना स्वरूप दूसरे प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थानसे वादीकी प्रतिज्ञाका अव्यवस्थान कर लो अथवा प्रतिज्ञा और हेतुके विरोधस्वरूप तीसरे प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थानसे प्रतिवादी द्वारा वादीके
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प्रतिज्ञावाक्यकी अव्यवस्था कर दी जाय । वह तीनों प्रकारसे आपादन करना केवळ कथाके विच्छेदको करता है । एतावता पुनः वादीका पराजय नहीं हो जाता है। क्योंकि प्रतिवादीको जय प्राप्त करने के किये अपने पक्षका साधन करना अत्यावश्यक है । इम तो इसी सिद्धान्तको न्यायस्वरूप समझ रहे हैं । मावार्थ-चातुर्य, छल, प्रतिभा, आदिक दुर्गुण, सद्गुणोंसे परिपूर्ण हो रहे जगत् में अनेकान्तोंको धारनेवाली वस्तुकी सामर्थ्य से चाहे जो कोई चाहे जिस किसी प्रतिज्ञाका खण्डन कर सकता है । कोई हितोपदेशी यदि शिष्य के प्रति ज्ञान सम्पादन करनेको साध रहा है तो " मूर्खः सुखी जीवति " इस सिद्धान्तकी पुष्टि कर पूर्व प्रतिज्ञाकी हानि करायी जा सकती है । धन उपार्जन करना चाहिये इस प्रतिज्ञाका " नंगा सोवे चौडेमें, धनके सैकडों शुत्रु हैं " आदि वाक्यों द्वारा बिरोध किया जा सकता है । " धर्मः सेव्यः " इस पक्षका आज कल जो अधिक धर्म सेवन करता है, वह दुःखी रहता है, आदि कुयुक्तिपूर्ण वाक्यों द्वारा प्रत्याख्यान किया जा सकता है । विवाहित पुरुषोंकी अपेक्षा कारे पुरुष निश्चिन्त होकर आनन्दमें रहते हैं, कारोंकी अपेक्षा विवाहित पुरुष भोग उपभोगमें छीन रहते हैं । अभिमानसे भरपूर हो रही सासु वार वार जलका आदर कर रही पुत्रवधू पर क्रुद्ध भी हो सकती है, चाहे तो प्रेम भी कर सकती है । इत्यादिक अनेक लौकिक विषय भी अपेक्षाओं से सिद्ध हो सकते हैं । फिर भी प्रतिस्पर्धा रखनेवाले वादी प्रतिवादी, एक दूसरेकी प्रतिज्ञाका खण्डन कर देते हैं । तथा आपेक्षिक प्रतिकूल सिद्धान्तको पूर्वपक्षमाला कदाचित् स्वीकार भी करता है | किन्तु इतनेसे ही भळे मानुष वादीका पराजय नहीं हो जाता है । तथा केवल चोध उठा कर कुछ बातको स्वीकार करा लेनेसे ही प्रतिवादी है । हां, प्रतिवादी यदि अपने पक्षको परिपूर्ण रूप से सिद्ध कर दे तो यही न्यायमार्ग है ।
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जीतको नहीं लूट सकता
जयी हो सकता है ।
प्रतिज्ञावचनं तु कथाविच्छेदमात्रमपि न प्रयोजयति तस्यासाधनांगत्वान्यवस्थितेः पक्षधर्मोपसंहारवचनादित्युक्तं प्राक् । केवलं स्वदर्शनानुरागमात्रेण प्रतिज्ञावचनस्य निग्रह - त्वेनोद्भावनेपि सौगतैः प्रतिज्ञाविरोधादिदोषोद्भावनं नानवसरमनुमंतव्यं, अनेकसाधनवचनवदनेकदूषणवचनस्यापि विरोधाभावात् सर्वथा विशेषाभावादिति विचारितमस्माभिः ।
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बौद्धोंने जो यह कहा था कि अर्थ या प्रकरणसे ही जो प्रतिज्ञा जानी जा सकती थी, उस प्रतिज्ञाको कंठोक्त व्यर्थ कहना वादीका निग्रहस्थान है । इसपर हमारा यह कहना है कि प्रतिज्ञाका वचन तो कथाके विच्छेदमात्रका भी प्रयोजक नहीं है । अर्थात् - प्रतिवादी तो ऐसी चेष्टा कर रहा है कि जिससे कथाका विच्छेद होकर वादका अन्त हो जाय और मैं सेतमेतमें जयको लूटता हुआ फूलकर कुप्पा होके लब्धप्रतिष्ठ हो जाऊं । किन्तु वादी कंठोक्त प्रतिज्ञा वाक्यको बोलता हुआ कथाका विच्छेद नहीं कर रहा है । क्योंकि वह प्रतिज्ञाका वचन साध्यसिद्धिका अंग नहीं । यह
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तत्वार्थकोकवार्तिके
बौद्धोंका मन्तव्य प्रमाणोंसे व्यवस्थित नहीं हो सका है । स्वयं बौद्धोंने तत्त्व हेतुसे शद्रका क्षणिकपना सिद्ध करते समय " संश्व शङ्कः " ऐसा पक्षमें हेतुधर्मका उपसंहार कहा है । जो कि उपनय वाक्य विना कहे भी प्रकरण द्वारा जामा जा सकता था । कहीं निगमन भी कहा है। जो कि प्रतिज्ञावाक्य की उपयोगिताको साथ देता है, इस बातको हम विशदरूपसे पूर्व ग्रन्थमें कह चुके हैं। यहां हमको केवल इतना ही निर्णय करना है कि अपने बौद्धदर्शनकी कोरी श्रद्धामात्रसे बौद्धों करके वादीके उपर प्रतिज्ञाकथनका निग्रहस्थानपने करके उत्थापन करनेपर भी पुनः प्रतिज्ञाविरोध, व्यभिचार, विरुद्ध, आदि दोषोंका उठाया जाना असमय ( बेमौके ) का नहीं मानना चाहिये । विचारने पर यही प्रतीत होता है किं अनेक साधनोंके वचन समान अमेक बूषणोंके कथन करने का भी कोई विशेष नहीं है । अर्थात्-जैसे प्रतिपानको समझाने के अनेक हेतुओं द्वारा साथ्यको साधा जाता है, उसी प्रकार दूसरे के पक्षको अधिक निर्बल बनानेके लिये अनेक दोषोंका प्रयोग भी किया जा सकता है। यहां साधन और दूषण देनेमें अनेक सहारोंके लेनेकी अपेक्षा सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है । इस बातका हमने पहिले अन्यत्र ग्रन्थ में बहुत विस्तृत विचार कर दिया है ।
संप्रति प्रतिज्ञा संन्यासं विचारयितुमुपक्रममाह ।
अब नैयानिकों के चौथे प्रतिज्ञासन्न्यास नामक निग्रहस्थानका विचार करनेके लिये श्री विद्यानन्द आचार्य उपायपूर्वक प्रक्रमको वार्तिकद्वारा कहते हैं ।
प्रतिज्ञार्थापनयनं पक्षस्य प्रतिषेधने ।
न प्रतिज्ञानसंन्यासः प्रतिज्ञाहानितः पृथक् ॥ १७८ ॥
arth पक्षका दूसरे प्रतिवादीद्वारा प्रतिषेध किये जानेपर यदि वादी उसके परिहारकी इच्छा से अपने प्रतिज्ञा किये गये अर्थका निन्हव ( छिपाना ) करता है, वह वादीका " प्रतिज्ञासंन्यास " नामक निग्रहस्थान है । आचार्य कहते हैं कि यह चौथा प्रतिज्ञासन्यास तो पहिले "प्रतिज्ञाहानि" निग्रहस्थानने पृथक् नहीं मानना चाहिये । यों निग्रहस्थानों की संख्या बढाकर व्यर्थमें नैयायिकों का घटाटोप बांधना भेदकतावच्छेदकावच्छिन्न और प्रभेदकतावच्छेदकावच्छिन्न विषयमें स्वकीय अज्ञानता को दिखलाना है ।
ननु “ पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञानार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः " इति सूत्रकारवचनात् यः प्रतिज्ञातमर्थे पक्षप्रतिषेधे कृते परित्यज्यति स प्रतिज्ञासंन्यासो वेदितव्यः उदाहरणं पूर्ववत् । सामान्येनैकांविकत्वादेतोः कृते ब्रूयादेक एव महान्नित्य शब्द इति । एतत्साधनस्य सामपरिच्छेदाद्विप्रतिपत्तितो निग्रहस्थानमित्युद्योतकरवचनाश्च प्रतिज्ञासंन्यासस्तस्य प्रतिज्ञाहार्भेद एवेति मन्यमानं प्रत्याह ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
नैयायिक अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि पक्षका प्रतिषेध करनेपर प्रतिज्ञात अर्थका वादी द्वारा हटाया जाना बादीका प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थान है। इस प्रकार न्यायदर्शनके सूत्रोंको बनानेवाले गौतमऋषिने " न्यायदर्शन " के पांचवे अध्यायके पांचवे सूत्र द्वारा कहा है । इसका अर्थ यों है कि जो प्रतिवादी द्वारा पक्षका निषेध करनेपर उस पक्षको परित्याग कर देता है, वह प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थानसे सहित समझलेमा चाहिये । इसका उदाहरण पूर्वके समान ही है । जैसे कि शब्द अनित्य है, ऐंद्रियिक होनेसे घटके समान, यों वादीके कह चुकने पश्चात् प्रतिवादी द्वारा नित्य सामान्य करके वादीके ऐन्द्रियिकत्व हेतुका व्यभिचारीपना कर देनेपर पुनः वादी अपने पक्षका परित्याग कर यों कह देवेगा कि अच्छी बात है कि मीमांसकोंके मन्तव्य समान एक ही महान्, व्यापक, शब्द नित्य हो जाओ। यहां हेतुकी सामार्थ्यका ज्ञान नहीं होनेसे और निग्रहस्थानको प्रयोजक विविधप्रतिपत्ति या विरुद्धप्रतिपत्ति हो जानेसे यह चौथा निग्रहस्थान प्रतिज्ञासंन्यास है। उद्योतकर पण्डितका वचन भी इसी प्रकार है। उस चौथे निग्रहस्थानका प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थानसे भेद ही है। इस प्रकार मान रहे नैयायिकके प्रति बाचार्य महाराज समाधान करते हुये कहते हैं।
एक एव महान्नित्यः शद्ध इत्यपनीयते । प्रतिज्ञार्थः किलानेन पूर्ववत्पक्षदूषणे ॥ १७९ ॥ हेतोरेंद्रियकत्वस्य व्यभिचारप्रदर्शनात् । तथा चापनयो हानिः संधाया इति नार्थभित् ॥ १८० ॥
पूर्व उदाहरणके समान वादीके ऐन्द्रियिकत्व हेतुका प्रतिवादी द्वारा व्यभिचार प्रदर्शन कसनेसे वादीके पक्षका दूषण हो जानेपर इस बादी करके एक ही महान् शब्द नित्व हो जाओ, इस प्रकार अपना पूर्व प्रतिज्ञात अर्थ दूर कर दिया गया है। यह सम्भाव्य है और तिस प्रकार होनेपर प्रतिज्ञात अर्थका अपनय यानी हानि ही हुई इस कारण प्रतिज्ञाकी हानि और प्रतिज्ञाके संन्यास इनमें कोई अर्थका भेद नहीं है। अमिप्राय एक ही है।
प्रतिज्ञाहानिरेवेतैः प्रकारैर्यदि कथ्यते । प्रकारांतरतोपीयं तदा किं न प्रकथ्यते ॥ १८१॥ तनिमित्तप्रकाराणां नियमाभावतः क नु । यथोक्ता नियतिस्तेषा नाप्तोपझं वचस्ततः ॥ १८२ ॥
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तरवार्यश्लोकवार्तिके
आप नैयायिक यदि प्रतिज्ञान्तर प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, इन भिन्न भिन्न प्रकारों करके प्रतिज्ञाहानिको कह रहे हैं, जो कि प्रकार तुम्हारे यहां भिन्न भिन्न निग्रहस्थानोंके प्रयोजक हैं, तब तो हम तुमसे पूंछते हैं कि यह प्रनि ज्ञाहानि अन्य दूसरे प्रकारों से भी क्यों नहीं भळे प्रकार कह दी जाती है । क्योंकि उस प्रतिज्ञापानिके निमित्त हो रहे प्रकारोंका कोई नियम नहीं है । दृष्टान्तकी हानिसे, उपनयकी हानिसे, मूर्खतासे, विक्षिप्ततासे, राजनीतिकी चालाकीसे
आदि प्रकारोंसे भी प्रतिज्ञाकी दानि कायी जा सकती है। उन प्रकारोंकी इयत्ता नियत नहीं है। ऐसी दशामें उन निग्रस्थानोंकी आपके द्वारा कही गयी बाईस या चौवीस संख्याका नियत परिमाण कहां रहा ? यों छोटे छोटे अनेक प्रकारोंके भेदसे तो पचासों निग्रहस्थान मानकर भी संख्याकी पूर्णता नहीं हो सकती है । तिस कारणसे उन नैयायिकोंके वचन आप्तद्वारा ज्ञात होकर कहे गये नहीं हैं । जिस दर्शनका सर्वज्ञकरके आद्यज्ञान होकर उपदेश दिया जाता है, वे वचन आप्तोपत्र हैं, अन्य नहीं ।
पक्षस्य प्रतिषेधे हि तूष्णींभावो थरेक्षणं । व्योमेक्षणं दिगालोकः खात्कृतं चपलायितम् ॥ १८३ ॥ हस्तास्फालनमाकंपः प्रस्वेदाद्यप्यनेकधा । निग्रहांतरमस्यास्तु तत्प्रतिज्ञांतरादिवत् ॥ १८४॥
देखिये प्रतिज्ञाफी हानि करनेके ये अन्य भी अनेक प्रकार हैं । प्रतिवादी द्वारा वादीके पक्षका नियमसे प्रतिषेध कर देनेपर वादीका चुप रह जाना या पृथ्वीको देखने लग जाना, ऊपर आकाश को देखते रहना, इधर उधर पूर्व आदि दिशाओंका अवलोकन करना, खकारना, भागने दौडने ळग जाना अथवा बकवाद करना, कषायपूर्वक उद्वेगमें आकर हाथोंको फटकारना, शरीरका चारों
ओरसे कम्प होना, पसीना आजाना, व्यर्थ गाने लग जाना, चंचल चेष्टा करने लग जाना, बच्चोंको खिलाने लग जाना, अन्य कार्यों में व्यग्र हो जाना आदिक अनेक प्रकारके अन्य निग्रहस्थान इस नैयायिकके यहां बन बैठेंगे । जैसे कि स्वल्पभेदके ही कारण उन प्रतिज्ञाहानिसे न्यारे प्रतिक्षान्तर, प्रतिज्ञासंन्यास आदिको मान लिया गया है । यदि भूमिके देखने आदि प्रकारोंको नियत निग्रहस्थानोंमें गर्मित करोगे तो प्रतिज्ञासंन्यासको भी प्रतिज्ञाहानिमें गर्मित कर लेना चाहिये। अतिरिक्त निग्रहस्थानोंका व्यर्थमें बोझ बढाना अनुचित है ।
हेत्वंतरं विचारयन्नाह।
पांचमे हेत्वन्तर नामके निग्रहस्थानका विचार करते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्तिकोंका प्रतिपादन करते हैं।
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अविशेषोदिते हेतौ प्रतिषिद्धे प्रवादिना । विशेषमिच्छतः प्रोक्तं हेत्वंतरमपीह यत् ॥ १८५॥ तदेवमेव संभाव्यं नान्यथेति न निश्चयः । परस्मिन्नपि हेतौ स्यादुक्ते हेत्वंतरं यथा॥१८६॥ यथा च प्रकृते हेतौ दोषवत्यपि दर्शिते । परस्य वचनं हेतोर्हेत्वंतरमुदाहृतम् ॥ १८७ ॥ तथा निदर्शनादौ च दृष्टांताद्यंतरं न किम् । निग्रहस्थानमास्थेयं व्यवस्थाप्यातिनिश्चितम् ॥ १८८ ॥
न्याय दर्शनके अनुसार इस प्रकरणमें हेत्वन्तरका लक्षण यों बढिया कहा गया है कि वादीके द्वारा विशेषोंकी अपेक्षा नहीं कर सामान्यरूपसे हेतुका कथन करदेने पर पुनः प्रतिवादी करके वादीके हेतुका प्रतिषेध हो चुकनेपर विशेष वंश या हेतुमें कुछ विशेषण लगा देनेकी इच्छा रखनेवाळे वादीका हेस्वन्तर निग्रहस्थान हुआ बताया गया है। इसपर आचार्य महाराजका यह कहना है कि यहां नैयायिकोंने जो हेत्वन्तर निग्रहस्थान माना है, वह इस ही प्रकारसे सम्भवता है। सूत्रोक्त लक्षणसे अन्य प्रकारों करके हेत्वन्तर नहीं सम्मवता है, ऐसा निश्चय करना ठीक नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार नैयायिकोंके यहां विशेषणसहित दूसरे भी हेतुके कह देनेपर हेत्वन्तर निग्रहस्थान हो जाना का गया है, और जिस प्रकार वादीके प्रकरणप्राप्त हेतुको दोषयुक्त भी प्रतिवादी द्वारा दिखला देनेपर दूसरे नवीन हेतुका कथन करना वादीका हेत्वन्तर निग्रहस्थान कहा गया है, उसी प्रकार वादी करके प्रकृत साध्यको साधनेके लिये दृष्टान्त, उपनय, निगमन कहे गये पुनः प्रतिवादीने उन दृष्टान्त आदिको दोषयुक्त कर दिया, वादीने पश्चात् अधिक निषित किये गये दृष्टान्त आदिकोंको व्यवस्थापित कर कह दिया, ऐसी दशामें हेत्वन्तरके समान दृष्टान्तान्तर, निगमनान्तर आदिको न्यारा निग्रहस्थान क्यों नहीं श्रद्धान कर लिया जावे ? बात यह है कि कमी कोई बात सामान्य रूपसे भी कही जाती है। वहां सुननेवालों से कोई लघुपुरुष कुचोध उठा देता है। और दूसरे गंभीर पुरुष विशेष अंशोंकी कल्पना करते हुये बक्ताके यथार्थ अभिप्रायको समझ लेते हैं । गृह अधिपतिमे मृत्यको आज्ञा दी कि अमुक अतिथिको भोजन करा दो, चतुर सेवक तो अतिथिके स्नान, दन्तधावन, मोजन, दुग्धपान, शयन आदि सबका प्रबन्ध कर देता है। किन्तु अज्ञ नौकर तो अतिथिको केवल भोजन करा देगा। जलपान, दुग्धपान भी नहीं करायेगा । वक्ताके अभिप्रायका श्रोताको सर्वथा लक्ष्य रखना चाहिये, तभी तो अत्यल्प संख्यात शब्द ही असंख्यात,
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तस्वार्थकोकवार्तिके
अनन्त प्रमेयका क्षयोपशम अनुसार प्रबोध करा देते हैं। नैयायिकोने हेत्वन्तरका उदाहारण यों दिया है कि यह सम्पूर्ण जगत् ( पक्ष ) मूलमें एक त्रिगुणात्मक प्रकृतिको कारण मानकर प्रकट हुआ है (साध्य ) क्योंकि घट, पट, आदि विकारोंका परिणाम देखा जाता है ( हेतु ) । इस प्रकार कपिल मतानुसार वादी के कहने पर प्रतिवादी द्वारा नाना प्रकृतिवाले विवतसे व्यभिचार दिखाकर प्रत्यवस्थान दिया गया। इस दशा में वादीद्वारा एक प्रकृति के साथ समन्वय रखते हुये यदि इतना हेतुका विशेषण दे दिया जाय तो वादीका हेत्वन्तर निग्रहस्थान है । अथवा प्रकृत उदाहरणमें शद अनित्य है, ( प्रतिज्ञा ) बाह्य इन्द्रियोंसे जन्य प्रत्यक्षज्ञानका विषय होनेसे ( हेतु ), यहां किसी प्रतिवादीने सामान्यकर के व्यमिचार दिया। क्योंकि बहिरिन्द्रिय ग्राह्य पदार्थों में ठहरनेवाली, नित्य, व्यापक, जाति भी उन्हीं बहिरंग इन्द्रियोंसे जान की जाती है, ऐसा प्रतिवादीने मान रक्खा है । ऐसी दशामें वादी हेतुका सामान्यसे सहित होते हुये इतना विशेषण लगा देवें । क्योंकि सामान्यमें पुन: दूसरा सामान्य रहता नहीं है | अतः सामान्यवान् सामान्य नहीं, यों सामान्यकर के हुआ व्यभिचार टल जाता है,
वादीका वन्तर निमइस्थान मान लिया जाता है । इसमें आचार्योंका यह कहना है कि हेतुकी त्रुटि होनेपर जैसे विशेषण लगाकर या अन्य हेतुका प्रयोग कर देनेपर हेत्वन्तर हो जाता है, उसी प्रकार जो जो बाह्य इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्षका विषय है, वह वह अनित्य है। वादीके इस प्रकार उदाहरणमें भी न्यूनता दिखलायी जा सकती है । बाह्य इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षका विषय शद्ब है | उस उपनय में भी प्रतिवादी द्वारा त्रुटि कही जा सकती है । अतः ये भी न्यारे न्यारे निग्रहस्थान या हेत्वन्तरके प्रकार मानने पडेंगे ।
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यदि हेत्वंतरेणैव निगृहीतस्य वादिनः । दृष्टांताद्यंतरं तत्स्यात्कथायां विनिवर्तनात् ॥ १८९ ॥ तदानैकांतिकत्वादिहेतुदोषेण निर्जिते ।
मा भूत्वंतरं तस्य तत एवाविशेषतः ॥ १८० ॥ यथा चोद्धाविते दोषे हेतोर्यद्वा विशेषणं । ब्रूयात्कश्चित्तथा दृष्टांतादेरपि जिगीषया ॥ १९९ ॥
यदि आप नैयायिक यों कहें कि अकेले हेत्वन्तरकरके ही निग्रहको प्राप्त हो चुके वादीके ऊपर पुनः दृष्टान्तांतर आदिका उठाना तो उतनेसे ही हो जायगा । तिस कारण वाद कथा में Baat विशेषरूप से निवृत्ति कर दी गयी है । तब तो हम जैन कहते हैं कि तिस ही कारण प्रतिवादीद्वारा अनैकान्तिकपन, विरोध, असिद्धि, आदिक हेतुके दोषोंके उठा देनेसे ही वादीके
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पराजित हो जानेपर पुनः हेत्वन्तर भी नहीं उठाया जाओ । क्योंकि उस हेत्वन्तरका उन दृष्टान्तान्तर आदिकोंसे कोई विशेष नहीं है । दूसरी बात यह है कि दोषके उत्थान कर चुकने पर कोई कोई वादी हेतुके विशेषणको व्यक्त कह देवेगा, उसी प्रकार दृष्टान्त आदिके दोष उठाने की इच्छासे दृष्टांत आदिके विशेषणोंको भी प्रकट कह देगा । अतः दृष्टान्तान्तर आदि भी तुमको न्यारे निग्रहस्थान मानने पडेंगे ।
अविशेषोक्तो हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वंतरमिति सूत्रकारवचनात् द्वित्ववनिग्रहस्थानं साधनांतरोपादाने पूर्वस्यासामर्थ्यख्यापनात् । सामर्थ्य वा पूर्वस्य हेत्वंतरं व्यर्थमित्युद्योतकरो व्याचक्षाणो गतानुगतिकतामात्मसात्कुरुते प्रकारांतरेणापि हेत्वंतरवचनदर्शनात् । तथा अविशेषोक्ते दृष्टांतोपनयनिगमने प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो दृष्टांताचंतरोपादाने पूर्वस्यासामर्थ्यख्यापनात् । सामर्थ्य वा पूर्वस्य प्रतिदृष्टांतायंतरं व्यर्थमिति वक्तुं शक्यत्वात् । अत्राक्षेपसमाधानानां समानत्वात् ।
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विशेषका लक्ष्य नहीं रख सामान्य रूपसे हेतुके कह चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा हेतुके प्रतिषिद्ध हो जानेपर विशेष अंशको विवक्षित कर रहे वादीका हेत्वन्तर निग्रहस्थान जाता है । इस प्रकार न्यायसूत्र कार गौतम ऋषिका वचन है। यहां उसी हेतुमें अन्य विशेषणका प्रक्षेप कर देने से अथवा अन्य नवीन हेतुका प्रयोग करदेनेसे दोनों भी हेत्वंतर निग्रहस्थान कक्षे जाते हैं । उद्योतकर पण्डितका यह अभिप्राय है कि अन्य साधनका ग्रहण करनेपर वादीके पूर्व हेतुकी असामर्थ्य प्रकट हो जाती है । अतः वादीका निग्रह हो जाता है । यदि वादीका पूर्वकथित हेतु समर्थ होता तो वादीका अम्य ज्ञापक हेतु उठाना व्यर्थ है । आचार्य कहते हैं कि वादीका यदि पहला हेतु अपने साध्यको साधने में समर्थ था तो वादीने दूसरा हेतु व्यर्थमें क्यों पकडा ? इस प्रकार व्याख्यान कर रहा उद्योतकर तो गतानुगतिकपनेको अपने अधीन कर रहा है । अर्थात्बापका कुआं समझकर दिन रात उसी कुएका खारा पानी पीते रहना अथवा छोटा डुबकानेके लिये एक रेतकी ढेरी बनानेपर सैकडों मूढ गंगा यात्रियों द्वारा धर्मान्ध होकर अनेक ढेरी बना देना जैसे विचार नहीं कर कोरा गमन करनेवाले के पीछे गमन करना है, उसी प्रकार अक्षपादके कहे अनुसार भाष्यकारने वैसाका वैसा कह दिया और उद्योतकरने भी वैसा ही आलाप गा दिया, परीक्षा प्रधानियोंको युक्तियोंके विना यों ही अन्धश्रद्धा करते हुये तत्त्वनिरूपण करना अनुचित है । क्योंकि अन्य प्रकारोंकरके मी हेत्वन्तरका वचन देखा जाता है । तिसी प्रकार ( हेत्वन्तर के समान ) वादी द्वारा अविशेषरूप से दृष्टान्त, उपनय और निगमनके कथन करनेपर प्रतिवादी द्वारा उनका प्रतिषेध किया जा चुका । पुनः दृष्टान्त आदिमें विशेषणोंकी इच्छा रखनेवाले वादीके द्वारा अन्य दृष्टान्त, दूसरे उपनय आदिका प्रण करनेपर पूर्वके दृष्टान्त आदिकोंकी असामर्थ्यको प्रकट करदेने से
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वादीका निग्रहस्थान हो जावेगा । अथवा पूर्वकथित दृष्टान्त आदिकी योग्य सामर्थ्य होनेपर पुनः वादी द्वारा प्रतिदृष्टान्त, प्रत्युपनय आदिक उच्चारण करना व्यर्थ है, यह भी कहा जा सकता है। इसमें नैयायिक यदि आक्षेप करेंगे तो हम भी उनके हेत्वान्तरपर आक्षेप उठा देंगे तथा देवन्तर निग्रहस्थानकी रक्षा करनेके लिये नैयायिक जो समाधान करेंगे तो दृष्टान्तान्तर, उपनयान्तर, बादि न्यारे निग्रहस्थानोंका आपादन करनेके लिये हम भी वही समाधान कर देवेंगे । उनके और हमारे आक्षेप समाधानोंकी समानता है। ___ यदप्युपादेशि प्रकृतादादपतिसंबद्धार्थमर्थातरमभ्युपगमार्थासंगतत्वान्निग्रहस्थानमिति तदपि विचारयति ।
और भी जो न्यायदर्शनमें गौतम ऋषिने छटे " अर्थान्तर " निग्रहस्थानका लक्षण करते हुये उपदेश दिया था कि प्रकरण उपयोगी अर्थसे असम्बद्ध अर्थका कथन करना अर्थान्तर नामका निग्रहस्थान है । अर्थात-" प्रासादात् प्रेक्षते " के समान ल्यप् प्रत्ययका लोप होनेपर यहां प्रकृतात् यह पंचमी विभक्तिवाला पद है । अतः प्रकरणप्राप्त अर्थकी उपेक्षा कर प्रकृतमें नहीं बाकांक्षा किये गये अर्थ कथन करना अर्थान्तर है । यह स्वीकार किये गये अर्थकी असंगति हो जानेसे निग्रहस्थान माना गया है । इस प्रकार न्यायदर्शनकर्ताका उपदेश है। अब श्री विद्यानन्द आचार्य उसका भी वार्तिकों द्वारा विचार करते हैं।
प्रतिसंबंधशून्यानामर्थानामभिभाषणम् । यत्पुनः प्रकृतादादातरसमाश्रितम् ॥ १९२ ॥ कचिकिंचिदपि न्यस्य हेतुं तच्छद्धसाधने । पदादिव्याकृतिं कुर्याद्यथानेकप्रकारतः ॥ १९३ ॥
जो फिर प्रकरणप्राप्त अर्थसे प्रतिकूल अनुपयोगी अन्य अर्थका आश्रय रखता हुआ निरूपण करना है, जो कि सन्मुख स्थित विद्वानोंके प्रति सम्बन्धसे शून्य हो रहे अर्थाका प्ररूपण है, वह अर्थान्तर है । जैसे कि कहीं भी पक्षमें किसी भी साध्यको स्थापित कर वादी द्वारा विवक्षित हेतुको कहा गया, ऐसी दशामें वादी उस हेतु शब्दके सिद्ध करनेमें पद, कारक, धात्वर्थ, इत्यादिकका अनेक प्रकारोंसे व्युत्पादन करने लग जाय कि स्वादि गणकी " हि गतौ बुद्वौ च " धातुसे तुन् प्रत्यय करनेपर कृदन्त हेतु शब्द निष्पन्न होता है। सुबन्त, तिङन्त, यों द्विविध पद होते हैं। उपसर्ग तो क्रियाके अर्थके द्योतक होते हैं । अकर्मक, सकर्मक यों दो प्रकारकी धातुऐं है, इत्यादि कई प्रकागेसे अप्रकृत बातोंके निरूपण करनेवाले वादीका निरर्थक निग्रहस्थान हो आता है। क्योंकि
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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वादी प्रतिवादियों को न्यायपूर्वक सार्थक प्रकृतोपयोगी वाक्य कहने चाहिये । इस प्रकार सामान्य विषयके होते हुये पक्ष और प्रतिपक्षके परिग्रह करनेमें हेतु द्वारा साध्यकी सिद्धि करना प्रकरण प्राप्त हो रहा है। ऐसी दशामें कोई वादी या प्रतिवादी प्रकृत हेतुका प्रमाणकी सामर्थ्यसे समर्थन करनेके लिये मैं असमर्थ हूं, ऐसा निश्चय रखता हुआ वादको नहीं छोडता हुवा प्रकृत अर्थको छोडकर अर्थातर का कथन कर देता है कि शब्दको नित्यत्व साधनेमें अस्पर्शवत्व हेतु प्रयुक्त किया है। हेतु शब्द हिनोति धातुसे तु प्रत्यय करनेपर बनता है। स्वादिगणकी साधू धातुसे साध्य शब्द बनता है। इत्यादिक व्याख्यान करना अर्थान्तर निग्रहस्थान प्राप्त करादेनेका प्रयोजक है।
तत्रापि साधनेशक्ते प्रोक्तांतरवाक् कथम् । निग्रहो दूषणे वापि लोकवद्विनियम्यते ॥ १९४ ॥
असमर्थे तु तन्न स्यात्कस्यचित्पक्षसाधने । निग्रहोतिरं वादे नान्यथेति विनिश्चयः ॥ १९५॥
उस अर्थान्तरनामक निग्रहस्थानके प्रकरणमें भी हमको नैयायिकोंके प्रति यह कहना है कि वादीके द्वारा साध्यको साधनेमें समर्थ हो रहे अच्छे प्रकार साधनके कह चुकनेपर पुनः वादी करके अप्रकृत बातोंका कहना वादीको अर्थान्तर निग्रहस्थानमें गिरानेके लिये उपयोगी होगा। अथवा क्या वादीके द्वारा साध्य सिद्धि के लिये असमर्थ हेतुका कथन कर चुकनेपर पुनः असम्बद्ध अर्थवाले वाक्योंके कहनेपर प्रतिवादीकरके वादीका अर्थान्तर निग्रहस्थान निरूपण किया जायगा ! बताओ। सायमें दूसरा विकल्प यों भी है कि वादीने पक्षका परिग्रह किया और प्रतिवादाने दूषण देकर असम्बन्ध वाक्योंको कहा, ऐसी दशामें वादीद्वारा प्रतिवादीके ऊपर अर्थान्तर निग्रहस्थान उठाया जाता है । यह प्रश्न है कि वादीके पक्षका खण्डन करमेमें समर्थ हो रहे दूषणके कह चुकनेपर प्रतिवादीके ऊपर वादी अर्थान्तर उठावेगा ? अथवा क्या वादीके पक्षका खण्डन करनेमें असमर्थ हो रहे दूषणके देनेपर पुनः प्रतिवादी यदि असंगत अर्थवाले वाक्योंको बोल रहा है। उस दशामें वादीकरके प्रतिवादीका निग्रहकर दिया गया माना जावेगा ! बताओ ! पूर्वोक्त वादीद्वारा समर्थसाधन कहनेपर या प्रतिवादीद्वारा समर्षदूषण देदेनेपर तो निग्रहस्थान नहीं मिलना चाहिये । क्योंकि अपने कर्तव्य साध्यको मळे प्रकार साधकर अप्रकृत वचन तो क्या यदि कोई नाचे तो मी कुछ दोष नहीं है। जैसे कि लोकमें अपने अपने कर्तव्यको साधकर चाहे कुछ भी कार्य किया जा सकता है। इसमें कोई दोष नहीं देता है । अतः लौकिक व्यवस्थाके अनुसार विशेषरूपसे नियम किया जाता है, तब तो अर्थान्तर निग्रहस्थान नहीं है । हां, वादी या प्रतिवादी द्वारा असमर्थ साधन या दूषणके कहनेपर तो किसीका मी वह निग्रहस्थान नहीं होगा। वादमें किसी भी एकके पक्षकी
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तत्त्वार्थकोकवातिक
सिद्धि हो जानेपर दूसरे असम्बद्धभाषीका अर्थान्तर निग्रहस्थान होगा । अन्य प्रकारोंसे निग्रहस्थान हो जानेकी व्यवस्था नहीं है । पहिले प्रकरणों में इसका विशेषरूपसे निश्चय कर दिया गया है।
निरर्थकं विचारयितुमारभते ।
अब सातवें " निरर्यक" नामक निग्रहस्थानका विचार करनेके रिये श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज प्रारम्भ करते हैं।
वर्णक्रमस्य निर्देशो यथा तद्वनिरर्थकं ।
यथा जबझभेत्यादेः प्रत्याहारस्य कुत्रचित् ॥ १९६ ॥
क, ख, ग, घ आदि वर्णमालाके अक्षरोंके क्रमका निर्देश करना जिस प्रकार निरर्थक है, उसी प्रकार निरर्थक अक्षरों का प्रयोग करनेसे प्रतिपादकका निरर्थक निग्रहस्थान हो जाता है। जैसे कि किसी एक स्थलपर शब्दकी नित्यता सिद्ध करने के अवसरमें व्याकरणके " ज ब ग ड द श, छ भ घ ढ ध ष्, यो अल्, हल्, जश् आदि प्रत्याहारोंका निरूपण करनेवाला पुरुष निगृहीत हो जाता है।
यदुक्तं वर्णक्रमनिर्देशवनिरर्थकं । तद्यथा-नित्यः शद्धो जबगडदशस्त्वाभघढधवदिति। ___जो ही न्यायदर्शनमें गौतमऋषि द्वारा कहा गया है। वर्गों के क्रमका नाममात्र कथन करनेके समान निरर्थक निग्रहस्थान होता है । उसको उदाहरण द्वारा यों दिखलाया गया है कि शब्द ( पक्ष ) नित्य है ( साध्य ) ज ब ग ड द श्पना होनेसे ( हेतु ) श म ध ढ धष्के समान ( दृष्टान्त ) । इस प्रकार वाच्यवाचक भावके नहीं बननेपर अर्थका ज्ञान नहीं होनेसे वर्ण ही क्रमसे किसी पोंगा पण्डितने कह दिये हैं । अतः वह निगृहीत हो जाता है ।
तत्सर्वथार्थशून्यत्वात् किं साध्यानुपयोगतः। द्वयोरादिविकल्पोत्रासंभवादेव तादृशः॥ १९७ ॥ वर्णक्रमादिशद्वस्याप्यर्थवत्त्वात्कथंचन ।
तद्विचारे वचिदनुकार्येणार्थेन योगतः ॥ १९८ ॥
इसार आचार्य महाराज विचार करते हैं कि वह निरर्थक निग्रहस्थान क्या सभी प्रकारों करके अर्थसे शून्यपना होनेसे वक्ताका निग्रह करनेके लिये समर्थ हो जायगा ! अथवा क्या प्रकृत साध्यके साधनेमें उपयोगी नहीं होनेसे निरर्थक वचन वक्ताका निग्रह करा देवेंगे ! बताओ । उन दो
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तत्वार्थचिन्तामणिः
विकल्पों में आदिका विकल्प तो यहां असम्भव हो जानेसे ही योग्य नहीं है । अतः तिस सरीखा यामी निरर्थक सदृश है। क्योंकि जगत् में सभी प्रकार अर्थोंसे शून्य होय ऐसे शब्दोंका असम्भव है । वर्णक्रम, रुदन करना, कीट भाषा, अट्टहास, आदि शब्दोंको भी किसी अपेक्षासे अर्थ सहितपना है । सूक्ष्म दृष्टिसे उसका विचार करनेपर कहीं कहीं अनुकरण कराना रूप अर्थकरके वे शद्व अर्थवान् हैं। किसी न किसी रूपमें सभी शद्वोंका अर्थके साथ योग हो रहा है । छोटे बालकों को पढाते समय वर्णमाला के अक्षरोंका वैसाका बैसा ही उच्चारण करा कर अनुकरण ( नकल ) कराया जाता है । अशुद्ध या अवाच्य शब्द बोलनेवाले अझ जीवके उच्चारणका पुनः आवश्यकता अनुसार अनुवाद करते समय श्रेष्ठवक्ताको भी निकृष्ट शब्द बोलने पडते हैं । काक, पिक आदिके शब्द तो अन्य मी अर्थोको धारण करते हैं । व्याकरणमें तो प्रायः शब्दोंके अनुकरण कहने पडते हैं । अग्नि शब्दकी सुसंज्ञा है । वैश्वानर, आनुपूर्वीकी नहीं । अतः सर्वथा अर्थोंसे शून्य तो कोई शब्द ही ' नहीं है, पहिला बिकल्प गया ।
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द्वितीय कल्पनायां तु सर्वमेव निरर्थकम् । निग्रहस्थानमुक्तं स्यात्सिद्धवन्नोपयोगवत् ॥ १९९ ॥ तस्मान्नेदं पृथग्युक्तं कक्षापिहितकादिवत् । कथाविच्छेदमात्रं तु भवेत्पक्षांतरोक्तिवत् ॥ २०० ॥
हां, दूसरे पक्षकी कल्पना करनेपर पूर्वमें कहे जा चुके सभी निग्रहस्थान निरर्थक निग्रहस्थान ही हो जावेंगे, यों कह दिया गया समझो । प्रसिद्ध हो रहे निरर्थक निग्रहस्थान के समान वे प्रतिहानि आदिक भी कोई साध्यको साधनेमें उपयोगवाळे नहीं है ? अथवा साध्यसिद्धि में अनुपयोगी होनेसे सभी तेईसों निग्रहस्थानोंका निरर्थकमें अन्तर्भाव कर देना चाहिये । तिस कारणसे सिद्ध हो जाता है कि यह निग्रहस्थान पृथक् मानना युक्त नहीं है। जैसे कि खांसना, कांपना, हाथ फटका - रना आदिक कोई मी वक्ताकी क्रियायें साध्य उपयोगी नहीं है, निरर्थक हैं, फिर भी वे न्यारी निग्रहस्थान नहीं मानी गयी है । थोडीसी विशेषताओंसे यदि भिन्न भिन्न निग्रहस्थान माने जावेंगे तो कांख खुजाना या धोतीकी कांछ ढंकना, थूकना, शिरहिलामा आदिकको भी न्यारा निग्रहस्थान मानना पडेगा । वर्णक्रम के समान ये भी साध्यसिद्धि के उपयोगी नहीं है । हां, इस प्रकार निरर्थक बातोंके बकते रहने से वादकथाका केवल विच्छेद तो अवश्य हो जायगा । जैसे कि प्रतिज्ञान्तर, या शब्द मित्य है, इस पक्षको छोडकर आत्मा व्यापक है, इस अन्य पक्षका कथन करना, are वादको बिगाडनेवाला है। इतनेसे ही किसीका जय, पराजय, नहीं हो सकता है 1
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तथाहि - ब्रुवन्न साध्यं न साघनं जानीति असाध्यसाधनं चोपादत्ते इति निगृह्यते स्वपक्षं साधयतान्येन नान्यथा, न्यायविरोधात् ।
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इसी बात को स्पष्टकर कहते हैं कि निरर्थक शब्दोंको कहनेवाला मनुष्य साध्य और साधनको नहीं जानता है । जो साध्यके साधक नहीं है, उन व्यर्थ शब्दों को पकड बैठा है । इस कारण वह निगृहीत हो जाता है । किन्तु बात यह है कि अपने पक्षको अच्छे प्रकार साध रहे दूसरे विद्वान् करके उसका निग्रह किया जावेगा । निरर्थक शद्ववादीका निग्रह नहीं हो सकेगा। क्योंकि न्याय करनेसे नीति मार्ग यही बताता है कि अपने पक्षको साधकर दूसरेका जय कर सकते हो । निर्दोष दो आंखोंवाला पुरुष भले ही दोष दृष्टिसे कानेको काणा कह दे, किन्तु काणा पुरुष तो दूसरे एकाक्षको निन्दापूर्वक काणा नहीं कह सकता है ।
अन्य प्रकारोंसे उस विरोध पडता है ।
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यदप्युक्तं, “ परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थ भाष्ये चोदाहृतमसामर्थ्ये सम्बरणान्निग्रहस्थानं ससामर्थ्य चाज्ञानमिति, तदिह विचार्यते ।
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ra श्री विद्यानन्द स्वामी " अविज्ञातार्थ " निग्रहस्थानका विचार करते हैं । मी अविज्ञातार्थका लक्षण न्यायदर्शनमें गौतमऋषिने यों कह दिया है कि वादी द्वारा तीन वार कहे हुये को भी यदि सभाजन और प्रतिवादी करके नहीं विज्ञात किया जाय तो वादीका अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान हो जाता है । भावार्थ - त्रादीने एक बार पूर्व पक्ष कहा, किन्तु परिषद्के मनुष्य और प्रतिवादीने उसको समझा नहीं, पुनः वादीने दुबारा कहा, फिर भी दोनोंने नहीं समझा, पुनरपि वादी तिवारा कहा, तो भी सभ्यजन और प्रतिवादीने उसको नहीं समझ पाया, तो वादीका "अविज्ञातार्थ " निग्रहस्थान हो जायगा। क्योंकि वादी धोका दे रहा है कि सभ्य और प्रतिवादीको अज्ञान करा देनेसे मेरा जय हो जायेगा । न्यायभाष्य में यों ही उदाहरण देकर कहा है । " यद्वाक्यं परिषदा प्रतिवादिना च त्रिरमिहितमपि न विज्ञायते श्लिष्टशद्वमप्रतीतप्रयोगमतिद्रुतोच्चारितमित्येवमादिना कारणेन तदविज्ञातमविज्ञातार्थमसामर्थ्यसंवरणाय प्रयुक्तमिति निग्रहस्थानम् जो वादीका वाक्य तीन बार कहा जा चुका भी यदि प्रतिवादी और सभ्य पुरुषों करके नहीं जाना जा रहा है, वहां बादीद्वारा श्लेषयुक्त शद्रका प्रयोग किया गया दीखता है, या जिनकी प्रतीति नहीं हो सके, ऐसे वाक्योंका उच्चारण हो रहा है, जैसे कि शब्द के नित्यत्वकी सिद्धिका प्रकरण है वहां " तलकीनमधुगविमलं धूमसळागा विचोरभयमेरु, तटहरखझसा होंति हु माणुसपज्जतसंखंका ॥ सुहमणिवातेआभू वाते आणि पदिट्ठिदं इदरं । वितिचपमादिलाणं एयाराणं तिसेटीय | इसु हीणं विक्खमं चड गुणिदिसुणाइदेदुजीवकदी, बाणकदिं छहिं गुणिदे तच्छजुदे की होदि अथवा अत्यन्त शीघ्र शीघ्र उच्चारण करना, जय लूटनेके लिये गूढ अर्थवाले पदों का प्रयोग करना, इत्यादि कारणोंकरके अपनी असामर्थ्यको छिपा देनेका कुत्सित प्रयत्न करनेसे वादीका अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान हो जाता है । और यदि वादी साध्यको साधने में
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समर्थ है तो
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भी गूढ पदप्रयोग करनेसे, या शीघ्र बोलनेसे, उसका अज्ञान समझा जाता है । इस प्रकरणमें उस अविज्ञातार्थका श्री विद्यानन्द स्वामी विचार चलाते हैं ।
परिषत्पतिवादिभ्यां त्रिरुक्तमपि वादिना । अविज्ञातमविज्ञाताथं तदुक्तं जडात्मभिः ॥ २०१॥ यदा मंदमती तावत्परिषत्पतिवादिनौ ।। तदा सत्यगिरोपेते निग्रहस्थानमापयेत् ॥ २०२ ॥
ज्ञानसे सर्वथा भिन्न अतएव जड हो रही आत्माको माननेवाले नैयायिकोने जो अविज्ञालार्थ का लक्षण वह कहा था कि वादीके द्वारा तीन वार कहे हुये को भी यदि सभाजन और प्रतिवादियोंने नहीं समझा है तो इससे वादीका "अविज्ञातार्थ" निग्रहस्थान है । इसी प्रकार प्रतिवादीके तीन वार कहे हुये को भी यदि वादी और सभ्य जनोंने नहीं जान पाया तो प्रतिवादीका भी अविज्ञायात ( अज्ञान ) निग्रहस्थान है। यहां सबसे पहिले हमको यह कहना है कि जब प्रतिवादी और समाजन मन्दबुद्धिवाले हैं, तब तो समीचीन वाणीसे सहित हो रहे वादीमें भी निग्रहस्थान करा देवेंगे। यानी प्रकाण्ड विद्वान्को पोंगा लोग निग्रहस्थानमें गिरा देवेंगे । यों तो ग्रामीण ठाकुर या गंवारों में चार वेद और चार वेदिनी इस प्रकार आठ वेदोंको वखाननेवाला प्रामीण धूर्त पण्डित भी वेदोंको चार कहनेवाले उद्भट विद्वान्को जीतकर उसकी पुस्तके और यश लेता हुआ कृती हो जायगा । वीस वर्षतक अनेक ग्रन्थोंको पढ चुका, महा विद्वान निगृहीत कर दिया जावेगा।
यदा तु तो महाप्राज्ञौ तदा गूढाभिधानतः। द्रुतोचारादितो वा स्यात्तयोरनवबोधनम् ॥ २०३ ॥ प्राग्विकल्पे कथं युक्तं तस्य निग्रहणं सताम् । पत्रवाक्यप्रयोगेपि वक्तुस्तदनुषंगतः ॥ २०४ ॥
और जब वे परिषद् और प्रतिवादी बडे भारी विचारशील विद्वान् हैं, तब तो हम पंछते हैं कि उन विचक्षणों को वादीके तीन वार कहें हुये का भी अविज्ञान क्यों होयगा ! क्या बादीने गूढपदोंका प्रयोग किया था ! अथवा क्या वादी शीघ्र बड बड कह जाता है, खांसते हुये अलता है, इत्यादि कारणोंसे वे नहीं समझ पाये ? बताओ ! पूर्वका विकल्प स्वीकार करनेपर तो सज्जन पुरुषों के सन्मुख उस वादीका निग्रहस्थान कर देना भला कैसे युक्त हो सकता है ! अर्थात्-नहीं। क्योंकि यों निग्रहस्थाम कर देनेपर तो पत्रवाक्यके प्रयोगमें भी वक्ताको उस अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान
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की प्राप्तिका प्रसंग हो जावेगा । "प्रसिद्धावयववाक्यं स्वेष्टार्थस्य हि साधकं, साधुगूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलं "। जहां गूढ पदोंको पत्रमें लिखकर शास्त्रार्थ किया जाता है, वहां गूढ कथन करनेसे प्रकृष्ट विद्वान्का निग्रह तो नहीं हो जाता है।
पत्रवाक्यं स्वयं वादी व्याचष्टेन्यैरनिश्चितम् । यथा तथैव व्याचष्टां गूढोपन्यासमात्मनः ॥ २०५॥ अव्याख्याने तु तस्यास्तु जयाभावो न निग्रहः । परस्य पक्षसंसिद्धयभावादेतावता ध्रुवम् ॥ २०६ ॥
यदि कोई न्यायवादी यों कहे कि अन्य विद्वानों करके नहीं निश्चित किये गये पत्रवाक्यका जिस प्रकार वादी स्वयं व्याख्यान करता है। जैसे कि " उभान्तवाक् " का अर्थ विश्व किया जाता है। सर्व, विश्व, उम, उभय आदि सर्वादि गणमें विश्वके अन्तमें उभ शब्दका निर्देश है । एवं सैन्यलडभाक् इत्यादिक गूढपदोंका व्याख्यान वादी कर देता है । अतः सभाजन और प्रतिवादीको अर्थका विज्ञान हो जाता है । इस पर आचार्य कहते हैं कि अच्छी बात है कि वह वादी तिस ही प्रकार अपने उच्चारण किये गये गूढकथनका भी व्याख्यान कर देवे । हां, यदि वादी कषाय वश अपने गूढ शद्रोंका व्याख्यान नहीं करता है, तो उसको जय प्राप्त करने का अभाव हो जायगा। किन्तु इतनेसे ही कठिन संस्कृत वाणीको बोलनेवाळे वादीका कदचिद् भी अविज्ञानी पुरुषों करके निग्रहस्थान तो नहीं हो सकता है । क्योंकि दूसरे प्रतिवादीके पक्षकी समीचीन रूपसे सिद्धि होनेका अभाव है । यह निश्चित मार्ग है।।
द्रुतोचारादितस्त्वेतौ कथंचिदवगच्छतौ ।
सिद्धांतद्वयतत्त्वज्ञैस्ततो नाज्ञानसंभवः ।। २०७ ॥ . वक्तुः प्रलापमात्रे तु तयोरनवबोधनम् ।
नाविज्ञातार्थमेतत्स्याद्वर्णानुक्रमवादवत् ॥ २०८ ॥ द्वितीय विकल्प अनुसार वादीके शीघ्र शीघ्र उच्चारण करना, अथवा श ष स एवं ड क या त ट आदिका विवेक नहीं कर अव्यक्त कहना, खांसी श्वास चलना, दांतोंमें त्रुटि होना, ऐसे रोगोंके घश होकर अप्रकट बोला जाना आदि कारणोंसे तो ये प्रतिवादी और सभाजन कुछ न कुछ थोडा बहुत तो अवश्य समझ नावेंगे । क्योंकि मध्यस्थ या समाजन तो वादी और प्रतिवादी दोनोंके सिद्धान्त किये गये तत्त्वोंको समझनेवाले हैं । तिस कारण वादीके अभिप्रेत अर्थका इनको बान
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होना सम्भव नहीं है । हां, यदि वक्ता वादी साध्यके अनुपयोगी शह्नोंका यों ही केवल अनर्थक बचन कर रहा है, ऐसी दशामें उन दोनों समाजन प्रतिवादियोंको वादीके कथित अर्थका ज्ञान नहीं होना तो यह अविज्ञातार्थ नहीं है । यानी परिषद् और प्रतिवादीके नहीं समझनेपर व्यर्थ वचन बोलनेवाले 1 वादी के ऊपर तो अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान नहीं उठाना चाहिये। जैसे कि जब ग ड द श आदि वर्णोंके अनुक्रमका निर्देश कर व्यर्थ कथन करनेवाले वादीके ऊपर अविज्ञातार्थ निग्रह नहीं उठाया जाता है । हां, सभ्यजनों के सन्मुख प्रतिवादी द्वारा स्वपक्षकी सिद्धि हो जानेपर तो यों ही असंगत प्रलाप करने वाळे वादी ऊपर भले ही निरर्थक निग्रहस्थानका आरोप कर दो, अविज्ञातार्थको न्यारा निग्रहस्थान मानने की आवश्यकता नहीं ।
ततो नेदमविज्ञातार्थं निकाद्भिद्यते ।
तिस कारण से यह अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान पूर्वमें मान लिये गये निरर्थक निग्रहस्थान से भिन्न होता हुआ नहीं सिद्ध होपाता है ।
नापार्थकमित्याह ।
तथा नौवां निग्रहस्थान " अपार्थक " भी निरर्थकसे भिन्न नहीं सिद्ध हो सकता है । इस बातको स्वयं ग्रन्थकार स्पष्ट कहते हैं ।
प्रतिसंबंधहीनानां शद्वानामभिभाषणं ।
पौर्वापर्येण योगस्य तत्राभावादपार्थकम् ॥ २०९ ॥ दाडिमानि दशेत्यादिशद्ववत्परिकीर्तनम् ।
ते निरर्थकतो भिन्नं न युक्त्या व्यवतिष्ठते ॥ २९० ॥
" पौर्वापर्य्यायोगादप्रतिसम्बद्धार्थमपार्थकम् " शब्दों के पूर्व अपरपने करके संगतिरूप योगका वहां अभाव हो जानेसे शाद्वबोधके जनक आसक्ति, योग्यता, आकांक्षा ज्ञान आदिके अभाव हो जानेके कारण सम्बन्धहीन शब्दोंका लम्बा चौडा कथन करना अपार्थक निग्रहस्थान है । जैसे कि दश अनार हैं, छह पूा है, बकरीका चमडा है, बम्बई नगर बहुत बडा है, माष वातुल होता है, इत्यादिक शद्व बोलने के समान असंगत शब्दोंका उच्चारण वादीका अपार्थक निग्रहस्थान हो जाना तुम नैयायिकों के यहां कहा गया है । युक्तिद्वारा विचार करनेपर वह अपार्थक तो निरर्थक निप्रइस्थान से पृथक्भूत व्यवस्थित नहीं हो पाता है । क्योंकि निरर्थक में भी वर्णरूपी शब्द निरर्थक हैं । और यहां भी असंगतपद निरर्थक हैं ।
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तत्वार्थ छांक वार्तिके
नैरर्थक्यं हि वर्णानां यथा तद्वत्पदादिषु । नाभियेतान्यथा वाक्यनैरर्थक्यं ततोपरम् ॥ २११ ॥
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जिस ही प्रकार निरर्थक निग्रहस्थानमें ज ब ग ड आदि वर्णोंका निरर्थकपना है, उसीके समान यहां पद आदिमें भी वर्णोंके समुदाय पदोंका साध्य उपयोगी अर्थसे रहितपना है । अतः निरर्थक निग्रहस्थानसे अपार्थक निग्रहस्थान भिन्न नहीं माना जावेगा । अन्यथा यानी वर्णोंकी निरर्थकता से पदोंकी निरर्थकताको यदि न्यारा निग्रहस्थान माना जायेगा तब तो उनसे न्यारा वाक्योंका निरर्थकपना स्वरूप वाक्यनैरर्थक्य नामक निग्रहस्थान भी पृथकू मानना पडेगा । जो कि तुम नैयायिकोंने न्यारा माना नहीं है ।
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न हि परस्परमसंगतानि पदान्येव न पुनर्वाक्यानीति शक्यं वक्तुं तेषामपि पौर्वापर्येण प्रयुज्यमानानां बहुलमुपलम्भात् । " शंखः कदल्यां कदली च भेर्यो तस्यां च भेर्या सुमहद्विमानं । तच्छंखभेरी कदली विमानमुन्मत्तगंगप्रतिमं बभूव ॥ इत्यादिवत् । यदि पुनः पदनैरर्थक्यमेव वाक्यनैरर्थक्यं पदसमुदायत्वाद्वाक्यस्येति मतिस्तदा वर्णनैरर्थक्यमेव पदनैरर्थक्यमस्तु वर्णसमुदायत्वात्पदस्येति मन्यतां ।
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परस्पर में संगतिको नहीं रखनेवाले पद ही होते हैं । किन्तु फिर परस्पर में असम्बद्ध हो रहे कोई वाक्य तो नहीं हैं । तुम नैयायिक यों नियम नहीं कर सकते हो। क्योंकि पूर्व अपर सम्बन्ध करके नहीं प्रयोग किये जारहे उन वाक्योंका भी बहुत स्थानोंपर उपलम्भ हो रहा है। देखिये, शंख harमें है और नगाडे केला है । उस नगाडेमें अच्छा लम्बा चौडा विमान है । वे शंख, नगाडे, छा, और विमान जिस देशमें गंगा उन्मत्त है, उसके समान हो गये । तथा जरद्गवः कम्बलपाणिपादः, द्वारि स्थितो गायति मंगलानि तं ब्राह्मणी पृच्छति पुत्रकामा राजन्नुखायां लशुनस्य कोऽर्थः " हाथ पेरोंमें कम्बलको बांधे हुये बुड्ढा बैल द्वारपर खडा है । मंगल गीतोंको गा रहा है । पुत्रप्राप्तिकी इच्छा रखनेवाली ब्राह्मणी उससे पूंछती है कि हे राजन् ! कसेंडीमें लहसनका क्या प्रयोजन ! इत्यादिक निरर्थक वाक्योंका अनेक प्रकारोंसे श्रवण हो रहा है । यदि फिर आप नैयायिक यों कहे कि पदों का निरर्थकपना ही तो वाक्योंका निरर्थकपना है । क्योंकि पदोंका समुदाय ही तो वाक्य है । अतः अपार्थकसे भिन्न " वाक्यनिरर्थक " नामका निग्रहस्थानको न्यारा माननेकी हमें आवश्यकता नहीं । इस प्रकार नैयायिकोंका मन्तव्य होनेपर तो हम कहेंगे कि वर्णोंका निरर्थकपना ही पदका कपना हो जाओ। क्योंकि वर्णाका समुदाय ही तो पद है । अतः अपार्थकको भी निरर्थकसे मित्र न्यारा निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिये |
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वर्णानां सर्वत्र निरर्थकत्वात्पदस्य निरर्थकत्वमसंग इति चेत्, पदस्थापि निरर्थकत्वात्तत्समदायात्मनो वाक्यस्यापि निरर्थकत्वानुषंगः पदार्थापेक्षपा सार्थकं पदमिति चेत् वर्णापेक्षपा वर्ण: सार्यकोस्तु । प्रकृतिप्रत्ययादिवर्णवत् न प्रकृतिः केवला पदं प्रत्ययो वा, नापि तयोरनर्थकत्वममिव्यक्तार्थाभावादनर्थकत्वे पदस्याप्यनर्थकत्वं । ययैव हि प्रकृत्यर्थः प्रत्ययेनाभिव्यज्यते प्रत्ययार्थः स्वप्रकृत्या तयोः केवलयोरप्रयोगाईत्वात् । तथा देवदत्तस्तिष्ठतीत्यादिप्रयोगेषु सुवंतपदार्थस्य तिङन्तपदेनाभिव्यक्तेः तिङन्तपदार्थस्य च सुबंतपदेनाभिव्यक्तेः केवलस्याप्रयोगार्हत्वादभिव्यक्तार्थाभावो विमान्यत एव । पदांतरापेक्षत्वे सार्थकत्वमेवेति तत्मकृत्यपेक्षस्य प्रत्ययस्य तदपेक्षस्य च प्रकृत्यादिवत्स्वस्य सार्थकत्वं साधयत्येव सर्वथा विशेषाभावात् । ततो वर्णानां पदानां वा संगतार्थानां निरर्थकत्वमिच्छता वाक्यानामप्यसंगतार्थानां निरर्थकत्वमेषितव्यं । तस्य ततः पृथक्त्वेन निग्रहस्थानत्वानिष्टो वर्णपदनिरर्थकत्वयोरपि तथा निग्रहाधिकरणत्वं मा भूत् ।।
यदि नैयायिक यों कहें कि वर्ण तो सर्वत्र ही निरर्थक होते हैं । क, ख, आदि अकेले अकेले वर्णोका कहीं भी कोई अर्थ नहीं माना गया है। अतः निरर्थक वर्णो के समुदायरूप पदको भी यों निरर्थकपनेका प्रसंग हो जायगा, तब तो हम कहेंगे कि अकेले अकेले घटं या आनय आदि पदका भी निरर्थकपना हो जानेसे, उन पदोंके समुदायरूप वाक्यको भी निरर्थकपनका प्रसंग बन बैठेगा । यदि इसका उत्तर आप नैयायिक यों देवें कि प्रत्येक पदके केवल शुद्ध पदके अर्थकी अपेक्षासे पद भी सार्थक है । अतः इस अपार्थक निग्रहस्थानमें ही वाक्यनिरर्थकपनका अन्तर्भाव हो जायगा। यों कहनेपर तो हम जैन भी कह देंगे कि प्रत्येक वर्णके स्वकीय केवल अर्थकी अपेक्षासे वर्ण भी सार्थक बना रहो । एकाक्षरी कोष अनुसार वर्णीका अर्थ प्रसिद्ध ही है । अतः निरर्थक निग्रहस्थानमें अपार्थक निग्रहस्थान अन्तर्भूत हो जावेगा । जैसे कि प्रकृति, प्रत्यय आदिक वर्णका निजी गांठका अर्थ न्यारा है । घट प्रकृतिका अर्थ कम्बु ग्रीवादिमान् व्यक्ति है । और सु विभक्तिका अर्थ एकत्व संख्या है। पच् प्रकृतिका अर्थ पाक है । तिपका अर्थ एकत्व स्वतंत्रकर्ता आदिक हैं । पुष्पेभ्यः यहां अर्थवान् शब्दस्वरूप प्रातिपदिकका अर्थ फूल है। और भ्यस् प्रत्ययका अर्थ बहुत्व तादर्थ्य हैं । अतः वर्ण मी अपना स्वतंत्र न्यारा अर्थ रखते हैं । केवल प्रकृति ही प्रत्यययोगके विना नहीं बोली जाती है । तथा केवळ पद अथवा प्रत्यय भी केवल नहीं कहा जा सकता है। बच्चोंको समझानके लिये भले ही व्याकरणमें यों कह दो कि घट शब्द है। सु विभक्ति काये, उकार इसंबक है, स का विसर्ग हो गया। घटः बन गया। यह प्रयोगोंको केवल साधु बतानेकी प्रक्रिया मात्र है। न कुछ जाता है, और न कहींसे कुछ आता है । वस्तुतः देखा जाय तो केवळ घट या सु प्रत्यय उच्चारण
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तवायं को कवार्तिके
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करने योग्य नहीं है । पहिले से ही 66 ," घट ऐसा बना बनाया सुबन्त पद है । एतावता उन प्रकृति या प्रत्ययको अनर्थकपना नहीं है। यदि आप नैयायिक यों कहें कि अधिक प्रकट हो रहे अर्थ नहीं होने से केवल प्रकृति या केवळ प्रत्यय तो अर्थशून्य है, तब तो हम कहेंगे कि इस प्रकार केवळ पदको भी अनर्थकपना है । ऐसी दशामें अकेले निरर्थक निग्रहस्थान से ही कार्य चल जायगा । अपार्थकका क्यों व्यर्थ में बोझ बढाया जाता है । जिस ही प्रकार प्रत्ययकर के प्रकृतिका अर्थ प्रकट कर दिया जाता है और स्वकीय प्रकृतिसे प्रत्ययका अर्थ व्यक्त हो जाता है, तिप् प्रत्ययसे भू धातुका अर्थ सद्भाव प्रकट हो जाता है और भू धातुसे तिप्का अर्थ कर्त्ता, एकत्व, वर्तमान कालमें ये प्रकट हो जाते हैं, केवळ प्रकृति या केवल प्रत्ययका तो प्रयोग करना युक्त नहीं है । न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या न केवलः प्रत्ययः | तिस ही प्रकार यानी प्रत्ययकी अपेक्षा रखनेवाली प्रकृति और प्रकृतिकी अपेक्षा रखनेवाळे प्रत्यय के समान ही देवदत्त बैठा हुआ है । जिनदत्त जाग रहा है, मोदक खाया जाता है, इत्यादिक प्रयोगों में सु और जस् आदिक प्रत्ययोंको अन्तमें धारण कर रहे देवदत्त, जिनदत्त, मोदक आदि पदोंके अर्थकी तिप् तस् झि, त, आताम्, झ, आदिक तिङ्, प्रत्ययों को अन्तमें धारण करनेवाले तिष्ठति, जागर्ति, मुज्यते आदिक तिङत पदोंकरके अभिव्यक्ति हो जाती है । तथा तिङन्त पदों के अर्थकी सुबन्त पदकरके प्रकटता हो जाती है । केवल तिङन्त या सुबन्त पदक 1 प्रयोग करना उचित नहीं है । केवळ सुबन्त या तिङन्त पदका अर्थ प्रकट नहीं है । यह यहां भी विचार लिया ही जाता है । यदि नैयायिक यों कहें कि अन्य पदकी अपेक्षा रखते हुये तो प्रकृत पदको सार्थकपना ही है, इस प्रकार कइनेपर तो हम कहेंगे कि वह सार्थकपना तो प्रकृतिकी अपेक्षा रखते हुये प्रत्ययको और प्रत्ययकी अपेक्षा रखते हुये प्रकृति आदिके समान स्वके सार्थकपन को साध ही देता है । सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है । भावार्थ- परस्पर में अपेक्षा रखनेवाले प्रत्यय और प्रकृतिके समान एक पदको भी दूसरे पदकी अपेक्षा रखना अनिवार्य है । तभी तो " वर्णानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः पदं " परस्पर में सापेक्ष हो रहे वर्णोंका पुनः अन्यकी नहीं अपेक्षा रखनेवाला समुदाय पद है और " पदानां परस्परापेक्षणां निरपेक्षसमुदायो वाक्य " परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा रखनेवाले पदोंका निरपेक्ष समुदाय वाक्य है । तिस कारणसे कहना पडता है कि संगतिसहित अर्थोंको नहीं धारनेवाले असंगत वर्णों या पदोंका निरर्थकपना चाइनेवाले नैयायिक करके असंगत अर्थवाले वाक्योंका भी निरर्थकपमा इष्छ लेना चाहिये । यदि नैयायिक उस असंगत अर्थवाळे वाक्योंके निरर्थकपनको उस अपार्थक निग्रहस्थानसे पृथक्पने करके दूसरा निग्रहस्थानपना इष्ट नहीं करेंगे तब तो हम कहते हैं कि वर्णोंका निरर्थकपन और पदों का निरर्थकपन के अनुसार हुये । निरर्थक और अपार्थकको भी तिस ही प्रकार न्यारे न्यारे निग्रहस्थान की पात्रता नहीं होओ। अतः सिद्ध होता है कि अपार्थकको न्यारा निग्रहस्थान नहीं माना जावे ।
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यदप्युक्तं अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालं अवयवानां प्रतिज्ञादीनां विपर्ययेणाभिघानं निग्रहस्थानमिति । तदपि न सुघटमित्याह ।
और जो भी नैयायिकोंने दशमें निग्रहस्थान अप्राप्तकालका यह लक्षण कहा था कि प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन इनके क्रमका उल्लंघन कर विपर्यासरूपसे कथन करना अत्राप्तकाल निग्रहस्थान है । अर्थात्-वादी द्वारा अनुमानके अवयव प्रतिज्ञा, हेतु, आदिका विपर्यय करके कथन किया जाना वादीका अप्राप्तकाल निग्रहस्थान है । समाको देखकर क्षोभ हो जानेसे या अज्ञानता छाजानेसे वादी अवयवोंको उल्टा कर बैठता है । वादी प्रतिवादियों के वक्तव्यका क्रम यों है कि पहिले ही वादी करके साधनको कह कर स्वकीय कथनमें सामान्यरूपसे हेत्वाभासोंका निराकरण करना चाहिये, यह एक पाद है । प्रतिवादीको वादीके कथनमें उलाहना देना चाहिये, यह दूसरा पाद है । प्रतिवादीको अपने पक्षकी सिद्धि करना और उसमें हेत्वाभासोका निराकरण करना यह तृतीय पाद है । जय पराजयकी व्यवस्था कर देना चौथा पाद है। यह वादका क्रम है । इसका विपर्यास करनेसे या प्रतिज्ञा, हेतु, आदिकके क्रमसे वचन करनेकी व्यवस्था हो चुकनेपर आगे पीछे कह देने से निग्रह हो जावेगा, इस प्रकार वह नैयायिकों का कहना भी भले प्रकार घटित नहीं होता है । इस बातको ग्रन्थकार वार्तिकों द्वारा स्पष्ट कहते हैं ।
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संधाद्यवयवान्न्यायाद्विषर्यासेन भाषणम् ।
अप्राप्तकालमाख्यातं तच्चायुक्तं मनीषिणाम् ॥ २१२ ॥ पदानां क्रमनियमं विनार्थाध्यवसायतः । देवदत्तादिवाक्येषु शास्त्रेष्वेवं विनिर्णयात् ।। २१३ ॥
।
प्रतिज्ञा, हेतु, आदि अवयवोंके कथन करनेके न्यायमार्गसे विपरीतपने करके भाषण करना वक्ताका अप्राप्तकाळ निग्रहस्थान हो चुका बखाना गया है । किन्तु वह न्यायबुद्धिको रखनेवाले गौतम ऋषिका कथन बुद्धिमानोंके सन्मुख समुचित नहीं पडता है । क्योंकि पदोंके क्रमकी नियतिके विना भी अर्थका निर्णय हो जाता है । देवदत्त ( कर्त्ता ) लड्डुको ( कर्म ) खाता है (क्रिया) । लड्डूको देवदत्त खाता है या खाता है (क्रिया) देवदत्त ( कर्त्ता ) लड्डुको ( कर्म ), अथवा छड्डूको खाता है देवदत्त, इत्यादिक लौकिक वाक्योंमें पदोंका व्युत्क्रम हो जानेसे भी अर्थकी प्रतिपत्ति हो जाती है। इसी प्रकार शास्त्रोंमें भी कर्त्ता, कर्म, क्रिया या प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण आदिका क्रमभंग हो जानेपर भी अर्थका विशेषरूपसे निर्णय हो जाता है । पद्य आत्मक छन्दोंमें आगे पीछे कहे गये पदोंको सुनकर भी संगत अर्थकी झटिति यथार्थ प्रतिपत्ति हो जाती है । प्रौढ विद्वान् श्लोकोंकों पढते जाते हैं, ट अर्थको साथ साथ समझते जाते हैं। अतः अप्राप्तकाल निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिये ।
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
यथापशद्वतः शद्वप्रत्ययादर्थनिश्चयः । शादेव तथाश्वादिव्युत्क्रमाच्च क्रमस्य वित् ॥ २९४ ॥ ततो वाक्यार्थनिर्णीतिः पारंपर्येण जायते । विपर्यासात्तु नैवेति केचिदाहुस्तदप्यसत् ॥ २१५ ॥
यहां कोई नैयायिक यों कह रहे हैं कि जिस प्रकार अशुद्ध या अपभ्रष्ट शब्दोंसे समीचीन शब्दों का ज्ञान होकर पुनः शुद्ध शब्दोंसे जो अर्थका निर्णय हुआ है, वह शुद्ध शब्दोंसे ही वाक्यार्थ ज्ञान हुआ मानना चाहिये। गाय, गैया, काऊ, ( Cow ) आदि अपभ्रंश शब्दों को सुन कर गो शब्दकी प्रतिपत्ति हो जाती है । पश्चात् शुद्ध गोशब्दसे ही सींग और सास्नावाळी व्यक्ति का प्रतिभास होता है । तिस ही प्रकार अश्व, देवदत्त आदि पदोंके अक्रमसे उच्चारण करनेपर प्रथम
पदोंके क्रमका ज्ञान होता है और उसके पीछे वाक्यके अर्थका निर्णय परम्परासे उत्पन्न किया जाता है । पदोंके विपर्ययते तो कैसे भी वाक्य अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं हो पाती है। अनुष्टुभ् आदिक शब्दोंमें या लड्डुको देवदत्त खाता है, आदिक क्रमरहित वाक्यों में पहिले उन पदोंको सुनकर कर्त्ता, कर्म, क्रियारूप क्रम बना लिया जाता है । पश्चात् वाक्यार्थ निर्णय किया जाता है ।
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धूमवत्त्वात् वन्हिमान् पर्वतः " इस प्रकार अवयवोंके क्रमसे रहित दूषित वाक्यको सुनकर पहिले " पर्वतो हिमान् धूमात् " यह शुद्धवाक्य जान लिया जाता है । पश्चात् अवयवोंके क्रमसे सहित उस सत्यवाक्यसे अर्थ की प्रतिपत्ति परम्परासे उपजती है । अशुद्ध वाक्योंसे साक्षात् अर्थज्ञप्ति नहीं हो सकती है । इस प्रकार कोई नैयायिक कह रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि उनका वह कहना भी प्रशस्त नहीं है ।
व्युत्क्रमादर्थनिर्णीतिरपशब्दादिवेत्यपि ।
वक्तुं शक्तेस्तथा दृष्टेः सर्वथाप्यविशेषतः ॥ २१६ ॥
आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार क्रमयोजनाकी प्रतीति नहीं होती है, जैसे अपभ्रंश या अशुद्ध शब्दों से कम नहीं होते हुये भी शिशु गंवार या असभ्य पुरुषों अथवा द्विभाषियोंको अर्थका निर्णय हो जाता है, उसी प्रकार कर्त्ता, कर्म या प्रतिज्ञा हेतु आदिका क्रमरहितपन हो जाने से भी अर्थप्रतिपत्ति हो जाती है, यह भी हम कह सकते हैं। क्योंकि उच्चारित किये जिस शब्द से जिस अर्थ में प्रतीति हो रही देखी जाती है, वही शब्द उसका बाचक है, अन्य नहीं । अन्यथा हम यों भी कह सकते हैं कि संस्कृत शब्दसे अपशब्द या व्युत्क्रममें स्मरण किया जाकर उससे अर्थ प्रतीति होती है । तिम्री प्रकार क्रमभिन्न पदोंसे भी शाब्दबोध हो रहा देखा जाता है ।
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तस्वार्थचिन्तामणिः
इस विषयमें लौकिक मार्ग और शास्त्रीय मार्गमें सभी प्रकारों से कोई विशेषता नहीं है। छोराको दूध पिआदे, मेंटो जामन मरणकू, तन्नमामि परंज्योतिः, धूमात वन्हिमान् पर्वतः " श्रिय क्रियायस्थ, सुरागमे नटत्सुरेन्द्रनेत्रप्रतिबिम्बलांछिता, सभा बभौ रत्नमयी महोत्पलैः कृतोपहारेव स बोऽग्रनोजिनः " इत्यादि वाक्योंमें पदोंका ठीक ठीक विन्यास नहीं होते हुये भी श्रोताको अर्थका निश्चय अब्यवहित उनसे हो जाता है।
शद्वान्वाख्यानवैयर्थ्यमेवं चेत्तत्त्ववादिनाम् । नापशद्वेष्वपि प्रायो व्याख्यानस्योपलक्षणात् ॥ २१७ ।।
यदि नैयायिक यों कहें कि शब्द आदिसे अप शब्द आदिका स्मरण कर अर्थ ज्ञान कर लेना इस प्रकार तो तत्वोंके प्रतिपादन करनेवाले विद्वानोंका पुनः सुशद्वों द्वारा व्याख्यान करना अथवा पुनः पुनः कथनस्वरूप अन्वाख्यान करना व्यर्थ पडेगा । श्लोकाका अन्वय किया जाता है। क्रम भंगसे कहे गये शद्वोंको पुनः क्रमयुक्त कर वखाना खाता है। अतः क्रमसे या.. शद्बोंसे ही अर्थ प्रतिपत्ति हुई, इस प्रकार कहनेपर तो हम कहते हैं कि यों तो नहीं कहना । क्योंकि अशुद्ध शद्बोंमें भी बाहुल्य करके व्याख्यानका होना देखा जाता है । अर्थात् त्वम् किं पठसि ! तू क्या पढता है ! इसकी इंग्रेजी बनानेपर क्रिया पहिले आ जाती है। अग्नि, विधि, परिधि, आदि पुल्लिंग शब्दोंका वखान देश भाषामें स्त्रीलिंग रूपसे करना पडता है । ग्रामीणोंको समझाने के लिये संस्कृत शब्दोंका शद्रोंका गंवारू भाषामें पण्डितों द्वारा व्याख्यान करना पडता है । तब कहीं वे समझ पाते हैं । अपशद्वोंमें भी अन्वाख्यान हो रहा देखा जाता है।
यथा च संस्कृताच्छद्वात्सत्याद्धर्मस्तथान्यतः। स्यादसत्यादधर्मः क नियमः पुण्यपापयोः ॥ २१८ ॥
और जिस प्रकार व्याकरणमें प्रकृति प्रत्ययों द्वारा बनाये गये संस्कारयुक्त प्रत्य शबोंसे धर्म उत्पन्न होता है, उसी प्रकार अन्य ग्रामीण शद्बों या देश भाषाके अशुद्ध किन्तु सत्य शब्दोंमें भी धर्म ( पुण्य ) होता है । तथा असत्य संस्कृत शब्दोंसे जैसे अधर्म (पाप) उपजता है, वैसे झूठे अपभ्रष्ट शबोंसे भी पाप उपजता है। ऐसी दशामें भला पुण्य, पापका, नियम कहां रहा ! कि संस्कृत शब्द चाहे सच्चे या झूठे हों उनसे पुण्य ही मिलेगा और असंस्कृत शब्द चाहे सच्चे ही क्यों नहीं होय, किन्तु उनसे पापकी ही प्राप्ति होगी। उक्त नियम माननेपर देश माषाओंके शास्त्र, विनती पद, सब व्यर्थ हो जायंगे । इतना ही नहीं किन्तु पापबन्धके कारण भी होयेंगे । शवोंसे ही पुण्य पापकी व्यवस्था माननेपर अन्य उपायोंका अनुष्ठान व्यर्य पडेगा। उर्दसे भुसी न्यारी है । " कंडसिपुणुणं स्वेवसिरेंगदहा । जवं पत्येसि खादितुं " " अणत्थ किं फलो वहा तुम्ही इत्य बुधिया छिंदे,
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तस्वार्थ शोकवार्तिके
अंकेच्छेद इकोमिया " " अह्या दोणं दिभवं दिहादोदि सरामयं तुह्य " आदि असंस्कृत शब्दोंसे भी तत्वज्ञान हो गया माना जाता है । अतः शद्बोंसे पुण्य पापकी उत्पत्तिका नियम नहीं है । अधा. मिक पुरुष भी संस्कृत शब्दोंको बोलते हैं। धर्मात्मा भी अपभ्रंश या व्युत्क्रम कथन करते हैं।
वृद्धप्रसिद्धितस्त्वेष व्यवहारः प्रवर्तते । संस्कृतैरिति सर्वापशब्दैर्भाषास्वनैरिव ॥ २१९ ॥
वृद्ध पुरुषाओंकी परम्परा प्रसिद्धिसे यह व्यवहार प्रवर्त रहा है कि देशभाषाके शब्दोंकरके जैसे अर्थ निर्णय हो जाता है, उसी प्रकार संस्कृत शब्द और सम्पूर्ण अपभ्रंष्ट शब्दोंकरके मी अर्थ प्रतिपत्ति हो जाती है । विशेष यह है कि हा, अनभ्यास दशामें भले ही किसीको शब्दयोजनाके क्रमसे वाच्य अर्थकी ज्ञप्ति होय, किन्तु अत्यधिक अभ्यास हो जानेपर क्रम और अक्रम दोनों प्रकारसे अर्थ निर्णय हो जाता है । बडी कठिनतासे समझे जाय, ऐसे वाक्योंमें शब्दोंके क्रमको योजना करनी पडती है । किन्तु सरल वाक्योंको व्युत्क्रमसे भी समझ लिया जाता है ।
ततोनिश्चयो येन पदेन क्रमशः स्थितः।
तद्यतिक्रमणादोषो नैरर्थक्यं न चापरम् ॥ २२०॥
तिस कारणसे सिद्ध हो जाता है कि प्रतिज्ञा आदि अवयवोंका क्रमसे प्रयोग किया गया होय या अक्रम निरूपण किया गया होय, श्रोताके क्षयोपशमके अनुसार दोनों ढंगसे अर्थ निर्णय हो सकता है । हां, कचित् जिन पदोंके क्रमसे ही उच्चारण करनेपर अर्थका निश्चय होना व्यवस्थित हो रहा है, उन पदोंका व्यतिक्रमण हो जानेसे श्रोताको अर्थका निश्चय नहीं हो पाता है। यह अवश्य दोष है, एतावता वह निरर्थक दोष ही समझा जायगा । उससे भिन्न अप्राप्तकाल नामक निग्रहस्थान मानने की आवश्यकता नहीं ।
एतेनैतदपि प्रत्याख्यातं । यदाहोद्योतकरः " यथा गौरित्यस्य पदस्यार्थे गौणीति प्रयुज्यमानं पदं न वत्क्रादिमतमर्थ प्रतिपादयतीति न शब्दाद्याख्यानं व्यर्थ अनेनापशब्दे नासौ गोशब्दमेव प्रतिपद्यते गोशब्दाद्वक्त्रादिमंतमर्थ तथा प्रतिज्ञाद्यवयवविपर्ययेणानुपूर्वी प्रतिपद्यते तयानुपूर्व्यार्थमिति । पूर्व हि तावत्कर्मोपादीयते लोके ततोधिकरणादि मृत्पिरचक्रादिवत् । तथा नैवायं समयोपि त्वर्थस्यानुपूर्वी । " सोयमानुपूर्वीमन्याचक्षाणो नाम व्याख्येयात् कस्यायं समय इति । तथा शास्त्रे वाक्यार्थसंग्रहार्थमुपादीयते संगृहीतं त्वर्थ वाक्येन प्रतिपादयिता प्रयोगकाले प्रतिज्ञादिकयानुपूर्व्या प्रतिपादयतीति सर्वथानुपूर्वी प्रतिपादनाभावादेवाप्राप्तकारस्य निग्रहस्थानत्वसमर्थनादन्यथा परचोद्यस्यैवमपि सिद्धः ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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समयानभ्युपगमाद्बहुप्रयोगाच्च नैवावयवविपर्यासवचनं निग्रहस्थानमित्येतस्य परिहर्तुमशक्तेः। सार्यानुपूर्वी प्रतिपादनाभावोऽवयवविपर्यासवचनस्य निरर्थकत्वान्न्याय्यः । ततो नेदं निग्रहस्थानांतरं।
- पाचार्य कहते हैं कि इस कथनसे यह कथन भी खण्डित कर दिया गया समझो जो कि उद्योतकर पण्डित यों कह रहे हैं कि जिस प्रकार गौ इस संस्कृत पदके अर्थमें यदि गौणी, गाय, गया ऐसे पदोंका प्रयोग कर दिया जाय तो वह मुख श्रृंग साना, आदिसे सहित हो रहे अर्थका प्रतिपादन नहीं कर सकता है। इस कारण अशुद्ध शद्बका संस्कृत शब्दसे व्याख्यान करना व्यर्थ नहीं हैं । इन अशुद्ध शब्दोंको सुनकर वह श्रोता पहिले सत्य गो शब्दको हो
समझता है । पश्चात् गो शब्दसे वदन, चतुष्पाद, सींग आदिसे समवेत हो रहे अर्थको जान 'लेता है। इसी प्रकार प्रतिज्ञा, हेतु, अवयवोंके विपर्यास करके जहां अक्रम शब्दोंका उच्चारण किया गया है, वहां श्रोता प्रथम ही तो पदोंका अनुक्रम बनाकर शब्दोंकी आनुपूर्वीको अन्वित करता हुआ जान लेता है । पीछे सरलतापूर्वक शाब्दबोधको करानेवाली उस भानुपूर्वीसे प्रकृत वाध्य अर्थ को जान लेता है । अतः अक्रमसे नहीं होकर पदोंके ठीक क्रमसे ही अर्थनिर्णय हुआ। लोकमें भी यही देखा जाता है कि सबसे पहिले कर्मको कहनेवाले शब्दका ग्रहण किया जाता है। उसके पीछे अधिकरण सम्प्रदान आदिका प्रयोग होता है । जैसे कि घटको बमानेके लिये पहिले मिट्टीकी छंडि की जाती है । पुनः चक्र, दण्ड, डोरा आदिका उपादान किया जाता है। कार्योंके अनुसार ही उनकी वाचक योजनाओं का क्रम है । अर्थके अनुसार ही शब्द चलता है। मिट्टीको चाकपर रखकर शीतल जलको लिये घट आकारको बनाओ तथा यह शब्दसंकेत भी अक्रमसे नहीं है। किन्तु वाध्य अर्थकी आनुपूर्वी के अनुसार वाचक शब्दोंका क्रम अवश्य होना चाहिये । बाल्य अर्थोकी प्रतिपत्तिके क्रम अनुसार पूर्ववर्ती शब्दोंके पीछे अनुकूल शब्दोंका अनुगमन करमा शब्दकी मानुपूर्वी है, जो कि परिणमन कर रहे वास्तविक अर्थकी आनुपूर्वीकी सहेली है । इस उद्योतकरके कथनपर भाचार्य महारान कहते हैं कि अर्थकी आनुपूर्वीका शब्दोंद्वारा पीछे पीछे व्याख्यान कर रहा उद्योतकर उस दार्शनिकका माम वखाने कि यह किसका शास्त्र है, जो कि अर्थकी आनुपूर्वीके साथ ही शब्दयोजनाको स्वीकार करता है। जब कि साहित्यज्ञ विद्वान अन्वयरहित श्लोकोंको भी पढकर शीघ्र अर्थ लगाते जाते हैं । लोकमें भी भाषा छन्दों या ग्रामीण शब्दोंमें अन्वय योजनाके विना भी झट अर्थकी ज्ञप्ति हो जाती है । तिसी प्रकार शास्त्रमें वाक्य अर्थाका संग्रह करने के लिये शद्वोंका उपादान किया जाता है । और संग्रह किये गये अर्थको तो वाक्योंके द्वारा वक्ता प्रयोग करनेके अवसरपर प्रतिज्ञा, हेतु, आदिक, रूप आनुपूर्वीसे कह कर समझा देता है । इस प्रकार सभी प्रकारोंसे आनुपूर्वीका प्रतिपादन नहीं होनेसे ही अप्राप्तकाल के निग्रहस्थानपनका समर्थन किया गया है । अन्यथा दूसरोंकी प्रश्नमालाकी उस प्रकार प्रयत्न करनेपर भी
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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
प्रसिद्धि बनी रहेगी, जब कि किसी शास्त्रमें ऐसा संकेत नहीं है कि क्रमसे ही वाक्योंको बोलना चाहिये तथा क्रमसे बोलनेमें बहुत शोंका प्रयोग करना पडता है। इस कारणसे भी अवयवोंका विपर्यास रूपसे कथन करना निग्रहस्थान नहीं है। इस कथनका तुम नैयायिक परिहार नहीं कर सकते हो । विशेष यह कहना है कि हां “ पर्वतो भुक्तं वन्हिमान् देवदत्तेन " या रोटीको पहिनो अंगरखाको खाओ इत्यादि स्थलोंमें शद्वोंकी ठीक ठीक आनुपूर्वी पर्वतो वन्हिमान, देवदत्तेन मुक्तं, अंगरखाको पहिनो, रोटीको खाओ, " करनेसे ही अर्थका प्रतिपादन होता है। वहां यदि सभी प्रकारोंसे अर्थकी आनुपूर्वीके प्रतिपादनका अभाव है, ऐसी दशामें अवयवोंके विपर्यास कथनको क्लुप्त हो रहे निरर्थकपनसे ही वादीका निग्रहस्थान कहना न्यायसे अनपेत है। उस निरर्थकसे इस अप्राप्तकालको न्यारा निग्रहस्थान मानना न्याय अनुमोदित नहीं है। आपको नीतिपूर्ण बातें कहनी चाहिये, कच्ची समझकी बातें नहीं।
यञ्चोक्तं हीनमन्यतमेनाप्यवयवेन न्यूनं । यस्मिन् वाक्ये प्रतिज्ञादीनामन्यतमावयनो न भवति तद्वाक्यं हीनं वेदितव्यं । तच्च निग्रहस्थानसाधनाभावे साध्यसिद्धेरभावात् पतिज्ञादीनां पंचानामपि साधनत्वात् ।
और जो नैयायिकोंने हीननिग्रहस्थानका लक्षण यों कहा था कि अनुमानके नियत किये गये अवयवों से एक भी अवयवसे जो न्यून कहा जायगा, वह “हान " नामक निग्रहस्थान होगा। इसका अर्थ यों है कि जिस अनुमान वाक्यमें प्रतिज्ञा आदिकोंमेंसे कोई भी एक अवयव नहीं कहा गया होता है, वह वाक्य हीन समझना चाहिये और ऐसे वाक्यका उच्चारण करनेवाला पण्डित हीन निग्रहस्थानको प्राप्त होता हुआ पराजित हो जायगा । वह हीन तो निग्रहस्थान यों माना गया है कि साधनों के अभाव होनेपर साध्यकी सिद्धि का अभाव हो जाता है। जब कि प्रतिज्ञा मादिक पांचों भी अवयवोंको अनुमानका साधकपना है, तो एक अवयवके भी कमती बोलनेपर न्यूनता आजाती है।
प्रतिज्ञान्यूनं नास्तीत्येके । तत्र पर्यनुयोज्याः प्रतिज्ञान्यूनं वाक्यं यो ब्रूते स किं निगृह्यते ? अथवा नेति, यदि निगृह्यते कथमनिग्रहस्थानं ? न हि तत्र हेत्वादयो न संति न च हेत्वादिदोषाः संतीति निग्रहं चाभ्युपैति । तस्मात्प्रतिज्ञान्यूनमेवेति । अथ न निग्रहः न्यूनं वाक्यमर्थ साधयतीति साधनाभावे सिद्धिरभ्युपगता भवति । यच्च ब्रवीषि सिद्धांतपरिग्रह एव प्रतिज्ञेति, तदपि न बुध्द्यामहे । कर्मण उपादानं हि प्रतिज्ञासामान्य विशेषतो. वधारितस्य वस्तुनः परिग्रहः सिद्धांत इति कथमनयोरैक्यं, यतः प्रतिज्ञासाधनविषयतया साधनांग न स्यादित्युद्योतकरस्याकूतं, तदेतदपि न समीचीनमिति दर्शयति ।
अभी नैयायिक ही कहे जा रहे हैं कि हेतु, उदाहरण, आदिसे न्यून हो रहे वाक्यको भले ही हीन कह दिया जाय, किन्तु प्रतिज्ञासे न्यून हो रहे वाक्यको हीन नहीं कहना चाहिये ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
क्योंकि प्रतिज्ञा तो कहे विना यों ही प्रकरण द्वारा गम्यमान हो जाती है । गम्यमानका पुनः शद्वों द्वारा उच्चारण नहीं करना चाहिये । इस प्रकार कोई एक विद्वान् हम नैयायिकों के ऊपर कटाक्ष कर रहे हैं। उनके ऊपर हमको यहां यह प्रश्न उठाना पडता है कि जो विद्वान् प्रतिज्ञासे न्यून हो रहे वाक्यको कह रहा है, वह क्या निग्रहस्थानको प्राप्त होता है ? अथवा नहीं प्राप्त होता है ! इसका उत्तर दो । यदि प्रथमपक्ष के अनुसार वह निग्रहको प्राप्त हो जाता है तो वह प्रतिज्ञान्यून किस प्रकार निग्रहस्थान नहीं है ? यानी प्रतिज्ञासे न्यून कहना अवश्य वादीका निग्रहस्थान है । प्रतिज्ञासे न्यून हो रहे उस वाक्यमें हेतु, उदाहरण आदिक नहीं है, अतः वह निगृहीत हो जाता है, यह तो नहीं कह सकते हो। क्योंकि उस वाक्यमें हेतु आदिक प्रतीत हो रहे हैं। तथा तुम यों कह दो कि उस प्रतिज्ञान्यून वाक्यमें हेतु उदाहरण आदिके दोष पाये जाते हैं। इस कारण को प्राप्त हो जाता है । प्रतिज्ञाकी न्यूनता कोई दोष नहीं, सो भी तुम नहीं स्वीकार कर सकते हो | क्योंकि वहां निर्दोष हेतु आदिक देखे जा रहे हैं । तिस कारण से वहां प्रतिज्ञान्यून ही निग्रहस्थान मानना आवश्यक है । अन्य कोई त्रुटि नहीं है । द्वितीय पक्ष अनुसार प्रतिज्ञान्यून वाक्यको कह रहे वादीका यदि निग्रह नहीं माना जायगा तब तो तुम्हारे यहां न्यून हो रहा वाक्य ant सिद्धि करा देता है । इस कारण साधनके नहीं होनेपर साध्यकी सिद्धि स्वीकार कर ली गयी समझी जाती है, जो कि न्यायनियमसे विरुद्ध है । वाचक शद्वोंके विना वाच्य अर्थकी और साधन वाक्योंके विना साध्य अर्थकी सिद्धि कथमपि नहीं हो सकती है । और जो तुम एक विद्वान् यों कहते हो कि स्वकीय सिद्धान्त कहनेका परिग्रह करना ही तो प्रतिज्ञा है । इस कारण उसको पुनः पुनः कहने की क्या आवश्यकता है ? विद्वानोंको गम्भीर वाक्योंका प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार तुम्हारी उस बात को भी हम नहीं कुछ समझ पाते हैं। मला विचारो तो सही सिद्धान्तका परिग्रह करना कैसे प्रतिज्ञा हो सकती है ! साधने योग्य कर्मका ग्रहण करना तो नियमसे प्रतिज्ञा सामान्य है । और विशेषरूपसे निर्णय की जा चुकी वस्तुका परिग्रह करना सिद्धान्त है । इस प्रकार भला इनका एकपना कैसे समझा जा सकता है, जिससे कि साध्यसिद्धिका उपयोगी विषय होनेसे प्रतिज्ञावाक्य साध्यको साधनेका अंगभूत नहीं होती, अर्थात् प्रतिज्ञा साध्यसिद्धिका अंग है । उसको नहीं कहनेवाला वादी अवश्य निगृहीत हो जावेगा । इस प्रकार उद्योतकर पण्डितकी न्यूनको निग्रहस्थान सिद्ध करने की चेष्टा हो रही है। अब आचार्य महाराज कहते हैं कि यह उनका अकाण्ड ताण्डवके समान चेष्टा करना भी अच्छा नहीं है । इस बातको ग्रन्थकार स्वयं वार्तिक द्वारा दिखाते हैं ।
हीनमन्यतमेनापि वाक्यं स्वावयवेन यत् ।
तन्न्युनमित्यसत्स्वार्थे प्रतीतेस्तादृशादपि ॥ २२९ ॥
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तत्वार्थ लोकवातिके
"
नैयायिकोंने गौतम सूत्र अनुसार यों कहा है कि जो वाक्य प्रतिज्ञा आदिक अवयवोंमेंसे एक भी अपने अवयव करके हीन होता है, वह न्यून निहप्रस्थान है । इस प्रकार नैयायिकोंका कहना माननीय नहीं है । क्योंकि तिस प्रकारके न्यून हो रहे वाक्यसे भी परिपूर्ण स्वकीय अर्थ में प्रतीति हो रही देखी जाती है । " पुष्पेभ्यः " इतना मात्र कह देने से ही " स्पृहयति का उपस्कार फूलों के लिये अभिलाषा करता है, यह अर्थ निकल पडता I " जीमो " कह देने से ही रसवतीका अध्याहार होकर पूरे स्वार्थकी प्रतिपत्ति हो जाती है । अतः पाण्डित्यपूर्ण स्वल्प, गम्भीर, निरूपण करनेवालों के यहां न्यूम कोई निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिये ।
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यावदवयवं वाक्यं साध्यं साधयति तावद्वयवमेव साधनं न च पंचावयवमेव साध्यं साधयति क्वचित्प्रतिज्ञामंबरेणापि साधनवाक्यस्योत्पत्तेर्गम्यमानस्य कर्मणः साधमात् । तथोदाहरणहीनमपि साधनवाक्यमुपपन्नं साधर्म्यवैधम्र्योदाहरणविरहेपि हेतोर्गमकत्वसमर्थ - नात् । तत एवोपनयनिगमनहीनमपि वाक्यं व साधनं प्रतिज्ञाहीनवत् विदुषः प्रति हेतोरेव केवलस्य प्रयोगाभ्युपगमात् । धूमोत्र दृश्यते इत्युक्तेपि कस्यचिदग्निप्रतिपत्तेः प्रवृचिदर्शनात् ।
उपयोगी हो रहे जितने अवयवोंसे सहित हो रहा वाक्य प्रकृत साध्यको साथ देता है, उतने ही अवयवोंसे युक्त हो रहे वाक्यको साध्यका साधक माना जाता है। पांचो ही अवयव कहें जाय तभी साध्यको साधते हैं, ऐसा तो नियम नहीं है। देखिये, कहीं कहीं प्रतिज्ञा वाक्य के विना भी हेतु आदिक चार अवयवों के वाक्यको अनुमान वाक्यपनेकी उपपत्ति है, या प्रतिज्ञाके विना भी चार अवयवोंद्वारा साधनवाक्यकी उपपत्ति हो जाती है । क्योंकि विना कहे यों ही जान लिये गये साध्यस्वरूप कर्म की सिद्धि कर दी जाती है । प्रतिज्ञा वाक्यके कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । तिसी प्रकार उदाहरणसे हीन हो रहे भी अनुमिति साधनवाक्यकी उपपत्ति हो चुकी समझनी चाहिये । हेतु और साध्य के धर्मापनको धार रहे अन्वयदृष्टान्त एवं हेतु और साध्यके विधर्मापनको धार रहे व्यतिरेक दृष्टान्तके बिना भी हेतु के गमकपनका समर्थन कर दिया गया है। कहीं तो समर्थन कर दिया गया हेतु ही अकेला साध्यको साधने में पर्याप्त हो जाता है। तिस ही कारण से उपमय और निगमनसे हीन हो रहा वाक्य भी परार्थ अनुमानका साधन हो जाता है, जैसे कि प्रतिज्ञाहीन वाक्यसे साध्यकी सिद्धि हो जाती है। क्योंकि विद्वानोंके प्रति केवल हेतुका ही प्रयोग करना स्वीकार किया गया है । यहां धुआं दीख रहा है। इतना कहे जा चुकनेपर भी किसी किसी उदास विद्वान्को निकी प्रतिपत्ति हो जाती है । और उससे यथार्थ अग्निको पकडने के लिये उसकी प्रवृत्ति हो रही देखी जाती है ।
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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सामर्थ्याद्गम्यमानास्तत्र प्रतिज्ञादयोपि संतीति चेत्, तर्हि प्रयुज्यमाना न संतीति तैर्विनापि साध्यसिद्धेः न तेषां वचनं साधनं साध्याविनाभावि साधनमंतरेण साध्यसिद्धेरसंभवात् । तद्वचनमेव साधनमतस्तन्न्यून न निग्रहस्थानं परस्य स्वपक्षसिद्धौ सत्यामित्येतदेव श्रेयः प्रतिपद्यामहे ।
यदि तुम नैयायिक यों कहो कि प्रतिज्ञासे न्यून उदाहरणसे न्यून उपमयसे न्यून और निगमनसे न्यून हो रहे उन वाक्योंमें प्रतिज्ञा आदिक भी गम्यमान हो रहे विद्यमान हैं । अतः पांचों अवयवोंसे साध्यका साधन हुआ, न्यूनसे नहीं । यों कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि वे प्रतिज्ञा आदिक वहां कंठो प्रयोग किये जा रहे तो नहीं हैं । इस कारण उनके विना भी साध्यकी सिद्धि होगई, यह हमको कहना है । दूसरी बात यह भी है कि उनका कथन करना आवश्यक रूप से साध्य सिद्धिमें प्रयोजक नहीं है । केवल हेतुका वचन अनिवार्य है । क्योंकि साध्य के साथ अविनाभाव रखनेवाले साधन के विना साध्यसिद्धिका असम्भव है । अतः उस ज्ञापक हेतुका कथन करना ही अनुमानका प्रधान साधन है । इस कारण उस हेतुसे न्यून हो रहे वाक्यको भले ही वादीकी न्यूनता कह दो, किन्तु वह न्यून नामक त्रुटि वादीका निग्रहस्थान नहीं करा सकती है। हां, दूसरे विद्वान् के निजपक्षकी सिद्धि होनेपर तो " न्यून " वादीका निग्रहस्थान कहा जा सकता है । पहिलेले हम इसी सिद्धान्तको श्रेष्ठ समझते चले आ रहे हैं। अथवा न शब्दको निकाल देनेपर यों अर्थ किया जाता है कि पक्ष और हेतुका कथन किये विना साध्यकी सिद्धि नहीं हो पाती है । अतः उन दोसे न्यून रहे वाक्यको ही न्यून निग्रहस्थान मानो । किन्तु दूसरे अगले विद्वान्को स्वपक्षकी सिद्धि करना आवश्यक है । अन्यथा वादीका निग्रहस्थान नहीं, जयाभाव मंडे ही कहलो ।
प्रतिज्ञादिवचनं तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रयुज्यमानं न निवार्यते तत एवासिद्धो हेतुरित्यादिप्रतिज्ञावचनं हेतुदूषणोद्भावनकाले कस्यचिन्न विरुध्यते तदवचननियमानभ्युपगमात् ।
समझाने योग्य शिष्यके अभिप्रायकी अनुकूलता करके कण्ठोक शब्दोंद्वारा प्रयुक्त किये जा रहे प्रतिज्ञा हेतु आदिके कथन करनेका तो निवारण हम नहीं करते हैं । तिस ही कारणसे तो हेतुके दूषण उठाने के अवसरपर किसी एक विद्वान्का यह हेतु असिद्ध है, यह हेतु विरुद्ध है, इस अनुमानमें उपनय वाक्य महीं बोला गया है, इत्यादिक प्रतिज्ञावाक्यका कथन करना विरुद्ध नहीं पडता है । हेतुरूप पक्षमें विरुद्धपनको साध्य करनेरूप यह हेतु विरुद्ध है । यह धर्म और धर्मीका समुदायरूप प्रतिज्ञावाक्य बन जाता है । प्रतिज्ञा के उच्चारण बिना मी
( साध्य ),
साध्यसिद्धि हो सकती है, ( हेतु ) अतः प्रतिज्ञा ( पक्ष ) नहीं कहनी चाहिये यह भी प्रतिज्ञा है । अतः प्रतिज्ञावाक्यके विना जो शिष्य नहीं समझ सकता है, उसको समझानेके लिए प्रतिज्ञा कहना योग्य है । जो दृष्टान्तके बिना नहीं समझ सकता है, उसके प्रति ( सन्मुख ) दृष्टान्तका कहना भी
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तत्वार्थ श्लोक वार्तिके
आवश्यक है । किन्तु सभी विद्वानोंके प्रति उन पांचों अवयवोंका प्रयोग करना यह नियम नहीं स्वीकार किया जाता है । " सब धान पांच पसेरी ” नहीं करो ।
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तर्हि यथाविधान्न्यूनादर्थस्य सिद्धिस्तथाविधं तन्निग्रस्थानमित्यपि न घटत इत्याह ।
तब तो नैयायिक कहते हैं कि अच्छा, नहीं सही, किन्तु जिस प्रकारके न्यून कथनसे अभिप्रेत अर्थकी भळे प्रकार सिद्धि नहीं हो सकती है । उस प्रकार वह न्यून कथन तो वक्ताका निग्रहस्थान हो जायगा । आचार्य कहते हैं कि यह भी नैयायिकोंका मन्तव्य युक्तियोंसे घटित नहीं होता है । इस बातको ग्रन्थकार वार्त्तिकद्वारा कहते हैं ।
यथा चार्थाप्रतीतिः स्यात्तन्निरर्थकमेव ते ।
निग्रहांतर तोक्तिस्तु तत्र श्रद्धानुसारिणाम् || २२२ ॥
हां, जिस प्रकारके न्यून कथनसे अर्थकी प्रतीति नहीं हो सकेगी, वह तो तुम्हारे यहां निरर्थक निग्रहस्थान ही हो जायगा । पुनः उस न्यूनमें न्यारा निग्रहस्थानपनका कथन करना तो अपने दर्शनको अन्धश्रद्धा के अनुसार चलनेवाले नैयायिकों को ही शोभा देता है । शद्व स्वल्प और अर्थका गाम्भीर्य रखनेवाले विचारशाली विद्वानोंके यहां छोटे छोटे अन्तरोंसे न्यारे न्यारे निग्रहस्थान नहीं गढे जाते हैं ।
यञ्चोक्तं, हेतूदाहरणादिकमधिकं यस्मिन् वाक्ये द्वौ हेतू द्वौ वा दृष्टान्तौ तद्वाक्यमधिकं निग्रहस्थानं आधिक्यादिति तदपि न्यूनेन व्याख्यातमित्याह ।
जो भी नैयायिकोंने बारहवें " अधिक " नामक निग्रहस्थानका लक्षण यों कहा था कि वादी द्वारा हेतु, उदाहरण, आदि और प्रतिवादी द्वारा दूषण निग्रह आदिक अधिक कहे जायेंगे वह " अधिक " नामका निग्रहस्थान है । इसका अर्थ यों है कि जिस वाक्यमें दो हेतु अथवा दो दृष्टान्त कह दिये जायेंगे वह वाक्य अधिक निग्रहस्थान है । जैसे कि पर्वत अग्निमान् है । धूम होनेसे और आग की झलका उजीता होनेसे ( हेतु २ ) रसोई घर के समान, अधियाने के समान अन्वय दृष्टान्त २ ) यहां दो हेतु या दो उदाहरण दिये गये । अतः आधिक्य कथन होनेसे वक्ता का निग्रहस्थान है, यह नैयायिकोंका मन्तव्य है । अब आचार्य कहते हैं कि वह भी न्यून निग्रह - स्थानका विचार कर देने से व्याख्यान कर दिया गया है । भावार्थ - प्रतिपाथके अनुसार कहीं कहीं हेतु आदिक अधिक भी कह दिये जाते हैं । विना प्रयोजन ही अधिकोका कथन करना है, वह निरयेक निग्रहस्थान ही मान लिया जाय। हां, दूसरे विद्वानको अपने पक्षकी सिद्धि करना अनिवार्य होगा । व्यर्थमें अधिकको निग्रहस्थान माननेकी आवश्यकता नहीं, इस बातको ग्रन्थकार वार्तिकों द्वारा कहते हैं ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
तूदाहरणाभ्यां यद्वाक्यं स्यादधिकं परैः । प्रोक्तं तदधिकं नाम तच न्यूनेन वर्णितम् ॥ २२३ ॥ तत्वपर्यवसानायां कथायां तत्त्वनिर्णयः ।
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यदा स्यादधिकादेव तदा का नाम दुष्टता ॥ २२४ ॥
जो दूसरे विद्वान् नैयायिकों द्वारा अपने विचार अनुसार यह बहुत अच्छा कहा गया है, कि जो वाक्य हेतु और उदाहरणों करके अधिक है वह अधिक नामका
निग्रहस्थान है, उपलक्षसे उपनय, निगमन, भी पकड सकते हैं । अब आचार्य कहते हैं कि वह तो न्यून नामक निग्रहस्थानकी वर्णनासे ही वर्णित हो चुका है। अधिकके लिये उससे अधिक विचारनेकी आवश्यकता नहीं । एक बात यह है कि वादकथामें अन्तिम रूपसे तत्वोंका निर्णय नहीं होनेपर जब अधिक कथन से ही तत्वोंका निर्णय होगा तो ऐसी दशा में अधिक कथनको भला क्या निग्रहस्थान रूपसे दूषितपना हो सकता है ? अर्थात्-थोडे कथनसे जब तत्वोंका निर्णय नहीं हो पाता है, तो अधिक और अत्यधिक कहकर समझाया जाता है । अनेक स्थलोंपर अधिक कथनसे साधारण जन सरलतापूर्वक समझ जाते हैं । अतः अधिकका निरूपण करना गुण ही है । दोष नहीं ।
स्वार्थिके केधिके सर्वं नास्ति वाक्याभिभाषणे । तत्प्रसंगात्ततोर्थस्यानिश्चयात्तन्निरर्थकम् ॥ २२५ ॥
"
सम्पूर्ण पदार्थ नित्य नहीं है । कृतक होनेसे यहां, कृत एव कृतकः इस प्रकार कृत शद्वके स्वकीय अर्थ हो " क 'प्रत्यय हो गया है । क प्रत्ययका कोई अधिक अर्थ नहीं है । स्वार्थ में किये गये प्रत्ययोंका अर्थ प्रकृतिसे अतिरिक्त कुछ नहीं होता है । अतः कृतक, देवता, शैली, भैषज्य इत्यादि स्वार्थिक प्रत्ययवाले पदोंसे समुद्धित हो रहे वाक्योंके कथन करनेपर वक्ताको उस अधिक निग्रहस्थानकी प्राप्तिका प्रसंग हो जायगा। हां, जहां कहीं उस अधिक व्यर्थ बकवाद से अर्थका निश्चय नहीं हो पाता है, सर्वथा व्यर्थ जाता है, इससे तो वह अधिक कथन निरर्थक निग्रहस्थान हो जायगा । व्यर्थ में अधिकको न्यारा अधिक निग्रहस्थान माननेकी आवश्यकता नहीं ।
सोयमुद्योतकरः, साध्यस्यैकेन ज्ञापितत्वाद्व्यर्थमभिधानं द्वितीयस्य, प्रकाशिते प्रदीपांतरोपादानवदनवस्थानं वा, प्रकाशितेपि साधनांतरोपादाने परापरसाधनांत रोपादानप्रसंगादिति ब्रुवाणः प्रमाणसं प्लवं समर्थयत इति कथं स्वस्थः १
सो यह उद्योतकर पण्डित अधिकको निग्रहस्थानका समर्थन करनेके लिये इस प्रकार कह रहा है कि दो हेतुओं को कहनेवाला वादी अधिक कथन करनेसे निगृहीत है । कारण कि जब
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तत्वार्थकोकवार्तिके
एक ही हेतुकरके साध्यका ज्ञापन किया जा चुका है, तो दूसरे हेतुका कथन करना व्यर्थ है। जैसे कि एक दीपकके द्वारा मले प्रकार प्रकाश किया जा चुकनेपर पुनः अन्य दीपकोंका उपादान करना निष्प्रयोजन है । यदि कृतकृत्य हो चुकनेपर भी पुनः कारक, ज्ञापक, व्यंजक, तुओंका ग्रहण किया जायगा तो कृतका करण, चर्वितका चर्वण, इनके समान बनवस्था भी हो जायगी। क्योंकि हेतु द्वारा या प्रदीप द्वारा पदार्थोके प्रकाश युक्त हो चुकनेपर भी यदि अन्य साधनोंका उपादान किया जायगा तो उत्तरोत्तर अन्य साधनोंके ग्रहण करनेका प्रसंग हो जानेसे कहीं दूर चलकर भी अवस्थिति नहीं हो पावेगी। इस प्रकार उद्योतकर प्रमाण संप्लबका समर्थन कर रहा है । ऐसी दशामें वह स्वस्थ ( होशमें ) कैसे कहा जा सकता है ? अर्थात्-एक ही अर्थमें बहुतसे प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होनेको प्रमाणसंप्लव कहते हैं । नैयायिक, जैन, मीमांसक, ये सभी विद्वान् प्रमाण संप्लवको स्वीकार करते हैं । किन्तु हमको आश्चर्य है कि अधिक नामका निग्रह हो जाने के भयसे उद्योतकर नैयायिक प्रकाशित कर पुनः प्रकाशन नहीं करना चाहते हैं। वे उद्योतकर एक प्रमाणसे जान लिये गये अर्थका पुनः द्वितीय प्रमाण द्वारा उद्योत करना तो स्वीकार नहीं करेंगे । एक ओर उद्योतकर पंडित प्रकाशितका पुनः प्रकाश नहीं मानते हुये दूसरी ओर प्रमाणसंहवको मान बैठे हैं। ऐसे पूर्वापरविरुद्ध वचनको कहनेवाला मनुष्य मूर्छाग्रसित है । स्वस्थ ( होश ) अवस्थामें नहीं है।
कस्यचिदर्थस्यैकेन प्रमाणेन निश्चयेपि प्रमाणांतरविषयत्वेपि न दोषो दाादिति चेत किमिदं दायं नाम ? सुतरां प्रतिपत्तिरिति चेत् किमुक्तं भवति, सुतरामिति सिद्धेः। प्रतिपत्तिभ्यां प्रमाणाभ्यामिति चेत्, तायेन प्रमाणेन निश्चितेर्थे द्वितीयं प्रमाणं प्रकाशितप्रकाशनबद्यर्थमनवस्थानं वा निश्चितेपि परापरप्रमाणान्वेषणात् । इति कयं प्रमाणसंपावः ?
यदि उद्योतकर यों कहें कि एक प्रमाण करके किसी अर्थका निश्चय हो जानेपर भी अन्य प्रमाण द्वारा उसको विषय करने में भी कोई दोष नहीं है । क्योंकि पहिले प्रमाणसे जाने हुये अर्थकी पुनः दूसरे प्रमाण द्वारा दृढतासे प्रतिपत्ति हो जाती है। इस प्रकार उद्योतकरके कहनेपर तो हम पूंछते हैं कि तुम्हारी मानी हुयी यह दृढता भला क्या पदार्थ है ! बताओ । स्वयं अपने आप विना परिश्रमके प्रतिपत्ति हो जानेको यदि ज्ञानकी दृढता मानोगे तब तो हम कहेंगे कि दूसरे प्रमाण द्वारा भला क्या कहा जाता है ! पदार्थको प्रतिपत्ति तो स्वयं उक्त प्रकारसे सिद्ध हो चुकी है। अतः दूसरे प्रमाणका उत्थापन व्यर्थ पडता है। यदि दो प्रमाणोंसे पक्की प्रतिपत्ति हो जाना दृढता है, तब तो हम कहेंगे कि आदिके प्रमाण करके ही जब अर्थका निश्चिय हो चुका था तो दूसरा प्रमाण उठाना प्रकाशितका प्रकाशक करने के समान व्यर्थ हो जाता है। दूसरी बात यह है कि
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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समान प्रमाण संपल
अधिक निग्रहस्थानका समर्थन करते समय तुम्हारे द्वारा उठायी गयी अनवस्था के में भी अनवस्था दोष होगा । क्योंकि निश्चित किये जा चुके पदार्थके पुनः पुनः निर्णय करने के ढिये उत्तरोत्तर अनेक प्रमाणोंका ढूंढना बढता ही चला जायगा । ऐसी दशामें तुम नैयायिक भला " प्रमाण संप्लबको " कैसे स्वीकार कर सकते हो !
यदि पुनर्बहूपायप्रतिपत्तिः दार्व्यमेकत्र भूयसा प्रमाणानां प्रवृत्तौ संवादसिद्धिश्चेति मतिस्तदा हेतुना दृष्टांतन वा केनचिदज्ञापितेर्थे द्वितीयस्य हेतोर्डष्टांतस्य वा वचनं कथमनर्थकं तस्य तथाविधदात्वात् । न चैवमनवस्था, कस्यचित्क्वचिन्निराकांक्षतोपपत्तेः प्रमाणांतरवत् ।
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यदि फिर तुम्हारा यह मन्तव्य होवे कि इप्तिके बहुतसे उपायोंकी प्रतिपत्ति हो जाना दृढपना है । तथां एक विषयमें बहुत अधिक प्रमाणोंकी प्रवृत्ति हो जानेपर पूर्वज्ञान में सम्वादकी सिद्धि हो जाती है । सम्बादी ज्ञान प्रमाण माना गया है । अतः हमारे यहां प्रमाणसंप्लव सार्थक है । तब तो हम जैन कहेंगे कि प्रकरणमें एक हेतु अथवा किसी एक दृष्टान्तकरके अर्थकी ज्ञप्ति करा चुकने पर पुनः दूसरे हेतु अथवा दूसरे दृष्टान्तका कथन करना भला क्यों व्यर्थ होगा ! क्योंकि उस दूसरी, तीसरी बार कहे गये हेतु या दृष्टान्तोंको भी तिस प्रकार दृढतापूर्वक प्रतिपत्ति करा देना घट जाता है । बहुतसे उपायोंसे अर्थकी प्रतिपत्ति पक्की हो जाती है और अनेक हेतु और दृष्टांतोंके प्रवर्तनेपर पूर्वज्ञानोंको सम्वादकी सिद्धि हो जानेसे प्रमाणता आ जाती है। यहां कोई नैयायिक यों कटाक्ष करे कि उत्तर उत्तर अनेक हेतु या बहुतसे दृष्टान्तोंको उठाते उठाते अनवस्था हो जायगी, आचार्य कहते हैं कि सो तो नहीं कहना। क्योंकि किसी न किसी को कहीं न कहीं आकांक्षा रहितपना सिद्ध हो जाता है। चौथी, पांचवी, कोटिपर प्रायः सबकी जिज्ञासा शान्त हो जाती है । प्रमाणसं प्रववादियोंको या सम्वादका उत्थान करनेवालों को भी अन्य प्रमाणोंका उत्थापन करते करते कहीं छठवीं, सातवीं, कोटिपर निराकांक्ष होना ही पडता है । उसीके समान यहां भी अधिक 1 हेतु या दृष्टान्तों में अनवस्था नहीं आती है। अतः अधिकको निग्रहस्थान मानना सुमुचित प्रतीत नहीं होता है ।
कथं कृतकत्वादिति हेतुं क्वचिद्वदतः स्वार्थिकस्य कप्रत्ययस्य वचनं यत्कृतकं तदनित्यं दृष्टमिति व्याप्तिं प्रदर्शयतो यत्तद्वचनमधिकं नाम निग्रहस्थानं न स्यात्, तेन विनापि तदर्यप्रतिपत्तेः ।
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अधिक कथन करनेको यदि वक्ताका निग्रहस्थान माना जायगा तो किसी स्थळपर " शद्बोऽनित्यः कृतकत्वात् इस अनुमानमें कृतत्वात् के स्थान में स्वार्थवाचक प्रत्ययको बढाकर कृतकत्वात् ” इस प्रकार हेतुको कह रहे वादीके द्वारा कृतके निज अर्थको हां कहनेवाली
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४.४
तस्वार्थ लोकवार्तिके
स्वार्थिक क प्रत्ययका कथन करना वादीका “ अधिक " निग्रहस्थान क्यों नहीं हो जावेगा ! तथा उक्त अनुमानमें जो जो कृतक होता है, वह वह पदार्थ अनित्य देखा गया है, इस प्रकार व्याप्ति का प्रदर्शन करा रहे वादीके द्वारा यत् और तत् यानी जो जो वह वह शब्दका वचन करना भला उस वादीका अधिक नामक निग्रहस्थान क्यों नहीं हो जावेगा ! क्योंकि उन यत् तत् शवोंके कथन बिना भी उस व्याप्तिप्रदर्शनरूप अर्थकी प्रतिपत्ति हो जाती है। यानी कृतक पदार्थ अनित्य हुआ करता है । इतना कहना ही व्याप्तिप्रदर्शन के लिये पर्याप्त है।
___सर्वत्र वृत्तिपदपयोगादेव चार्थप्रतिपत्तौ संभाव्यमानायां वाक्यस्य वचनं कमर्थ पुष्णाति ? येनाधिकं न स्यात् ।
___ सभी स्थानोंपर कृदन्त, तद्धित, समास, आदि वृत्तियोंसे युक्त हो रहे पदोंके प्रयोगसे ही अर्यकी प्रतिपत्ति होना सम्भव हो रहा है तो खण्डकर वाक्यका वचन करना भला किस नवीन अर्थको पुष्ट कर रहा है ! जिससे कि अधिक निग्रहस्थान नहीं होवे । अर्थात्-" इत्वरी" इस प्रकार कृदन्त घुपदसे जब कार्य निकल सकता है, तो परपुरुषगमनका स्वभाव रखनेवाली पुंश्चली स्त्री यह लम्बा वाक्य क्यों कहा जाता है ? " स्थाष्णु” से कार्य निकल सकता है तो स्थिति शील क्यों कहा जाता है । या " दाक्षि" इस लघुपदके स्थानपर दक्षका अपत्य नहीं कहना चाहिये । " धर्म्य" के स्थानपर धर्मसे अनपेत हो रहा है, यह वाक्य नहीं बोलना चाहिये । क्योंकि अधिक पडता है । तथा " उन्मत्तगंगं" के स्थानपर जिस देशमें गंगा उन्मत्त हो रही है, यह वाक्य कुछ भी विशेषता नहीं रखता । " शाकप्रिय " के बदले जिस मनुष्यको शाक प्यारा है, इस वाक्यका कोई नया अर्थ नहीं दीखता है । पितरौ इस शब्दकी अपेक्षा " माता पिता हैं" इस वाक्यका अर्थ अतिरिक्त नहीं है । किन्तु शब्दोंकी भरमार अधिक है । अतः वक्ताको अधिक निग्रहस्थान मिलना चाहिये।
तथाविधवचनस्यापि प्रतिपत्त्युपायत्वान्न निग्रहस्थानमिति चेत्, कथमनेकस्य हेतो. दृष्टांतस्य वा प्रतिपत्त्युपायभूतस्य वचनं निग्रहाधिकरणं ? निरर्थकस्य तु वचनं निरर्थकमेव निग्रहस्थानं न्यूनवन पुनस्ततोन्यत् ।
___ यदि आप नैयायिक यों कहें कि तिस प्रकार स्वार्थिक प्रत्ययों या पदोंका खण्ड खण्ड करते हुये वाक्य बनाकर कथन करना भी प्रतिपत्तिका उपाय है। अपनी उत्पत्तिमें अन्य कारणोंकी अपेक्षा रखनेवाळे भावको कृतक कहते हैं । जिस पुरुषने कृतक ही शब्दका उक्त अर्थके साथ संकेत ग्रहण किया है, उस पुरुषके लिये कृत शद्वका उच्चारण नहीं कर कृतक शब्दका प्रयोग करना चाहिये, जो स्थूळ बुद्धि श्रोता कठिनवृत्ति पदोंद्वारा अर्थप्रतिपत्ति नहीं कर सकते हैं, उनके प्रति खण्ड वाक्यों का प्रयोग करना उपादेय है । अतः वे अधिक कथन तो निग्रहस्थान नहीं है।
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तत्वार्षचिन्तामणिः
१.५
यों कहनेपर तो हम जैन कह देगें कि प्रतिपत्तिके उपायमूत हो रहे अनेक हेतु अथवा अनेक दृष्टान्तोंका कथन करना भी वक्ताका निग्रहस्थान भला क्यों होगा ! अर्थात्-नहीं, हां, कालयापन करनेके लिये निरर्थक हेतु आदिकोंका अधिक कथन करना तो निरर्थक निग्रहस्थान ही है । अधिक नामक न्यारा निग्रहस्थान नहीं है । जैसे कि जिस प्रकारके न्यून कथन करनेसे अर्थको प्रतीति महीं हो पाती है। वह न्यून कोई न्यारा निग्रहस्थान नहीं होकर निरर्थक ही है उसीके समान फिर यह अधिक भी उस क्लुप्त निरर्थकसे भिन्न कोई न्यारा मिग्रहस्थान नहीं है, यह समझे रहो।
पुनरुक्तं निग्रहस्थानं विचारयितुकाम आह ।
नैयायिकों द्वारा स्वीकार किये गये तेरहवें पुनरुक्त निग्रहस्थानका विचार करनेकी इच्छा रखनेवाले श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकोंको कहते हैं ।
पुनर्वचनमर्थस्य शद्वस्य च निवेदितम् ।
पुनरुक्तं विचारेन्यत्रानुवादात्परीक्षकैः ॥ २२६ ॥
गौतम सूत्र अनुसार परीक्षकों करके पुनरुक्तका लक्षण यह निवेदन किया गया है कि विचार करते समय जो उसी शब्द और अर्थका पुनः कथन करना है, वह पुनरुक्त निग्रहस्थान है, हां, अनुवादके स्थलको छोड देना चाहिये । अर्थात्-अनुवाद करने के सिवाय अर्थ-पुनरुक्त और शब्द-पुनरुक्त दो निग्रहस्थान हैं । समान अर्थवाले पूर्व पूर्व उच्चारित शद्वोंका पीछे भी निष्प्रयोजन प्रयोग करना शबपुनरुक्त है । और समान अर्थवाले मिन्न भिन्न अनुपूर्वीको धार रहे अन्य शद्धोंका निरर्थक कथन करना अर्थपुनरुक्क है । जैसे कि घटः घटः यह पहिला शब्द पुनरुक्त है। घट शद्ध द्वारा घट अर्थको कह कर पुनः कलश शब्द द्वारा उसी अर्थको कहना अर्थपुनरुक्त है । हम तुम्हारे कथनको समझ गये हैं, इस बातका प्रतिपादन करनेके लिये अनुवादमें जो सप्रयोजन व्याख्यान किया जाता है, वह पुनरुक्त कथन दोष नहीं समझा जाता है।
तत्राद्यमेव मन्यते पुनरुक्तं वचोर्थतः। शद्वसाम्येपि भेदेऽस्यासंभवादित्युदाहृतम् ॥ २२७ ॥ हसति हसति स्वामिन्युचैरुदत्यतिरोदिति । कृतपरिकरं स्वेदोद्गारि प्रधावति धावति ॥ गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिंदति निंदति । धनलवपरिक्रीत यंत्रं प्रनृत्यति नृत्यति ॥ २२८ ॥ ( हरिणी छन्द )
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तत्वार्थकोकवार्तिके
आचार्य महाराज कहते हैं कि उस पुनरुक्तके प्रकरण में आद्यके ही अर्थपुनरुक्तको विद्वान् लोक दोष मान रहे हैं । जो वचन अर्थकी अपेक्षा पुनरुक्त है वह पुनरुक्त निग्रहस्थान कहा गया ह। क्योंकि शङ्खोंकी समानता होनेपर भी अर्थका भेद हो जानेपर इस पुनरुक्त निग्रहस्थानका अस म्भव है । इसका उदाहरण हरिणीछन्द द्वारा यों दिया गया है कि एक अनुकूल नायिका है । वह स्वामी के हंसनेपर उच्च स्वरसे हंसती है, और स्वामी के रोनेपर अधिक रोती है । या खाटका ग्रहण कर ( खटपाटी लेकर ) अत्यन्त रोने लग जाती है । तथा स्वामीके पसीनाको बाहानेवाले भळे प्रकार दौडने पर वह स्त्री भी दौडने लग जाती है । इस वाक्यमें कृतपरिकर और स्वेदोद्गार ये दोनों क्रियाविशेषण हैं, तथा स्वामीके द्वारा गुणोंके समुदाय से युक्त और दोषोंसे सर्वथा रहित ऐसे भी पुरुषकी भळे प्रकार निन्दा करते सन्ते वह स्त्री भी ऐसे सज्जनपुरुषकी निन्दा करने लग जाती है । एवं थोडे धन ( कुछ पैसों ) से मोल किये गये यंत्र ( खिलौना ) का स्वामीके द्वारा अच्छा नृत्य कराने पर वह भी खिौनेको नचाने लग जाती है । अथवा यंत्र के साथ स्वामीके नाचनेपर वह भी नाचने लग जाती है । तथा चाटुकारता ( खुशामद ) द्वारा ही प्रसन्न होनेवाले स्वामी के अनुसार प्रवृत्ति करनेवाले अविचारी स्वार्थी सेवकका भी उक्त उदाहरण सम्भव जाता है। यहां पहिले कहे ग सति, रुदति, प्रधावति, इत्यादिक शद्ब तो शतृ प्रत्ययान्त होते हुये सति अर्थमें सप्तमी विभक्तिवाले हैं । दूसरे हसति, रोदिति, धावति इत्यादिक तिङन्त शब्द लट् लकारके क्रियारूप हैं ।
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" कामिनीरहितायते कामिनीरहितायते । कामिनी रहितायते कामिनी रहितायते, एवं " महाभारतीते महाभारतीतेत्यपि द्योततेऽच्छमहाभारतीते रम्भारामा कुरवक कमलारं भारामा कुरवक कमला, रम्माराम कुरवककमला रम्भा रामा कुरवक माळा " इत्यादिक श्लोकोंमें शद्वोंके समान होनेपर भी अर्थभेद होनेके कारण पुनरुक्त दोष नहीं है । अतः शद्वोंके विभिन्न होनेपर या समान होनेपर यदि पुनः दूसरे बार अर्थका भेद् प्रतीत नहीं होय तो " अर्थ पुनरुक्त ही स्वीकार करना चाहिये। जहां शद्ब भी सदृश हैं, और अर्थ भी वही एक है, वहां तो अर्थपुनरुक्तदोष समझो ही ।
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४०६
सभ्यप्रत्यायनं यावत्तावद्वाच्यमतो बुधैः ।
स्वेष्टार्थवाचिभिः शद्वैस्तैश्चान्यैर्वा निराकुलम् ॥ २२९ ॥
तदप्रत्याशद्वस्य वचनं तु निरर्थकम् । सकृदुक्तं पुनर्वेति तात्विकाः संप्रचक्षते ॥
२३० ॥
जितनेभर भी शद्वोंके द्वारा सभासद पुरुषोंका व्युत्पादन हो सके उतने भरपूर शद्व विद्वानों करके कहने चाहिये । अतः अपने अभीष्ट अर्थका कथन करनेवाले उन्हीं शद्वोंकरके अथवा अन्य भी वहां यहां के दूसरे दूसरे शद्वों करके आकुळतारहित हो कर भाषण करना उपयोगी है।
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तत्वार्यचिन्तामणिः
अर्थात् लाघव के लोभ में पडकर शद्वोंका संकोच करनेसे भारी अर्थकी हानि उठानी पडती है । सभा मन्दबुद्धि, मध्यबुद्धि, तीव्रक्षयोपशम, प्रकृष्ट प्रतिभा, आदिको धारनेवाले सभी प्रकार के जीव हैं । समझाने समझने में आकुलता नहीं हो, इस ढंगसे श्रेष्ठ वक्ताको व्याख्यान करना चाहिये । किसी प्रकृष्ट बुद्धिवाले प्रतिपाद्य की अपेक्षा वक्ताका पुनर्वचन इतना भयावह नहीं है, जितना कि बहुत से मन्दबुद्धिवालोंका अज्ञानि बना रहना हानिकर है। मैंने ( माणिकचन्द ) भाषा टीका लिखते समय अनेक स्थलोंपर दो दो बार तीन तीन बार कठिन प्रमेय को समझानेका प्रयास किया है क्योंकि प्रकृष्टबुद्धिशाली विद्वानोंके लिये तो मूढग्रन्थ ही उपादेय है । हो, जो साधारण बुद्धिवाके पुरुष श्री विद्यानन्द स्वामीकी पंक्तियों को समझने के लिये असमर्थ हैं, या अर्द्धसमर्थ हैं, उनके लिये देश भाषा लिखी गयी है । यानी, अर्थात्, भावार्थ, जैसे, आदि प्रतीकों करके अनेक स्थलोंपर पुनरुक्ति हो गई है, किन्तु वे सब परिभाषण मन्दक्षयोपशमवाले शिष्योंको समझाने के लिये हैं । उस पुनरुक्त कथन द्वारा विशिष्ट क्षयोपशमको उठा कर विद्वान् भी सम्भवतः कुछ लाभ उठा सके, जैसे कि कठिन श्लोक या पंक्तिको कई बार उसी शद्व आनुपूर्वीसे बांचनेपर प्रतिभाशाली विचक्षण धीमान् चमत्कारक अर्थको निकाल लेते हैं । दो तीन बार पानी, पानी, पानी, कह देने से श्रोता अतिशीघ्र जलको के आता है। कई बार सांप, सांप, कह देनेसे पथिक सतर्क हो कर सर्पले अपनी झटिति संरक्षा कर लेता है । मरा मरा मरा, पिचा पिचा पिचा, अधिक पीडा है, बहुत पीडा है, पकडो पकडो पकडो इत्यादिक शब्द भी अनेक अवसरोंपर विशेष प्रयोजनको साध देते हैं। अतः कचित् पुनरुक्त भी दोष नहीं है । महर्षियोंके व्यर्थ दीख रहे वचन तो म जाने कितना अपरिमित अर्थ निकाल कर धर देते हैं । " गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः " सुखदुःखजीवितमरणोपमहाश्च " परस्परोपग्रहो जीवानां " इन सूत्रोंमें पडे हुये उपग्रह शद्ब तो विलक्षण अर्थोको कह रहे हैं । प्रकरण में अब यह कहना है कि वक्ताको श्रोताओं के प्रत्यय करानेका लक्ष्य भरपूर रखना चाहिये। हां, उन सभ्योंको कुछ भी नहीं समझानेवाले शह्नोंका कथन तो निरर्थक ही है म ही वह व्यर्थ कथन एक बार कहा जाय या पुनः कहा जाय निरर्थक निग्रहस्थान में ही अन्तर्भूत हो जायगा । इसके लिये न्यारे " पुनरुक्त " निग्रहस्थान माननेकी आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार तत्ववेत्ता विद्वान् भले प्रकार बढिया निरूपण कर रहे हैं ।
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४०७
सद्वादे पुनर्वादोनुवादोर्थविशेषतः
पुनरुक्तं यथा नेष्टं कचित्तद्वदिहापि तत् ॥
२३१ ॥
एक बार वादकथा कह चुकनेपर प्रयोजनकी विशेषताओंसे पुनः कथन करमारूप अनु वाद जिस प्रकार कहीं कहीं पुनुरुक्त दोषसे दूषित अमीष्ट नहीं किया गया है, उसीके समान यहाँ मी अर्थी विशेषता होनेपर वह पुनुरुक्त दोष नहीं है ।
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४०८
तत्वार्थोकवार्तिके
अर्थादापद्यमानस्य यच्छद्वेन पुनर्वचः । पुनरुक्तं मतं यस्य तस्य स्वेष्टोक्तिबाधनम् ॥ २३२ ॥
जिस नैयायिकके यहां अर्थप्रकरण से ही गम्यमान हो रहे अर्थका पुनः शद्वों करके कथन करना जो पुनुरुक्त माना गया है । गौतम सूत्रमें लिखा है कि " अर्थादापन्नस्य स्वशद्वेन पुनर्वचनं " । उत्पत्ति धर्मवाला पदार्थ अनित्य होता है, इतना कहने से ही अर्थापत्तिके करके यों जान लिया जाता है कि उत्पत्तिधर्मसे रहित हो रहा सत् पदार्थ नित्य होता है । जीवित देवदत्त घरमें नहीं है । इतना कह देने से ही घर से बाहर देवदत्तका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । अतः अर्थसे आपादन किये जा रहे अर्थका स्ववाचक शब्दोंकर के पुनः कथन करना भी पुनरुक्त है । इसपर आचार्यका कहना है कि उक्त सिद्धान्त मानने पर उन नैयायिकोंके यहां अपने अभीष्ट कथनसे ही बाधा उपस्थित हो जाती है । नैयायिकोंने अनेक स्थलोंपर विना कहे ही जाने जा रहे प्रतिज्ञा आदिकोंका निरूपण किया है । विद्वानोंको स्ववचनबाधित कथन नहीं करना चाहिये ।
योप्याह, शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात् अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तमिति च तस्य प्रतिपन्नार्थप्रतिपादकत्वेन वैयर्थ्यान्निग्रहस्थानमिति मतं न पुनरन्यथा । तथा च निरर्थकान्न विशिष्यते, स्ववचनविरोधश्च । स्वयमुद्देशळक्षणपरीक्षावचनानां प्रायेणाभ्युपगमादर्थाद्गम्यमानस्य प्रतिज्ञादेर्वचनाच्च ।
जो भी गौतमसूत्र अनुसार नैयायिक यों कह रहा है, शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमम्यत्रानुवादात् और अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तं " इन दो सूत्रोंका अर्थ यों कहा जा चुका है कि अनुवाद करनेसे अतिरिक्त स्थलोंपर शब्द और अर्थका जो पुनः कथन करना है, वह पुनरुक्त निग्रहस्थान है । तथा अर्थापत्तिद्वारा अर्थसे गम्यमान हो रहे प्रमेयका पुनः स्वकीय पर्यायवाचक शब्दों से पुनः कथन करना भी पुनरुक्त है । उस सूत्रके अनुयायी नैयायिकों के यहां जाने हुये ही अर्थका प्रतिपादक होनेसे व्यर्थ हो जाने के कारण पुनरुक्तको निग्रहस्थान माना गया है, यह उनका अभीष्ट सिद्धान्त है । पुनः अन्य प्रकारोंसे पुनरुक्त निग्रहस्थान स्वीकृत नहीं किया है। और तिस प्रकार होनेपर वह पुनरुक्त निग्रहस्थान तो निरर्थक निग्रहस्थानसे कुछ भी विशेषताओं को नहीं रखता है । अतः निग्रहस्थानोंकी व्यर्थ संख्या बढानेसे कोई लाभ नहीं है । दूसरी बात यह है कि नैयायिकों को अपने कथनसे ही अपना विरोध आजानारूप दोष उपस्थित होगा । क्योंकि नैयायिकोंने ग्रन्थोंमें उद्देश, लक्षण निर्देश और परीक्षा के पुनरुक्त वचनोको बाहुल्यसे स्वीकार किया
| नाममात्र कथनको उद्देश कहते हैं । असाधारण धर्मके कथनको लक्षण कहते हैं । बिरुद्ध नाना
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तत्वार्थचिन्तामणिः
युक्तियोंके प्रबळपन और दुर्बलपनके निर्णय करनेके लिये प्रवर्त रहे विचारको परीक्षा कहते हैं। गौतमसूत्रमें ही पहिले प्रमाण, प्रमेय, संशय आदि सोलह पदार्थोका उद्देश किया है। पुनः उनके लक्षण या भेदोंको कहा है । पश्चात्-उनकी परीक्षा की गयी है। वैशेषिक दर्शनमें भी प्रथम अध्यायके पांचवे सूत्र अनुसार पृथ्वीका उद्देश कर पुनः रूप, रस, गन्धस्पर्शवती पृथिवी ऐसा द्वितीय अध्यायके प्रथमसूत्रद्वारा लक्षण किया है । पीछे परीक्षा की गयी है, तथा अनेक स्थलोंपर शब्दोंके प्रयोग विना ही गम्यमान हो रहे प्रतिज्ञा, दृष्टान्त, आदिका कण्ठोक्त शब्दोंद्वारा निरूपण किया है । ऐसी दशामें उनको अपने इष्ट पुनरुक्त निग्रहस्थानसे भय क्यों नहीं लगा ! अतः सिद्ध होता है कि पुनरुक्त कोई निग्रहस्थानके लिये उचित दोष नहीं है । यदि कुछ थोडासा है भी तो वह निरर्थक. रूपसे ही वक्ताका निग्रह करा देगा । पुनरुक्तको स्वतन्त्र न्यारा निग्रहस्थान मानना निरर्थक है । ___यदप्युक्तं, विज्ञातस्य परिषदा त्रिभिरभिहितस्यामत्युच्चारणमननुभाषणं निग्रहस्थान मिति तदनूध विचारयन्नाह ।।
और भी जो नैयायिकोंने चौदहवें अननुभाषण निग्रहस्थानका लक्षण गौतमसूत्रमें इस प्रकार कहा था कि समाजनोंकरके विशेषरूपसे जो जान लिया गया है, ऐसे वाक्यार्थके वादी करके तीन वार कह दिये गये का भी जो प्रत्युत्तर कोटिके रूपमें प्रतिवादीद्वारा उच्चारण नहीं करना है, वह प्रतिवादीका अननुभाषण निग्रहस्थान है । इस प्रकार उस नैयायिकके वक्तव्यका अनुवाद कर विचार करते हुये श्री विद्यानंद आचार्य व्याख्या करते हैं।
त्रिर्वादिनोदितस्यापि विज्ञातस्यापि संपदा।
अप्रत्युच्चारणं प्राह परस्याननुभाषणम् ॥ २३२ ॥ ___ वादीकरके तीन वार कहे हुये का भी अत एव विद्वत् परिषद करके भी भले प्रकार जान लिये गये पदार्थका जो दूसरे प्रतिवादीद्वारा प्रत्युत्तर रूपसे उच्चारण नहीं किया जाना है, वह पर वादीका अननुभाषण निग्रहस्थान है।
तदेतदुत्तरविषयापरिज्ञानान्निग्रहस्थानमप्रत्युच्चारयतो दूषणवचनविरोधात् । तत्रेदं विचार्यते, किं सर्वस्य वादिनोक्तस्याननुवारणं किं वा यनांतरीयका साध्यसिद्धिरभिमता तस्य साधनवाक्यस्याननुच्चारणमिति । .... तिस कारण यह अननुमाषण, प्रतिवादीको उत्तर विषयक परिज्ञान नहीं होनेसे उस प्रति. वादीका निग्रहस्थान माना गया है । क्योंकि प्रतिवादीका कर्तव्य है कि वादीके कहे हुये पक्षमें दोष निरूपण करें। जब कि प्रतिवादी कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं कर रहा है तो ऐसे चुप्पे प्रतिवादी द्वारा दूषण वचन कहे जानेका विरोध है। भाष्यकार इसके ऊपर खेद प्रकट करते हैं कि कुछ भी
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नहीं कह रहा यह वादी ( प्रतिवादी ) भला किसका अवलम्ब लेकर परपक्षके प्रतिषेधको कहे । अतः निगृहीत हो जाता है। अब उस अननुभाषण निग्रहस्थानके विषयमें श्री विद्यानन्द आचार्य यह विचार उठाते हैं कि वादीद्वारा कहे गये सभी वक्तव्य का उच्चार नहीं करना क्या प्रतिवादीका अननुभाषण नामक निग्रहस्थान है ? अथवा क्या जिस उच्चारणके साथ साध्यसिद्धिका अविनाभाव अभीष्ट किया गया है, साध्यको साधनेवाले उस वाक्यका उच्चारण नहीं करना प्रतिवादीका अननुभाषण निग्रहस्थान है ? बताओ ।
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यन्नांतरीयका सिद्धिः साध्यस्य तदभाषणं ।
परस्य कथ्यते कैश्चित् सर्वथाननुभाषणं ॥ २३३ ॥
द्वितीय पक्षके अनुसार किन्हींका कहना है कि जिस उच्चारणके बिना प्रकृत साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है, सभी प्रकारोंसे उस वक्तव्यका नहीं कहना दूसरे प्रतिवादीका अननुभाषण निग्रहस्थान हुआ, किन्हीं विद्वानों करके कह दिया जाता है ।
प्रागुपन्यस्य निःशेषं परोपन्यस्तमंजसा ।
प्रत्येकं दूषणे वाच्ये पुनरुच्चार्यते यदि ॥ २३४ ॥ तदेव स्यात्तदा तस्य पुनरुक्तमसंशयम् । नोच्चार्यते यदा त्वेतत्तदा दोषः क गद्यते ॥ २३५ ॥ तस्माद्यद्दष्यते यत्तत्कर्मत्वादि परोदितम् ।
तदुच्चारणमेवेष्टमन्योच्चारो निरर्थकः ॥ २३६ ॥
प्रथम पक्ष अनुसार वादी द्वारा कह दिये गये सभीका उच्चारण करना प्रतिवादी के लिये उचित समझा जाय यह तो युक्त नहीं है । क्योंकि अगले वादीके सम्पूर्ण कहे गये का प्रत्युच्चारण नहीं भी कर रहे प्रतिवादी द्वारा दूषणका वचन उठानेमें कोई व्याघात नहीं पडता है । अन्यथा प्रतिवादीकी बडी आपत्ति आ जायगी। प्रथम तो प्रतिवादीको अगले द्वारा कहे गये सम्पूर्ण कथनका ताविक रूपसे शीघ्र उपन्यास करना पडेगा, पुनः प्रत्येकमें दूषण कथन करनेके अवसरपर उनका प्रतिवादी द्वारा उच्चारण यदि किया जायगा तब उस प्रतिवादीका वह पुनः कथन ही संशयरहित होकर पुनरुक्त निग्रहस्थान हो जायगा और जब वादीके कहे गये का प्रतिवादी उच्चारण नहीं करता है, तब तो तुम नैयायिक अननुभाषण दोष उठा देते हो, ऐसी दशा में प्रतिवादी भला कहां क्या कहे ! तिस कारणसे सिद्ध होता है कि वादीके सर्व कथनका उच्चारण करना प्रतिवादीको आवश्यक नहीं ।
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दूसरे वादीके द्वारा कहे गये जिस जिस साध्य, हेतु, आदिमें प्रतिवादी द्वारा दूषण उठाया जाय उसका उच्चारण करना ही प्रतिवादीका कर्त्तव्य अमीष्ट करना चाहिये । प्रतिवादी यदि अन्य इधर घरकी बातोंका उच्चारण करता है, तो उसका " निरर्थक " निग्रहस्थान हो जायगा ।
उक्तं दूषयतावश्यं दर्शनीयोत्र गोचरः ।
अन्यथा दूषणावृत्तेः सर्वोच्चारस्तु नेत्यपि ॥ २३७ ॥ कस्यचिद्वचनं नेष्टनिग्रहस्थानसाधनं ।
तस्याप्रतिभयैवोक्तैरुत्तराप्रतिपत्तितः ॥ २३८ ॥
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बौद्ध गुरु धर्मकीर्तिका मन्तव्य है कि उपर्युक्त अननुभाषण दूषणको उठा रहे विद्वान् करके यहां दूषणका आधार साध्य, हेतु, आदि विषय अवश्य दिखलाना चाहिये । अन्य प्रकारोंसे दूषणोंकी प्रवृत्ति नहीं हो पाती है ह । वादीले प्रतिपादित सर्वका उच्चारण तो नहीं किया जाय। आचार्य कहते हैं कि यह भी किसी धर्मकीर्तिका कथन अपने अभीष्ट निग्रहस्थानका साधक नहीं हो सकता है । क्योंकि प्रतिवादीको स्वकीय भाषणों करके उत्तरकी प्रतिपत्ति नहीं होनेके कारण अप्रतिमा नामक निग्रहस्थान करके ही उस प्रतिवादीका निग्रह कर दिया जाता है ।
तदेतद्धर्मकी चैर्मतमयुक्तमित्याह ।
आचार्य कहते हैं, सो यह धर्मकीर्तिका मन्तव्य तो अयुक्त है। इस बातको ग्रन्थकार स्पष्टरूपसे प्रतिपादन करते हैं ।
प्रत्युच्चारासमर्थत्वं कथ्यतेऽननुभाषणं । तस्मिन्नुच्चारितेप्यन्यपक्षविक्षिप्त्यवेदनम् ॥ २३९ ॥ ख्याप्यतेऽप्रतिभान्यस्येत्येतयोर्ने कतास्थितिः । साक्षात्संलक्ष्यते लोकैः कीर्तेरन्यत्र दुर्गतेः ॥ २४० ॥
प्रतिवादीका प्रत्युत्तरके उच्चारण करनेमें समर्थ नहीं होना तो अननुभाषण निग्रहस्थान कहा
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जाता है । और उस प्रत्युत्तरके उच्चारण किये जानेपर भी पर पक्षके द्वारा किये गये विक्षेप ( प्रतिबेध) का ज्ञान नहीं होना तो अन्य प्रतिवादीका अप्रतिभा निग्रहस्थान बखाना जाता है । इस कारण इन अननुभाषण और अप्रतिभामें एकपनेकी व्यवस्था नहीं है, भेद है । उत्तरकी प्रतिपति होनेपर भी सभा क्षोभ आदिसे प्रतिवादीका अननुभाषण सम्भव जाता है । और उत्तरको नहीं समझानेपर अप्रतिमा नामक निग्रहस्थान होता है । कचित् सांकर्य हो जाने मात्र दोनोंका अभेद
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नहीं हो सकता है । लोकों करके यह प्रत्यक्ष रूपसे मले प्रकार देखा जा रहा है । धर्मकीर्तिकी अन्यत्र दुर्गति हो जानेसे भले ही उनको नहीं दीखे इसके लिये हम क्या करें, वे भुगतें । ___ ततोऽननुभाषणं सर्वस्य दूषणविषयमात्रस्य वान्यदेवाप्रतिभायाः केवलं तन्निग्रहस्थानमयुक्तं, परोक्तिमप्रत्युच्चारयतोपि दूषणवचनन्याय्यात् । तद्यथा-सर्व प्रतिक्षणविनश्वरं सत्त्वादिति केनचिदुक्ते तदुक्तमप्रत्युच्चारयन्नेव परो विरुद्धत्वं हेतोरुद्भावयति, सर्वमनेकांतात्मकं सत्त्वात् । क्षणक्षयायेकांते सर्वथार्थक्रियाविरोधात् सत्त्वानुपपत्तेरिति समर्थयते च तावता परोपन्यस्तहेतोदूषणात् किं प्रत्युच्चारणेन ।
तिस कारणसे सिद्ध होता है कि दूषण देनेके विषय हो रहे केवळ साध्य, हेतु, आदि सब का उच्चारण नहीं करना प्रतिवादीका अननुभाषण है, जो कि अप्रतिभा निग्रहस्थानसे न्यारा ही है । धर्मकीर्तिद्वारा दोनों निग्रहस्थानोंका एक कर देना उचित नहीं है। हम जैनोंको नैयायिकोंके प्रति केवळ यहां इतना ही कहना है कि उस अननुभाषणको निग्रहस्थान मानना युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि दूसरे विद्वान् के द्वारा कहे गये का प्रत्युच्चारण नहीं कर रहे भी प्रतिवादीके द्वारा दूषण वचन कहा जाना न्यायमार्ग है । कोई व्याघात नहीं है । उसको इस प्रकार समझ लीजिये कि सभी पदार्थ ( पक्ष ) प्रत्येक क्षणमें नष्ट हो जाने स्वभाववाले हैं ( साध्य ) सत्पना होनेसे ( हेतु ) इस प्रकार किसी वादीने अनुमानवाक्य कहा । उस कहे गये का प्रतिकूल पक्षमें उच्चारण नहीं करता हुआ भी दूसरा विद्वान् वादीके हेतुका विरुद्धहेत्वाभासपना दोष उठा देता है कि सभी पदार्थ (पक्ष) नित्यपन, अनित्यपन अनेक धर्मस्वरूप ( साध्य), सत् होनेसे (हेतु । इस प्रकार क्षणिकस्वसे विरुद्ध अनेकान्तात्मकपनके साथ सत्त्व हेतु व्याप्त हो रहा है। एक क्षणमें ही नष्ट हो जाना, कूटस्थ नित्य बने रहना आदि एकान्तोंमें सभी प्रकारोंसे अर्थक्रिया होनेका विरोध हो जानेसे सत्पना नहीं बन पाता है। इस प्रकार प्रतिवादीने सत्त्व हेतुका विपक्षमें बाधक प्रमाण दिखलाते हुये समर्थन भी कर दिया है । बप्स, केवल इतनेसे ही अगले वादीद्वारा कहे गये हेतुका दूषण हो जाता है, तो उस वादीके कहे गये का पुनः प्रत्युच्चारण करनेसे क्या लाभ है । अतः द्वितीयपक्ष मानना ही अच्छा दीखता है । जिसके विना अपने अभीष्ट साध्यकी सिद्धि नहीं होवे, उसीका प्रति उच्चारण नहीं करना प्रतिवादीका अननुभाषण निग्रहस्थान मानना चाहिये ।
___ अथैवं दूषयितुमसमर्थः शास्त्रार्थज्ञानपरिणतिविशेषरहितत्वात् तदायमुत्तरापतिपत्तेरेव तिरस्क्रियते न पुनरप्रत्युच्चारणात् । सर्वस्य पक्षधर्मत्वादेर्वानुवादे पुनरुक्तत्वानिष्टेः प्रत्युच्चारणोपि तत्रोत्तरमप्रकाशयन् न हि न निगृह्यते स्वपक्षं साधयता यतोऽप्रतिभैव निग्रहस्थानं न स्यात् ।
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अब इस प्रकार हेतुका उच्चारण किया जा चुकनेपर यदि प्रतिवादी शास्त्रार्थका ज्ञान रखनेवाले विशेष परिणामोंसे रहित होनेके कारण उस हेतुको दूषित करनेके लिये असमर्थ है, तब तो उत्तरकी अप्रतिपत्तिरूप अप्रतिमासे ही यह प्रतिवादी तिरस्कार करने योग्य है। किन्तु फिर प्रत्युच्चारण नहीं करना स्वरूप अमनुमाषणसे प्रतिवादीका निग्रह नहीं करना चाहिये । सभी वादियोंके यहां " संच शङ्कः " " तथा च धूमवान् ” ऐसे पक्षवृत्तित्व आदिका अनुमाषण माना गया है। अनुवादम ता पुनुरुक्त दोषपना किसीको अमीष्ट नहीं है । कहना यह है कि प्रत्युच्चारण करनेवाला भी वादी उस साध्यसिद्धिमें यदि समीचीन उत्तरका प्रकाश नहीं कर रहा है, तो निगृहीत नहीं होय यों नहीं समझना । किन्तु अपने पक्षको भळे प्रकार साध रहे वादी करके उसका निग्रह अवश्य हो जायगा । भनें ही वह वादी द्वारा कहे गयेका उच्चारण कर दे, यों होता क्या है ! जिससे कि उस अवसरपर प्रतिवादीका अप्रतिमा नामक ही निग्रहस्थान नहीं होवे । अतः अप्रतिमा या अज्ञानमें गर्मित हो जानेसे इस अननुभाषणको स्वतंत्र निग्रहस्थान मानना अच्छा नहीं दीखता है। .
यदप्युक्तं, अविज्ञातं चाज्ञानमिति निग्रहस्थानं, तदपि न प्रतिविशिष्टमित्याह ।
और भी जो नैयायिकोंने गौतम सूत्र द्वारा पन्द्रहवें निग्रहस्थानका यो लक्षण किया कि वादीके कथनका परिषद् द्वारा विज्ञान किये जा चुकनेपर यदि प्रतिवादीको विज्ञान नहीं हुआ है, तो प्रतिवादीका " अज्ञान " इस नामका निग्रहस्थान होगा । आचार्य कहते हैं कि अज्ञान भी कोई विलक्षण विशेषताओंको रखता हुआ बढिया निग्रहस्थान नहीं है। जैसे अन्य कई निग्रहस्थानों में कोरा वचन आडम्बर है, वैसा ही कूडा इसमें भरा है । इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकों द्वारा कहते हैं।
अज्ञातं च किलाज्ञानं विज्ञातस्यापि संसदा । परस्य निग्रहस्थानं तत्समानं प्रतीयते ॥ २४१॥ सर्वेषु हि प्रतिज्ञानहान्यादिषु न वादिनोः । अज्ञानादपरं किंचिनिग्रहस्थानमांजसम् ॥ २४२॥ तेषामेतत्त्रभेदत्वे बहुनिग्रहणं न किम् ।
अर्धाज्ञानादिभेदानां बहुधात्रावधारणात् ॥ २४३ ॥
वादीके द्वारा कहे गये वाक्यका परिषद् करके विज्ञान हो चुका है। फिर भी प्रतिवादी करके जो कुछ भी नहीं समझा जाना है, वह नैयायिकोंके यहां दूसरे प्रतिवादीका अज्ञान नामक
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निग्रहस्थान सम्भव रहा माना गया है । कुछ नहीं समझ रहा प्रतिवादी भला किसका प्रतिषेध करे । न्यायभाष्यकारने खेद प्रकट करते हुये प्रतिवादीके ऊपर करुणा भी दिखा दी । हारे हुये के भी कोई भगवान् सहायक हो जाते हैं, ऐसा ग्राम्यप्रवाद है । अब भाचार्य कहते हैं, वह अज्ञान भी अननुभाषण या अपार्थकके समान ही प्रतीत हो रहा है । कोई विलक्षणता नहीं है, तात्विक दृष्टिसे विचारनेपर ज्ञात हो जाता है कि सम्पूर्ण ही प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, पुनरुक्त, अपार्थक, अधिक, आदि निग्रहस्थानों में वादी या प्रतिवादीका अज्ञानसे भिन्न और दूसरा निग्रहस्थान नहीं है। क्तः अज्ञान मी वैसा ही है । कोई चमत्कार युक्त नहीं है। वहां भी अज्ञान ही सम्भव रहा है। यदि उन प्रतिबाहानि आदि निग्रहस्थानोंको इस अज्ञानके भेद प्रभेदस्वरूप मानकर पृथक् निरूपण किया जावेगा तब तो निग्रहस्थानों की प्रतिनियत संख्याके अभाव होनेका प्रसंग होगा । तुम नैयायिकोंके यहां यों भेदप्रभेदस्वरूप पचासों, सैकडों, बहुतसे, निग्रहस्थान क्यों नहीं हो जायेंगे । क्योंकि वादीद्वारा कहे गये का आधा ज्ञान नहीं होना, चतुर्थ अंशका ज्ञान नहीं होना, या आधा विपरीत, बाधा समीचीन ( सुपरीत ) ज्ञान होना, आदि भेद प्रभेदोंका बहुत प्रकारसे यहां अवधारण किया जा सकता है।
उत्तराप्रतिपत्तिरमतिभेत्यपि निग्रहस्थानमस्य नाज्ञानादन्यदित्याह ।
अब आचार्य महाराज नैयायिकोंके सोलहमें निग्रहस्थानका विचार करने हैं। नैयायिकोंने गौतम सूत्रमें " अप्रतिमा " नामक निग्रहस्थानका लक्षण यों किया है कि दूसरे विद्वानके द्वारा कहे गये तत्त्वको समझकर भी उत्तर देनेके अवप्तरपर उत्तरको नहीं देता है, तो प्रतिवादीका अप्रतिमा निग्रहस्थान हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि नैयायिकके द्वारा इस प्रकार माना गया यह अप्रतिमा निग्रहस्थान भी अज्ञान नामक निग्रहस्थानसे न्यारा नहीं है । इस बातको स्वयं प्रन्थकार स्पष्ट कहते हैं।
उत्तराप्रतिपचिर्या परैरप्रतिभा मता। साप्येतेन प्रतिव्यूढा भेदेनाज्ञानतः स्फुटम् ॥ २४४ ॥
जो दूसरे नैयायिक विद्वानों करके श्रोताको उत्तरकी प्रतिपत्ति नहीं होना अप्रतिभा मानी गयी है, वह भी इस उक्त अज्ञान निग्रह स्थानके विचार करनेसे ही खण्डित कर दी गयी है, क्योंकि अज्ञान निग्रहस्थानसे अप्रतिभाका व्यक्त रूपसे कोई भेद प्रतीत नहीं होता है । अज्ञान और उत्तरकी अप्रतिपत्तिमें कोई विशेष अन्तर नहीं है।
यदप्युक्तं, निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्यांपेक्षणं निग्रहस्थानमिति, तदपि न साधीय इत्याह ।
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और भी जो नैयायिकोंने सत्रहवें निग्रहस्थानका लक्षण गौतमसूत्रमें यों कहा था कि निप्रहको प्राप्त हो चुके भी पुरुषका पुनः निग्रहस्थान नहीं उठाया जाना यह पर्यनुयोज्योपेक्षण निप्रहस्थान है। अर्थात्-करुणाका फल हिंसा है, (नेकीका दर्जा बदी है। ) कोई वादी यदि निगृहीत हो चुके प्रतिवादीके ऊपर कृपाकर निग्रहस्थान नहीं उठाता है, तो ऐसी दशामें वह वादी अपने आप अपने पावोमें कुल्हाडी मार रहा है। क्योंकि जीतनेवाका ही निकट भविष्यमें पर्यनुयोज्योपेक्षण द्वारा निग्रहस्थान होनेवाला है । इस निग्रहस्थानका तात्पर्य पर्यनुयोज्यकी उपेक्षा कर देना है। सुवक्ताको निग्रहकी प्राप्तिसे सन्मुख बैठा हुआ पुरुष प्रेरणा करने योग्य था । किन्तु सुवक्ता उसकी उपेक्षा कर गया। सुवक्ताके लिये परिपाकमें यही आपत्तिका बीज बन बैठा है। नीतिकारका कहना ठीक है कि " व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः । प्रविश्य हि नंति शठास्तथा विधानसंवृताङ्गान् निशिता इवेषवः " । इस प्रकार नैयायिकोंने यह पर्यनुयोज्येपेक्षण निग्रहस्थान माना है । आचार्य कहते हैं कि वह निग्रहस्थान भी बहुत अच्छा नहीं है । इस बातको प्रन्थकार वार्तिकद्वारा स्पष्ट कहते हैं।
यः पुनर्निग्रहप्राप्तेप्यनिग्रह उपेयते । कस्यचित्पर्यनुयोज्योपेक्षणं तदपि कृतम् ॥ २४५ ॥
जो नैयायिकोंने निग्रहस्थानको प्राप्त हो रहेमें भी पुनः निग्रह नहीं उठाना किसीका पर्यनुयोज्योपेक्षण नामक निग्रहस्थान स्वीकार किया है, वह भी उक्त विचारोंकरके ही न्यारा निग्रहस्थान नहीं किया जा सकता है । अज्ञान या अप्रतिमामें ही उसका अन्तर्भाव हो जावेगा । अधिक व्याख्यान करनेसे कोई विशेष लाभ नहीं है ।
स्वयं प्रतिभया हि चेत्तदंतर्भावनिर्णयः । सभ्यरुद्भावनीयत्वात्तस्य भेदो महानहो ॥ २४६ ॥ वादेप्युद्भावयनैतन्न हि केनापि धार्यते । स्वं कौपीनं न कोपीह विवृणोतीति चाकुलम् ॥ २४७ ॥ उत्तराप्रतिपत्तिं हि परस्योद्भावयन्स्वयं । साधनस्य सदोषत्वमाविर्भावयति ध्रुवम् ॥ २४८॥ संभवत्युत्तरं यत्र तत्र तस्यानुदीरणम् । युक्तं निग्रहणं नान्यथेति न्यायविदां मतम् ॥ २४९ ॥
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
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निर्दोषसाधनोक्तौ तु तूष्णीभावाद्विनिग्रहः ।
प्रलापमात्रतो वेति पक्षसिद्धेः स आगतः ॥ २५०॥ ___ यदि नैयायिक यों कहें कि अप्रतिभासे निगृहीत हो रहे पुरुषमें प्रतिमा नहीं है। और पर्यनुयोज्योपेक्षणसे निगृहीत हो रहेमें प्रतिमा विद्यमान है । दूसरी बात यह है कि स्वयं वक्ता अप्रतिमाको उठाता है। और यह पर्यनुयोज्योपेक्षण तो मध्यस्थ सभासदोंकरके उत्थापन करने योग्य है। भाष्यकार कहते हैं कि " एतच्च कस्य पराजय इत्यनुयुक्तया परिषदा वचनीय, न खलु निग्रह प्राप्तः स्वकौपीनं विवृणुयादिति" । अतः हम नैयायिक आश्चर्यपूर्वक कहते हैं कि अप्रतिभासे उस पर्यनुयोज्योपेक्षणका महान् भेद है । वादमें भी इसको कोई वादी या प्रतिवादी यदि उठा देवे तो किसी करके भी वह निग्रहस्थान मनोनुकूल झेठा नहीं जाता है । पक्का जीतनेवाला पुनः पराजित नहीं होना चाहता, पर्यनुयोज्योपेक्षण निग्रहस्थानको उठानेवाला अपना निग्रह पहिले हो चुका, यह अवश्य स्वीकार कर लेता है । निग्रहको प्राप्त हो चुका कोई भी पुरुष इस लोकमें अपने आप अपनी गुल जननइन्द्रिवको नहीं खोल देता है। अपनी जांघ उघाडिये बाप ही मरिये लाज" । इस प्रकार पर्यनुयोज्योपेक्षण उठानेके लिये निगृहीतको बडी आकुलता उपस्थित हो जाती है। तभी तो मध्यस्थोंके ऊपर यह कर्तव्य ( बला ) टाल दिया गया है। जो पण्डित दूसरेके उत्तरकी अप्रतिपत्तिको स्वयं उठा रहा है, वह स्वयं अपने साधनका दोष सहितपना निश्चय से प्रकट करा रहा है । हां, जिस स्थलपर जो उत्तर सम्भव रहा है, उसका वहां कथन नहीं करना तो अप्रतिमा निग्रहस्थान है, यह मानना युक्त है । अन्य प्रकारोंसे निग्रह नहीं हो सकता है । इस प्रकार न्याय शास्त्रोंको जाननेवालोंका मन्तव्य है । इसपर हम जैनोंका यह कहना है कि वादी द्वारा निर्दोष हेतुके कथन कर चुकनेपर प्रतिवादीका चुप रहनेसे तो विशेष रूपसे निग्रह होगा अथवा केवळ व्यर्थ बकवाद करनेसे प्रतिवादीका निग्रह होगा। इस कारण अपने पक्षकी सिद्धि कर देनेसे ही दूसरेका वह निग्रहस्थान होना बाया। कोरा दोष उठा देनेसे अथवा निगृहीतका निग्रह कथन नहीं कर देनेसे यों ही किसीका निग्रह नहीं हो जाता है। हम तो ऐसे न्यायमार्गको अन्याय ही समझते हैं, जहां कि दयामावोंकी हत्या की जाती है । हां, यदि सन्मुख स्थितके निगृहीत हो जानेका जिस पण्डितको सर्वथा ज्ञान नहीं हुआ है, उस पण्डितके ऊपर अज्ञान निग्रहस्थान उठाया जा सकता है । किन्तु हमें तो वह भी अनुचित दीखता है तो भी ज्ञानर्से पर्यनुयोज्योपेक्षणको पृथक् नहीं मानना चाहिये । ___यदप्यभ्यधायि, स्वपक्षदोषाभ्युपगमात्परपक्षे दोषप्रसंगी मतानुज्ञा । यः परेण चोदितं दोषमनुद्धत्य भवतोप्ययं दोष इति ब्रवीति सा मतानुज्ञास्य निग्रहस्थानमिति, तदप्यपरीक्षितमेवेति परीक्ष्यते ।
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न्यायदर्शनमें निग्रहस्थानोंके आगे पीछेका क्रम यहां कुछ दूसरा होगया है। अस्तु, जो भी नैयायिकोंने मतानुज्ञाका लक्षण यह कहा था कि दूसरे द्वारा प्रेरणा किये गये दोषको स्वीकार कर उसका उद्धार नहीं करते हुये परपक्षमें भी उसी दोषका प्रसंग दे देना मतानुज्ञा निग्रहस्थान है। दूसरेके मतको पीछे स्वीकार कर लेना यह मतानुज्ञा शद्बकी निरुक्ति है । जैसे मीमांसकने कहा कि शद्ध नित्य है (प्रतिज्ञा ), श्रवण इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होनेसे (तु ) यों कह चुकनेपर नैयायिकने मीमांसकके यहां मानी गयी वायुस्वरूप ध्वनिओं करके श्रावणत्व हेतुमें व्यभिचार हेत्वाभास उठाया । ऐसी दशामें मीमांसकने अपने ऊपर आये दोषका उद्धार तो नहीं किया, किन्तु नैयायिकोंके शद्ध अनित्य है,कृतक होनेसे,इस अनुमानमें भी हेत्वाभास उठा दिया ऐसी दशामें यह मीमांसक मतानुज्ञा" नामक निग्रहस्थानसे निगृहीत हो जाता है । न्यायभाष्यकार यों ही वखानते हैं, कि जो दाक्षिणात्य शास्त्री दूसरेके द्वारा जड दिये गये दोषका उद्धार नहीं कर भापके यहां मी यही दोष समान रूपसे लागू हो जाता है, इस प्रकार कह देता है इसका वह मतानुबा निग्रहस्थान हो जाता है। इस प्रकार नैयायिकोंका कहना है । आचार्य कहते हैं कि वह निग्रहस्थान भी परीक्षा किया जा चुका या परीक्षामें निति हो चुका नहीं है। इस कारण हम उसकी परीक्षा करते हैं। सो आप नैयायिक सुन लीजियेगा।
स्वपक्षे दोषमुपयन् परपक्षे प्रसंजयन् । मतानुज्ञामवाप्नोति निगृहीति न युक्तितः ॥ २५१ ॥ द्वयोरेवं सदोषत्वं तात्त्विकैः स्थाप्यते यतः। पक्षसिद्धिनिरोधस्य समानत्वेन निर्णयात् ॥ २५२॥
" स्वपक्षदोषाभ्युपगमात् परपक्षदोषप्रसंगो मतानुज्ञा " इस गौतमसूत्रके अनुसार दूसरेके द्वारा कहे गये दोषका अपने पक्षमें स्वीकार कर उसका उद्धार नहीं करता हुआ जो वादी दूसरेके पक्षमें भी समान रूपसे उसी दोषको उठा रहा है, वह पण्डित मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थानको प्राप्त हो जाता है । आचार्य कहते हैं कि यह नैयायिकोंका मन्तव्य युक्तियोंसे मिणांत नहीं हो सका । क्योंकि इस प्रकार तो दोनों ही वादी प्रतिवादियोंका दोषसहितपना तत्त्ववेत्ता विद्वानोंकरके व्यवस्थापित कराया जाता है। कारण कि दोनोंके यहां अपने अपने पक्षकी सिद्धि नहीं करना समानपनेसे निश्चय की जा रही है। श्रवण इन्द्रियसे ग्राह्य होना हेतुसे शके निस्यपनको मीमांसक सिद्ध नहीं कर सका है । जबतक किसी एकके पक्षकी सिद्धि नहीं होयगी, तबतक वह जयी नहीं हो सकता है।
अनैकांतिकतैवेवं समुद्भाव्येति केचन । हेतोरवचने तच्च नोपपत्तिमदीक्ष्यते ॥ २५३ ॥
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तत्वार्थचोकवार्तिके
तथोत्तराप्रतीतिः स्यादित्यप्याग्रहमात्रकं । सर्वस्याज्ञानमात्रत्वापत्तेदोषस्य वादिनोः ॥ २५४ ॥ संक्षेपतोन्यथा कायं नियमः सर्ववादिनाम् ।
हेत्वाभासोत्तरावित्ती कीर्तेः स्यातां यतः स्थितेः ॥ २५५॥
कोई विद्वान् मतानुज्ञाके विषयमें यों विचार करते हैं कि इस प्रकार तो हेतुका अनैकान्तिकपना ही भले प्रकार उठाना चाहिये । पुरुषपना होने से यह हिंसक है, जैसे कि कसाई हिंसक होता है । इस प्रकार कहनेपर जो यों कह रहा है कि तू भी हिंसक है । वह पुरुष व हेतुके व्यभिचार दोषको उठा रहा है। अतः मतानुज्ञा निग्रहस्थान उचित नहीं है। ऐसे किन्हीं के कथनपर आचार्य कहते है कि हेतुका कथन नहीं किये जानेपर वह अनैकान्तिकपन उठाना तो युक्ति युक्त नहीं देखा जाता है। अर्थात-जहां हेतु नहीं कहा गया है और मतानुज्ञाका अवसर है,वहाँ केचित्की परीक्षा करना उपयोगी नहीं ठहरेगा। यदि कोई यों कह देखेंगे कि तिस प्रकारके अवसरपर उत्तरकी प्रतिपत्ति हो जायगी । अतः अप्रतिभा या अज्ञान निग्रह उठा दिया जायगा । आचार्य कहते हैं कि यह भी उनका केवल आग्रह ही है । क्योंकि यों तो वादी प्रतिवादियोंके प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, अननुभाषण, अप्रतिभा आदि सभी दोषोंको केवळ अज्ञानपनेका ही प्रसंग हो जावेगा । अनेक दोषोंकी गिनती करना व्यर्थ पडेगा । अन्यथा सम्पूर्ण वादियोंके यहां संक्षेपसे यह नियम करना कहां बनेगा कि दोषोंकी गणना करनेसे यशकी अपेक्षा हेत्वाभास और उत्तराप्रतिपत्ति दो दोष समझे जावें । जिससे कि उपर्युक्त व्यवस्था हो जाय । अर्थात्-समी वादियों के यहां संक्षेपसे दोषोंके हेत्वाभास और उत्तराप्रतिपत्तिदो भेद कल्पित कर लिये गये हैं। वादी प्रतिवादियोंके लिये दो ही पर्याप्त हैं। नैयायिकोंने भी अप्रतिपत्तिको निग्रहस्थान के सामान्य लक्षणमें डाल दिया है । पश्चात् उनके भेद, प्रभेद, कर दिये जाते हैं । अतः संक्षेपसे विचार करने पर तो कोई विद्वानके द्वारा मतानुज्ञाकी परीक्षा करना कथमपि समुचित हो सकता है । अन्यथा हमारी परीक्षा ही ठीक है।
ननु चाज्ञानमात्रेपि निग्रहेति प्रसज्यते । सर्वज्ञानस्य सर्वेषां सादृश्यानामसंभवात् ॥ २५६ ॥ सत्यमेतदभिप्रेतवस्तुसिद्धिप्रयोगिनोः । ज्ञानस्य यदि नाभावो दोषोन्यस्यार्थसाधने ॥ २५७ ॥ सत्स्वपक्षप्रसिद्धयैव निग्राह्योन्य इति स्थितम् । समासतोनवद्यत्वादन्यथा तदयोगतः ॥ २५८ ॥
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__ यहां कोई शंका करता है कि सभी निग्रहस्थानोंको केवल अज्ञानमें ही गर्मित करनेपर भी तो अतिप्रसंग हो जाता है। क्योंकि सब जीवोंके सभी ज्ञानोंकी सदृशताओंका असम्भव है। अतः भेद प्रभेद करनेपर ही सन्तोष हो सकेगा। अब आचार्य कहते हैं कि यह तुम्हारा कहना सत्य है। किन्तु विशेषता यह है कि अमिप्रेत हो रहे साध्य वस्तुको सिद्धि करने के लिये प्रयोग किये जा रहे ज्ञानका यदि अभाव नहीं है तो ऐसी दशामें अपने अभीष्ट अर्थके साधन करनेपर ही दूसरे सन्मुख स्थित पण्डितका दोष कहा जायगा । और तभी स्वपक्षको साधकर अन्य वक्ताका निग्रह करता हुआ वह जीतनेवाला कहा जायगा। संक्षेपसे यह सिद्धान्त निर्दोष होनेके कारण व्यवस्थित हो चुका है कि अपने पक्षकी प्रमाणोंद्वारा समीचीन सिद्धि करके ही दूसरा पुरुष निग्रह कराने योग्य है। अन्यथा यानी अपने पक्षको साघे विना दूसरेको उस निग्रहप्राप्तिका अयोग है।
तस्करोयं नरत्वादेरिति हेतुर्यदोच्यते । तदानैकांतिकत्वोक्तित्वमपीति न वार्यते ॥ २५९ ॥ वाचोयुक्तिप्रकाराणां लोके वैचित्र्यदर्शनात् । नोपालंभस्तथोक्तौ स्याद्विपक्षे हेतुदर्शनम् ॥ २६०॥ दोषहेतुमभिगम्य स्वपक्षे परपक्षताम् । दोषमुद्भाव्य पश्चात्त्वे स्वपक्षं साधयेजयी ॥ २६१ ॥
यह ( पक्ष ) चोटा है ( साध्य ), मनुष्यपना होनेसे, भोजन करनेवाला होनेसे, वक्ता होनेसे,इत्यादिक हेतुओंसे तस्करपना सिद्ध किया और प्रसिद्ध चोरको दृष्टान्त बनाया गया, इस प्रकार वादीके कहनेपर यदि प्रतिवादी जब यों कह दे कि तब तो हेतुओंके घटित हो जानेसे तू वादी भी पक्का चोट्टा हो गया, ऐसी दशामें नैयायिक प्रतिवादीके ऊपर वादी द्वारा मतानुज्ञा निग्रहस्थानका उठाया जाना वादीका कर्तव्य समझते हैं । किन्तु वस्तुतः विचारा जाय तो यह वादीके हेतुका अनैकान्तिक दोष है । " उल्टा चोर राजाको दंडै " यहां यह परिभाषा. चरितार्थ हो जाती है। अथवा जो वादी दूसरे प्रतिवादी करके आसेपे गये दोषका अपने पक्षमें उद्धार नहीं कर कह देता है कि आपके पक्षमें भी यही दोष समानरूपसे लागू होता है । इस प्रकार अपने पक्षमें दोष स्वीकार कर लेनेसे परकीय पक्षमें दोषका सम्बन्ध करा रहा मतानुज्ञाको प्राप्त हो जाता है। यह तस्कर है, पुरुष होनेसे प्रसिद्ध डाकूके समान " यों कह चुकनेपर तू भी तस्कर है। इस प्रकार हेतुका व्यभिचार दोष ही कहा गया । वह अपने हेतुका स्वयं अपने ही व्यभिचारको देखकर झट कह देता है कि तुम्हारे पक्षमें भी यह दोष समान है । तू भी पुरुष है, इस प्रकार व्यभिचार
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दोषका ही उत्थापन किया जाता है । अतः मतानुज्ञाका हेत्वाभासों में अन्तर्भाव कर लेना चाहिये । आचार्य कहते हैं कि जब यों कहा जाता है तो अनैकान्तिकपनका कथन करना भी हमारे द्वारा नहीं रोका जाता है । क्योंकि जगत् में वचनोंकी युक्तियोंके प्रकारोंका विचित्रपना देखा जाता है । कहीं निषेध मुखसे कार्य के विधानकी प्रेरणा की जाती है । और कहीं विधिमुखसे निषेध किया जा रहा है । कोई हितैषी कि भाई तुम नहीं पढोगे कह कर शिष्यको पढने में उत्तेजित कर रहा है । कोई बहुत ऊधम मचाओ कह कर छात्रोंको उपद्रव नहीं करनेमें प्रेरित कर रहा है। सकटाक्ष या दक्षता पूर्ण बातोंके अवसरपर वचन प्रयोगोंकी विचित्रताका दिग्दर्शन हो जाता है । यहां प्रकरण में भी कण्ठो नहीं कह कर तिस प्रकार वचनभंगी द्वारा विपक्षमें हेतुको दिखलाते हुये अनैकान्तिकपकपर कोई उलाहना नहीं आता है। अपने पक्षमें हेतुके दोषको समझकर पुनः परपक्ष पनके दोषको उठाकर पीछे वादी यदि अपने पक्षको साध देवेगा तो वह जयी हो जावेगा । अन्यथा दोनों भी जय की सम्भावना नहीं है । न्यायदर्शन में पंचम अध्यायके प्रथम आन्हिकके अन्तमें भी इसका विचार किया है । किन्तु वह सब घटाटोप मात्र है । अतः उसकी परीक्षणा करनेमें हमारा अधिक आदर नहीं है ।
यदप्यभिहितमनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानानुयोगो निरनुयोज्यानुयोगो निग्रहस्थानमिति तदप्यसदित्याह ।
और भी जो नैयायिकोंने उन्नीसवें निग्रहस्थानका लक्षण यों कहा था कि निग्रहस्थान नहीं उठाने के अवसरपर निप्रहस्थानका उठा देना वक्ताका " निरनुयोज्यानुयोग " नामक निग्रहस्थान है । इस प्रकार न्यायदर्शनका वह लक्षण सूत्र भी समीचीन नहीं है। इस बातको स्वयं ग्रन्थकार सूत्रका अनुवाद करते हुये कहते हैं ।
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यदात्वनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानमुच्यते ।
तदा निरनुयोज्यानुयोगाख्यो निग्रो मतः ॥ २६२ ॥ सोप्यप्रतिभयोक्तः स्यादेवमुत्तर विकृतेः ।
तत्प्रकार पृथग्भावे किमेतैः स्वल्पभाषितैः ॥ २६३ ॥
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जिस समय वादी निग्रहस्थानके योग्य नहीं हो रहे प्रतिवाद के ऊपर मिथ्याज्ञानवश किसी निग्रहस्थानको कह बैठता है, उस समय तो वादीका " निरनुयोज्यानुयोग नामक निग्रहस्थान हुआ माना गया है | आचार्य कहते हैं कि वह नैयायिकोंका निग्रहस्थान भी अप्रतिभा करके ही विचारित किया कह दिया गया समझना चाहिये । उत्तर देने में विकार हो जानेसे यह एक प्रकार
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का निग्रहस्थान ही है। यदि उन अप्रतिमा या अज्ञानके भेद प्रभेदरूप प्रकारोंका पृथक् पृथक् निग्रहस्थानरूपसे सद्भाव माना जावेगा तो अत्यन्त थोडी बाईस चौवीस संख्योंमें कहे गये इन प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थानोंसे मम क्या पूरा पडेगा ! निग्रहस्थानों के पचासों मेद बन बैठेंगे । तुमको ही महान् गौरव हो जानेका दोष उठाना पडेगा । अतः जो नियत निग्रहस्थानोंमें गर्मित हो सकते हैं, उनको न्यारा निग्रहस्थान नहीं मानो। भले पुरुषोंकी बात भी स्वीकार कर लेनी चाहिये।
यच्चोक्तं कार्यव्यासंगात्कथाविच्छेदो विक्षेपः यत्र कर्तव्यं व्यासज्यकथां विच्छिनत्ति प्रतिश्यायः कलामेको क्षणोति पश्चात्कथविष्यामीति स विक्षेपो नाम निग्रहस्थानं तथा तेनाज्ञानस्याविष्करणादिति तदपि न सदित्याह ।
और भी जो नैयायिकोंने बीसवे निग्रहस्थानका लक्षण गौतमसूत्रमें यों कहा है कि जहां कर्तव्य कार्यसे वादकथाका विच्छेद कर दिया जाता है, वह विक्षेप निग्रहस्थान है । अर्थात्-अन्य कालोंमें करनेके लिये असम्भव हो रहे कार्यका इसी कालमें करने योग्यपनको प्रकट कर ब्याक्षिप्त. मना होकर चाल कथाका विच्छेद कर देता है । अपने साधने योग्यअर्थकी सिद्धि करनेको अशक्य समझकर समय बिताने के लिये कोई एक झूठे मूठे कर्तव्यका प्रकरण उठाकर उसमें मनोयोगको लगाता हुआ दिखला रहा वादी वादकथामें विघ्न डालता है, कि यह मेरा अवश्यक कर्तव्य कार्य नष्ट हो रहा है । अतः उस कार्यके कर चुकनेपर पीछे में वाद करूंगा । इस प्रकार अज्ञानप्रयुक्त निर्बलता को दिखाते हुये वादी या प्रतिवादीका विक्षेप नामक निग्रहस्थान हो जाता है। हां, वास्तविकरूपसे किसी राज्य अधिकारी (माफिसर ) द्वारा बुलाये जानेपर या कुटुम्बी जनोंद्वारा आवश्यक कार्यके लिये टेरे जानेपर अथवा वक्ताके घरमें आग लग जानेपर एवं शिरःशूल, अपस्मार ( मृगी) उदर पीडा भादि रोगों करके प्रतिबन्ध हो जानेपर तो विक्षेप नामका निग्रह नहीं हो सकता है। जैसे कि मल्लको मित्ती ( कुश्ती ) मिडनेके अवसरपर कोई आवश्यक सत्य विघ्न उपस्थित हो जाता है तो प्रतिमल्लकरके मल्लका का निग्रह हुमा नहीं समझा जाता है । जगत्के प्राणियोंको प्रायः अनेक कार्योंमें बलवान् विघ्न उपस्थित हो जाते हैं। क्या किया जाय, परवशता है। हां, अज्ञान छल कोरा अभिमान ( शेखी ) सिलविल्लापन बादि हेतुओंसे कथाका विच्छेद कर देना अवश्य दोष है। भाष्यकार कहते हैं कि ऐसा पुरुष कर्तव्यका व्यासंग कर प्रारम्भ हुये वादका विघात कर रहा है। वह कह देता है कि श्लेष्म ( जुकाम) या पीनस रोग मुझको एक कलातक पीडित करता है। ५१. पांच सौ चालीस निमेष काढतक तुम ठहये। शरीर प्रकृतिके स्वस्थ होनेपर पीछे में शास्त्रार्थ करूंगा। नैयायिक कहते हैं कि इस प्रकार उसका वह विक्षेप नामका निग्रहस्थान है। क्योंकि तिस प्रकार उस व्याकुलित मनवाने अपने ज्ञानको ही प्रकट किया है। इस प्रकार नैयायिकोंके कह
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कपर आचार्य कहते हैं कि वह नैयायिकों द्वारा माना गया विक्षेप नामक निग्रहस्थान समीचीन नहीं है । इस बातको स्वयं ग्रन्थकार वार्त्तिकोंद्वास अनुवाद कर स्पष्ट कहे देते हैं ।
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सभां प्राप्तस्य तस्य स्यात्कार्यव्यासंगतः कथा । विच्छेदस्तस्य निर्दिष्टो विक्षेपो नाम निग्रहः ॥ २६४ ॥ सोपि नाप्रतिभातोस्ति भिन्नः कश्चन पूर्ववत् । तदेवं भेदतः सूत्रं नाक्षपादस्य कीर्तिकृत् ॥ २६५ ॥
शास्त्रार्थ करनेके लिये सभाको प्राप्त हो चुके वादीका कार्यमें व्याक्षेप हो जानेसे जो कथाका विच्छेद कर देना है, वह उसका विक्षेप नामक निग्रहस्थान हुआ कह दिया जायगा । यहां आचार्य महाराज विचार करते हैं कि वह विक्षेप भी पूर्व कहे गये मतानुज्ञा, निरनुयोज्यानुयोग, आदि निग्रहस्थानोंके समान अप्रतिमा या अज्ञान निग्रहस्थान से कोई भिन्न निग्रहस्थान नहीं है । तिस कारण इस प्रकार भिन्न भिन्न रूपसे निग्रहस्थानों के लक्षण सूत्र बनाना अक्षपाद ( गौतम ) की कीर्तिको करनेवाला नहीं है । गम्भीर और स्वल्प शब्दों में तत्वोंको प्रतिपादन करनेवाले सूत्रोंका निर्णय करनेसे दार्शनिक उपज्ञ विद्वान्का यश बढता है । निस्तत्त्व वाग् आडम्बर से यशः कीर्तन नहीं हो पाता है ।
यदप्युक्तं सिद्धांतमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसंगोपसिद्धान्तः प्रतिज्ञातार्थव्यतिरेकेणाभ्युपेतार्थपरित्यागान्निग्रहस्थानमिति, तदपि विचारयति ।
स्वकीय सिद्धान्तको स्वीकार कर प्रतिज्ञातार्थ के विपर्यय रूप अनियमसे कथाका प्रसंग उठाना अपसिद्धान्त निग्रहस्थान है । यह गौतम सूत्रमें लिखा है प्रतिज्ञा किये जा चुके अर्थकी विभिन्नता करके स्वीकृत किये गये अर्थका परित्याग हो जाने ( कर देने ) से यह निग्रहस्थान माना गया है । स्वीकृत आगमके विरुद्ध अर्थका साधन करने लग जाना अपसिद्धान्त है । उस निग्रहस्थानका भी आचार्य महाराज विचार चढाते हैं ।
कथा
स्वयं नियत सिद्धांतो नियमेन विना यदा । प्रसंजयेत्तस्यापसिद्धांत्तस्तथोदितः ॥ २६६ ॥ सोप्ययुक्तः स्वपक्षस्यासाधनेनेन तत्त्वतः । असाधनांगवचनाद्दोषोद्भावनमात्रवत् ॥ २६७ ॥
जिस समय वादी अपने सिद्धान्तको स्वयं नियत कर चुका है, पुनः उस नियतिका लक्ष्य
रक्खे विना यदि वाद कथाका प्रसंग लावेगा तिस प्रकार होनेपर उसके अपसिद्धान्त नामका निग्रह
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स्थान हुआ कह दिया जायगा, आचार्य महाराज परीक्षा करते हैं कि वह अपसिद्धान्त भी निग्रह करानेके लिये युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि तत्त्वदृष्टिसे देखा जाय तो निग्रहस्थानको उठाकर परिश्रमके विना ही जीतने के इच्छा रखनेवाले इस पण्डितंमन्यने अपने पक्षका साधन नहीं किया है। साध्यके साधक अंगोंका कथन नहीं करनेसे किसीको जयप्राप्ति नहीं होती है। जैसे कि केवल दोषोंका उत्थापन कर देनेसे ही कोई जयी नहीं हो जाता है । अतः वक्ताके ऊपर अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान उठानेवालेको अपने पक्षकी सिद्धि करना अनिवार्य है।
तत्राभ्युपेत्य शद्वादीनित्यानेव पुनः स्वयम् । ताननित्यान ब्रुवाणस्य पूर्वसिद्धांतबाधनम् ॥ २६८ ॥ तथैव शून्यमास्थाय तस्य संवेदनोक्तितः। पूर्वस्योत्तरतो बाधा सिद्धान्तस्यान्यथा क तत् ॥ २६९ ॥
उस अपसिद्धान्तमें ये निम्न लिखित उदाहरण दिये जा सकते हैं कि मीमांसक प्रथम ही शद्ध, आत्मा, आदिको नित्य ही स्वीकार कर चुका है । शास्त्रार्थ करते करते पुनः उन शब्द आदिकोंको अनित्य कह बैठता है। ऐसी दशामें उस मीमांसकको अपने पूर्वसिद्धान्तकी बाधा उपस्थित हो जाती है । अतः अपसिद्धान्त हुआ। उसी प्रकार शून्यवाद या तत्त्वोपप्लव वादकी प्रतिज्ञा पूर्वक श्रद्धा कर पुनः उसके सम्वेदन हो जानेका कथन करनेसे पूर्व अंगीकृत सिद्धान्तकी उत्तरकालवर्ती कथनसे बाधा उपस्थित हो जाती है । अन्यथा वह विरुद्ध कथन भला कहां हो सकता था ! अर्थात्-शून्यतत्वका ज्ञान माननेपर ज्ञान पदार्थ ही वस्तुभूत सिद्ध हो जाता है। फिर पहिला सभी शून्य है, जगत्में कुछ नहीं है, यह सिद्धान्त कहां रक्षित रहा! ..
प्रधानं चैवमाश्रित्य तद्विकारप्ररूपणम् । ताहगेवान्यथा हेतुस्तत्र न स्यात्समन्वयः ॥ २७०॥ .
इसी प्रकार कपिल मत अनुसार एक प्रकृति तत्त्वका ही आश्रय लेकर पुनः उस प्रकृतिके महान्, अहंकार, तन्मात्रायें, इन्द्रियां, पन्चभूत, इनको विकार कथन करमा भी उस ही प्रकार है । यानी अपसिद्धान्त निग्रह है । माष्यकारने यही दृष्टान्त दिया है कि सत्का विनाश और असत्का उत्पाद होता नहीं है । इस सिद्धान्तको स्वीकार कर " एकप्रकृतीदं व्यक्तं विकाराणामन्वयदर्शनात् " जैसे मिट्टीके विकार घडा, घडी, भोला आदिमें मृत्तिका अन्वय है । तिसी प्रकार अहंकार, इन्द्रिय आदि भिन्न भिन्न व्यक्तोंमें सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणके कार्य हो रहे सुख, दुःख, मोहका अन्वय देखा जाता है । इस प्रकार सांख्योंका कहना पूर्व अपर विरुद्ध पड जाता है। अन्यथा वह
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NEHARSINHREENERamnasiu m......
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समन्वयरूप हेतु नहीं ठहर सकेगा " भेदानां परिमाणात्समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेव कारणकार्य विभागादविभागाद्वैश्वरूप्यस्य " ये हेतु प्रधान के सर्वथा एकपनके बाधक हैं । अत अपसिद्धान्त हुआ।
ब्रह्मात्माद्वैतमप्येवमुपेत्यागमवर्णनं । कुर्वन्नाम्नायनिर्दिष्टं बाध्योन्योप्यनया दिशा ॥ २७१ ॥ स्वयं प्रवर्तमानाश्च सर्वथैकांतवादिनः।
अनेकांताविनाभूतव्यवहारेषु तादृशाः ॥ २७२ ॥
इसी प्रकार परमब्रह्म, आत्माके अद्वैतवादको स्वीकार कर पुनः अनादि कालके गुरूपरम्परा प्राप्त थाम्नायसे कहे गये वेद भागमकी प्रमाणताका वर्णन कर रहा ब्रह्माद्वैत वादी बाधित हो जाता है । अतः उसका अपसिद्धान्त निग्रह हुआ अर्थात्-अकेले ब्रह्मको मानकर उससे भिन्न शब्द स्वरूप आगमको प्रमाण कर रहा वादी अपने अद्वैत सिद्धान्तसे च्युत हो जाता है । इसी संकेत ( इशारा) से उपलक्षण द्वारा अन्य भी अपसिद्धान्तोंको समझ लेना चाहिये । अर्थात-ज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत या जीवतत्वको स्वीकार कर पुनः द्वैतवाद या जडवादका निरूपण करने लग जाना अपसिद्धान्त है। इसी प्रकार अन्य भी अपसिद्धान्तके निदर्शन सम्भव जाते हैं । अनेकान्तके साथ अविनाभावी हो रहे व्यवहारोंमें स्वयं प्रवृत्ति कर रहे सर्वथा एकान्तवादी पुरुष भी वैसे ही एक प्रकारके अपसिद्धांती हैं । अर्थात्-सर्वथा क्षणिकवाद या कूटस्थवाद अथवा गुणगुणीके सर्वथा मेद या अमेदके माननेपर कैसे भी अर्थक्रिया नहीं हो पाती है । क्षणमात्र ही ठहरनेवाला घट जलधारण नहीं कर सकता है। हिंसा करनेवाला क्षणिक आत्मा वही पीछे नरकमें नहीं पहुंच सकता है । कूटस्थ आत्मा तदा वैसा ही बना रहेगा । उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है। अतः खाना,पीना, बोलना स्वर्गजाना परिणामी कुछ काळतक ठहरनेवाले अनेकान्त पदार्थोंमें होती हैं। कहांतक कहा जाय जगत्के सम्पूर्ण व्यवहार पदार्थों में अनेक धर्मोको माने विना नहीं सध सकते हैं। इस बातका अनुभव करते हुए भी सर्वथा एकान्तके पक्षको ही बके जा रहे एकान्तवादी अपने सिद्धान्त नियमका लक्ष्य नहीं रखकर प्रवृत्तियां कर रहे हैं । अतः एक प्रकारसे उनका अपसिद्धान्त निग्रहस्थान हुआ समझो ।
यदप्यवादि, हेत्वाभासाश्च यथोक्ता इति तत्राप्याह ।
और भी जो नैयायिकोंने गौतमसूत्रमें कहा था कि " हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः " इस का अर्थ यों है कि जिस प्रकार प्रथम अध्यायके द्वितीय आनिकों हेत्वाभासोंको पहिले कहा है, उस ही स्वरूपकरके उनको निग्रास्थानपना है । अतः हेत्वाभासोंके अन्य लक्षणोंकी अपेक्षा नहीं है। न्यायभाष्यकार कहते हैं कि " हेत्वाभासाश्च निग्रहस्थानानि किं पुनर्लक्षणान्तरयोगात्, हेस्वाभासाः निग्रहस्थानत्वमापन्नाः यथा प्रमाणानि प्रमेयत्वमित्यत आह यथोक्ता इति । हेत्वामासलक्षणेनैव निग्रह
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तत्वार्थचिन्तामणिः
स्थानमाव इति । त इमे प्रमाणादयः पदार्थी उद्दिष्टा लक्षिता, परीक्षिताश्चेति" । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहे हुये उन हेत्वाभासोंमें भी ग्रन्थकारको यह विशेष कहना है, सो सुनिये।
हेत्वाभासाश्च योगोक्ताः पंच पूर्वमुदाहृताः। सप्तधान्यैः समाख्याता निग्रहाधिकतां गतः ॥ २७३ ॥
प्रमाण, आदि सोलह पदार्थोके सामान्य रूपसे लक्षण करनेके अवसरपर नैयायिकके द्वारा पांच हेत्वाभास पूर्वमें कहे जा चुके हैं । भाष्यकार और वृत्तिकार द्वारा उनके उदाहरण भी दिये जा चुके हैं । प्रथम ही पांच हेत्वाभासोंका उद्देश्य यों किया है कि " सव्यभिचारविरुद्धप्रकरण समसाध्यसमातीतकाला हेत्वाभासाः ” उनमें से " अनेकान्तिकः सव्यभिचारः " अनैकान्तिक दोषको सव्यर्मिचार कहा गया है । जैसे कि शब्द नित्य है, स्पर्शरहित होनेसे, यहां बुद्धि, संयोग, चलना आदि अनित्योंमें भी हेतुके ठहर जानेसे नित्यपना भी एक अन्त ( धर्म ) है । और अनित्यपना भी एक धर्म है । एक ही अन्तमें जो हेतु अविनाभाव रूपसे सहचरित रहता है, वह ऐकान्तिक है। उसका विपरीत होनेसे दोनों अन्तोमें व्याप रहा अनेकान्तिक दोष है । व्यभिचारी हेत्वामासके साधारण, असाधारण, अनुपसंहारी ये तीन भेद माने गये हैं । " यः सपक्षे विपक्षे च भवेत् साधरणस्तु सः" जो हेतु सपक्ष विपक्ष दोनोंमें रह जाता है वह साधारण है । जैसे कि घट अनित्य है, प्रमेय होनेसे, यहां प्रमेयत्व हेतु अनित्य पुस्तक, वस्त्र, मीठा, खट्टा, चलना, घूमना आदि सपथोंमें ठहर रहा है। यह हेतुका गुण है किन्तु नित्य हो रहे आकाश, आत्मा, परमाणु आदि विपक्षोंमें भी रह जाता है। विपक्षसे मिले रहना भारी दोष है। अतः प्रमेयत्व हेतु साधारण हेत्वामास है।" यस्तुभयस्माद् व्यावृत्तः स स्वसाधारणो मतः " और जो हेतु सपक्ष विपक्ष दोनोंमें नहीं ठहर पाता है, वह असाधारण है । जैसे कि शब्द अनित्य है, शद्बपना होनेसे, यहां अनित्य घट, पट बादि सपक्षों में भी शद्वत्व नहीं रहता है । यह छोटासा दोष है तथा आत्मा आदि विपक्षों में भी शब्दत्व हेतु नहीं वर्तता है । भले ही यह गुण है। अतः शद्वत्व हेतु असाधारण हेत्वाभास है । " तथैवानुपसंहारी केवलान्वयिपक्षकः " व्यतिरेक नहीं पाया जाकर जिसका केवल अन्वय ही वर्तता है, उसको पक्ष या साध्य बनाकर जिस अनुमानमें हेतु दिये जाते हैं, वे हेतु अनुपसंहार हेत्वाभास हैं। जैसे कि सम्पूर्ण पदार्थ शवों द्वारा कथन करने योग्य है, प्रमेय होनेसे, यहां सबको पक्षकोटिमें लेनेसे " हेतुमन्निष्ठात्मन्ताभावाप्रतियोगिसाध्यसामानाधिकरण्य" स्वरूप अन्वय ब्याप्ति को ग्रहण करनेके लिये कोई स्थळ ( सपक्ष ) अवशिष्ट नहीं रह जाता है। या केवलान्वयीको साध्य बनानेपर · साध्यामावव्यापकीभूताभावप्रतियोगित्वरूप व्यतिरेक व्याप्तिके नहीं बननेसे अनुमिति नहीं हो पाती है। कोई नैयायिक असाधारण और अनुपसंहारीको हेवामास नहीं मानते
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हैं । सपक्ष में वृत्ति नहीं होते हुये भी विपक्षव्यावृत्ति द्वारा व्याप्तिको बनाकर शद्ववसे शद्वका अनित्यपना साधा जा सकता है । और पक्षके एक देशमें भी व्याप्ति बनायी जा सकती है । उसी प्रकार पक्षके एक देशमें व्याप्तिको बनाकर प्रमेयत्व हेतु भी सद्धेतु बन सकता है । नैयायिकों के यहां अस्मात् पदादयमर्थे बोद्धव्य इति ईश्वरेच्छा संकेतरूपा शक्ति इस ढंगसे शब्दोंकी शक्तिको मानकर सम्पूर्ण पदार्थोको अभिधान करने योग्य मान लिया है। नैयायिकोंने ईश्वरको शक्तिमान् माना है । कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं शक्यः । किन्तु जैन सिद्धान्त अनुसार सम्पूर्ण पदार्थोंका अनन्तानन्तव भाग शद्वों द्वारा वाध्य माना है । शद्व संख्याते ही हैं। अतः संकेत प्रहण द्वारा वे संख्यात अर्थोको ही कह सकते हैं। हां, अविनाभावया अभेद वृत्तिसे भले ही अधिक अर्थको कह दें। सच बात तो यह है कि असंख्याते अर्थोकी प्रतिपत्ति तो शद्बों द्वारा नहीं होकर श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होती है। हां, उस ज्ञानभण्डारकी ताली ( कुंजी ) प्रतिपादक के शद्ब ही हैं। तभी तो जैन विद्वान् भगवान अर्हन्तपरमेष्ठी ज्ञान, वीर्य, सुख दर्शनको अनन्त ही मानते हैं । सर्वज्ञ मी शों द्वारा परिमित अर्थोको ही कहते हैं । सम्पूर्ण पदार्थोंको नहीं कह सकते | यदि नैयायिक ईश्वर के सर्व शक्तियां मानते हैं, तो क्या ईश्वर आकाशमें रुपया, जड घटमें ज्ञानका समवाय करा सकते हैं ? यानी कभी नहीं । अतः सर्व शक्तिमत्ता की कोरी श्रद्धा है ? अभिषेयपन और प्रमेयपनकी समन्याप्तिको इम इष्ट नहीं करते हैं । कहीं कहीं अनैकांतिकके संदिग्ध अनैकान्तिक और निश्चित अनेकान्तिक दो भेद माने गये | नैयायिकोंने दूसरा हेत्वाभास " सिद्धान्तमम्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः " सिद्धान्तको स्वीकार कर उस साध्यसे विरुद्ध हो रहे धर्मके साथ व्याप्ति रखनेवाला हेतु विरुद्ध हेत्वाभास माना है । जैसे कि यह वन्हिमान है, सरोवरपना होनेसे । यहां वन्हिसे विरुद्ध जलसहितपन के साथ व्याप्ति रखनेवाला होनेसे हृदत्व हेतु विरुद्ध है । तीसरा हेत्वाभास गौतमसूत्र " यस्मात् प्रकरण चिन्तासनिर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः " जिनका निश्चय नहीं हो चुका इसी कारण विचारमें प्राप्त हो रहे पक्ष और प्रतिपक्ष यहां प्रकरण माने गये हैं, उस प्रकरणकी चिन्ता करना यानी विचारसे प्रारम्भ कर निर्णयसे पहिलेतक परीक्षा करना उसके निर्णयके लिये प्रयुक्त किया गया प्रकरणसम हेत्वाभास है । जैसे कि पर्वत अग्निसे रहित है, पाषाणका विकार होनेसे। इस हेतुका पर्वत अग्निवाला है, धूम होनेसे, यों प्रतिपक्षसाधक हेतु खडा हुआ है । अतः पाषाणमयत्व हेतु सत्प्रतिपक्ष है । चौथा हेत्वाभास " साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः | पर्वतो हिमान् हिमवात 'हदो वन्द्विमान् धूमत्वात् ' कांचनमयो पर्वतो वह्निमान् इत्यादिक साध्यसम, स्वरूपासिद्ध आश्रयासिद्ध व्याप्यत्वासिद्ध ये सब इसी असिद्ध के प्रकार हैं। पांचवा हेत्वाभास " कालात्ययापदिष्टः काळातीतः " साधन का अभाव हो जानेपर प्रयुक्त किया गया हेतु कालात्ययापदिष्ट है । जैसे कि आग शीतल है, कृतक होनेसे । यहां प्रत्यक्ष बाधित हो जानेसे कृतकत्व हेतु बाधित हेत्वाभास है । इस ढंगसे पूर्वमें पांच हेत्वाभास कहे गये हैं । निग्रहस्थानोंके आधिक्यको प्राप्त कर रहे अन्य विद्वानोंने
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तवार्थचिन्तामणिः
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हेत्वामासोंकी सात प्रकार भी मळे प्रकार संख्या बखानी है । अनेकान्तिकके दो भेदोंको बढाकर या मसिद्ध के दो भेदोंको अधिक कर सात संख्या पूरी की जा सकती है।
हेत्वाभासत्रयं तेपि समर्थ नातिवर्तितुं ।
अन्यथानुपपन्नत्ववैकल्यं तच नैककम् ॥ २७४ ॥ यथैकलक्षणो हेतुः समर्थः साध्यसाधने । तथा तद्विकलाशक्तो हेत्वाभासोनुमन्यताम् ॥ २७५ ॥ यो ह्यसिद्धतया साध्यं व्यभिचारितयापि वा। विरुद्धत्वेन वा हेतुः साधयेन स तनिभः ॥२७६ ॥
वे पांच प्रकार या सात प्रकार हेत्वाभासोंको माननेवाले नैयायिक भी बौद्धों द्वारा माने गये तीन हवामानोंका उल्लंघन करनेके लिये समर्थ नहीं हैं। और वह तीन हेत्वाभासोंका कथन भी अन्यथानुपपत्तिसे रहितपन इसी एक हेत्वाभासका उल्लंघन करने के लिये समर्थ नहीं है। भावार्थ-नयायिक या वैशेषिकोंके यहां पांच या सात प्रकारके हेत्वाभास माने गये हैं। वे बौद्धोंके यहां माने गये मसिद्ध, विरुद्ध, बनेकान्तिक इन हेत्वाभासोंमें ही गर्मित हो सकते हैं । बौद्धोंने हेतुका पक्षवृचित्व गुण असिद्ध दोषके निवारण अर्थ कहा है । और हेतुका सपक्षमें रहनापन गुण तो विरुद्ध हेत्वाभासके निराकरण अर्थ प्रयुक्त किया है। तथा हेतुका विपक्षव्यावृत्ति नामका गुण तो न्यमिचार दोषको हटाने के लिये बोला है । अतः इन तीनों हेत्वाभासोंमें ही पांचों सातोंका गर्भ हो सकता है । तथा बौद्धोंके ये तीन हेत्वाभास भी एक अविनाभावविकलता नामक हेत्वाभासमें ही गर्मित हो सकते हैं । सम्पूर्ण दोषोंके निवारण अर्थ रसायन औषधिके समान हेतुका एक अविनामाव गुण ही पर्याप्त है। जितने ही सुधारक होते हैं, उतनी ही विघ्न कारणोंकी संख्या है । इस नियम अनुसार हेतुके दोषोंकी संख्या भी केवल एक अन्यथानुपपत्तिकी विकलता ही है। अतः जैन सिद्धान्त अनुसार हेवामासका एक ही भेद अन्यथानुपपत्तिरहितपन मानना चाहिये । जिस प्रकार कि एक अविनामाव ही लक्षणसे युक्त हो रहा हेतु साध्यको साधनेमें समर्थ है, उसी प्रकार अकेले अविनामावसे विकल हो गया हेतु तो साध्यको साधनेमें अशक्त है । अतः वह एक ही हेत्वाभास स्वीकार करना चाहिये। एक ही हेत्वाभास अनुमिति या उसके कारण व्याप्तिज्ञान, परामर्श भादिका विरोध करता हुआ साध्यसिद्धिमें प्रतिबन्धक हो जाता है । जो भी हेतु पक्षमें नहीं रहनारूप मसिद्धपने दोष करके साध्यको नहीं साधेगा वह अविनाभावविकल होनेसे हेत्वाभास समझा जायगा अथवा जो हेतु विपक्षवृत्तिरूप व्यभिचारीपन दोष करके साध्यको नहीं साध सकेगा वह भी
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अन्यथानुपपत्तिविक होनेसे उस हेतुसरीखा किन्तु हेतुके लक्षणसे रहित हो रहा हेत्वाभास माना जावेगा तथा जो हेतु साध्यसे विपरीत के साथ व्याप्ति रखना स्वरूप विरुद्वपन दोषसे साध्यसिद्धिको नहीं कर सकेगा वह भी अन्यथानुपपत्तिरहितपन दोषसे आक्रान्त है । अतः हेत्वाभास है । बौद्धों को हेतुके तीन दोष नहीं मानकर एक अविनाभाव विकलता ही हेत्वाभास मान लेना चाहिये ।
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असिद्धादयोपि हेतवो यदि साध्याविना भावनियमलक्षणयुक्तास्तदा न हेत्वाभासा भवितुमर्हति । न चैवं तेषां तदयोगात् । न ह्यसिद्धः साध्याविनाभावनियतस्तस्य स्वयमसत्त्वात् । नाप्यनैकांतिको विपक्षेपि भावात् । न च विरुद्धो विपक्ष एव भावादित्यसिद्धादिप्रकारेणाप्यन्यथानुपपन्नत्ववैकल्यमेव हेतोः समर्थ्यते । ततस्तस्य हेत्वाभासत्वमिति संक्षेपादेक एव हेत्वाभासः प्रतीयते अन्यथानुपपन्नत्वनियमकक्षणैकहेतुवत् । अतस्तद्वचनं वादिनो निग्रहस्थानं परस्य पक्षसिद्धाविति प्रतिपत्तव्यं ।
असिद्ध, व्यभिचारी आदिक हेतु भी यदि साध्य के साथ नियमपूर्वक अविनाभाव रखना रूप लक्षणसे युक्त हैं, तब तो वे कथमपि हेत्वाभास होनेके लिये योग्य नहीं हैं । किन्तु असिद्ध आदि हेत्वाभासों के कदाचित् भी इस प्रकार अविनाभावनियमसहितपना नहीं है। क्योंकि उन असिद्ध आदि असद्धेतुओं के उस अविनाभावका योग नहीं है । जैसे कि क्रूरहिंसकके दयाका योग नहीं है, जो क्रूर कषायी है, वह दयावान् नहीं है, और जो करुणाशील है, वह तीव्र कषायी नहीं है, उसी प्रकार जो हेतु अविनाभावविकल है, वह सत हेतु नहीं और जो अविनाभाव सहित सत् हेतु हैं वो असिद्ध आदि रूप हेत्वाभास नहीं है। देखिये, जो असिद्ध हेत्वाभास है, वह साध्य के साथ अविनाभाव रखना रूप नियमसे युक्त नहीं है । क्योंकि वह स्वयं पक्ष में विद्यमान नहीं है । " शद्वोऽनित्यः चाक्षुषत्वात् " यहां पक्षमें ठहर कर चाक्षुषत्व हेतुका अनित्यत्वके साथ अविनाभाव नहीं देखा जाता है । इस प्रकार अनैकान्तिक हेत्वाभास भी साध्य के साथ अविनाभाव रखनेवाला नहीं है । क्योंकि वह विपक्षमें भी वर्त रहा है । तथा विरुद्ध भी साध्याविनाभावी नहीं है। क्योंकि वह विपक्ष ही में विद्यमान रहता है । इस कारण असिद्ध, व्यभिचारी आदि प्रकारों करके भी हेतुकी अन्यथानुपपत्तिसे विकलताका ही समर्थन किया गया है । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि उस अकेली अन्यथानुपपत्तिविकलताको हो हेत्वाभासपना है । इस कारण संक्षेपसे एक ही बाभास प्रतीत हो रहा है । जैसे कि अन्यथानुपपत्तिरूप नियम इस एक ही लक्षणको धारनेवाले सद्धेतुका प्रकार एक ही है । अतः उस एक ही प्रकार के हेत्वाभासका कथन करना वादीका निग्रहस्थान होगा । किन्तु दूसरे प्रतिवादीके द्वारा अपने पक्षकी सिद्धि कर चुकनेपर ही वादीका निग्रह हुआ निर्णीत किया जायगा । अन्यथा दोनों एकसे कोरे बैठे रहो । जय कोई ऐसी सेंत मेतकी वस्तु (चीज) नहीं है, जो कि यों ही थोडीसी अशुद्धि निकालने मात्रसे प्राप्त हो जाय। उस जयके लिये सयुक्ति
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बुद्धिबल, तपोबल, वाग्मित्व, सभाचातुर्य, प्रत्युत्पन्नमतित्व, शास्त्रहृदय परिशीलन, प्रतिमा, पाप- भीरता, हितमितगम्भीरमाषण, प्रकाण्डविद्वत्ता आदि गुणोंकी आवश्यकता है। यह समझ लेना चाहिये ।
तथा च संक्षेपतः " स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिन " इति व्यवतिष्ठते । न पुनर्विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्ती तद्भावेपि कस्यचित्स्वपक्षसिद्धाभावे परस्य पराजयानुपपत्तेरसाधनांगवचनादोषोद्भावनमात्रवत् छळवद्वा ।
और तिस प्रकार सिद्धान्तनिणींत हो जानेपर यह अकलंक व्यवस्था बन जाती है कि वादी प्रतिवादी दोनोंसे एकके निज पक्षकी प्रमाणों द्वारा सिद्धि हो जाना ही दूसरे अन्य वादीका निग्रह हो गया समझा जाता है। किन्तु फिर नैयायिकोंके यहां माने गये सामान्य लक्षण विप्रतिपत्ति और मविप्रतिपत्ति तो निग्रहस्थान नहीं हैं। क्योंकि उन विपरीत या कुत्सित प्रतिपत्तिके होनेपर और अप्रतिपत्तिके होनेपर भी यदि किसी भी एक वादी या प्रतिवादीके निज पक्षकी सिद्धि नहीं हो पाती है, तो ऐसी दशामें दूसरेका पराजय होना कथमपि नहीं बन सकता है । केवल असाधनांगका वचन कह देनेसे किसीका पराजय नहीं हो सकता है। जैसे कि केवल दोषका उठा देना मात्र अथवा तू छल करनेवाला है, केवल इतना कह देनेसे कोई जयको झट नहीं लूट सकता है । मावार्थ-नैयायिकोंके न्याय दर्शन प्रन्थके पहिले अध्यायकका साठवां सूत्र है कि " विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निप्रहस्थानम् " इसका वात्स्यायन भाष्य यों है कि " विपरीता कुत्सिता वा प्रतिपत्तिर्विप्रतिपत्तिः । विप्रतिपद्यमानः पराजयं प्राप्नोति निग्रहस्थानं खलु पराजयप्राप्तिः । अप्रतिपत्तिस्त्वारम्भविषये न प्रारम्भः । परेण स्थापितं न प्रतिषेधति प्रतिषेधं वा नोद्धरति, असमासाच्च नैते एव निग्रहस्थाने इति " निग्रहस्थानोंका बीज विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति (प्रकरण प्राप्तका बज्ञान) है । इनकी नाना कल्पनाओंसे निग्रहस्थानके चौवीस भेद हो जाते हैं । तिनमें अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिमा, विशेष, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, ये तो अप्रतिपत्ति हैं । और शेष प्रतिज्ञाहानि आदिक तो विप्रतिपत्ति हैं । यदि निग्रहस्थानदाता निग्रहस्थान पात्रके विरुद्ध अपने पक्षकी सिद्धि नहीं कर रहा है, तो वह उसको जीत नहीं सकता है । यह नैयायिकोंके ऊपर हमको कहना है । तथा बौद्धोंके यहां असाधनांग वचन और अदोषोद्भावन ये दो वादी प्रतिवादियोंके निग्रहस्थान माने गये हैं। किन्तु यहां भी जय प्राप्तिकी अभिलाषा रखनेवाळेको अपने पक्षकी सिद्धि करना अनिवार्य है। अथवा नैयायिकोंने छळको निरूपण कर देनेवाले वादी करके छलप्रयोक्ता प्रतिवादीका पराजय इष्ट किया है। यह भी मार्ग प्रशस्त नहीं है । छल उठानेवाले विद्वान्को सन्मुख स्थित छलप्रयोक्ताके विरुद्ध अपने पक्षकी सिद्धि कर देना अत्यावश्यक है । अन्यथा चतुर, विचक्षण, विद्वानोंको छली बताते हुये भोंदू मूढ, पुरुष जय लूट ले जायंगे । अतः छठोंको दृष्टान्त बना कर आचार्योने निग्रहस्थानोको पराजय प्राप्त करानेका प्रयोजक नहीं साधने दिया है।
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तत्वार्थोकवार्तिके .
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किं पुनश्छलमित्याह।
उपर विवरणमें श्री विद्यानन्द स्वामीने छलका दृष्टान्त दिया है, जो कि नैयायिकोंके यहां माने गये मूलतत्त्व सौलह पदार्थोंमें परिगणित किया गया है। और जिसको श्री विद्यानन्द स्वामीने प्रतिज्ञाहानि धादिमें पहिले गिना दिया है। अब वह छल क्या पदार्थ है ! इस प्रकार शिष्यको जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य नैयायिकोंके अनुसार छलका लक्षण कहते हुये विचार करते हैं।
योरोपोपपत्त्या स्याद्विघातो वचनस्य तत् । छलं सामान्यतः शक्यं नोदाहर्तुं कथंचन ॥ २७७ ॥ विभागेनोदितस्यास्योदाहतिः स त्रिधा मतः । वाक्सामान्योपचारेषु छलानामुपवर्णनात् ॥ २७८ ॥
गौतम सूत्रके अनुसार छलका साधारण लक्षण यह है कि वादी द्वारा स्वीकृत किये अर्थका जो विरुद्ध कल्प है, यानी अर्थान्तरकी कल्पना है, उसकी उपपत्ति करके जो वादी द्वारा कहे गये अर्थका प्रतिवादी करके विधात है, वह उस प्रतिवादीका छल है। सामान्य रूपसे उस छलका उदाहरण कैसे भी नहीं दिया जा सकता है । " निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत्" न्यायभाष्यकार कहते हैं कि " न सामान्यलक्षणे छलं शक्यमुदाहर्तुमविभागे तूदाहरणानि " हां, विभागकरके कह दिये गये इस छलका उदाहरण सम्भव जाता है । और वह छलोंका विभाग वाक्छल, सामान्य छळ, उपचार छळ इन भेदोंमें वर्णना कर देनेसे तीन प्रकारका माना गया है।
अर्यस्पारोपो विकल्पः कल्पनेत्यर्थः तस्योपपत्तिः घटना तया यो वचनस्य विशेषेणाभिहितस्य विघातः प्रतिपादकादभिप्रेतादर्थात् प्रच्यावनं तच्छलमिति लक्षणीयं, 'वचनविधातोर्थविकल्पोपपत्या छळं' इति वचनात् । तच्च सामान्यतो लक्षणे कथमपि न पक्यमुदाहर्तु विभागेनोक्तस्य तच्छलस्योदाहरणानि शक्यते दर्शयितुं । स च विभागस्त्रिधा मनोऽक्षपादस्य तु त्रिविधमिति वचनात् । वाक्सामान्योपचारेषुछलानां त्रयाणामेवोपवर्णनात् वाक्छक, सामान्यछळं, उपचारछवं चेति ।
छलके प्रतिपादक गौतमसूत्रका व्याख्यान इस प्रकार है, कि वादीके अभीष्ट अर्थका बारोप यानी विकल्प इसका अर्थ तो अर्थान्तरकी कल्पना है । उस आरोपकी उपपत्ति यानी घटित करना उस करके जो वादीके वचनका यानी विशेष अभिप्राय करके कहे गये वक्तव्यका विशेष युक्तिकरके विघात कर देना अर्थात्-प्रतिपादकसे अभिप्रेत हो रहे अर्थसे वादीको प्रच्युत करा देना, इस प्रकार छलका सामान्य रूपसे लक्षण करने योग्य है। मूल गौतमसूत्रमें इसी प्रकार कथन है कि अर्थके
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तत्वार्य चिन्तामणिः
विकल्पकी उपपत्तिसे वचनविघात कर देना छल है । और वह छल सामान्यसे लक्षण करनेपर कैसे मी उदाहरण करने योग्य नहीं है । सामान्य गाव दूध नहीं दे सकती है। हां, विभाग करके कह दिये गये उस छलके उदाहरण दिखलाये जा सकते हैं । और वह विभाग तो अक्षपाद गौतमके यहां तीन प्रकार माना गया है । इस प्रकार गौतमसूत्रमें कहा गया । "तत् त्रिविधं वाक्छळं सामान्यछळमुपचारछलं च" इस कथनसे वाक्, सामान्य, उपचार इन भेदोंमें तीन प्रकारके छोंका ही वर्णन किया गया है । वाक् छळ, सामान्य छल और उपचार छळ, इस प्रकार छकके तीन विमागहें।
तत्र किं वाक्छलमित्याह।
उन तीन छलोंमें पहिला वाक्छळ क्या है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य नैयायियोंका अनुवाद करते हुये वाक्छलका लक्षण कहते हैं।
तत्राविशेषदिष्टेथे वक्तुराकूततोन्यथा । कल्पनार्थांतरस्येष्टं वाक्छलं छलवादिभिः ॥ २७९ ॥
" अविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना वाक्छ ” अविशेष रूपसे वक्ता द्वारा कहे गये अर्थमें वक्ताके अभिप्रायसे दूसरे अर्थान्तरकी कल्पना करना और कल्पना कर उस दूसरे अर्थका असम्भव दिखा कर निषेध करना छळवादी नैयायिकों करके छलका लक्षण स्थित किया है। जिनका स्वभाव छलपूर्वक कथन करनेका हो गया है, उनको इस प्रकार छळका लक्षण करना शोमता है।
तेषामविशेषेण दिष्टे अभिहितेथै वक्तुराकूतादभिमायादन्यथा स्वाभिप्रायेणार्थातरस्य कल्पनमारोपणं वाक्छलमिष्टं तेषामविशेषाभिहितेषु वक्तुरभिमायादतिरकल्पना वाक्छकं इति वचनात् ।
___सामान्यरूपसे अमिहित यानी कथित किये गये अर्थमें वक्ताके आकूत यानी अभिप्रायसे अपने अभिप्राय करके दूसरे प्रकार अर्थान्तरकी कल्पना करना अर्थात-वक्ताके ऊपर विपरीत आरोप धर देना उन नैयायिकोंके यहां वाक्छल अभीष्ट किया गया है। उनके यहां गौतमसूत्रमें इस प्रकार कहा गया है कि विशेषरूपोंको उठाकर किये जाने योग्य बाक्षेपोंके निराकरणकी नहीं अपेक्षा करके सामान्यरूपसे वचन व्यवहारमें प्रसिद्ध हो रहे अर्थके वादीद्वारा कह चुकनेपर यदि प्रतिवादी वक्ता वादीके अभिप्रायसे अन्य अर्थोकी कल्पना कर प्रत्यबस्थान देता है तो प्रतिवादीका वाक्छल है । अतः वादी करके प्रतिवादीका पराजय हो जाता है । क्योंकि लोकमें सामान्यरूपसे प्रयोग किये गये शब्द अपने अभीष्ट विशेष अर्थोको कह देते हैं, जैसे कि छिरियाको गांव के जालो, घीको लामो, बामणको खबानो, शाबको पढो, माजकल
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
मनुष्योंमें अनीति बढती जाती है, इत्यादिक स्थलोंपर सामान्यशब्द अर्थविशेषोंको ही कहते हैं। क्योंकि केवल सामान्यमें अर्थक्रिया नहीं हो सकती है । प्रतिवादीको उचित था कि बादीके द्वारा प्रयुक्त किये गये सामान्यवाचक शब्दके अभीष्ट हो रहे विशेष अर्थका प्रबोध कर पुनः दोष उठाता । किन्तु कपटी प्रतिवादीने जानबूझकर अनुपपद्यमान अर्थान्तरकी कल्पना की। अतः छली प्रतिवादीको सम्योंके सन्मुख पराजित होना पड! ! काठ की हांडी एक बार भी नहीं चढती, धोखा सर्वत्र धोखा ही है ।
अस्योदाहरणमुपदर्शयति ।
नैयायिकोंके मन्तव्यका अनुवाद करते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य इस वाक्छलके उदाहरण को बार्तिकोंद्वारा दिखलाते हैं।
आब्यो वै देवदचोयं वर्तते नवकंबलः । इत्युक्ते प्रत्यवस्थानं कुतोस्य नवकंबलाः ॥ २८० ॥ यस्मादाब्यत्वसंसिद्धिर्भवेदिति यदा परः । प्रतिब्यात्तदा वाचि छलं तेनोपपादितम् ॥ २८१ ॥
यह देवदत्त अवश्य ही अधिक धनवान् वर्त रहा है । क्योंकि नवकंबलवाला है । इस प्रकार वादीद्वारा कथन कर चुकनेपर प्रतिवादीद्वारा प्रत्यबस्थान उठाया जाता है कि इसके पास नौ संख्या वाले कंबल कहां है जिससे कि हेतुके पक्षमें वर्तजानेसे धनीपनकी भळे प्रकार सिद्धि हो जाती । अर्थात्-वादी जब इसके पांच और चार नौ कंबल बता रहा है किन्तु इसके पास एक ही नेपाली कंबल है। इस प्रकार दूसरा प्रतिवादी जब प्रत्युत्तर कहेगा, तब उस प्रतिवादीके वचनोंमें छलकी उपपत्ति करायी । अतः प्रतिवादी छळ दोषप्ते ग्रसित हुआ विचारशीलोंकी दृष्टिमे गिर जाता है ।
नवकंबलशद्वे हि वृत्त्या प्रोक्ते विशेषतः। नवोऽस्य कंबलो जीणों नैवेत्याकूतमाजसम् ॥ २८२ ॥ वक्तुः संभाव्यते तस्मादन्यस्यार्थस्य कल्पना । नवास्यकंबला नाष्टावित्यस्यासंभवात्मनः ॥ २८३ ।। प्रत्यवस्थातुरन्यायवादितामानयेद्रुवं । संतस्तत्त्वपरीक्षायां कथं स्युश्छलवादिनः ॥ २८४ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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कोई कहता है कि " आढ्यो वै वैधवेयोयं वर्तते नवकंबल : यह मालदार विधवाका छोकरा बहुत धनवान् है, नव कंवल (बढिया दुशाला) वाळा होनेसे । यहां इस अनुमानमें नव और कम्बल शद्वकी कर्मधारय नामक समास वृत्ति करके विशेष रूपसे " नवकंवल शब्द कहा गया है कि इसके पास नवीन कंवल रहता है । फटा, टूटा, पुराना कम्बल कभी देखने में आता नहीं है । इस प्रकारका ही वक्ताका अभिप्राय तांत्रिक रूपसे संभव रहा है । किन्तु प्रतिवादी कषायवश 1 उस अभिप्रेत अर्थसे अन्य अर्थकी कल्पना कर दोष देनेके लिये बैठ जाता है, कि नव कंबल शब्द द्वारा इसके नौ संख्यावाले कंबल होने चाहिये, आठ मी नहीं, इस प्रकार असंभव स्वरूप अर्थकी कल्पना कर प्रत्यवस्थान उठा रहे प्रतिवादीके ऊपर अन्याय पूर्वक बोलने की चांटको निश्चित ही प्राप्त करा देना चाहिये अर्थात् - प्रतिवादीको अन्याय वादी माना जाय करार दिया जाय ) तत्त्वोंकी परीक्षा करनेमें सज्जन पुरुष अधिकार प्राप्त हो रहे हैं । छलपूर्वक कहनेवाले मला तत्त्वोंकी परीक्षा कैसे कर सकेंगे ? अथवा जो सज्जन हैं, वे स्वभावसे छलपूर्वक वाद करनेवाले कैसे हो जायेंगे ! अर्थात् - कभी नहीं ।
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कथं पुनरनियमविशेषाभिहितोर्थः वक्तुरभिप्रायादर्थांतरकल्पना वाक्छलाख्या प्रत्यवस्थातुरन्यायवादितामानयेदिति चेत् छलस्यान्यायरूपत्वात् । तथाहि - तस्य प्रत्यवस्थानं सामान्यशद्धस्यानेकार्थत्वे अन्यतराभिधान कल्पनाया विशेषवचनाद्दर्शनीयमेतत् स्यात् विशेषाज्जानीमोऽयमर्थस्त्वया विवक्षितो नवास्य कंबला इति, न पुनर्नवोस्य कंबल इति । स च विशेषो नास्ति तस्मान्मिथ्याभियोगमात्रमेतदिति । प्रसिद्धश्च लोके 'शद्धार्थ संबंधोभिधानाभिषेयनियमभियोगोस्याभिधानस्यायमर्थोभिधेय इति समानार्थः सामान्यशद्वस्य, विशिष्टोर्थो विशेषशद्वस्य । प्रयुक्तपूर्वाश्वामी शूद्राः प्रयुज्यंतेऽर्थेषु सामर्थ्यान्न प्रयुक्तपूर्वाः प्रयोगश्रार्यः अर्थसंप्रत्ययाद्व्यवहार इति तत्रैवमर्थवत्यर्थशद्वप्रयोगे सामर्थ्यात्सामान्यशद्वस्य प्रयोगनियमः । अजां नय ग्रामं, सर्पिराहर, ब्राह्मणं भोजयेति सामान्यशद्वाः संतोर्थावयवेषु प्रयुज्यंते सामर्थ्यात् । यत्रार्थे क्रियाचोदना संभवति तत्र वर्तते, न चार्थसामान्ये अजादौ क्रियाचोदना संभवति । ततोजादिविशेषाणामेवानयनादयः क्रियाः प्रतीयते न पुनस्तत्सामान्यस्यासंभवात् । एवमयं सामान्यशब्दो नवकंबल इति योर्थः संभवति नवः कंवलोस्येति तत्र वर्तते यस्तु न संभवति नवास्य कंबला इति तत्र न वर्तते प्रत्यक्षादिविरोधात् । सोयममुपपद्यमानार्थकल्पनया परवाक्योपालंभत्वेन कल्प्यते, तत्र्वपरीक्षायां सतां छलेन प्रत्यवस्थानायोगात् । तदिदं छलवचनं परस्य पराजय एवेति मन्यमानं न्यायभाष्यकारं प्रत्याह ।
कोई आचार्य महाराजके ऊपर प्रश्न करता है कि आप फिर यह बताओ कि विशेष नियम किये बिना ही ताका सामान्यरूपसे कह दिया गया अर्थ ( कर्त्ता ) वक्ता के अभिप्रायसे
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तत्त्वार्यशोकवार्तिके
मर्थान्तरकी कल्पना करना वाक्छल नामको धारता हुआ भला प्रत्यवस्थान उठानेवाले प्रतिवादीको कैसे अन्यायपूर्वक कहनेकी टेवको प्राप्त करा देगा ! समाधान करो । इस प्रकार कहनेपर आचार्य उत्तर देते हैं कि छळ जब अन्यायस्वरूप है तो छलप्रयोक्ता मनुष्य अन्यायवादी अवश्य हुआ। इस बातको और भी स्पष्ट कर कह देते हैं कि इस प्रतिवादीका दूषण उठाना अन्यायरूप है । सामान्य वाचक शन्दोंके जब अनेक अर्थ प्रसिद्धि हो रहे हैं तो उनमें किसी भी एक अर्थके कथन की कल्पनाका विशेष कथनसे यह उस वादीका प्रत्यवस्थान दिखलाया गया होना चाहिये । विशेष रूपसे हम यह जान पाये है कि इसके पास संख्यामें नौ कम्बल हैं । यह अर्थ तुम वादीद्वारा विवक्षा प्राप्त है। किन्तु इसका कंबल नवीन है, यह अर्थ तो फिर विवक्षित नहीं है । और वह नौ संख्यावाला विशेष अर्थ यहां देवदत्तमें घटित नहीं होता है । तिस कारणसे यह मेरे ऊपर झूठा अमियोग ( जुर्म लगाना ) है । इस प्रकार विपरीत समर्थन करना छलवादीके ही सम्भवता है। आचार्य महाराज न्यायभाष्यका अनुवाद कर रहे हैं कि लोकमें शब्द और अर्थका सम्बन्ध तो अमिधान और अभिधेयके नियमका नियोग करना प्रसिद्ध हो रहा है । इस शब्दका यह अर्थ मभिधान करने योग्य है । इस प्रकार सामान्य शब्दका अर्थ समान है और विशेष शब्दका अर्थ विशिष्ट है । उन शब्दोंका पूर्वकाळमें भी लोकव्यवहारार्थ प्रयोग कर चुके हैं । वे ही शब्द अर्थप्रतिपादनमें समर्थ होनेके कारण इस समय अर्थोंमें प्रयोग किये जाते हैं । वे शब्द पहिले वचनव्यवहारोंमें प्रयोग नहीं किये गये हैं । यह नहीं समझना शब्दोंके प्रयोगका व्यवहार तो वाच्य अर्थका भळे प्रकार ज्ञान हो जानेसे हो जाता है । अर्थका भले प्रकार ज्ञान करानेके लिये शब्दप्रयोग है और अर्थके सम्यग्ज्ञानसे लोकव्यवहार है । तहां इस प्रकार अर्थवान् शब्दके होनेपर अर्थमें शब्दका प्रयोग करना नियत हो रहा है । छिरियाको गावको ले जाओ, घृतको लाओ, ब्राह्मणको भोजन कराओ इत्यादिक शब्द सामान्यके वाचक होते हुये भी सामर्थ्य द्वारा अर्थविशेषोंमें प्रयुक्त किये जाते हैं। जिस विशेष अर्थमें अर्थक्रियाकी प्रेरणा होना सम्भवता है। उसी अर्थमें वाचकपनसे वर्त रहे हैं। अर्थ सामान्य छिरिया, ब्राह्मण आदि सामान्योंमें किसी भी क्रियाकी प्रेरणा नहीं सम्भवती है । विशेषोंसे रहित छिरियासामान्य या ब्राह्मणसामान्य कुछ पदार्य नहीं है। तिस ही कारणसे छिरिया, ब्राह्मण घोडा आदि विशेष पदार्थो ही की लाना, ले जाना, भोजन कराना आदि क्रियायें प्रतीत हो रही है। किन्तु फिर उनके विशेषरहित केवळ सामान्यके तो किसी भी अर्थ क्रियाके हो जाने की सम्भावना नहीं है। और न कोई सामान्यका लक्ष्य कर उसमें अर्थ क्रिया करनेका उपदेश ही देता है। इसी प्रकार यह " नवकंबल" शब्द सामान्य शब्द है। नवसंख्या नव संख्यावान् और नवीन इन दोनों विशेषोंमें नवपना सामान्य अन्वित है । इस प्रकार नवका ओ अर्थ यहां पक्षमें सम्भव रहा है कि इस देवदत्तका दुशाला मवीन है, उस विशेष अर्यमें यह नव शब्द वर्त रहा है। और जो अर्थ यहां सम्भवता नहीं है कि इसके पास संख्या में नौ कम्बल
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तत्वार्याचन्तामणिः
विद्यमान हैं। इस प्रकार उस अर्थमें यह नव शब्द नहीं वर्तता है, क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान,
आदिसे विरोध जाता है । तिस कारण यह नहीं सम्भव रहे अर्थकी कल्पना करके दूसरोंके वाक्योंके ऊपर उलाहना देना उस छळवादीने कल्पित किया है। जो कि वह इष्टसिद्धि करानेमें समर्थ नहीं है। क्योंकि तत्त्वोंकी परीक्षा करनेमें सज्जन पुरुषोंके द्वारा छल, कपट, करके परपक्ष निषेध करना समुचित नहीं है । तिस कारण यह छलपूर्वक कथन करना दूसरे प्रतिवादीका पराजय ही है। इस प्रकार वात्स्यायन ऋषि अपने न्यायभाष्य प्रन्थमें मान रहे हैं। अब आचार्य महाराज उक्त प्रकार मान रहे न्यायमाष्यकर्ताके प्रति समाधान वचन कहते हैं, सो आगे सुनिये ।
एतेनापि निगृह्येत जिगीषुर्यदि धीधनैः । पत्रवाक्यमनेकार्थ व्याचक्षाणो निगृह्यताम् ॥ २८५॥ तत्र स्वयमभिप्रेतमा स्थापयितुं नयैः। योऽसामोऽपरैः शक्तैः स्वाभिप्रेतार्थसाधने ॥ २८६ ॥ योर्थसंभावयन्नर्थः प्रमाणेरुपपद्यते। .. वाक्ये स एव युक्तोस्तु नापरोतिप्रसंगतः ॥ २८७ ॥
सच पूछो तो वे नैयायिक तत्त्वपरीक्षा करनेके अधिकारी नहीं है । कारण कि यदि जीतनेको इच्छा रखनेवाला विद्वान् केवल अनेक अर्थाका प्रतिपादन करनेसे ही यदि बुद्धिरूप धनको धारनेवालों करके निग्रह प्राप्त कर दिया जायगा तब तो अनेक अर्थवाले पत्रवाक्यका व्याख्यान कर रहा प्रकाण्ड विद्वान् भी निग्रहको प्राप्त कर दिया जाओ। किन्तु इस प्रकार कमी होता नहीं है। भावार्थ-अत्यन्त गूढ अर्थवाले कठिन कठिन वाक्योंको लिखकर जहां पोद्वारा लिखित शास्त्रार्थ होता है, वहां मी उद्भट विद्वानके ऊपर छब्दोष उठाया जा सकता है। क्योंकि पत्रमें अनेक अर्थवाळे गूढपदोंका विन्यास है। किन्तु ऐसा कमी होता नहीं। श्रोताको उचित है कि वह समीचीन गूढपदोंका अर्थ ठीक ठीक लगा लेवें । तहां स्वयं अमीष्ट हो रहे अर्थको हेतुस्वरूप नयों करके स्थापन करने के लिये जो वादी सामर्थ्ययुक्त नहीं है, वह अपने अभिप्रेत अर्थको साधनेमें समर्थ हो रहे दूसरे विद्वानोंकरके पराजित कर दिया जाय । हो, अर्थकी सम्भावनासे जो अर्थ वहां प्रमाणोंकरके सिद्ध हो जाता है, वही अर्थ वाक्यमें लगाना युक्त होवेगा । दूसरा असमवित अर्थ कल्पित कर नहीं लगाना चाहिये । यों करनेसे अतिप्रसंग दोष हो जावेगा। गौ शब्दका प्रायः बहुत व्यवहार होता है। किन्तु उसके वाणी, दिशा, पृथिवी वादि अनेक अर्थ माने गये हैं। अतः संमवित अर्थ ही पकडना चाहिये। हां, जिस धनीपनको साधनेके
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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
aिये नव शद्धके नौ और नया ये दोनों अर्थ संभव रहे हैं, वहां प्रतिवादीका छल बताना न्यायमार्ग नहीं है । सो तुम स्वयं विचार हो ।
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यत्र पक्षे विवादेन प्रवृत्तिर्वादिनोरभूत् । तत्सिद्धचैवास्य धिकारोन्यस्य पत्रे स्थितेन चेत् ॥ २८८ ॥ कैवं पराजयः सिद्धचेच्छलमात्रेण ते मते । संधाहान्यादिदोषैश्च दात्राऽऽदात्रोः स पत्रकम् ॥ २८९ ॥
नैयायिक कहते हैं कि बादी और प्रतिवादीकी पत्रमें स्थित हो रहे विवाद द्वारा जिस पक्षमें प्रवृत्ति हुई है, उस पक्ष की सिद्धि कर देनेसे ही इसका जय और अन्यका धिक्कार होना संभवता है, अन्यथा नहीं, इस प्रकार कहनेपर तो आचार्य कहते हैं, कि यह तुम्हारा मन्तव्य बहुत अच्छा है । किन्तु इस प्रकार माननेपर तुम्हारे मतमें केवल छलसे ही प्रतिवादीका पराजय भला कहां कैसे सिद्ध
जावेगा ? तथा प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर आदि दोषों करके भी पराजय कहां हुआ, जबतक कि अपने पक्ष की सिद्धि नहीं की जायगी तथा गूढपदवाळे पत्रके दाता और पत्रके गृहीताका वह पराजय कहां हुआ ? अतः इसी भित्तिपर दृढ बने रहो कि अपने पक्षकी सिद्धि करनेपर ही वादीका जय और प्रतिवादीका पराजय होगा, अन्यथा नहीं ।
यत्र पक्षे वादिप्रतिवादिनोर्विप्रतिपत्त्या प्रवृत्तिस्तत्सिद्धेरेवैकस्य जयः पराजयोन्यस्य, न पुनः पत्रवाक्यार्थानवस्थापनमिति ब्रुवाणस्य कथं छलपात्रेण प्रतिज्ञाहान्यादिदोषैश्च स पराजयः स्यात् पत्रं दातुरादातुश्चेति चिंत्यतां ।
जिस पक्षमें वादी और प्रतिवादीकी विप्रतिपत्ति ( विवाद ) करके प्रवृत्ति हो रही है, उसकी सिद्धि हो जानेसे ही एकका जय और अन्यका पराजय माना जाता है । किन्तु फिर पत्रमें स्थित हो रहे वाक्य अर्थ की व्यवस्था नहीं होने देना कोई किसीका जय पराजय नहीं है । अथवा केवळ अनेक अर्थपनका प्रतिपादन कर देना ही जय, पराजय, नहीं । इस प्रकार भले प्रकार बखान रहे नैयायिकके यहां केवल छल कर देनेसे और प्रतिज्ञाहानि आदि दोषों करके पत्र देनेवाले और लेनेवालेका वह पराजय कैसे हो जावेगा ? इसकी तुम स्वयं चिन्तना करो अर्थात् - जब स्वकीय पक्षकी सिद्धि और असिद्धि जय पराजयव्यवस्थाका प्राण है, तो केवळ प्रतिवादी द्वारा छळ या निग्रहस्थान उठा देनेसे ही गूढ अर्थवाले पत्रको देनेवाले वादीका पराजय कैसे हो जायगा ? और क्या सहजका मठा (छाछ) है, जो कि लिखित गूढ पत्रको ले रहा प्रतिवादी शट जयको लूट लेवे । विचार करनेपर यह वाक्छलकी उपपत्ति ठीक नहीं जमी ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
न हि पत्रवाक्यविदर्ये तस्य वृत्तिस्तत्सिद्धेश्व पत्रं दातुर्जय आदातुः पराजयस्वाभिराकरणं वा तदादातुर्जयो दातुः पराजय इति च द्वितीयार्थेपि तस्य वृचिसंभवान, प्रमाणतस्तथापि प्रतीते: समानप्रकरणादिकत्वाद्विशेषाभावात्।।
नैयायिक यदि यों कहें कि गूढ पत्रद्वारा समझाने योग्य जिस अर्यमें उस वादीकी वृत्ति है, उसकी सिद्धि कर देनेसे तो गूढ पत्रको देनेवाले वादीका जय होगा और पत्रका ग्रहण करनेवाले प्रतिवादीका पराजय हो जायगा । तथा उस पत्रलिखित अर्थका प्रतिवादी द्वारा निराकरण कर देनेपर उस पत्रको लेनेवाले प्रतिवादीका जय हो जायगा और पत्रको देनेवाळे वादीका पराजय हो जायगा । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकोंको नहीं कहना चाहिये । क्योंकि गूढ पत्रके कई अर्थ सम्भव जाते हैं । अतः दूसरे अर्थमें भी उस वादीको वृत्ति होना सम्भव जाता है। क्योंकि प्रकरणोंसे तिस प्रकार भी प्रतीत हो रहा है। प्रकरण, तात्पर्य, अवसर, माकांक्षा गादिकी समानता भी मिल रही है। कोई विशेषता नहीं है कि यही अर्थ पकडा जाय, दूसरा नहीं लिया जाय । भावार्य-कोई कोई दक्ष (चानक ) वादी अपने गूढपत्रमें कतिपय अर्थोका सनिवेश कर देता है । वह मनमें विचार लेता है कि यदि प्रतिवादी इस विवक्षित अर्थका निराकरण करेगा, तो मैं अपने गूढपत्रका उससे न्यारा दूसरा अर्थ अभीष्ट कर लूंगा । इसका खण्डन कर देगा तो उसको अभीष्ट कर लूंगा । पदार्थ अपने पेटमें विरुद्ध सदृश हो रहे अनेक अर्थोको धार रहा है। प्रमाण भी उन अनेक अर्थीको साधनेमें हमारे सहायक हो जायेंगे । प्रकरण, योग्यता आदिक भी अनेक अर्थोके बहुत मिल जाते हैं। बतः स्वपक्षकी सिद्धि कर देनेसे ही जय होना मानो, अन्य प्रकारोंका मानना प्रशस्त नहीं है। श्री प्रभाचन्द्राचार्यने परीक्षामुखकी टीका प्रमेयकमळमार्तण्डमें पत्रके विषयमें यों कथन किया है कि परीक्षामुख मूल प्रन्थको रचनेवाले श्री माणिक्यनन्दी आचार्यने " सम्भवदन्यद् विचारणीय " इस अन्तिम सूत्रद्वारा पत्रका लक्षण भी अन्य प्रकरणोंके सदृश विचारवान् पुरुषोंकरके विचारणीय सम्भावित कहा है। लिखित शास्त्रार्थके अवसरपर चतुरंग वादमें पत्र देने नेका आलम्बन करना अपेक्षणीय है। अतः उस पत्रका लक्षण अवश्य कहना चाहिये । जबतक उसका स्वरूप नहीं जाना जायगा, तबतक पत्रका सहारा लेना जय करानेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है। " स्वामिप्रतार्थसाधनानवधगूढपद समूहात्मकं प्रसिद्धाषयवलक्षणं वाक्यं पत्रम् ” यह पत्रका लक्षण है। अपने अभीष्ट अर्थको साधनेवाले निर्दोष और गूढ पदोंके समुदायस्वरूप तथा अनुमानके प्रतिज्ञा मादिक अवयवोंसे सहित हो रहे वाक्यको पत्र कहते हैं । जो वाक्य अपने अभिप्रेत अर्थका साधक नहीं है, या दोषयुक्त है, अथवा अधिक स्पष्ट अर्थवाले सरल पदोंसे युक्त है, ऐसा पत्र निर्दोष पत्र नहीं है । अन्यथा सभी चिट्ठी, पत्री, कहानी, बही, उपन्यास, सरल काव्य, भादिक पत्र हो जायेंगे, जो कि इष्ट नहीं है । जिन काव्योंमें क्रियापद गूढ है, अथवा चक्रबन्ध, पनवन्ध
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तत्त्वाय कोकवार्तिके
marinemamaanmmmmssement
नागपाशबन्ध, ऐसे पप हैं, यदि उनमें अनुमानके प्रतिज्ञा आदि अवयव पाये जावें या उनको परार्यानुमान वाक्य बना दिया जाय तो ऐसे काव्य भी पत्रके नामसे कहे जा सकते हैं । जैसे कि " जानक्या, रघुनाथस्य कंठे कमळमालिका, भ्रमन्ति पण्डिताः सर्वे प्रत्यक्षेपि क्रियापदे " यहां प्रति उपसर्ग पूर्वक क्षिप् धातुसे कर्ममें लुङ् लकारकी क्रिया " प्रत्यक्षेपि " गूढ हो रही है । " नयमान क्षमामान नमामार्याति नाशन, नशनादस्यनो येन नयेनोरोरिमापन" पल्लवकमहिता, " अनयो कुप्यदशयः षककेमोहो नष्टोभियोमापः " इत्यादि काव्योंके भी अनुमान वाक्य बना देनेपर पत्रपना वहां घटित हो जाता है । यदि कोई यो प्रश्न करे जब कि गूढ अर्थवाले पदोंके समुदाय और अपने इष्ट अर्थको साधनेवाले तथा प्रसिद्ध अवयववाले अबाधित वाक्यको पत्र कहते हैं, तो लिखे हुये पत्ते (कागज) को पत्रपना कैसे आ सकता है । वह मुख्यपत्र तो कानोसे ही सुना जा सकता है। हाथमें नहीं लिया जा सकता है । और आंखोंसे भी नहीं देखा जा सकता है । इसके उत्तरमें आचार्य महाराज कहते हैं, कि यह उपचार किये गयेका पुनः दुबारा उपचार है। वर्ण समुदाय आत्मक पदोंके समूहविशेषस्वरूप और कानोंसे सुनने योग्य वाक्यका लिखनेस्वरूप लिपिमें मनुष्यों करके आरोप कर देनेसे उपचार किया गया है। अर्थात-उच्चारणके पीछे लिखने योग्य वर्णलिपिमें पहिला वाक्यपनेका उपचार है । औपलिपिमें उपचार किये गये वाक्यका भी उस पत्र (कागज) में स्थित रहनेके कारण दूसरा उपचार किया गया है। जैसे कि कुएमें गिराने योग्य पापको कौपीन कहते हैं । पापके कारण लिंगको भी उपचारसे कौपीन कह देते हैं । उस लिंगके आच्छादनका वस्त्र होनेसे लंगोटीको भी उपचरित उपचारसे " कौपीन " कह दिया जाता है। अथवा सौधर्म इन्द्रसे न्यारे हो रहे पुरुषको इन्द्र नामसे कह देते हैं। और पुनः वस्त्र या कागजपर लिखे गये इन्द्र चित्र (तसवीर ) को भी इन्द्र कह दिया जाता है । अथवा अकारान्त पदसे नाम धातुमें रूप बनाकर किप् प्रत्यय करनेपर पुनः " अतः " इस सूत्रसे अकारका लोप करनेपर दकारान्त पद शब्द बन जाता है । या पद गतौ धातुसे किप् प्रत्यय करनेपर दकारान्त पद शब्द बना लिया जाय " पदानि त्रायते गोप्यन्ते रक्षन्ते परेभ्यः यस्मिन् वाक्ये तत् पत्रं " पद+त्र ( त्रैङ् पालने ) इस व्युत्पत्तिसे मुख्य ही वाक्यको पत्रपना कह दिया जाता है। दूसरी बात यह है कि जैसे रत्नोंकी रक्षा संदूक या तिजौरीमें हो जाती है, उसी प्रकार पदोंकी रक्षा कागजमें लिख जानेपर हो जाती है। तभी तो हजारों, सैकडो वर्ष पुराने बाचार्यवाक्योंकी आजतक भी लिखित ग्रन्थोंमें रक्षा हो सकी है। ऐसे पत्रके कहीं दो ही अवयव प्रयुक्त किये जाते हैं । उतनेसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है । उसको यों समझ लीजियेगा "स्वान्तमासितभूत्याद्ययन्तात्मतदुमान्तवाक् । परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीत स्वात्मकस्वतः "(अनुष्टप् छन्द) इस अनुमानमें प्रतिज्ञा और हेतु दो ही अवयव कहे गये हैं। इस गूढवाक्यका बर्थ इस प्रकार है कि स्वार्यमें अण् प्रत्यय कर अन्त ही भान्त कहा जाता है। प्र, परा, अप, सम्, अनु आदि उपसर्गौके पाठकी अपेक्षा सु उपसर्गके अन्तमें उत् उपसर्ग पढा गया है। उस
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तत्वार्यचिन्तामणिः
शब्दके
उत् उपसर्गकरके धोतित भूतिको उद्भूति कहते हैं । सिद्धान्तमें निपातको घोतक माना गया है । वह उद्भूति जिनके आदिमें है वे तीन धर्म स्वान्तमासित भूत्याद्याः इस शब्द से कहे जाते हैं । इसका तात्पर्य उत्पाद, व्यय, धौव्य ये तीन धर्म हो जाते हैं। वे उन तीनस्वरूप धर्मोको जो व्याप्त कर रहा है, वह स्वान्तभासित भूत्याद्यत्र्यन्तात्मतत् हैं । यह साध्य है, उमान्त वाक् " यहाँ पक्ष है । सर्व, विश्व, उभ, उभय, आदि सर्वादिगण में उभ जिस अन्त में पडा है, वह विश्वशब्द है, विश्वका अर्थ सम्पूर्ण पदार्थ हैं । उस विश्वरूप पक्षमें पहिले कहा गया साध्य धर्म रखा गया है । इसका तात्पर्य सम्पूर्ण पदार्थ ( पक्ष ) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन स्वभावोंको व्याप रहे हैं (साध्य) यह निकलता है । हेतुवाचक गूढपद यों है कि प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव्, निस्, निर् आदि उपसर्गों में परा उपसर्ग जिसके अन्तमें है, ऐसा उपसर्ग प्र है । उपसर्गोको धात्वर्थ का द्योतक माना गया है । इस कारण उस प्र उपसर्ग करके द्योतित की गई, जो मिति उसकरके विषयरूप से प्राप्त किया गया जिसका स्वात्मा है, वह " परान्तद्योतितोद्दीप्त मितीतस्वात्मक " कहा गया । भावमें त्व प्रत्यय करनेपर उसके भावको परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीतस्वात्मकत्व कहते हैं । इसका अर्थ प्रमेयत्व ऐसा फलित होता है । प्रमाणके विषयको प्रमेयपना व्यवस्थित है । इस प्रकार हेतुस्वरूप धर्मका गूढपदद्वारा कथन है । दृष्टान्त, उपनय आदिके विना मी हेतुका अपने साध्यके प्रति प्रतिपादकपना श्री माणिक्यनन्दी आचार्यने " एतद्वयमेवानुमानाङ्कं " इस सूत्र में समर्थन प्राप्त
दिया है । अकेली अन्यथानुपपत्तिकी सामर्थ्य से ही हेतुका गमकपना साधा जा चुका है । वह अन्यथानुपपत्ति तो इस अनुमानमें है ही । क्योंकि केवल उत्पाद ही या व्यय ही अथवा धौव्य ही अकेले धर्मसे युक्त हो रही सर्वथा कूटस्थ नित्य अथवा क्षणिक वस्तुका प्रमाणोंद्वारा विषय नहीं हो जानेपनसे समर्थन कर दिया गया है। हां, बालकोंके उचित बुद्धिको धारनेवाले शिष्य के अभिप्रायोंकी अधीनता से तो अनुमानके तीन, चार, आदिक अवयव भी पत्रवाक्य में लिख दिये जाते हैं । उसको स्पष्टरूपसे यों देख लीजियेगा कि "चित्राद्यदन्तराणीय मारेकान्तात्मकत्वतः । यदित्थं न तदित्यं न यथाऽकिञ्चिदिति त्रयः ॥१॥ तथा चेदमिति प्रोक्तौ चत्वारोऽवयवा मताः । तस्मात्तथेति निर्देशे पञ्च पत्रस्य कस्यचित् ॥ २ ॥ इस गूढ वाक्यका अर्थ इस प्रकार है कि चित्र यानी एक अनेक रूपोंको जो सर्वदा अनुगमन करता है, वह चित्रात् है । इसका अभिप्राय एक अनेक रूपों में व्यापनेसंपूर्ण पदार्थ ) है । गण में सर्वनाम
वाला है । अनेक धर्मात्मकपन इसका तात्पर्य है । यदन्तका अर्थ विश्व ( क्योंकि किसी किसी व्याकरण में सर्व, विश्व, यत्, इत्यादि रूपसे सर्वादि शद्ब पढे गये हैं । इस कारण जिसके अन्तमें यत् शद्व है, इस बहुव्रीहि समासगर्मित व्युत्पत्ति करने से यदन्तका अर्थ विश्व हो जाता है । उस विश्व शद्वकरके जो राणीय यानी कहने योग्य है, वह चित्राद्यदन्तराणीय है। रे शद्ब धातुसे अनीप प्रत्यय कर कृदन्तमें राणीय शद्ब बनाया है। यहांतक संपूर्ण पदार्थ अनेकान्तात्मक हैं । यह प्रतिज्ञा वाक्य प्राप्त हुआ । आरेकान्तात्मकत्वतः यह हेतु है । नैया
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
यिकोंके सोलह मूल तत्त्वोंको कहनेवाला " प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्ताऽवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः यह दर्शनसूत्र है। पारेकाका अर्थ कोषमें संशय माना गया है। उक्त सूत्रमें वह संशय जिसके अन्तमें पढा गया है। वह प्रमेय तत्त्व है । वह प्रमेय जिसकी आत्मा है, वह आरेकान्तात्मक हुआ । भावमें त्वल प्रत्यय करनेपर और उस पश्चमी विभक्ति डसि प्रत्ययान्त पदसे तसिल् प्रत्यय करनेपर आरेकान्तात्मकत्वतः पद बन जाता है। इसका अर्थ प्रमेयत्वात हो जाता है । यह अनुमानके हेतु धर्मका कथन किया गया है। जो इस प्रकारके साध्य धर्मसे युक्त नहीं है। यानी चित्रात नहीं है वह इस प्रकार हेतुमान् भी नहीं है, यानी आरेकान्तात्मक ( प्रमेय ) नहीं है। जैसे कि कुछ भी वस्तु नहीं हो रहा खरविषाण अथवा सर्वथा एकांतवादियोंके द्वारा माना गया एकांत तत्व । ये व्यतिरेकदृष्टान्त हैं। इस प्रकार किसी पत्रमें तीन अवयव भी प्रयुक्त किये जाते हैं । तिस प्रकार हेतुवाला यह पक्ष है । इस ढंगसे पक्षमें हेतु धर्मके उपसंहारका कथन करनेपर उपनयसहित चार अवयव भी हो जाते हैं। तिस कारणसे तिस प्रकार साध्यवान् पक्ष है। यों संपूर्णको अनेकांतव्यापी कह देनेपर निगमनसहित अनुमानके पांच अवयव भी लिख दिये जाते हैं। इस प्रकारके लिखित पत्र जैनोंकी बोरसे प्रतिवादियोंके प्रति भेज दिये जाते है। नैयायिकोंकी बोरसे भी स्वपक्षसिद्धिके लिये जैनोंके प्रति यों लिखकर पत्र भेज दिया जाता है। " सैन्यलडभागनाऽनन्तरानार्थप्रस्वापकृदाऽऽशैटश्यतोऽनीट्रोनेन लड्युक्कुलोद्भवो वैषोप्पो श्यतापस्तनऽनरइलड्जुद् परापरतत्त्ववित्तदन्योऽनादिरवायनीयत्वत एवं यदीदृक्तत्सकलविद्वर्गवदेतचैवमेवं तत् " इसका अर्थ शरीर इन्द्रिया, भुवन, सूर्य आदिक किसी बुद्धिमान् कारण (ईश्वर ) से उत्पन होते हैं। कार्य होनेसे, पटके समान आदि । इस प्रकार पांच अवयवोंसे युक्त यह अनुमान है । ऐसे गूढ अर्थवाले पत्र परस्परवादी प्रतिवादियोंमें शास्त्रार्थ करनेके लिये दिये लिये जाते हैं।
तथाढ्यौ वै देवदत्तो नवकंबलत्वात्सोमदत्तवत् इति प्रयोगेपि यदि वक्तुर्नवः कंबलोस्येति नवास्य कंबला इति वार्थद्वयं नवकंवकशब्दस्याभिप्रेतं भवति तदा कुतोस्य नवकंबला इति प्रत्यवतिष्ठमानो हेतोरसिद्धतामेवोद्भावयति न पुनश्छलेन प्रत्ववतिष्ठते । तत्परिहाराय च चेष्टमानस्तदुभयार्थसमर्थनेन तदेकतरार्थसमर्थनेन वा हेतुसिद्धिमुपदर्शयति नवस्तावदेक कंबलोस्य प्रतीतो भवताऽन्येस्याष्टौ कंबला गृहे तिष्ठतीत्युभयथा नवकंबलत्वस्य सिद्धेः नासिद्धतोद्भावनीया। नवकंबलयोगित्वस्य वा हेतुत्वेनोपादानासिद्ध एव हेतुरिति स्वपक्षसिद्धौ सत्यामेव वादिनो जयः परस्य च पराजयो नान्यथा।
तथा जो वाक्छलके प्रकरणमें अनुमान कहा गया है कि देवदत्त (पक्ष ) अवश्य ही धनवान् है (साध्य ) । नव कंबलवाला होनेसे (हेतु ) सोमदत्तके समान ( दृष्टान्त ) इस अनुमान
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्रयोग में भी यदि वक्ताको नव कंबल शद्वके दोनों ही अर्थ अभीष्ट है कि इसके निकट नवीन कंवल है, और इसके यहां नौ संख्यावाले कंबल है, तब तो जो प्रतिवादी यों कह कर दूषण उठा रहा है कि इस देवदत्त के पास एक कम दश कंबल तो नहीं हैं । हम कहते हैं कि वह प्रत्यवस्थान करनेवाला प्रतिवादी तो वादीद्वारा प्रयुक्त किये बेतुके असिद्धपनको ही उठा रहा है । किन्तु फिर छलकरके तो दूषण नहीं दे रहा है । अतः उस प्रतिवादीको छली बनाकर पराजय देना उचित नहीं । हां, प्रतिवादीद्वारा लगाये गये उस असिद्ध दोष के परिहारके लिये चेष्टा कर रहा वादी उन दोनों अर्थोक समर्थन करके अथवा उन दोनोंमेंसे किसी एक अर्थका समर्थन करके अपने नवकंबलत्व ( नवः कम्बलो यस्य) हेतुकी सिद्धिको दिखलाता है कि हे प्रतिवादिन् ! नवीन एक कंबल तो इसके पास आपने देखकर निर्णीत ही कर लिया है । शेष अन्य आठ कंबल भी इसके बरमें रखे हुये हैं । जिसके पास दश पगडियां, पच्चीस टोपियां, पांच जोडी जूते, चार छतरियां, वीस धोतियां, नो कंबल, सात घडियां आदिक भोग, उपभोगकी सामग्री विद्यमान हैं, वह एक ही समय में सबका उपभोग तो नहीं कर सकता है। हां, हाथी, घोडे, बग्घी, गाडी, मोटर, विद्यालय, भौषधालय, अन्नक्षत्र, भूषण, वसन आदिका आधिपत्य श्रेष्ठ देवदत्त में सर्वदा विद्यमान है । अतः नवीन और नौ संख्या इन दोनों अर्थोके प्रकारसे मेरा नवकंबलम्ब हेतु सिद्ध हो जाता है । तिस कारण मेरे ऊपर तुमको असिद्धपना नहीं उठाना चाहिये । दूसरी बात यह भी है, कि नवकंबल योगीपनको जब हेतुपन करके ग्रहण किया जायगा तो मेरा हेतु व्याख्यान किये बिना ही सरलतासे सिद्ध हो जाता है । नवकंबकका योगीपन कहने से ओढे हुये कंबल में नवीनता अर्थको पुष्टि मिल जाती है । ज् समाधौ ” या युजिर् योगे, किसी भी धातुसे योगी शब्दको बनानेपर नूतन कंबलका संयोगीपना हेत्वर्थ हो जाता है। जो कि पक्षमे प्रत्यक्ष प्रमाणसे वर्त रहा दीखता है। योगी शब्द लगा देनेसे नवका अर्थ नौ संख्या नहीं हो सकता है । अन्तमें तत्त्व यही निकलता है कि अपने पक्षकी सिद्धि हो जानेपर ही वादीका जय और दूसरे प्रतिवादीका पराजय होगा । अन्य प्रकारोंसे जय पराजयकी व्यवस्था नहीं मानी जाती है, समझे भाई !
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तदेवं वाक्छलमपास्य सामान्यछळमनूद्य निरस्यति ।
तिस कारण इस प्रकार वाक्छलका निराकरण कर अब श्री विद्यानंद आचार्य दूसरे सामान्य - छळका अनुवाद कर खण्डन करते हैं। नैयायिकोंने वाकूळलको दूषित करनेवाला बीज ठीक नहीं माना है । यद्यपि वादी, प्रतिवादियोंके परस्पर हो रही तस्वपरीक्षा में छल करना किसीको भी उचित नहीं है। फिर भी आचार्य कहते हैं कि जयव्यबस्थामें छलके ऊपर बक नहीं रक्खो । किन्तु स्वपक्षसिद्धिको जयप्राप्तिका अवलम्ब बनाओ । सामान्यछकके विचार में भी यह बात पकडी रहनी चाहिये ।
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तत्वार्थशोकवार्तिके
यत्र संभवतोर्थस्यातिसामान्यस्य योगतः। असद्भूतपदार्थस्य कल्पना क्रियते बलात् ॥ २९० ॥ तत्सामान्यछलं प्राहुः सामान्यविनिबंधनं । विद्याचरणसंपचिाह्मणे संभवेदिति ॥ २९१ ॥ केनाप्युक्ते यथैवं सा व्रात्येपि ब्राह्मणे न किम् । ब्राह्मणत्वस्य सद्भावाद्भवेदित्यपि भाषणम् ॥ २९२ ॥ सदेतन छलं युक्तं सपक्षेतरदर्शनात् । तलिंगस्यान्यथा तस्य व्यभिचारोखिलोस्तु तत् ॥ २९३ ॥
जहां यथायोग्य सम्भव रहे अर्थका अतिक्रान्त हुये सामान्यके योगसे अर्थविकल्प उपपत्तिकी सामार्थ्य करके जो नहीं विद्यमान हो रहे पदार्थकी कल्पना की जाती है, नैयायिक उसको बहुत अच्छा सामान्यछल कहते हैं । जो विवक्षित अर्थको बहुत स्थानोंमें प्राप्त कर लेता है, और कहीं कहीं उस अर्थका अतिक्रमणकर जाता है, वह अतिसामान्य है, यह दूसरा सामान्यछल तो सामान्य रूपसे प्रयुक्त किये गये अर्थक विगमको कारण मानकर प्रर्वतता है । जैसे कि किसीने जिज्ञासापूर्वक आश्चर्यसहित इस प्रकार कहा कि वह ब्राह्मण है। इस कारण विद्यासम्पत्ति और आचरणसम्पत्तिसे युक्त अवश्य होना चाहिये । अर्थात्--जो ब्राह्मण (ब्रह्म वेत्तांति ब्राह्मणः ) है, वह विद्वान् और आचरणवान् होना चाहिये । यों किसीके भी द्वारा कहने पर कोई छलको हृदयमें धारता दुभा कहता है कि इस प्रकार वह विद्या, आचरण संपत्ति तो ब्राह्मण कहे जा रहे संस्कारहीन व्रात्यमें भी क्यों नहीं हो जावेगी ! क्योंकि ब्राह्मण माता पिताओंका तीन चार वर्षका लडका भी ब्राह्मण है। उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ नहीं है । वह ब्राह्मणका छोरा प्रात्य है, किन्तु उसके कोई व्याकरण, साहित्य, सिद्धांत, आदि विषयों का ज्ञान नहीं है । विशेष उच्च कोटिके ज्ञानको ज्ञान संपत्ति शबसे लिया जाता है । इसी प्रकार उस छोरेमें अभक्ष्यत्याग, ब्रह्मचर्य, सत्संग, इन्द्रियविजय, अहिंसाभाव, सत्यवाद, विनयसंपत्ति, संसारभीरुता, बैराग्य परिणाम आदि प्रतस्वरूप आचरण भी नहीं पाये जाते हैं । आठ वर्षके प्रथम जब छोटा भी व्रत नहीं है, तो उसमें उच्च कोटिकी पाचरण संपत्ति तो भला कहां पायी जा सकती है ! इस प्रकार अर्थविकल्पकी उपपत्तिसे असदभूत अर्यकी कल्पना कर दूषण उठानेवाला प्रतिवादी कपटी है। अतः ऐसी दशा वका वादीका जय और प्रतिवादीका पराजय करा दिया जाता है । इस प्रकार नैयायिक अपने छल प्रति पादक सूत्रका भाष्य करते हुये कथन कर रहे हैं । अब प्राचार्य कहते हैं कि वह उनके प्रन्थमें
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तत्वार्थचिन्तामणिः
प्रसिद्ध हो रहा यह नैयायिकोंका छल भी युक्त नहीं है, क्योंकि उस हेतुका सपक्ष और विपक्ष में दर्शन हो जानेसे प्रतिवादी द्वारा व्यभिचार दोष दिखलाया गया है। अन्यथा यानी विपक्षमें हेतुके दिखलानेको यदि छल प्रयोग बताया जायगा तब तो संपूर्ण व्यभिचार दोष उस छलस्त्ररूप हो जावेंगे और ऐसी दशा में ब्राह्मणत्व हेत्वाभासको कहनेवाला वादी विना मूल्य ( मुफ्त ) ही जयको लूट .केगा और ब्राह्मणत्व हेतुका ब्रात्य में व्यभिचार उठानेवाले प्रतिवादी विद्वान्को छली बनाकर पराजित कर दिया जायगा, यह तो अंधेर है । किसी विद्वान् के ऊपर छलका लांच्छन लगाना उसका भारी अपमान करना है । प्रायः विद्वान् कपट रहित होते हैं ।
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कविदेति तथात्येति विद्याचरणसंपदं । ब्राह्मणत्वमिति ख्यातमतिसामान्यमत्र चेत् ॥ २९४ ॥ तथैव स्पर्शवत्त्वादिश नित्यत्वसाधने । किं न स्यादतिसामान्यं सर्वथाप्यविशेषतः ॥ २९५ ॥ तन्नभस्येति नित्यत्वमत्येति च सुखादिषु ( सुखे क्वचित् ) तेनानैकातिकं युक्तं सपक्षेतरवृत्तितः ॥ २९६ ॥
यदि नैयायिक यहां यों कहें कि यहां सूत्रमें अति सामान्यका अर्थ इस प्रकार है । जो ब्राह्मणपन उद्भट विद्वत्ता और सदाचारको धारनेवाले किन्हीं विद्वानोंमें तो विद्या, आचारण, संपत्तिकों प्राप्त करा देता है । और किसी ब्राह्मणके छोरामें वह ब्राह्मणपना उस विद्या चारित्र सम्पत्तिका 1 अतिक्रमण करा देता है। यहां प्रकरण में सामान्यरूपसे ब्राह्मण में विद्या, आचरण सम्पत्तिरूप अर्थकी सम्भावना कही गयी थी । किन्तु कपटी पण्डितने अभिप्रायको नहीं समझकर असद्भूत अर्थकी कल्पनासे दोष उठाया है। अतः यह छल किया गया है । इस प्रकार नैयायिकोंके कहनेपर आचार्य महाराज कहते हैं कि तिस ही प्रकार शब्दो नित्यः अस्पर्शवत्वात् । शब्दः अनित्यः प्रमेयत्वात् । पर्वतो धूमवान् वन्हे, इत्यादिक स्थालोंपर सुख, परमाणु, अंगार आदिसे व्यभिचार उठाना भी छल हो जायगा । अतः शब्दमें नित्यपनको साधने के निमित्त दिये गये स्पर्शरहितपन गुणपन आदि हेतुओंका प्रयोग भी तिस ही प्रकार अतिसामान्य क्यों नहीं हो जाओ। सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् - छळ या व्यभिचार दोषकी अपेक्षा ब्राह्मणत्व और अस्पर्शवत्व दोनों एकसे हैं । वह छ है तो यह भी छक हो जायगा । और यहां व्यभिचार दोष उठाया गया माना जायगा, तो वह मी प्रतिवादीद्वारा व्यभिचार दोषका उठाना तुम्हें स्वीकार करना पडेगा । देखिये, आपके ब्राह्मणस्य हेतुके समान अस्पर्शवत्वमें भी अतिसामान्य घटित हो जाता है । वह अस्पर्शवत्र भी
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तत्वार्थ श्लोकवातिके
कहीं आकाशमें पिनको प्राप्त करा देता है । तथा कहीं सुख, बुद्धि रूप आदिक गुण और चलना, घूमना आदि क्रियाओंमें नित्यपनका अतिक्रमण कर देता है । तिस कारण सपक्ष और विपक्ष में वृत्ति हो जानेसे अस्पर्शवस्व हेतुको व्यभिचारी मानना युक्त पडता है । तथा ब्राह्मणत्व हेतु जैसे सुशील विद्वान् ब्राह्मण में ज्ञान, चारित्र, सम्पत्तिको प्राप्त करा देता है । और ब्राह्मणके, छोटे बच्चे में साध्यस्त्ररूप उस सम्पत्तिको घटित नही करा पाता है, उसी प्रकार शब्दके अनित्यपनको साधने के लिये प्रयुक्त किया गया प्रमेयत्व हेतु भी कहीं घटादिकमें अनित्यपनको घर देता है और कहीं आकाश, परमाणु आदि विपक्षों में उस साध्यके नहीं रहनेपर भी विद्यमान रह जानेसे अनित्यपनका अतिक्रमण करा देता है । इसी प्रकार प्रकरण में भी ब्राह्मणत्व हेतुका अनैकान्तिकपन उठाया गया है प्रतिवादीने कोई छल नहीं किया। ऐसा हमारे विचार में आया है । व्यर्थमें किसीकी भर्त्सना करना न्याय नहीं ।
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विद्याचरणसंपत्तिविषयस्य प्रशंसनं ।
ब्राह्मणस्य यथा शालिगोचर क्षेत्रवर्णनम् ॥ २९७ ॥ यस्येष्टं प्रकृते वाक्ये तस्य ब्राह्मणधर्मिणि । प्रशस्तत्वे स्वयं साध्ये ब्राह्मणत्वेन हेतुना ॥ २९८ ॥ harariant हेतुरुद्भाव्यो न प्रसह्यते ।
क्षेत्रे क्षेत्रत्ववच्छालियोग्यत्वस्य प्रसाधने ॥ २९९ ॥
यदि नैयायिकों का यह मन्तव्य होय कि छलप्रयोगी प्रतिवादीने वादीके विवक्षित हेतुको नहीं समझ कर यों ही प्रत्यवस्थान उठा दिया है । वास्तवमें देखा जाय तो यह वाक्य उस पुरुषकी प्रशंसा करने के लिये कहा गया था । तिस कारणसे यहां असंभव हो रहे अर्थकी कल्पना नहीं हो सकती थी । ऐसी दशा में प्रतिवादीने असंभव अर्थकी कल्पना की है । अतः उसने छप्रयोग किया है । जैसे कि कलम आदिक शालिधान्योंके प्रवृत्ति विषय खेतकी प्रशंसाका वर्णन करना है कि इस खेतमें धान्य अच्छा होना चाहिये, इसी प्रकार ब्राह्मणमें विद्या, आचरण, संपत्तिरूप विषयकी वादी द्वारा प्रशंसा की गयी है । प्रतिवादी द्वारा उस प्रशंसा अर्थकी हत्या नहीं करनी चाहिये । यों नैयायिकों के अभीष्ट करनेपर आचार्य कहते हैं कि जिस नैयायिकको प्रकरण प्राप्त वाक्य में यों इष्ट है, कि ब्राह्मण स्वरूप पक्ष में ब्राह्मणपन हेतु करके प्रशस्तपना साध्य करनेपर वादी द्वारा स्वयं अनुमान कहा गया माना है । उसके यहां हेतुका अनैकान्तिक दोष उठाने योग्य है । यह किसीके द्वारा भला नहीं सहा जावेगा । जैसे कि खेतमें धान्य के योग्यपनका क्षेत्रत्व हेतु करके प्रशंसनीय साधन करने
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तत्वार्थचिन्तामणिः
पर क्षेत्रत्व हेतुका व्यभिचार उठा दिया जाता है । अर्थात-नैयायिकों द्वारा अनेकान्तिकपनका परिहार करनेके प्रयत्नसे प्रतीत हो जाता है कि वे ऐसे स्थलोंपर व्यभिचार दोषको स्वीकार करते हुये ही न्यायमार्गका अवलंब करनेवाले नैयायिक कहे जा सकते हैं, अन्यथा नहीं।
___ यत्र संभवतोर्थस्यातिसामान्यस्य योगादसद्भतार्यकल्पना हठात् क्रियते तत्सामान्यनिषन्धनत्वात् सामान्यछलं पाहुः। संभवतीर्थस्यातिसामान्ययोगादसद्भूतार्थकल्पना सामान्यछलमिति वचनात् । तद्यथा-अहो नु खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युक्ते केनचित्कश्चिदाह संभवति ब्राह्मणे विद्याचरणसंपदिति, तं प्रत्यस्य वाक्यस्य विघातीर्थविकल्पोपपत्त्याऽसद्भूतार्थकल्पनया क्रियते । यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत्संभवति व्रात्येपि संभवात् । व्रात्येपि ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्नोस्तु । तदिदं ब्राह्मणत्वं विवक्षितपय विद्याचरणसंपल्लक्षणं कचिद्ब्राह्मणे तादृश्येति कचिव्रात्येत्येति तदभावेपि भावादित्यतिसामान्यं तेन योगादतुरभिमेतादर्थात् सद्भुतादन्यस्यासद्भूतस्यार्थस्य कल्पना सामान्यछळ । तच्च न युक्तं । यस्मादविवक्षिते हेतुकस्य विषयार्थवादः प्रशंसार्थत्वाद्वाक्यस्य तत्रासद्भूतार्थकल्पनानुपपत्तिः । यथा संभवत्यस्मिन् क्षेत्रे शालय इत्यत्राविवक्षितं शालिबीजमनिराकृतं च तत्प्रवृत्तिविषयक्षेत्रं प्रशस्यते । सोयं क्षेत्रार्थवादो नास्मिन् शालयो विधीयंत इति । बीजात्तु शालिनिर्वृत्तिः सती न विवक्षिता । तथा संभवति ब्राह्मणे विद्याचरणसंपदिति सस्याद्विषयो ब्राह्मणत्वं न संपद्धेतुर्न चात्र तद्धेतुर्विवक्षितस्तद्विषयार्थवादस्त्वयं प्रवंसार्थत्वाद्वाक्यस्य सति ब्राह्मणत्वे संपद्धतः समर्थ इति विषयच प्रशंसता वाक्येन यथा हेतुतः फलनिवृत्तिर्न प्रत्याख्यायते तदेवं सति वचनविद्यातोसद्भूतार्थकल्पनया नोपपद्यते इति परस्य पराजयस्तथा वचनादित्येवं न्यायभाष्यकारो ब्रुवमायं वैचि, तथा छलव्यवहारानुपपत्तेः।
उक्त कारिकाओंका विवरण इस प्रकार है कि जहां सम्मव रहे अर्थके अतिसामान्यका योग हो जानेसे असद्भूत वर्थकी कल्पना हठसे करती जाती है, उसको नैयायिक सामान्य कथनकी कारणतासे सामान्यछल अच्छा कह रहे हैं । गौतमऋषिके बनाये हुये न्यायदर्शनमें इस प्रकार कथन है कि " सम्भवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगादसम्भूतार्थकल्पना सामान्यच्छलम् " सम्भावनापूर्वक को गये अर्थके अतिसामान्यका योग हो जानेसे असम्भूत अर्थकी कल्पना करना सामान्य छळ है। उसी सूत्रका भाष्य वात्स्यायन ऋषिद्वारा न्यायभाष्यमें यों किया गया है कि विस्मयपूर्वक अवधारण सहित यो सम्भावनारूप कल्पना करनी पडती है कि वह मनुष्य ब्राह्मण है तो विधासम्पत्ति और भावरणसम्पत्ति से युक्त अवश्य होगा । इस प्रकार किसी वक्ता करके परबोधनार्थ कह चुकनेपर कोई
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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एक प्रतिवादी कह बैठता है कि ब्राह्मणके सम्भव होते हुये विषा, चारित्र, सम्पत्ति है । इस प्रकार उस वादी प्रति इस वाक्यका विघात तो अर्थविकल्पकी उपपत्तिरूप असद्भूत अर्थकी कल्पमा करके यों किया जाता है जो कि छठका सामान्य लक्षण है कि ब्राह्मण होनेके कारण उस पुरुषमें विद्या आचरण सम्पत्ति सम्भव रही है । नवसंस्कारहीन कृषक ब्राह्मण ( बामन ) या बहुतसे पहाडी पंजाबी, बामन अथवा ब्राह्मण बालक भी तो ब्राह्मण हैं । वे भी विद्या, आचरण सम्पत्तिको धारने वाके हो जायेंगे । तिस कारण यह ब्राह्मणपना ( कर्त्ता ) विवक्षा प्राप्त हो रहे विद्या, चारित्र, सम्पति स्वरूप अर्थको किसी सपक्ष हो रहे ज्ञान चारित्रवाळे तिस प्रकार ब्राह्मणमें प्राप्त करा देता है। और किसी विपक्षरूप व्रात्यमे विद्या, आचरण सम्पत्तिको अतिक्रान्त कर जाता है। क्योंकि उस विद्या, आचरण सम्पत्ति विना भी वहां व्रात्य में ब्राह्मणत्वका सद्भाव है । यह अतिसामान्यका अर्थ है । उस अतिसामान्यके योग करके वक्ताको अभिप्रेत हो रहे सद्भूत अर्थसे अन्य असद्भूत अर्थकी कल्पना करना सामान्य छछ है । नैयायिक कहते हैं कि वह छल करना तो प्रतिवादीको उचित नहीं है । जिस कारणसे कि हेतुके विशेषोंकी नहीं विवक्षा कर वादीने ब्राह्मणरूप विषयके स्तुति परक अर्थका अनुवाद कर दिया है । क्योंकि अनेक वाक्य प्रशंसाके लिये प्रयुक्त किये जाते हैं । 1 जैसे कि विद्यार्थी विनयशाली होना चाहिये । पुत्र माता पिता गुरुओंका सेवक होता है ।
अनुचरी होती है । ये सब वाक्य प्रशंसा करनेमें तत्पर हो रहे अर्थवाद ( स्तुतिबाद ) हैं । किसी एक दुष्ट विद्यार्थी या कुपूत अथवा निकृष्ट स्त्रीके द्वारा अशिष्ट व्यवहार कर देनेपर अद्भूत अर्थकी कल्पना करना नहीं बनता है । जैसे कि इस खेतकी भूमिमें शालि चावल अच्छे चाहिये, यहां शाकि बीजके जन्मकी विवक्षा नहीं की गयी है । और उसका निराकरण भी नहीं कर दिया है । हां, उस शालिके प्रवृत्तिका विषय हो रहा क्षेत्र प्रशंसित किया जाता है । अतः यह यहां क्षेत्रकी प्रशंसाको करनेवाला बाक्य है। इतने ही से इस खेतमें शाली चावलों का विधान नहीं हो जाता है। हां, बीजके कह देनेसे तो शालियोंकी निवृत्ति होती संती इमको विवक्षित नहीं है । तिस ही प्रकार प्रकरण में ब्राह्मणकी संभावना होनेपर विद्या, आचरण, संपत्ति होगी, इस ढंग से संपत्तिका प्रशंसक ब्राह्मणपना तो संपत्तिका हेतु नहीं है । अयम् ( पक्ष ) विद्याचरणसम्पन्नः (साध्य) ब्राह्मणत्वात् ( हेतु ) श्रोत्रियशास्त्र जिनदत्तवत् ( दृष्टान्त ) इस वाक्यमें वह ब्राह्मणपना व्याप्य हेतु रूपसे विवक्षित नहीं है। हां, केवल उन ब्राह्मणोंके विषय में प्रशंसा करनेवाले अर्थका अनुवाद मात्र तो यह है । लोकमें अनेक वाक्य प्रशंसाके लिये हुआ करते हैं । ब्राह्मणपना होते संते विद्या, आचरण संपत्तिका समर्थहेतु संभव रहा है । इस प्रकार विषयकी प्रशंसा करनेवाले वाक्य करके जिस प्रकार हेतुसे साध्यरूप फळकी निवृत्ति नहीं खण्डित कर दी जाती है । अर्थात- संभावमीय हेतुओंसे संभावनीय साध्यको साधनेपर अद्भूत अर्थद्वारा व्यभिचार उठाना छछ है । कोकमें प्रसिद्ध है कि 'जगत् के कार्य विश्वास से होते हैं। यदि किसी भृत्य या मुनीमने धनपतिका माल चुरा कर विश्वास
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तत्वार्यचिन्तामणिः
घात किया, एतावता ही अन्य विश्वास्य पुरुषों द्वारा होने योग्य कार्योका प्रत्याख्यान नहीं कर देना चाहिये । तिस कारण ऐसी व्यवस्था होनेपर प्रतिवादी करके असद्भूत अर्थकी कल्पना द्वारा वादीके वचनका विघात करना नहीं बन पाता । इस कारण तिस प्रकारके असद्भूत अर्थकी कल्पनाके अन्याय पूर्ण कथन करनेसे दूसरे प्रतिवादीका पराजय हो जाता है । अब बाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार उक्त कथनको कह रहे न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ऋषि यह नहीं समझते हैं कि तिस प्रकारसे छलका व्यवहार नहीं बनता है । थोडा विचार कीजियेगा जिस प्रकार कि वादीकी वचनमंगी अनेक प्रकार है, उसीके समान प्रतिवादीके प्रति बचनोंका ढंग अनेक संदर्माको लिये हुये होता है। ___हेतुदोषस्यानैकातिकत्वस्य परेणोद्भावनाच्च न चानैकांतिकत्वोद्भावनमेव सामान्यछलमिति शक्यं वक्तुं सर्वत्र, तस्य सामान्यछलत्वप्रसंगात् । शद्धो नित्योऽस्पर्धयत्त्वादाकाशवदित्यत्र हि यथा शद्धनित्यत्वे साध्ये अस्पर्शवत्वमाकाशे मित्यत्वमेति सुखादिष्वत्येतीति व्यभिचारित्वादनैकांतिकाच्यते न पुनः सामान्यछलं, तथा प्रकृतमपीति न विशेषः कश्चिदस्ति ।
भाचार्य महाराज बब नैयायिकोंके छलकी परीक्षा करते हैं कि दूसरे प्रतिवादीने छल व्यवहार नहीं किया है। प्रत्युत दूसरे प्रतिवादीने वादीके अनुमानमें हेतुके अनेकान्तिक दोषका उत्थापन किया है । हेतुके व्यभिचारीपन दोषका उठाना ही सामान्य छल है। यह तो नहीं कह सकते हो। क्योंकि यों तो सभी व्यभिचारस्थलोंपर उस व्यभिचार दोषके उठानेको सामान्य छळपनेका प्रसंग हो जावेगा । देखिये, शब्द ( पक्ष ) नित्य है ( साध्य ), स्पर्शरहितपना होनेसे (हेतु ) आकाशके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) इस प्रकार इस अनुमानमें जैसे शब्दका नित्यपन साधनेमें कहा गया अस्पर्शवस्व हेतु कहीं आकाशरूप सपक्षमें नित्यपनको अन्वित कर रहा है, किन्तु कहीं सुख, रूप, आदि विपक्षोंमें नित्यत्वका उल्लंघन करा रहा है । " निर्गुणाः गुणाः " " गुणादिनिर्गुणक्रिया" गुणोंमें पुनः स्पर्श आदि गुण नहीं ठहरते हैं । इस कारण व्यभिचारी हो जानेसे, वस्पर्शत्व हेतु अनेकान्तिक हेत्वाभास कहा जाता है। किन्तु फिर यह प्रतिवादीका हेत्वाभास उठाना सामान्य छल नहीं बखाना जाता है । तिस ही प्रकार प्रकरणप्राप्त ब्राह्मणत्व हेतु भी न्यभिचारी है। साम्यके विना ही ब्रात्यमें वर्त जाता है । इस प्रकार अस्पर्शवत्व और ब्रामणत्व हेतुके व्यभिचारीमें कोई विशेषता नहीं है, दोनों एकसे हैं।
- सोयं ब्राह्मणे धर्मिणि विद्याचरणसंपद्विषये प्रशंसनं ब्रामणत्वेन हेतुना साध्यते, यथा शालिविषयक्षेत्रे प्रशंसा क्षेत्रत्वेन साक्षान पुनर्विद्याचरणसंपत्सत्ता साध्यते येनाति. प्रसज्यत इति स्वयमनकांतिकत्वं हेतोः परिहरनपि तभानुमन्यत इति कथं न्यायपिन् ।
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तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिके
नैयायिकोंने प्रथम यों कहा था कि ब्राह्मण पक्षमें विद्या, आचरण सम्पत्तिके विषयमें ब्राह्मrea हेतु करके प्रशंसा करना साधा जारहा है । जैसे कि शाली चावलोंके विषय हो रहे खेत में क्षेत्रत्व हेतु करके साक्षात् प्रशंसा के गीत गाये जाते हैं । किन्तु फिर ब्राह्मणपने करके विद्या, आचरण, सम्पत्तिकी सत्ता तो नियमसे नहीं साधी जाती है। जिससे कि संस्कारहीन बामनमें अतिप्रसंग हो जाय । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार हेतुके अनैकान्तिकपनका स्वयं परिहार कर रह भी यह प्रसिद्ध नैयायिक उस प्रतिवादी द्वारा उठाये गये अनैकान्तिकपनको स्वीकार नहीं कर छप्रयोग बता रहा है । ऐसी दशा में वह न्यायशास्त्रका वेत्ता कैसे कहा जा सकता है । नैयायिक यह केवल उसका नामनिर्देश है । अन्वर्थसंज्ञा नहीं है। नहीं तो न्याय की गद्दी पर बैठकर ऐसी अनीति क्यों करता। हां, वास्तवमें जो छलपूर्ण व्यवहार कर रहा है, उसको कपटी, मायाचारी, भ ही कह दो, किन्तु जयकी प्राप्ति तो अपने पक्षकी भछे प्रकार सिद्धि कर देमेसे ही अंकगत होगी । अन्यथा टापते रह जाओगे ।
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तयोपचारछळमनूद्य विचारयन्नाह ।
तिस ही प्रकार नैयायिकों द्वारा माने गये तीसरे उपचार छलका अनुवाद कर विचार करते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकोंको कहते हैं ।
धर्माध्यारोपनिर्देशे सत्यर्थप्रतिषेधनम् ।
उपचारछलं मंचाः क्रोशतीत्यादिगोचरम् ॥ ३०० ॥ मंचा क्रोशति गायंतीत्यादिशब्दप्रयोजनम् । आरोप्य स्थानिनां धर्मं स्थानेषु क्रियते जनैः ॥ ३०९ ॥ गौणं शब्दार्थमाश्रित्य सामान्यादिषु सत्त्ववत् । तत्र मुख्याभिधानार्थप्रतिषेधश्छलं स्थितम् ॥ ३०२ ॥
" धर्मविकल्प निर्देशेऽर्थ सद्भावप्रतिषेध उपचारच्छलम् "" यह न्यायदर्शनका सूत्र है। इसके artist अर्थ विवरण में किया जायगा । सामान्य कथन वार्तिकयोग्य यों है कि धर्मके विकल्प यानी अध्यारोपका सामान्य रूपसे कथन करनेपर अर्थ के सद्भावका प्रतिषेध कर देना उपचार छ है । जैसे कि " मंचाः क्रोशति " " गंगायां घोषः " नीलो घटः "अग्निर्माणवकः" इत्यादिकको विषय करनेवाले वाक्य उच्चारण करनेपर अर्थका निषेध करनेवाला पुरुष छलका प्रयोक्ता है । मंच शद्वका अर्थ मचान ( बडी खाट ) या खेतोंकी रक्षाके किये चार खम्मोंपर बांध लिया गया मेहरा है । मचानपर बैठे हुये मनुष्य गा रहे हैं। इस अर्थमें मचान गा रहे हैं। इस शद्बका प्रयोग हो रहा
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तत्वार्थचिन्तामणिः
देखा जाता है । बम्बई प्रान्तमें उपजनेवाले जाम्रफलको बम्बई आम कह देते हैं। अधिक लड्डू खानेवाले या मोदकमें प्रीति रखनेवाले विद्यार्थीको लड्डुविद्यार्थी कह देते हैं। गंगाके किनारेपर ग्बालोंका गांव है । इस अर्थमें गंगामें घोष है, ऐसा शब्द प्रयोग हो रहा है। यहां स्थानोंमें ठहरनेवाळे आधेय स्थानियोंके धर्मका आधारभूत स्थानोंमें आरोपकर मनुष्योंकरके शब्द व्यवहार कर लिया जाता है । शब्दके गौण अर्थका आश्रय कर मंचमें मंचस्थपनेका आरोप है । जैसे कि सामान्य विशेष आदि पदार्थोंमें गौणरूपसे सत्ता मान ली जाती है । अन्यथा उन सामान्य, विशेष, समवाय पदार्थोका सद्भाव ही उठ जायगा । अर्थात्-नैयायिक या वैशेषिकोंने द्रव्य, गुण, कर्ममें तो मुख्यरूपसे सत्ता जातिको समवेत माना है और सामान्य, विशेष, समवाय, पदार्थोमें गौणरूपसे सत्ता [ अस्तित्व ] धर्मको अभीष्ट किया है। उसी प्रकार मंचका मुख्य अर्थ तो मचान हैं। और गौण अर्थ मंचपर बैठे हुये मनुष्य हैं। तहां वादी द्वारा प्रसिद्ध हो हे गौण अर्थको कहनेवाला मंच शद्वका मंचस्थ अर्थमें प्रयोग किये जानेपर यदि वहां शर्के मुख्य अर्थका प्रतिषेध कर देना नैयायिकोंके यहां उपचारछल व्यवस्थित किया गया है। मचान तो गीतोंको नहीं गा सकते हैं । मचान पर बैठनेवाले भले ही चिल्लायें, यह प्रतिवादीका व्यवहार छलपूर्ण है । अतः वादीका जय और छली प्रतिवादीका पराजय होना अवश्यम्भावी है।
न चेदं वाक्छलं युक्तं किंचित्साधर्म्यमात्रतः। स्वरूपभेदसंसिद्धेरन्यथातिप्रसंगतः ॥ ३०३ ॥ कल्पनाथांतरस्योक्ता वाक्छलस्य हि लक्षणं । सद्भतार्थनिषेधस्तूपचारछललक्षणम् ॥ ३०४ ॥
मैयायिक ही कहते जा रहे हैं, कि यह तीसरा उपचारछल केवल कुछ थोडासा समानधर्मापन मिल जानेसे पहिले वाक्छलमें गर्मित कर लिया जाय, यह तो किसीका कथन युक्तिसहित नहीं है, क्योंकि उनके लक्षण भेद प्रतिपादक भिन्न भिन्न स्वरूपोंकी भले प्रकार सिद्धि हो रही है। अन्यथा यामी स्वरूपमेद होनेपर भी उससे पृथक् नहीं मानोगे तो अतिप्रसंग हो जायेगा। तीनों छल एक बन बैठेंगे । अग्नि, जल, सूर्य, चन्द्रमा, मूर्ख, विद्वान, ये सब एकम एक सांकर्यग्रस्त हो जायंगे, जब कि बक्ताके अभिप्रायसे भिन्न दूसरे अर्थकी कल्पना करना तो पहिले बाक्छलका लक्षण किया गया, और विद्यमान हो रहे सद्भूत अर्थका निषेध कर देना तो अब उपचार छलका लक्षण सूत्रकार द्वारा कहा गया है, अतः ये दोनों न्यारे न्यारे है । नैयायिकोंने शक्ति और लक्षणा यों शद्वोंकी दो वृत्तियां मानी हैं । शब्दकी वाचकशक्तिसे जो अर्थ निकलता है, वह शक्या है, और तात्पर्यकी अनुपपत्ति होनेपर शक्यार्थके संबंधी अन्य अर्थको लक्ष्यार्थ कहते हैं । जैसे कि गंगाका
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तत्त्वार्यश्शोकवार्तिके
जलप्रवाह अर्थ तो अभिधाशक्तिसे प्राप्त होता है । और घोषपदका सममिव्यवहार हो जानेपर गंगा तीर अर्थ करना लक्षणावृत्तिसे निकलता है । जिस शब्दके शक्यार्थ दो हैं, वहां एक शक्यार्थके निर्णय करानेवाले विशेषका अभाव होनेसे प्रतिवादी द्वारा वादीके अनिष्ट हो रहे शक्यार्थकी कल्पना करके दूषण कथन करना तो वाक्छल है। जैसे कि नवकंबलका अर्थ नौ संख्यावाले कंवल गढ कर प्रस्यवस्थान दिया तथा शक्ति और लक्षणा नामक वृत्तियोंमेंसे किसी एक वृत्ति द्वारा शब्दके प्रयोग किये जानेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा जो निषेध किया जाना है, वह उपचार छल है। जैसे कि मचान गा रहे हैं, यहां वादीको लक्षणा वृत्तिप्से मंचका अर्थ मंचस्थ पुरुष अभीष्ट है । शक्यार्थ मचान अर्थ अभीष्ट नहीं है । लोकमें भी वही अर्थ प्रसिद्ध है। ऐसी दशामें प्रतिवादी द्वारा मचान अर्थ कर निषेध उठाया जाता है । वहाँ अर्थान्तरकी कल्पना है और यहाँ अर्थ सद्भावका प्रतिषेध किया गया है। " वाक्छलमेवोपचारच्छलं तदविशेषात् " इस सूत्रद्वारा पूर्वपक्ष उठाकर " न तदर्थान्तरभावात् " अविशेषे वा किञ्चित्साधादेकच्छलप्रसङ्गः" इन दो सूत्रोंसे उत्तरपक्षको पुष्ट किया है। ___ अत्राभिधानस्य धर्मो यथार्थप्रयोगस्तस्याध्यारोपो विकल्प: अन्यत्र दृष्टस्यान्यत्र प्रयोगः मंचाः क्रोशंति गायंतीत्यादौ शब्दप्रयोगवत् । स्थानेषु हि मंचेषु स्थानिनां पुरुषाणां धर्ममाक्रोष्टित्वादिकं समारोप्य जनैस्तथा प्रयोगः क्रियते गौणशब्दार्थश्रयणात् । सामान्यादिष्वस्तीति शब्दप्रयोगवत, तस्य धर्माध्यारोपनिर्देशे सत्यर्थस्य प्रतिषेधनं न मंचा: कोशंति मंचस्थाः पुरुषाः क्रोशंतीति । तदिदमुपचारछलं प्रत्येयं । धर्मविकल्पनिर्देशे अर्थ सद्भावप्रतिषेध उपचारछलं इति वचनात् ।
यहां न्यायभाष्यकार कहते हैं कि शब्दका धर्म यथार्थ प्रयोग करना है, यानी जैसा अर्थ अभीष्ट हो उसीके अनुसार शब्दका प्रयोग आवश्यक है । उसका विकल्प करना यानी अन्यत्र देखे का दूसरे अन्य स्थानोंपर प्रयोग करना यह आरोप है । उसका निर्देश करनेपर अर्थके सद्भावका निषेध कर देना उपचार छल है। जैसे कि मचान चिल्ला रहे हैं, गा रहे हैं, बुला रहे हैं, रो रहे हैं, अथवा देवदत्त नित्य है, इस वाक्यपर कोई कटाक्ष करे कि माता पितासे उत्पन हुमा देवदत्त भला नित्य कैसे हो सकता है ? गंगायां घोषः कहनेपर गंगाजलके प्रवाहमें गांव के सद्भावका निषेध करने लगे यह भी उपचार छछ है । तथा श्लेषयुक्त पदोंके प्रयोग करनेपर भी उपचारछल किया जा सकता है। जैसे कि " जिनेंद्रस्तवनं यस्य तस्य जन्म निरर्थकं । जिनेन्द्रस्तवनं नास्य सफलं जन्म तस्य हि " इसका स्थूल रीतिसे अर्थ व्यक्त ही है कि जिस मनुष्यके जिनेंद्रकी स्तुति विधमान है, उसका जन्म व्यर्थ जा रहा है । और जिसके जिनेन्द्रदेवका स्तवन करना नहीं पाया जाता है, उसका जन्म निश्चयसे सफल है। किन्तु यह किसी पक्के जिनभक्तका बनाया हुआ पथ है। उस भक्तने दिवादि गणकी यसु प्रयत्ने, तसु उपक्षये, असु क्षेपणे इन धातुओंसे लोट् लकारके मध्यम
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तत्वार्थचिन्तामणिः
बनाकर यो अर्थ किया है कि
पुरुषमें श्य विकरण करनेपर एकवचनके रूप यस्य, तस्य, अस्य हे भव्य, जिनेन्द्र भगवान् के स्तवन करनेका प्रयत्न करो ! साथ ही अबतक (स्तवन से पूर्वकालत क) व्यर्थ हो रहे जन्मका नाश करो। तुम जिनेंद्र के स्तवनको कभी नहीं फेकों, यदि जिनेंद्रस्तवनका निरादर करोगे तो सफल हो रहे जन्मको नष्ट करोगे । इस प्रकार वक्ता के अभिप्राय से कहे गये गौण शब्दार्थका पुनः प्रसिद्ध हो रहे प्रधानभूत अर्थकी कल्पना कर प्रतिषेध करना उपचार छल है । "नाथ मयूरो नृत्यति तुरगाननवक्षसः कुतो नृत्यं । ननु कथयामि कलापिनमिह सुकलापी प्रिये कोऽस्ति” अङ्गुल्याः कः कपाटं घटयति कुटिलो ( प्रश्न ) माधव: ( उत्तर ) किम् वसन्तो ( कटाक्ष ) नो चक्री ( उत्तर ) किं कुळालो ( प्रश्न ) न हि धरणिधर : ( उत्तर ) किं द्विजिह्नः फणीन्द्रः ( प्रश्न ) ॥ नाहं घोराहिमदी ( उत्तर ) किमुत खगपतिः ( प्रश्न ) नो हरिः ( समाधान ) किं कपीन्द्रः ( आक्षेप ) इत्येवं सत्यभामाप्रतिवचनजितः पातु वचक्रपाणिः ॥ २ ॥ तन्वन्कुत्रलयतुष्टिं वारिजोलासमाहरन् । कलानिधिरसो रेजे समुद्रपरिवृद्धिदः ॥ ३ ॥ कस्वं ( प्रश्न ) शूळी ( उत्तर ) मृगय भिषजं ( कटाक्ष ) नीलकण्ठः प्रियेऽइम् ( समाधान ) । केकामेकां वद ( कटाक्ष ) पशुपति: (उत्तर) नैव विषाणे ( कटाक्ष ) || मिक्षुर्मुग्धे ( स्वनिवेदन ) न बदति तरु (आक्षेप ) जीवितेशः शिवायाः ( स्वपरिचय ) गच्छाटव्यां ( कटाक्ष ) इति इतवचा पातुं वश्चद्रचूडः ॥ ४ ॥ इत्यादि प्रकार के
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पयुक्त पदोंके प्रयोगसे भी उपचारछल किया जा सकता है । लाक्षणिक या श्लिष्ट अथवा ध्वनि युक्त शब्दों के प्रयोगसे वादीका ही अपराध समझा जाय यों तो नहीं कहना । क्योंकि उस उस अर्थ के बोधकपने करके प्रसिद्ध हो रहे शब्दोंका प्रयोग करनेमें वादीका कोई अपराध नहीं है। चूंकि यहां प्रकरण में अधिकरण या स्थानस्वरूप हो रहे मचानोंमें स्थानवाले आधेय पुरुषोंके धर्म गाना, गाली देना, रोना आदिका अच्छा आरोप कर व्यवहारी मनुष्योंकरके तिस प्रकार शब्दों का प्रयोग किया जाता है । जैसे कि सत्तावन्तस्त्रयस्त्वाद्याः द्रव्य, गुण, कर्म, तीन तो सत्ता जातिके समवाय सम्बन्धवाले हैं। शेष सामान्य, विशेष, समवायोंमें गौणरूपसे अस्ति शब्दका प्रयोग माना गया । उसी प्रकार शब्दके गौण अर्थका आश्रय कर मंच शब्द कहा गया है । वादीद्वारा उसके धर्मका अध्यारोप कथन करनेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा शब्द के प्रधान अर्थका आश्रय कर उस अर्थका निषेध किया जा रहा है कि मचान तो नहीं गा रहे हैं । किन्तु मचानोंपर बैठे हुये मनुष्य गा रहे हैं । 1 तिस कारण लक्षण सूत्रका अर्थ करके यह उपचारछक समझ लेना चाहिये । गौतम ऋषिका इस प्रकार वचन है कि धर्मके विकल्पका कथन करनेपर अर्थके सद्भावका प्रतिषेध कर देना उपचारछक है ।
का पुनस्त्रार्थविकल्पोपपत्तिर्यथा वचनविघातश्छलमिति, अन्यथा प्रयुक्तस्याभिधानस्यान्यथार्थपरिकल्पनं । भक्त्या हि प्रयोगोऽयं मंचाः क्रोशतीति तात्स्थ्यात्तच्छन्दो
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तत्वार्थकोकवार्तिके
पचारात् प्राधान्थेन तस्य परिकल्पनं कृत्वा परेण प्रत्यवस्थान विधीयते । का पुनरुपचारो नाम ? साहचर्यादिना निमित्तेन तदभावेपि तद्वदभिधानमुपचारः।
न्याय भाष्यकार यों ऊहापोह कर रहे हैं कि यहां उपचार छलमें फिर अर्थ विकल्पकी उपपत्ति क्या है ! जिससे कि वचनका विघात होकर यह छल समझा जाय । अर्थात्-"वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छळं " यह छलका सामान्य लक्षण है । उपचार छलमें अर्थविकल्पकी उपपत्तिसे बादीके बचनका विघात होना यह सामान्य कथन अवश्य घटित होना चाहिये ! इसका उत्तर न्यायभाष्यकार स्वयं यों कहते हैं कि अन्य प्रकारों करके प्रयुक्त किये गये शब्द्वका दूसरे भिन्न प्रकारोंसे अर्थकी परिकल्पना करना अर्थ विकल्पोपपत्ति है । जब कि मचान गा रहे हैं, यह प्रयोग गौणरूपसे किया गया है। क्योंकि तत्र स्थितमें तत्को कहनेवाले शद्वका उपचार है। " तात्स्थाताच्छब्धं "। जैसे कि सहारनपुरमें स्थित हो रहे इक्षुदण्ड (पौंडा) में सहारनपुरपन धर्मकी कल्पना कर की जाती है, इस प्रकार गौण बोंमें शद्वोंकी लोकप्रसिद्धि होनेपर प्रधानपन करके उस अर्थकी सब बोरसे कल्पना कर दूसरे कपटी प्रतिवादी द्वारा दोष उत्थापन किया जा रहा है । पुनः न्यायमाष्यकारके प्रति किसीका प्रश्न है कि उपचार उलमें उपचारका अर्थ क्या है ! बताओ। उसका उत्तर वे देते हैं कि सहचारीपन, कारणता, क्रूरता, शूरता, चंचलता आदि निमित्तों करके उससे रहित अर्थमें भी प्रयोजनवश उसवालेका कथन करना उपचार है । निमित्त और प्रयोजनके अधीन उपचार प्रवर्तता है । मंचाः क्रोशन्ति, यहां सहचारी होनेसे मंचस्थको मंच कह दिया जाता है । " अनं वै प्राणाः " प्राणके कारण अन्नको प्राण कह दिया जाता है । धनं प्राणाः प्राणके कारण अन्न और अनके कारण धनको उपचरितोपचारसे प्राण मान लिया जाता है । " पुरुषः सिंहः" क्रूरता, शूरताके निमित्त मनुष्यमें सिंहपनेका उपचार हो जाता है । चंचल बच्चेको अग्नि कह दिया जाता है । अग्निर्माणवकः । ऐसे उपचारको विषय करनेवाला छक उपचारछल है। ____ यद्येवं वाक्छलादुपपारछलं न भिद्यते अर्थातरकल्पनाया अविशेषात् । इहापि हि स्थान्यर्थो गुणशबः प्रधानशद्धः स्थानार्थ इति कल्पयित्वा प्रतिषिध्यते नान्यथेति । नैत
सारं । अर्थान्तरकल्पनातीर्थसद्भावप्रतिषेधस्यान्यथात्वात्, किंचित्साधत्तियोरेकत्वे वा त्रयाणामपि छलानामेकत्वप्रसंगः। ..
____ न्यायभाष्यकारके ऊपर किसीका आक्षेप है कि यदि आप इस प्रकार मानेंगे तब तो वाक्छळसे उपचार छठका कोई भेद नहीं ठहर पायगा। क्योंकि अन्य अर्थकी कल्पना करना दोनोंमें एकसी है। कोई विशेषता नहीं है। अर्थात्-वाक्छळमें भी प्रतिवादी द्वारा अर्थान्तरको कल्पना की गयी है । और उपचार छलमें भी प्रतिवादीने अन्य प्रकारसे दूसरे अर्थकी कल्पना कर दोष उठाया है । देखिये मचान गा रहे हैं। यहां भी मञ्च शब्दका
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तत्वार्षचिन्तामणिः
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स्थानी ( आधेय पुरुष ) अर्थ गौण है और स्थान अर्थ ( अधिकरण ) प्रधान है। इस प्रधान अर्थ प्रतिपादक शब्दकी कल्पना कर प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध किया जा रहा है। अन्य प्रकारोंसे तो निषेध हो नहीं सकता था, वहाँ भी नव शब्दका दूसरा अर्थ नौ संख्यावाला प्रतिवादीद्वारा किया गया है । दोनोंमें इस एक प्रकारके अतिरिक्त कोई दूसरा प्रकार नहीं है। इस कारण दोनों छलोंमें कोई भेद नहीं है। अब वात्स्यायन ऋषि गौतमसूत्र अनुसार उत्तर कहते हैं कि यह आक्षेप तो निःसार है । " न तदर्थान्तरभावात " उस अर्थसद्भावके प्रतिषेधका पृथग्भाव है । इसका अर्थ यों है कि अर्थान्तरकी कल्पना करनास्वरूप वाक्छलसे अर्थके सद्भावका प्रतिषेध कर देना स्वरूप उपचारछलको विभिन्न प्रकारपना है। दोनों छठोंका प्रयोजक धर्म न्यारा न्यारा है । गौतमऋषि कहते हैं कि " अविशेषे वा किञ्चित्साधादेकच्छलप्रसंगः " कुछ थोडेसे समान धर्मापनसे यदि उन वाक्छल और उपचार छलको एकपना अभीष्ट किया जायगा, तब तो तीनों भी छलोंके एकपनका प्रसंग हो जावेगा। तथा मुख और चन्द्रमा या हंसी और कीर्ति एवं गौ और गवय इनका भी कई समान धौके मिल जानेसे अभेद हो जावेगा । सादृश्य और तादात्म्य में तो महान् अन्तर है।
अथ वाक्छ सामान्यछलयोः किंचित्साधर्म्य सदपि द्वित्वं न निवर्तयति, तर्हि तयोरुपचारछलस्य च किंचित्साधर्म्य विद्यमानमपि त्रित्वं तेषां न निवर्तयिष्यति, वचनविघातस्यार्थविकल्पोपपत्या त्रिष्वपि भावात् । ततोन्यदेव वाक्छलादुपचारछलं । तदपि परस्य पराजयायावकल्पते यथावक्त्रभिप्रायमप्रतिषेधात् । शदस्य हि प्रयोगो लोके प्रधानभावेन गुणभावेन च प्रसिद्धः। तत्र यदि वक्तुर्गुणभूतीर्थोऽभिप्रेतस्तदा तस्यानुबानं प्रतिषेधो वा विधीयते, प्रधानभूतश्चेत्तस्यानुज्ञानप्रतिषेधो कर्तव्यो प्रतिवादिना न छन्दत इति न्यायः । यदात्र गौणमानं वक्ताभिप्रति प्रधानभूतं तु तं परिकल्प्य पर प्रतिषेधति तदा तेन स्वमनीषा प्रतिषिद्धा स्यान परस्याभिप्राय इति न तस्यायमुपालंभ: स्यात् । तदनुपालंभाचासौ पराजीयते तदुपालंभापरिज्ञानादिति नैयायिका मन्यते ।
अब भी नैयायिकोंके सिद्धान्तका ही अनुवाद किया जा रहा है कि वाक्छल और सामान्यछल इन दोनोंमें कुछ समानधर्मापन. यद्यपि विद्यमान है, तो भी वह उनके दोपनकी निवृत्ति नहीं करा पता है । इस प्रकार किसीका प्रश्न होनेपर हम नैयायिक उत्तर देवेंगे कि तब तो उन सामान्य छळ, वाक्छल, और उपचारछलका कुछ कुछ सधर्मापन विद्यमान हो रहा भी उन छळोंके तीनपनकी निवृत्ति नहीं करा सकेगा । अर्थविकल्पकी उपपत्तिसे वादीप्रतिपादित वचनका विघात, इस छलोंके सामान्य लक्षणका भळे ही तीनों भी छलोंमें सद्भाव पाया जाता है, "प्रमिति करणं प्रमाणं"। इस सामान्य लक्षणके सम्पूर्ण प्रमाणके भेद प्रभेदोंमें घटित हो जानेपर ही प्रत्यक्ष, अनुमान या
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तत्त्वार्थकोकवार्तिके
इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान, परार्थानुमान आदिमें प्रमाणविशेष लक्षणोंका समन्वय करनेपर उन विशेषोंका पृथग्भाष बन पाता है । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि वाक्छसे उपचार भिन्न ही है । किन्तु उक्त दो छलोंके समान प्रवृत्त किया गया वह उपचारछल भी दूसरे प्रतिवादीका पराजय करानेके लिये चारों भोरसे समर्थ हो जाता है, क्योंकि प्रतिवादीने वक्ता के अभिप्रायोंके अनुसार प्रतिषेध नहीं किया है । वक्तुरभिप्रायः वक्त्रभिप्रायः वक्रभिप्रायमनतिक्रम्य इति यथावक्रमिप्रायः ( अव्ययीभाव ) जब कि शद्वका प्रयोग करना लोकमें प्रधानभाव और गौणभाव दोनों प्रकारोंसे प्रसिद्ध हो रहा है, तो वह वक्ताको यदि गौण अर्थ अभीष्ट हो रहा है, तब तो उसी गौण अर्थका वादी विचार अनुसार प्रतिवादीको स्वीकार करना चाहिये और उसी गौण अर्थका प्रतिवादीको प्रतिषेध करना उचित है। तथा वादीको शद्वका यदि प्रधानभूत अर्थ अभिप्रेत हो रहा है, तब उस प्रधान अर्थका ही प्रतिवादी करके अनुज्ञान और प्रतिषेध करना चाहिये, न छन्दतः, अपनी इच्छा अनुसार स्वच्छन्दतासे अनुज्ञान और प्रतिषेध नहीं करना चाहिये । यही न्याय मार्ग है। यह प्रकरणमें जिस समय वक्ता शद्वके केवल गौण अर्थको अभीष्ट कर रहा है, उस समय शद्वके प्रधानभूत हो रहे उस अर्थकी परिकल्पना कर यदि दूसरा प्रतिवादी प्रतिषेध करता है, तब तो समझिये कि उस प्रतिबादीने अपनी विचारशालिनी बुद्धिका ही प्रतिषेध कर डाला, यों समझा जायगा । इतनेसे दूसरे वादीके अभिप्रायका प्रतिषेध करना नहीं माना जा सकता है । अर्थात- जो गौण अर्थके स्थानपर प्रधानभूत अर्थकी कल्पना करता है, वह अपनी बुद्धिके पीछे लट्ठ लेकर पडा है । इस कारण उस प्रतिवादीका वादीके ऊपर यह उलाहना नहीं हुआ । प्रत्युत प्रतिवादीके उपर ही उलाहना गिर पडा और वादीके ऊपर उपालम्भ होना नहीं बनने से वह प्रतिवादी पराजित हो जाता है, क्योंकि प्रतिवादीको उस वादीके ऊपर उठाने योग्य उपालम्भोंका परिज्ञान नहीं है । इस प्रकार छळवादी नैयायिक स्वकीय दर्शन अनुसार मान रहे हैं । छळ प्रकरण आठ गौतमीय सूत्रोंपर किये गये वात्स्यायन भाष्यका अनुवाद श्री विद्यानन्द स्वामीने उक्त ग्रन्थ द्वारा प्रायः कह दिया है ।
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तदेतस्मिन् प्रयुक्ते स्यान्निग्रहो यदि कस्यचित् ।
तदा योग निगृह्येत प्रतिषेधात् प्रमादिकम् ॥ ३०५ ॥ मुख्यरूपतया शून्यवादिनं प्रति सर्वथा । तेन संव्यवहारेण प्रमादेरुपवर्णनात् ॥ ३०६ ॥
ra श्री आचार्य महाराज छलोंका विशेषरूपसे तो खण्डन नहीं करते हैं। क्योंकि छल व्यवहार सबको अनिष्ट है। विशेषकर सिद्धान्त प्रन्थमें तो छलप्रवृत्तिं कथमपि नहीं होनी चाहिये ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
अतः केवळ नैयायिकोंके छलोंकी परीक्षा कर विशेष अमिमतको संक्षेपसे बताये देते हैं कि नैयायिकों का यह उक्त कथन भी विचार नहीं करनेपर तो रमणीय (सुन्दर) प्रतीत होता है, अन्यथा नहीं। हमको यहां नैयायिकोंके प्रति यह बतला देना है कि इस प्रकार प्रयुक्त किये जानेपर यानी गौण अर्थके अभिप्रेत होनेपर मुख्य अर्थके निषेधमात्रसे ही यदि किसी एक प्रतिवादीका निग्रह होना मान लिया जायगा, तब तो नैयायिक भी शून्यवादीके प्रति मुख्यरूपकरके प्रमाण, प्रमेय वादिका सर्वथा प्रतिषेध हो जानेका कटाक्ष कर देनेसे निग्रह प्राप्त हो जावेगा । क्योंकि लौकिक समीचीन व्यवहार करके प्रमाण, प्रमिति आदि पदार्थोको उस शून्यवादीने स्वीकार किया है। अर्थात्-संवृति यानी उपचारसे प्रमाण आदिक तत्वोंको माननेवाले शून्यवादीका प्रतिषेध यदि नैयायिक मुख्य प्रमाण आदिको मनवानेके लिये करते हैं। क्योंकि प्रमाण हेतु आदिको वस्तुभूत माने विना साधन या दूषण देना नहीं बन सकता है, तो यह नैयायिकोंका छल है । ऐसी दशामें नैयायिकोंके छललक्षण अनुसार शून्यादीकरके नैयायिकका निग्रह हो जाना चाहिये । यह स्वयं कुठाराघात हुला। तत्वोपप्लववादिओंने भी विचार करनेके प्रथम प्रमाण आदि तत्त्वोंको मान लिया है।
सर्वथा शून्यतावादे प्रमाणादेविरुध्यते । ततो नायं सतां युक्त इत्यशून्यत्वसाधनात् ॥ ३०७ ॥
योगेन निग्रहः प्राप्यः स्वोपचारच्छलेपि चेत् । • सिद्धः स्वपक्षसिद्धयैव परस्यायमसंशयम् ॥ ३०८ ॥
जब कि वाद करनेमें प्रमाण, प्रमाता, द्रव्य, गुण आदिका सभी प्रकारोंसे शून्यपना विरुद्ध पडता है, अर्थात्-जो उपचार और मुख्य सभी प्रकारोंसे प्रमाण, हेतु, वाचकपद, श्रावणप्रत्यक्ष, आदिको नहीं मानेगा, वह वादी शास्त्रार्थके लिये काहेको मुंह बायेगा । अतः सिद्ध है कि शून्यवादी उपचारसे प्रमाण आदिको स्वीकार करता है तो फिर नैयायिकोंको प्रमाण आदिका प्रतिषेध उसके प्रति मुख्यरूपसे नहीं करना चाहिये । किन्तु नैयायिक उक्त प्रकार दूषण दे रहे हैं। तिस कारण अशून्यपनेकी सिद्धि हो जानेसे यह नैयायिकोंके ऊपर छल उठाना तो सज्जनोंको समुचित नहीं है, और नैयायिकोंके ऊपर विचारे शून्यवादी निग्रह उठाते भी नहीं है। यदि " जैसा बोया जाता है, वैसा काय जाता है" इस नीतिके अनुसार नैयायिक स्वके द्वारा उपचार छळ प्रवृत्त हो जानेपर भी शून्यवादीकरके निग्रहको प्राप्त कर दिये जायंगे, यानी नैयायिकोंकरके निग्रह प्राप्त कर लिया जायगा, इस प्रकार कहनेपर तो हमारा वही पूर्वका सिद्धान्त प्रसिद्ध हो गया कि अपने पक्षकी भके प्रकार सिद्धि कर देनेसे ही दूसरे प्रतिवादीका पराजय होता है। यह राधान्त संशय रहित होकर सिद्ध हो जाता है, तभी तो शून्यवादीका पक्ष पुष्ट हो चुकनेपर उस नैयायिकका निग्रह
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
किया । हो, छळ या निग्रहस्थान दोष अवश्य है । किन्तु पराजय करानेके लिये पर्याप्त नहीं । थोडीसी पेटको पीडा गुहेरी, फुसी, काणापन ये दोष साक्षात मृत्युके कारण नहीं है। तीन शस्त्राघात, सनिपात, शूळ, हृद्गतिका रुकना आदिसे ही मृत्यु होना संभव है । अतः जय और पराजयकी व्यवस्था देनेके लिये बडे विचारसे काम लेना चाहिये । इसमें जीवन,मरणके प्रश्न समान अनेक पुरुषोंका कल्याण और अकल्याण सम्बन्धित हो रहा है। अतः स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष निराकरणसे ही जयव्यवस्था माननी चाहिये । अन्यको जयका प्रधान उपाय नहीं मानो। छोटे दोषोंको महान् दोषोंमें नहीं गिनना चाहिये ।
अथ जाति विचारयितुमारभते ।
यहांतक आचार्य महाराजने नैयायिकोंके छलप्रकरणकी परीक्षा कर दी है। अब असत् उत्तरस्वरूप जातियोंका विचार करनेके लिये ग्रन्थकार विशेष प्रकरणका प्रारम्भ करते हैं । निस्य होकर अनेक द्रव्य, गुण, या कौमें समवाय संबंधसे वर्तनेवाली सामान्यस्वरूप जाति न्यारी है। यह जाति तो दोष है।
स्वसाध्यादविनाभावलक्षणे साधने स्थिते । जननं यत्प्रसंगस्य सा जातिः कैश्विदीरिता ॥ ३०९ ॥
अपने साध्य के साथ अविनाभाव रखना इस हेतुके लक्षणसे युक्त हो रहे ज्ञापक साधनके व्यवस्थित हो जानेपर जो पुनः प्रसंग उत्पन्न करना है, यानी वादीके ऊपर प्रतिवादी द्वारा दूषण कथन करना है, उसको किन्हीं नैयायिकोंने जाति कहा है । ईरिता शसे यह ध्वनि निकलती है, कि जातिकी योग्यता नहीं होनेपर भी बलात्कारसे उसको जाति मनवानेकी नैयायिकोंने प्रेरणा की है। किन्तु बलात्कारसे कराये गये असमंजस कार्य अधिक कालतक स्थायी नहीं होते हैं। ___" प्रयुक्त हेतौ यः प्रसंगो जायते सा जातिः" इति वचनात् ।
" साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः " इस गौतमसूत्रके भाष्यमें वात्स्यायमने यो कथन किया है कि हेतुका प्रयोग करचुकनेपर जो प्रतिवादीद्वारा प्रसंग जना जाता है, वह जाति है। दिवादि गणकी " जनी प्रादुर्भावे " धातुसे मावमें कि प्रत्यय करनेपर जाति शब्द बनता है । अतः कुछ उपपदोंका अर्थ लगाकर निरुक्ति करनेसे जाति शब्दका यथार्थ नामा अर्थ निकल जाता है। शब्दकी निरुक्तिसे ही लक्षणस्वरूप अर्थ निकल आये, यह श्रेष्ठ मार्ग है।
का पुनः प्रसंग ! इत्याह ।
किसी शिष्यका प्रश्न है कि माष्यकारद्वारा कहे गये जातिके क्षणमें पडे हुये प्रसंग शब्दका यहां फिर क्या अर्थ है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानंदस्वामी वार्तिकद्वारा समाधानको कहते हैं।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
प्रसंग ः प्रत्यवस्थानं साधर्म्येणेतरेण वा । वैधम्यक्तेऽन्यथोक्ते च साधने स्याद्यथाक्रमम् ॥ ३१०॥
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न्यायभाष्य में यों लिखा है कि " स च प्रसंग: साधर्म्यवैधम्र्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानमुपालम्भः प्रतिषेध इति उदाहरणसाधर्म्यात साध्यसाधनं हेतुरित्यस्योदाहरणसाधम्र्म्येण प्रत्यवस्थानं । उदाहरण वैधर्म्यात् साध्यसाधनं हेतुरित्यस्योदाहरणं वैधर्म्येण प्रत्यवस्थानम् । प्रत्यनीकभाव ज्जायमानोऽर्यो जातिरिति " तदनुसार प्रसंगका अर्थ यह है किं उदाहरण के वैधर्म्यसे साध्यको साधनेवाले हेतुका कथन करचुकने पर पुनः प्रतिवादीद्वारा साधर्म्यकर के प्रतिषेध देना यानी दूषण उठाना प्रसंग है । अथवा अन्य प्रकार यामी उदाहरणका साधर्म्य दिखाकर हेतुका कथन करचुकनेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा वैधर्म्यकरके प्रत्यववस्थान ( उछाहना ) देना प्रसंग है, यथाक्रमसे ये दो ढंग प्रसंगके हैं ।
उदाहरणवैधर्म्येणोक्ते साधने साधर्म्येण प्रत्यवस्थानमुदाहरणसाधर्म्येणोक्ते वैधर्म्येण प्रत्यवस्थानमुपाळंभः प्रतिषेधः प्रसंग इति विज्ञेयं “ साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः " इति वचनात् ।
इसका तात्पर्य यो समझ लेना चाहिये किं वादीद्वारा व्यतिरेकदृष्टान्तरूप उदाहरणके विधर्मापनकरके ज्ञापकहेतुका कथन करचुकनेपर प्रतिवादीद्वारा साधर्म्यकर के प्रतिषेध किया जाना प्रसंग है और वादीद्वारा अम्बयदृष्टान्तस्वरूप उदाहरणके समानधर्मापनकर के ज्ञापकहेतुका कथन किये जाने पर पुनः प्रतिवादीद्वारा विधमपिमकर के प्रत्यवस्थान वानी उलाहना देना, अर्थात - वादी के कहे गयेका प्रतिषेध कर देना भी प्रसंग है । गौतम सूत्रमें जातिका मूल लक्षण साधर्म्य और बैधर्म्य करके उलाहमा उठाना जाति है, यों कहा गया है।
एतदेवाह
इस ही सूत्र और भाष्यका अनुवाद करते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य उक्त कथनको ही वार्त्तिकों द्वारा उनकी परिभाषा में कहते हैं ।
उदाहरणसाधर्म्यात्साध्यस्यार्थस्य साधनं ।
हेतुस्तस्मिन् प्रयुक्तेन्यो यदा प्रत्यवतिष्ठते ॥ ३११ ॥ उदाहरण वैधर्म्याच व्याप्तिमखंडयत् । .
तदासौ जातिवादी स्याद्दूषणाभासवाक्ततः ॥ ३१२ ॥
साध्य अर्थका साधन करनेवाला हेतु ही है । उदाहरण के सधर्मापनसे उस हेतुका प्रयोग किये जानेपर जिस समय अन्य प्रतिवादी उस अनुमान के हेतुमें व्याप्तिका खण्डन नहीं कराता
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तत्त्वाथश्लोकवार्तिके
हुआ यदि उदाहरणके वैधर्म्यते जब उलाहना उठा रहा है, उस समय वह असत् उत्तरको कहने वाला जातिवादी कहा जावेगा, जब कि वह वादीके कहे गये हेतुका प्रत्याख्यान नहीं कर सका है, तिस कारणसे उस प्रतिवादीके वचन दूषणभास हैं । अर्थात्-वस्तुतः दूषण नहीं होकर दूषण सदृश दीख रहे. हैं । प्रतिवादीको समीचीन दूषण उठाना चाहिये, जिससे कि वादीके पक्षका या हेतुका खण्डन हो जाय । जब वादीका हेतु अक्षुण्ण बना रहा तो प्रतिवादीका दोष उठाना कुछ भी नहीं। किसी कविने अच्छा कहा है " किं कवेस्तस्य काव्येन किं काण्डेन धनुष्मतः, परस्य हृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिरः" उस कविके काव्यसे क्या ! और उस धनुषधारीके बाण करके क्या ! जो कि दूसरेके हृदयमें प्रविष्ट हो कर आनन्द और वेदनासे उसके शिरको नहीं घुमा देवे । मधपीके शिर समान आनन्द या दुःखमें शिरका हिलोरें लेना घुर्णना कही जाती है । प्रत्युत कहीं कहीं ऐसे दोषामास गुणस्वरूप हो जाते हैं । जैसे कि चन्द्रप्रभ चरित काव्यमें लिखा है कि " स यत्र दोषः परमेव वेदिका शिरः शिखाशायिनि मानभञ्जने, पतत्कुले कूजति यन जानते रसं स्वकान्तानुनयस्य कामिनः ॥१॥ तथा अमरसिंहों हि पापीयान् सर्व भाष्यमचूचुरत् ” अमरकोषको बनानेवाला अमरसिंह बडा भारी पापी था, जो कि सम्पूर्ण माण्य आदि महान् ग्रन्थोंको चुरा बैठा, यह व्याज निन्दा है। जिससे कि बहुतसे गुण व्यक्त हो जाते हैं । दूषणामासोंसे कोई यथार्थमें दूषित नहीं हो सकता है।
तथोदाहतिवैधात्साध्यस्यार्थस्य साधनं । हेतुस्तस्मिन् प्रयुक्तेपि परस्य प्रत्यवस्थितिः ॥ ३१३ ॥ साधम्र्येणेह दृष्टांते दूषणाभासवादिनः ।
जायमाना भवेज्जातिरित्यन्वर्थे प्रवक्ष्यते ॥ ३१४ ॥
तथा उदाहरणके वैधय॑से साध्य अर्थको साधनेवाला हेतु होता है । वादीद्वारा उस हेतुके भी प्रयुक्त किये जानेपर दूसरे प्रतिवादीके द्वारा दृष्टान्तमे साधर्म्यकरके जो यहां प्रत्यवस्थान देना है, वह दूषणामासको कहनेवाले प्रतिवादीकी प्रसंगको उपजा रही जाति होगी। इस प्रकार जाति शब्दका निरुक्तिद्वारा धात्वर्थ अनुसार अर्य करनेपर भळे प्रकार उक्त लक्षण कह दिया जावेगा। अतः असत् उत्तरको कहनेवाले जातिवादी प्रतिवादीका पराजय हो जाता है। और समीचीन को कहनेवाले वादीकी जीत हो जाती है।
उद्योतकरस्त्वाह-जातिर्नामस्थापनाहेती प्रयुक्त यः प्रतिषेधासमों हेतुरिति सोपि प्रसंगस्य परपक्षपतिषेधार्थस्य हेतोर्जननं जातिरित्यन्वर्थसंज्ञामेव जाति व्याचष्टेऽन्यथा न्यायभाष्यविरोधात् ।
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तार्थचिन्तामणिः
उद्योतकर पण्डित तो इस प्रकार कहते हैं कि मला जातिका लक्षण तो इस नामसे ही निकल पडता है । अपने पक्षकी स्थापना करनेवाले हेतुके वादीद्वारा प्रयुक्त किये जानेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा जो उस पक्षका प्रतिषेध करनेमें नहीं समर्थ हो रहा हेतुका उपजाया जाना है, वह जाति कही जाती है। अब आचार्य कहते हैं कि यों कह रहा वह उद्योतकर पण्डित भी प्रसंगका यानी परपक्षका निषेध करनेके लिये कहे गये हेतुका उपजना जाति हैं, इस प्रकार यौगिक अर्थके अनुसार अन्वर्थ नाम संकीर्तनको धारनेवाली जातिका ही बखान कर रहा है । अन्यथा न्यायभाष्य प्रन्थसे विरोध हो जावेगा । अर्थात् - दूसरे रूढि या योगरूढ अर्थ अनुसार जातिसंज्ञा यदि मानी जायगी तो उद्योतकरके कथनका वात्स्यायन के कथनसे विरोध पडेगा ।
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कथमेवं जाति बहुत्वं कल्पनीयमित्याह ।
कोई जातिवादी नैयायिकों के प्रति प्रश्न उठाता है कि जब साधर्म्य और वैधर्म्यकर के दूषण उठानारूप जाति एक ही है तो फिर इस प्रकार जातिका बहुतपना यानी चौवीस संख्यायें किस प्रकारसे कल्पना कर ली जावेगी ? प्रयत्नके विना ही लोकमें जातिका एकपना प्रसिद्ध हो रहा है । जैसे कि गेहूं, चना, गाय, घोडा, आदि जातिवाचक शब्द एकवचन है । इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर नैयायिकों के उत्तरका अनुवाद करते हुए श्री विद्यानन्दस्वामी अब समाधानको कहते हैं ।
सधर्मत्वविधर्मत्त्वप्रत्यवस्थाविकल्पतः ।
कल्प्यं जाति बहुत्वं स्याद्यासतो ऽनंतशः सताम् ॥ ३९५ ॥
समानधर्मापन और विधर्मापन करके हुये दोष प्रसंगके विकल्पसे जातियोंका बहुतपना कल्पित कर किया जाता है। अधिक विस्तारकी अपेक्षासे तो सज्जनों के यहां जातियोंके अनन्तवार विकल्प किये जा सकते हैं । जैनोंके यहां भी अधिक प्रभेदोंकी विवक्षा होनेपर पदार्थोंके संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हो जाते हैं । गौतम सूत्रमें कहा है कि " तद्विकल्पाज्जातिनिग्रहस्थान बहुत्वम् " यहां तत् पदसे " साधर्म्यवैधम्र्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः " "विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम्" इन जाति और निग्रहस्थानके लक्षणोंका परामर्श हो जाता है । अतः उक्त अर्थ निकल आता है ।
यथा विपर्ययज्ञानाज्ञाननिग्रहभेदतः ।
बहुत्वं निग्रहस्थानस्योक्तं पूर्वं सुविस्तरम् ॥ ३१६ ॥ तंत्र ह्यप्रतिभाज्ञानाननुभाषणपर्यनु- ।
योज्योपेक्षण विक्षेपा लभंतेऽप्रतिपत्तिताम् ॥ ३१७ ॥
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
शेषा विप्रतिपत्तित्वं प्राप्नुवंति समासतः। तद्विभिन्न स्वभावस्य निग्रहस्थानमीक्षणात् ॥ ३१८ ॥
जिस प्रकार कि विप्रतिपत्ति यानी विपर्ययज्ञान और अप्रतिपत्ति यानी अज्ञानस्वरूप निग्राहकोंके भेदसे निग्रहस्थानोंका बहुतपना पूर्व प्रकरणोंमें बहुत अच्छा विस्तार पूर्वक कह दिया गया है। अनेक कल्पनाएँ करना अथवा अनेक प्रकारकी कल्पना करना यहाँ विकल्प समझा नाता है । न्याय भाष्यकार कहते हैं कि उन निग्रहस्थानोंमें अप्रतिमा, अज्ञान, अननुभाषण, पर्यनुयोग्योपेक्षण, विक्षेप, मतानुज्ञा ये निग्रहस्थान तो अप्रतिपत्तिपनको प्राप्त हो रहे हैं । अर्थात्-बारम्भके अवसरपर प्रारंभ नहीं करना या दूसरे विद्वान् करके स्थापित किये गये पक्षका प्रतिषेध नहीं करता है, अथवा प्रतिषेध किये जा चुकेका उद्धार नहीं करता है, इस प्रकारके अज्ञानसे अप्रतिमा आदिक निग्रहस्थानोंका पात्र बनना पडता है । तथा शेष बचे हुये प्रतिज्ञाहानि, आदिक निग्रहस्थान तो विपरीत अथवा कुत्सित प्रतिपत्ति होना रूप विप्रतिपत्तिपनको प्राप्त हो जाते हैं । संक्षेपसे विचार किये जानेपर उन विप्रतिपत्ति और अविप्रतिपत्ति इन दो निग्रहस्थानोंसे विभिन्न स्वभाववाले तीसरे निग्रहस्थानका किसीको भी कभी आलोचन नहीं होता है। हां, विस्तारसे भेदकथन करनेकी अपेक्षा तो अनेक निग्रहस्थानोंका विभाग किया जा सकता है । निग्रहस्थामका अर्थ पराजय प्रयोजक वस्तु या अपराधों की प्राप्ति हो जाना है । प्रतिज्ञा आदिक अवयवोंका अवलम्ब लेकर तत्त्ववादी और अतत्त्ववादी पण्डित परस्परमें वाद करते हैं। त्रुटि हो जानेपर पराजयको प्राप्त हो जाते हैं।
तत्रातिविस्तरेणानंतजातयो न शक्या वक्तमिति विस्तरेण चतुर्विंशतिर्जातयः प्रोक्ता इत्युपदर्शयति ।
उस जातिके प्रकरणमें यह कहना है कि अत्यन्त विस्तार करके तो असत् उत्तर स्वरूप अनन्त जातियां हैं जो कि शद्रों द्वारा नहीं कहीं जा सकती है, हा मध्यम विस्तार करके वे जातियां चौवीस भले प्रकार न्यायदर्शनमें कहीं हैं । इसी भाष्यकारकी बातको प्रन्धकार अग्रिम वार्तिक द्वारा प्रायः दिखलाते हैं।
प्रयुक्त स्थापनाहेतौ जातयः प्रतिषेधिकाः ।
चतुर्विशतिरत्रोक्तास्ताः साधर्म्यसमादयः ॥ ३१९ ॥
प्रकृत साध्यकी स्थापना करनेके लिये बादी द्वारा हेतुके प्रयुक्त किये जानेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करानेके कारण वे जातियां यहां साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा आदिक चौवीस कही गयी है।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
तथा चाह न्यायभाष्यकारः । साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानस्य विकल्पाज्जातिबहुत्वमिति संक्षेपेणोक्तं, तद्विस्तरेण विभज्यंते । ताश्च खल्विमा जातयः स्थापनाहेतौ प्रयुक्ते चतुर्विंशतिः प्रतिषेधहेतव " साधर्म्यवैधम्र्योत्कर्षापकर्षवर्ण्यवर्ण्यविकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्तिप्रसंगप्रतिदृष्टांतानुत्पत्ति संशयप्रकरणाहेत्वर्थापत्त्यविशेषोपपत्युपलब्ध्यनुपलब्धिनित्यानि - त्मकार्यसमाः " इति सूत्रकारवचनात् ।
और तिसी प्रकार न्यायभाष्यको बनानेवाले वात्स्यायन ऋषि इसी बात को अपने शङ्खसे न्यायभाष्य में पंचम अध्यायके प्रारम्भमें यों कह रहे हैं कि साधर्म्य और वैधर्म्य करके हुये प्रत्यव - स्थानके भेदसे जातियोंका बहुत्व हो जाता है । इस प्रकार संक्षेपसे तो एक ही प्रत्यवस्थान रूप जाति कही गयी है, हां, उस साधर्म्य और वैधर्म्य करके हुये प्रत्यवस्थानके विस्तार कर देनेसे तो जाति विभाग कर दिये जाते हैं। तथा वे जातियां निश्चय करके स्थापना हेतुके प्रयुक्त किये जानेपर पुनः प्रतिषेधके कारण हो रहीं ये वक्ष्यमाण चौवीस हैं । उनको गिनिये १ साधर्म्यसमा २वैधर्म्यसमा ३ उत्कर्षसमा : अपकर्षसमा ५ वर्ण्यसमा ६ अवर्ण्यसमा ७ विकल्पसमा ८ साध्यसमा ९ प्राप्तिसमा १० अप्राप्तिसमा ११ प्रसंगसमा १२ प्रतिदृष्टान्तसमा १३ अनुत्पत्तिममा १४ संशयसमा १५ प्रकरणसमा १६ अहेतुसमा १७ अर्थापत्तिसमा १८ विशेषसमा १९ उपपत्तिसमा २० उपलब्धिसमा २१ अनुपलब्धिक्षमा २२ नित्यसमा २३ अनित्यसमा २४ कार्यसमा । इस प्रकार जातियोंके चौवीस भेद न्यायसूत्रों को बनानेवाले गौतमऋषिने पांचवें अध्यायके आदिमें कहे हैं। इन जातियों का लक्षणीय अर्थ यद्यपि निरुकिसे लब्ध हो जाता है तो भी शिष्य बुद्धिवैशद्यार्थ गौतमऋषिने सूत्रोंमें न्यारे न्यारे लक्षण कहे हैं ।
यत्राविशिष्यमाणेन हेतुना प्रत्यवस्थितिः ।
साधर्म्येण समा जातिः सा साधर्म्यसमा मता ॥ ३२० ॥ निर्वक्तव्यास्तथा शेषास्ता वैधर्म्यसमादयः ।
लक्षणं पुनरेतासा यथोक्तमभिभाष्यते ॥ ३२१ ॥
भाष्य में लिखा है कि " साधर्म्येण प्रत्यवस्थानमविशिष्यमाणं स्थापना हेतुतः साधर्म्यसमः, अविशेषं तत्र तत्रोदाहरिष्यामः एवं वैधर्म्यसमप्रभृतयोऽपि निर्वक्तव्या " जहां बिशेषको नहीं प्राप्त किये गये हेतुकरके साधर्म्यद्वारा प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह नैयायिकों के यहां साधर्म्यसमा - जाति मानी गयी है । तथा उसी प्रकार शेष बची हुई उन वैधर्म्यसमां, उत्कर्षसमा आदि जातियोंकी भी शब्दोंद्वारा निरुक्ति कर लेना चाहिये । हां, फिर इन साधर्म्यसमा आदिक जातियोंका न्यायदर्शन प्रन्थके शनुसार कहा गया लक्षण तो यथावसर ठीक ढंगले भाषण कर दिया जाता है ।
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अर्थात्--गौतमसूत्र और वात्स्यायनभाष्यके अनुसार जातिके सामान्य लक्षणको घटित करते हुये साधर्म्यसमा आदिका लक्षण अब बखाना जाता है ।
अत्र जातिषु या साधम्र्येण प्रत्यवस्थितिरविशिष्यमाणं स्थापनाहेतुतः साधर्म्यसमा जातिः। एवमविशिष्यमाणस्थापनाहेतुतो वैधपेण प्रत्यवस्थितिः वैधर्मासमा । तयोत्कर्षादिभिः प्रत्यवस्थितयः उत्कर्षादिसमा इति निर्वक्तव्याः। लक्षणं तु यथोक्तमभिभाष्यते ।
___ इन जातियोंमें जो साधर्म्यकरके कह चुकनेपर प्रत्यवस्थान देना है, जो कि साध्यकी स्थापना करनेवाले हेतुसे विशिष्टपनेको नहीं रख रहा है, वह दूषण माधर्म्यसमा जाति है। इसी प्रकार वैधhसे उपसंहार करनेपर स्थापना हेतुसे विशिष्टपनको नहीं कर रहा, जो प्रत्यवस्थान देना है, वह वैधर्म्यसमा जाति है। तथा स्थापना हेतुओंसे उत्कर्ष, अपकर्ष, वर्ण्य, अवर्ण्य आदि करके जो प्रत्यवस्थान देने हैं, वे उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, आदिक जातियां हैं। इस प्रकार प्रकृति, प्रत्यय, आदि करके अर्थोको निकालते हुए उक्त जातियोंकी निरुक्ति कर लेनी चाहिये । हां,उनका लक्षण तो नैयायिकोंके सिद्धांत अनुसार कहा गया उन उन प्रकरणों में भाष्य या विवरणसे परिपूर्ण का दिया जावेगा । यहाँ "जाति" स्त्रीलिङ्ग शब्द्ध विशेष्य दलमें पड़ा हुआ है। अतः समा शब्द स्त्रीलिङ्ग है, ऐसा कोई मान रहे हैं । भाष्यकार तो पुल्लिंग " सम" शब्दको अच्छा समझ रहे हैं। जो कि घञ् प्रत्ययान्त प्रतिषेध शब्द के साथ विशेषण हो जाता है। सम शब्द और समा शब्द दोनोंका जस्में " समाः " बनता है अतः पंचम अध्यायके पहिले और चौथे सूत्रअनुसार सम और समा दोनों पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शद्रोंकी कल्पना की जा सकती है। हां, अप्रिम लक्षणसूत्रोंमें तो पुल्लिंग सम शब्द होनेका कोई विवाद नहीं रह जाता है । अर्थात्-आगेके सूत्रोंमें मूलग्रन्थकारने पुल्लिंग सम शब्दका स्पष्ट प्रयोग किया है।
तत्र।
उन चौवीस जातियोंमें पहिली साधर्म्यसमा जातिका लक्षण तो इस प्रकार है । सो सुनिये । साधयेणोपसंहारे तद्धर्मस्य विपर्ययात् । यस्तत्र दूषणाभासः स साधर्म्यसमो मतः ॥ ३२२ ॥ यथा क्रियाभृदात्मायं क्रियाहेतुगुणाश्रयात् । य ईदृक्षः स ईदृक्षो यथा लोष्ठस्तथा च सः ॥ ३२३ ॥ तस्मानियाभूदित्येवमुपसंहारभाषणे । कश्चिदाहाक्रियो जीवो विभुद्रव्यत्वतो यथा ॥ ३२४ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
व्योम तथा न विज्ञातो विशेषस्य प्रसाधकः । हेतुः पक्षद्वयेप्यस्ति ततोयं दोषसन्निमः ॥ ३२५ ॥ साध्यसाधनयोप्लेविच्छेदस्यासमर्थनात् । तत्समर्थनतंत्रस्य दोषत्त्वेनोपवर्णनात् ॥ ३२६ ॥
गौतम सूत्र है कि " साधर्म्यवैधाभ्यामुपसंहारे तद्धर्मविपर्ययोपपत्तेः साधर्म्यवैधर्म्यसमौ " इस सूत्रमें साधर्म्यसमा और वैधर्म्यसमा दोनोंका लक्षण किया गया है । तिनमें साधर्म्यसमाका लक्षण यों है कि वादी द्वारा साधर्म्य करके हेतुका पक्षमें उपसंहार करचुकनेपर उस साध्यधर्मके विपर्यय धर्मकी उपपत्ति करनेसे जो वहां दूषणमास उठाया जाता है, वह साधर्म्यसम प्रतिषेध माना गया है। उसका उदाहरण यों समझिये कि यह बात्मा ( पक्ष ) हलन, चलन, आदि क्रियाओंको धारनेवाला है ( साध्य ), क्रियाओंके कारण हो रहे गुणोंका आश्रय होनेसे ( हेतु ) जो इस प्रकार होता हुआ क्रियाके हेतुभूत गुणोंका आधार है, वह इस प्रकारका क्रियावान् अवश्य है। जैसे कि फेंका जा रहा डेल (अन्वय दृष्टान्त) और तिस प्रकारका क्रिया हेतु गुणाश्रय वह आत्मा है (उपनय) तिस कारणसे गमन भ्रमण, उत्पतन, आदि क्रियाओंको यह आत्मा धारण कर रहा है (निगमन)। डेलमें क्रियाका कारण संयोग, वेग या कहीं गुरुत्व ये गुण विद्यमान हैं और आत्मामें अदृष्ट (धर्म अधर्म ) प्रयत्न, संयोग, ये गुण क्रियाके कारण वर्त रहे हैं । अतः आत्मामें उनका फल क्रिया होनी चाहिये । इस प्रकार उपसंहार कर वादीद्वारा समीचीन हेतुके कहे जानेपर कोई प्रतिवादी इसके विपर्ययमें यों कह रहा है कि जीव ( पक्ष ) क्रियारहित है ( साध्य ), व्यापकद्रव्यपना होनेसे (हेतु ) जैसे कि आकाश ( अन्वयदृष्टान्त ) " सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगित्वं विभुत्वम् " सम्पूर्ण पृथ्वी, जल, तेज, वायु और मन इन मूर्त द्रव्योंके साथ संयोग धरनेवाले पदार्थ व्यापक माने जाते हैं। जब कि बाकाश विभु है, अतः निष्क्रिय है, उसी प्रकार व्यापक आत्मा भी क्रियारहित है। जब कोई स्थान ही रीता नहीं बचा है तो व्यापक पात्मा भला क्रिया कहां करें ! क्रियाको साधने वाले पहिले पक्ष और क्रियारहितपनको साधनेवाले दूसरे पक्ष इन दोनों मी पक्षोंमें कोई विशेषता का अच्छा साधन करनेवाला हेतु तो नहीं जाना गया है। नैयायिक कहते हैं कि तिस कारणसे यह पिछला पक्ष वस्तुतः दोष नहीं होकर दोषके सदृश हो रहा दूषणामास है । क्योंकि यह पिछला कथन पहिले कहे गये साध्य और हेतुको व्याप्तिके विच्छेद करनेकी सामर्थ्यको नहीं रखता है। उस साध्य और साधनकी व्याप्तिके विच्छेदका समर्थन करना जिसके अधीन है, उसको लोक
और शाखमें दोषपने करके कहा गया है। अतः यह प्रतिवादीका कथन साधर्म्यसमा जाति. स्वरूप दोषामास है।
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
नास्त्यात्मनः क्रियावत्त्वे साध्ये क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वस्य साधनस्य स्वसाध्येन व्याप्तिर्विभुत्वानिष्क्रियत्वसिद्धौ विच्छिद्यते, न च तदविच्छेदे तद्दषणत्वं साध्यसाधनयो
प्तिविच्छेदसमर्थनतंत्रस्यैव दोषत्वेनोपवर्णनात् । तथा चोक्तं न्यायभाष्यकारेण" साधर्म्यणोपसंहारे साध्यधर्मविपर्ययोपपत्तेः साधाण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा प्रतिषेध " इति । निदर्शनं, क्रियावानात्मा द्रव्यस्य क्रियाहेतुगुणयोगात् । द्रव्यं लोष्ठः स च क्रियाहेतुगुणयुक्त क्रियावांस्तथा चात्मा तस्मक्रियावानित्येवमुपसंहृत्य परः साधर्येणैव प्रत्यवतिष्ठते । निष्क्रिय आत्मा विभुनो द्रव्यस्य निष्क्रियत्वात् । विभ्वाकाशं निष्क्रियं तथा चात्मा तस्मानिनिष्क्रिय इति । न चास्ति विशेषः क्रियावत्साधात् क्रियायता भवितव्यं न पुननिष्क्रियसाधात् अक्रियेणेति विशेषहेत्वभावात्साधर्म्यसमदूषणामासो भवति ।
देखिये कि आत्माको क्रिया सहितपना साध्य करनेपर क्रियाहेतुगुणश्रयत्व हेतुकी अपने नियत साध्यके साथ जो व्याप्ति बन चुकी है, वह व्यापकपन हेतुसे आत्माका क्रियारहितपना साधनेपर टूट ( नष्ट ) नहीं जाती है । और जबतक उस पहिली व्याप्तिका विच्छेद नहीं होगा तबतक वह उत्तरवर्ती कथन उस पूर्वकथनका दूषण नहीं समझा जा सकता है, क्योंकि साध्य और साधनकी व्याप्तिके विच्छेदका समर्थन करना जिसका अधीन कार्य है, उसको (का) दोषपने करके निरूपण किया जाता है । और तिस ही प्रकार न्यायमाष्यको करनेवाले वात्स्यायन ऋषिने स्वकीय भाष्यमें यों कहा है कि अन्वयदृष्टान्तके साधर्म्य करके हेतुका पक्षमें उपसंहार करचुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा साध्यधर्मके विपरीत हो रहे धर्मकी उपपत्ति करनेसे साधर्म्य करके ही दूषण उठाना साधर्म्यसम नामका प्रतिषेध है। इस साधर्म्यसमका उदाहरण यों है कि आत्मा ( पक्ष) क्रियावान् है। ( साध्य ) द्रव्यके उचित क्रियाके हेतु गुणोंका समवाय संबन्धवाला होनेसे ( हेतु) जैसे मिट्टीका डेल या कंकड, पत्थर द्रव्य है । और वह क्रियाके हेतु गुणोंसे समवेत हो रहा संता क्रियावान् है। तिस ही प्रकार अदृष्ट या संयोग, प्रयत्न इन क्रियाके हेतु हो रहे गुणोंको धारनेवाला आत्मा है । तिस कारणसे वह क्रियावान सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार यों वादी पण्डित द्वारा उपसंहार कर चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी साधर्म्यकरके ही यों दूषण उठा रहा है कि आत्मानिष्क्रिय है । क्योंकि विभुद्रव्य क्रियारहित हुआ करते हैं । देखिये, व्यापक आकाश द्रव्य क्रियारहित है और तिस ही प्रकार व्यापक द्रव्य यह आत्मा है। तिस कारणसे आत्मा क्रियारहित है। इस प्रकार उक्त दोनों सिद्धान्तोंमें कोई अन्तर नहीं है, जिससे कि क्रियावान् डेलके सद्धर्मापन क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वसे बात्मा क्रियावान् तो हो जाय, किन्तु फिर क्रियारहित आकाशके साधर्म्य हो रहे विभुत्वसे निष्क्रिय नहीं हो सके । इस प्रकार कोई विशेष हेतुके नहीं होनेसे यह साधर्म्यसम नामक दूषणामास हो जाता है।
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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अत्र वार्तिककार एवमाह - साधर्म्येणोपसंहारे तद्विपरीतसाधर्म्येणोपसंहारे तत्साधर्म्येण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमः । यथा अनित्यः शद्व उत्पत्तिधर्मकत्वात् । उत्पत्तिधर्मकं कुंभाद्यनित्यं दृष्टमिति वादिनोपसंहृते परः प्रत्यवतिष्ठते । यद्यनित्यघटसाधर्म्यादयमनिस्यो नित्येनाप्यस्याकाशेन साधर्म्यममूर्तत्वमस्तीति नित्यः प्राप्तः, तथा अनित्यः शब्द उत्पत्तिथर्मकत्वात् यत्पुनरनित्यं न भवति तन्नोत्पत्तिधर्मकं यथाकाशमिति प्रतिपादिते परः प्रत्यवतिष्ठते । यदि नित्याकाशवैधर्म्यादनित्यः शद्धस्तदा साधर्म्यमप्यस्याकाशेनास्त्य मूर्तश्वमतो नित्यः प्राप्तः । अथ सत्यप्येतस्मिन् साधर्म्ये न नित्यो भवति, न तर्हि वक्तव्यमनित्यघटसाधर्म्यानित्याकाशवैधर्म्याद्वा अनित्यः शद्ध इति ।
साधर्म्यसमा जातिके विषयमें यहां न्यायवार्तिकको बनानेवाले पण्डित गौतमसूत्रका अर्थ इस प्रकार कहते हैं कि अन्वय दृष्टन्ताकी सामर्थ्य से साधर्म्य करके उपसंहार करनेपर अथवा व्यतिरेक दृष्टान्तकी सामर्थ्य से उस साध्यधर्म के विपरीत हो रहे अर्थका समानधर्मापन करके उपसंहार कर चुकनेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा उस साधर्म्य करके दूषण उठाना साधर्म्यसम नामका प्रतिषेध है । जैसे कि शब्द ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्य ) उत्पत्तिनामक धर्म . को धारण करनेवाला होने से ( हेतु ) उत्पत्ति नामके धर्मको धारकर उपज रहे घडा, कपडा, पोथी आदिक पदार्थ अनित्य देखे गये हैं। इस प्रकार वादीकरके स्वकीय प्रतिज्ञाका उपसंहार किया जा कपर दूसरा प्रतिवादी यों प्रत्यवस्थान ( दूषणाभास ) दे रहा है कि अमित्य हो रहे घटके साधर्म्यसे यदि यह शब्द अनित्य है, तब तो नित्य हो रहे आकाशके साथ भी इस शब्दका साधर्म्य अमूर्त्तपना है। अपकृष्ट परिणामको धारनेवाले द्रव्योंको मूर्त द्रव्य कहते हैं । वैशेषिकोंके यहां पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन ये पांच द्रव्य ही मूर्त माने गये हैं । शेष आकाश काछ, रहते हैं । शब्द नामक गुणमें परिमाण
दिशा, आत्मा ये चार इव्य अमूर्त हैं । गुणोंमें गुण नहीं या रूप आदिक दूसरे गुण नहीं पाये जाते हैं। इस कारण शब्द और आकाश दोनों अमूर्त है । अतः अमूर्तपना होनेसे भाकाशके समान शब्दको निश्यपना प्राप्त हुआ । यह साधर्म्यकर के उपसंहार किये जानेपर साधर्म्यमका एक प्रकार हुआ तथा दूसरा प्रकार विपरीत साधर्म्यकर के उपसंहार किये जानेपर यों है कि शब्द अनित्य है ( प्रतिज्ञा ) उत्पन्न होना धर्मसे सहितपना होनेसे ( हेतु ) जो पदार्थ फिर अनित्य नहीं है, वह उत्पत्तिधर्मवान् नहीं बनता है । जैसे कि आकाश ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) इस प्रकार वादीद्वारा प्रतिपादन किया जा चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान देता है कि मित्य आकाशके विधर्मापनसे यदि शब्द अनित्य माना जा रहा है, तब तो आकाशके साथ मी इस शब्दका अमूर्तपना साधर्म्य है । इस कारण यों तो शब्दका नित्यपना प्राप्त हुआ जाता है । फिर भी यदि कोई यों कहना प्रारम्भ करे कि इस अमूर्त्तत्व साधर्म्यके होते संते भी शब्द नित्य नहीं होता है । तब तो हम कहेंगे कि यों तो अनित्य हो रहे घटके साधर्म्यसे अथवा मित्य हो रहे
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तत्वार्यशोकवार्तिके
आकाशके वैधयेसे शब्दका अनित्यपना भी नहीं कहना चाहिये । यह न्यायवार्तिक ग्रन्थका अभिप्राय है। न्यायसूत्रवृत्तिको रचनेवाले श्री विश्वनाथ पंचानन भट्टाचार्यका भी ऐसा मिलता, जुलता, अभिप्राय गंभीर अर्थवाले सूत्र अनुासार साधर्म्य और वैधर्म्यको दोनों वादी प्रतिवादीयोंकी ओर लगाया जा सकता है। ___ सेयं जातिः विशेषहेत्वभावं दर्शयति विशेषहेत्वभावाचानकांतिकचोदनाभासो गोत्वागोसिद्धिवदुत्पत्तिधर्मकत्वादनित्यत्वसिद्धिः। साधर्म्य हि यदन्वयव्यतिरेकि गोत्वं तस्मादेव गौः सिध्यति न सत्त्वादेस्तस्य गोरित्यत्रावादावपि भावादव्यतिरेकित्वात् । एवमगोवैधर्म्ययपि गो साधनं नैकशफत्वादित्यस्याव्यतिरेकित्वादेव पुरुषादावपि भावात् । गोत्वं पुनगवि दृश्यमानमन्वयव्यतिरेक गोः साधनमुपपद्यते तद्वदुत्पत्तिधर्मकत्वं घटादावनित्यवे सति भावादाकाशादौ चाऽनित्यत्वाभावे अभावादन्वयव्यतिरेकि शद्धे समुपलभ्यमानमनित्यत्वस्य साधनं, न पुनरनित्यघटसाधर्म्यमात्रसत्त्वादिनाप्याकाशवधर्म्यमात्रममूर्तत्वादि तस्यान्वयव्यतिरेकित्वाभावात् । ततस्तेन प्रत्यवस्थानमयुक्तं दृषणाभासत्वादिति ।
नैयायिक अपने सिद्धान्त अनुसार यों कहते हैं तिस कारण वह असत् उत्तर स्वरूप हो रही जाति ( कर्ता ) परीक्षकोंके सन्मुख विशेष हेतुके अभावको दिखला देती है। अर्थात्-इस प्रकार असमीचीन उत्तरको कहनेवाले प्रतिवादीके यहां अपने निजपक्षका साधक कोई विशेष हेतु नहीं है। और विशेष हेतुके नहीं होनेसे यह प्रतिवादीका कथन प्रेरा गया व्यभिचारकी देशनाका आभास है । अथवा न्यायवार्तिक ग्रन्थके अनुसार सत्प्रतिपक्षकी देशनाका आभास है। जब कि क्रियाहेतुगुणाश्रयत्व हेतुले बारमा क्रिया सिद्ध हो जाती है, तो विभुत्व हेतु निष्क्रियत्वको साध नहीं सकता है। व्यभिचार या संदिग्धव्यभिचार दोष खडा हो जायगा । अथवा उत्पत्तिधर्मकत्व हेतुसे शब्दका अनि. त्यपना सिद्ध हो चुका तो अमूर्तत्व हेतुसे शब्दमें नित्यपना साधा जाना व्यभिचारदोषग्रस्त है। उक्त दोनों अनुमानके हेतुओंमें सत्प्रतिपक्षदोष नहीं है। फिर भी प्रतिवादीद्वारा सत्प्रतिपक्ष दोष कोरी ऐंठसे ढकेला जा रहा है। अतः यह सत्प्रतिपक्ष दूषणका आभास है। बात यह है कि " गोत्वाद्गो सिद्धिवत् तत्सिद्धिः " इस गौतमसूत्र अनुसार गोत्वहेतुसे गौकी सिद्धि के समान उत्पत्तिधर्मसहितपन हेतुसे अनित्यपन साध्यकी सिद्धि हो जाती है । कारण कि गोत्व जिसके साथ अन्वय और व्यतिरेकको धारण कर रहा है। उस ही से गायकी सिद्धि होती है। किन्तु अन्वय व्यतिरेकोंको नहीं धारनेवाले सत्त्व, प्रमेयत्व, कृतकत्व आदि व्यभिचारी हेतुओंसे गौकी सिद्धि नहीं हो पाती है । क्योंकि उन सत्त्व आदि हेतुओंका जिस प्रकार यहां गौ, बैडोंमें सद्भाव है, वैसे ही घोडा, हाथी, मनुष्य, घट, पट आदि विपक्षोंमें भी सद्भाव पाया जाता है । अतः सत्त्व आदि हेतुओंमें व्यतिरेकिपना नहीं बनता है । इसी प्रकार गोभिन्न पदार्थीका विधर्मापन भी गौका
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तत्वार्याचन्तामणिः
ज्ञापक हेतु हो जाता है । " गवेतरासमवेतत्वे सति सकल गोसमवेतत्वं गोत्वत्वं" माना गया है। सींग और सास्ना दोनोंसे सहितपन यह गोमिन्नका वैधर्म्य है। अतः सींग, साना, सहितपनसे भी गोत्वकी सिद्धि हो सकती है। किन्तु एक खुरसहितपनातो गोमिनका वैधH नहीं है। गो मिन अश्न, गधा, मनुष्य, इनमें भी एकशफसाहितपना विद्यमान है। यानी गाय, भैस, छिरियाके दो खुर होते हैं । घोडे, गधेके एक खुर होता है । अतः पुरुष, घोडा, गधा, हाथी आदि विपक्षोंमें भी एक खुरसहितपनके ठहरजानेसे वह हेतु व्यतिरेकको धारनेवाला नहीं हुआ । इसी कारण एकखुरसहितपना, पशुपना, जीवत्व, आदि हेतु गौके साधक नहीं है । जिस हेतु में गोका साधर्म्य और अगो ( गो भिन ) का वैधर्म्य घटित हो जायगा, वह साधर्म्य वैधयं प्रयुक्त गौका साधक अवश्य बन बैठेगा। इसी दृष्टान्तके अनुसार प्रकरणमें वादीके यहां साधर्म्य और वैधय॑से उपसंहार कर दिया जाता है। हां, गौपना तो फिर गाय, बैलोंमें ही ही देखा जा रहा है। अतः उसके होनेपर होना उसके नहीं होनेपर नहीं होना, इस प्रकार अन्वय व्यतिरेकोंको धारता हुषा वह गोत्व गाय, बैलका, ज्ञापक हेतु बन आता है। बस उसीके समान उत्पत्ति धर्मसहितपन हेतु भी घट, पत्र, कटोरा, आदि सपक्षों में अनित्यपनके होते संते विद्यमान रहता है और आकाश, परम महापरिमाण आदि विपक्षोंमें अनित्यत्वके अभाव होनेपर उत्पत्तिसहितपन हेतुका भी अभाव है। इस प्रकार अन्वय व्यतिरेकोंको धारनेवाला उत्पत्तिधर्मसहितपन हेतु शब्दमें भळे प्रकार देखा जा रहा है। अतः अनित्यत्वका साधक है। किन्तु फिर अनित्य घटके साथ साधर्म्यमात्रको धारनेवाले सत्त्व, प्रमेयत्व, आदिक व्यभिचारी हेतुओंकरके शब्दमें अनित्यत्वकी सिद्धि नहीं होती है । अन्वय घट जानेपर भी उनमें व्यतिरेक नहीं घटित होता है। विधर्मपनको प्राप्त हो रहे आकाशके साथ भले ही शब्दका अमूर्तत्व आदि करके साधर्म्य है। किन्तु सर्वदा, सर्वत्र व्यतिरेकके नहीं घटित होनेपर अमूर्त्तत्व, अचेतनस्व आदिक हेतु शब्दके नित्यपनको नहीं साध सकते हैं । तिस कारण उस अन्वय व्यतिरेक सहितपनके नहीं घटित हो जानेसे प्रतिवादीद्वारा यह दूषण उठाना युक्त नहीं है। क्योंकि अन्वय व्यतिरेकोंको नहीं धारनेवाले हेतुओंका साधर्म्य वैधर्म्य नहीं बन पाता है। अतः वे प्रतिवादीके बाक्षेप कोरे दूषणामास हैं।
एतेनात्मनः क्रियावत्साधर्म्यमात्र निष्क्रियवैधय॑मात्रं वा क्रियावत्वसाधनं प्रत्याख्यातमनन्वयव्यतिरेकित्वात् अन्वयव्यतिरेकिण एव साधनस्य साध्यसाधनसामर्थ्यात् ।
नैयायिकोंका ही मन्तव्य पुष्ट हो रहा है कि इस उक्त कथन करके हमने इसका भी प्रत्याख्यान कर दिया है कि जो विद्वान् केवल क्रियावान पदार्थोके साथ समानधर्मपनको आत्माके क्रियावत्वका साधक मान बैठे हैं, अथवा क्रियारहित पदार्थोके केवल विधर्मपनको आत्माके क्रियावत्वका बापक हेतु मान बैठे हैं । बात यह है कि इन क्रियावत्साधर्म्य और निष्क्रिय वैधय॑में अन्वय, व्यतिरेकोंका सद्भाव नहीं पाया जाता है। सिद्धान्तमें अन्वय व्यतिरेकवाले हेतुकी ही साध्यको
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तत्त्वार्थकोकवार्तिके
साधनेमें सामर्थ्य मानी गयी है । हां, इनमें कुछ विशेषण लगा देनेसे आत्माके क्रियाकी सिद्धि हो सकती है। प्रकृतमें जब क्रिया हेतुगुणाश्रयत्वहेतु आमाके क्रियावस्वको साधनेमें समर्थ है, तो प्रतिबादीके सम्पूर्ण कथन दूषणाभास हो जाते हैं । अर्थात्-जैन सिद्धान्त अनुसार विशेष बात यह है कि क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वका क्रियावत्व हेतुके साथ अविनाभाव ठीक ठीक घटित नहीं होता है। देखिये, पुण्यशाली जीवोंका यहां सहारनुपरमें बैठे हुये आत्माके साथ बन्धको प्राप्त हो रहा पुण्यकर्म सैकडों, हजारों, कोस, दूर स्थित हो रहे वस्त्र, चांदी, सोना, फल, मेवा, यंत्र, पान, आदि पदार्थाका भाकर्षण कर लेता है। पापी जीवोंका पाप कांटे, विसैली वस्तु आदिमें क्रिया उत्पन कर निकटमें घर देता है । कालद्रव्य स्वयं क्रियारहित होता हुआ भी अनेक जीव, पुद्गलोंकी क्रियाको करनेमें उदासीन कारण बन जाता है । अप्राप्य आकर्षक चुम्बक पाषाण दूरवर्ती लोहेमें गतिको करा रहे क्रियाहेतुगुण आकर्षकत्वका आश्रय बना हुआ है। शरीरमें कई धातु, उपधातु, स्ववं क्रियारहित भी होती हुई उस समय अन्य रक्त, वायु, नसे आदिकी क्रियाका कारण हो ही जाती है । क्रियाके हेतु गुणको धारनेवाळे पदार्थोको एकान्तसे क्रियावान् माननेपर बनवस्था दोष भी हो जाता है। बस्तु. यहां नैयायिक जो कुछ कह रहे हैं, एक बार उनकी सम्पूर्ण बातोंको सुन लेना चाहिये ।
तत्रैव प्रत्यवस्थानं वैधयेणोपदय॑ते । यः क्रियावान्स दृष्टोत्र क्रियाहेतुगुणाश्रयः ॥ ३२७ ॥ यथा लोष्ठो न चात्मैवं तस्मानिष्क्रियः एव सः। पूर्ववद्दषणाभासो वैधर्म्यसम ईक्ष्यताम् ॥ ३२८ ॥
साधर्म्यसम, वैधय॑सम, जातिको कहनेवाले गौतम सूत्रके उत्तरदल अनुसार दूसरी वैधघसम जातिका लक्षण यह है कि तहाँ आत्मा क्रियावान् है, क्रियाके हेतु हो रहे गुणका आश्रय होनेसे, जैसे कि डेल । इस अनुमानमें ही साध्य के विधर्मापन करके प्रतिवादी द्वारा दूषण दिखलाया जाता है कि जो क्रियाके कारण हो रहे गुणका आश्रय यहां देखा गया है, वह क्रियावान अवश्य है, जैसे कि फेंका जा रहा डेल है | किन्तु आत्मा तो इस प्रकार क्रियाके कारण बन रहे गुणका आश्रय नहीं है। तिस कारणसे वह आत्मा क्रियारहित दी है। नैयायिक कहते हैं कि यह प्रतिवादीका कथन मी पूर्व साधर्म्यसम जातिके समान हो रहा वैध→सम नामका दोषामात ही देखा जायगा । क्रियावान के बाधर्म्यसे आत्मा क्रियावान् पदार्थके वैधय॑से आत्मा क्रियारहित नहीं होय, इसमें कोई विशेष हेतु नहीं है । यह प्रतिवादीका वैध→सम प्रतिषेध है।
क्रियावानात्मा क्रिया हेतुगुणाश्रयत्वाल्लोष्ठवदित्यत्र वैधम्र्येण प्रत्यवस्थानं,यः क्रियाहेतुगुणाश्रयो लोष्ठः स क्रियावान् परिच्छिन्नो दृष्टो न च तथात्मा तस्मान्न लोष्ठवक्रिया.
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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वानिति निष्क्रिय एवेत्यर्थः । सोऽयं साधयेणोपसंहारे वैधयेण प्रत्यवस्थानात् वैधर्मसमः प्रतिषेषः पूर्ववद्दषणाभासो वेदितव्यः ।
आत्मा चकना, उतरना, चढना, मर कर अन्यत्र स्थानमें जाकर जन्म लेना, आदि क्रियाओंसे युक्त है । क्योंकि वह क्रियाके प्रेरक हेतु हो रहे प्रयत्न पुण्य, पाप, संयोग इन गुणोंका धारण कर रहा है । जैसे कि फेंका हुआ देल क्रियाके कारण संयोग, वेग, गुरुत्व गुणोंको धारण कर रहा सन्ता क्रियावान् है । इस अनुमानमें वैधयंकरके असत् दूषण उठाया जाता है कि जो क्रियाहेतुगुणका आश्रय डेल है, वह क्रियावान् होता हुआ अपकृष्ट परिमाणवाला परिमित देखा गया है। आत्मा तो तिस प्रकार मध्यपरिमाणवाला नहीं है । तिस कारणसे लोष्ठके समान क्रियावान् आत्मा नहीं, इस कारण आत्मा क्रियारहित ही है, यह अर्थ प्राप्त हो जाता है। नैयायिक यों कहते हैं कि यह प्रत्यवस्थान भी साधर्म्य करके वादी द्वारा उपसंहार किये जानेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थान उठा देनेसे वैध→सम नामका प्रतिषेध है। यह भी पूर्वके समान दूषणाभास समझ लेना चाहिये । अर्थात्-गोत्वसे या अश्व आदिके वैध→से जैसे गायकी सिद्धि कर ली जाती है, उसी प्रकार यहां भी समीचीन क्रिया हेतु गुणाश्रयत्व हेतुसे क्रियावत्त्व साध्यकी सिद्धि कर दी जाती है । जो दोष साध्य और साधनकी व्याप्तिका विच्छेद नहीं कर सकता है, वह दोष नहीं है किन्तु दोषाभास है।
का पुनर्वैधर्म्यसमा मातिरित्याह ।
न्यायभाष्यके अनुसार दूसरे प्रकारकी वैधर्म्यसमा जाति फिर क्या है ! इस प्रकारको जिज्ञासा होमेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उन ग्रन्धयोंका अनुवाद करते हुये स्पष्ट कथन करते हैं।
वैधम्र्येणोपसंहारे साध्यधर्मविपर्ययात् । वैधम्र्येणेतरेणापि प्रत्यवस्थानमिष्यते ॥ ३२९ ॥ या वैधय॑समा जातिरिदं तस्या निदर्शनम् । नरो निष्क्रिय एवायं विभुत्वात्सक्रियं पुनः ॥ ३३०॥ विभुत्वरहितं दृष्टं लोष्ठादि न तथा नरः। तस्मानिष्क्रिय इत्युक्ते प्रत्यवस्था विधीयते ॥ ३३१ ॥ वैधम्र्येणैव सा तावत्कैश्चिनिग्रहभीरुभिः । द्रव्यं नमः क्रियाहेतु गुणरहितं समीक्षितं ॥ ३३२ ॥
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तस्वार्थकोकवार्तिके
नैवमात्मा ततो नायं निष्क्रियः संप्रतीयते । साधर्म्येणापि तत्रैवं प्रत्यवस्थानमुच्यते ॥ ३३३ ॥ क्रियावानेव लोष्ठादिः क्रियाहेतुगुणाश्रयः । दृष्टास्तादृक्स जीवोपि तस्मात्सक्रिय एव सः ॥ ३३४ ॥ इति साधर्म्यवैधर्म्य समयोर्दुषणोद्भवात् । सधर्मत्वविधर्मत्वमात्रात्साध्य प्रसिद्धितः ॥ ३३५ ॥
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वादीद्वारा वैधर्म्य करके पक्ष में साध्य व्याप्य हेतुका उपसंहार किया जा चुकनेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा साध्यधर्म के विपर्ययकी उपपत्ति हो जानेसे वैधर्म्य करके और उससे दूसरे हो रहे साधर्म्य - करके भी जो प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह वैधर्म्यसमा जाति इष्ट की गयी है । उसका दृष्टान्त यह है कि यह आत्मा ( पक्ष ) क्रियारहित ही है ( साध्य ) । क्योंकि आत्मा सर्वत्र व्यापक है ( हेतु ) । जो भी कोई पदार्थ फिर क्रियासहित देखा गया है, वह व्यापकपनसे रहित है । जैसे कि डेल, बाण, बन्दूक की गोली, दौड रहा घोडा आदि पदार्थ मध्यम परिमाणवाले अव्यापक हैं । तिस प्रकारका अव्यापक आत्मा नहीं है । तिस कारणसे आत्मा क्रियारहित है । इस प्रकार वादीद्वारा वैधर्म्म करके उपसंहार कह चुकनेपर निग्रह ( पराजय ) स्थानसे भय खा रहे किन्हीं प्रतिवादियों के द्वारा वैधर्म्य करके ही जो दूषण देना रूप क्रिया की जाती है कि आकाश द्रव्य तो क्रियाहेतुगुणोंसे रहित मळे प्रकार देखा गया है। इस प्रकारका आत्मा द्रव्य तो क्रियाहेतु गुणरहित नहीं है। तिस कारण से यह आत्मा क्रिया रहित नहीं है । यों भले प्रकार प्रतीत हो रहा है। क्रियावान्के वैसे आत्मा निष्क्रिय तो हो जाय, किन्तु फिर क्रियारहितके वैधर्म्यसे आत्मा क्रियावान् नहीं होय इसका नियामक कोई वादीके पास विशेष हेतु नहीं है । यों प्रतिवादी कटाक्ष झाड रहा है, यह बादीद्वारा वैधर्म्य करके आत्माके क्रियारहितपनका विभुत्वहेतुसे उपसंहार किया जा चुकनेपर प्रतिबादीद्वारा वैधर्म्य आत्माको सक्रिय साधनेवाळे वैत्रसमका उदाहरण हुआ । अब साधर्म्यकर के प्रतिवादीद्वारा प्रत्यवस्थान उठाये जानेका उदाहरण कहा जाता है कि उस ही वादीके अनुमान में यानी आत्मा क्रियारहित है, व्यापक होनेसे, यहां प्रतिवादीद्वारा साधर्म्यकरके भी इस प्रकार प्रत्यव - स्थान कहा जाता है, क्रियावान् हो रहे ही डेल, गोळी आदिक पदार्थ क्रियाहेतुगुणों के आधार देखे जाते हैं, उसी प्रकार वह प्रसिद्ध आत्मा भी क्रिया हेतु गुणोंका आश्रय है । तिस कारण वह आत्मा क्रियावान् ही है । इसमें कोई विशेषता नहीं है कि वादी करके कहे गये क्रियावान् के वैधर्म्य विभुत्वसे आत्मा आकाशके समान निष्क्रिय तो होजाय किन्तु फिर प्रतिवादी करके कहे गये
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तत्वार्थचिन्तामणिः
क्रियावान्के साधर्म्य क्रिया तुगुणाश्रयत्वसे भात्मा डेलके समान क्रियावान् नहीं होवे, इस पक्षपात प्रस्तके नियमको बनानेके लिये वादीके पास कोई विशेष हेतु नहीं है। यह सूत्र और माग्यके अनुसार पहिले साधर्म्यसमा और अब वैधर्म्यसमा जातिका उदाहरणसहित लक्षण कह दिया गया है। नैयायिक इन दोनों जातियोंमें अनेक दूषणोंके उत्पन्न हो जानेसे इनको असत् उत्तर मानते हैं। क्योंकि किसीके केवल सदृशधर्मापन या विसदृश धर्मापनसे ही किसी साध्यकी मले प्रकार सिदि नहीं हो जाती है। अतः प्रतिवादीका उत्तर प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता है ।
अथोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पसाध्यसमा साभासा विधीयते ।
इन दो जातियोंके निरूपण अनन्तर अब गौतमसूत्र अनुसार दोष आभास सहित हो रही उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यममा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा साध्यसमा, इन छह जातियोंका कथन किया जाता है । अर्थात्-पहिले इन जातियोंका कथन कर पश्चात् साथ ही ( लगे हाथ) इन प्रतिवादीके द्वारा दिये गये दूषणोंका दूषणामासपना भी सिद्ध करदिया जायगा। नैयायिकोंको हमने कहनेका पूरा अवसर दे दिया है। वे अपने मनो अनुकूल जातियोंका असमीचीन उत्तरपना बखान रहे हैं । हम जैन भी शिष्योंकी बुद्धिको विशद करनेके लिये वैसाका वैसा ही यहां लोकवार्तिक प्रन्थमें कथन कर देते हैं । सो सुनलीजियेगा।
साध्यदृष्टान्तयोधर्मविकल्पाद्वयसाध्यता। सद्भावाच मता जातिरुत्कर्षेणापकर्षतः ॥ ३३६ ॥ वावयेविकल्पैश्च साध्येन च समाः पृथक् ।
तस्याः प्रतीयतामेतल्लक्षणं सनिदर्शनम् ॥ ३३७ ॥
साध्य और दृष्टान्तके विकल्पसे अर्थात्-पक्ष और दृष्टान्तमेंसे किसी भी एकमें धर्मकी विधिप्रतासे तथा उभयके साध्यपनका सद्भाव हो जानेसे उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा ये छह जातियां पृथक् पृथक् मान ली गयी हैं । अर्थात्-पक्ष और दृष्टान्तके धर्मविकल्पसे तो पहिली पांच जातियां उठायी जाती हैं। और पक्ष, दृष्टान्त, दोनोंके हेतु आदिक धर्मोको साध्यपना करनेसे छट्ठी सघयसमाजाति उत्थित होती है । प्रकृतमें साध्य और साधनेमें से किसी भी एक विकल्पसे यानी सद्भावसे जो अविधमान हो रहे धर्मका पक्षमें आरोप करना है, वह उत्कर्षसमा है। जैसे कि शब्द ( पक्ष) अनित्य है ( साध्य ) । कृतक होनेसे (हेतु) घटके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) इस प्रकार वादी द्वारा स्थापना होनेपर प्रतिवादी कहता है कि घटमें अनित्यपनके साथ जो कृतकत्व रहता है, वह
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तो रूपके साथ ठहरा हुआ है । अतः दृष्टान्तकी सामर्थ्य से शद्ब भी रूपवान् हो जायगा और तैसा हो जाने पर विवक्षित पदार्थसे विपरीत अर्थका साधन हो जानेसे यह हेतु विशेष विरुद्ध हो जायगा । यह कथन विरुद्ध हेत्वाभास रूप हुआ । इसी प्रकार श्रवण इन्द्रियसे जाने जा रहे शद्वके साधर्म्य हो रहे कृतकत्व धर्मसे घट भी कर्ण इन्द्रियग्राह्य हो जाओ। कोई विशेषता नहीं है । यों पक्ष ( शद्ब ) दृष्टान्त (ठ) विशेष धर्मोके बढा देनेसे उत्कर्षसमा जाति हो जाती है । तथा आपकर्षसमा जातिमें तो साध्य और दृष्टान्तके सहचरित धर्मका विकल्प यानी असत्व दिखाया जाता है । तिस कारणसे अपकर्षसमा जाति तो हेतु और साध्य मेंसे अन्यतरके अभावका प्रसंग देना स्वरूप है । जैसे कि शद्व अनित्य है । कृतक होनेसे इस प्रकार वादी द्वारा कह चुकनेपर प्रतिवादी कहता है किं अनित्यपनके साथ वर्त रहे कृतकत्व धर्मसे यदि शद्वको अनित्य साधा जाता है, तब तो घट कृतकत्व और अनित्यत्व के सहचारी रूप गुणकी शद्वमें व्यावृत्ति हो जानेसे शद्वमें कृतकस्व और अनित्यत्वकी भी व्यावृत्ति हो जावेगी । कृतकत्वको व्यावृत्ति हो जानेसे हेतु स्वरूपासिद्ध हो जायगा और शद्वमें अनित्यत्वकी व्यावृत्ति हो जानेसे वाघ हेत्वाभास भी सम्भवता है । यह पक्ष में धर्मका विकल्प किया गया है। इसी प्रकार अपकर्षसमाके लिये दृष्टान्तमें धर्मका विकल्प यों करना चाहिये कि शद्व कृतकत्व के साथ श्रवणइन्द्रियग्राह्म धर्म रहता है । और संयोग, विभाग आदिमें अनित्यत्व और कृतकत्वके साथ गुणत्व रहता है । किन्तु घटमें श्रावणस्य और गुणव दोनों नहीं हैं । तिस कारण घटमें अनित्यत्व और कृतकत्व भी व्यावृत्त हो जायेंगे । इस प्रकार दृष्टान्तमें साध्य धर्मकी विकळता और साधन धर्मकी विकळतारूप देशनाभास यह जाति हुई । यदि कोई यों कहे कि वैधर्म्यसमाका इस अपकर्षमासमें ही अन्तर्भाव हो जायगा । इसपर नैयायिक यों उत्तर देते हैं कि दोषवान् पदार्थके एक होनेपर भी उसमें दोष अनेक सम्भव जाते हैं । उपाधियुक्तका सांकर्य होनेपर भी उपाधियोंका सांकर्य नहीं है । वर्ण्यसमा उक्त दृष्टान्त अनुसार यों कहा जाता है कि यदि शब्द अनित्य है, इस प्रकार वर्णन करने योग्य साधा जा रहा है, तब तो घट आदि दृष्टान्त भी साध्य यामी पक्ष हो जाओ। इस प्रकार साध्यधर्मका संदेह हो जानेसे साध्य और दृष्टान्तमें धर्म के विकल्पसे यह पांच जातियोंका मूललक्षण यहां भी घटित हो जाता है । साध्यके वर्ण्यत्वको यानी पक्ष के संदिग्धसाध्यकत्वको दृष्टान्तमें आपादन करना वर्ण्यसमा है । इसका अर्थ यह है कि पक्षमें वृत्ति जो हेतु होगा वही तो साध्य को समझानेवाला ज्ञापक हेतु हो सकेगा । किन्तु पक्ष तो यहां सन्दिग्ध साध्यवान् है । और तिसी प्रकार सन्दिग्धसाध्यवाके में वर्तरहा हेतु तुमको दृष्टान्तमें भी स्वीकार करना चाहिये । और तिस प्रकार होनेपर दृष्टान्तको भी सन्दिग्ध साध्यवानुपना हो जानेके कारण हेतुकी सपक्ष और विपक्ष में वृत्तिताका निश्चय नहीं होने से यह असाधारण हेत्वाभास है । यह नियम है कि दृष्टान्तमें हेतु निश्चित साध्य के साथ ही रहना
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तत्वार्थचिन्तामणिः
INRNIRaintamanyamniaimananthemunisandestinamummmmsantansamumanganananimassam
चाहिये । किन्तु जब यह हेतु सन्दिग्धसाध्यवालेमें पर्त रहा है तो दृष्टान्त साध्यसद्भाव संशयग्रस्त होगया । तथा सन्दिग्धसाध्यवान् में धर्तरहा हेतु यदि दृष्टान्तमें नहीं है, तब तो गमक हेतुका अभाव हो जानेसे दृष्टान्त साधनविकल हो जायगा। यह दोष है। यों प्रतिवादीका अन्तरंग अभिप्राय है । अवर्ण्यसमामें तो जैसे घट आदिक ख्यापनीय नहीं हैं वैसे ही शब्द मी अवर्य रहो। कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार साध्य यानी शब्द आदि पक्षमें दृष्टान्तवृत्ति हेतुका सर्वथा सादृश्य आपादन किया जाता है । अर्थात् -साध्यकी सिद्धिवाले दृष्टान्तमें जो हेतु है, यदि वही हेतु पक्षमें नहीं बतेंगा तो ज्ञापक हेतुके नहीं ठहरनेसे स्वरूपासिद्ध दोष हो जायगा । अतः तिस प्रकारका (दूबहू ) हेतु पक्षमें स्वीकार करना चाहिये और तैसा होनेपर संदिग्ध साध्यवान् पक्ष यह पक्षका लक्षण घटित नहीं होता है। अतः षादीका हेतु आश्रयासिद्धि दोषसे दूषित हुआ समझा जायगा । वृत्तिकारका स्पष्ट कथन यह है कि निश्चितरूपसे सिद्ध हो रहे साध्यको धारनेवाले दृष्टान्तमें जो धर्म यानी हेतु है, उसके सद्भावसे शब्द आदि पक्षमें असंदिग्ध साम्यवानपनेका आपादन कर अवर्ण्यसमा है । दृष्टान्तमें जैसे (निखित साध्यवान् वृत्ति ) हेतु होगा वैसा हेतु ही पक्षमें ठहर कर साध्यका गमक हो सकेगा। यदि दृष्टान्तमें जो हेतु निश्चित साध्यवालेमें वर्त रहा है, वह हेतु पक्ष नहीं माना जायगा तो स्वरूपासिद्धि दोष लग बैठेगा और हेतुके मान लेनेपर संदिग्ध साध्यवान् पक्ष नहीं बननेसे आश्रयासिद्धि दोष लग जाता है। तथा पाचवी ( यहां ) सातवीं (पहिलीसे) विकल्प समा जातिमें तो मूललक्षण यों घटाना चाहिये कि पक्ष और दृष्टान्तमें जो धर्म उसका विकल्प यानी विरुद्ध कल्प व्यभिचारीपन आदिकसे प्रसंग देना है, यह विकल्पसमाके उत्थानका बीज है। चाहे जिस किसी भी धर्मका कही भी व्यभिचार दिखलामे करके धर्मपमकी अविशेषतासे प्रकरण प्राप्त हेतु का भी प्रकरणप्राप्त साध्य के साथ व्यभिचार दिखला देना विकल्पसमा है । जैसे कि शब्द अमित्य है, कतक होनेसे, इस प्रकार वादीके कह चुकनेपर यहां प्रतिवादी कहता है कि कृतकत्वका गुरुत्व के साथ व्यभिचार देखा जाता है। घट, पट, पुस्तक, आदिमें कृतकस्व है । साथमें भारीपन भी है। किन्तु बुद्धि, दुःख, द्वित्व, भ्रमण, मोक्ष, आदिमें कृतकपना होते हुये भी गुरुत्व (भारीपन) नहीं है और गुरुत्वका अनित्यके साथ व्यभिचार देखा जाता। यधपि नैयायिक वैशेषिक सिद्धान्त अनुसार गुरुत्वका मनित्यत्वके साथ व्यभिचार दिखलाना कठिन है।" गुरुणी द्वे रसवती” पृथ्वी और नलमें ही गुरुव माना गया है। भले ही पृथ्वी परमाणु और जीय परमाणुओंमें अनित्यत्वके नहीं रहते हुये मी गुरुत्व मान लिया जाय । वस्तुतः विचारनेपर परमाणुओंमें गुरुत्व नहीं सिद्ध हो सकेगा। अस्तुः । तथा अनित्यत्वका मूर्तस्वके साथ मन या पृथ्वी, जल आदिकी परमाणुओंमें व्यभिचार देखा जाता है। जब कि धर्मपनकी अपेक्षा कृतकत्व, अनित्यत्वमें कोई विशेषता नहीं है, तो कृतकत्व भी अनित्यत्व का व्यभिचार कर लेवें । इस प्रकार यह वादीके हेतुपर विकल्पसमामें अनेकान्तिक हेस्वाभास चक्र देकर प्रतिवादीद्वारा उठाया गया है । छडी या माठवी साम्यसमा आति तो साम्यधर्मका दृष्टान्तमें
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प्रसंग देनेसे अथवा पक्ष और दृष्टान्त दोनोंके धर्म हेतु आदिके साध्यपनसे उठादी जाती है । उसका उदाहरण यों है कि जैसे घट है, तैसा शब्द है, तब तो जैसा यह शब्द है, तैसा घट भी अनित्य हो जाय । यह कह दिया जाय यदि शब्द साध्य है, तिस प्रकार घट भी साध्य हो जाओ । यदि घडा अनित्य साधने योग्य नहीं है, तो शब्द भी अनित्य साधने योग्य नहीं होवे । अथवा कोई अन्तर दिखलाओ। यह साध्यसम है, एक प्रकार आश्रयासिद्ध हेत्वाभास समझना चाहिये । इस ढंग से नैयायिकों के यहां उत्कर्षकरके अपकर्षकरके वर्ण्यकर के अवर्ण्यकर के विकल्पकरके और साध्यकरके सम हो रही पृथक् पृथक् छह जातियां हैं। उनका लक्षण दृष्टान्तसहित यह समझ लेना चाहिये | श्री विश्वनाथ पंचाननने स्वकीय वृत्तिमें उक्त प्रकार विवरण किया है ।
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यदाह, साध्यदृष्टांतयोर्धर्मविकल्पादुमयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवर्ण्यवर्ण्यविकल्पसाध्यसमा इति ।
जो ही न्यायसूत्रकार गौतमने उत्कर्षसमा आदि छह जातियोंके विषयमें यों सूत्र कहा है कि साध्य और दृष्टान्तमें धर्मका विकल्प करनेसे अथवा उभयको साध्यपना करनेसे उत्कर्षसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा इस प्रकार छह जातियोंका लक्षण बन जाता है ।
तत्रोत्कर्षसमा तावलक्षणतो निदर्शनतथापि विधीयते ।
उन छह पहिले पढ़ी गयी उत्कर्षसमा जातिका लक्षणसे और दृष्टान्त कथन करनेसे भी अब विधान किया जाता है ।
दृष्टांतधर्मं साध्यार्थे समासंजयतः स्मृता । तत्रोत्कर्षसमा यद्वत्क्रियावज्जीवसाधने ॥ ३३८ ॥ क्रियाहेतुगुणासंगी यद्यात्मा लोष्ठवत्तदा ।
तद्वदेव भवेदेष स्पर्शवानन्यथा न सः ॥ ३३९ ॥
न्यायभाष्यकार उत्कर्षसमाका लक्षण दृष्टान्तसहित यों कहते हैं कि दृष्टान्तके धर्मको अधिक
पने करके साध्यरूप अर्थमें भले प्रकार प्रसंग करा रहे प्रतिवाद के ऊपर उत्कर्षसमा जाति उठायी जाय, यह प्रक्रिया प्राचीन ऋषि आम्नायसे चली आ रही है । जिस प्रकार कि उस ही प्रसिद्ध अनुमानमें जीवको क्रियावान् साधनेपर यों प्रसंग उठाया जाता है कि क्रियाके हेतु हो रहे गुणका सम्बन्धी आत्मा यदि डे के समान क्रियावान है, तो उस ही डेळके समान यह आत्मा स्पर्शगुण
का भी प्राप्त हो जाता है। अन्यथा यानी आत्मा डेळके समान यदि स्पर्शवान नहीं है, तो वह आत्मा के समान क्रियावान् भी नहीं हो सकेगा, यह उत्कर्षसमा जाति है ।
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दृष्टांत धर्म साध्ये समासंजयतः स्मृतोत्कर्षसमा जातिः स्वयं, यथा क्रियावानात्माक्रियाहेतुगुणयोगाल्लोष्ठवत् इत्यत्र क्रियावज्जीवसाधने प्रोक्ते सति परः प्रत्यवतिष्ठते । यदि क्रिया हेतु गुणासंगी मांल्लोष्ठवत्तदा कोष्ठवदेव स्पर्शवान् भवेत् । अथ न स्पर्शवांल्लोष्ठवदात्मा क्रियावानपि न स स्यादिति विपर्यये वा विशेषो वाच्य इति ।
बार्तिकों में कहे गये न्यायभाग्य उक्तका ही विवरण जैनों द्वारा इस प्रकार लिखा जाता है कि दृष्टान्त अतिरिक्त धर्मका साध्य ( पक्ष ) में भले प्रकार प्रसंग दे रहे प्रतिवादी के ऊपर स्वयं उत्कर्ष - समा जाति उठ बैठी यानी चली आ रही हैं । जैसे कि आत्मा ( पक्ष ) क्रियावान् है ( साध्य ) । 1 क्रिया के सम्पादक कारण गुणोंका संसर्गी होनेसे ( हेतु ) उछलते, गिरते हुये डेळके समान (अन्वयदृष्टान्त) । इस प्रकार यहां अनुमानमें वादी द्वारा जीवके क्रियासहितपनका मळे प्रकार साधन कह चुकने पर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि क्रिया हेतु गुणोंका सम्बन्धी आत्मा यदि डेळके समान क्रियावान् है, तो डेळके समान ही स्पर्शषान् हो जाओ । अब वादी यदि आत्माको डेके समान स्पर्शवान् नहीं मानना चाहेगा तब तो वह आत्मा उसी प्रकार क्रियावान् भी नहीं हो सकेगा । ऐसी दशामें भी यदि वादी आत्माको क्रियावान् ही अकेला माने स्पर्शवान् स्वीकार नहीं करे तो इस विपरीत मार्ग अवलम्बमें उस वादीको कोई विशेष हेतु कहना चाहिये | यहांतक उत्कर्षमा जाति न्यायभाष्य अनुसार कई दी गयी ।
का पुनरपकर्षसमेत्याह ।
फिर यह बताओ कि वह अपकर्षसमा जाति क्या है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी न्यायभाष्य अनुसार अनुवाद करते हुये वार्तिकको कहते हैं ।
साध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं दृष्टांततो वदन् । अपकर्षसमां वक्ति जातिं तत्रैव साधने ॥ ३४० ॥
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लोष्ठः क्रियाश्रयो दृष्टो विभुः कामं तथास्तु ना । तद्विपर्ययपक्षे वा वाच्यो हेतुर्विशेषकृत् ॥ ३४९ ॥
साधने योग्य साध्यविशिष्ट धर्मीमें दृष्टान्त की सामर्थ्य से अविद्यमान हो रहे धर्मके अभावको कह रहा प्रतिवादी अपकर्षसमा नामकी जातिको स्पष्ट कह रहा है। जैसे कि उस ही प्रसिद्ध अनुमानमें आत्माका क्रियासहितपना वादी द्वारा साधे जानेपर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है। कि क्रियाका आश्रय डेल तो अव्यापक देखा गया है। उसी प्रकार आत्मा भी तुम्हारे मनोनुकूल अव्यापक हो जाओ । यदि तुमको विपरीत पक्ष अभीष्ट है,
यानी
कि डेक दृष्टान्तकी सामर्थ्य से
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
भास्मामें अकेली क्रिया ही तो मानी जाय, किन्तु अव्यापकपना नहीं माना जाय, इसमें विशेषताको करनेवाला कोई हेतु तुमको कहना चाहिये । विशेषक हेतुके नहीं कहनेपर आत्माका अव्यापकपन ढक नहीं सकेगा, जो कि अव्यापकपन सम्भवतः तुमको अभीष्ठ नहीं पड़ेगा।
तत्रैव क्रियावज्जीवसाधने प्रयुक्ते सति साध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं इष्टांतात् समा. संजयन् यो पक्ति सोपकर्षसमानाति वदति । यथा लोष्ठः क्रियाश्रयोऽसर्वगतो दृष्टस्तदात्मा सदाप्यसर्वगतोस्तु विपर्यये वा विशेषकद्धतुर्वाच्य इति ।
पहा ही परार्थानुमानमें वादीद्वारा समीचीन या असमीचीन हेतुकरके क्रियावान् जीयके साधनेका प्रयोग प्राप्त होनेपर जो प्रतिवादी साध्य धीमें धर्मके अभावको दृष्टान्तसे भळे प्रकार प्रसंग करा रहा बक रहा है, वह अपकर्षसमाजातिको स्पष्टरूपसे यों कह रहा है । जैसे कि कोष्ठ क्रियावान् हो रहा अव्यापक देखा गया है, उसीके समान आत्मा भी सर्वदा असर्वगत हो आओ अपवा विपरीत मानमेपर कोई विशेषताको करनेवाला कारण बतलाना चाहिये । जिससे कि डेळका एक धर्म तो भारमामें मिलता रहे और डेलका दूसरा धर्म आत्मामें नहीं ठहर सके । यहातक अपकर्षक्षमा आति कह दी गयी।
वण्यांवयंसमौ प्रतिषेधौ कावित्याह ।
अब वर्ण्यसम और अवर्ण्यसग प्रतिषेध कौन है ! ऐसी जिज्ञासा होमेपर इन दो प्रतिषेधों ( जाति ) को श्री विद्यानन्द आचार्य स्वकीय वार्तिकोंद्वारा इस प्रकार कहते हैं, सो सुनिये ।
ख्यापनीयो मतो वर्यः स्यादवण्यों विपर्ययात् । तत्समा साध्यदृष्टान्तधर्मयोरत्र साधने ॥ ३४२ ॥ विपर्यासनतो जातिर्विज्ञेया तद्विलक्षणा । भिन्नलक्षणतायोगात्कथंचित्पूर्वजातिवत् ॥ ३४३ ॥
चतुरंगवादमें प्रसिद्ध कर कथन करने योग्य स्थापनीय तो यहां वर्ण्य माना गया है। और ख्यापनीयके विपर्ययसे जो अवर्णनीय धर्म है, वह अवर्ण्य माना जाता है। जैसे कि यहां अनुमानमें जीवका क्रियासहितपना साधनेपर साध्य और दृष्टान्तके धर्मोका विपर्यास कर देनेसे उस वर्ण्यकरके और अवयंकरके सम यानी प्रतिषेधको प्राप्त हो रही वर्ण्यसमा और अवर्ण्यसमा जाति समझनी चाहिये । ये दोनों जातियां उस उत्कर्षमा और अपकर्षसमासे विभिन्न हो रही विलक्षण है। क्योंकि कथंचित भिन्न भिन्न लक्षणोंका सम्बन्ध होजानेसे पूर्वकी साम्यसमा वेधर्म्यसमा जातियां इम उत्कर्षसमा, अपकर्षसमासे विभिन्न हैं।
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ख्यापनीयो वर्णास्तद्विपर्ययादख्यापनीयः पुनरवर्ण्यस्तेन व]नावपेन च समा जातिवर्यसमावर्ण्यसमा च विज्ञेया । अत्रैव साधने साध्यदृष्टान्तधर्मयोविपर्यासनात् । उत्कर्षापर्षसमाभ्यां कुतोनयोर्मेद इति चेत्, लक्षणभेदात् । तथाहि-अविद्यमानधर्मव्यापक उत्कर्षः विद्यमानधर्मापनयोऽपकर्षः। वय॑स्तु साध्योऽवर्योऽसाध्य इति तत्प्रयोगाज्जातयो विभिमलक्षणाः साधर्म्यवैधयंसमवत् ।।
न्यायभाष्यकार कहते हैं कि ख्यायनीय यहां वर्ण्य है । और उसके विपरीतपनेसे अख्याप. मीय तो फिर अवर्ण्य कहा गया है । उस वर्ण्य और अवर्ण्यकरके जो समीकरण करनेके लिये प्रयोग है, वह वर्ण्यसमा और अवर्ण्यसमा जाति विशेषरूपसे जान लेनी चाहिये । यहां ही आत्मा क्रियावान् है, ऐसा साधनेपर साध्य और दृष्टान्तके धर्मके विपर्याससे उक्त जातियां हो जाती है। यदि कोई यहाँ यों पूछे कि इन जातियोंका पहिले उत्कर्षसमा और अपकर्षसमासे भेद भला किस कारणसे है ! इस प्रकार प्रश्न उठानेपर तो नैयायिकोंका उत्तर यों है कि लक्षणोंका भेद होनेसे इमका उनका भेद प्रसिद्ध ही है। उसीको स्पष्ट कर यों समझ लीजियेगा कि पक्षमें अविधमान हो हे धर्मको पक्षमें व्याप्त करनेका प्रसंग देना उत्कर्ष है। और विधमान हो रहे धर्मका पक्षसे अलग कर देना अपकर्ष है। किन्तु वर्ण्य तो साधने योग्य होता है और अवर्ण्य असाध्य है। अर्थात्-दृष्टान्तमें संदिग्धसाध्यसहितपनेका आपादन करना वर्ण्यसमा है। और पक्षमें असंदिग्ध साध्यसहितपनका प्रसंग देना अवर्ण्यसमा है। इस प्रकार इनमें अन्तर है। उन मिल लक्षणोंका प्रकृष्ट सम्बन्ध हो जानेसे नातियां भी मिन भिन्न अनेक लक्षणोंको धारती हुई साधर्म्यसम और वैधर्मासमके समान न्यारी न्यारी मानी जाती है। सभी दार्शनिकोंने मिन्न लक्षणपनेको विभिन्नताका साधन इष्ट किया है।
साध्यधर्मविकल्पं तु धर्मातरविकल्पतः । प्रसंजयत इष्येत विकल्पेन समा बुधैः ॥ ३४४॥ क्रियाहेतुगुणोपेतं किंचिद्गुरु समीक्ष्यते । परं लघु यथा लोष्ठो वायुश्चेति क्रियाश्रयं ॥३४५॥ किंचित्तदेव युज्येत यथा लोष्ठादि निष्क्रियं । किंचिन्न स्याद्यथात्मेति विशेषो वा निवेद्यताम् ॥ ३४६ ॥ न्यायभाषाकारने विकल्पसमाका लक्षण यों किया है कि साधनधर्मसे युक्त हो रहे दशान्तमें
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तत्वार्थलोकवार्तिके
धर्मान्तरके विकल्पसे साध्यधर्मके विकल्पका प्रसंग हो रहे प्रतिवादीके ऊपर तो विद्वानों करके विकल्पसमा जातिका उठाया जाना इष्ट किया गया है। उसका दृष्टान्त यों है कि हेतु गुणोंसे युक्त हो रहा कोई एक पदार्थ तो भारी देखा जाता है। जैसे कि डेल या गोली है। और क्रिया हेतु गुणके बाश्रय कोई कोई पदार्थ गुरु नहीं देखा जाता है। यानी हलका विचार किया जाता है। जैसे कि वायु है। उसीके समान कोई पदार्थ क्रियाहेतुगुणाश्रय होते हुये क्रियावान् हो जायंगे, जैसे कि लोष्ठ बादिक है । और कोई कोई क्रियाहेतुगुणाश्रय होते हुये भी क्रियारहित बने रहेंगे,जैसे कि मात्मा है। यह युक्त प्रतीत होता है। यदि कोई वादीको इसमें विशेषता दीख रही होय और वे मात्माको निष्क्रिय नहीं कहना चाहें तो वे विशेषहेतुका निवेदन करें। अन्यथा उनकी बात नहीं मानी जा सकेगी। भावार्थ-डेढ और वायुका हलके, भारीपनसे द्वैविध्य माननेवाळेको डेल और आत्माका सक्रिय, निष्क्रियपनेसे वैविध्य मानना स्वतः प्राप्त हो जाता है। यहां जैनोंका अभिमत इतना अधिक जान लेना चाहिये कि नैयायिक तो पृथ्वी और जळमें ही गुरुत्वको मानते हैं । किन्तु
जैन विद्वान स्कन्धस्वरूप अग्नि और वायुमें भी भारीपन अमीष्ट करते हैं । विज्ञान भी इस विषयका साक्षी है।
विकल्पो विशेष साध्यधर्मस्य विकल्पः साध्यधर्मविकल्पस्तं धर्मातरविकल्पात्मसंजयतस्तु विकल्पसमा जातिः तत्रैव साधने प्रयुक्त पर प्रत्यवतिष्ठते। क्रियाहेतुगुणोपेतं किंचिद्गुरु दृश्यते यथा कोष्ठादि किंचित्तु लघु समीक्ष्यते यथा वायुरिति । तथा क्रियाहेतुगुणो. पेतमपि किंचिंक्रियाश्रयं युज्यते यथा लोष्ठादि, किंचित्तु निष्क्रियं यथात्मेति वावर्ण्यसमाभ्यामियं भिन्ना तत्रैवं प्रत्यवस्थानाभावात् वर्ष्यावयॆसमयोःवं प्रत्यवस्थानं, यद्यात्मा क्रियावान् वर्ण्या साध्यस्तदा लोष्ठादिरपि साध्योस्तु । अथ लोष्ठादिरवर्ण्यस्तात्माप्यवर्योस्तु, विशेषो वा वक्तव्य इति । विकल्पसमायां तु क्रियाहेतुगुणाश्रयस्य गुरुलघुविकल्पवत्सक्रियनिष्क्रियत्वैविकल्पोस्त्विति प्रत्यवस्थानं । अतोसौ भिन्ना ।
उक्त वार्तिकोंमें कही गयी विकल्पसमाका मूल व्याख्यान इस प्रकार न्यायभाष्यमें लिखा है कि विकल्पममा जातिमें पडे हुये विकल्प शब्द का अर्थ विशेष है । साध्यधर्मका जो विकल्प है। वह साध्यधर्मविकल्प कहा जाता है । उस साध्यधर्म विकल्पको अन्य धर्मके विकल्पसे प्रसंग कर प्रत्यवस्थान उठानेवाले प्रतिवादीके तो विकल्पसमा जाति लागू हो जाती है। जैसे कि वहां ही आत्माके क्रियावत्त्वको साधने के लिये हेतुका प्रयोग किये जानेपर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान देता है कि क्रिया हेतुगुणसे युक्त हो रहा कोई पदार्य तो भारी देखा जाता है। जैसे कि डेल, इञ्जन, बाण, आदिक हैं और क्रियाहेतु गुणों से युक्त हो रहा तो कोई कोई पदार्थ हलका देखा जा रहा है। जैसे कि
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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वायु है । तिस ही प्रकार क्रियाहेतुगुणों से सहित हो रहा भी कोई पदार्थ तो क्रियावान् हो जाय यह ठीक है । जैसे कि डेल आदि हैं । क्रियाहेतुगुणसे उपेत होता संता भी कोई पदार्थ क्रियारहित बना रहो । जैसे कि आत्मा है । यह विकल्पसमा जाति हुई। यह विकल्पसमा जाति पहिली वर्ण्यसमा जातियोंसे पृथकू ही है । क्योंकि वहां इस प्रकारका प्रत्यवस्थान देना नहीं पाया जाता है। देखिये, बसमा अवर्ण्यसमा तो इस प्रकारका प्रत्ययस्थान है कि मात्मा क्रियावान्, यो वर्णनीय होता हुआ, यदि साध्य बनाया गया है तो डेल, गोला आदि दृष्टान्त भी साध्य बना लिये जाओ । अब कोष्ठ आदिक तो वर्णनीय नहीं है, तो आत्मा मी अख्यायनीय बना रहो। अथवा आत्मा और डेमें कोई विपरीतपनकी विशेषता होय तो उस विशेषको सबके सन्मुख ( सामने ) कहना चाहिये । किन्तु इस विकल्पसमामें तो क्रियाहेतुगुणों के अधिकरण हो रहे द्रव्योंके भारीपन, हलकापन पन विकल्पोंके समान क्रियासहितपन और क्रियारहितपनका विकल्प हो जाओ। इस प्रकार प्रत्यवस्थान उठाया गया है। इस कारण से यह ( वह ) विकल्पसमा जाति उन वर्ण्यसमासे भिन्न ही है ।
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का पुनः साध्यसमेत्याह ।
साध्यसमा जाति फिर क्या है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज न्याय भाष्यका अनुवाद करते हुए समाधान कहते हैं ।
हेत्वादिकांगसामर्थ्ययोगी धर्मोवधार्यते ।
साध्यस्तमेव दृष्टांते प्रसंजयति यो नरः ॥ ३४७ ॥ तस्य साध्यसमा जातिरुद्भाव्या तत्त्ववित्तकैः ।
यथा लोष्टस्तथा चात्मा यथात्मायं तथा न किम् ॥ ३४८ ॥ लोष्ठः स्यात्सक्रियश्वात्मा साध्यो लोष्ठोपि तादृशः । साध्योस्तु नेति चेल्लोष्ठो यथात्मापि तथा कथं ॥ ३४९ ॥
साध्य में साध्यका अर्थ तो हेतु, पक्ष, आदिक अनुमानांगोंकी सामर्थ्य से युक्त हो रहा धर्म निर्णीत किया जाता है । उस ही साध्यको जो प्रतिवादी मनुष्य दृष्टान्तमें प्रसंग देनेकी प्रेरणा करता है, उस मनुष्य के ऊपर जिनके विद्या ही धन है, अथवा जो प्रकाण्ड तत्ववेत्ता विद्वान् हैं, उन करके साध्यसमा जाति उठानी चाहिये । वह मनुष्य कहता है कि यदि जिस प्रकारका कोष्ठ है, उस प्रकारका आत्मा प्राप्त हो जाता है, तो जैसा आत्मा है वैसा कोष्ठ क्यों नहीं हो जाये ! यदि आत्मा क्रियावान् होता हुआ साध्य हो रहा है, तो डेल मी तिस प्रकारका क्रियावान् साध किया जाभो ।
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४८.
तत्वाथलाकवार्तिके
यदि लोष्ठको क्रियावाम् साधने योग्य जिस प्रकार नहीं कहोगे, तब तो तिस प्रकार आत्मा भी मला कैसे क्रियावान् साधने योग्य हो सकेगा ! अर्थात्-नहीं ।
हेत्वाद्यवयवसामर्थ्ययोगी धर्मः साध्योऽवधार्यते तमेव दृष्टान्ते प्रसंजयति यो वादी तस्य साध्यसमा जातिस्तत्त्वपरीक्षकैरुद्भावनीया । तद्यथा-तत्रैव साधने प्रयुक्ते परः प्रत्यवस्थानं करोति यदि यथा कोष्ठस्तथात्मा, तदा यथात्मा तथायं लोष्ठः स्यात् सक्रिय इति, साध्यचारमा लोष्ठोपि साध्योस्तु सक्रियः इति । अथ लोष्ठ क्रियावान् न साध्यस्तामापि क्रियावान् साध्यो मा भूत, विशेषो वा वक्तव्य इति ।
___ न्यायभाष्यकार यहां साध्यका अर्थ यो निणीत करते हैं कि अनुमानके हेतु, व्याप्ति, आदिक अवयवों या उपाङ्गोंकी सामर्थ्यका सम्बन्धी हो रहा धर्म साध्य है। उसका सम यानी उस ही साध्य का जो वादी दृष्टान्तमें प्रसंग दे रहा है, तत्त्वोंकी परीक्षा करनेवाले विद्वानों करके उस वादीके उपर साध्यसमा जाति उठानी चाहिये । उसका दृष्टान्त यों हैं कि वहां ही प्रसिद्ध अनुमानमें आत्माके क्रियासहितपनको साध्य करनेके लिये हेतुका प्रयोग कर चुकीपर उससे न्यारा दूसरा वादी प्रत्यव. स्थानका विधान करता है कि जिस प्रकारका लोष्ठ है यदि उसी प्रकारका आत्मा है, तब तो जैसा मात्मा है वैसा यह डेक क्रियासहित हो जायो । दूसरी बात यह है कि यदि आत्मा साध्य है तो डेल मी यथेच्छ इस प्रकार क्रियासहित साध्य हो जाओ । अब यदि डेल कियावान् साध्य नहीं है, तो आत्मा भी क्रियावान साधने योग्य नहीं होवे । हां, आत्मा या डेलमें कोई विशेषता होय तो वह तुमको यहां कहनी चाहिये । लज्जा करने की कोई बात नहीं है।
कथमासां दृषणाभासत्वमित्याह ।
साध्यसमा और वैधर्म्यसमा जातियां दूषणाभास हैं, यह पहिले ही समझा दिया गया था । अब यह बताओ कि इन उत्कर्षसमा आदिक छल जातियोंको दूषणाभासपना किस प्रकार है ! ऐसी शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य न्यायमत अनुसार समाधानको कहते हैं।
दूषणाभासता त्वत्र दृष्टान्तादिसमर्थना । युक्ते साधनधर्मपि प्रतिषेधमलब्धितः ॥ ३५० ॥ साध्यदृष्टान्तयोर्धमविकल्पादुपवर्णितात् । वैधयं गवि सादृश्ये गवयेन यथा स्थिते ॥ ३५१ ॥ साध्यातिदेशमात्रेण दृष्टान्तस्योपपत्तितः । साध्यत्वासंभवाचोक्तं दृष्टान्तस्य न दूषणं ॥ ३५२ ॥
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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ये जातियां समीचीन दूषण नहीं हैं। दूषणसदृश दीख रही दूषणामास हैं । इनमें दूषणाभासपना तो यों समझा जाता है कि दृष्टान्त आदिककी सामर्थ्य से युक्त हो रहे अथवा विपक्ष में देतुकी व्यावृत्ति करते हुये पक्ष में हेतुका ठहरना रूप समर्थन और दृष्टान्त आदिसे युक्त हो रहे समीचीन हेतुरूप धर्मके वादीद्वारा प्रयुक्त किये जानेपर भी पुन: साध्य और दृष्टान्तके व्याख्यान किये जा चुके, केवळ धर्मविकल्पसे तो प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है । गोतमसूत्र है कि “ किञ्चित्साधर्म्यादुपसंहारसिद्धेर्वैधम्र्म्यादिप्रतिषेधः कुछ थोडासा दृष्टान्त और पक्षका व्याप्तिसहित साधर्म्य मिल जाने से वादीद्वारा उपसंहारकी सिद्धि हो जानेसे पुनः प्रतिवादीद्वारा व्याप्ति निरपेक्ष उसके वैसे ही निषेध नहीं किया जा सकता है । जैसे कि गायमें गवय ( रोझ ) के साथ सादृश्य व्यवस्थित हो जानेपर पुनः किसी सास्ना धर्म करके हो रहा विधर्मपना तो धर्मविकल्पका कुचोथ उठाने के लिये नहीं प्राप्त किया जाता है । अतः उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अ समा, विकल्पसमा, साध्यसमा ये उठाये गये दूषण समीचीन नहीं हैं। वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, साध्यसमा, ये तीन जातियोंके असत् उत्तरपनको पुष्ट करनेवाला दूसरा समाधान भीं यों है । गौतम सूत्रमें लिखा है किं “ साध्यातिदेशाच्च दृष्टान्तोपपत्तेः” उपमान या शाब्दबोधमें वृद्धवाक्य या सहज योग्यतावश संकेतपूर्वक वाच्यवाचकशक्तिके ग्राहक वाक्यको अतिदेश वाक्य कहते हैं । केवल साध्य के अतिदेशसे ही दृष्टान्तका दृष्टान्तपन जब सिद्ध हो चुका, अतः दृष्टान्तको पुनः साध्यपना असम्भव है । इस कारण प्रतिवादीद्वारा कहा जा चुका दृष्टान्तका दूषण उचित नहीं है । दृष्टान्तके सभी धर्म पक्षमें नहीं मिल जाते हैं । वृत्तिकारके अनुसार इन दो सूत्रोंको छेऊ जातियोंमें या तीन जातियोंमें यों घटा लेना चाहिये | उत्कर्षसमामें साध्यसिद्धिके वैधर्म्य यानीं व्याप्तिनिरपेक्ष साधर्म्य मात्र से ही प्रतिबादीद्वारा प्रतिषेध यानीं अविद्यमान धर्मका आरोप नहीं किया जा सकता है । अतः शब्द में रूपसहितपन और घटमें श्रवण इन्द्रियद्वारा ग्राह्यपना अधिक नहीं धरा जा सकता है । अन्यथा प्रमेयत्वरूप असाधक धर्मके साधर्म्यसे तुम्हारा दूषण भी असमीचीन हो जायगा । प्रतिषेध को नहीं साध सकेगा । जब कि अनित्यत्वके साथ व्याप्य हो रहे कृतकत्वसे शब्द में अनित्यपनका उपसंहार कर दिया है, तो ऐसी दशामें कृतकपना तो रूपका व्याप्य नहीं है । जिससे कि शब्द में रूपका भी अधिक हो जाना आपादन किया जा सके । इसी प्रकार अपकर्ष समा प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है । जिससे कि शब्द में रूपका निषेध हो जानेसे अनित्यपनका अभाव भी ठोंक दिया जाय । यानीं गांठके अनित्यपनकी भी हानि कर दी जाय । वर्ण्यसमा में भी कुछ साधर्म्य मिल जानेसे समीचीन हेतुसे यदि साध्यसिद्धि की जा सकी है, तो तैसे हेतुसे सहितपना ही दृष्टान्तपनेका प्रयोजक है । किन्तु पक्षमें जितने विशेषणोंसे युक्त हेतु होय दृष्टान्तमें उतने सम्पूर्ण विशेषणोंसे युक्त हो रहे हेतुसे सहितपना दृष्टान्तपनका प्रयोजक नहीं है । अन्यथा तुमको भी दूषण योग्य पदार्थका दृष्टान्त करना चाहिये । वह भी दृष्टान्तके
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तत्त्वार्यशोकवार्तिके
सभी धर्मोके नहीं मिलनेसे दृष्टान्त नहीं हो सकेगा। अतः दृष्टान्तमें वर्ण्यपनेका यानी सन्दिग्धसाध्यसहितपनका आपादन करना उचित नहीं । इसी प्रकार अवर्ण्यसमामें भी वैध→से यानी निश्चितसाध्यवाले दृष्टान्तके वैधर्म्य हो रहे संदिग्ध साध्य सहितपनेसे पक्षमें प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है। दृष्टान्तमें देखे गये व्याप्तियुक्त हेतुका पक्षमें सद्भाव हो जानेसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है। किन्तु दृष्टान्तमें वर्त रहे हेतुके परिपूर्ण धर्मोसे युक्त हो रहे हेतुका पक्षमें सद्भाव मानना उचित नहीं है । अतः आत्मा, शब्द, आदि पक्षोंमें दृष्टान्तके समान निश्चित साध्ययुक्तपनका आपादन नहीं किया जा सकता है, जिससे कि स्वरूपासिद्ध या आश्रयासिद्ध दोष हो सकें । इसी प्रकार विकल्पसमामें भी प्रकरण प्राप्त साध्यके व्याप्य हो रहे प्रकृत हेतुसे साध्यसिद्धि जब हो चुकी है, तो उसके वैधर्म्यसे यानी किसी एक अनुपयोगी धर्मका कहीं व्यभिचार उठा देने मात्रसे प्रतिवादी द्वारा किया गया प्रतिषेध नहीं संभवता है । यों कृतकत्व, गुरुत्व, अनित्यत्व, मूर्त्तत्वका टेडा मेडा मिलाकर चाहे जिस किसीसे व्यभिचार दिखला देनेसे ही प्रकृत हेतु साध्यका असाधक नहीं हो जाता है । अति प्रसंग हो जायगा, देखिये । जगत्में जो अधिक आवश्यक होता है, उसका मूल्य अधिक होता है । किन्तु शरीर स्वस्थताके लिये भोज्य पदार्थोसे जल और जलसे वायु अधिक आवश्यक है। किन्तु मूल्य इनका उत्तरोत्तर न्यून है । भूषण, वस्त्र, अन्नमें, भी यही दशा है । तथा लोकमें देवदत्तका स्वामी देवदत्तको मान्य है । संभव है वह प्रभु देवदत्तके पुत्र जिनदत्तको भी मान्य होय । एतावता जिनदत्तको माननीय समझनेवाले इन्द्रदत्तको या इन्द्रदत्तके छोटे भाईको भी वह स्वामी माननीय होय ऐसा नियम नहीं देखा जाता है । लौकिक नातोके अनुसार जमाताका सत्कार किया जाता है। किन्तु जामाताका जामाता और उसका भी जामाता ( जमाई ) यों त्रैराशिक वित्रिके अनुसार अत्यधिक सत्कार करने योग्य नहीं बन बैठता है । कहीं कही तो उत्तरोत्तर मान्यता बढते बढ़ते चौथी पांचवीं कोटिपर जाके नाते विशेष हलकी पड जाती है । जीजाका जीजा उसका भी जीजा पुनः उसका भी जीजा तीसरी चौथी कोटिपर सालेका साला और उसका भी साला या उसका भी साला हो जाता है । तथा लडकी की ननद और उसकी भी ननद कहीं पुत्रवधू हो जाती है। शिष्यों के शिष्य कहीं गुरुजीके जामाता बन बैठते हैं । न्यायालयमें अधिकारी देवदत्तके सन्मुख देवदत्तके पिता के अधिक उम्रबाळे मान्य मित्रको विनीत होकर वक्तव्य कहने के लिये बाध्य होना पड़ता है। उपकारीका उपकारी मनुष्य कचित् प्रकृत मनुष्यका अपकार कर बैठता है। बात यह है कि खण्ड रूपसे दोष या गुणके मिल जानेपर परिपूर्ण रूपसे वह नियम नहीं बना लिया जाता है। जिससे कि यों बादरायण संबन्ध घटाकर अनेकांतिक दोष हो सके । इसी प्रकार साध्यसमा जातिमें भी प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है । जब कि व्याप्य हेतुसे पक्षमें साध्यकी सिद्धि हो जाती है, तो पुनः पक्ष, दृष्टान्त, आदिक भी इस वादी करके नहीं साधे जाते हैं । यदि ऐसा माना जायगा तो कहीं भी साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकेगी । प्रतिवादीका दूषण उठाना भी नष्ट भ्रष्ट हो जावेगा । वहां भी
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तत्त्वार्याचन्तामणिः
दूषणका लक्षण और घटकावयव पदोंकी सिद्धि करते करते उकता जाओगे । तुम दूषण देना भी भूल जाओगे । वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा और साध्यसमामें यह समाधान भी लागू हो जाता है कि सायके अतिदेशसे दृष्टान्तमें साध्यका अतिदेश है। उतनेसे ही दृष्टान्तपना बन जाता है । सम्पूर्ण धर्म सर्वथा नहीं मिल जाते हैं । अन्यथा पक्ष, दृष्टान्तका अभेद हो जायगा । अतः वर्ण्यसमा और अवर्ण्यसमा जाति उठाना ठीक नहीं है । साभ्यसमामें सूत्रपठित दृष्टान्तका अर्थ पक्ष करना चाहिये अथवा दृष्टान्त ही अर्थ बना रहो। बात यह है कि दृष्ट न्त या साध्यके आधारभूत पक्षको साध्य नहीं बनाया जाता है। अतः ये उत्कर्षसमा आदिक प्रतिषेध दूषणाभास हैं। ऐसा नैयायिक वखान रहे हैं।
क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वाल्लोष्ठयदित्यादौ दृष्टांतादिसमर्थनयुक्ते साधनधर्मे प्रयुक्त सत्यपि साध्यदृष्टांतयोधर्मविकल्पादुपवर्णिताद्वैधपेण प्रतिषेधस्य कर्तुमलब्धेः किंचित्साधादुपसंहारसिः। तदाह न्यायभाष्यकारः । “अलभ्यः सिद्धस्य निन्हवः सिद्धं प किंचित्साधादुपमानं यथा गौस्तथा गवय " इति । तत्र न लभ्यो गोगवययोधर्मविकल्पश्चोदयितुं । एवं साधनधर्मे दृष्टांतादिसामर्थ्ययुक्ते सति न लभ्यः साध्यदृष्टांतयोधर्मविकलाद्वैधात् प्रतिषेधो वक्तुमिति ।
__ आत्मा क्रियावान् है । क्रियाके हेतु हो रहे गुणोंका आश्रय होनेसे, डेळके समान, या शब्द बनित्य है, कृतक होनेसे, अथवा पर्वत वन्हिमान् है, धूम होनेसे, इत्यादिक अनुमान वाक्योंमें दृष्टान्त आदि सम्बन्धी समर्थनसे युक्त हो रहे साधनधर्मके प्रयुक्त होते संते भी साध्य और दृष्टान्तके उक्त वर्णन किये जा चुके विकल्पसे वैधर्म्य करके प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध किया जाना नहीं प्राप्त हो सकता है। क्योंकि कुछ एक सधर्मापनके मिल जानेसे उपसंहार पूर्वक साध्यकी सिद्धि हो चुकी है। उसी बातको न्यायभाष्यकार वात्स्यायन " किंचित्साधादुपसंहारसिधादप्रतिषेधः" इस सूत्रके भाष्यमें अभ्यसे प्रारम्भ कर वक्तुमिति तक यों स्पष्ट कहते हैं कि सिद्धि हो चुके पदार्थका अपलाप या अविश्वास करना अलभ्य है। जब कि कुछ थोडेसे सधर्मापनसे उपमान सिद्ध हो चुका है । देखिये, जैसे गौ है वैसा गवय ( रोझ ) है। इस प्रकार उपमान उपमेय भाव बन चुकने पर और गवयके धर्मोका विकल्प उठाकर पुनः कुचोध किसीके ऊपर नहीं ढकेल दिया जाता है । इसी प्रकार दृष्टान्त, व्याप्ति, पक्षधर्मता पादिकी सामर्थ्यसे युक्त हो रहे साध्य, ज्ञापक हेतु, स्वरूप धर्मके प्रयुक्त हो चुकनेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा साध्य और दृष्टान्तके धर्मविकल्पसे वैधयंकरके प्रतिषेध कहा जाना प्राप्त नहीं हो सकता है।
साध्यातिदेशमात्राच्च दृष्टान्तस्योपपत्तेः साध्यत्वासंभवात् । यत्र हि लौकिकपरीक्षकाणां बुद्धरभेदस्तेनाविपरीतार्थः साध्येऽतिदिश्यते प्रज्ञापनार्थ । एवं च साध्यातिदेशाद दृष्टान्ते कचिदुपपद्यमाने साध्यत्वमनुपपनामिति । तथोद्योतकरोग्याह । दृष्टांतः साध्य इति
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
mamimaasuman.rainian.anuaHamashanamratani......nieee...
वचनासंभवात्तावता भवता न दृष्टान्तलक्षणं व्यज्ञायि । दृष्टान्तो हि नाम दर्शनयोर्विहितयोविषयः । तथा च साध्यमनुपपन्नं । अथ दर्शनं विहन्यते तर्हि नासौ दृष्टान्तो लक्षणाभावादिति ।
गौतमसूत्र है कि " साध्यातिदेशाच्च दृष्टान्तोपपत्तेः " साध्य के अतिदेश मात्रसे दृष्टान्तका दृष्टान्तपन बन जाता है । उपमान प्रमाणसे जानने योग्य पदार्थकी ज्ञप्ति करनेमें अतिदेशवाक्य साधक हो जाता है । जैसे कि जैसी मूंग होती है, वैसी मुद्गपर्णी होती है । और मुद्गपणीके सदृश हो रही औषधि विषविकारको नष्ट कर देती है । इस प्रकार आप्तवाक्य रूप अतिदेशद्वारा अवधारण कर कहीं वनमें उपमानसे संज्ञासंज्ञीके सम्बन्धको समझता हुआ उस औषधिको चिकित्साके लिये ले आता है अथवा अधिक लम्बी ग्रीवावाला पशु ऊंट होता है, बहुत बडी नासिकासे युक्त हो रहा पशु हाथी कहा जाता है, ऐसे वाक्योंको अतिदेशवाक्य कहते हैं । उनका स्मरण रखना पडता है । प्रकरण प्राप्त सूत्रमें अतिदेश शब्द है, सामान्यरूपसे साध्यका अतिदेश कर देना दृष्टान्तमें पर्याप्त है । एतावता दृष्टान्तका साध्यपना तो असम्भव है । इस सूत्रका भाष्य यों है कि जिस पदार्थ लौकिक और परीक्षक पुरुषों की बुद्धिका अभेद यानी साम्य दिखलाया जाता है, यह दृष्टान्त है। उससे विपरीत नहीं हो रहा अर्थ तो समझानेके लिये साध्यमें अतिदेश कर दिया जाता है और ऐसा होनेपर साध्यके अतिदेशसे किसी एक व्यक्तिका दृष्टान्तपना बन चुकनेपर पुनः उस दृष्टान्तको साध्यपना नहीं बन सकता है। इसी बातको तिस प्रकार उद्योतकर पण्डित भी यों विशद कर कहते हैं कि जो आप प्रतिवादी साध्यसमामें दृष्टान्तको ही साध्य कह रहे हैं, यह आपका कथन करना असम्भव है । तिस प्रकारके कथनसे हमको प्रतीत होता है कि आपने दृष्टान्तका लक्षण ही नहीं समझ पाया है । देखिये, दृष्टान्त नाम उसका निश्चय किया गया है जो कि लौकिक या परीक्षक पुरुषों करके विधान किये गये प्रत्यक्ष आत्मक दर्शनोंका विषय होय । " दृष्टः अन्तो यत्र स दृष्टान्तः ।" जब कि दर्शनों द्वारा वादी, प्रतिवादी, सभ्य पुरुषों करके दृष्टान्त प्रत्यक्षित हो गया है, तो तिस प्रकार उसको साध्य कोटिमें लाना असिद्ध है। हां, अब यदि दृष्टान्त बनाने के लिये उसके पेटमें घुसे हुये दर्शनका विघात किया जायगा अर्थात्-तुम यों कह दो कि वादीने भले ही वहां धर्म देख लिये होय किन्तु मुझ प्रतिवादीने तो उसमें धर्मोका दर्शन नहीं किया है, तब तो हम उद्योतकरको कहना पडेगा कि वह दृष्टान्त ही नहीं बन सका। क्योंकि दृष्टान्तका वहां लक्षण घटित ही नहीं होता है । वादी, प्रतिवादी, दोनोंके दर्शनोंका विषयभूत व्यक्ति तो दृष्टान्त हो सकता है । अकेले वादी द्वारा देखे गये धर्मवान् पदार्थको दृष्टान्त नहीं माना जा सकता है । अतः प्रतिवादीने उसको दृष्टान्त मान लिया यह उसकी भूल है। यहांतक दूषणामासपनेसे सहित हो रही उत्कर्षसमा आदि छह जातियोंका विचार कर दिया गया है।
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तत्वार्यचिन्तामणिः
प्राप्त्या यत्प्रत्यवस्थानं जातिः प्राप्तिसमैव सा । अप्राप्त्या पुनरप्राप्तिसमा सत्साधनेरणे ॥ ३५३ ॥ यथायं साधयेद्धेतुः साध्यप्राप्त्यान्यथापि वा। प्राप्त्या चेयुगपद्भावात्साध्यसाधनधर्मयोः ॥ ३५४ ॥ प्राप्तयोः कथमेकस्य हेतुतान्यस्य साध्यता। युक्तेति प्रत्यवस्थानं प्राप्त्या तावदुदाहृतम् ॥ ३५५ ॥ अप्राप्य साधयेत्साध्यं हेतुश्चेत्सर्वसाधनः । सोस्तु दीपो हि नाप्राप्तपदार्थस्य प्रकाशकः ॥ ३५६ ॥ इत्यप्राप्त्यावबोद्धव्यं प्रत्यवस्थानिदर्शनम् । तावेतो दूषणाभासौ निषेधस्यैवमत्ययात् ॥ ३५७ ॥ प्राप्तस्यापि दंडादेः कुंभसाधकतेक्ष्यते । तथाभिचारमंत्रस्याप्राप्तस्यासातकारिता ॥ ३५८ ॥
न्यायसूत्र और भाग्यके अनुसार दो जातियोंका लक्षण इस प्रकार है कि हेतुकी साध्य के साथ प्राप्ति करके जो प्रत्यवस्थान दिया जाता है,वह प्राप्तिसमा ही जाति है । और अप्राप्ति करके जो फिर प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह अप्राप्तिसमा जाति है। जैसे कि पर्वतो वहिमान धूमात्,शद्बो अनित्यः कृतकस्वात, इत्यादिक समीचीन हेतुका वादी द्वारा कथन किये जा चुकनेपर प्रतिवादी दोष उठाता है कि यह हेतु क्या साध्यको प्राप्त होकर साध्यकी सिद्धि करावेगा ! अथवा क्या दूसरे प्रकारसे भी ! यानी साध्यको नहीं प्राप्त होकर हेतु साध्यकी सिद्धि करा देगा ! बताओ । प्रथम पक्ष अनुसार साध्यके साथ संबन्ध हो जाना रूप प्राप्तिसे यदि साध्यकी सिद्धि मानी जायगी तब तो साध्य और हेतु इन दोनों धर्माका एक काळ एक साथ ही सद्भाव हो जानेसे उनमें हेतुपन और साध्यपनकी कोई नियामक कोई विशेषता नहीं ठहर पाती है। साध्य और हेतु जब दोनों ही एक स्थानमें प्राप्त हो रहे है, तो गायके डेरे और सूधे सींग समान भला उनमेंसे एकको हेतुपना और दूसरेको साध्यपना कैसे युक्त हो सकता है। विनिगमनाविरहसे दोनों ही हेतु बन जायंगे या दोनों धर्म साध्य बन बैठेंगे । झगडा मच जायगा। इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा प्राप्ति करके दिये गये पहिले प्रत्यवस्थानका उदाहरण यहांतक दिया जा चुका। अब द्वितीय विकल्प अनुसार अप्राप्तिसमाका उदाहरण यो समझिये कि वादीका हेतु
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तत्वार्थोकवार्तिके
यदि साध्यको नहीं प्राप्त होकर साध्यका साधक होगा तब तो सभी हेतु प्रकृत साध्य के साधन बन बैठेंगे अथवा वह प्रकृत हेतु अकेला ही सभी साध्यको साध डालेगा । इस प्रसंगका दूर करना वादी द्वारा अप्राप्तिका पक्ष लेनेपर असम्भव है। लोकमें भी देखा गया है कि व्यंग्य पदार्थों के साथ नहीं प्राप्त (सम्बद्ध ) हो रहा दीपक उन पदार्थोंका प्रकाशक नहीं है । इस प्रकार अप्राप्ति करके प्रत्य स्थान देना यह अप्राप्तिसमा जातिका उदाहरण समझ लेना चाहिये । किन्तु यह प्रतिवादीका उत्तर 1 समीचीन नहीं है । नैयायिक कहते हैं कि वस्तुतः विचारनेपर ये प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा, दोनों ही दूषणामास हैं। क्योंकि इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करनेका भी प्रलय हो जावेगा प्रतिवादी द्वारा किये गये प्रतिषेध में भी प्राप्ति और अप्राप्तिका विकल्प उठाकर उस प्रतिषेधकी असिद्धि कर दी जायगीय प्रतिपक्षको साधनेवाले प्रतिवादीका हेतु भी असाधक हो जायगा । बात यह है कि साध
के साथ प्राप्त हो रहे भी दण्ड, चक्र, कुलाल, आदिको घटका साधकपना देखा जाता है । तथा मारण, उच्चाटन आदि हिंसा कर्म करानेवाले अभिचार मंत्रोंको अप्राप्त हो कर भी शत्रुके लिये असाताका कारकपना देखा जाता है । " शत्रुपीडनकामः श्येनेनाभिचरेत् ” यहां बैठे बैठे हजारों कोश दूरके कार्योंका मंत्रो द्वारा साध्य कर लिया जाता है। इस प्रकार प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थोंका अन्वय व्यतिरेक द्वारा कार्यकारण भाव नियत हो रहा है । अतः प्राप्ति करके प्रतिषेध देना प्रतिवादीका अनुचित प्रयास है । ये दूषण नहीं होते हुये दूषणसारिखे दूषणाभास हैं ।
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नन्वत्र कारकस्य हेतोः प्राप्तस्याप्राप्तस्य च दंडादेरभिचारमंत्रादेश्व स्वकार्यकारितो पदर्शिता ज्ञापकस्य तु हेतोः प्राप्तस्याप्राप्तस्य वा स्वसाध्याप्रकाशिता चोदितेति न संगतिरस्तीति कश्चित् । तदसत् । कारकस्य ज्ञापकस्य चाऽविशेषेण प्रतिक्षेपोयमित्येवं ज्ञापनार्थ - स्वाश्कारकहेतुव्यवस्थापनस्य । तेन ज्ञापकोपि हेतुः कश्चित्प्राप्तः स्वसाध्यस्य ज्ञापको दृष्टो यथा संयोगी धूमादिः पावकादेः । कश्चिदप्राप्तो विश्लेषे यथा कृत्तिकोदयः शकटोदयस्येत्यपि विज्ञायते । अथायं सर्वोपि पक्षीकृतस्तर्हि येन हेतुना प्रतिषिध्यते सोपि प्रतिषेधको न स्यादुभयथोक्तदूषण प्रसंगादित्यप्रतिषेधस्ततो दृषणाभासाविमौ प्रतिपत्तव्यौ ।
यहां नैयायिकके ऊपर प्रतिवादीकी ओर लेनेवाले किसी विशारदकी शंका है कि " घटादि निष्पत्तिदर्शनात् पीडने चाभिचारादप्रतिषेधः " इस सूत्र प्राप्त हो रहे दण्ड आदिक और अप्राप्त हो रहे उच्चाटक, मारक, पीडक, अभिचार मंत्र, चुम्बक पाषाण आदिक इन कारक हेतुओंका स्वकार्य साधकपना दिखलाया गया है । किन्तु प्रतिवादीने तो स्वकीय साध्य के साथ प्राप्त हो रहे अथवा अप्राप्त हो रहे ज्ञापक हेतुओं की स्वकीय साध्यकी ज्ञापकताका प्रतिषेधरूप प्रत्यवस्थान देनेकी प्रेरणा की थी । इस कारण दृष्टान्त और दाष्टन्तिकी संगति नहीं है। हां, यदि आप ज्ञापक हेतुकी प्राप्ति, अप्राप्ति होनेपर स्वसाध्यप्रकाशकता दिखलाते तो प्रतिवादीका कहना दूषणाभास हो
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तत्वार्थचिन्तामाणिः
सकता था, अन्यथा नहीं । इस प्रकार कोई कह रहा है । नैयायिककोंकी बोरसे कहा जाता है कि वह उनका कहना सत्य नहीं है। क्योंकि प्राक् असत् कार्योको बनानेवाला भले ही कारक हेतु होय अथवा सत्की ज्ञप्ति करानेवाला ज्ञापक- हेतु होय, दोनोंमें कोई विशेषता नहीं करके हमने यह प्रतिवादीके ऊपर आक्षेप किया है। इस बातको समझाने के लिये यहां दृष्टान्त देकर कारक हेतुकी व्यवस्था करा दी गयी है। एक बात यह भी है कि कारक हेतु भी व्यवस्थाके ज्ञापक हो जाते हैं । और ज्ञापक हेतु भी ज्ञप्तिके कारक बन बैठते हैं । तिस कारणसे कोई कोई ज्ञापक हेतु भी प्राप्त होकर अपने नियत साध्यका ज्ञापक हो रहा देखा जाता है। जैसे कि अग्निके साथ संयोग सम्बन्धको धारनेवाला धूम हेतु या रूपके साथ एकार्थसमवायको धारनेवाला रस हेतु आदिक भी अग्नि, रूप, आदिके ज्ञापक हैं । तथा दैशिक या कालिक विभाग हो जानेपर कोई कोई हेतु अप्राप्त होकर भी स्वकीय साध्यका ज्ञापक जाना जाता है । जैसे कि कृत्तिकाका उदय यह हेतु मुहूर्त पीछे शकटके उदयका साधक हो जाता है । अधो देशमें नदी पूरके देखनेसे ऊपर देशमें वृष्टिका अनुमान अप्राप्त हेतुद्वारा कर लिया जाता है । यह ज्ञापक हेतुओंकी प्राप्ति और अप्राप्तिसे स्वसाध्यके प्रति साधकता भी समझ लीजियेगा। अब तो दृष्टान्त और दार्टान्त सर्वथा विषम नहीं रहे। अब यदि प्रतिवादीका पक्षपात करनेवाला कोई विद्वान् यों कहे कि यह सब भी पक्षकोटिमें कर लिया जावेगा । अर्थात्--धूम प्राप्त होकर यदि अग्निका प्रकाशक है, तो धूम और अग्नि दोनोंमेंसे एकका साम्यपन और दूसरेका हेतुपन कैसे युक्त हो सकता है ! तथा अप्राप्त कृतिकोदय यदि रोहिणी उदयको साध देवेगा, तो सभी अप्राप्तोंका वह साधक बन बैठेगा । इस प्रकार यहां भी प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा जातियां उठायी जा सकती हैं। अब समाधान कर्ता बोलते हैं कि तब जिस हेतु करके वादीको अभिप्रेत हो रहे साध्यका प्रतिवादीद्वारा प्रतिषेध किया जायगा, वह प्रतिवादीका हेतु भी प्रतिषेध करनेवाला नहीं ठहर सकेगा। क्योंकि यहां भी प्राप्ति और अप्राप्तिके विकल्प उठाकर दोनों प्रकारसे वैसे ही दूषण उठा देनेका प्रसंग हो जायगा। इस कारण प्रतिवादीद्वारा प्रतिषेध नहीं हो सका । तिस कारण सिद्ध हुआ कि ये प्राप्तिसम और अप्राप्तिसम दोनों दूषणाभास है। यह विद्वानोंको समझ लेना चाहिये।
वक्तव्यं साधनस्यापि साधनं वादिनेति तु । प्रसंगवचनं जातिः प्रसंगसमतां गता ॥ ३५९ ॥ क्रियाहेतुगुणोपेतः क्रियावांल्लोष्ठ इष्यते । कुतो हेतोविना तेन कस्यचिन्न व्यवस्थितिः ॥३६० ॥
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
एवं हि प्रत्यवस्थानं न युक्तं न्यायवादिनां । वादिनोर्यत्र वा साम्यं तस्य दृष्टांततास्थितिः ॥३६१ ॥ यथारूपं दिदृक्षूणां दीपादानं प्रतीयते । स्वयं प्रकाशमानं तु दीपं दीपांतराग्रहात् ॥ ३६२ ॥ तथा साध्यप्रसिद्धयर्थं दृष्टांतग्रहणं मतं । प्रज्ञातात्मनि दृष्टांते त्वफलं साधनांतरम् ॥ ३६३ ॥
अब प्रसंगसमा जातिको कहते हैं कि वादीने जिस प्रकार साध्यका साधन कहा है, वैसे ही साधनका भी साधन करना या दृष्टान्तकी भी सिद्धि करना वादीको कहना चाहिये, इस प्रकार तो प्रतिवादी द्वारा जो प्रसंगका कथन किया जाता है, प्रसंगपनेको प्राप्त हुयी वह प्रसंगसमा जाति है। उसका उदाहरण यों है कि क्रियाके हेतुभूत गुणोंका सम्बन्ध रखमेवाला डेल क्रियावान् किस हेतुसे माना जाता है ! बताओ । दृष्टान्तकी भी साध्यसे विशिष्टपने करके प्रतिपत्ति करनेमें वादीको हेतु काना चाहिये । उस हेतुके बिना तो किसी भी प्रमेयकी व्यवस्था नहीं हो सकती है। अब न्यायसिद्धान्ती इस प्रतिवादीके कथनका असमीचीन उत्तरपना बताते हैं कि न्याय पूर्वक कहनेकी टेव रखनेवाले पण्डितोंको इस प्रकार दूषण उठाना तो युक्त नहीं है। कारण कि जिस पदार्थमें वादी अथवा प्रतिवादियों के विचार सम होते हैं, उसको दृष्टान्तपना प्रतिष्ठित किया जाता है । और प्रसिद्ध दृष्टान्तकी सामर्थ्यसे वादी द्वारा प्रतिवादीके प्रति असिद्ध हो रहे साध्यकी ज्ञप्ति करा दी जाती है । जैसे कि रूप या रूपवान्का देखना चाहनेवाले पुरुषोंको दीपक, बालोक आदिका ग्रहण करना प्रतीत हो रहा है । किन्तु स्वयं प्रकाशित हो रहे प्रदीप आदिका देखना चाइनेवाले पुरुषोंको पुनः उसके लिये अन्य दीप. कोंका ग्रहण करना नहीं देखा गया है। तिस ही प्रकार अज्ञात हो रहे साध्यकी प्रसिद्धिके लिये दृष्टान्तका ग्रहण माना गया है। किन्तु जिस दृष्टान्तका बात्मस्वरूप सबको भले प्रकार ज्ञात हो चुका है, उसको अन्य साधनोंसे साधना तो व्यर्थ है । यहां आत्माके क्रियासहितपन साध्यकी सिद्धि करानेके लिये प्रसिद्ध डेलका दृष्टान्तरूपसे ग्रहण किया था। किन्तु फिर उस डेळकी सिद्धि के लिये ही तो अन्य ज्ञापक हेतुओंका वचन करना आवश्यक नहीं है। वादी प्रतिवादी दोनोंके समानरूपसे अविवादास्पद दृष्टान्तको दृष्टान्तपना उचित है। उसके लिये अन्य हेतु उठाना निष्फल है। "प्रदीपादानप्रसङ्गनिवृत्तिवत्तद्विनिवृत्तिः " इस न्यायसूत्रके भाष्यमें उक्त अभिप्राय ही पुष्ट किया गया है।
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तत्वार्थचिन्तामणिः
प्रतिदृष्टांतरूपेण प्रत्यवस्थानमिष्यते । प्रतिदृष्टांततुल्येति जातिस्तत्रैव साधने ॥ ३६४ ॥ क्रियाहेतुगुणोपेतं दृष्टमाकाशमक्रियं । क्रियाहेतुगुणो व्योम्नि संयोगो वायुना सह ॥ ३६५॥ संस्कारापेक्षणो यद्वत्संयोगस्तेन पादपे। स चायं दूषणाभासः साधनाप्रतिबंधकः ॥ ३६६ ॥ साधकः प्रतिदृष्टांतो दृष्टातोपि हि हेतुना । तेन तद्वचनाभावात् सदृष्टांतोस्तु हेतुकः ॥ ३६७ ॥
प्रतिदृष्टान्तसमा जातिका लक्षण यों है कि वादीद्वारा कहे गये दृष्टान्तके प्रतिकूळ दृष्टान्तस्वरूपकरके प्रतिवादीद्वारा जो दूषण उठाया जाता है, वह प्रतिदृष्टान्तसमा जाति इष्ट की गयी है। उसका उदाहरण यों है कि उस ही आत्माके क्रियावत्व साधने में प्रयुक्त किये गये गये दृष्टान्तके प्रतिकूल दृष्टान्तकरके दूसरा प्रतीवादी प्रत्यवस्थान देता है कि क्रियाके हेतुभूत गुणके युक्त हो रहा आकाश तो निष्क्रिय देखा गया है । उस ही के समान पात्मा भी क्रियारहित हो जाओ। यदि यहां कोई पण्डित उस प्रतिवादीके ऊपर यो प्रश्न करे कि क्रिया करानेका हेतु हो रहा, फिर आकाशका ( में ) कौनसा गुण है ! बतायो तो सही । प्रतिषादीकी ओरसे उक्त प्रश्नका उत्तर यों है कि वायुके साथ आकाशका जो संयोग है, वह क्रियाका कारण गुण है । जैसे कि वेग नामक संस्कारको अपेक्षा रखता हुआ, वृक्षम वायुका संयोग क्रियाका कारण हो रहा है। उसी " वायुबनस्पतिसंयोग" के समान वायु माकाशका संयोग है। संयोग द्विष्ठ होता है। अतः बाकाशमें ठहर गया । बतः नाकाशके समान आत्मा क्रियाहेतु गुणके सद्भाव होनेपर भी क्रियारहित हो जायो। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि यह प्रतिवादीका कथन तो दूषणाभास है। क्योंकि वादीके क्रियावत्व साधनेका कोई प्रतिबन्धक नहीं है। प्रतिदृष्टान्तको कहनेवाळे प्रतिवादीने भी कोई विशेष हेतु नहीं कहा है कि इस प्रकार करके मेरा प्रतिदृष्टान्त तो निष्क्रियत्वका साधक है चोर वादीका दृष्टान्त सक्रियत्वका साधक नहीं है। प्रतिदृष्टान्त हो रहा आकाश यदि निक्रियत्वका साधक माना.जायगा तो वादीका डेल दृष्टान्त भी उस क्रियाहेतुगुणाश्रयत्व हेतुसे सक्रियस्वका साधक हो जावेगा। ऐसी दशामें उस प्रतिदृष्टान्तके निरूपणका अभाव हो जानेसे वह डेल दृष्टान्त ही हेतुरहित हो जाओ। अर्थात्-प्रतिदृष्टान्त जैसे हेतुके विना ही स्वपक्षका साधक है, अन्यथा अनवस्था होगी, तैसे शान्त डेछ भी क्रियावत्वका स्वतःसाधक है। अतः महरेक ही प्रतिवादीका भी रष्टान्त हो जामो 62
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४९.
तत्वाथकोकवार्तिके
और आत्माके क्रियावत्वका साधक बन बैठे फिर तुमने प्रतिदृष्टान्त आकाश क्यों पकड रक्खा है ! अतः यह प्रतिदृष्टान्तसमा जाति असमीचीन दूषण है। " प्रतिदृष्टान्तहेतुत्वे च नाहेतुर्दृष्टान्तः " इस गौतमसूत्रके भाष्यका अभिप्राय इसी प्रकार है । श्री विद्यानन्द आचार्य इन वार्तिकोंके विवरणमें इसका दूषणामासपना विशद रीतिसें ऊहापोहपूर्वक लिखेंगे ।
एवं ह्याह, दृष्टांतस्य कारणानपदेशात् प्रत्यवस्थानाच्च प्रतिदृष्टांतेन प्रसंगप्रतिदृष्टांतसमौ । तत्र साधनस्यापि दृष्टान्तस्य साधनं कारणं प्रतिपत्तौ वाच्यमिति प्रसंगेन प्रत्ययस्थान प्रसगसमः प्रतिषेधः तत्रैव साधने क्रियाहेतुगुणयोगात् क्रियावालोष्ठ इति हेतु पदिश्यते. न च हेतुमंतरेण कस्यचित्सिद्धिरस्तीति । सोयमेव वदद्दपणाभासवादी न्यायवादिनामेवं प्रत्यवस्थानस्यायुक्तत्वात् । यत्र वादिप्रतिवादिनोः बुद्धिसाम्यं तस्य दृष्टांतत्वव्यवस्थितेः । यथाहि रूपं दिदृक्षणां तेषां तदग्रहणात् । तथा साध्यस्यात्मनः क्रियावत्त्वस्य प्रसिध्यर्थ दृष्टांतस्य लोष्ठस्य ग्रहणमभिप्रेतं न पुनदृष्टांतस्यैव प्रसिध्द्यर्थ साधनांतरस्योपादानं प्रज्ञातस्वभावदृष्टांतत्वोपपत्ते तत्र साधनांतरस्याफलत्वात् ।
.. इस ही प्रकार गौतम ऋषिने न्यायदर्शनमें सूत्र कहा है कि साध्यसिद्धिमें उपयोगी हो रहे दृष्टान्तके कारणका विशेष कथन नहीं करनेसे प्रत्यवस्थान देनेकी अपेक्षा प्रसंगसम प्रतिषेध हो जाता है और प्रतिकूल दृष्टान्तके उपादानसे प्रति दृष्टान्तसम प्रतिषेध हो जाता है । उस सूत्रके भाष्यमें वात्स्यायन विद्वान्ने कहा है कि साध्य के साधक हो रहे दृष्टान्तकी भी प्रतिपत्तिके निमित्त साधम यानी कारण कहना चाहिये । इस प्रकार प्रसंगकारके प्रतिवादीद्वारा प्रत्यवस्थान यानी दूषण उठाया जाना प्रसंगसम नामका प्रतिषेध है । जैसे कि वहां ही चले आ रहे अनुमानमें क्रिया हेतुगुणके योगसे आत्मा का क्रियावत्य साधन करनेपर लोष्ठ दृष्टान्त दिया था। किन्तु डेलको क्रियावान् साधनेमें तो कोई इस प्रकार हेतु नहीं कहा गया है और हेतुके बिना किसी भी साध्यकी सिद्धि नहीं हो पाती है । इस प्रकार प्रतिवादीका दूषण है । अब सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार कह रहा यह प्रतिवादी तो प्रसिद्ध रूपसे दूषणमासको कहनेकी टेव रखनेवाला है। न्यायपूर्वक कहनेका स्वभाव रखनेवाले विद्वानोंको इस प्रकार प्रत्यवस्थान देना समुचित नहीं है । यहां सिद्धान्तमें लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः" जहां वादी प्रतिवादियोंकी या लौकिक जन और परीक्षक विद्वानों की बुद्धि सम हो रही है, उस अर्थको दृष्टान्तपमा व्यवस्थित हो रहा है । जिस प्रकार कि रूपका देखना चाहने वाले पुरुषोंको दीपक ग्रहण करना प्रतीत हो रहा है । किन्तु फिर स्वयं प्रकाश रहे प्रदीपका देखना चाहनेवाले उन मनुष्योंको अन्य दीपकोंका ग्रहण करना आवश्यक नहीं है। अन्यथा अनवस्था हो जायगी तिसी प्रकार आत्माके साध्य स्वरूप हो रहे क्रियावत्वकी प्रसिद्धि के लिये कोई
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तत्वार्थचिन्तामणिः
दृष्टान्तका ग्रहण करना अभीष्ट किया गया है। किन्तु फिर दृष्टान्तकी प्रसिद्धिके लिये तो अन्य हेतुमोंका उपादान करना आवश्यक नहीं है। क्योंकि प्रायः सभीके यहां प्रसिद्ध रूपसे जान लिये गये स्वभावोंको धारनेवाले अर्थका दृष्टान्तपना माना जा रहा है। उस दृष्टान्तमें भी पुनः अन्य साधनोंका कथन करना निष्फल है । " प्रदीपादानप्रसङ्गनिवृत्तिवत्तद्विनिवृत्तिः " इस सूत्रके माध्यमें उक्त विषयको पुष्ट किया गया है।
तथा प्रतिदृष्टान्तरूपेण प्रत्यवस्थानं प्रतिदृष्टान्तसमा जातिस्तत्रैव साधने प्रयुक्त कचित् प्रतिदृष्टान्तेन प्रत्यवतिष्ठते क्रियाहेतुगुणाश्रयमाकाशं निष्क्रियं दृष्टमिति । का पुनराकाशस्य क्रियाहेतुर्गुणः संयोगो वायुना सह, स च संस्कारापेक्षो दृष्टो यथा पादपे वायुना संयोगः काळनयेप्यसंभवादाकाशे क्रियायाः कथं क्रियाहेतुर्वायुना संयोग इति न शंकनीयं, वायुना संयोगेन वनस्पती क्रियाकारणेन समानधर्मत्वादाकाशे वायुसंयोगस्य, यवसौ तथाभूतः क्रियां न करोति तनाकारणत्वादपि तु प्रतिबंधनान्महापरिमाणेन । यथा मंदवायुनानानंतानां लोष्ठादीनामिति । यदि च क्रिया दृष्टा क्रियाकारणं वायुसंयोग इति मन्यसे तदा सर्व कारणं क्रियानुमेयं भवतः प्राप्तं । ततश्च कस्यचित्कारणस्योपादानं न प्रामोति क्रियाथिनां किमिदं करिष्यति किं वा न करिष्यति संदेहात् । यस्य पुनः क्रियासमर्थत्वादुपादानं कारणस्य युक्तं तस्य सर्वमाभाति ।
तिसी प्रकार साध्यके प्रतिकूलको साधनेवाले दूसरे प्रतिदृष्टान्त करके प्रत्यवस्थान देना प्रतिदृष्टान्तसमा जाति है । जैसे कि वहां ही बनुमानमें आत्माके क्रियावत्वको साधनेमें हेतु प्रयुक्त कर चुकनेपर कोई प्रतिवादी प्रतिकूल दृष्टान्त करके प्रत्यवस्थान उठा रहा है कि क्रिया हेतुगुणका आश्रय हो रहा आकाश तो क्रियारहित देखा गया है । इस प्रत्यवस्थाता प्रतिवादीका तात्पर्य यह है कि क्रियाहेतु गुणका आश्रय हो रहा भी भाकाश जैसे निष्क्रिय है, वैसे ही क्रियाहेतुगुणका आश्रय हो रहा भास्मा भी क्रियारहित बना रहो । यदि यहां कोई प्रतिवादीके ऊपर यो प्रश्न करे कि तुम्हारे माने गये प्रतिकूल दृष्टान्त आकाशमें कोमसा क्रियाका हेतुगुण है ! थोडा बतायो तो, तब प्रतिवादी की ओरसे इसका उत्तर यों दिया जा सकता है कि वायुके साथ आकाशका संयोग हो रहा है। और वह संस्कारको अपेक्षा रखता हुआ क्रियाहेतुगुण देखा गया है। जैसे कि वायुके साथ वृक्षमें हो रहा संयोग नामक गुण उस वृक्षके कम्पनका कारण है । उसी वायुवृक्ष संयोगके समान धर्मवाला वायुआकाश संयोग है। संयोग गुण दोमें रहता है । वृक्षवायुके संयोगने जैसे वृक्षमें क्रिया पैदा कर दी थी, उसीके समान वायु आकाश संयोग मी आकाशमें क्रियाको उत्पन्न करानेकी योग्यता रखता है। यदि यहां कोई छात्र प्रतिवादीके ऊपर पुनः शंका करे कि तीनों कालोंमें भी आकाशमें
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
क्रियाका होना असम्भव है । तो तुमने वायुके साथ हो रहे आकाशके संयोगको आकाशमें किया सम्पादनका कारण भला कैसे कह दिया था ? बतायो । प्रतिवादीकी ओर लेकर सिद्धान्ती समाधान करें देते हैं कि यह शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि वायुके साथ वनस्पतिका संयोग तो वृक्षमें क्रियाका कारण होता हुआ प्रसिद्ध हो रहा है। आकाशमें हो रहा वायुके साथ संयोग भी उस वृक्ष वायुके संयोगका समानधर्मा है । अर्थात्-धमान धर्मवाळे वृक्षवायुसंयोग और आकाशवायुसंयोगकी जाति एक ही है । अब यह कटाक्ष शेष रह जाता है कि उस क्रियाके कारण संयोग करके वृक्षों जैसे क्रिया हो जाती है, उसी प्रकार आकाशमें भी उस संयोग करके देशप्ते देशान्तर हो जाना रूप क्रिया क्यों नहीं हो जाती है ! कारण है तो कार्य अवश्य होना चाहिये । इसका समाधान प्रतिवादीकी ओरसे यों कर दिया जाता है कि जो वह वायु आकाशसंयोग इस प्रकार क्रियाका कारण हो चुका भी वहां आकाशमें क्रियाको नहीं कर रहा है, वह तो आकरणपनसे क्रियाका असम्पादक है, यह नहीं समझ बैठना । किन्तु महापरिमाण करके आकाशमें क्रिया उपजनेका प्रतिबन्ध हो जाता है । सर्वत्र ठसाठस भर रहा आकाश भला कहां जाय ! अर्थात्-बात यह कि कारणोंका बहुभाग फलको उत्पन्न किये बिना यों ही नष्ट हो जाता है। सहकारी सामग्री मिलनेपर यानी अन्य कारणों की बिककता नहीं होनेपर और प्रतिबन्धकोंके द्वारा कारणोंकी सामर्थ्यका प्रतिबंध नहीं होनेपर अल्पभाग कारण ही स्वजन्य कार्योको बनाया करते हैं। प्रतिबन्धकोंके आ जानेपर पदि कारणोंसे कार्य नहीं हुआ तो एतावता कारण आकारण नहीं हो जाता है। बत्ती, तेल, दियासलाई ये दीपकलिकाके कारण हैं । किन्तु प्रबल वायु ( बांधी ) के चलने पर उन कारणोंसे यदि दीपकळिका नहीं उपजसकी तो एतावता वत्ती, आदिकी कारणता समूळ नष्ट नहीं हो जाती है । उसी प्रकार आकाशका वायुके साथ हो रहा संयोग भी आकाशमें क्रिया सम्पादनकी स्वरूपयोग्यता रखता है । किन्तु क्या करें कि वह संयोग बाकाशमें समवेत हो रहे क्रियाप्रतिबन्धक परम महापरिमाण गुणकरके प्रतिबन्ध प्राप्त कर दिया गया है। मतः फलोपधायक नहीं होनेसे उस संयोगके क्रियाकारणपनका अभाव नहीं हो जाता है। अतः बाकाशमें क्रियासम्पादनकी योग्यता रखनेवाला गुण वायु आकाश संयोग है । प्रतिबन्धक पदार्थके होनेसे यदि वहां क्रिया नहीं उपज सके, इसका उत्तरदायित्व ( जिम्मेदारी ) हम (प्रतिवादी ) पर नहीं है । जैसे कि मन्दवायु करके अनन्त डेल, डेठी, कंकडियों, वालुकाकोंमें क्रिया नहीं हो पाती है। गुरुत्व या आधार आधेय दोनोंमें वर्त रहा भाकर्षकपन धर्म तो क्रियाका प्रतिबन्धक हो जाता है। हां, तीन वायु होनेपर वे प्रतिबन्धक पदार्थ डेल आदिकी क्रियाको नहीं रोक पाते हैं।
और यदि तुम शंकाकार यों मान बैठो हो कि आकाशमें क्रियाका कारण यदि वायुसंयोग माना जाता है, तो वहां क्रिया हो जाना दीख जाना चाहिये । इसपर हम सिद्धान्तियोंको यों उत्तर देना है कि तब तो आपके यहां सभी कारण अपनी अपनी क्रियाके द्वारा ही अनुमान करने योग्य हो
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सकेंगे। यह प्रसंग प्राप्त होता है । और तैसा हो जानेसे अर्थक्रियाके अभिलाषी जीवोंके किसी एक विशेष कारणका ही उपादान करना नहीं प्राप्त होता है । चाहे कोई भी सामान्य कारण हमारी अभीष्ट क्रियाको साध देगा । तुम्हारे मन्तव्य अनुसार सभी कारण अपनी क्रियाबोंको करते ही हैं। तो फिर लौकिक जनोंको अनेक कारणोंमें इस प्रकार जो संशय हो जाता है कि न जाने यह कारण हमारी अभीष्ट क्रियाको करेगा ! अथवा नहीं करेगा ! यह सन्देह क्यों हुषा । हां, निस शंकाकारके यहां सभी समर्थकारण या असमर्थ कारण बावश्यकरूपसे यदि क्रियाको करनेमें समर्थ हो रहे हैं। तब तो चाहे किसी भी कारण (असमर्थ ) का ग्रहण किया जा सकता है। क्योंकि उसके यहां सभी कारण स्वयोग्य क्रियाओंको करने के लिये उचित प्रतीत हो रहे हैं । अथवा जिस विचारशील प्रतिवादीके यहां पुनः क्रियाको करनेमें मळे प्रकार समर्थ होनेसे उसी विशेष कारणका उपादान करना माना जाता है, उसीके यहां तो सभी सिद्धान्त उचित दीख जाता है। भावार्थ-क्रिया कर देनेसे ही कारणपनेका निर्णय नहीं हुआ करता है। बहुभाग बीज यों ही पीसने, खाने, भूजने, सडने, गळनेमें नष्ट हो जाते हैं । एतावता अंकुर उत्पन्न करनेमें उन बीजोंका कारणपना नहीं मेट दिया जाता है । वृक्षोंमें वासोंमें, लठ्ठधारी ग्रामीणोंके हाथमें या दण्डधारी नागरिकोंके मृदुकरोंमें डण्डा, लठियां, कुबडियां विद्यमान हैं । ये सभी घटको बनाने में कारणपनेकी योग्यता - रखती। किन्तु कुम्हारके हाथमें लगा हुआ, भोंडा डण्डा ही चाकको घुमाता हुआ घडेका फलोपधायक कारण माना जाता है । एतावता अन्य यष्टियोंकी स्वरूपयोग्य कारणता दूर नहीं फेंक दी जाती है । विधवा हो जानेसे युवति कुलस्त्रीकी सन्तान उत्पादन कारणता नहीं मर जाती है। बात यह है कि क्रियावोंको उत्पन्न करें तभी वे कारण माने जाय, यह नियम नहीं मानना चाहिये । देखिये । किसान किन्हीं अपरीक्षित बीजोंमें मुबीज कुबीजपनेका संशय करते हैं। तभी तो परीक्षाके लिये भोलामें थोडेसे बीज बोकर सुबीज कुबीजपनका निर्णय कर लेते हैं । जब कि सभी बीजोंमें अङ्कुर उत्पादन क्रियाकी योग्यता थी तमी तो किसानोंको संशय दुआ,मले ही उनमें से अनेक बीज अंकुरोको नहीं उपजा सकें । छात्रोंको पढाने वाला अध्यापक उत्तीर्ण होने योग्य समझकर बीस छात्रोंको वार्षिक परीक्षामें बैठा देता है। उसमें बारह छात्र उत्तीर्ण हो जाते हैं । और आठ छात्र अनुत्तीर्ण हो जाते हैं। कभी कभी तो उत्तीर्ण होने योग्य छात्र गिर जाते हैं । और अनुत्तीर्ण होने योग्य विद्यार्थी चाटुकारतासे प्रविष्ट हो कर उत्तीर्ण होनेकी बाजीको जीत केते हैं। बात यह कि क्रियाकी योग्यता मात्रसे कारणपनेका ज्ञान कर लिया जाता है। भविष्यमें होनेवाली सभी क्रियायें भला किस किसको दीखती हैं। किन्तु क्रियाओंके प्रथम ही अर्थोंमें कारणपनेका अवभास कर लिया जाता है । हो, प्रतिबंधकोंका अभाव होनेपर और अन्यसहकारी कारणोंकी परिपूर्णता होनेपर समर्थकारण अवश्य ही क्रियाको करते हैं। किन्तु लाखों कारणोंमेसे सम्भवतः एक ही भाग्यशाली कारणको उपर्युक्त योग्यता मिलती है । शेष
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तस्वार्थ श्लोक वार्तिके
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कारण तो उत्तरवर्ती पर्यायमात्रको बनाकर या जीवोंके ज्ञानमें अवलम्ब कारण बन कर नाममात्रके कारण होते हुये जगत्से यों ही अपनी सत्ताको उठा के जाते हैं। मुझ भाषा टीकाकारका तो ऐसा विचार है कि जगत् के सम्पूर्ण पदार्थ अपने करने योग्य सभी क्रियाओंको कर ही नहीं पाते हैं। सज्जन मनुष्य हिंसा, झूट, चोरी, मांसभक्षण, कुशील, पैशून्य, अपकार आदि दुष्टताओंको कर सकते हैं । दुष्टजीव भी अहिंसा, सत्य, आदि व्रतोंको पाल सकते हैं। राजा महाराजा या धनपतियों के यहां न, वाइन, वस्त्र, उपवन, दास, आदि व्यर्थ पडे हुये हैं । वे ठलुआ पदार्थ साधारण पुरुषोंके काम आ सकते हैं। किन्तु उनकी निमित्तकारण शक्तियां बहुभाग व्यर्थ जाती हैं । विच्छू, सांप, संखिया, आदि विषेले पदार्थ असंख्य जीवोंको मार सकते हैं । किन्तु सभी अपनी मरणशक्तिका उपयोग नहीं कर पाते हैं । बहुभाग विषयों ही व्यर्थ अपना खोज खो देते हैं । बन की अनेक वनस्पतियां रोगोंको दूर कर सकती हैं। क्यों जी, क्या वे सभी औषधियां अपना पूरा कार्य (जौहर दिखलाती हैं ? मस्तिष्क या शरीरसे कितना भारी कार्य किया जा सकता है । क्या सभी जीव उन कार्योंको कर डालते हैं ? " मरता क्या न करता " घिरनेपर या किसीसे लडनेका अवसर आनेपर मृत्यु से बचने के लिये जीवनपर खेलकर मनुष्य बहुत पुरुषार्थ कर जाता है । किन्तु सदा व्यवहार में उससे चौथाई या आठवां भाग भी पुरुषार्थ करनेके लिये नानीकी स्मृति आ जाती है। सभी अग्नियां, बिजकियां, तेजाव, ये शरीरको जला सकते हैं। सभी पानी प्यासको बुझा सकते हैं । सभी सोने, चांदी, खांडके जूते या चूल्हे बन सकते हैं। सभी उदार पुरुष तुच्छता करनेपर उत्तर सकते हैं। सभी युवा, स्त्री, पुरुष, व्यभिचार कर सकते हैं। सभी धनाढ्य पुरुष इन दीन सेवकों के निन्ध कार्यको कर सकते हैं । किन्तु इनमेंसे कितने अत्यल्प कारण अपने योग्य कार्योंको कर पाते हैं इस बातको आप सरलतासे समझ सकते हैं। एक अध्यापक मल्ल, सेवक, या घोडा अपनी पूरी शक्तियों का व्यय नहीं कर देता है । सिद्धान्त यह निकलता है कि सभी कारणोंका निर्णय पीछे होनेवाली क्रियाओंसे ही नहीं करना चाहिये । प्रकरण में प्रतिवादीकी ओरसे यह कहना उचित प्रतीत होता है कि आकाशमें क्रिया हो जानेका कारण वायु आकाश संयोग विद्यमान है । किन्तु महापरिमाणसे क्रियाका प्रतिबन्ध हो जानेसे क्रिया नहीं हो पाती है । जैसे कि बडी शिलामें अधिक गुरुत्वसे प्रतिबन्ध हो जाने के कारण मुक्कका संयोग विचारा सरक जाना, गिरजानारूप क्रियाको नहीं पैदा कर सकता है । क्रिया करनेकी स्वरूपयोग्यता सभी समर्थ असमर्थ, कारणोंमें माननी चाहिये । कारणों में योग्यता देख ली जाती है । भविष्य में होनेवाले फलोंका अल्पज्ञोंको प्रत्यक्ष नहीं हो जाता है ।
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अथ क्रियाकारणवायुवनस्पतिसंयोगसदृशो वाय्वामाकाशसंयोगोन्यश्चान्यत् क्रियाकारणमिति मन्यसे, तर्हि न कश्विद्धेतुरनैकांतिकः स्यात् । तथाहि । अनित्यः शब्वोऽमूर्तस्वात्सुखादिवदित्यत्रामूर्तत्वहेतुः शन्योन्यश्चाकाशे तत्सदृश इति कथमस्याकाशेनानैकां
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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तिकत्वं सर्वानुमानाभावाप्रसंगश्च भवेत्, अनुमानस्यान्येन दृष्टस्यान्यत्र दृश्यादेव प्रवर्तनात् । न हि ये धूमधर्माः क्वचिदमे दृष्टास्त एव धूमांतरेष्वपि दृश्यते तत्सदृशानां दर्शनात् । ततोऽनेन कस्यचिदेतोरनैकांतिकत्वमिच्छता कचिदतुमानात्मवृत्तिं च स्वीकुर्वता तद्धर्मसदृशस्तद्धर्मोनुमंतव्य इति क्रियाकारणवायुवनस्पतिसंयोगसदृशो वाय्वाकाशसंयोगोपि क्रियाकारणमेव । तथा च प्रतिदृष्टान्तेनाकाशेन प्रत्यवस्थानमिति प्रतिदृष्टान्तसमप्रतिषेधवादिनोभिप्रायः।
अब यदि कोई यों कहें कि यह वायुका आकाशके साथ हो रहा संयोग तो क्रियाके कारण वायुवनस्पति संयोगसे केवल सादृश्य रखता है । वस्तुतः भिन्न है। क्रियाका कारण हो रहा संयोग न्यारा है। और क्रियाको नहीं करने वाला संयोग भिन्न है । इन दोनों संयोगोंकी एक जाति नहीं है । अतः प्रतिवादीद्वारा प्रतिकूल दृष्टान्त हुये निष्क्रिय आकाश करके प्रत्यवस्थान देना उचित नहीं दीखता है । सिद्धान्ती कहते हैं कि यदि इस प्रकार मानोगे तब तो कोई भी हेतु अनैकान्तिक हेत्वामास नहीं हो सगेगा । इसी बातको दृष्टान्त द्वारा यों स्पष्ट समझ लीजिये कि शब्द ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्य ), अमूर्त होनेसे ( हेतु ) सुख, घट, इच्छा, भादिके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) इस अनुमानमें दिये गये अमूर्तत्व हेतुका व्यभिचारस्थल आकाश माना गया है । किन्तु तुम्हारे विचार अनुसार यों कहा जा सकता है कि शब्दमें वर्त रहा अमूर्तस्व हेतु मिन्न है । और आकाशमें उस अमूर्तस्वके सदृश दूसरा मित्र अमूर्तत्व वर्त रहा है। ऐसी दशामें इस अमूर्तत्व हेतुका आकाशकरके व्यभिचारीपना कैसे बताया जा सकता है ! वही शब्दनिष्ठ अमूर्त यदि आकाशमें रह जाता, तब तो व्यभिचार दिया जा सकता था। तुमने जैसे वायुवृक्ष संयोग और घायु आकाश संयोग इनकी न्यारी न्यारी जाति कर दी है, वैसे ही अमूर्तत्व भी भिन्न भिन्न हैं, तो फिर केवल शब्दमें ही वर्त रहा वह अमूर्तत्व विपक्षमें नहीं ठहरा । अतः व्यभिचारहेत्वाभास जगत्से उठ जायगा । शब्दजन्य शाब्दबोध ( श्रुतज्ञान ) भी नहीं हो सकेंगे। " वृत्तिर्वाचामपर सदृशी " वचनोंका प्रवृत्तिव्यवहार दूसरे शब्दोंके सादृश्यपर निर्भर है। किन्तु तुम्हारे मन्तव्य अनुसार उपालम्भ दिया जा सकता है कि संकेतकालका शब्द न्यारा है । और व्यवहारकालका शब्द उसके सदृश हो रहा सर्वथा भिन्न है । ऐसी दशामें शब्दोंके द्वारा वाच्य अर्थको प्रतिपत्ति होना दुरूह है । तुम्हारे यहां सभी अनुमानोंके अभावका प्रसंग हो जावेगा। अनुमान तो सादृश्यसे ही प्रवर्तता है। अन्यके साथ व्याप्ति युक्त देखे हुये पदार्थका अन्यत्र दर्शनीय हो जामेसे ही अनुमान का प्रवर्तन माना गया है। रसोईघरमें अग्नि और धूम न्यारे हैं, तथा पर्वतमें वे भिन्न हैं। फिर भी सादृश्यकी शक्किसे पर्वतमें वर्त रहे धूमकरके अनिका अनुमान कर लिया जाता है। जो ही धुंएके तृणसम्बन्धपिन पत्तेसम्बन्धीपना बनकटीसम्बन्धीपन, कंडासम्बधीपन आदिक धर्म कहीं रसोई घर,
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तत्त्वाथलाकवार्तिके
अघिहाना आदि में वर्त रहे धूममें देखे जाते हैं। वे ही धूमके धर्म तो दूसरे धूओंमें यानी पक्ष हो रहे पर्वत आदिके धूमोंमें भी नहीं देखें जा रहे हैं । हां, उन महानस धूम धर्मोके समान हो रहे अन्य धर्मोका ही पर्वत आदिके धूमोंमें दर्शन हो रहा है। तुम्हारे विचार अनुसार महानसीय धूमोसे ही अग्निका अनुमान किया जा सकता है । सदृश पदार्थीको तुम सर्वथा भिन्न जातिवाला मानते हो और महानसमें अग्निका प्रत्यक्षज्ञान ही हो रहा है। अतः सादृश्य या एकजातिवान् की मित्तिपर प्रवर्तनेवाले सभी अनुमानोंका अभाव हो जावेगा । इस दशामें तुम्हारे यहां हेतु व्यभिचारी नहीं बन सका और अनुमान ज्ञानकी प्रवृत्ति मी नहीं हो सकी। अब यदि यह या तुम किसी एक प्रमेयत्य, अग्नि, आदि हेतुओंके अनेकान्तिकपनको चाहते हो और कहीं अग्नि आदिमें अनुमान ज्ञानसे प्रवृत्ति होनेको स्वीकार करते हो तो सिद्धान्ती कहते हैं कि तब तो इस (तुम) भळे मानुष पण्डितकरके उस सजातीय पदार्थके धर्मोके सदृश ही अन्य उन सजातीय पदार्थोके धर्म सविनय स्वीकार करने पड़ेंगे । ऐसा होनेपर क्रियाके कारण हो रहे वायु वनस्पति संयोगके समान जातिवाला ही वायु आकाशसंयोग भी क्रियाका कारण ही है। और तैसा हो जानेपर प्रतिकूल दृष्टान्त हो रहे आकाश करके प्रतिवादी द्वारा वादीके ऊपर प्रत्यवस्थान उठाया जा सकता है। ऐसा प्रतिदृष्टान्त समप्रतिषेधको कहनेवाले जाति वादीका अभिप्राय है।
स चायुक्तः। प्रतिदृष्टान्तसमस्य दूषणाभासत्वात् प्रकृतसाधनापतिबंधित्वात्तस्य, प्रतिष्टान्तो हि स्वयं हेतुःसाधका साध्यस्य न पुनरन्येन हेतुना तस्यापि दृष्टांतांतरापेक्षायां दृष्टांतांतरस्य वा परेण हेतुना साधकत्वे परापरदृष्टांतहेतुपरिकल्पनायामनवस्थाप्रसंगात् । तथा दृष्टान्तोपि न परेण हेतुना साधकः प्रोक्तानवस्थानुषंगसमानत्वात्ततो दृष्टान्तेपि पतिरष्टान्त इव हेतुवचनाभावाद्भवतो दृष्टान्तोस्तु हेतुक एव ।
____ न्यायसिद्धान्ती अब उक्त जातिका असत् उत्तरपना बताते हैं कि प्रतिवादी द्वारा वह प्रति दृष्टान्तसम प्रतिषेध उठाना तो समुचित नहीं है । क्योंकि प्रतिदृष्टान्तसमा जाति तो समीचीन दूषण नहीं होती हुई दूषणसदृश दीख रही दूषणाभास है । वह प्रकरण प्राप्त साधनकी प्रतिबंधिका नहीं हो सकती है। प्रकृतके साधनको बिगाडता नहीं है । वह दूषण नहीं है । किसी मनुष्यकी सुंद. रताको अन्य पुरुषका काणापन नहीं बिगाड देता है । बगियामें उपज रहे नीवका कडुलापन बोरी में रखी हुई खाण्डके मीठेपनका प्रतिबंधक नहीं है। प्रतिवादी द्वारा दिया गया प्रतिदृष्टान्त आकाश तो दूसरे किसीकी नहीं अपेक्षा कर स्वयं ही नित्यत्व साध्यका साधक माना जायगा । पुनः अन्य हेतु करके तो वह प्रतिदृष्टान्त साध्यका साधक नहीं है । अन्यथा उस अन्य साध्यसाधक दृष्टान्तरूप हेतुको भी दृष्टान्तोंकी अपेक्षा हो जानेपर उस अन्य दृष्टान्तको भी तीसरे, चौथे, आदि मिन्न भिन्न दृष्टान्तरूप हेतुओं करके साधकपना मानते मानते उत्तरोत्तर दृष्टान्तस्वरूप हेतुओंकी कल्पनाबोका चारों ओरसे परिवार बढते संते अनवस्था दोषका प्रसंग होगा । अतः प्रतिदृष्टान्त स्वतः ही
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
साध्वका साधक है । तिसी प्रकार दृष्टान्त डेल भी दूसरे हेतु या दृष्टांत करके साध्यका साधक नहीं है। किंतु स्वतः सामार्थ्यसे अनित्यत्वका साधक है । अन्यथा पहिले मळे प्रकार कह दी गयी अनवस्थाका प्रसंग समान रूपसे लागू हो जायगा । तिस कारण प्रतिवादीके हो रहे आपके कहे गये आकाश दृष्टांतमें जैसे उसके समर्थक हेतुका कथन करना आवश्यक नहीं है, उसी प्रकार वादीके दृष्टान्तमें भी हेतु वचनकी आवश्यकता नहीं है । अतः आपके यहो वह डेक भी साधकका हेतु ही हो रहा मछा दृष्टान्त हो जाओ। जब प्रतिवादीने डेलको दृष्टान्त स्वीकार कर लिया तो प्रतिवादी आकशको अब प्रतिदृष्टान्त नहीं बना सकता है। " प्रतिदृष्टान्तहेतुत्वे च नाहेतुर्दृष्टान्तः " इस सूत्रके भाष्यमें माष्यकार कहते हैं कि प्रतिदृष्टान्तको कहनेवाले प्रतिवादीने कोई विशेष हेतु तो कहा नहीं है कि इस प्रकारसे मेरा प्रतिदृष्टान्त आकाश तो आत्माके निक्रिय साध्यका साधक है । और बादीका डेल दृष्टान्त आत्माके सक्रियत्वका साधक नहीं है । इस प्रकार प्रतिदृष्टान्त हेतुपने करके वादीका दृष्टान्त बहेतुक नहीं है। यह सूत्र आभिमत सध जाता है। किन्तु वह प्रतिवादीका दृष्टान्त अहेतुक क्यों नहीं होगा । जब कि बादीके साधकका उससे निषेध नहीं किया जा चुका है। अतः ऐसे युक्ति रहित दूषण उठाना प्रतिवादीका उत्तर प्रशस्त नहीं है।
तदाहोद्योतकरः । प्रतिदृष्टान्तस्य हेतुभावं प्रतिपपद्यमानेन दृष्टांतस्यापि हेतुभावोभ्युपगंतव्यः । हेतुभावश्च साधकत्वं स च कथमहेतुर्न स्यात् । यद्यप्रतिषिदः स्यात् अपति सिदश्चायं साधकः। ___उसी बातको उद्योतकर पण्डित यों कह रहे हैं कि अपने प्रतिदृष्टान्तको साध्यकी हेतुतारूपसे समझ रहे प्रतिवादीकरके वादीके दृष्टान्तको भी स्वसाध्यकी हेतुता स्वीकार कर लेनी चाहिये । हेतुभाव हो तो साध्यका साधकपन है। वह भला अन्य कारणोंकी अपेक्षा रखे बिना ही आहेतु क्यों नहीं होगा ! अर्थात्-वादीका दृष्टान्त या हेतुकी नहीं अपेक्षा रखता हुधा प्रकृत साध्यका साधक हो जाता है। यदि यह प्रतिवादीके दृष्टान्तसे प्रतिषिद्ध नहीं हुआ है, जब बाल बाल बच गया है तो अप्रतिषिद्ध हो रहा यह आत्माके सक्रियत्वका साधक हो ही जायगा । ऐसी दशामें प्रतिवादीका उत्तर समीचीन नहीं है।
किं च, यदि तावदेवं ब्रूते यथायं त्वदीयो दृष्टांतो लोष्ठादिस्तथा मदीयोप्पाकाशादिरिति तदा दृष्टांतस्य लोष्ठादेरभ्युपगमान दृष्टान्तत्वं व्याघातत्वात् ।
प्रतिदृष्टान्तसमके दूषणाभासपनमें दूसरी उपपत्ति यह भी है कि यह जातिवादी यदि निर्लज्ज होकर पहिले ही इस प्रकार स्पष्ट कह बैठे कि जिस प्रकार यह तेरा ( वादीका ) डेल, गोली आदि दृष्टांत है, तिसी प्रकार मेरा (प्रतिवादीका ) भी आकाश, चुम्बकपाषाण, काल, भादिक दृष्टान्त है। यों कहनेपर तो सिद्धान्ती कहते हैं कि तब तो प्रतिवादीने लोष्ठ, गोला आदि दृष्टान्तोंको
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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
समीचीन दृष्टान्तपनसे स्वीकार कर लिया है। ऐसी दशामें आकाश आदिको प्रतिपक्षका साधक दृष्टान्तपना नहीं बन सकता है। क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है । "पर्वतो वन्हिमान् धूमात्" यहां रसोई घरको बढिया अन्वय दृष्टान्त मान रहा पण्डित सरोवरको अन्वयदृष्टान्त नहीं कह सकता है। रसोई घरको दृष्टान्त कहते ही सरोवरके अन्वयदृष्टान्तपनका विघात हो जाता है। फिर भी चलाकर सरोवरको अन्वयदृष्टान्त यदि कह देगा तो उसके ऊपर व्याघात दोष लागू हो जायगा । जैसे कि किसी पुरुषको मनुष्य कहकर उसको अमनुष्य कहनेवालेके ऊपर प्रहके समान व्याघात दोष लग बैठता है । उसी प्रकार साध्य सिद्धिमें अनुकूल, प्रतिकूल, हो रहे डेल, या
आकाशमसे एकका दृष्टान्तपना स्वीकार कर चुकनेपर बचे हुये दूसरेका अदृष्टान्तपन ही सिद्ध हो जाता है । एक साथ अनुकूल, प्रतिकूल, दोनोंके समीचीन दृष्टान्तपनका तो विरोध है । जब कि यहां जैसा तेरा दृष्टान्त है, वैसा मेरा दृष्टान्त है । यह प्रतिवादीने स्वमुखसे कह दिया है। एता. वता उसने वादीके दृष्टान्तको अंगीकार कर लिया है । ऐसी दशामें प्रतिवादी अब प्रतिकूळ दृष्टान्तको कथमपि नहीं बोल सकता है । व्याधात दोष उसके मुखको मसोस देवेगा।
अथैवं ब्रूते यथायं मदीयो दृष्टान्तस्तथा त्वदीय इति तथापि न दृष्टान्तः कश्चित व्याघातादेव दृष्टान्तयोः परस्परं व्याषातः समानबलत्वात् । तयोरदृष्टान्तत्वे तु । प्रतिदृष्टान्तस्य ह्यदृष्टान्तत्वे दृष्टान्तस्यादृष्टान्तत्वव्याघातः प्रतिदृष्टान्ताभावे तस्य दृष्टान्तत्वो. पपत्तेः दृष्टान्तस्य चादृष्टान्तत्वे प्रतिदृष्टान्तस्यादृष्टान्तत्वव्याघातः दृष्टान्ताभावे तस्य प्रति दृष्टान्ततोपपत्तेः । न चोभयोदृष्टांतत्वं व्याघातादिति न प्रतिदृष्टान्तेन प्रत्यवस्थानं युक्तं ।
सिद्धान्ती ही कहते हैं कि अब यदि प्रतिवादी इस प्रकार कह बैठे कि जैसा यह आकाश मेरा दृष्टान्त है, उसी प्रकार तुझ वादीका डेल दृष्टान्त है । यों कहनेपर भी व्याघातदोष माता है । अतः तो भी दोनोंमेंसे कोई दृष्टान्त नहीं हो सकता है। बात यह है कि पहिले प्रतिवादीने जैसा तेरा दृष्टान्त है, वैसा मेरा दृष्टान्त है, यों कहा था और अब जैसे मेरा दृष्टान्त है, वैसे तेरा दृष्टान्त है, इस प्रकार कहा है । यों कह देनेपर पहिला दिया हुआ वादीके पक्षको पुष्ट करनेवाला व्याघातदोष तो निर्बल पड़ जाता है । तो भी क्या हुआ । व्याघात दोष तदवस्थ रहेगा । आमाके क्रियावत्वको साधनेमें प्रतिकूल हो रहे अपने आकाश दृष्टान्तको समीचीन दृष्टान्त कह रहा प्रतिवादी पुनः लगे हाथ क्रियावत्त्व साधने में अनुकूल हो रहे वादीके डेल दृष्टान्तको दृष्टान्त नहीं कर सकता है । यदि कह देगा तो पूर्वापरविरुद्ध कथन करनेसे इसमें व्याघात दोष आता है। अथवा " यथायं मदीयो न दृष्टन्तस्तथा त्वदीयोपीति " ऐसा पाठ होनेपर पर यों अर्थ कर लेना कि जैसे आत्माके क्रियारहितपनको साधनेमें मेरा आकाश दृष्टान्त प्रयोजफ नहीं हैं, उसी प्रकार तुम वादी का कोई डेढ दृष्टान्त भी आत्माके क्रियावस्वका प्रयोजक नहीं है । सिद्धान्ती कहते हैं कि तो व्याघात
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
दोष हो जानेके कारण ही कोई दृष्टान्त नहीं हो सकता है। क्योंकि दृष्टान्त भी इनका समानवल सहितपना होनेके कारण परस्पर में "सुन्दउपसुन्द" न्याय अनुसार व्याघात और प्रतिदृष्टांत जायगा, जैसे कि यहां घट नहीं और अघट भी नहीं, ऐसा कहनेपर व्याघात है । सत्का निषेध करते ही उसी समय असतुका विधान हो जाता है । और असत्का निषेध करनेपर उसी समय सत्की विधि हो जाती है । परस्परविरुद्ध हो रहे दो धर्मोका युगपत् निषेध करना असंभव है । क्योंकि व्याघात दोष मुंह फाडे खडा हुआ है । विरुद्ध हो रहे डेठ, आकाश, इन दोनोंमें एक साथ ही दृष्टान्तपना नहीं बन पाता है । प्रतिदृष्टान्त आकाशको अदृष्टान्त माननेपर उसी समय डेल दृष्टान्तके अदृष्टान्तपनाका व्याघात ( निराकरण ) हो जाता है । क्योंकि आकाशका प्रतिदृष्टान्तपना निषेध किये जानेपर उस डेलको दृष्टान्तपना सुलभरीति से सघ जाता है । घटरहितपनका प्रत्याख्यान कर देने से
सहितपना सुलभतया रक्षित हो जाता है । तथा डेल दृष्टान्तका अदृष्टान्तपना मान चुकने पर पुनः प्रतिदृष्टान्त आकाशके अदृष्टान्तपन कथन करनेमें व्याघात दोष आवेगा, क्योंकि डेलको दृष्टान्त पना नहीं बनने पर उसी समय उस आकाशको प्रतिदृष्टान्तपना युक्तिसिद्ध हो जाता है। आकाश और डेल दोनोंका दृष्टान्तपना तो व्याघातदोष हो जानेसे नहीं बन पाता है । इस कारण प्रतिवादीको प्रतिदृष्टान्त आकाश करके प्रत्यवस्थान उठाना समुचित नहीं है । अतः यह प्रतिदृष्टान्तसमा जाति कहना प्रतिवादीका समीचीन उत्तर नहीं है ।
कारणाभावतः पूर्वमुत्पत्तेः प्रत्यवस्थितिः ।
यानुत्पत्त्या परस्योक्ता सानुत्पत्तिसमा भवेत् ॥ ३६८ ॥ शद्वो विनश्वरो मर्त्यप्रयत्नानन्तरोद्भवात् । कदंबादिवदित्युक्ते साधने प्राह कश्चन ॥ ३६९ ॥ प्रागुत्पत्तेरनुत्पन्ने शद्वेऽनित्यत्वकारणं । प्रयत्नानंतरोत्थत्वं नास्तीत्येषोऽविनश्वरः ॥ ३७० ॥ शाश्वतस्य च शब्दस्य नोत्पत्तिः स्यात्प्रयत्नतः । प्रत्यवस्थेत्यनुत्पत्त्या जातिर्न्यायातिलंघनात् ।। ३७१ ॥ उत्पन्नस्यैव शब्दस्य तथाभावप्रसिद्धितः । प्रागुत्पत्तेर्न शब्दोस्तीत्युपालंभः किमाश्रयः ॥ ३७३ ॥
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तत्वार्थश्लोकषार्तिके
सत एव तु शब्दस्य प्रयत्नानंतरोत्थता । कारणं नश्वरत्वेस्ति तनिषेधस्ततः कथम् ॥ ३७३॥
उत्पत्तिके पहिले ताल आदि कारणों के अभावसे जो अनुत्पत्ति करके प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, यह दूसरे प्रतिवादीकी अनुत्पत्तिसमा नामकी जाति कही गयी समझनी चाहिये । जैसे कि शद्ध ( पक्ष ) विनाशस्वभाववाला है ( साध्य ), मनुष्यके प्रयत्न द्वारा अव्यवहित उत्तर काळमें उत्पत्ति. वाला होनेसे ( हेतु ) कदंब वृक्ष, खडुआ, घडा, कपडा आदिके समान (अन्वय दृष्टान्त ), यों वादी द्वारा साघम करनेपर कोई एक प्रतिवादी भाटोप सहित कहता है कि उत्पत्तिके पहिले नहीं उत्पन्न हो चुके शद्बमें अनित्यपनेका कारण प्रयत्न अनन्तर उपजना तो नहीं है। इस कारण यह शब्द अविनश्वर ( नित्य ) हो गया अर्थात्-उत्पत्तिके पहिले जब शद्वका कोई उत्पादक कारण ही नहीं है,तो अकारणवान् शब्द नित्य सिद्ध हो गया और ऐसी दशामें नित्य हो रहे शन्की प्रयत्न द्वारा उत्पत्ति नहीं हो सकती है, इस प्रकार यह अनुत्पत्ति करके दूषण उठाना अनुत्पत्तिहमा जाति है। सिद्धान्ती कहते हैं, जो कि असत् उत्तर है दूषणाभास है। क्योंकि प्रतिवादीने न्यायमार्गका अधिक उल्लंघन किया है । कारण कि उत्पन्न हो चुके ही धर्मी हो रहे शब्दके तिस प्रकार प्रयत्न अनन्तर भवन अथवा उत्पत्तिसहितपन ये धर्म प्रसिद्ध हो रहे सम्भवते हैं । जब कि उत्पत्तिके पहिले शद्ध ही विद्यमान नहीं है, तो यह प्रतिवादीका अनुत्पत्ति रूपकरके उलाहना देना किस अधिकरणमें ठहरेगा ! विद्यमान हो रहे ही शब्दके तो नाशशील सहितपनमें कारण हो रहा प्रयत्ननंतर उत्पाद होना हेतु सिद्ध है । तिस कारणसे उस नश्वरत्वका प्रतिषेध प्रतिवादी द्वारा कैसे किया जा सकता है ? यानी उक्त दूषण उठाना सर्वथा अनुचित है।
उत्पत्तेः पूर्व कारणाभावतो या प्रत्यवस्थितिः परस्यानुत्पत्तिसमा जातिरुक्ता भवत् "प्रागुत्पत्तेः कारणाभावादनुत्पत्तिसम " इति वचनात् । तद्यथा-विनश्वरः शन्दः पुरुषप्रयत्नोद्भवात् कदंबादिवदित्युक्ते साधने सवि पर एवं ब्रवीति प्रागुत्पत्तेरनुत्पने शन्दे विनश्वरत्वस्य कारणं यत्प्रयत्नानंतरीयकत्वं तन्नास्ति सतोयमाविनश्वरः, शाश्वतस्य च शब्दस्य न प्रयत्नानंतरं जन्मेति सेयमनुत्पत्या प्रत्यवस्था दूषणाभासो न्यायातिसंघनात् । उत्पन्नस्यैष हि शब्दधर्मिणः प्रयत्नानंतरीयकत्वमुत्पत्तिधर्मकत्वं वा भवति, नानुत्पन्नस्य प्रागुत्पत्तेः शब्दस्य चासत्वे किमाश्रयोयमुपालंभः । न अयमनुत्पन्नोऽसव शन्द इति वा प्रयत्नानंतरीयक इति वा अनित्य इति वा व्यपदेष्टुं शक्यः । शब्दे तु सिद्धमेव प्रयत्नानंतरीयकत्वं कारणं नश्वरत्वे साध्ये ततः कथमस्य प्रतिषेधः ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
साधनके बङ्ग हो रहे पक्ष, हेतु, दृष्टान्तोंकी उत्पत्तिके पहिले मायके वापक कारणका अभाव हो नानेसे बो दूसरे प्रतिवादीके द्वारा प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, वह उसकी अनुत्पत्तिममा जाति कह दी जावेगी । गौतमऋषिने न्यायदर्शनमें ऐसा ही मूळसूत्र कहा है कि उत्पत्तिके पहिले कारण का अमाव दिखला देनेसे अनुत्पत्तिसम नामका प्रतिषेध है । उसी बातको न्यायभाष्य अनुसार उदाहरणसहित स्पष्ट यों कह देते हैं कि शब्द ( पक्ष ) विनाश स्वभाववान् है ( साध्य) पुरुषके कंठ, ताल, अभ्यन्तर प्रयत्न, बाह्य प्रयत्न आदि व्यापारोंकरके उत्पन्न होना हो जानेसे (हेतु)। कदम्ब या कटक, केयूर, घडा, आदि के समान (दृष्टान्त) इस प्रकार वादीकरके साध्यका साधन कर चुकनेपर प्रतिवादी इस ढंगसे बोलता है कि उत्पत्तिसे पहिले नहीं उत्पन हो चुके शब्दमें विनश्वरपनेका कारण जो प्रयत्नानंतरीयकत्व कहा था वह वहां नहीं है। तिस कारणसे यह शब्द अविनाशी प्राप्त हुना और अविनाशी नित्य हो रहे शब्दकी पुनः पुरुषप्रयत्न के अव्यवहित उत्तर कालमें उत्पत्ति होती नहीं है। इस कारण अनुत्पत्तिकरके दूषण देना अनुत्पत्ति प्रतिषेध है। अब न्यायसिद्धान्ती कहते हैं कि सो यह अनुत्पत्तिकरके दूषण उठाना तो प्रतिवादीकी ओरसे दूषण नहीं होकर दूषणा भास उठाना समझा जाता है । क्योंकि ऐसा कहनेवाले प्रतिवादीने न्यायमार्गका अति अधिक उल्लंघन कर दिया है । गौतम सूत्र " तथामावादुत्पन्नस्य कारणोपपत्तेन कारणप्रतिषेधः " के अनुसार समझमें आ जाता है । कारण कि उत्पन्न हो चुके ही धर्मवान् शब्दके प्रयत्नान्तरीयकत्व अथवा उत्पत्तिधर्मकत्व, ये धर्म सम्भवते हैं। नहीं उत्पन्न हुये शब्दके कोई धर्म नहीं ठहरता है । " सति धर्मिणि धर्माणां मीमांसा स्यात् "। उत्पत्तिके पहिले जब शब्द है ही नहीं तो यह प्रतिवादीकरके उलाहना किसका आश्रय कर दिया जा रहा है ! तिस प्रकार उत्पन हो चुके ही पदार्थको शब्द कहा जाता है। यह शब्द उत्पत्ति नहीं होनेपर तो सत् ही नहीं है। अनुस्पन्न शब्द असत् ही है, जो बश्वविषाणके समान असत् पदार्थ है। वह शब्द है, इस प्रकार अथवा प्रयत्नान्तरीयक है, इस प्रकार अथवा अनित्य है, इस प्रकार व्यवहार करने योग्य नहीं है । जीवितके सब साथी या सहायक हैं । नहीं पैदा हुये या मर चुकेमें कोई धर्म विधमान हो रहा नहीं कहा जाता है। हां, शब्दके उपज जानेपर तो नश्वरपने साध्यमें ज्ञापक कारण हो रहा प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु सिद्ध ही है । तिस कारण पुनः इसका प्रतिषेध भला प्रतिवादी द्वारा कैसे किया जा सकता है ! उत्पत्तिके पहिले पदार्थमें हेतुके नहीं ठहरनेसे हेस्वसिद्धि नहीं हो जाती है। अन्यथा तुम्हारे (प्रतिवादकि) हेतुका मी कहीं अमाव हो जानेसे अनिद्धि हो जायगी । इसी प्रकार पक्ष,दृष्टान्त बादिकी सिद्धि भी हो जाती है। आत्मलाभ करनेपर ही सब गुण गाये जाते हैं। कदाचित साध्यके साथ वहाँ हेतुका सद्भाव हो जानेसे ही दृष्टान्तपना बन जाता है। इसी प्रकार हेतु आदिकोंका जब कभी पक्षमें ठहर जानेसे ही हेतु बादिपना सध जाता है। पक्षमें सर्वत्र, सर्वदा, हेतु भादिकके सद्भावकी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये । अतः शदों विनश्वरपना साध्य करनेपर वादीका
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तत्वार्थ को वार्तिके
प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु समीचीन है । प्रतिवादी द्वारा उसका प्रतिषेध नहीं हो सका है। भले प्रकार चल रहे वृषभमें आर चुभोना अन्याय है ।
किं चायं हेतुपको न पुनः कारको ज्ञापके च कारकवत्मत्यवस्थानमसंबद्धमेव । ज्ञापकस्यापि किंचित्कुर्वतः कारकत्वमेवेति चेत् न, क्रियाहेतोरेव कारकत्वोपपत्तेरन्यथानुपपत्तिरिति हेतोर्ज्ञापकत्वात् । कारकता हि वस्तुत्पादयति ज्ञापकस्तूत्पन्नं वस्तु ज्ञापयतीत्यस्ति विशेषः कारकविशेषे वा ज्ञापके कारकसामान्यवत्प्रत्यवस्थानमयुक्तं ।
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क्रियाओं के संपादक
दूसरी बात हम सिद्धान्तीको यह भी कहनी है कि यह प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु ज्ञापक हेतु है । यह कारक हेतु तो नहीं है, तो फिर ज्ञापक हेतुमें कारकहेतुके समान अथवा कारक साधनों में संभवनेवाले दूषणोंका उठाना असंगत ही है । अर्थात् उत्पत्तिके पूर्वमें शद्व नहीं है । अतः प्रयत्नजन्यत्व नहीं ठहर पाया । ये सब अव्याप्ति, अन्वय व्यभिचार, आदिक तो कारक हेतुओं के दोष हैं। ज्ञापक हेतुओंके दोष तो व्यभिचार, विरुद्ध, आदिक हैं । ज्ञापकके प्रकरणमें कारकों के दोष उठाना पूर्वापर सम्बन्धकी अज्ञताको ही प्रकट कर रहा है। यदि यहां कोई यों कहे कि ज्ञापक हेतु भी कुछ न कुछ साध्यको साधना, अनुमान ज्ञानको उपजाना, हेतुज्ञप्ति कराना, आदि कार्यको कर ही रहा है । अतः ज्ञापक हेतुको भी कारकपना आपाततः सिद्ध हो ही जाता है । अब सिद्धान्ती कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि हेतुको ही कारकपना युक्तिसिद्ध है । और अन्यथा अनुपपत्ति हो जाने से यानी साध्यके बिना हेतुके सद्भावकी असिद्धि हो जानेसे हेतुका ज्ञापकपना व्यवस्थित है । कारकपना तो प्राक् असत् हो रही वस्तुको उत्पन्न कराता है और ज्ञापक तो उत्पन्न हो चुकी वस्तु का ज्ञानमात्र करा देता है। इस प्रकार इन दंड आदि करके और धूम आदि ज्ञापक हेतुओंका अंतर माना गया है । अथवा आपके कथनानुसार कुछ न कुछ क्रिया कर देनेसे ज्ञापक हेतुको विशेष जातिका कारक हेतु मान भी लिया जाय तो भी सामान्य कारकोंमें सम्भवनेवाले प्रत्यवस्थानको विशेष कारक हेतुमें उठाना उचित नहीं है। विशेष पदार्थ में सामान्यके दोष नहीं लागू होते हैं । अतः उत्पत्ति के पहिले शब्द में अनित्यत्वका साधक प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु नहीं रहा, यह दोष अवतर उचित नहीं है ।
किं च प्रागुत्पत्तेरप्रयत्नानंतरीयको अनुत्पत्तिधर्मको वा शब्द इति ब्रुवाणः शब्दमभ्युपैति नासतो प्रयत्नानंतरीयकत्वादिधर्म इति तस्य विशेषणमनर्थकं प्रागुत्पत्तेरिति ।
तीसरी बात यह भी है कि जो प्रतिवादी यों कह रहा है कि उत्पत्तिके पहिले शब्द में हेतु साध्य दोनों भी नहीं हैं। अतः शब्द प्रयत्नान्तरीयक नहीं है और उत्पत्ति धर्मवाला अनित्य भी
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नहीं है । सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार कह रहा प्रतिवादी शब्दको अवश्य स्वीकार करता है । शशविषाणके समान असत् पदार्थके प्रयत्नान्तरीयकत्व, अनित्यत्व, व्याप्ति आदिक धर्म नहीं हो सकते हैं । इस कारण उत्पत्तिके पहिले यह तुम्हारे विचार अनुसार नित्य हो रहे उस शब्दका विशेषण लगाना व्यर्थ पडा, जो बात यों ही विना कहे प्राप्त हो जाती है, उसको विशेषण लगा कर पुनः कहना निष्प्रयोजन है ।
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अपरे तु प्राहुः, प्रागुत्पत्तेः कारणाभावादित्युक्ते भर्थापत्तिसमैवेयमिति प्रागुत्पत्तेः प्रयत्नानंतरीयकत्वस्याभावादप्रयत्नानंतरीयकत्वाच्च इति कृतेऽसत्प्रत्युत्तरं ब्रूते । नायं नियमो प्रयत्नानंतरीयकत्वं नित्यमिति तु न हि तस्य गतिः किंचिन्नित्यमाकाशाद्येव, किंचिदनित्यं विद्युदादि, किंचिदसदेवाकाशपुष्पादिति । एतत्तु नापरेषां युक्तमिति पश्यामः । कथमिति । यत्तावदसत्तदमयत्नानंतरीयकत्वं वाजन्मविशेषणत्वात् यस्याप्रयत्नानंतरं जन्म तदप्रयत्नानंतरीयकं न चाभावो विद्यते अतो न तस्य जन्म यच्चासत् किं तस्य विशेषमस्ति एतेन नित्यं प्रयुक्तं न हि नित्यमप्रयत्नानंतरीयकमिति युक्तं वक्तं, तस्य जन्माभावादिति जातिलक्षणाभावान्नेयमनुत्पत्तिसमा जातिरिति चेत् । नानुत्पत्तेरहेतुभिः साधर्म्यात् पटोs - नुत्पन्नैस्तन्तुभिस्तद्यथानुत्पन्नास्तंतबो न पटस्य कारणमिति ।
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दूसरे विद्वान् तो यहां बहुत अच्छा यों कह रहे हैं कि उत्पत्तिके पहिले ज्ञापक कारणके अभाव हो जाने से प्रत्यवस्थान देना अनुत्पत्तिसम जाति है । इस प्रकार कह चुकनेपर यह अर्थापत्तिसमा नामकी ही जाति हुई । क्योंकि अर्थापत्ति करके प्रतिकूल पक्षकी सिद्धि कर देनेसे अर्थापत्तिसमा जाति हुई मानी गयी है । जैसे कि अनित्यता के साधक प्रयत्न अनंतरीयकत्वके साधर्म्यसे शद्ध अनित्य है, तो नित्यके साधर्म्यसे शब्द नित्य भी हो जायगा । शद्वका नित्यके साथ स्पर्शरहितपन साधर्म्य तो है । अर्थात् आकाश, आत्मा, जाति, आदिक पदार्थ स्पर्शरहित हो रहे नित्य हैं । गुणमें अन्य गुणोंके नहीं रहनेके कारण इस शद्वगुणमें भी स्पर्श नहीं है। यहां जिस प्रकार अर्थापत्तिसमा जाति है, उसी प्रकार उत्पत्तिके पहिले शद्वमें प्रयत्न अनन्तर भावित्वके नहीं होनेसे और ठक करके अनुक्तका आक्षेप कर लेना स्वरूप अर्थापत्ति करके शद्रका अप्रयत्नान्तरीयकपना हो जाने से नित्यत्व प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार कथन करनेपर प्रतिवादी तो जातिस्वरूप असमीचीन प्रत्युउत्तर कह रहा है । कारण कि यह तो नियम नहीं है कि जो अप्रयत्नानंतरीयक होय वह पदार्थ नित्य ही माना जाय । अप्रत्नानंतरीयकपनेसे उस नित्यपनेके ज्ञाप्ति नहीं हो पाती है। देखिये कि पुरुषप्रयत्न के अव्यवहित उत्तर काल में नहीं जन्यपना रूप अप्रयत्नान्तरीयकपना होते हुये कोई कोई आकाश का द्रव्य आदिक पदार्थ तो नित्य ही हैं । और पुरुषप्रयत्नसे अजन्य हो रहे कोई अप्रयत्नानंतरीयक पदार्थ तो अनित्य है । जैसे कि बिजली, मेघ, गांधी, ऋतुपलटना, भूकम्प, आदि हैं ।
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तथा अप्रयत्नानन्तरीयक शद्वमें प्रसज्य नका आश्रय करनेपर कोई अप्रयत्नजन्य भाकाशपुष्प, अश्वविषाण, बन्ध्यापुत्र आदिक सर्वथा असत् ही हैं। अब न्यायसिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार दूसरे विद्वानोंका यह कहना तो युक्तिपूर्ण नहीं है, ऐसा हम देख रहे हैं। किस प्रकारसे उनका कहना युक्तिसहित नहीं है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर हम सिद्धान्ती यों कहते हैं कि जो आपने पूर्वमें सर्वथा असत् आकाशपुष्प आदिको अप्रयत्नानन्तरीयक कहा था, वह उचित नहीं है। क्योंकि अप्रयत्नानन्तरीयकपना तो जन्मका विशेषण है। पुरुषप्रयत्नके विना अन्य कारणस्वरूप अप्रयत्नोंके अनंतर काळमें जिस पदार्थका जन्म होता है, यह अप्रयत्नान्तरीयक माना जाता है। किन्तु तुच्छ अभाव या असत् पदार्थ तो आत्मलाम नहीं करता है । अतः उसका जन्म नहीं हो पाता है। दूसरी बात यह है कि जो आकाशपुष्प सर्वथा असत् है, उसका विशेष्य भला क्या हो सकता है ! विशेष्य या विशेषण तो सद्भूत पदार्थोके हुआ करते हैं। इस कथनसे आकाश, आत्मा, परममहापरिमाण, सामान्य आदि नित्य पदार्थोंका अप्रयत्नानन्तरीयकपना खण्डित कर दिया गया समझ लेना चाहिये । कारण कि नित्य पदार्थ अप्रयत्नान्तरीयक है, इस प्रकार कहना ही उचित नहीं है। क्योंकि उस नित्य पदार्थका जन्म नहीं होता है। जीव प्रयत्नके बिना अन्य कारणोंसे जन्म ले रहे पदार्थोंमें ही प्रयत्नानन्तरीयकपना सम्भवता है । अतः तुम्हारा मध्यम पक्ष ही ठीक जचता है । यदि कोई यों कहे कि तब तो जातिका असत् उत्तररूप लक्षण यहां घटित नहीं हो पाता है । अतः यह अनुत्पत्तिसमा जाति नहीं हुई । इसपर तो सिद्धान्ती कहते हैं कि यों नहीं कहना चाहिये । क्योंकि उत्पत्तिके पहिले शब्दकी अनुत्पत्ति हो जामेसे हेतुरहित हो रहे नित्य आकाश आदि पदार्थोके साथ साधर्म्य मिल जानेसे शब्दके नित्यपनकी प्राप्तिका प्रसंग इस अमुत्पत्ति समामें प्रतिवादीद्वारा उठाया जा सकता है । किन्तु वह समीचीन उत्तर नहीं है । अनुत्पन्न तन्तुषों करके नहीं बुनना होनेसे पट नित्य नहीं हो जाता है । उसको स्पष्ट यों समझ लीजिये कि नहीं उत्पन्न हो चुके सूत तो पटके कारण नहीं हैं। यहांतक अनुत्पत्तिसमा जातिका विचार हो चुका है।
सामान्यघटयोस्तुल्प ऐंद्रियत्वे व्यवस्थिते । नित्यानित्यत्वसाधात् संशयेन समा मता ॥ ३७४ ॥ तत्रैव साधने प्रोक्ते संशयेन स्वयं परः। प्रत्यवस्थानमाधत्तेऽपश्यन् सद्भूतदूषणम् ॥ ३७५ ॥ प्रयत्नानंतरोत्थेपि शब्दे साधर्म्यमेंद्रिये । सामान्येनास्ति नित्येन घटेन च विनाशिना ॥ ३७६ ॥
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तादृशेनेति सन्देहो नित्यानित्यत्वधर्मयोः । स चायुक्तो विशेषेण शद्वानित्यत्वसिद्धितः ॥ ३७७ ॥ यथा पुंसि विनिर्णीते शिरः संयमनादिना । पुरुषस्थाणुसाधम्योंर्द्धत्वतो नास्ति संशयः ॥ ३७८ ॥ तथा प्रयत्नजत्वेन नित्ये शब्दे विनिश्रिते । घटसामान्यसाधर्म्यदेंद्रियत्वान्न संशयः ।। ३७९ ।। संदेहेत्यंतसंदेहः साधर्म्यस्याविनाशतः । पुंस्थाण्वादिगतस्येति निर्णयः क्कास्पदं व्रजेत् ॥ ३८० ॥
पर, अपर, सामान्य, और घट दृष्टान्तका इन्द्रिय ज्ञान द्वारा प्रापना तुल्यरूपसे व्यबस्थित हो चुकनेपर निश्यपन और अमिध्यपनके साधर्म्यसे संशयसमा जाति हुई । नैयायिकों के यहां मानी गयी है। जैसे कि तिसी प्रकार वहां ही प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतुसे घटके समान शमें अनित्यपनका भ प्रकार शाद्वबोध कर चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी स्वयं समीचीन हो रहे दूषणको नहीं देखता हुआ संशय करके प्रत्यवस्थानका आधान करता है कि पुरुष प्रयत्न व्यापारके अनन्तर मी उत्पन्न हुये बहिः इन्द्रियजन्य ज्ञान प्राथ हो रहे शद्व में नित्य माने गये घटस्व, पटत्व, या शद्वश्व सामान्यों ( नित्य जातियां ) करके साधर्म्य है । अर्थात् जिस इन्द्रियसे जो जाना जाता है, उसमें रहनेवाला सामान्य और उसका अभाव भी उसी इन्द्रियसे जाना जाता है। इस नियमके अनुसार बट इम्य और घटत्व सामान्य दोनों चक्षु या स्पर्शन इन्द्रियसे जान किये जाते हैं । शद्वगुण और शत्रुत्व जाति दोनों कर्ण इन्द्रिय विषय हो जाते हैं। अतः शङ्खका निष्य सामान्यके साथ ऐन्द्रियकत्व साध है । तथा तिस प्रकारके प्रयत्न अनन्तर जन्य हो रहे बिनाशी (अनित्य ) घटके साथ समानधर्मापन विद्यमान है । इस प्रकार शद्वके नित्यपन, अनित्यपन धमोंमें संदेह हो जाता है । अब सिद्धान्ती संशयसमा जातिका असमीचीनपना दिखाते हैं कि संशयसमा जातिको कहनेवाले प्रतिवादीका वह संशय उठाकर प्रत्यवस्थान देना तो युक्त नहीं है। क्योंकि विशेष रूपसे प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु द्वारा शद्वके अनित्यपनकी सिद्धि हो चुकी है । जैसे कि शिरको बांधना, चलना, केशोंका बांधना सम्हालना, हाथ पैर हिलाना आदि व्यापारों करके पुरुषका विशेष रूपसे पर पुनः पुरुष और ठूंठके साधर्म्य हो रहे ऊर्ध्वता धर्मसे संशय नहीं हो पाता है । तिसी प्रकार प्रयत्न जन्यस्थ हेतु करके शद्वके अनित्यपनका विशेष रूपसे निश्चय हो चुकनेपर पुनः घट और सामान्य के साधर्म्य हो रहे ऐन्द्रियकत्व धर्मले संशय नहीं हो सकता है। यदि निर्णय हो चुकमेपर
निर्णय हो चुकने
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भी केवल ऊर्ध्वता या ऐन्द्रियकस्व मात्रसे संदेह होता रहना स्वीकार करोगे तब तो अत्यन्त संशय होता रहेगा । संशयका अन्त नहीं हो पायेगा। क्योंकि पुरुष और शद्वत्व आदिमें प्राप्त हो रहे ऊर्धता ऐन्द्रियकत्व आदि सधर्मापनका कभी विनाश नहीं हो पाता है। ऐसी दशामें निर्णय मला कहां स्थानको प्रप्त कर सकेगा ! अर्थात्-पदार्थोमें अन्य पदार्थोके साथ वर्त रहा सर्वदा साधर्म्य बना रहने से सर्वत्र संशय ही होता रहेगा । किसीका निचयात्मक ज्ञान कभी नहीं हो सकेगा। न्यायदर्शन और न्यायभाष्पके द्वितीय अध्यायके प्रारम्भमें इसका विवरण कर दिया है।
ननु चैषा संशयसमा साधर्म्यसमा वो न भिद्यते एवोदाहरणसाधात् सस्थामवर्वनादिति न चोयं, संशयसमायास्तूभयसाधात्मवृत्तेः। साधर्म्यसमाया एकसाधादुपदेशात् । ततो जात्यंतरमेव संशयसपा । तथाहि-अनित्यः शब्दः प्रयत्नानंतरीयकत्वात् घटव. दिति अत्र च साधने प्रयुक्ते सति परः स्वयं संशयेन प्रत्यवस्थानं करोति सद्भूतं दूषणमपश्यन् प्रयत्नानांतरीय केपि शन्दे सामान्येन साधर्म्यमेंद्रियकत्वं नित्ये नास्ति घटेन वानित्येनेति संशयः शब्दे नित्यानित्यत्वधर्मयोरित्येषा संशयसमा जातिः । सामान्यघटयोरैंद्रिय कत्वे सामान्ये स्थिते नित्यानित्यसाधान्न पुनरेकसाधात । सामान्यदृष्टांतयोद्रियकत्वे समाने नित्यानित्यसाधर्म्यात्संशयसम इति वचनात् । ____ यहां किसीको शंका है कि यह संशयसमा जाति तो पहिलो साधर्म्यप्तमा जातिसे विभिम नहीं है। क्योंकि उस साधर्म्यसमाकी प्रवृत्ति मी उदाहरणके साधर्म्यसे ही मानी जा चुकी है । क्रियागुणयुक्त हो रहा आस्मा डेलके समान क्रियावान् है। यों वादीद्वारा उपसंहार कर चुकनेपर पुनः प्रतिवादी साधर्यकरके ही प्रत्यवस्थान उठाता है कि व्यापकद्रव्य तो आकाशके समान क्रियारहित होते हैं । अतः व्यापक आत्मा भी क्रियारहित होना चाहिये । क्रियावान डेलके साधर्म्यो आत्मा क्रियावान् हो जाय, किन्तु फिर क्रियारहित आकाशके साधर्म्य बने रहनेसे आत्मा क्रियारहित नहीं होय, इसमें कोई विशेषहेतु नहीं है। इस साधर्म्यसमाका संशयसमासे केवल ढंग न्यारा दीखता है। दोनोंयें कोई भिन्न जातिवाला तात्विक भेद नहीं है । अब सिद्धान्ती कहते हैं कि यह कटाक्षपूर्वक शंका उठाना तो ठीक नहीं है । क्योंकि दोनोंके साधर्म्यसे संशयसमा जातिकी प्रवृत्ति है। और एकके साधर्म्यसे साधर्म्यसमा जातिकी प्रवृत्तिका उपदेश दिया गया है । अर्थात् --यहां संशयसमामें शब्द और शब्दत्व सामान्य दोनोंके साधर्म्य हो रहे ऐन्द्रियकत्वसे नित्यपन अथवा अनित्यपनका संशय उठाया गया है । और साधर्म्यसमा एक व्यापक आकाशके निष्क्रियत्वसे ही मामाके क्रिशरहितस्वका आपादन किया गया है । तिस कारण यह संशयसमा उस साधर्म्यसमासे दूसरी जाति की जाति है । इसी बातको और भी इष्ट करते हुये पन्थकार कहते हैं कि शब्द (पक्ष )
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अनिस्य है ( साध्य ) प्रयत्न के अव्यवहित उत्तरकालमें उत्पन्न होनेसे ( हेतु ) घटके समान (अन्वय रष्टान्त ) इस प्रकार वादी द्वारा साध्यसिद्धिके निमित्त हेतुका प्रयोग कर चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी अच्छे वास्तविक दूषणों को नहीं देख रहा संता पुनः संशयकरके प्रत्यवस्थान करता है कि पुरुष. प्रयत्न के उत्तर उत्पन्न हुये भी शब्दमें नित्य हो रहे सामान्यके साथ इन्द्रियजन्य ज्ञानग्राह्यत्व साधर्म्य है और अनित्य हो रहे घटके साथ भी प्रयत्नान्तरीयकत्व साधर्म्य है । इस कारण शब्दमें नित्यपन अनित्यपन धर्मोका संशय हो जाता है। इस कारण यह संशयसमा जाति तो सामान्य ( जाति ) और घटके ऐन्द्रियकत्व साधारणपनेकी व्यवस्थिति हो जानेपर नित्य और अनित्यके सधर्मापनसे प्रतिवादी द्वारा उठायी जाती है। किन्तु फिर एक ही सामान्यके साधर्म्यसे संशयसमा जाति नहीं उठाया जा सकी । गौतमसूत्रमें संशयसम प्रतिषेधका मूल लक्षण इसी प्रकार कहा है कि सामान्य (शद्वस्व ) और दृष्टान्त ( घट ) दोनोंके ऐन्द्रियकस्व समान होने. पर निस्य, बनित्योंके साधर्म्यसे संशयसम प्रतिषेध उठा दिया जाता है। और साधर्म्यसमा एक ही के साधर्म्यसे प्रतिषेध उठा दिया गया था। अतः दोनों जातियां न्यारी न्यारी हैं।
___अत्र संशयो न युक्तो विशेषेण दानित्यत्वसिद्धेः। तथाहि-पुरुषे शिर संयमनादिना विशेषेण निर्णीते सति न पुरुषस्थाणुसाधादुर्दत्वात्संशयस्तथा प्रयत्नानंतरीयकत्वेन विशेषेणानित्ये शने निश्चिते सति न घटसामान्यसाधादेंद्रियकत्वात्संशयः अत्यंतसंशयः । साधर्म्यस्याविनाशित्वात् पुरुषस्थाबादिगतस्पेति निर्णयः कास्पदं प्राप्नुयात् । सापयंमात्रादि संशये कचिदैधर्म्यदर्शनानिर्णयो युक्तो न पुनधासाधयंवैधाभ्यां वा संशये तथात्यंतसंशयात् । न चात्यंतसंशयो ज्यायान् सामान्यात् संशयाद्विशेषदर्शनात् संशयनिवृत्तिसिद्धः।
__ भाष्यसहित इस " साधात् संशये न संशयो वैधादुभयथवा संशयोऽत्यन्तसंशयप्रसङ्गो नित्यत्वानभ्युषगमाच सामान्यस्याप्रतिषेधः" गौतम सूत्रके मंतव्य अनुसार अब प्रन्थकार संशयसमा जातिका असतउत्तरपना बखानते हैं कि यहां प्रतिवादी द्वारा संशय उठाना तो युक्त नहीं है। क्योंकि विशेष रूपसे शब्दके अनित्यपनकी सिद्धि की जा चुकी है । उसीको यो स्पष्ट समझ लीजिये कि वहां संशय स्थळमें जैसे शिरका कम्पन करते हुये सम्हाले रहना, पावका हिलना, बादि विशेपताओं करके मनुष्यपनका निर्णय कर चुकनेपर पुनः स्थाणु और पुरुषके साधर्म्य हो रहे ऊर्ध्वतामात्रसे संशय नहीं हो पाता है । तिसी प्रकार प्रयत्न के उत्तर जन्यपने करके विशेष रूपसे शब्दके भनित्यत्वका निषय हो चुकनेपर पुनः घट और सामान्यके साधर्म्य हो हे केवल इन्द्रियकत्वसे संशय नहीं हो सकता है। फिर भी " साधरणादिधर्मस्य ज्ञान संशयकारणम् " साधारणधर्मवत् धर्मिज्ञान या मसाधारण धर्मवत धर्मिज्ञानसे संशय उपजना यदि मानते रहोगे तो अत्यन्त (अन्तको भतिकान्त
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५.८
तस्वार्थश्वोकबार्तिके
AMUHIMIn..
करनेवाला अनन्तकातक ) संशय होता रहेगा। कारण कि पुरुष, स्थाणु आदिमें रहनेवाले
और संशयके कारण हो रहे ऊर्ध्वता आदि साधर्म्यका कभी विनाश नहीं होनेका है । ऐसी दशा भन निर्णय कहां स्थानको पा सकेगा ! बात यह है कि केवल साधर्म्यसे संशय उपजनेपर किसी एकमें वैधम्र्यका दर्शन हो जानेसे विशेष एक पदार्थका निर्णय हो जाना समुचित हो रहा, देखा जाता है किन्तु फिर केवल धर्म्य अथवा साधर्म्य और वैधर्म्य दोनोंके द्वारा मी यदि संशय होना माना जावेगा तब तो अत्यन्त रूपसे संशय होता रहेगा और यह अत्यन्त संशय होते रहना तो प्रशंसनीय नहीं है । क्योंकि अनेकोंके समान हो रहे धर्मसे संशय हो जाता है। पयात विशेष बोके दर्शनसे संशयकी निवृत्ति होना सिद्ध है। नैयायिक या वैशेषिकोंने " अनाहार्य अप्रामाण्यज्ञानान्तस्कदित निश्चयको लौकिक सनिकर्षजन्यदोष विशेषाबम्प तपदभावप्रकारकतद्विशेष्यक बुद्रिका प्रतिबन्धक माना है। तदभावाप्रकारकतत्यकारक निश्चय की सामग्री हो मानेपर पुनः संशयकारणोंसे सदा संशय बनते रहनेका प्रतिबन्ध हो माता है। अतः संशयसमा जातिका सत्यापन करना प्रतिवादीका समुचित कर्तव्य नहीं है।
अथानित्येन नित्येन साधादुभयेन या। प्रक्रियायाः प्रसिद्धिः स्यात्ततः प्रकरणे समा ॥ ३८१ ॥
भत्र प्रकरणसमा जातिके कहनेका प्रारम्भ करते हैं, नित्य और अनित्य दोनों के साथ सबर्मापन होनेसे जो पक्ष और प्रतिपक्षकी प्रवृत्ति होना स्वरूप प्रक्रियाको प्रसिद्धि होगी। तिस कारणसे वह प्रकरणके होनेपर प्रत्यवस्थान उठाया गया प्रकरणसमा जाति कही गयी है।
उमाभ्यां नित्यानित्याभ्यां साधाया प्रक्रियासिदिस्ततः प्रकरणसमा नातिरवसेया " समयसापात् प्रक्रियासिदेः प्रकरणसमा " इति वचनात् ।
दोनों नित्य अनित्यके साधर्म्यसे जो प्रक्रियाकी प्रसिद्धि है । तिस कारणसे या प्रकरणसमा नाति समझ लेनी चाहिये । गौतम सूत्रमें प्रकरणसमका कक्षग यों कहा है कि उभयके साधर्मेसे प्रक्रियाकी सिद्धि हो जानेसे प्रकरणसमा जाति है, या प्रकरणसम मामका प्रतिषेध है। कहीं कही उभयके वैधसे भी प्रक्रियाकी सिद्धि हो जानेसे प्रकरणसम माना गया है।
किमदाहरणमेतस्या इत्याह।
इस प्रकरणसमा जातिका लक्षण क्या है। ऐसी जिज्ञासा होनेपर न्याय भाष्य अनुसार उत्तर देते हुये श्री विद्यानन्द भाचार्य वार्तिकोंको कहते है।
तत्रानित्येन साधान्नुः प्रयत्नोद्भवत्वतः । शब्दस्यानित्यतां कश्चित् साधयेदपरः पुनः ॥ ३८२ ॥
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तत्वाचिन्तामणिः
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तस्य नित्येन गोत्वादिसामान्येन हि नित्यतां । ततः पक्षे विपक्षे च समाना प्रक्रिया स्थिता ॥ ३८३॥
तिस प्रकरणसमा जातिके अवसरपर कोई एक वादी तो शब्द बनित्य है ( प्रतिज्ञा ) मनुष्य के प्रयत्नसे उत्पत्तिवान् होनेसे (हेतु ) घटके समान ( दृष्टान्त ) । इस प्रकार बनिस्पके साथ सधर्मापनसे शब्दकी अनित्यताको साथ रहा है। यह एक पक्षकी प्रवृत्ति हुई । और दूसरा पण्डित पुनः नित्य हो रहे गोव, अश्वत्म, घटस्य आदि सामान्योंकरके उस शब्दके नित्यपनको साथ देवेगा। यह दूसरे प्रतिपक्षकी सिद्धि हुई । तिस कारणसे इस प्रकार होनेपर अनित्यत्व सापक पक्षमें और नित्यत्व साधक विपक्ष समानरूपसे प्रक्रिया व्यवस्थित बन गयी।
तत्र हि प्रकरणसमायां जातो कबिदनित्यः शन्दा प्रयत्नानांतरीयकत्वादपटवदित्यनिस्यसापात् पुरुषप्रयत्नोद्भवत्वाच्छन्दस्यानित्यत्वं साधयति । पररा पुनर्गोत्वादिना सामान्येन साधर्म्यात्तस्य नित्यता साधयेत् । ततः पक्षे विपक्षे च प्रक्रिया समानेत्युभयपक्षपरिग्रहेण वादिप्रविवादिनोनित्यत्वानित्यत्वे साधयतः । साधर्म्यसमायां संशयसमायां च नैवमिति ताभ्यां भिमेयं प्रकरणसमा जातिः।
वहां प्रकरणसमा जाति में कोई कोई विद्वान् तो शब्द बनित्य है, पुरुषप्रयत्नके अव्यवहित उत्तरकाळमें उत्पन्न होनेसे, घटके समान, इस अनुमानद्वारा अनित्यके साधर्म्य हो रहे पुरुषप्रयत्नजन्य उत्पति होने शब्दकी अनित्यताको साध रहा है और दूसरा प्रतिवादी विद्वान् फिर गोत्व आदि नित्य जातियोंके सधर्मापन ऐन्द्रियकत्वसे उस शब्दकी नित्यताको साध देता है । तिस कारणसे पक्ष पौर विपक्ष दोनोंमें साधनेकी प्रक्रिया समान है। इस प्रकार दोनों पक्षों के परिग्रह करके वादी प्रति. वादियों के यहां नित्यत्व और अनित्यत्व साध दिये जाते हैं । यह प्रकरणकी अतिवृत्ति नहीं करनेसे दूषण उठाना प्रकरणसम प्रतिषेध है । साधर्म्यसमा और वैधर्म्यसमा जातिमें तो इस प्रकार दोनों के साधर्म्यसे दोनों पक्ष प्रतिपक्षोंकी सिद्धि नहीं की गयी है । साधर्म्यसमा साधर्म्यकरके प्रतिपक्षसिद्धि की सम्भावना प्रत्यवस्थान उठाया गया है और संशयसमा उभयके साधर्म्यसे पक्ष, प्रतिपक्षों के संशय बने रहनेका प्रत्यवस्थान उठाया गया है। किन्तु इस प्रकरणसमामें अन्वय सहचर, बोर व्यतिरेक सहचरसे पक्ष, प्रतिपक्ष दोनोंकी प्रवृत्ति सिद्ध हो जानेका प्रत्यवस्थान दिया गया है। इस . कारण उन दोनोंसे यह प्रकरणसमा जाति मिन्न ही है।
कथमीशं प्रत्यवस्थानमयुक्तमित्याह ।
प्रतिवादी द्वारा इस प्रकारका प्रकरणसम नामक प्रत्यवस्थान उठाना किस प्रकार भयुक्त है। ऐनी जिज्ञासा होनेपर न्यायसूत्र और न्यायभाष्यके अनुसार श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान कहते हैं।
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प्रक्रियातनिवृत्त्या च प्रत्यवस्थानमीदृशं । विपक्षे प्रक्रियासिद्धौ न युक्तं तद्विरोधतः ॥ ३८४ ॥ प्रतिपक्षोपपत्चौ हि प्रतिषेधो न युज्यते । प्रतिषेधोपपत्तौ च प्रतिपक्षकृतिध्रुवम् ॥ ३८५ ॥ तत्त्वावधारणे चैतत्सिद्धं प्रकरणं भवेत् । तदभावेन तत्सिद्धियेनेयं प्रत्यवस्थितिः ॥ ३८६ ॥
दोनों नित्य, अनित्योंके, साधर्म्यसे प्रक्रिया की सिद्धिको कर रहे प्रतिवादीने यह तो अवश्य मान लिया है कि प्रतिवादीके इष्ट पक्षसे प्रतिकूल हो रहे वादीके पक्षकी प्रक्रिया सिद्ध हो चुकी है। अतः प्रकरणके अवसानसे तत्वोंका अवधारण करनेपर उसकी निवृत्ति से इस प्रकारका प्रत्यव. स्थान देना प्रतिवादीका युक्तिपूर्ण कार्य नहीं है । क्योंकि प्रतिवादीके विपक्ष हो रहे वादीके इष्ट अनित्यत्वमें प्रक्रियाकी सिदि हो चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा अपने द्वारा अपने पक्षकी सिद्धि मानमा उससे विरोध हो जाने के कारण उचित नहीं है । वादीके अमीष्ट और प्रतिवादीके प्रतिकूल पक्षकी सिद्धि हो चुकनेपर नियमसे प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करना उचित नहीं पडता है । हां, और यदि प्रतिवादीके गांठके प्रतिषेधकी सिद्धि हो जाय तब तो निश्चय करके वादीके निज प्रतिपक्ष (वादी का पक्ष प्रतिवादीकी अपेक्षा प्रतिपक्ष है) की सिद्धि करना नहीं बन पाता है । इसमें तुल्य बलवाला विरोध नामका विप्रतिषेध लग बैठता है। दोनोंमेंसे एक पक्षके अवधारण नहीं करनेसे तो विपरीत पक्षकी प्रक्रिया सब सकती है। यहां प्रतिवादीके तस्वका अवधारण कर चुकनेपर यह प्रतिवादीका प्रकरण सिद्ध हो सकता था। जब कि प्रयत्नानन्तरीयकत्वसे वादीके अनित्यत्व पक्षकी सिद्धि हो जानेसे उस नित्यत्व प्रतिपक्षकी सिद्धिका अभाव हो गया है, तो उन दोनोंकी प्रक्रियाकी सिद्धि नहीं हुई, जिससे कि या प्रकरणमा जाति नामक प्रत्यवस्थान समीचीन उत्तर बन सके। भावार्थ-जब दोनों विरुद्ध पक्षोंकी प्रक्रिया सिद्ध नहीं हो सकती है, तो लक्षणसूत्रके नहीं घटनेपर यह प्रकरणसम प्रतिषेध अयुक्त प्रतीत होता है । जातिका स्वयं किया गया लक्षण भी तो वहां नहीं वर्तता है।
प्रक्रियातनिवृत्या प्रत्यवस्थानमीदृशमयुक्तं, विपक्षे प्रक्रियासिद्धौ तयोर्विरोधात् । पतिपक्षमक्रियासिद्धौ हि प्रतिषेधो विरुध्यते,प्रतिषेधोपपत्तौ च प्रतिपक्षप्रक्रियासिदिाहन्यते इति विरुद्धस्तयोरेकत्र संभवः । किंच, तत्त्वावधारणे सत्यैवैतत्मकरणं सिद्धं भवेन्नान्यथा। न चात्र तत्वावधारणं ततोऽसिद्ध प्रकरणं तदसिद्धौ च नैवेचं प्रत्यस्थितिः संभवति ।
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दोनोंमेंसे किसी एक प्रकरणके सिद्ध हो जानेपर उसके अन्तमें विपरीत पक्षकी निपत्ति कर देनेसे इस प्रकारका प्रकरणसम प्रत्यवस्थान उठाना अयुक्त है। क्योंकि एक विपक्षमें प्रक्रियाको समीचीन सिद्धि हो चुकनेपर पुनः दोनों पक्ष प्रतिपक्षोंकी सिद्धि कहनेका विरोध है । देखिये, प्रतिपक्षको प्रक्रियांके सिद्ध हो जानेपर तो उस प्रतिपक्षका प्रतिषेध करना नियमसे विरुद्ध पडता है। और प्रतिपक्षके निषेधकी सिद्धि हो चुकनेपर तो प्रतिपक्षकी प्रक्रिया साधनेका व्याघात हो जाता है। इस कारण उन दोनोंका एक स्थळपर सम्भव जाना ही विरुद्ध है। कोई विचारशील विद्वान घटको सर्वथा निस्य सर्वथा अनित्य एक साथ नहीं साध सकता है । अतः दोनों नित्य, अनिस्य पक्षोंकी प्रक्रिया साथ देना अनुचित है। दूसरी बात यह है कि दोनों पक्षोंका ताविकपना निर्णात कर चुकने पर ही यह प्रकरण सिद्ध हो सकता था, अन्यथा यह उभयसाधर्म्यसे होनीवाली प्रक्रिया कैसे भी सिद्ध नहीं हो पायेगी । किन्तु यहां तो विप्रतिषेध होने के कारण दोनोंका ताविकपना निर्णीत नहीं हो सका है । तिस कारणसे यह प्रकरण सिद्ध नहीं है और उस प्रक्रियाकी सिद्धि नहीं हो चुकने पर यह प्रकरणसमा जाति नहीं सम्भवती है। इसी प्रकार उभयके वैधयंकरके प्रक्रियाको साध कर पुनः प्रत्यवस्थान देना नहीं सम्भवता है । जैसे कि जैनोंने गुण और गुणीका कथंचिद् भेद, अमेद सम्बन्ध माना है । यदि कोई दूसरा विद्वान भेद अभेद दोनोंके वैधय॑से प्रक्रियाको साधना चाहे तो वह विप्रतिषेध होनेका कारण प्रकरणको नहीं साध सकता है। कथंचिद् भेदाभेद और सर्वथा भेदाभेद दोनोंका वैधर्म्य एक स्थळपर सम्भव नहीं है । अतः प्रकरणसम जाति समीचीन दूषण नहीं है। - का पुनरहेतुसमा बातिरित्याह।
फिर बहेतुसमा नामकी जाति क्या है। ऐसी बुभुत्सा होनेपर न्यायसूत्र और न्यायभाष्यके बनु. बाद अनुसार श्री विषानन्द आचार्य समाधान कहते हैं।
त्रैकाल्यानुपपत्तेस्तु हेतोः साध्यार्थसाधने । स्यादहेतुसमा जातिः प्रयुक्त साधने कचित् ॥ ३८७॥ पूर्व वा साधनं साध्यादुचरं वा सहापि वा। पूर्व तावदसत्यर्थे कस्य साधनमिष्यते ॥ ३८८ ॥ पश्चाचेत् किं नु तत्साध्यं साधनेऽसति कथ्यतां । युगपद्वा कचित्साध्यसाधनत्वं न युज्यते ॥ ३८९ ॥
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तत्वार्थाकवार्तिके
स्वतंत्रयोस्तथाभावासिद्धेर्विन्ध्य हिमाद्रिवत् । तथा चाहेतुना हेतुर्न कथंचिद्विशिष्यते ॥ ३९० ॥ इत्यहेतुसमत्वेन प्रत्यवस्थाप्यऽयुक्तिका । हेतोः प्रत्यक्षतः सिद्धेः कारकस्य घटादिषु ॥ ३९९ ॥ कार्येषु कुंभकारस्य तन्निवृत्तेस्ततो ग्रहात् । ज्ञापकस्य च धूमादेरग्न्यादौ ज्ञधिकारिणः ॥ ३९२ ॥
स्वज्ञेये पर संताने वागादेरपि निश्चयात् । त्रैकाल्यानुपपत्तेश्च प्रतिषेधे क्वचित्तथा ॥ ३९३ ॥
साम्यस्वरूप अर्थ साधन करनेमें हेतुका तीनों कालोंमें वर्तना नहीं बननेसे प्रत्यवस्थान देने पर तो अहेतुसमा जाति हो जायगी जैसे कि कहीं वादी द्वारा समीचीन साधनका प्रयोग करनेपर दूसरा प्रतिवादी समीचीन दूषणोंको नहीं देखता हुआ यों ही प्रत्यवस्थान उठा देता है कि बताबों, तुम्हारा शापक हेतु क्या साध्यसे पूर्वकालमें वर्तता है ! अथवा क्या साध्यसे पश्चात् उत्तरकालमें ठहरता है ! अथवा क्या साध्य और साधन दोनों भी समान काक में साथ साथ रहते हैं ? बताओं । यदि प्रथम पक्षके अनुसार साध्य के पहिले कालमें साधनकी प्रवृत्ति मानी जायगी तब उसको साधनपना नहीं बन सकता । क्योंकि साध्यरूप अर्थ नहीं होते संते पहिले बैठा बैठा वह किसका साधन करेगा ! अर्थात् - किसीका भी नहीं । यदि द्वितीय पक्ष अनुसार साध्य के पीछे साधन की प्रवृत्ति मानोगे, तब तो उसको साध्यपना नहीं बन पावेगा। साधनके नहीं होनेपर वह साध्य भला कैसा कहा जा सकेगा ! साधन के होनेपर कोई अविनाभावी पदार्थ साध्य कहा जा सकता है ! किन्तु साधनके नहीं होते संते वह साधन के पहिले वर्त रहा साध्या स्वरूप नहीं कहा जा सकता है । साधन द्वारा साधने योग्य पदार्थको साध्य कहते हैं । दश वर्षके पीछे जिसके पुत्र होनेवाला है, वह प्रथमसे ही बाप नहीं बन बैठता है । साध्य जब पहिले ही सिद्ध हो चुका तो इस हेतुने क्या पत्थरा कार्य किया ? अर्थात् नहीं। तृतीयपक्ष अनुसार यदि साध्य और साधनका युगपत् सहभाव मानोगे तब तो किसी एक विवक्षितमें ही साध्यपना अथवा साधनपना युक्त नहीं हो सकता है। स्वतंत्रपने करके प्रसिद्ध हो रहे सहकाळभाषी दोनों में किसी एकका तिस प्रकार साध्यपना और शेषका साधनपना असिद्ध है। जैसे कि मध्यभारत और उत्तर प्रान्त में युगपत् पडे हुये विन्ध्याचल और हिमालय पवतोंमेंसे किसी एक का साधनपना और बचे हुये किसी एक पहाडका साधनपना असिद्ध है । गायके डेरे और सीधे सांगों के समान दोनों भी साध्य हो जायेंगे अथवा दोनों साधन बन
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बैठेंगे बौर तैसा होनेपर वादीका कहा गया हेतु तो हेतु या कुत्सित हेस्वाभासके साथ किसी भी प्रकारसे अन्तर रखनेवाला नहीं हो सकेगा। अहेतुओंसे तो साध्यकी सिद्धि नहीं हो पाती है। भावार्थपर्वतो पनिहमान धूमाव या शब्द अमित्य है, कतक होनेसे, इस अनुमानों में हेतु विचारा साध्यके पहिले. पोछे, या साथ रहेगा ! बताओ। यदि हेतु पहिले रहेगा तो उस समय वह भला किसका साधन होगा ! यदि पीछे रहेगा ! तो साधनके नहीं होनेपर यह वन्हि या अनित्यपन किसीका साध्य कहा । मायगा ! हेतु और साध्य दोनोंको युगपत् विषमान माननेपर विनिगमनाविरह हो जानेसे कौन किसका साम्य और कौन किसका साधन कहा जाय ! इसी प्रकार कारकपक्षमें भी यह प्रत्यवस्था प्रतिबादी द्वारा उठायी जा सकती है कि दण्ड, चक्र, कुलाक, आदिक कारण यदि घटके पूर्व कालमें रेंगे तब तो घटका अमाव (प्रागभाव ) होनेसे वे किसके कारण माने जा सकेंगे और घटके पीछे कालमें वर्तनेबाले दण्ड आदिक किसके कारण माने जांय या कारणोंको घटके पीछे डालनेपर पहिले वर्त रहा घट किन कारणों द्वारा बनाया जाय ! तथा समान कालमें कार्य, कारणोंकी वृत्ति माननेपर तो एकको कार्यता और दूसरेको कारणता निर्णीत नहीं हो सकती है । लोकमें माल हडपनेके लिये बहुत प्राणी वेटा, मतीजा, बननेको उद्युक्त बैठे हैं। तथा पूज्य बननेके लिये और खड़कोंकी कमाई खानेके लिये अनेक व्यक्ति पिता बनने के लिये लार टपकाते फिरते हैं । इस ढंगसे शापकपक्ष और कारक पक्षमें तीनों कालके सम्बन्धका खण्डन कर देनेसे अहेतुपन करके यह अहेतुसमा जाति है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा आहेतुसमपने करके प्रत्यबस्थान देना भी युक्तियोंसे रीता है। क्योंकि घट, पट बादि कार्यों में कुम्हार कोरिया आदि कारकों करके प्रत्यक्षप्रमाणसे ही हेतुपना सिद्ध हो चुका है। अतः जो प्रतिवादीने कहा था कि साध्यके नहीं होनेपर यह किसका साधन होगा और साधनके नहीं होनेपर यह किसके द्वारा सम्पादित हुआ साध्य कहा जायगा : सिद्धान्ती कहते हैं कि जब उन महान् प्रसिद्ध हो रहे प्रत्यक्षोंसे कार्य कारण भाष वा बाप्य शापक भावका प्रहण हो रहा है, तो उस प्रतिवादीके प्रसंगकी निवृत्ति हो जाती है। तथा निज करके आने जा रहे अमि, अनित्यपन, आदि सायोंमें प्राप्तिको करानेबाळे धुआं, कृतकत्व, बादि बापक हो रहे हेतुओंका सभी विद्वानोंको ग्रहण हो रहा है । एवं दूसरे रोगी, मछित पुरुषों में सजीवपनेकी संतानको साधनेके लिये कहे गये वचनव्यापार, उष्णस्पर्शीवशेष, माडी चलना, आदि हेतुओंसे मी परसंतानका निचय हो जाता है । अतः प्रतिवादीका उक्त प्रतिषेध करमा समीचीन उत्तर नहीं है। इसी बातको " न हेतुतः साध्यसिद्धकाल्यासिद्धिः " इस न्याय सूत्रमें बखान दिया है। तथा अप्रिम सूत्र " प्रतिषेधानुपपत्तेः प्रतिषेद्धव्याप्रतिषेधः " से उसका यह सिद्धान्त खण्डन भी कर दिया है कि इसी प्रकार तुझ प्रतिवादीका प्रतिषेध नहीं बनमेसे प्रतिषेध करने योग्यका प्रतिषेध ही नहीं हो सकता है। अर्थात्-प्रतिवादीके ऊपर बादीका प्रश्न है कि तुम प्रतिषेध करने योग्य पदार्थसे पहिले कालमें, पीछे काछमें, अथवा दोनोंके एक ही काकमें,
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प्रतिषेध करोगे ? बताओ । यदि प्रतिषेध के पूर्व कालमें प्रतिषेधक रहेगा तो वह उस समय किसका प्रतिषेध करता हुआ अपने प्रतिषेधकपनकी रक्षा कर सकेगा ! और दूसरा पक्ष लेनेपर प्रतिषेण्यके पीछे कालमें यदि प्रतिषेभ्य ठहरेगा तो प्रतिषेधकके विना वह किसके द्वारा प्रतिषेध्य होकर अपने प्रतिषेध्यपनको रक्षित कर सकेगा ! तृतीय पक्ष बेनेपर एक काकमें वर्त रहे दोनोंमेंसे किसको प्रतिषेष्य और किस दूसरेको प्रतिषेधक माना जाय ! कोई निर्णायक नहीं है। इस प्रकार हेतु फलभावका खण्डन कर देनेपर तुम्हारा प्रतिषेध करना भी नहीं बन सकता है। अतः प्रतिषेध करने योग्य दूसरे वादीके हेतुका प्रतिषेध तुम्हारे बूते नहीं हो सका इस कारण अपनी आंखके बडे टेंट को देखते हुये भी दूसरेकी निर्दोष चक्षुओंमें दोष निहारना प्रतिवादीका प्रशस्त कार्य नहीं है। देखो, कारक हेतु तो कार्य के अव्यवहित पूर्वकाल में रहना चाहिये और ज्ञापकके लिये कोई समय नियत नहीं है । अविनाभाव मात्र आवाश्यक है ।
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समान कार्यासौ प्रतिषेधः स्याद्वादविद्भिः । कथं पुनस्त्रैकाल्य सिद्धेर्हेतोरहेतुसमा जातिरभिधीयते ? अहेतु सामान्यमत्ववस्थानात् । यथा ग्रहेतुः साध्यस्यासाधकस्तथा हेतुरपि त्रिकालत्वेनाप्रसिद्ध इति स्पष्टत्वादहेतुसमाजातेर्लक्षणोदाहरणप्रतिविधानानामर्क व्याख्यानेन ।
श्री विद्यानन्द आचार्य शिष्यों के लिये शिक्षा देते हैं कि स्याद्वाद के वेत्ता बुद्धिमानों करके वह अहेतुसमा नामका प्रतिषेध तो कभी नहीं करना चाहिये। यहां किसीका प्रश्न है कि " त्रैकाल्यासिद्धेतोर हेतुस्रमः " इस सूत्र अनुसार हेतुकी तीनों कालमें वृत्तिताके असिद्ध हो जानेसे महेतुसमा जाति बखानी गयी, फिर कैसे कह दी जाती है ? इसका उत्तर सिद्धान्ती द्वारा यों दिया जाता है। कि प्रतिवादीने हेतुपन सामान्य से प्रत्यवस्थान दिया । जिस प्रकार कि विवक्षित पदार्थका हेतु नहीं बन रहा कोई अहेतु पदार्थ उस विवक्षित साध्यका साधक नहीं है, तिसी प्रकार त्रैकापने करके नहीं प्रसिद्ध हो रहा मनोनीत हेतु भी साध्यका साधक नहीं हो सकेगा। इस प्रकार अहेतुसमा जाति के लक्षण, उदाहरण और उम्र असदुत्तर हो रही जातिका खण्डन करनेवाले प्रतिविधानोंकी स्पष्टता दृष्टिगोचर हो रही है। अतः उनका पुनरपि व्याख्यान कर देनेसे कुछ विशेष प्रयोजन नहीं सका है । अत्र विवरण रूपसे विशद हो रहे पदार्थोंका व्याख्यान करनेसे पूरा पढो, पुनरुक दोषको इम अवकाश देना नहीं चाहते हैं ।
प्रयत्नानन्तरोत्थत्वाद्धेतोः पक्षे प्रसाधिते । प्रतिपक्षप्रसिद्ध पर्यमर्थापत्त्या विधीयते ॥ ३९४ ॥
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या प्रत्यवस्थितिः सात्र मता जातिविदांवरैः। अर्थापचिसमैवोक्ता साधनाप्रतिवेदिनी ॥ ३९५ ॥ यदि प्रयत्नजत्वेन शदस्यानित्यताभवत् । तदार्थापचितो नित्यसाधादस्तु नित्यता ॥ ३९६ ॥ यथैवास्पर्शवत्वं खे नित्ये दृष्टं तथा ध्वनौ । इत्यत्र विद्यमानत्वात्समाधानस्य तत्त्वतः ॥ ३९७ ॥ शदोनित्योस्ति तत्रैव पक्षे हेतोरसंशयम् । एष नास्तीति पक्षस्य हानिरर्थात्प्रतीयते ॥ ३९८ ॥
शब्द ( पक्ष) भनित्य है (साध्य ), प्रयत्नके अनन्तर उत्पत्ति होनेसे ( हेतु ) षटके समान (स्टान्त ) इस प्रकार प्रयत्नानन्तरजन्यत्व समीचीन हेतुसे शदके बनित्यत्व पक्षका अच्छा साधन कर चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा प्रतिपक्ष नित्यस्वकी प्रसिद्धि करनेके लिये अर्थापत्ति करके जो प्रत्यबस्थान किया जाता है, वह यहां जातिवेत्ता विद्वानोंमें श्रेष्ठ हो रहे पुरुषों करके अर्यापत्ति ममा जाति ही मानी गयी है। जो कि वादीके साधनको नहीं समझ कर उसके प्रतिकूल पक्षमें कह दी गयी है । उस अर्यापत्तिसम प्रतिषेधका उदाहारण यों है कि यदि प्रयत्नजन्यत्व हेतु करके शद्ध की बनिस्पता सिद्ध हो सकी है, तब तो बिना कहे अर्थापत्ति द्वारा नित्य नाकाशके साधर्म्यसे शब्दको नित्यपना हो जामो, निस ही प्रकार स्पर्शगुणरहितपना नित्य हो रहे बाकाशमें देखा गया है, उसी प्रकार निर्गुण शब्दमें भी स्पर्शरहितपना विधमान है । अतः शदका नित्य पदार्थके साथ साधर्म्य, बस्पर्शत्व तो है । जब कि अापत्ति ज्ञान उक्त करके अनुक्कका भाक्षेप कर लेता है, तो शब्द मनित्य है, इस प्रकार कहनेपर बिना कहे ही अभिप्रायसे निकल जाता है कि अन्य घट आदिक बनित्य है। ऐसी दशामें अन्धयदृष्टान्त कोई नहीं मिल सकता है। तथा अनुमान प्रमाणसे यदि शद्वका बनित्यपमा साधा जाता है, तो अर्यापपिसे निकल पाता है कि प्रत्यक्ष प्रमाणसे शब्द नित्य लिख हो जायगा और यों तो वादीका हेतु बाधितहेस्वाभास हो जायगा या सत्प्रतिपक्ष हो जायगा। इस प्रकार यह अर्थापत्तिसमा जाति उठायी जाती है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार पहां प्रतिवादी द्वारा असमीचीन कुचोच उठाये जानेपर इसके वास्तविक रूपसे होनेवाले समाधान (उत्तर) हमारे पास विद्यमान हैं। पूर्वमें प्रतिवादी द्वारा कहे गये वे प्रमाणसे पर्यापत्ति आमास है। उनसे शब्दका अनित्यत्व निरस्त नहीं होता है। वहां ही प्रसिद्ध उदाहरणमें गजिये कि शब्द बनित्य है। इस प्रकार पक्षके समीचीन हेतुसे संशयरहित होकर साध चुकनेपर अर्थापत्ति की
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सामर्थ्य से ही यह शद्व अनित्य नहीं है । इस प्रतिवादीके पक्ष की हानि प्रतीत हो जाती है। तुम्हारे ढूंडे हुये गठिके उपाय से ही तुम्हारा निराकरण हो जाता है । यदि नित्य पदार्थ के साधर्म्य स्पर्श रतिपन से आकाश के समान शद्व नित्य है, तो कहे बिना ही अर्थसे प्राप्त हो जाता है कि अनित्य पदार्थ के साधर्म्य प्रयत्न जन्यत्व हेतुसे घटके समान शद अनित्य है । यया च प्रत्यवस्थानमर्थापत्त्या विधीयते । नानैकांतिकता दृष्टा समत्वादुभयोरपि ॥ ३९९ ॥ ग्रावणो घनस्य पातः स्यादित्युक्तेर्थान्न सिद्धयति । द्रवात्मनामपां पाताभावोर्थापत्तितो यथा ॥ ४०० ।। तस्याः साध्याविना भावशून्यत्वं तद्वदेव हि । शद्वानित्यत्वसंसिद्धौ नार्थान्नित्यत्वसाधनं ॥ ४०१ ॥
दूसरी बात यह है कि जिस अर्थापत्ति करके प्रतिवादी द्वारा प्रत्यवस्थान किया जा रहा है, वह अर्थापत्ति तो व्यभिचार दोष ग्रस्त है । उससे तुम्हारे अभीष्ट साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है। किसी विशेष पदार्थकी विधि कर देनेसे ही शेष पदार्थोंका निषेध नहीं हो जाता है । घट नीला है । यो कह देने से शेष सभी कम्बल कमल आदिक पदार्थ अनीक नहीं हो जाते हैं। देखिये जिस प्रकार कठिन हो रहे पाषाणाका नियमसे पतन हो जाता है यों कह देनेपर अर्थापत्ति से यह सिद्ध नहीं हो जाता है कि वह रहे पतळे द्रव स्वरूप जोंका पात नहीं होता है । उसीके समान ही उस अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थका साध्य के साथ अविनाभाव बने रहने से शून्यपना है । और यह अर्थापत्ति तो दोनों भी पक्षों में समान रूपसे लागू हो जायगी, जब कि उक्त करके जिस किसी भी ऐरे गैरे अनुक्तका तुम अर्थापत्ति से आपादन कर छेते हो तो तुम्हारे पक्षकी हानि भी आपन्न हो जावेगी । बात यह है कि जब शद्वके अनित्यस्वकी म प्रकार सिद्धि हो चुकी है, तो व्यभिचार दोषवाळी अर्थापत्तिके द्वारा अभिप्राय मात्र शद्वका मिष्यपन नहीं साधा जा सकता है । अनित्यत्वको साधनेवाले हेतुमें स्वकीय साध्यके साथ अविनाभाव विद्यमान है । किन्तु नित्यश्वका साधक अस्पर्शवत्र हेतु तो अविनाभावसे विकल है ।
नापयानैकांतिक्या प्रतिपक्ष सिध्यति येन प्रयत्नानंतरीयकत्वात् श्रस्यानित्यत्वे साघितेपि अस्पर्शवत्वान्यथानुपपत्या तस्य नित्यवं सिद्धयेत् । सुखादिनानैकांतिकी चेयमर्थापत्तिरतो न प्रतिपक्षस्य सिद्धिस्तदसिद्धौ च नार्थापचिरतएव उपपद्यते सचायुक्तार्थापत्तितः प्रतिपक्षसिद्धेरर्थापत्तिसम इति वचनात् ।
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व्यभिचार दोषवाली अर्थापत्ति ( प्रमाणाभास ) करके प्रतिपक्षकी सिद्धि नहीं हो पाती है । जिससे कि वादी द्वारा प्रयत्नानंतरीयकत्व हेतुसे शद्वका अनित्यपना साध चुकनेपर भी पुनः प्रतिवादी द्वारा अस्पर्शarant अन्यथानुपपत्तिसे उस शद्वका नित्यपन सिद्ध कर दिया जावे अस्पर्शवत्व तो farmers विना नहीं हो सकता है । इस प्रकारकी यह अर्थापत्तियों सुख, संख्या, संयोग, विभाग यदि गुणों करके और गमन, भ्रमण, उत्क्षेपण आदि क्रियाओं करके अनैकान्तिक दोषवाकी हो रही है। सुख बादिमें निस्यपन नहीं होते हुये भी स्पर्शरहितपना विद्यमान है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु इन चार द्रव्योंको छोडकर शेष द्रव्य और गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव, सभी पदार्थों में स्पर्शरहितपन वर्त रहा है । अनित्य गुण आदिक व्यभिचार स्थल है । भतः अर्थापतिसे प्रतिवादीके मिज प्रतिपक्षकी सिद्धि नहीं हो पाती है । और उस प्रतिपक्षकी सिद्धि नहीं होनेपर इस ही कारणसे अर्थापत्तिसमा जाति नहीं बन सकती है। न्यायसूत्रमें अर्थापत्तिसमाका यों लक्षणसूत्र कहा है कि अर्थापत्ति करके प्रतिपक्षको सिद्धि हो जाने से अर्थापत्तिसम प्रतिषेध माना गया है । व्यभिचार होनेके कारण यह अविनाभाव रहित होनेसे प्रतिबादीकी अर्थापति तो प्रमाणामास हो गई। ऐसी दशामें वह अर्थापत्तिसमा जाति उत्थापन करना प्रतिवादीका अनुचित कार्य निर्णीत हो जाता है ।
का पुनरविशेषसमा जातिरित्याह ।
इससे आगेकी फिर अविशेषसमा जाति कौनसी है ? उसका लक्षण और उदाहरण क्या है ? ऐसी मनीषा होनेपर न्यायसिद्धान्त अनुसार शिष्यके प्रति श्रीविद्यानन्द आचार्य समाधानको कहते हैं ।
कचिदेकस्य धर्मस्य घटनादुररीकृते ।
अविशेषेत्र सद्भावघटनात्सर्ववस्तुनः ॥ ४०२ ॥ अविशेषः प्रसंगः स्यादविशेषसमा स्फुटं । जातिरेवंविधं न्यायप्राप्तदोषासमीक्षणात् ॥ ४०३ ॥
कहीं भी शब्द और घटमें एक धर्मकी घटना हो जानेसे दोनोंका विशेषरहितपना स्वीकार कर चुकनेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा सम्पूर्ण वस्तुओं के समान हो रहे सद्भाव (सस्त्र) की घटनासे सबक लेतर रहितपनका प्रसंग देना तो व्यक्तरूपसे अविशेषसमा जाति कही जावेगी । सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकारका प्रसंग देना तो जाति यानी असदुत्तर है। क्योंकि बादीद्वारा साधे गये निर्दोष पक्ष में प्रतिवादीद्वारा झूठे दोष दिखाना न्यायप्राप्त दोषोंका दिखलाना नहीं है। अर्थात् जो प्रतिवादीने दोष दिखलाया है वह न्यायमार्गसे प्राप्त नहीं होता है ।
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एको धर्मः प्रयत्नानंतरीयकत्वं तस्य कचिच्छन्दघटयोर्घटनादविशेष समानत्वे सत्यनित्यत्वे षादिनोररीकृते पुनः सद्भावा सर्वस्य सत्वधर्मस्य वस्तुषु घटनादविशेषस्यानित्यवप्रसंजनमविशेषसमा जातिः स्फुटं, एवंविषस्व न्यायमाप्तस्य दोषस्यासमीक्षणात् । “एकधोपपतेरविषेषे सर्वाविशेषप्रसंगात् सद्भावोपपत्तेरविशेषसम " इत्येवंविधो हि प्रतिषेधो न न्यायमाप्तः।
भ्यायसूत्र और न्यायमायके अनुसार उक्त वार्तिकोंका विवरण यों है कि एक धर्म यहां प्रयत्नान्तरीयकस्व है। कहीं पक्ष किये गये शन्द और घट माने गये दृष्टान्तमें उस धर्मके घटित हो जानेसे समानपन भविशेष होते संते वादी द्वारा शन्द और षटका भनित्यपना स्वीकार कर चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा सद्भावकी उपपत्ति होनेसे यानी संपूर्ण वस्तुगों में सब धर्मके घटित हो जानेसे सबके सद्भावको कहकर अनित्यपनका प्रसंग दिया जाना अविशेषसमा है । सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकारके न्यायप्राप्त दोषोंका समीक्षण नहीं होनेसे यह प्रतिवादीका जातिरूप उत्तर स्पष्ट रूपसे मसव उत्तर है। न्यायसूत्रमें अविशेषसमाका यह क्षण है कि विवक्षित पक्ष दृष्टान्त व्यक्तियों एक धर्मकी उपपत्ति हो जानेसे अविशेष हो जानेपर पुनः सदावकी उपपत्ति होनेसे संपूर्ण वस्तुओं के भविशेषका प्रसंग देनेसे प्रतिवादीद्वारा अविशेषसम प्रतिषेध उठाया जाता है। किन्तु इस प्रकारका बह प्रतिषेध तो न्यायप्राप्त नहीं है। अन्यायसे चाहे जिसके ऊपर चाहे जितने दोष उठा दो। किन्तु परीक्षा करनेपर वे दोष सब उड जाते हैं।
यह प्रतिवादी द्वारा दिया गया प्रतिषेध न्यायप्राप्त कैसे नहीं है। ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
प्रयत्नानंतरीयत्वधर्मस्यैकस्य संभवात् । अविशेषे ह्यनित्यत्वे सिद्धेपि घटशब्दयोः ॥ ४०४ ॥ न सर्वस्याविशेषः स्यात्सत्त्वधर्मोपपत्तिः । धर्मातरस्य सद्भावनिमित्तस्य निरीक्षणात् ॥ ४०५॥ प्रयत्नानंतरीयत्वे निमित्तस्य च दर्शनात् । न समोयमुपन्यासः प्रतिभातीति मुच्यताम् ॥ ४०६ ॥ सर्वार्थेष्वविशेषस्य प्रसंगात् प्रत्यवस्थितिः। विषमोयमुपन्यासः सर्वार्थेष्वु(पपद्यतां ॥ ४०७ ॥
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एक प्रयत्नानन्तरीयकत्व धर्मके संभव हो जानेसे पक्ष तथा दृष्टान्त हो रहे घट और शद्रका निश्पना यद्यपि अन्तररहित हो कर नियमसे सिद्ध हो चुका है, तो मी सत्यधर्मकी उपपत्ति हो जाने से सम्पूर्ण पदार्थोंके विशेषरहितपनका प्रसंग नहीं होवेगा जिससे कि सम्पूर्ण भावोंमें सद्भाव सघ मानेसे
नित्यपन प्राप्त हो जाय और ऐसी दशा में पक्षसे अतिरिक्त अन्य कोई भी उदाहरण नहीं मिल सके । विमा उदाहरण के कोई हेतु होता नहीं है। प्रतिज्ञाके एकदेशको उदाहरणपना असिद्ध है । पक्ष ही तो उदाहरण नहीं हो सकता है, यों जाति उठाई जा सके। बात यह है कि सम्पूर्ण वस्तुओंके सद्भावका निमित्त हो रहा दूसरा धर्म देखा जा रहा है । और प्रयत्नानन्तरीयकपने में निमित्त हो रहा म्यारा धर्म दीखता है । इस कारण जातिवादीका सम्पूर्ण अर्थों में सत्व होनेसे विशेषरहितपनका प्रसंग हो जानेसे प्रत्यवस्थान देनेका यह वचन प्रारंभ करना सम नहीं प्रतिभासता है । अतः वह प्रत्ययस्थान उठाना छोड देना चाहिये। इस प्रकारके विषम उपन्यास तो सभी अयों में प्रसंग प्राप्त किये जा सकते हैं । सामान्य मनुष्यपनका सद्भाव हो जानेसे सभी विद्यार्थी, श्रोता, रंक, निपट मूर्ख, सभी साधरण पुरुष भी माननीय गुरु गोपालदासजी के समान प्रकाण्ड विद्वान् बन बैठेंगे । चाहे कोई भी मनुष्य अपनेको अधिकारी, राजा, अधिपत्ति, आचार्य, मान बैठेगा । विशेष हेतुओं द्वारा अन्तरोंकी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अतः प्रतिवादी द्वारा सबके अविशेषपनका प्रत्यवस्थान उठाया जाना दूषणामास है । यह न्याय उचित मार्ग नहीं है ।
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न हि पथा प्रयत्नानंतरीयकत्वं साधनधर्मः साध्यमनित्यत्वं साधयति श तथा सर्ववस्तुनि सरखं यतः सर्वस्याविशेषः स्यात् सस्वधर्मोपपत्तितयैव धर्मोतरस्यापि नित्यत्वस्याकाशादौ सद्भावनिमित्तस्य दर्शनात् प्रयत्नानंतरीयकत्वनिमित्तस्य चाऽनित्यत्वस्य. बढादौ दर्शनात् । ततो विषमोयमुपन्यासः इति त्यज्यतां सर्वार्येष्वविशेषप्रसंगात् प्रत्यवस्थानं ।
जिस प्रकार कि हेतुधर्म हो रहा प्रयत्नानन्तरीयकपना नियमसे अनित्यपन साभ्यको शहूमें साथ देता है, तिस प्रकार सत्य धर्म तो सम्पूर्ण पदार्थोंमें विद्यमान हो रहा संता अनित्यपनको नहीं सा पाता है, जिससे कि केवल सस्य धर्मकी उपपत्ति कर देनेसे ही सम्पूर्ण वस्तुओंका विशेष रहितपना हो जाय । बात यह है सद्भावका व्यापक रूपसे निमित्त यदि अनित्यपना होता तो प्रतिबादीका प्रत्यवस्थान चढ सकता था । किन्तु आकाश, काळ, आत्मा बादिमें सद्भावके निमित्त हो रहे म्यारे धर्म नित्यपनका भी साथ दर्शन हो रहा है । और घट पट आदिमें अनित्यत्व के ज्ञापक प्रयनांतरीयकत्वके निमित्त कारण अनित्यपनका उपलम्भ हो रहा है। तिस कारण यह प्रतिबादी का अविशेषसमजाति निरूपणरूप उपन्यास करना विषम पढता है। इस कारण प्रतिवादीको संपूर्ण reमें अन्तरहितपन के प्रसंगसे प्रत्यवस्थान देनेका विचार छोड देना चाहिये । " कचिद्धर्मानुपपते:
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कचिचोपपत्तेः प्रतिषेधामावः " इस सूत्रकी वृत्ति में विश्वनाथ भट्टाचार्य कहते हैं कि कहीं कृतकत्व प्रयत्नानन्तरीयकस्व, आदिमें हेतुके धर्म व्याप्ति, पक्षवर्मता आदिक विद्यमान हैं, और कहीं सरय, प्रमेयस्व आदि हेतुओंमें अनित्यपन साध्य के उपयोगी व्याप्ति, पक्षवृत्तित्व आदि हेतुधर्म नहीं पाये जाते हैं । अतः प्रतिवादीद्वारा प्रतिषेध होनेका असम्भव है।
___ यदि तु सर्वेषामर्थानामनित्यता सत्वस्य निमित्तमिष्यते सदापि प्रत्यवस्थानाद निस्याः सर्वे भावा सस्वादिति पक्षः प्राप्नोति । तत्र च प्रतिज्ञार्थव्यतिरिक्त कोदाहरणं सम्भयेन चानुदाहरणो हेतुरस्तु । उदाहरणसाधात साध्यसाधनत्वं हेतुरिति समर्थनात् । पलैकदेशस्य प्रदीपज्वालादेरुदाहरणत्वे साध्यत्वविरोधः साध्यत्वे तूदाहरणं विरुध्यते । न
च सर्वेषां सत्यमनिस्यत्वं साधयति नित्यत्वेपि केषांचित्तवपतीतेः। संपति सिद्धार्थानां -सर्वेषामनित्यतायां कथं शब्दानित्यत्वं प्रतिषिध्यते सवैरिति परीक्ष्यतां । सोयं सर्वस्यानित्यत्वं साधयमेव शब्दानित्यत्वं प्रतिषेधतीति कथं स्वस्था ?
__ भाष्यकार कहते हैं कि तो प्रतिवादीका यदि यह मन्तव्य होय कि सम्पूर्ण अर्थोके सवाषकी उपपत्तिका निमित्तकारण अनित्यत्व ही न्यारा धर्म इष्ट किया गया है । सिद्धान्ती कहते हैं कि यों कल्पना करोगे तो भी प्रतिवादीका प्रत्यवस्थान देनेसे यह पक्ष प्राप्त हो जाता है कि सम्पूर्ण पदार्थ सत्पना हो जानेसे अनित्य हैं और इस प्रकार वादीके उस पक्षमें प्रतिज्ञा विषय अर्थसे व्यतिरिक हो रहा उदाहरण मला कहां सम्भवेगा ! अर्थात्-सत्व हेतुसे सम्पूर्ण पदार्थोंमें अविशेषरूपसे बनित्यपना साधनेपर अन्वयदृष्टान्त या व्यतिरेक दृष्टान्त बनाने के लिये कोई पदार्थ शेष नहीं बचता है
और उदाहरणसे रहित कोई हेतु हो जाओ यह ठीक नहीं पड़ेगा। क्योंकि उदाहरणके साधर्म्य से या उदाहरणकी सामर्थ्यसे साध्यका साधकपना हेतुका प्राण है । इस प्रकार समर्थन किया जा चुका है । अन्तर्याप्तिका अवलम्ब लेकर प्रतिवादी यदि पक्षके एक देश हो रहे प्रदीपककिका, मग्निवाला, विद्युत् मादिका उदाहरणपना स्वीकार करें, तब तो हम कहते हैं कि सबको पक्ष. कोटिमें डालकर उन प्रदीप, ज्याला, सादिक साध्यानका विरोध हो जावेगा। प्रदीपकलिका मादिको पक्षमें प्रविष्ट कर अनित्वपनसे विशिष्टपना साध्य करनेपर तो उनको अन्बय दृष्टान्त बनाना विरुद्ध पड बायगा । तथा एक बात यह भी है कि सम्पूर्ण पदार्थोका विद्यमान हो रहा सब कोई अनित्यत्वको नहीं साध देता है । किन्हीं आकाश आदि पदार्थोके नित्यपना होते हुये भी सरव प्रतीत हो रहा है । अतः नित्यपन या अनित्यपनको साधनेमें सरब हेतु व्यभिचारी है । निस्योंमें सद्भाव हो जानेसे उस हेतुकरके अनित्यपमकी सिद्धि मही हो सकती है । और अनित्य पदार्थो वर्त आनेसे उस हेतु करके नित्यपनकी सिद्धि नहीं हो पाती है। अत्तः प्रतिवादीका सबको अविशेषपनके प्रसंग देने का वाक्य कुछ भी अर्यको नहीं रखता है। हां,
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वर्तमान कालमें सिद्ध हो रहे सम्पूर्ण पदार्थोंका अनित्यपना यदि सापा जावेगा तब तो जन्य पदार्थोके सत्व करके प्रतिवादी द्वारा शङ्कका अनित्यपना भला कैसे प्रतिषेधा जा सकता है ! अर्थात्-नहीं। इस बातकी प्रतिमादी और उसके साथी भले ही परीक्षा कर देखें, हमको कोई बापत्ति नहीं है । सद्भाव सिद्ध हो जानेसे सम्पूर्ण पदार्थोके अनित्यपनको कह रहे प्रतिवादी करके जब शद का अनित्यपना स्वीकार ही कर लिया गया है, उस दशामें बादीके पक्षका प्रतिवादी द्वारा प्रतिबेथ करना ही नहीं बन पाता है। फिर भी यह प्रसिद्ध प्रतिवादी सबके अनित्यवनको साध रहा संता ही शक्के अनित्यपनका प्रतिषेध कर रहा है। यों परस्पर विरुद्ध कह रहा यह प्रतिवादी स्वस्थ (होशमें ) कैसे कहा जा सकता है ! विचारशील पण्डित तो ऐसे विरुद्ध वचनोंका प्रयोग नहीं करता है । यहांतक अविशेषसमा जातिका विचार कर दिया गया है।
कारणस्योपपत्तेः स्यादुभयोः पक्षयोरपि । उपपत्तिसमा जातिः प्रयुक्ते सत्यसाधने ॥ ४०८ ॥
वादी द्वारा सत्य हेतुका प्रयोग किया जा चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा दोनों भी पक्षों के यामी पक्षविपक्षोंके या नित्यपनके अमित्यपनके कारण प्रमाणकी उपपत्ति हो जानेसे उपपत्तिसमा जाति दुई प्रतीत कर लेनी चाहिये ।
उभयोरपि पक्षयोः कारणस्योभयोपपत्तिा प्रस्थेया उभयकारणोपपत्तेरुपपत्तिसम इति वचनात् ।
___ दोनों भी पक्ष विपक्षों के कारण की दोनों बादी प्रतिवादियों के यहां सिद्धि हो जाना उपपतिसमा जाति समझ लेनी चाहिये । न्यायदर्शनमें गौतम ऋषिने उभव कारणकी उपपत्तिसे उपपत्तिसम प्रतिषेध होता है, ऐसा निरूपण किया है। प्रतिवादी कह देता है कि जैसे तुझ वादीके पक्ष हो रहे अनित्यपनमें प्रमाण विधमान है, तिसी प्रकार मेरा पक्ष भी प्रमाणयुक्त है । ऐसी दशामें वादीके पक्षका प्रतिरोध हो जाना या बावित हो जाना सम्भव समझ कर प्रतिवादी उपपत्तिसमा जाति उठानेके लिये मुरू हुआ प्रतीत होता है।
एकदाहरणमाह।
इस उपपत्तिसमाके उदाहरणको न्यायभाष्य अनुसार श्री विद्यानन्द थाचार्य यों वक्ष्यमाण बार्तिकों द्वारा कहते हैं।
कारणं यद्यनित्यत्वे प्रयत्नोत्थत्वमित्ययं । शवोऽनित्यस्तदा तस्य नित्यत्वेऽस्पर्शतास्ति तत् ॥ ४०९॥
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तत्वावलोकवार्तिके
ततो नित्योप्यसावस्तु साधनं नोपपद्यते।
कारणस्याभ्यनुज्ञाना न नित्यः कथमन्यथा ॥ ४१०॥ न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ऋषि उपपत्तिसमके लक्षण सूत्रका यो व्याख्यान करते हैं कि शब्दके अनित्यपनको साधनेमें कारण प्रयत्नजन्यत्व है । इस कारण यह शब्द यदि अनित्य कहा जाता है, तब तो उस शद्बके नित्यपनमें भी ज्ञापक कारण हो रहा वह स्पर्शरहितपना विधमान है । तिस कारणसे वह शब्द नित्य भी उपपन्न हो जाओ, अन्यथा यानी कारण ( अस्पर्शत्व ) के होनेपर भी यदि साध्य (नित्यत्व ) को नहीं साधोगे तो शब्द अनित्य भी कैसे हो सकेगा ! वहां भी प्रयनजन्यत्वके होते हुये भी अनित्यपनका साधन नहीं बन सकेगा यदि कारणके । वर्त जानेसे शमें अनित्यपन की सिद्धि कर दोगे तो दूसरे प्रकार अस्पर्शत्व हेतुसे शर नित्य भी क्यों नहीं सिद्ध हो जायगा ? अर्थात्-होवेगा ही।
यद्यनित्यत्वे कारणं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं सदस्यास्यास्तीत्यनित्यः शद्वस्तदा नित्यत्वे तस्य कारणमस्पर्शत्वमुपपद्यते । ततो नित्योप्यस्तु कथयनित्योन्यथा स्यादित्युभयस्यानित्यत्वस्य नित्यत्वस्य च कारणोपपरया प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसमो दूषणाभासः।
इन दो कारिकाओं का विवरण यों है कि यदि शद्बके अनित्यपनको साधनेमें ज्ञापक कारण प्रयत्नानन्तरीयकपना है, अतः शब्द अनित्य है, तब तो उस शद्बके नित्यपनमें भी ज्ञापक कारण स्पर्शगुणरहितपन विद्यमान है । तिस कारणसे शब्द नित्य भी हो जाओ । स्पर्शगुणसे रीता हो रहा आकाश नित्य है । उसी प्रकार गुण होनेसे किसी भी गुणको नहीं धारनेवाला स्पर्शरहित शब्द भी नित्य हो सकता है। कोई बाधा नहीं आती है। अन्यथा वह अनित्य मी कैसे हो सकेगा ! इस प्रकार दोनों ही अनित्यप्रन और नित्यपनके कारणोंकी उपपत्ति हो जानेसे प्रत्यवस्थान उठाना प्रतिवादीका उपपत्तिसम नामका दूवणाभास है । वस्तुतः दूषण नहीं होकर दूषणके सदृश है।
इत्येष हि न युक्तोत्र प्रतिषेधः कथंचन । कारणस्याभ्यनुज्ञादि यादृशं ब्रुवतां स्वयं ॥ ४११ ॥ शद्वानित्यत्वसिद्धिश्वोपपत्तेरविगानतः। व्याघातस्तु द्वयोस्तुल्यः स्वपक्षप्रतिपक्षयोः ॥ ४१२ ॥ साधनादिति नैवासौ तयोरेकस्य साधकः । एवं ह्येष न युक्तोत्र प्रतिषेधः कथं मतिः ॥ ४१३ ॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
" उपपत्तिकारणाभ्यनुज्ञानादप्रतिषेधः " इस सूत्र अनुसार सिद्धान्ती उसका उत्तर कहते हैं कि यहां प्रतिवादी द्वारा यह प्रतिषेध करना कैसे भी युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि दोनोंके कारणोंकी उपपत्ति कह देनेसे शद्वके अनित्यपमकी निर्दोष रूपसे सिद्धि हो चुकी । जिस प्रकार के मन्तव्यको प्रतिवादी स्वयं कह रहा है, उसने शद्वके अनित्यपनको सब ओरसे स्वीकार कर ही लिया है । अनित्यपनके हेतु, उदाहरण, आदिको भी वह मान चुका है। अतः पुनः नित्यत्वको साधते हुये वह प्रतिषेध करना नहीं बनता है । अनित्यपमको मान कर पुनः अनित्यपनका निषेध नहीं किया जा सकता है । व्याघात दोष लग बैठेगा । तथा यदि प्रतिषेध करोगे तो दोनों नित्यत्व, atrah कारणोंht उपपत्ति नहीं स्वीकार की जा सकेगी । अतः जातिका लक्षण नहीं घटा । और यदि दोनोंके कारणोंकी उपपत्ति कह देनेसे शद्वके अनित्यपनका कारण बन चुकना स्वीकार कर लोगे तो प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है। अपने पक्ष हो रहे शद्बका अनित्यपन और प्रतिवादीके पक्ष प्रस्त हो रहे नित्यपन दोनोंकी सिद्धि करनेसे तो उसी प्रकार समान रूपसे व्याघात दोष आ जाता है । इस कारण वह प्रतिवादी उन दोनोंमेंसे एक पक्षका भी साधनेवाला नहीं है । इस प्रकार यह प्रतिवादी द्वारा किया गया प्रतिषेध यहां कैसे भी समुचित नहीं है । "ठोके षष्ठं गुरु ज्ञेयम् " इसकी अपेक्षा नहीं कर कथमपि पाठकर लिया जाय अथवा अनुष्टुप् श्लोकके पदोंमें छठवें अक्षरको गुरु माननेपर " कथं मतिः " पाठ बना किया जाय । विद्वान् पुरुष अन्य भी विश्वार कर सकते हैं । बादी कह सकता है कि तुझ प्रतिवादीने मेरे पक्षका दृष्टान्त दे करके मेरे पक्षका प्रामाणसहितपना स्वीकार कर लिया है । अतः मेरे ऊपर प्रतिषेध भला कैसे उठाया जा सकता है । यों कथमपि पाठ रहने दो ।
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कारणस्याभ्यनुज्ञानात् उभयकारणोपपत्तेरिति ब्रुवता स्वयमेवानित्यत्वे कारणं प्रयस्नानंतरीयकत्वं तावदभ्यनुज्ञातमनेनाभ्यनुज्ञानान्नानुपपन्नस्तत्प्रतिषेधः शद्धानित्यत्वसिद्धया उपपत्तेरविवादात् । यदि पुनर्नित्यत्वकारणोपपत्तौ सत्यामनित्यत्वकारणोपपत्तेर्व्याघातादनित्यत्वासिद्धेर्युक्तः प्रतिषेध इति मतिस्तदास्त्यनित्यत्वकारणोपपतौ सत्यां नित्यत्वकारणोपपतिरपि व्याघातान्न नित्यत्वसिद्धिरपीति नित्यत्वानित्यत्वयोरेकतरस्यापि न साधकतुल्यस्वादुभयोर्व्याघातस्य ।
कारणका अभ्यनुज्ञान करनेसे अर्थात्-सूत्र अनुसार नित्यपन अनित्यपन दोनोंके कारणोंकी उपपत्ति हो जाने से इस प्रकार कह रहे प्रतिवादीने शद्वमें अनित्यपनके कारण प्रयत्नानन्तरीयकत्वको स्त्रियं पहिले ही स्वीकार कर लिया है । यों इस प्रतिवादी करके स्वीकृत हो जानेसे पुनः उस अनित्य पनका प्रतिषेध करना नहीं सघ सकेगा। क्योंकि शद्व के अनित्यपनकी सिद्धि की उपपत्तिमें प्रतिवादीको कोई विवाद नहीं रहा है । अतः अनित्यपनका प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है । यदि फिर
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रतिवादीका यह मन्तव्य होय कि हमारे यहां प्रथमसे ही शब्दकी नित्यताके कारण अस्पर्शस्वकी उपपत्ति ( सिद्धि ) हो चुकी है । ऐसा होनेपर वादीके इष्ट शद्बानित्यत्वके कारण प्रयत्नजन्यत्वकी उप. पत्तिका व्याघात हो जाता है । अतः अनित्यपनकी प्रसिद्धि हो जानेसे मेरे द्वारा किया गया अनित्यत्वका प्रतिषेध करना युक्त है । अर्थात्-तुम्हारे यहां अनित्यपन सथ चुकनेपर पुनः उसका प्रतिषेध करनेसे मेरे ऊपर जैसे न्याषात दोष आता है, उसी प्रकार मेरे यहां शद्वका मित्यपन सधचुकनेपर पुनः अनित्यपम साधनेमें तुमको भी व्याघात दोष लगेगा । अतः में प्रतिवादी उस अनित्यपनका प्रतिषेध कर देता हूं, यह मेरा उचित कार्य है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि यो मानोगे तब तो हम भी कह देंगे कि षादीके यहां प्रथमसे ही अनित्यपमके कारणकी सिद्धि हो चुकनेपर पुनः प्रतिषादीके यहां नित्यपनके कारणकी सिद्धि व्याघात दोष हो जानेसे नहीं बन पाती है। वादीको हो प्रथम बोलनेका अधिकार प्राप्त है। अतः प्रतिवादीके अमीष्ट नित्यपनकी सिद्धि नहीं हुई। बिल्ली के समान दूधको लुङका देनेसे दोनों से किसीका भी प्रयोजन नहीं सब पाता है । इस प्रकार नित्यत्व, अनित्यत्व, दोनों से किसी एक पक्षको भी सिद्धि करनेवाला यह साधक नहीं हुआ। कारण कि दोनों भी पक्षोंमें व्याघात दोष तुल्य रूपसे मुंह वांये खडा हुआ है । ऐसी दशामें दोनों पक्षोंके सुन्द उपसुन्द न्यायसे मर जानेपर प्रतिवादी किसकी सामर्थ्यके भरोसेपर प्रतिषेध करनेके लिये उत्साह दिखा रहा है ! अतः यह प्रतिबादी द्वारा किया गया प्रतिषेध युक्त नहीं है।
का पुनरुपलब्धिसमा जासिरित्याह ।
चौवीस जातियोंमें उपपत्तिसमा मातिके पीछे गिनाई गयी फिर उपलब्धिसमा जाति कैसी है ! उसका लक्षण और उदाहरण क्या है ! इस प्रकार श्रोताकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द भाचार्य उत्तर कहते हैं।
साध्यधर्मनिमित्तस्याभावेप्युक्तस्य यत्पुनः । साध्यधर्मोपलब्ध्या स्यात् प्रत्यवस्थानमात्रकम् ॥ ४१४ ॥ सोपलब्धिसमा जातियथा शाखादिभंगजे । शद्वेस्त्यनित्यता यत्नजत्वाभावेप्यसाविति ॥ ४१५॥
शब्द भनित्य है, ( प्रतिज्ञा ) जीवके प्रयत्न करके जन्य होनेसे ( हेतु ) घटके समान, इस अनुमानमें शब्दनिष्ठ अमित्यत्वकी ज्ञाप्ति करानेका निमित्त कारण प्रयत्नजन्यत्व माना गया है। वादी द्वारा कहे जा चुके उस निमित्तके नहीं होनेपर भी प्रतिवादी द्वारा पुनः साध्य धर्मकी उपलन्नि करके जो केवळ रीता प्रत्यवस्थान उठाया जायगा वह उपलब्धिसमा जाति है । जैसे कि
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वृक्षकी शाखा गुदा आदिके टूटनेसे उत्पन्न हुये शब्द प्रयत्नजन्यत्वके बिना भी बह नित्यपना साध्यधर्म विधमान है । तिस कारणसे वह हेतु साध्यका साधक नहीं है। अथवा " पर्वतो बन्दिमान् धूमाव" यह अनुमान पनिरके निर्णयके लिये कहा जाता है। किन्तु वह ठीक नहीं बैठता है। क्योंकि धूमके बिना बालोक, उष्णता, भादिसे भी अग्निकी सिद्धि हो जाती है। अतः अकेले धूऐसे ही वहिमान् नहीं साधना चाहिये तथा धूम हेतुसे बन्हिमान ही यह साम्य कोटिमें अवधारण नहीं लगाया जाय । क्योंकि धूम हेतुसे दन्यत्व, मूर्तस्व भादिकी भी सिद्धि हो जाती है । पर्षत हो अग्निमाम् है । यह पक्षकोटिमें अवधारण नहीं कर सकते हो। क्योंकि रसोई घर, अधियाना मादिक मी अग्निमान् हैं । पर्वतको ही अग्निनान् मानमेपर अन्वयदृष्टान्त भी कोई नहीं बन सकेगा । पर्वतका बहुतसा भाग अग्निरहित हुआ अन्य बनस्पति, शिका, मिष्टी, आदिको पार रहा भी है। इस प्रकार यह उपलब्धिसमा जाति नामक प्रतिषेध प्रतिषादी द्वारा उठाया गया है।
साध्यधर्मस्तावदनित्यत्वं तस्यानिमित्तकारणं प्रयत्नानन्तरीयकस्वं ज्ञापकं तस्योकस्य वादिना कचिदभावेपि पुनः साध्यधर्मस्योपलब्ध्या यस्मत्यवस्थानमात्रकं सोपछाधिसमा जातिर्विज्ञेया, " निर्दिष्टकारणाभावेप्युपलंभादुपलब्धिसम " इति वचनात् । तद्यथाशाखादिमंगजे गरे प्रयत्नानन्तरीयकत्वाभावेप्यनित्यत्वमस्ति साध्यधर्मोसाविति । - यहां प्रकरणमें साधने योग्य धर्म तो सबसे पहिले अनित्यपना है। उसका ज्ञापक निमित्त कारण प्रयत्नानन्तरीयकस्व हेतु है। वादी द्वारा कहे जा चुके हेतुका जमाव होनेपर मी पुमः साध्य धर्मकी उपलब्धि दिखलानेसो जो सम्पूर्ण व्यापक साध्यकी अपेक्षा मात्र प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, वह उपलब्धिसमा जाति समझनी चाहिये । गौतमसूत्रमें इसका लक्षण यों कहा है कि वादी द्वारा कहे जा चुके कारणके अमाव होनेपर भी साध्यधर्मका उपळम्भ हो जामसे उपलब्धिसम प्रतिषेध है। उसका उदाहरण इस प्रकार है कि शाखा भादिके भंगसे उत्पन्न हुये शरमें या घनगर्जन, समुद्रघोष मादि शद्रोंमें प्रयत्नजन्यत्वका अभाव होनेपर भी वह साम्य धर्म हो रहा अनित्यपना वर्त रहा है।
स चायं प्रतिषेधो न युक्त इत्याह ।
सिद्धान्ती कहते हैं कि सो यह प्रतिवादी द्वारा किया गया प्रतिषेध तो युक्त नहीं है। इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकद्वारा कहते हैं।
कारणातरतोप्यत्रं साध्यधर्मस्य सिद्धितः। न युक्तः प्रतिषेधोऽयं कारणानियमोक्तितः॥ ४१६ ॥
" कारणान्तरादपि तद्धर्मोपपत्रप्रतिषेधः " इस गौतमसूत्रके अनुसार विचार करना पडता है कि अन्य कारगोंसे भी यहां साधधर्मकी सिदि हो सकती है । अतः यह प्रतिवादी द्वारा किया
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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गया प्रतिषेध उचित नहीं है । सामान्य कार्योंके लिये कोई नियत कारणोंका नियम कहा गया है। बात यह है कि शद्व कार्य है, वह कारणोंसे ही उपजेगा । जीवोंके उच्चार्यमाण शद्व में प्रयत्न अनित्यपना साध किया जाता है । और शेष शाखाभं गोत्थ मेघगर्जन आदि शब्दों में उत्पत्तिमख, कृतकत्व आदि हेतु ओंसे अनित्यत्व साध लिया जायगा । देखो, जैसे कार्य तो अवश्य कारणवान् होते हैं । किन्तु कारण कार्यसहित भी होंय और कार्यवान् नहीं भी होंय, कोई नियम नहीं है । उसी प्रकार ज्ञापक पक्षमें समीचीन हेतु साध्यवाला अवश्य होगा । किन्तु साध्य अवश्य सहचरत्व सम्बन्धसे हेतुमान होय ऐसा नियम नहीं है । साध्य व्यापक होता है और हेतु व्याप्य होता है । हेतुमें अन्यथानुपपत्ति गुण ठहरता है । साध्यमें अविनाभाव गुण नहीं वर्तता है । साधमेके बिना साध्य नहीं होय, ऐसा कोई नियम नहीं कह दिया गया है। अग्निकी अनुमिति अन्य आलोक आदि हेतुओं से भी हो सकती है ! हम हेतु, साध्य, या पक्षमें एवकार लगाकर अवधारण करनेके लिये " पर्वतो वन्हि - मान् धूमात् ” या " शब्दोऽनित्यः प्रयत्न जन्यत्वात् इन अनुमानोंका प्रयोग नहीं कर रहे हैं । किन्तु संदेहप्राप्त हो रहे अमित्यत्व, आदिकी सिद्धिके लिये अनुमान वाक्य रच रहे हैं । अन्यथा तुझ प्रतिवादीके द्वारा कहा गया वादी कथित पक्षकी असाधकताका साधन भी नहीं बन सकेगा। क्योंकि Preranath दूसरे साधक भी बर्त रहे हैं। अतः वादीके पक्षका यों प्रतिषेध नहीं हो सकता है ।
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प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् कारणादन्यदुत्पत्तिधर्मकत्वादिकारणान्तरमनित्यत्वस्य साध्यधर्मस्य, तवोपि सिद्धिर्न युक्तः प्रतिषेधोयं तत्र कारणानियमवचनात् नाभिज्ञापकर्मतरेण ज्ञाप्यं न भवतीति नियमोस्ति, साध्याभावे साधनस्यानियमव्यवस्थितेः इति ।
नित्यपन साध्यधर्मके हेतु हो रहे प्रयत्नानन्तरीयकपन इस ज्ञापककारणके भिन्न ( न्यारे ) उत्पत्तिधर्मकपन, कृतकपन आदि दूसरे कारण भी विद्यमान हैं। उनसे भी अमित्यपनकी सिद्धि हो सकती है । हम उक्त हेतुसे न्यारे हेतुका अनित्यपनको साधने के लिए निषेध थोडा ही करते हैं । अतः यह प्रतिवादीका उठाया हुआ, यह प्रतिषेध युक्त नहीं है। वहां हमने कारणोंके नियमका वचन नहीं दे दिया है । अच्छी ज्ञप्ति करानेवाले हेतुके बिना जानने योग्य साध्य नहीं होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। हां, साध्यके नहीं होनेपर तो नियमसे साधनके नहीं ठहरने की व्यवस्था है। यहांतक उपलब्धिसमा जातिका विचार कर दिया गया है। अब इसके आगे अनुपलब्धिसमा जातिकी परीक्षा करते हैं ।
तस्मान्न विद्यमानस्यानुपलब्धेः प्रसाधने । निषेध्यानुपलब्धेश्वाभावस्य साधने कृते ॥ ४१७ ॥
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तत्वाचन्तामणिः
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अभावस्य विपर्यासादुपपत्तिः प्रकीर्तिता। प्रस्तुतार्थविषातायानुपलब्धिसमानधैः ॥ ४१८ ॥
जिस कारण कि उच्चारणसे पहिले शब्दका उपलम्भ नहीं होता है। यदि कथमपि उच्चारण के प्रथम तिरोभूत हो रहे शब्दका सद्भाव मान भी लिया जाय तो बावरण आदिसे उस शब्दकी उपलब्धि नहीं होना माना आयगा । किन्तु यह तो बनता नहीं है। क्योंकि अनुपलब्धिके कारण आवरण आदिकोंका ग्रहण नहीं होता है । अर्थात्-इस वायु श्रादिकरके ढक रहा शब्द बोलनेके पहिले पहिले सुनाई नहीं पडता है। या श्रोत्र इन्द्रियके साथ शब्दका सन्निकर्ष पूर्वकालमें नहीं हो सका है। अथवा उच्चारणके पहिले शब्दका इन्द्रियके साथ व्यवधान था । पहिले शब्द सूक्ष्म था। इत्यादिक इन युक्त अनुपलब्धिके कारणों का प्रण नहीं हो रहा है। अतः उच्चारणसे पूर्वमें शब्द नहीं हैं । आत्माके बोलने की इच्छाके साथ प्रतिघात ( धक्का लगना) हो जाना ही शब्दका उच्चारण है । न्यायसिद्धान्तके अनुसार लौकिक, वैदिक, या अभाषात्मक, घनगर्जन बादिक समी शब्द अनित्य माने गये है। किन्तु मीमांसक शन्दोंको नित्य मानते हैं । उन्धारणके पूर्वकालोंमें भी शब्द अक्षुण्ण विद्यमान हैं। अभिव्यंजक कारणोंके नहीं मिलनेसे उसका श्रावणप्रत्यक्ष नहीं हो पाता है। इसका नैयायिक खण्डन कर देते हैं कि " प्रागुच्चारणाचनुपलब्धेरावरणाचनुपलब्धेच" पहिले समयोंमें उच्चारण आदिकी अनुपलब्धि हो रही है और बावरण अादिकी अनुपलब्धि हो रही है। यदि शन्द नित्य रोता तो उग्चारणसे पहिले भी श्रोत्रके साथ सन्निकर्ष हो जानेसे सुनाई पडता । कोई यहां प्रतिबन्धक तो नहीं है। यदि कोई प्रतिबन्धक है, तो उमका ही दर्शन होना चाहिये । किन्तु बावरण आदिकोंकी अनुपलब्धि है । नैयायिकके यहा माने गये अमूर्त, अक्रिय, शब्दका अन्य देशोंमें उस सयय चला जाना भी तो नहीं सम्भवता है। अतीन्द्रिय अनन्त प्रतिबंधक व्यंजक, भावारके या भावारकोंके अपमायक आदिकी कल्पना करनेकी अपेक्षा शब्दके बनिस्यपनकी कल्पना करनेमें ही लाघव है । अतः व्यंजक कारणके नहीं होनेसे शब्दका अग्रहण नहीं है। किन्तु अभाव होनेसे ही उच्चारणके प्रथम काळमें शब्दका श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं हो सका है। तिस कारण विद्यमान शब्दकी अनुपलब्धि नहीं है । उस अनुपलब्धिका अच्छा साधन करते संते निषेध करने योग्य शमकी अनुपलब्धिसे पूर्वकालीन शब्इके ममावका वादी द्वारा साधन कर चुकनेपर जातिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि आवरणकी अनुपलम्धिसे आवरणका अभाव यदि सिद्ध हो जाता है, तो आवरणकी अनुपलब्धिके अनुपलम्मसे बावरणानुपकन्धिका भी अमाव सिद्ध हो जायगा । और तैसा होनेपर बावरणानुपलब्धिको प्रमाण मानकर जो बावरणामाब नैयायिकोंने माना था, वह नहीं बनेगा । किन्तु नित्य शब्दोंके आवरणकी उच्चारण पूर्वकालमें सिद्धि हो जायगी । इस प्रकार शब्दके नित्यपनेमें कहा गया भावरणानुपलब्धिरूप बाधक उठाना वादीका
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तत्वार्थाकवार्तिके
उचित कार्य नहीं है । अतः उस आवरणकी अनुपलब्धि के अनुपलम्पसे अभावको साधनेपर उस Tarah for प्रस्तावित अर्थका विषात करनेके लिये उपपत्ति उठाना निर्दोष विद्वानोंद्वारा अनुपमा जाति कही जा चुकी है ।
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दाह, न पाचारणाद्विद्यमानस्य शस्यानुपलब्धिस्तदाचरणाद्यनुपलब्धेरुत्पत्तेः घटादेरिव । यस्य तु दर्शनात् प्राविद्यमानस्यानुकब्धिस्तस्य नावरणाद्यनुपलब्धिः यथा भूम्यावृतस्योदकादेर्नावरणाद्यनुपलब्धिश्च श्रवणात् प्राक् शहस्य । तस्मान्न विद्यमानस्यानुपलब्धिरित्यविद्यमानः शब्दः श्रवणात्पूर्वमनुपलब्धिरिति निषेध्य शब्दस्यानुपलब्धिर्या तस्याश्वानुपलब्धेरभावस्य साधने कृते सति विपर्यासादभावस्योपपत्तिरनुपलब्धिसमा जातिः प्रकीर्तितानधैः, प्रस्तुतार्थविघाताय तस्याः प्रयोगात् । तदुक्तं । तदनुपलब्धेरनुभादभावसिद्धौ विपरीतोपपत्तेरनुपलब्धिसम " इति ।
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कोई बादी कह रहा है कि विद्यामान शद्वका उच्चारणसे पहिले अनुपलम्भ नहीं है। क्योंकि उस शद्वके आवरण ( भूमि, भीत आदिके समान ) असन्निकर्ष ( इन्द्रिय और अर्थका सन्निकर्ष नहीं होना) इन्द्रियघात ( कान फूट जाना ) सूक्ष्मता ( परमाणुओंके समान इन्द्रिय गोचर नहीं होगा ) ममोन स्थान ( चित्तका अस्थिर रहना ) अतिदूरस्थ ( अधिक दूर देशमें सुमेरु आदिके समान शका पडा रहना ) अभिभव ( सूर्यके आलोकले दिनमें चन्द्रप्रभा या तारागणों के छिपजाने समान शद्वका छिपा रहना ) समानामिहार ( भैसके दूधमें गायके दूधका मिक जाना या छोटेके पानी में गिलास पानीका मिल जाना इस प्रकार शद्वका समान गुणवाके पदार्थ के साथ मिश्रण होकर पृथक्, पृथक्, दिखाई नहीं पड़ना) आदिकी अनुपलब्धि हो रही है । अतः उत्पत्तिके पहिले घट आदिका अभाव है । देखो, दर्शनके पहिले विद्यमान हो रहे जिस पदार्थकी अनुपलन्धि है, उसके तो आवरण, असन्निकर्ष, व्यवधान आदिकी अनुपलब्धि नहीं है । जैसे कि भूमिसे ढके हुये स्रोतजक या थैकीसे के हुये रुपये, या सन्दूकसे आवृत हो रहे वण आदि आवरण अथवा दूरवर्ती नगर, मेला, तीर्थस्थान आदिके साथ हो रहे इन्द्रियोंके असनिर्ष athi अनुपत्र नहीं है । इसी प्रकार सुननेके पहिले शब्द के आवरण आदिक नहीं दीख रहे हैं । तिस कारण से सिद्ध होता है कि विद्यमान हो रहे शब्दोंकी अनुपलब्धि नहीं है। प्रत्युत ( बहिक) सुनने के पूर्व का शब्द विद्यमान ही नहीं है । इस कारण उसकी उपलब्धि नहीं हो रही है । इस कारण निषेध करने योग्य शब्दकी जो अनुपतन्धि है, उसकी भी अनुपलब्धि हो जाने से अभावका साधन करनेपर विपर्यासले उस अनुपलब्धि के अभावकी उपपत्ति करना मिष्पाप aarties प्रतिवादीकी अनुपलब्धिसमा जाति बखानी गयी है । बादीके प्रस्ताव प्राप्त अर्थका विज्ञात करनेके लिये प्रतिवादीने उस जातिका प्रयोग किया है । वही गौतमऋषिने न्यायदर्शन में
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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हेतुके
कहा है कि उन आवरण आदिकोंकी अनुपलब्धि नहीं दीख रही है । अतः अनुपलम्भ होने से इस अनुपलब्धिका अभाव सिद्ध हो जाता है । अभावकी सिद्धि हो चुकनेपर नहीं रहने से उसके विपरीत आवरण आदिकोंका अस्तित्व जान लिया जाता है। अतः जो वादीने कहा था कि उच्चारणके पहिले शद्व विद्यमान नहीं है । इस कारण उसकी उपलब्धि नहीं हो पाती है । यह वादीका कथन सिद्ध नहीं हो सका है। दूसरी बात यह भी है कि जैसे आवरण के अनुपलम्भ प्रत्येक आत्मामें जाने जा रहे हैं, उसी प्रकार आवरणोंकी अनुपलब्धि के अनुपलम्भ भी प्रत्यक्ष आत्मक संविदित हो रहे हैं । " तदनुपढब्धेरनुपलम्भादावरणोपपत्तिः " अनुपलम्भादप्यनुपलब्धिसद्भाववन्नावरणानुपपत्तिरनुपलम्भात् तथा जिस प्रकार नहीं दीखते हुये आवरणोंकी अनुपलब्धिसे उनका अभाव मान लिया जाता है, उसी प्रकार अनुपलभ्यमान हो रही आवरणानुपलब्धिका अभाव भी जान दिया जाता है । एतावता आवरणोंका सद्भाव सिद्ध हो जाता है । यतः शद्वको निस्य अभिप्रेत करने are प्रतिवादीका यह अनुपलब्धिसम नामका प्रतिषेध है ।
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कथमिति श्लोकैरुपदर्शयति ।
उस अनुपसिम प्रतिषेधका उदाहरण किस प्रकार है ! ऐसी प्रेक्षा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य लोकों द्वारा उसको दिखाते हैं ।
यथा न विद्यमानस्य शद्वस्य प्रागुदीरणात् ।
अश्रुतिः स्यात्तदावृत्याद्यदृष्टेरिति भाषिते ॥ ४१९ ॥ कश्चिदावरणादीनामदृष्टेरप्यदृष्टितः ।
सैव मा भूत्ततः शद्धे सत्येवाऽश्रवणात्तदा ॥ ४२० ॥ वृत्याद्यभावसंसिद्धेरभावादिति जल्पति । प्रस्तुतार्थविधावेव नैव संवर्णितः स्वयं ॥ ४२१ ॥
अनुपलब्धिसमा जातिका निदर्शन जिस प्रकार नैयायिकोंने दिखाया है, वह यों है कि उच्चारण, बजना, गर्जना, आदिके पूर्वकालमें शुद्ध विद्यमान नहीं, अतः विद्यमान हो रहे शद्वकी अनुपलन्धि महीं । यानी अभाव होते हुये ही शद्रका पहिले काढमें अश्रवण हो रहा है। क्योंकि उस दृश्य शद्वकी अनुपलन्धिके कारण सम्भबनेवाले आवरण, असन्निकर्ष, व्यवधान, आदिका मी महण नहीं हो रहा है। इस कारण यह कारणोंसे उपजने योग्य शब्द अपनी उत्पत्तिके पहिले समयों में विद्यमान ही नहीं है, तब उपलम्भ किसका होय। घटकी उत्पत्तिके पहिले घट नहीं दिखला है । और उसके आवरण मीत, बन, झोंपडी आदि भी नहीं देखते हैं । इस प्रकार वादी द्वारा
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तत्वार्थ ठोक वार्तिके
निरूपण कर चुकने पर कोई प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि आवरण आदिकोंके अनुपलम्मका भी तो अनुपलम्भ हो रहा है । अत: वह आवरणोंका अनुपलम्भ ही नहीं माना जाय और ऐसी दशामें आवरणोंका सद्भाव हो जानेसे पूर्वका कमें शद्वके होते संते ही उन आवारकोंसे आवृत हो जाके कारण उस समय पूर्वकालमें शद्बका सुनना नहीं हो सका है। वस्तुतः शङ्ख उस समय विथमान था । उसके आवरण आदिकोंके अभावकी भछे प्रकार सिद्धि होनेका अभाव है । इस कारण वादीका हेतु प्रस्ताव प्राप्त अनित्य अर्थकी विधि करनेमें ही स्वयं भके प्रकार वर्णमायुक्त नहीं हुआ। वादीने जो यह प्रतिज्ञा की थी कि उच्चारणके पहिले विद्यमान माने जा रहे शद्वकी अनुपलब्धि नहीं हो पाता है । अतः शद्वके नित्यपनमें कोई बाधा नहीं आती है। यों जातिको कहने वाला प्रतिवादी जम्प कर रहा है ।
तदीदृशं प्रत्यवस्थानमसंगतमित्यावेदयति ।
वह प्रतिवादीका इस प्रकार प्रत्यवस्थान उठाना संगतिशून्य है। इस बातका श्रीविद्यानन्द आचार्य आवेदन करते हैं।
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तदसंबंधमेवास्यानुपलब्धेः स्वयं सदा । नुपलब्धिस्वभावेनोपलब्धिविषयत्वतः ॥ ४२२ ॥ नैवोपलब्ध्यभावेनाभावो यस्मात्प्रसिद्धयति । विपरीतोपपत्तिश्च नास्पदं प्रतिपद्यते ॥ ४२३ ॥ शद्वस्यावरणादीनि प्रागुच्चारणतो न वै । सर्वत्रोपलभे हंत इत्याबालमनाकुलम् ॥ ४२४ ॥ ततश्चावरणादीनामदृष्टेरप्यदृष्टितः ।
सिद्धपत्यभाव इत्येष नोपालंभः प्रमान्वितः ॥ ४२५ ॥
वह प्रतिवादीका कहना पूर्वापर सम्बन्धसे रहित ही 64 I अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धेरहेतुः " इस गौतमसूत्र के अनुसार उक्ष जातिका दूषणामासपना या असमीचीन उत्तरपना यों है कि आवरण आदिकोंकी अनुपलन्धि ( पक्ष ) नहीं है ( साध्य ), अनुपलम्भ होनेसे ( हेतु ) इस प्रकार प्रतिवादीके अनुमानमें दिया गया अनुपलम्भ हेतु सद्धेतु नहीं है। जिस कारणसे कि अनुपस्वरूप स्वभावकर के सदा अनुपलब्धि स्वयं उपब्धिका विषय हो रही है, अतः उपलब्धि स्वरूप हो रही आवरण आदिकों को अनुलपिके अभावसे आवरणानुपलब्धिका भाव सिद्ध नहीं
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हो पाता है। और उसकी सिदि नहीं होनेपर विपरीत हो रहे आवरण सद्भावकी सिद्धि हो जाना कैसे मी प्रतिष्ठा स्थानको प्राप्त नहीं कर सकता है। उच्चारण से पहिले शब्दको या उसके आवरण बादिकोंको मैं नियमसे सर्वत्र नहीं देख रहा हूं, इस प्रकारका बालक, गंवार, ली या पशुओंतकको 'याकुलतारहित अनुभव हो रहा है। तिस कारण हर्षके साथ कहना पडता है कि आवरण आदिकोंकी अनुपलब्धिको मी अनुपकन्धिसे बावरण अनुपलब्धिका अभाव सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार यह प्रतिवादीकरके उपासम्म दिया जामा प्रमाबुद्धिसे अन्धित हो रहा कार्य नहीं है।
न विद्यमानस्य शमस्य मागुचारणानुपाब्धिरावरणाचनुपलब्धेरित्युपपत्तेर्यत्कस्यविस्मत्यवस्थानं सदापरणादीनामनुपकब्धेरप्यनुपर्कभात् सैवावरणायनुपलब्धिर्मा भूत् ततः शवस्य मागुच्चारणात् सत एवाश्रवणं तदावरणाधभावसिद्धरभावादापरणादिसद्भाषादिति सम्बन्परहितमेषानुपबम्बेः सर्वदा स्वयमेवानुपलंभस्वभावत्वादुपहन्धिविषयत्वात् । ययेवमुपसम्धिविषयस्तथानुपलब्धिरपि। कथमन्यथास्ति मे घटोपलब्धिर्नास्ति मे पटोपलब्धि रिति संवेदनमुपपद्यते यतवमावरणायनुपसन्धेरनुपर्कभावाभावः सिध्यति तदसिदौ प विपरीवस्यावरणादिसद्भावस्योपपत्तिश्च नास्पदं प्रतिपद्यते ।
उक्त कारिकाओंका विवरण इस प्रकार है कि उच्चारणके प्रथम नहीं विद्यमान हो रहे हो शहका अनुपलम्म है । विधमान हो रहे शब्दका अदर्शन नहीं है। क्योंकि भावरण आदिकी उपउन्धि नहीं हो रही है। इस प्रकार स्वीकार करनेवाले वादीके बिये जिस किसी भी प्रतिवादीकी बोरसे यों प्रत्यवस्थान उठाया जाता है कि उस शदके आवरण, अन्तराज, आदिकोंके अदर्शनका भी बदर्शन होते रहनेसे वह भावरण गादिकोंकी अनुपलब्धि ही नहीं हो । विस कारण उच्चारणसे पहिले विधमान हो रहे ही शहका सुनना बावरणवश नहीं हो सका है। अनादिकालसे अप्रति. हत पछा बा रहा शब्द सर्वदा सर्वत्र विषमान है । उसके बावरण मादिकोंके अभावकी सिद्धिका जमाव हो जानेसे भावरण मादिकोंका सद्भाव सिद्ध हो जाता है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार प्रतिवादीका कपन करना उन्मत्तप्रकापफे समान सम्बन्ध रहित ही है । "नासंगतं प्रयुजीत" नक कि बनुपलब्धि स्वयं अनुपळम्भ स्वभाववाली है, वह अनुपलब्धि उस स्वभावकरके सदा उपलब्धिका विषय हो रही है । जिस प्रकार ज्ञानके द्वारा विषय होती हुई उपलब्धि जांनी माती है, उसी प्रकार अनुपलब्धि भी जानकरके उपलम्भ कर ली जाती है। यदि ऐसा नहीं मान कर दूसरे प्रकारोंसे मानोगे तो मुझको घटकी उपलब्धि है, और मुझे पटकी उपलब्धि नहीं है। अथवा मुझे घटकी उपलब्धि हो रही है। और उस घटकी अनुपलब्धि तो नहीं हो रही है। इस प्रकारका बाल, पद्धतकमें प्रसिद्ध हो रहा सम्बेदन भला कैसे युक्तिपूर्ण सिद्ध हो सकेगा। जिससे कि पह प्रतिवादीका कथन शोमाको प्राप्त हो सके कि " इस प्रकार भावरण आदिकोंकी अनुपलब्धिके
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अनुपलम्भसे आवरण आदिकोका अभाव सिद्ध नहीं हो पाता है। और उसकी असिद्धि होनेपर आवरणामावके विपरीत हो रहे आवरण आदिके सद्भावकी सिद्धि प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सके "अथवा सिद्धान्ती कहते हैं कि उस अभावकी सिद्धि नहीं होनेपर उसके विपरीत आवरण बादिके सद्भावकी सिद्धि कैसे भी योग्य स्थान को नहीं पा सकती है।
___ यतश्च प्रागुच्चारणाच्छदस्यावरणादीनि सोहं नैवोपलभे, तदनुपलब्धिमुपलभे सर्वत्रेत्याबालमनाकुलं संवेदनमस्ति । तस्मादावरणादीनामदृष्टेन सिध्यत्यभाव इत्ययमुपालंभो न प्रमाणान्वितः " सर्वत्रोपलंभानुपलंभव्यवस्थित्यभावप्रसंगात् । ततोनुपलब्धेरपि समयाऽ नुपध्या प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिसमो दक्षणाभास एवेति प्रतिपत्तव्यं ।।
दूसरी बात यह भी है, जिस कारणसे कि उच्चारणसे पहिले शब्दके आवरण आदिकोंको वह मैं नहीं प्रत्यक्ष देख रहा हूं और उन आवरण आदिकोंकी अनुपलब्धिका प्रत्यक्ष उपलम्भ में कर रहा हूं, इस प्रकार सभी स्थानोंपर बालक, अन्धे, या पक्षियों,तकको आकुळतारहित संवेदन हो रहा है । तिस कारणसे प्रतिवादी द्वारा दिया गया आवरण आदिकोंकी अदृष्टिके भी अदर्शन होनेसे शब्दके आवरणों का अभाव सिद्ध नहीं हो पाता है । इस प्रकार यह उलाहना प्रमाणज्ञानसे युक्त नहीं है। यों पोंगापनसे उलाहना देनेपर तो सभी स्थलोंपर प्रत्यक्ष हो रही उपलम्म और उपलम्मकी व्यवस्थाके अभावका प्रसंग हो जायगा । तिस कारणसे तो आवरणकी अनुपलब्धिकी अनुपलब्धिको तिसरी अनुपलब्धिसे उलाहना देकर आवरणोंका अभाव भी साधा जा सकता है। तथा तुझ प्रतिबादीका साधन भी दोषोंकी अनुपलब्धिका अनुपलम्भ होनेसे सदोष ही बन बैठेगा । किन्तु ऐसे भ्रम उत्पादक उपायोंका अवलम्ब हम नहीं लेना चाहते हैं। भाईसाहब ! भाव अभावोंका,उपलम्म करनेवाले ज्ञान विशेषोंका मनसे अन्तरंग आत्मामें संवेदन हो रहा है। उच्चारणके पहिले शदके बावरण मुझको नहीं दीख रहे हैं । यह अनुपलब्धि भी स्वसम्वेध है। अतः अनुपकन्धिसमा करके प्रत्यवस्थान देना प्रतिवादीका अनुपलब्धिसम नामक दूषणामास ही है। यह दृढताके साथ समझकर सबको मान लेना चाहिये। . का पुनरनित्यसमा जातिरित्याह ।
फिर इसके पीछे कही गयी बाईसवी अनित्यसमा जातिका लक्षण उदाहरणसहित क्या है ! ऐसी जिज्ञासा होने पर न्यायसूत्र और न्यायभाष्य के अनुसार श्रीविद्यानन्द आचार्य समाधानको कहते हैं।
कृतकत्वादिना साम्यं घटेन यदि साधयेत् । शद्वस्यानित्यतां सर्व वस्त्वनित्यं तदा न किम् ॥ ४२६ ॥
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अनित्येन घटेनास्य साधयं गमयेत्स्वयं । सत्त्वेन साम्यमात्रस्य विशेषाप्रतिवेदनात् ॥ ४२७ ॥ इत्यनित्येन या नाम प्रत्यवस्था विधीयते । सात्रानित्यसमा जातिर्विज्ञेया न्यायबाधनात् ॥ ४२८ ॥
प्रतिवादी कहता है कि शद्वका घटके साथ कृतकत्व, उत्पत्तिमत्त्व, प्रयत्नजन्यस्व मादि करके हो रहा साधर्म्य यदि वादीके यहां शद्बके भनित्यपनको साध देवेगा तब तो सम्पूर्ण वस्तुएँ अनित्य क्यों नहीं हो जावें। क्योंकि अनित्य हो रहे घटके साथ सत्त्व करके केवल समता हो जानेका साधर्म्य तो स्वयं सबका समझ लिया जावेगा । अतः उस सम्पूर्ण वस्तुका सत्पने करके हो रहा साधर्म्य सबका अनित्यपना समझा देवे । कोई अन्तर डालनेवाली विशेषताका निवेदन तो नहीं कर दिया गया है। इस प्रकार सबके अनित्यपनके प्रसंगसे जो प्रत्यवस्थान किया जाता है, वह यहां अनित्यसमा है। लगे हाथ सिद्धान्ती कहें देते हैं कि यह अनित्यसमा जातिस्वरूप होती हुई प्रतिवादीका असत् उत्तर समझना चाहिये । क्योंकि न्यायसिद्धान्त करके उक्त कथनमें बाधा वा जाती है।
अनित्यः शरः कृतकत्वाद्घटवदिति प्रयुक्त साधने यदा कश्चित्मत्यवतिष्ठते यदि शदस्य घटेन साधाव कृतकत्वादिना कृत्वा साधयेदनित्यत्वं तदा सर्व वस्तु अनित्यं किं न गम्येत् ? सत्वेन कृत्वा साधर्म्य, अनित्येन घटेन साधर्म्यमात्रस्य विशेषामवेदादिति । तदेवमनित्यसमा जासिर्विज्ञेया न्यायेन वाध्यमानत्वात् । तदुक्तं । " सापातुल्यधर्मोपपत्तेः सर्वानित्यत्वप्रसंगादनित्यसमा ॥ इति ।
शब्द अनित्य है ( प्रतिज्ञा), कृतकत्व होनेसे ( हेतु ) घटके समान ( दृष्टान्त ) इस प्रकार अनुमानमें समीचीन हेतुका प्रयोग कर चुकनेपर जब कोई प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि शद्वका घटके साथ कृतकत्व आदि करके साधर्म्य हो आनेसे यदि शब्दका अनित्यपना साधा जावेगा, तब तो यों साधर्म्यकर सभी वस्तुएँ अनित्य क्यों नहीं समझा दी जायेंगी ! क्योंकि अनित्य घटके साथ सत्त्व द्वारा साधर्म्यको मुख्य करके केवळ साधर्म्य सर्वत्र वर्त रहा है। घटके मत्वमें या अन्य वस्तुबोंके सत्वमें कोई विशेषताका प्रतिमास तो नहीं हो रहा है। फिर सबके अनित्यपनको साधनेमें विलम्ब क्यों किया जाय ! यो प्रतिवादीके कह चुकनेपर सिद्धान्ती कहते हैं कि यह अनित्यसमा तो दूषणामास स्वरूप समझनी चाहिये । क्योंकि यह न्यायसिद्धान्तकरके बाधी जा रही है । उसी बाधित हो रही अनित्यसमाका लक्षण न्यायदर्शन में गौतमऋषिने यों कह दिया है कि साधर्म्यमात्रसे यानी घटदृष्टान्तके साधर्म्य हो रहे कृतकत्वसे तुल्यधर्म साहितपना बन जानेसे यदि शब्दमें अनित्यपन।
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साध लिया जाता है, तब तो घटके सत्व, प्रमेयस्व, आदि रूप साधर्म्य सम्भवनेसे सब पदार्थोके भनित्यपनका प्रसंग हो जायगा। इस ढंगसे प्रत्यवस्थान उठाना अनित्यसम नामका प्रतिषेध है। सबको अनित्यपना हो जानेसे वादीके हेतुमें व्यतिरेक घटित नहीं होगा, यह प्रतिवादीका अभिप्राय है। दृष्टान्तके जिस किसी भी साधर्म्य करके सम्पूर्ण वस्तुओंके साक्ष्य सहितपनका मापादन करमा अनित्यसमा है। कोई विद्वान् वैध→से भी तुल्यधर्मकी उपपत्ति हो जानेसे अनित्यसम आतिका उठाया जाना स्वीकार करते हैं। जैसे कि बाकाशके वैधर्म्य हो रहे कृतकपनेसे यदि शब्द बनित्य है, तो तिसी प्रकार आकाशके वैधर्म्य आकाशभिन्नस्व, शद्वसमवायिकारणविककत्व, आदिसे सर्व पदार्षीका अनित्यपना प्रसक्त हो जाओ । यो माननेपर लक्षण सूत्रमें कहे गये साधात् के स्थानपर " यस्किचिद् धर्मेण " जिस किसी भी धर्म करके ऐसा कह देना चाहिये यों उपसंख्यान कर अनु. पलब्धिसमाका पेट बढ़ाना चाहते हैं । आस्तां तावदेतत् ।
एतच सर्वमसमंजसमित्याह।
प्रतिवादीको बनित्यसमा जाति रूप यह सब कथन नीतिमार्गसे बहिमूर्त है। इस बातको मीषिधानन्द भाचार्य वार्तिकों द्वारा कहते हैं।
निषेधस्य तथोक्तस्यासिद्धिप्राः समत्वतः । पक्षणासिद्धिनासेनेत्यशेषमसमंजसं ॥ ४२९ ॥
" साधादसिद्धेः प्रतिपेयासिद्धिः प्रतिषेधासाधाच " असिद्धिको प्राप्त हो रहे प्रतिषेण्य पक्षक साधर्म्यसे प्रतिवादी द्वारा तिस प्रकार कहे गये निषेधकी भी असिदि होमा समानरूपसे प्राप्त हो जाता है। अर्थात्-यदि जिस किसी भी ऐरे मेरे साधर्म्यसे सबको साम्यसहितपनका थापादन करनेवाले तुमको साधर्म्यका असाधकपना अभीष्ट है, तब तो तुम्हारे द्वारा किये गये शब्द संबन्धी जानित्यपमके प्रतिषेधकी भी बसिद्धि हो जायगी। क्योंकि उस प्रतिषेधकी भी वादीके प्रतिषेध्यपक्षके साधर्म्य करके प्रवृत्ति हो रही है । तुम प्रतिवादी करके यही तो साधा जाता है कि कृतकस्वहेतु (पक्ष ) शब्दमें बनित्यत्वका साधक नहीं है ( साध्य ) , घट दृष्टान्तके साधर्म्यरूप होनेसे (हेतु) बरख, प्रमेयत्व भादिके समान ( अन्षय दृष्टान्त ) इस प्रकार प्रतिषेध कर रहे अनुमानमें दिया गया तुम्हारा हेतु जैसे तुम्हारे प्रतिषेध्य हो रहे मेरे हेतु कृतकपन और सबके साथ साधर्म्यरूप है, तिसी प्रकार यह भी कहा गया हेतु भी हेतुपनसे साधर्म्य रखता हुआ साधक नहीं हो सकेगा। ऐसी दशामें तुम्हारा प्रतिषेध करना ही विपरीत ( उलट ) पडा । पीछे विमुख ( उल्टा मुख ) कर दी गयी तोपके समान यह प्रतिवादीका प्रयास स्वपक्षघातक हुमा । अतः प्रतिवादीका बनिस्य. सम जाति उठाना न्याय उचित नहीं है।
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तत्वार्थचन्तामणिः
पक्षस्य हि निषेध्यस्य प्रतिपक्षोभिलष्यते। निषेधो धीधनैरत्र तस्यैव विनिवर्तकः ॥ ४३०॥ प्रतिज्ञानादियोगस्तु तयोः साधर्म्यमिष्यते । सर्वत्रासंभवात्तेन विना पक्षविपक्षयोः ॥ ४३१ ॥ ततोसिद्धिर्यथा पक्षे विपक्षेपि तथास्तु सा।
नो चेदनित्यता शद्वे घटवन्नाखिलार्थगा ॥ १३२॥ न्यायभाष्यकार कहते हैं कि प्रतिवादी द्वारा निषेध करने योग्य वादीके पक्षका निषेध करमा तो यहां बुद्धिरूप धनको रखनेवाळे विद्वानों करके प्रतिपक्ष माना जाता है, जो कि उस प्रतिवादीके पक्ष हो की विशेषरूपसे निवृत्ति करनेवाला चाहा गया । उन दोनों पक्ष प्रतिपक्षोंका साधर्म्य तो प्रतिक्षा, हेतु, मादि अवयवोंका योग हो जाना है। यानी वादीके अनित्यत्व सापक अनुमानमें प्रतिज्ञा, हेतु बादिक विधमान है । और प्रतिवादीके इष्ट प्रतिपक्षमें भी प्रतिज्ञा बादिक अवयव वर्त रहे माने गये हैं। अनुमानके अवयव प्रतिज्ञा, हेतु बादिके उस सम्बन्ध विना सभी स्थकोंपर पक्ष
और विपक्ष के हो जानेका असम्भव है । तिस कारण जैसे प्रतिवादीके विचार अनुसार वादीके प्रतिशादियुक्त पक्षमें असिद्धि हो रही है, उसी प्रकार प्रतिवादीके प्रतिवादियुक्त जमीष्ट विपक्ष भी वह असिद्धि हो जाओ। क्योंकि प्रतिषेष्यके साधर्म्य हो रहे प्रतिवादियुक्तताका सात प्रतिवादीके प्रतिषेधमें भी समान रूपसे पाया आता है। यदि तुम प्रतिवादी यों अपने इएकी असिदि होनेको नहीं मानोगे यामी पक्ष और प्रतिपक्षका प्रतिज्ञादियुक्ततारूप साधर्म्य होते हुये भी वादीके पक्षकी ही बसिद्धि मानी जायगी, मुझ प्रतिवादीके इष्ट प्रतिपक्षकी असिद्धि नहीं हो सकेगी। यों माननेपर तो हम सिदान्ती कहते हैं कि तब तो उसी प्रकार घटके साथ साधर्म्यको प्राप्त हो रहे कृतकस्व मादि हेतुबोंसे शब्दका अनित्यपना हो जामो, किन्तु तिस सत्व करके कोरा साधर्म्य हो जानेसे सम्पूर्ण अर्थोंमें प्राप्त होनेवाली अनित्यता तो नहीं होगी । यह न्यायमार्ग बहुत अच्छा प्रतीत हो रहा है। क्या विशेष व्यक्तियोंमें देखे गये मनुष्यपनके साधर्म्यसे सभी दीन, रोगी, मूर्ख,दरिद्र, पुरुषों में महत्ता, निरोगीपन, विद्वत्ता, धनाढ्यता धर दी जाती है ! अतः यह अनित्यसमा जाति दूषणामास है। प्रतीतिके अनुसार वस्तुव्यवस्था मानी जाती है । तभी प्रामाणिक पुरुषों में बैठनेका अधिकार मिलता है । मिथ्यादूषण उठा देनेसे प्रभावना, पूजा, ख्याति, लाम और जय नहीं प्राप्त हो सकते है।
दृष्टांतेपि च यो धर्मः साध्यसाधनभावतः । प्रज्ञायते स एवात्र हेतुरुक्तोर्थसाधनः ॥ ४३३ ॥
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तस्य केनचिदर्थेन समानत्वात्सधर्मता । केनचित्तु विशेषात्स्याद्वैधर्म्यमिति निश्चयः ॥ ४३४ ॥ हेतुर्विशिष्टसाधयं न तु साधर्म्यमात्रकं । साध्यसाधनसामर्थ्य भागयं न च सर्वगः ॥ ४३५॥ सत्त्वेन च सधर्मत्वात् सर्वस्यानित्यतेरणे। दोषः पूर्वोदितो वाच्यः साविशेषसमाश्रयः ॥ ४३६ ॥
" दृष्टान्ते च साध्यसाधनभावेन प्रज्ञातस्य धर्मस्य हेतुत्वात्तस्य चोभयथाभावान्नाविशेषः" इस गौतम सूत्रका भाष्य यों है कि दृष्टान्तमें भी जो धर्म साध्य साधकपने करके भळे प्रकार नाना जा रहा है, वही धर्म यहां हेतुपने करके साध्यरूप अर्थको साधनेवाला हेतु कहा गया है । और वह हेतु तो साधर्म्य, वैधH, इन दोनों प्रकारसे अपने हेतुपनकी रक्षा कर सकता है। देखिये, उस हेतुकी दृष्टान्तके किसी अर्थके साथ समान हो जानेसे साधर्म्य बन जाता है । और दृष्टान्तके किसी किसी अर्थ (धर्म) के साथ विशेषता हो जानेसे तो विधर्मापन बन जाता है । इस प्रकार अनुमानको माननेवाळे विद्वानोंके यहां निश्चय हो रहा है। इस कारण विशिष्ट रूपसे हुआ साधर्म्य ही हेतुकी ज्ञापकताका प्राण है । केवळ चाहे जिस सामान्य धर्मके साथ हो रहा विशेषरहित साधर्म्य तो हेतु. की सामर्थ्य नहीं है । जैसे कि केवळ धातुपना होनेसे पीतल, तांबा, ये सुवर्ण नहीं कहे जा सकते हैं, किन्तु विशेष भारीपन, कोमलता, अग्निप्ते तपानेपर अपने वर्णकी परावृत्ति नहीं कर अधिक मन्दर वर्णवाला हो जाना, औषधियोंका निमित्त मिलाकर भस्म कर देनेसे जीवन उपयोगी तत्वोंका प्रकट हो जाना आदिक गुण ही सुवर्णकी आत्मभूत सामर्थ्य है । वैसे ही साध्यको साधनेकी साधर्म्य विशेषरूप सामर्थ्यको धारनेवाला यह हेतु माना गया है । ऐसा हेतुसस्वके साधर्म्य मात्रसे सम्पूर्ण पदार्थोमे प्राप्त हो रहा नहीं है । अतः सत्त्वके साथ सधर्मापनसे सबके अनित्यपनका कथन करनेमें सामर्थ्यवान् नहीं है । दूसरी बात यह भी है कि इस अनित्यसमा जातिय पहिले कही गयी अविशेषसमा जातिके पाश्रय ( में ) कहे जा चुके सभी दोष यहां कथन करने योग्य हैं। भावार्थ-अविशेषसमा जातिमें दृष्टान्त और पक्षके एक धर्म हो रहे प्रयत्नजन्यत्वकी उपपत्तिसे अनित्यपना साधने. पर सम्पूर्ण वस्तुओंके एकधर्म हो रही सत्ताकी उपपत्तिसे सबके अविशेषपनका प्रसंग दिया गया है। उसी ढंगका अनित्यसमामें प्रतिषेध उठाया गया है ! अन्तर इतना ही है कि वहां सबका विशेषरहित हो जाना ही आपादन किया गया है। सर्व पदार्थोके माध्यसहितपनका प्रसंग नहीं दिया गया है। और यहां अनित्यसमामें सबके अनित्यपन साध्यसे सहित हो जानेका प्रसंग उठाया गया है। फिर भी अविशेषसमामें सम्भव रहे दोषोंका सद्भाव अनित्यसमामें भी पाया जाता है।
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तत्त्वाचिन्तामणिः
तेन प्रकारेणोक्तो यो निषेधस्तस्याप्यसिद्धिप्रसक्तेरसमंजसमशेष स्यादिस्वनिस्य. नित्यसमवादिनः कुत इति चेत्, पक्षणासिद्धि प्राप्तेन समानत्वात्प्रतिषेधस्येति । निषेध्यो पत्र पक्षः प्रतिषेधस्तस्य प्रतिषेधका कथ्यते धीमद्भिः प्रतिपक्ष इति प्रसिद्धि योश्च पक्ष प्रतिपक्षयोः साधम्र्य प्रतिज्ञादिभिर्योग इष्यते तेन विना तयोः सर्वत्रासंभवात् । ततः मति ज्ञादियोगाद्यथा पक्षस्यासिदिस्तथा प्रतिपक्षस्याप्यस्तु । अथ सस्यपि साधम्ये पक्षप्रतिपक्षयोः पक्षस्यैवासिद्धिर्न प्रतिपक्षस्येति मन्यते तर्हि घटेन साधर्म्यात्कृतकत्वादेः समस्यानित्यतास्तु सकलार्थागत्वनित्यता तेन साधर्म्यमात्रात् मा भूदिति समंजसं ।।
उक्त आठ कारिकाओंका तात्पर्य यों है । प्रतिवादी कहता है कि न्यायसिद्धान्लीने जो यह कहा था कि यह अनित्यसमा जाति दूषणाभास है । क्योंकि प्रतिवादी करके तिस प्रकारसे जो प्रतिषेध कहा गया है। प्रतिवादी द्वारा पकडे गये कुमार्गके अनुसार तो उस प्रतिषेधकी भी असिद्धि हो आनेका प्रसंग आता है। अतः यह सब प्रतिवादीकी चेष्टा करना व तिपूर्ण कही जावेगी । मैं कहता हूं कि यह अनित्यसमा जातिको कहनेवाले मेरा वक्तव्य भला अनीतिपूर्ण कैसे है ! बतानों । यो प्रतिवादीके कह चुकनेपर न्यायसिद्धान्ती उत्तर कहते हैं कि प्रतिवादी द्वारा किया गया प्रतिषेध तो बसिद्धिको प्राप्त हो रहे पक्षके समान है। इस कारण पक्षकी असिद्धि के समान प्रतिषेधको भी बसिद्धि हो जाती है । जब कि यहां तुम्हारे विचार अनुसार निषेध करने योग्य प्रतिषेष्य हो रहा अनित्यपन तो बादीका इष्ट पक्ष माना गया है । और बुद्धिमानों करके उसका प्रतिषेध करनेवाला निषेध तो प्रतिवादीका अभीष्ट प्रतिपक्ष कहा जाता है । बुद्धिशाली विद्यामोंके यहा इस प्रकार प्रसिद्धि हो रही है। और उन पक्ष, प्रतिपक्षोंका सधर्मपमा तो प्रतिक्षा, हेत, मादिक साथ योग होना इष्ट किया गया है। उस प्रतिज्ञा आदिके सम्बन्ध बिना सभी स्थलोंपर या सभी विचारशीलोंके यहां उन पक्ष प्रतिपक्षोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। तिस कारण जैसे प्रतिज्ञादिके योगसे वादीके पक्षकी बसिद्धि है, उसी प्रकार प्रतिवादीके अभिमत प्रतिपक्षको भी असिद्धि हो जावेगी। अब यदि तुम प्रतिवादी यो मान लो कि योडासा साधर्म्य होते हुये भी पक्ष,प्रतिपक्षोंमें से वादोके पक्षकी ही असिद्धि होगी, हमारे प्रतिपक्षकी तो असिद्धि नहीं हो सकती है। सिद्धान्ती कहते हैं कि तब तो इसी प्रकार घटके साथ साधर्म्य हो रहे कृतकपन, प्रयत्मजन्यत्व, आदितु. ओंसे शद्धकी अनित्यता तो हो जाओ और सम्पूर्ण पदार्थोंमें रहनेवाले उस सस्व धर्मके केवल साधर्म्यसे सकल भोंमें प्रसंग प्राप्त हो जानेवाली अनित्यता तो मत होमो, यह कथन नीतिपूर्ण जच रहा है।
अपि च, दृष्टान्ते घटादौ यो धर्मः साध्यसाधनभावेन प्रज्ञायते कृतकत्वादिः स एवात्र सिदिहेतुः साध्यसाधनोरभिहितस्तस्य च केनचिदर्थेन सपक्षेण समामस्वारसापये 68
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तत्त्वार्थ कोकवार्तिके
केनचिद्विपक्षणासमानत्वाद्वैधय॑मिति निश्चयो न्यायविदा । ततो विशिष्टसाधर्म्यमेव हेतुः साध्यसाधनसामर्थ्यभाक् । स च न सर्वार्थेष्वनित्यत्वे साध्ये संभवतीति न सर्वगतः । सर्वे भावाः क्षणिकाः सत्त्वादिति सम्भवत्येवेति चेत् न, अन्वयासंभवाद्यतिरेकानिश्चयात् । किं च, न सत्त्वेन साधर्म्यात्सर्वस्य पदार्थस्यानित्यत्वसाधने सर्वो अविशेषसमाश्रयो दोषः पूर्वोदितो वाच्यः । सर्वस्यानित्यत्वं साधयन्नेव शद्रस्यानित्यत्वं प्रतिषेधतीति कथं स्वस्थ इत्यादि । तन्नेयमनित्यसमा जातिरविशेषसमातो भिद्यमानापि कथंचिदुपपत्तिमतीति ।
एक बात यह भी है कि घट, विद्युत्, आदिक दृष्टान्तोंमें जो कृतकपन आदिक धर्म साध्यके साधकपन करके भले प्रकार जाना जाता है, वही धर्म तो यहां पक्षों साध्यकी साधन द्वारा सिद्धि हो जानेका कारण कहा गया है। उसका किसी किसी सपक्ष अर्थके साथ समानपना होनेसे साधर्म्य हो रहा है । और किसी किसी विपक्ष हो रहे अर्थके साथ असमानपना हो जानेसे वैधर्म्य हो रहा है । यह न्यायवेत्ता विद्वानोंका निश्चय है । तिस कारणसे विशिष्ट अर्थके साथ हो रहा सधर्मापन ही हेतुकी शक्ति है । और साध्य के साधनेकी उस सामर्थ्यको धारनेवाला समीचीन हेतु होता है । वह समर्थ हेतु सम्पूर्ण अर्थोंमें सत्ता द्वारा अनित्यपनको साध्य करनेपर नहीं सम्भवता है । इस कारण सम्पूर्ण पदार्थोंमें ज्ञापक हेतु प्राप्त नहीं हो सका है । यदि कोई बो द्वमत अनुसार प्रतिवादीको ओरसे यों कहे कि सम्पूर्ण भाव क्षणिक है । सत्पना होने से इस अनुमानमें क्षणस्थितिको साधनेके लिये सम्पूर्ण पदार्थों में सत्त्व हेतु सम्भव रहा ही है। यों कहनेपर तो हम न्यायसिद्धान्ती कहेगें कि तुम उक्त कटाक्षको नहीं कर सकते हो । क्योंकि सबको पक्ष बना लेनेपर यानी सम्पूर्ण पदार्थोका एक ही क्षण ठहरना जब विवाद प्रस्त हो रहा है,तो पक्षके भीतर या बाहर साध्य के रहनेपर हेतुका रहना स्वरूप अन्वय नहीं बन सका है । अन्वयका असम्भव हो जानेसे व्यतिरेकका भी निश्चय नहीं हो सका है। दूसरी बात यह है कि सत्व करके साधर्म्य हो जानेसे सम्पूर्ण पदार्थोके अनित्यपनका प्रतिवादी द्वारा साधन करनेपर अविशेषसमामें होनेवाले सभी पूर्वोक्त दोष अनित्यसमामें कह देने चाहिये । थोडा विचारो तो सही कि सम्पूर्ण पदार्थोके अनित्यपनको साध रहा ही यह प्रतिवादी पुनः शब्दके अनिस्यपनका प्रतिषेध कर रहा है। ऐसी दशामें यह स्वस्थ ( होशमें ) कैसे कहा जा सकता है ! यों तो शब्दका अनित्यपन स्वयं प्रतिज्ञात हुआ जाता है । अतः व्याघात दोष हुआ । व्यभिचार आदिक दोष भी इसमें लागू हो जाते हैं । तिस कारण यह अनित्यसमा जाति अविशेषसमा जातिसे कथंचिद भेदको प्राप्त हो रही संती भी कैसे भी उपपत्तिको प्राप्त नहीं हो सकी । इस कारण यह प्रतिवादीका प्रतिषेध दूषणामास होता हुआ असमीचीन उत्तर है।
अनित्यः शब्द इत्युक्ते नित्यत्वप्रत्यवस्थितिः । जातिनित्यसमा वस्तुरज्ञानात्संप्रवर्तते ॥ ४३७ ॥
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नैयायिकोंके सिद्धान्त अनुसार नित्यसमा जातिका निरूपण किया जाता है कि कृतक होनेसे शब्द अनित्य है । इस प्रकार वादी द्वारा प्रतिज्ञावाक्यके कह चुकनेपर यदि प्रतिवादी शब्दके नित्यपन का प्रत्यवस्थान उठाता है, वह प्रतिवादीका असत् उत्तर नित्यसमा जाति है। प्रतिवादी वक्ताके अज्ञानसे यह नित्यसमा जाति सुलभतापूर्वक प्रवर्तजाती है । " नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्ते. नित्यसमः " यह गौतमसूत्र है।
शब्दाश्रयमनित्यत्वं नित्यं वा नित्यमेव वा । नित्ये शब्दोपि नित्यः स्याचदाधारोऽन्यथा क तत् ॥४३८॥ तत्रानित्येप्ययं दोषः स्यादनित्यत्वविच्युतौ । नित्यं शब्दस्य सद्भावादित्येतद्धि न संगतम् ॥ ४३९ ॥ अनित्यत्वप्रतिज्ञाने तनिषेधविरोधतः। स्वयं तदप्रतिज्ञानेप्येष तस्य निराश्रयः ॥ ४४०॥
नित्यसमा जातिका उदाहरण यों है कि शद्धको अनित्य सिद्ध करनेवाले षादीके ऊपर प्रतिवादी प्रश्न उठाता है कि शब्दके आधारपर ठहरनेवाला अनित्यपना धर्म क्या नित्य है ! अथवा क्या अनित्य है ? अर्थात्-शवस्वरूप पक्षमें अनित्यपन साध्य क्या सदा अवस्थायी है ! अथवा क्या शब्दमें अनित्यपना सर्वदा नहीं ठहरकर कभी कभी ठहरता है ! बताओ। प्रथमपक्षके अनुसार यदि शद्वमें अनित्यपन धर्मको सदा तीनों कालतक ठहरा हुआ मानोगे तब तो उस भनित्यपनका अधिकरण हो रहा शब्द भी नित्य हो जायगा । अपने धर्मको तीनों कालतक नित्य ठहरानेवाला धर्मी नित्य ही होना चाहिये । अन्यथा पानी शब्दको कुछ देरतक ही ठहरनेवाला यदि माना जायगा तो सर्वदा ठहस्नेवाग भनित्यपन धर्म भला कहां किसके आधार पर स्थित रह सकेगा ! शब्दको नित्य माननेपर ही अनित्यपन धर्म वहां सदा ठहर सकता है। अन्यथा नहीं । तथा उन दो विकल्पोंमेंसे द्वितीय विकल्प अनुसार शब्दमें रहनेवाले अनित्यपन धर्मको यदि कभी कभी ठहरनेवाला मानोगे तो उस अनित्यषन धर्मके सर्वदा नहीं ठहरकर कदाचित स्थित रहनेवाले अनित्य पक्षमें भी यही दोष शदके नित्य हो जानेका आ पडेगा। क्योंकि जब शमें रहनेवाला अनित्यपन धर्म अनित्य है, तो अनित्यपन धर्मका नाश हो जानेपर शब्दके नित्यपनका सद्भाव हो जानेसे शद्ध नित्य हुआ जाता है । यह नियम है कि जिस वस्तुका अनित्यपन नष्ट हो जाता है, वह वस्तु पिना रोक टोकके नित्य बनी बनाई है । दोनों हाथ ठड्ड हैं। इस न्यायसे दोनों विकल्प अनुसार शब्दका नित्यपना सिद्ध हो जाता है। यह जातिभाषी प्रतिवादीका अभि.
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तत्वार्थ लोक वार्तिके
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निवेश है । सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार यह प्रतिवादीका कुसित अभिमानपूर्वक भाषण पूर्व अपर संगतिको रखनेवाला नहीं है । प्रतिवादीका असंगत कथन समीचीन उत्तर नहीं है । इसकी परीक्षा यों करनी चाहिये कि प्रतिवादीने शुद्धका अभियान तो स्वीकार कर लिया दीखता है। तभी तो वह अनित्यपन नित्य है ? अथवा क्या अनित्य है ! यह विकल्प उठाया गया है। वादी के मन्तब्य अनुसार जब प्रतिवादी शके अतिकी प्रतिज्ञाको मान चुका है, तो शमें उस अनित्यपनके निषेध करनेका बिरोध पडता है । कोई भी विचारशील पण्डित शद्व में अभिव्यपनको स्वीकार कर पुनः उस अनित्यपनका विषेष नहीं कर सकता है । अतः प्रतिवादीका कथन व्याघात दोषवाका होता हुआ पूर्वापर संगति शून्य है । हमारे प्रकरण प्राप्त शब्द के अनिस्यपनकी सिद्धिमें यह कथन प्रतिबन्धक नहीं है । उत्पन्न हो चुके पदार्थका ध्वंस हो जाना ही अनित्यपन कहा जाता है । उसको अंगीकार कर लेनेपर उसका निषेध नहीं कर सकते हो। यदि तुम प्रतिवादी उन शके erfotoपनको स्वयं स्वीकार नहीं करोगे तो भी यह उस व्यनित्यपनका निषेध करना आश्रय रहित हो जायगा अर्थात्-शद अनित्यवनकी प्रतिज्ञाको नहीं माननेपर ये विकल्प किसके आधारपर उठाये जा सकते हैं कि शहमें रहनेवाला अनित्ययन क्या नित्य है ? अथवा क्या अनित्य है ! an: विकerint उत्थान नहीं होने प्रतिवादी द्वारा शद्व के अभिव्यपनका निषेध करना अवलम्बविकल हो जाता है । प्रतिषेध करनेके लिये षष्ठी विभक्तिवाले प्रतियोगीकी आवश्यकता होती है । " संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते कचित् " अखंडपद द्वारा कहे गये घटके बिना घटका प्रतिबेध नहीं किया जा सकता है । " प्रतिषेध्ये नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्रोपपत्तेः प्रतिषेधाभावः " इस सूत्र द्वारा गौतमऋषिने उक्त अभिप्राय प्रदर्शित किया है ।
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सर्वदामिनित्यत्वमिति प्रश्नोप्यसंभवी । प्रादुर्भूतस्य भावस्य निरोवश्च तदिष्यते ॥ ४४९ ॥ नाश्रयाश्रयिभावोपि व्याघातादनयोः सदा । नित्यानित्यत्वयोरेक वस्तुनीष्टौ विरोधः ॥ ४४२ ॥ ततो नानित्यता शनित्यत्वप्रत्यवस्थितेः ।
परैः शक्या निराकर्तुं वाचालैर्जयलोलुपैः ॥ ४४३ ॥
म्यायमष्यकार कहते हैं जब कि प्रकटरूपसे उत्पन्न हो चुके पदार्थका ध्वंस वह श्रमित्यपन माना जाता है, ऐसी दशा में क्या शब्दका अनित्यपना सर्वदा स्थित
हो जाना हाँ
रहता है ?
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Inorammmmm
अथवा क्या कुछ देरतक ही अवस्थित रहता है ! इस प्रकार प्रश्न उठाना मी असम्भव दोष युक्त है । अर्थात्-स्वकीय कारणक्टसे पदार्थ जब उत्पन्न हो जायगा, तमीसे अबस्थान कालतक उसके धर्म उस पदार्थमें प्रतिष्ठित रहते हैं। किन्तु जो वस्तु अनादिसे अनन्तकालतक स्थित रहती है, उसीके कुछ धर्म मळे ही सर्वदा अवस्थित रहें । उपादान कारण और निमित्तकारणोंसे उत्पन हो रहे शब्दमें धौके सर्वकाढतक ठहरनेका प्रश्न उठाना ही असम्भव है। दूसरी बात यह भी है कि जातिवादीके यहां इस प्रकार उनका आधार आधेयभाव भी नहीं बन सकता है। क्योंकि नित्य पदार्थमें भनित्यपमेका ब्याघात है। और अनित्यमें नित्यपनका व्याघात है। तीसरी बात यह भी है कि एक ही वस्तुमें सर्वदा नित्यपन और अनित्यपन धर्मोको अमीष्ट करनेपर न्यायसिद्धान्त अनुसार विरोध दोष लग जाता है। एक धीमें नित्यपन और अनित्यपन दो धर्मोके रहनेका विरोध है। अतः तुम जातिवादीने जो कहा था कि अनित्यपन धर्मका नित्य सद्भाव बमा रहनेसे शब्द नित्य ही है । वह तुम्हारा कथन दूषणामाटरूप है । तिस कारणसे निर्णय किया जाता है कि व्यर्थ ही जीतने की अत्यधिक तृष्णा रखनेवाले अवाच्य वाचाळ दूसरे जातिवादियों करके शब्दमें प्रतिष्ठित हो रही अनित्यताका नित्यपनके प्रत्यवस्थान उठानेसे निराकरण नहीं किया जा सकता है। "न हि भैषज्यमातरेच्छानुवर्ति " । असंगत, बिरुद्ध, व्याघातयुक्त और असदुत्तर ऐसे अवाच्य वचनोंकी सडी लगा देनेसे किसीको जय प्राप्त नहीं हो सकता है। अतः प्रतिवादीद्वारा नित्यसमारूप प्रतिषेध उठाना असदुत्तररूप जाति है । प्रतिवादीने शब्दके अनित्यत्वमें सर्वदा स्थित रहने और सदा नहीं स्थिर रहने इन दोनों पक्षोंमें जैसे शब्दके नित्यपनका आपादन किया है, उसी प्रकार दोनों पक्षों में शब्दका अनित्यपम मी साधा जा सकता है। बात यह है कि सर्वकाल इसका अर्थ जबसे शब्द उत्पन्न होकर जितमी देरतक ठहरेगा, उतना समय है, अतः सर्वदा शब्दमें अनित्यपन धर्म रखने पर भी शब्दका अनित्यपन अक्षुण्ण रहता है, और कदाचित उत्पन्न हो रहे शब्दमें कभी कभी अनित्यत्वके ठहर जानेसे भी अनित्यपन धर्म अविकल बन जाता है । धीके अनित्य होनेपर धर्मों में अनित्यपना सुलभ सिद्ध है। अतः नित्यसम जातिवादीका पराजय अवश्यम्भावी है । असदुत्तरोसे केवल मूर्खता प्रकट होती है।
अथ कार्यसमा जातिरभिधीयते।
नित्यसमा जातिके अनन्तर न्यायसिद्धान्त अनुसार अब चौबीसवीं कार्यसमा जातिका सदाहरणसहित लक्षण कहा जाता है।
प्रयत्नानेककार्यत्वाजातिः कार्यसमोदिता । नृप्रयत्नोद्भवत्वेन शद्वानित्यत्वसाधने ॥ ४४४ ॥
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ताचार्यश्लोकवार्तिके
प्रयत्नानंतरं तावदात्मलाभः समीक्षितः । कुंभादीनां तथा व्यक्तिव्यवधानव्यपोहनात् ॥ ४४५॥ तबुद्धिलक्षणात् पूर्व सतामेवेत्यनित्यता। प्रयत्नानन्तरं भावान शद्वस्याविशेषतः॥ ४४६ ॥
" प्रयत्नकार्यानेकत्वात्कार्यसमः " जीवके प्रयत्नसे सम्पादन करने योग्य कार्य अनेक प्रकारके होते हैं । इस ढंगसे प्रतिषेध उठाना कार्यसमा नामक जाति कही गयी है। उसका उदाहरण यों है कि मनुष्य के प्रयत्न द्वारा उत्पत्ति होनेसे शब्द के अनित्यपनकी वादी विद्वान् सिद्धि करता है कि कार्यका अर्थ अभूस्खाभवन है। पूर्व कालोंमें शब्दका सद्भाव नहीं होकर पुनः जविप्रयत्नके अनन्तर शद्वका बाम काम हो रहा है । जैसे कि घटादिक कार्य पहिले होते हुये नहीं हो रहे हैं। किन्तु पहिले नहीं होकर अपने नियत कारणों द्वारा नवीन रूपसे उपज रहे हैं । उसी प्रकार कण्ठ, ताल, आदि कारणोंसे नवीन उपज रहा शब्द अनित्य है । इस प्रकार वादी द्वारा व्यवस्था कर चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि प्रयत्नके अनेक कार्य हैं। प्रथम तो कुभल मादिके प्रयत्न किये पीछे घट आदि कार्योंका आत्मलाभ हो रहा भळे प्रकार देखा गया है । दूसरे व्यवहित पदार्थोके व्यवधायक अर्थका प्रयत्न द्वारा पृथक्करण कर देनेसे उनकी तिस प्रकार अभिव्यक्ति होना भी देखा जाता है । जैसे कि पाषाणको छेनी द्वारा उकेर देनेसे प्रतिमा व्यक्त हो जाती है। मही निकाल देनेसे कुआ ( आकाशस्वरूप ) प्रकट हो जाता है। किवाडके काठको छोड़ देनेसे गर्भ कील प्रकटित हो जाती है । जो कि दो तखतोंको जोडने के लिये भीतर प्रविष्ट की गयी थी। मतः द्वितीय विचार अनुसार संभव है कि शद भी पुरुष प्रयत्नसे उत्पन्न किया गया नहीं होकर नित्य सत हो रहा व्यक्त कर दिया गया होय प्रयत्न द्वारा शब्दकी उत्पत्ति हुई अथवा अभिव्यक्ति हुई है। इन दोनों मन्तन्योंमेंसे एक अनित्यपनके आग्रहको ही रक्षित रखने में कोई विशेष हेतु नहीं है। उन शद्रोंका श्रावणप्रत्यक्ष होना इस स्वरूपसे पहिले मी विद्यमान हो रहे शब्दोंका सद्भाव ही था। ऐसी दशा में प्रयत्नके अनन्तर शद्वाकी उत्पत्ति हो जानेसे अनित्यपना कहते रहना ठीक नहीं है । जब कि शब्दके उत्पादक और अभिव्यजक कारणोंसे शब्दकी उत्पत्तिमें और अभिव्यक्ति में कोई विशेषता नहीं दीखती है। इस प्रकार कार्यकी अविशेषतासे कार्यसम प्रत्यवस्थान उठाया जाता है । वृत्तिकार कार्यसम जाति के लक्षणसूत्रका अर्थ यों भी करते हैं कि प्रयत्नोंके कर्तव्य यानी करने योग्य तिस प्रकारके प्रयत्नोंके अनेक भेद है । अतः पूर्वमें कही गयी तेईस जातियोंसे न्यारी असत् उत्तररूप अन्य मी जातियां हैं। आकृतिगण होनेसे इस कार्यसमाके द्वारा सूत्रमें नहीं कही गयी अन्य जातियोंका भी परिग्रह हो जाता है । जैसे कि प्रतिवादी यों विचार करता रहे कि
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तत्वार्यचिन्तामणिः
तुम्हारे (वादी) पक्षमें कोई न कोई दूषण होवेगा । इस प्रकारकी शंका उठाना पिशाचीसमा जाति है । कार्यकारणभाव सम्बन्धसे जुडे हुये कुलाल घट, या अग्नि धूम, आदि पदार्थोंमें यह इसका कार्य और यह इसका कारण है, इस व्यवस्था को नियत करनेके लिये उपकारक कारणकी ओरसे उपकृत कार्यमें आया हुआ उपकार कल्पित किया जायगा । भिन्न पडा हुआ वह उपकार भी इस कार्य या कारणका है ? इस सम्बन्ध व्यवस्थाको नियत करनेके लिये पुनः अन्य उपकारोंकी कल्पना करना बढ़ता चला जायगा । ऐसी दशामें अनवस्था हो जायगी । उपकारकी समीचीन व्यवस्था नहीं होने से प्रतिवादीद्वारा यह अनुपकारसमा जाति उठायी जाती है । तिसी प्रकार विपर्ययसमा, भेदसमा, अभेदसमा, आकांक्षासमा, विभावसमा आदि जातियां भी गिनायी जा सकती है । ये चौवीस जातिया तो उपलक्षण हैं । असंख्य जातियां बन सकती हैं । अप्रशस्त उत्तर अनेक हैं ।
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तत्रोत्तरमिदं शब्दः प्रयत्नानंतरोद्भवः । प्रागदृष्टिनिमित्तस्याभावेप्यनुपलब्धितः ॥ ४४७ ॥ सत्त्वाभावादभूत्वास्य भावो जन्मैव गम्यते । नाभिव्यक्तिः सतः पूर्वं व्यवधानाव्यपोहनात् ॥ ४४८ ॥
अब न्यायसिद्धान्ती कार्यसमा जातिका असत् उत्तरपना साधते हैं। " कार्यान्यत्वे प्रयत्नाहेतुत्वमनुपलब्धिकारणोपपत्तेः " शब्दको यदि कार्य पदार्थोंसे भिन्न माना जायगा, तो पुरुषप्रयत्न उसका हेतु नहीं हो सकेगा । यदि अभिव्यक्ति पक्षमे आवारक वायु आदिके दूर करनेके लिये पुरुष प्रयत्नकी अपेक्षा करोगे तो उच्चारणसे पहिले विद्यमान हो रहे शब्दकी अनुपलब्धिके कारण सिद्ध करना चाहिये। जहां प्रयत्नके अनन्तर किसी पदार्थकी अभिव्यक्ति होती है, वहां उच्चारणके पहिले अनुपलब्धिका कारण कोई व्यवधायक पदार्थ मानना पडता है । व्यवधानको अलग करदेने से प्रयत्न के अनन्तर होनेवाले अर्थकी ज्ञप्ति हो जाना स्वरूप अभिव्यक्ति हो जाती है । किंतु वहां उच्चारणसे पहिले शब्दको यदि विद्यमान माना जाय तो उसकी अनुपलब्धि के कारण कुछ भी नहीं प्रतीत होते हैं, जिनका कि पृथक्करण कर शद्वकी उपलब्धिस्वरूप व्यक्ति मान की जाय । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि शद्व स्वीकारणोंसे उत्पन्न ही होता है । प्रकट नहीं होता है। इस न्यायभाष्यका अनुवाद करते हुये श्री विधानन्द आचार्य कहते हैं कि उस कार्यसमाको जाति सिद्ध करने में हमारा यह उत्तर है कि शद्व ( पक्ष ) प्रयत्न के अनन्तर उत्पन्न हुआ है ( साध्य ) । क्योंकि उच्चारणके पूर्व में शकी अनुपलब्धिके निमित्तका अभाव होते हुये भी उस समय शद्वकी अनुपलब्धि हो रही है ( हेतु ) । जैसे कि घटकी उत्पत्ति के पूर्व समयों में घटकी अनुपलब्धि होनेसे घटका उत्पन्न होना माना जाता है ( अन्य दृष्टान्त ) । " अभूत्वाभावित्वं कार्यस्वम् " । पहिले नहीं होकर पुनः कार
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तत्वार्यश्लाकवार्तिके
णोंसे उपज जाना ही पदार्थीका जन्म है । उच्चारणसे पहिले शब्दका सद्भाव नहीं होनेसे निर्णीत कर लिया जाता है कि इस शब्द का पहिछे नहीं होकर पुनः कारणोंसे हो जाना ही जन्म है। पहिले विषमान हो रहे शब्दकी अभिव्यक्ति नहीं हुई है। क्योंकि कारणों करके किसी व्यवधायक पदार्थका पृथक् करण नहीं किया गया है । जैसे कि वायु द्वारा बादलोंके पृथक् कर देनेसे चन्द्रमा प्रकट हो जाता है । षांण करके कायी या निःसामागको हटा देनेसे चक्कूका पैनापन व्यक्त हो जाता है । ( व्यतिरेक दृष्टान्त ), वैसा शब्द नहीं हैं। अतः शद्वके नित्यपन साधनेको उदरमें रखकर प्रतिवादी का कार्यतम जाति उठाना निंद्य उत्तर है। उक्त जातियोंका उपलक्षण माननेपर आकृतिगण पक्षमै वृत्तिकारके कथनानुसार उक्त सूत्रका अर्थ यों करना चाहिये कि कार्य यानी जातियोंका अन्यत्र यानी नाना प्रकार माननेपर यह उतर है कि प्रयत्नका यानी तुम्हारे दूषण देने के प्रयत्नको अहेतुपना है । अर्थात् प्रतिवादीके प्रयत्नद्वारा वादीके हेतु के असाधकपनकी सिद्धि नहीं हो पाती है। क्योंकि उपलब्धि के कारण हो रहे प्रमाण यानी निर्दोष वाक्यकी जो उपपत्ति है, यानी प्रतिवादी द्वारा निर्दोष वाक्य के अधीन होकर अपने पक्षका साधन करना है, उसका अभाव है । भावार्थप्रतिवादीका वाक्य स्वयं अपने पक्षका व्याघातक है। जितने भी पिशाचीसमा, एकसमा, आदिक असत् उत्तर उठाये जायंगे, वे सब उच्टे प्रतिवादीके पक्ष का ही विघात कर देंगे । वादीके प्रकरण प्राप्त साधनका उन करके प्रतिबन्धन नही हो सकता है।
अनेकांतिकता हेतोरेवं चेदुपपद्यते । प्रतिषेधोपि सा तुल्या ततोऽसाधक एव सः ॥ ४४९ ॥ विधाविव निषेधेपि समा हि व्यभिचारिता । विशेषस्योक्तितश्वायं हेतोर्दोषो निवारितः ॥ ४५०॥
यदि प्रतिवादीका यह अमित्राय होय कि पुरुषप्रयत्न के अनन्तर आवारकोंके दूर हो जानेसे पूर्वकाळमें विद्यमान हो रहे कितने ही पदार्थो को अभिव्यक्ति हो जाती है और बहुतसे पदार्थोकी प्रयत्नद्वारा उत्पत्ति भी हो जाती है। जाः शब्द का अनित्यपना सिद्ध करनेमें दिया गया प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु व्यभिचारी है। इस प्रकार अनेकान्तिक होने प्रयत्नान्तरीयकस्य हेतु शर्के अनित्यपनका साधक नहीं हो सकता। प्राचार्य कहते है कि इस प्रकार हेतुका अनेकान्तिकपना यदि साधोगे तब तो हे प्रतिवादिन् ! तुम्हारे द्वारा किये गये निषेवमें भी वह अनैकान्तिक दोष समानरूपसे लग जाता है, जैसे विविमें लगा दिया है । तिज को वह तुम्हारा जाति उठाना भी स्वपक्षका साधक नहीं है । न्यायसूत्र है कि " प्रतिषेधेऽपि समानो दोषः " तुम प्रतिवादीका प्रतिषेध भी किसी शबके अनित्यपनका तो निषेध कर देता है । और किसी किसी घटके अनित्यपनका निषेध
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नहीं कर देता है । अतः विधिके समान निषेध में भी व्यभिचार दोष समान है। विशेष करनेवाले हेतुके कथनसे यह दोष निवारित किया जा सकता है । जिस प्रकार तुम अपने ऊपर आये हुये व्यभिचारका वारण करोगे, उसी ढंगसे हम भी व्यभिचारदोषका निवारण कर देंगे । अर्थात्जिस प्रकार तुम प्रतिवादी यों कह सकते हो कि शब्दको अनित्यपनके पक्षमें प्रयत्नके अनन्तर शब्दका उत्पाद है, अभिव्यक्ति नहीं है, वैयायिकोंके पास इसका निर्णायक कोई विशेष हेतु नहीं है । उसी प्रकार हम नैयायिक भी प्रतिवादीके ऊपर यह भर्त्सना उठा सकते हैं कि तुम्हारे शब्द के नित्यपक्ष में भी प्रयत्नके अनन्तर शब्दकी अभिव्यक्ति है, उत्पत्ति नहीं हैं, इसमें भी निर्णयजनक कोई विशेषक नहीं है । अतः दोनों पक्षों में विशेष देतुके नहीं होने से व्यभिचार दोष बन बैठता है ।
एवं भेदेन निर्दिष्टा जातयो दिष्टये तथा । चतुर्विंशतिरन्याश्चानंता बोध्यास्तथा बुधैः ॥ ४५१ ॥ नैताभिर्निग्रहो वादे सत्यसाधनवादिनः । साधनाभं ब्रुवाणस्तु तत एव निगृह्यते ॥ ४५२ ॥
इस प्रकार भिन्न भिन्नपने करके ये चौवीस जातियां शिष्यों के उपदेशके लिये दिङ्मात्र
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( इशारा ) कथन कर दी गयी हैं । तिसी प्रकार अन्य भी अनन्त जातियां विद्वानोंकरके समझा देनी चाहिये । जितने भी संगतिहीन, प्रसंगहीन, अनुपयोगी, असत्, उत्तर हैं । वे सब न्यायसिद्धान्त अनुसार जातियों में परिगणित हैं । श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि इन चौवीस या असंख्यों जातियोंकर के वाद में समीचीन हेतुको बोलनेवाले वादीका निग्रह ( पराजय ) नहीं हो पाता है । नैयायिकोंने वादमें जाति प्रयोग करना माना भी नहीं । हो, जो वादी स्वपक्षसिद्धि के लिऐ हेत्वाभासको कह रहा है, उस बादीका तो उस हेत्वाभासका सत्यपान कर देनेसे ही निग्रह कर दिया जाता है । अतः जातियों के लिए इतना घटाटोप उठाना उचित नहीं है । असमीचीन उत्तरों का कहांतक प्रत्याख्यान करोगे ।
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निग्रहाय प्रकल्प्यते त्वेता जल्पवितंडयोः । जिगीषया प्रवृत्तानामिति योगाः प्रचक्षते ॥ ४५३ ॥ तत्रेदं दुर्घटं तावज्जातेः सामान्यलक्षणं । साधम्र्येणेतरेणापि प्रत्यवस्थानमीरितम् ॥ ४५४ ॥
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साधनाप्रयोगेपि तज्जातित्वप्रसंगतः । दूषणाभासरूपस्य जातित्वेन प्रकीर्तने ॥ ४५५ ॥ अस्तु मिथ्योत्तरं जातिरकलंकोक्तलक्षणा । साधनाभासवादे च जयस्यासम्भवाद्वरे ॥ ४५६ ॥
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नैयायिकोंने वीतराग पुरुषों की कथा ( सम्भाषण ) को वाद स्वीकार किया है । उस वाद में प्रमाण और तर्क से साधन और उठाइने दिये जाते हैं। हां, जल्प और वितंडारूप भाषण में जातियोंका प्रयोग किया जाता है । अत: परस्पर में जीतने की इच्छासे प्रवर्त रहे वादी प्रतिवादियों के जल्प और वितण्डा नामक शास्त्रार्थमें उक्त जातियां निग्रह ( पराजय ) कराने के लिये समर्थ हो रही मानी गयीं हैं । इस प्रकार नैयायिक भले प्रकार स्वकीय सिद्धान्तको वखान रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि उसमें इमको यह कहना है कि " साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः " साधर्म्य और उससे इतर वैधर्म्य करके उलाहना देना प्रतिषेध उठाना यह प्रत्यवस्थान जो जातिका सामान्य लक्षण कहा गया है, सो यह तो दुर्घट है। यानी अव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोषोंसे रहित हो कर यह लक्षण अपने लक्ष्यों में नहीं घटित होता है। देखिये, इस लक्षणके अनुसार हेत्वाभासका प्रयोग करने में भी वादीको उस जातिपनेका प्रसंग हो जावेगा । वहां भी साधर्म्य और वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थान उठाया गया है । अतः जातिके लक्षण करनेमें अतिव्याप्ति दोष आया । नैयायिकोंने हेत्वाभासको सोलह मूळ पदार्थों में गिनाया है । निग्रहस्थानों में भी हेत्वाभासका पाठ है । अतः वे जातिका लक्षण करते समय अक्ष्य हैं । अलक्ष्य में लक्षणका चला जाना अतिव्याप्ति है । यदि तुम नैयायिक जातिका दूसरा निर्दोष लक्षण दूषणाभास रूप कथन करोगे तो हेत्वाभासमें पूर्व कथित कक्षण के वर्त जानेसे आयी दुई अतिव्याप्तिका अब निवारण हो जायगा । क्योंकि हेत्वाभास तो समीचीन दूषण हैं । वस्तुतः दूषण नहीं होते हुये दूषणसदृश दीखनेवाले दूषणाभास नहीं है । अतः इस लक्षण में अतिव्याप्ति नहीं है । फिर भी इस क्षण में अव्याप्ति दोष आ जावेगा । जिसको कि अमग्रन्थ में स्पष्ट कर देवेंगे। हां, " मिथ्योत्तरं जातिः " मिथ्या उत्तर देना ही जाती है, यह श्री अकलंक देवकरके कहा गया जातिका लक्षण निर्दोष होकर श्रेष्ठ मान लिया जाओ । चूंकि वादी द्वारा स्वपक्षसिद्धिके लिये हेत्वाभासका कथन करनेपर तो वादीको जयप्राप्ति होना असम्भव है । अतः नैयायिकों का मन्तव्य समीचीन नहीं जचता है 1
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ग्रन्थकार स्वयं अभी
युक्तं तावदिह यदनंता जातय इति वचनं तथेष्टत्वादसदुत्तराणामानंत्यप्रसिद्धेः । संक्षेपतस्तु विशेषतस्तु विशेषेण चतुर्विंशतिरित्ययुक्तं, जात्यंतराणामपि भावात् । तेषामास्वेषांतर्भावाददोष इति चेत् न, जातिसामान्यलक्षणस्य तत्र दुर्घटत्वात् । साधर्म्य वैधर्म्याभ्यां
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प्रत्यवस्थानं जातिरित्येतद्धि सामान्यलक्षणं जातेरुदीरितं यौगैरेतच्च न सुघर्ट, साधनाभासप्रयोगेपि साधर्म्यवैधम्र्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानस्य जातित्वप्रसंगात् ।
आचार्य कहते हैं कि हमको यहां पहिले यह कहना है कि नैयायिकोंने जो कथित जातियोंको उपलक्षण मानकर अनन्त जातियां स्वीकार की हैं, यह उनका कथन युक्त है, हमको भी तिस प्रकार जातियां अनन्त हैं, ऐसा इष्ट है । क्योंकि जगत् में असमीचीन उत्तरोंका अनन्तपना प्रसिद्ध हो रहा है । गाली देना, अवसर नहीं देखकर अन्ट सुन्ट बकना, अनुपयोगी चर्चा करना, इत्यादिक सब असमीचीन उत्तर हैं । किंतु संक्षेपसे नैयायिकोंने विशेषरूपसे गणना कर जो चौवीस जातियां कहीं हैं, यह उनका कथन युक्तिरहित है । यही हमारे खण्डनका विषय है । जब कि अन्य असंख्य जातियों का भी सद्भाव है, तो चौवीस ही जातियां क्यों गिनायी गयीं हैं ? बताओ ! यदि तुम नैयायिक यों कहो कि उन अनन्त जातियोंका इन गिनायी गयीं चोवीस जातियोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है । अतः कोई अन्याप्ति, अतिव्याप्ति दोष नहीं हैं, आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि तुम्हारे दर्शनमें कहे गये जातिके सामान्यलक्षणकी वहां घटना नहीं हो पाती है । अतः सामान्य लक्षणके घटित नहीं होनेसे अनन्तजातियोंका चौवीसमें ही गर्म नहीं हो सकता है । देखिये, साधर्म्य और वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थान देना जाति है । नैयायिकोंने यही जाति का सामान्यलक्षण न्यायसूत्रमें कहा है। किंतु वह लक्षण तो समीचीन गढा हुआ नहीं है । अव्याप्ति, अतिग्याप्ति, दोष आते हैं। चौवीस जातियों में से कई जातियोंमें वह लक्षण नहीं वर्तता है । संकोच कर या विस्तार कर जैसे तैसे बौद्धिक परिश्रम लगाकर अहेतुसमा, अनुपन्धिसमा आदि में सामान्य क्षणको घटाओगे तो यह क्लिष्ट कल्पना होगी तथा जातिके सामान्य लक्षण में अतिव्याप्ति दोष भी है । हेत्वाभासके प्रयोग में भी साधर्म्य और वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थानके सम्भव जानेसे जातिपनेका प्रसंग हो जायगा । अतः नैयायिकों के यहां जातिका सामान्यलक्षण प्रशस्त नहीं है, जो कि अनन्त जातियोंमें घटित होकर उनको चौवीस जातियोंमें हीं गर्भित कर सके ।
तयेष्ठत्वान्न दोष इत्येके । तथाहि - असाधौ साधने प्रयुक्ते यो जातीनां प्रयोगः सोनभिज्ञतया वा साधनदोषः स्यात्, तद्दोषप्रदर्शनार्थम्वा प्रसंगव्याजेनेति । तदप्ययुक्तं । स्वयमुद्योतकरेण साधना भासे प्रयुक्ते जातिप्रयोगस्य निराकरणात् । जातिवादी हि साधनाभासमेतदिति प्रतिपद्यते वा न वा १ यदि प्रतिपद्यते य एवास्य साधनाभासत्वहेतुदोषोऽ नेन प्रतिपन्नः स एव वक्तव्यो न जातिः प्रयोजनाभावात् । प्रसंगव्याजेन दोषप्रदर्शनार्थमिति चायुक्तं, अनर्थसंशयात् । यदि हि परेण प्रयुक्तायां जातौ साधनाभासवादी स्वप्रयुक्तसाधनदोषं पश्यन् सभायामेवं ब्रूयात् मया प्रयुक्ते साधने अयं दोषः स च परेण नोद्भावितः किं तु जातिरुद्भावितेति, तदापि न जातिवादिनो जयः प्रयोजनं स्यात्, उभयो
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रज्ञानसिद्धः। नापि साम्यं प्रयोजनं सर्वथा जयस्यासंभवे तस्याभिमेतत्वादेकांवपराजयादरं सन्देह इति वचनात् ।
यहां कोई एक पण्डित कह रहे हैं कि तिस प्रकार हमको अभीष्ट हो जानेसे कोई दोष नहीं भाता है । अर्थात्-हेत्वाभासके प्रयोगमें भी साधर्म्य और वैधर्म्य द्वारा प्रत्यवस्थानरूप जातिपना इष्ट है । " उपधेयसंकरेऽपि उपाधेरसकरात् " उपधियुक्त धीके एक होनेपर भी कई उपाधियां वहां असंकीर्ण होकर ठहर सकती हैं । एक महा दुष्ट पुरुष अनेक झूठ, हिंसा, व्यभिचार, कृतघ्नता सुरासेवन आदि न्यारे न्यारे दोषोंका आश्रय हो जाता है । एक अति सज्जन पुरुषमें अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्यव्रत, कृतन्त्रता, स्वार्थत्याग आदि अनेक गुण युगपत् विराजमान हो सकते हैं । हेत्वाभासका प्रयोग करनेपर भी निग्रहस्थानपना, जातिपना या अनुमिति और उसके कारण इनमें से किसी एकका विरोधीपना ये दोष एकत्रित अभीष्ट हैं । इस प्रकार कोई एक विद्वान् कह रहे हैं। उन्होंने अपने मन्तव्यका समर्थन इस ढंगसे प्रसिद्ध किया है । सो सुनिये। असमीचीन हेतु यानी हेत्वामासके प्रयोग किये जा चुकनेपर जो जातियोंका प्रयोग किया गया है, वह हेतु के दोषोंकी अनभिज्ञतासे किया गया है। अतः जातियोंका प्रयोग करना हेतुका दोष समझा जायगा अथवा प्रसंगके छल (बहाना) करके उस हेतुके दोषका प्रदर्शन करने के लिये जातियों का प्रयोग किया गया है ! दोनों ढंगों से जातियोंका प्रयोग होना सम्भव जाता है । पहिला मार्ग अज्ञतापूर्ण है और दूसरा मार्ग चातुर्यपूर्ण है। यहांतक एक विद्वान्के कह चुकनेपर आचार्य महाराज कहते हैं कि एक विद्वान्का वह कहना मी अयुक्त है। क्योंकि उद्योतकर पण्डितने हेत्वाभासके प्रयोग कर चुकनेपर पुनः उसके ऊपर जातिके प्रयोग करनेका निराकरण कर दिया है। अर्थत्-हेत्वाभासको कहनेवाले वादीके ऊपर प्रतिवादीद्वारा हेत्वाभास दोष अठा चुकने पर पुनः असत् उत्तररूप जातिका उठाना निषिद्ध कर दिया है। जो मूर्खवादी अपने पक्षकी छिद्धिको समीचीन तुसे नहीं करता हुआ असमीचीन हेतुसे कर रहा है, उस वादीका खण्डन प्रतिवादीकर के विषप्रयोगसमान हेत्वाभास प्रयोगके उठा देनेसे ही हो जाता है । पुनः उसके ऊपर थप्पड, मारना चूंपा मारना आदिके समान जाति उठाना उचित नहीं है । इम पूंछते हैं कि जातिको उठानेवाला प्रतिवादी क्या वादीके हेतुको यह त्वामास रूप है, इस प्रकार मियमसे समझता है । अथवा क्या वादीके हेतुको हेत्वाभास नहीं समझता है ! बतायो । प्रथम विकल्प अनुसार प्रतिवादी यदि षादीके प्रयुक्त तुको दोष इस प्रतिवादीने समझारे. पा हेत्वाभास ही इसको उठाकर कहना चहिये । जातिका प्रयोग तो नहीं करना चाहिये । कारण कि जातिके प्रयोग करनेका कोई विशेष प्रयोजन नहीं है। जब प्रतिवादी हेत्वाभासको उठाकर ही जय छाम कर सकता है, तो जघन्य पंडितोंके प्रयोग व्यवहार में आ रही जातिका प्रयोग क्यों व्यर्थ करेगा, दूसरे चातुर्यपूर्ण मार्ग अनुसार यदि यहां कोई विद्वन् यों कहे कि प्रसंग के छ करके हेतु
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तत्वार्थचिन्तामणिः
का दोष दिखकानेके लिये प्रतिवादीने वादीके ऊपर जातिरूप प्रत्यवस्थान उठाया है, आचार्य कहते हैं कि एक विद्वान्का यह कहना भी युक्तिरहित है। क्योंकि इसमें बडे भारी अनर्थ हो जानेका संशय ( सम्भावना ) है । दूसरे प्रतिवादी द्वारा जातिका प्रयोग किये जानेपर यदि हेत्वाभास द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि करनेवाला वादी अपने प्रयुक्त किये गये हेतुके दोषको देखता हुआ सभामें इस इस प्रकार कह देवे कि मेरे द्वारा प्रयुक्त किये गये हेतुमें यह विरोध, व्यभिचार, असिद्ध, आदि दोष है । वह दोष तो इस दूसरे प्रतिवादीने मेरे ऊपर नहीं उठाया है । किन्तु जाति उठा दी गयी है । ऐसी दशा में अनर्थ हो जानेका खटका है । प्रतिवादी जयके स्थान में पराजय प्राप्तिके लिये संशयापन हो जाता है । उस अवसरपर भी जातिको उठाने वाले प्रतिवादीकी जीत हो जाना प्रयोजन नहीं होगा। क्योंकि दोनों वादी प्रतिवादियोंके अज्ञानकी सिद्धि है । वादीको अपने पक्षकी सिद्धिके लिये समीचीन हेतुका ज्ञान नहीं है। और प्रतिवादीको दोष प्रयोग करनेका परिज्ञान नहीं है । ऐसी अज्ञान दशामें प्रविवादीको जय नहीं मिल सकता है । तथा वादी और प्रतिवादी दोनों समान गिने जांय, जैसे कि मल्लको गिरा देनेपर भी नहीं चित्त कर सकने वाले प्रतिमलको मल्लके समान मान लिया जाता है । इसी प्रकार मल्लप्रतिमल के समान दोनों वादी प्रतिवादियोंकी समानता हो जाना भी प्रयोजन नहीं सध पाता है । क्योंकि सभी प्रकारोंसे जयके असम्भव होनेपर उस साम्यको अभीष्ट किया गया है । एकान्तरूपसे पराजयका निर्णय हो जानेकी अपेक्षा पराजयका संदेह बना रहना कहीं बहुत अच्छा है । इस प्रकार अभियुक्तों का नीतिकथन चला आ रहा है ।
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यदा तु साधनाभासवादी स्वसाधनदोषं प्रच्छाद्य परप्रयुक्तां जातिमेवोद्भावयति तदापि न तस्य जयः प्रयोजनं साम्यं वा पराजयस्यैव तथा संभवात् ।
और जब हेत्वाभासको कहनेवाला वादी अपने हेतुके दोषको छिपाकर दूसरेसे प्रयुक्त की गयी जातिका ही उत्थापनकर देता है, तब भी तो उस वादीका जय होना अथवा दोनोंका समान बने रहना यह प्रयोजन नहीं सध पाता है । तिस प्रकार प्रयत्न करनेपर तो वादीका पराजय होना ही सम्भवता है ।
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अथ साधनदोषमनवबुध्यमानो जातिं प्रयुक्ते तदा निःप्रयोजनो जातिप्रयोगः स्यात् यत्किंचन वदतोपि तूष्णींभवतोपि वा साम्यं प्रातिभैव्र्व्यवस्थापनाद्वयोरज्ञानस्य निश्वयात् ।
पूर्व में उठाये गये द्वितीय विकल्प अनुसार दूसरे विद्वान् अब यदि यों कहें कि वादीद्वारा प्रयुक्त किये गये हेतुके दोषको नहीं समझ रहा संता प्रतिवादी वादीके ऊपर जातिका प्रयोग कर रहा है, तब तो हम कहेंगे कि ऐसी दशा में जाति के प्रयोग करनेका कोई प्रयोजन नहीं है । प्रतिमा बुद्धिको धारनेवाले विद्वानों करके जो कुछ भी मनमानी कह रहे भी अथवा चुप होकर बैठ
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
रहनेवाले पुरुषके भी समानपनका व्यवस्थापन किया है । दोनोंके अज्ञान हो रहेका निश्चय है अतः हेत्वाभास प्रयोगके अवसरपर जातिका प्रयोग करना कैसे मी उचित नहीं है । तब तो जातिका क्षण सदोष ही रहा ।
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एवं तर्हि साधुवाधने प्रयुक्ते यत्परस्य साधर्म्याभ्यां दूषणाभासरूपं तज्जातेः सामान्यलक्षणमस्तु निरवद्यत्वादिति चेत्, मिथ्योत्तरं जातिरित्येतावदेव जातिलक्षणमकलंकप्रणीतमस्तु किमपरेण । " तत्र तिथ्योत्तरं जातिर्यथा नेकां विद्विषाम् ” इति वचनात् ।
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नैयायिककी ओर से कोई कहता है कि इस प्रकार व्यवस्था है, तब तो वादी द्वारा समीto हेतु प्रयोग किये जा चुकनेपर जो दूसरे प्रतिवादीका साधर्म्य और वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थान उठाना दूषणाभासरूप होता हुआ वह जातिका सामान्य लक्षण हो जाओ। क्योंकि दूषणाभास जाति है । इस जातिके निर्दोष लक्षण में कोई अतिव्याप्ति आदि दोष नहीं आता है। इस प्रकार कहने पर आचार्य कहते हैं कि जातिके इस लक्षण में भी अव्याप्ति दोष है । हो, श्रीअकळंक देव महाराजके द्वारा बनाया गया जातिका लक्षण " मिथ्या उत्तर इतना ठीक जचता है । अतः यही जातिका लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव, दोषोंसे रहित हो रहा मान लिया जाओ । अन्य दूसरे दूषित लक्षणों करके क्या लाभ होगा ? वहां अकलंक शास्त्रमें इस प्रकारका कथन भी है कि मिथ्या उत्तर कहे जाना जाति है । जिस प्रकार कि अनेकान्तमत के साथ विशेष द्वेष करनेवाले नैयायिकों के यहां मानी गयी । अतः जातिका लक्षण मिथ्या उत्तर कहना यही निष्कलंक सिद्ध हुआ समझो ।
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तथा सति अन्याप्तिदोषस्यासंभवान्निरवद्यमेतदेवेत्याह ।
और तिस प्रकार होनेपर यानी जातिका लक्षण श्री अकलंक मतानुसार
" मिथ्या उत्तर
कर देनेपर अव्याप्ति दोष होनेकी सम्भावना नहीं रहती है । अतः यह लक्षण ही निर्दोष है । इसी aran श्री विद्यानन्द आचार्य वार्त्तिकों द्वारा कहते हैं ।
सांकर्यात् प्रत्यवस्थानं यथानेकांतसाधने ।
तथा वैयतिर्येण विरोधेनानवस्था ॥ ४५७ ॥ भिन्नाधारतयोभाभ्यां दोषाभ्यां संशयेन च । अप्रतीत्या तथाऽभावेनान्यथा वा यथेच्छया ॥ ४५८ ॥ वस्तुतस्तादृशैर्दोषैः साधनाप्रतिघाततः ।
सिद्धं मिथ्योत्तरत्वं नो निरवद्यं हि लक्षणम् ॥ ४६९ ॥
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तत्वार्धचिन्तामणिः
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जिस प्रकार कि जैन सिद्धान्तीद्वारा सत्वहेतु करके सम्पूर्ण पदार्थोंमें अनेकान्त आत्मकपनेका साधन कर चुकने पर प्रतिवादीद्वारा सांकर्यसे प्रत्यवस्थान उठाया जाना तथा व्यतिकरपन से दूषणाभास उठाया जाना जाति है । विरोध करके, अनवस्था करके, विभिन्न अधिकरणपने करके, उभय दोष करके, संशय करके, अप्रतीति करके तथा अभावदोष करके प्रसंग उठाना भी जाति मानी गयी है, अथवा और भी अपनी इच्छा अनुसार दूसरे प्रकारोंसे चक्रक, अन्योन्याश्रम, आत्माश्रय, व्याघात, श्याकत्व, अतिप्रसंग आदि करके प्रतिषेधरूप उपालम्भ देना भी जातियां हैं । वास्तविक रूपसे विचारा जाय तो प्रत्यक्षप्रमाण, अनुमानप्रमाण, आगमप्रमाण से अनेक धर्मो के साथ तदात्मक हो री वस्तुकी सिद्धि बाळगोपाळांतकमें हो रही है । अतः तिस प्रकारके सांकर्य आदि दोषों ( दोषामा) करके इस अक्षुण्ण अनेकान्तकी सिद्धिका प्रतिघात नहीं हो पाता है । तिस कारण से हमारे जैन सिद्धान्तमें स्वीकार किया गया मिथ्या उत्तरपना ही जातिका निर्दोष लक्षण सिद्ध हुआ । इनका विवरण यों है कि अनेकान्तवादी जैन विद्वानोंके ऊपर एकान्तवादी नैयायिक आदिक पण्डित आठ दोषों को उठाते हैं । १ संशय २ विरोध ३ वैयधिकरण्य ४ उभय ५ संकर ६ व्यतिकर ७ अनवस्था ८ अप्रतिपत्तिपूर्वक अभाव, ये आठ दोष हैं । वैयाधिकरण्यमें अन्तभाव करते हुये कोई कोई उभयको दोषोंमें स्वतंत्र नहीं गिनाकर अप्रतिपत्ति और अभावको दोष गिन लेते हैं । "" १ मेदामेदात्मक सदसदात्मकत्वा वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्यत्वं संशयः चतिप्रतिपत्तिर्वा " २ " शीतोष्णस्पर्शयोरिव विधिनिषेधयोरेकत्र वस्तुन्यसंभवो विरोधः " ३ "युगपदन कत्रावस्थितिर्वैयधि करण्यम् " भिन्नाधेयानां नानाधिकरणप्रसंगो वा ४ " मिथो विरुद्धानां तदीयस्वभावाभावापादनमुमय दोषः " सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः " अथवा परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणयोर्धर्मयेोरेकत्र समावेशः संकरः " ६" परस्परविषयगमनं व्यतिकरः " ७ " उत्तरोत्तरधर्मापेक्षा विश्रामाभावोsनवस्था " ८ अनुपलम्भोऽप्रतिपत्तिः " ९ "सद्भावे दोषप्रसक्तेः सिद्धिविरहान्नास्तित्वापादनमभावः " सम्पूर्ण पदार्थोंको अस्ति नास्तिरूप या भेद अमेद आत्मक स्वीकार करनेपर जैनोंके ऊपर नैयायिक संशय आदिक दोषोंको यों उठाते हैं कि किस स्वरूपसे अस्तिपन कहा जाय ? और किस तदात्मक रूपसे नास्तिपन कहा जाय ? वस्तुका असाधारण स्वरूप करके निश्चय नहीं किया जा सकता है । अतः अनेकान्तवाद में संशय दोष आता है। तथा जहां वस्तुमें अस्तित्व है, वहां नास्तित्वका विरोध है और जहां नास्तित्व है, वहां अस्तित्वका विरोध है, शीत स्पर्श और उष्णस्पर्शके समान दो विरुद्ध अस्तित्व, नास्तित्व, धर्मोका एक वस्तुमें एक साथ अवस्थान नहीं हो सकता है । अतः अनेकान्तमें विरोधदोष खडा हुआ है । तथा अस्तित्वका अधिकरण न्यारा होना चाहिये और उसके प्रतिकूल नास्तित्वका अधिकरण न्यारा होना चाहिये । एक वस्तुमें एक साथ दो विरुद्ध धर्मोके स्वीकार करनेसे अनेकान्तवादियों के ऊपर यह वैयधिकरण्य दोष हुआ । तथा एकान्तरूपसे अस्तित्व माननेपर जो दोष नास्तित्वाभासरूप आता है, अथवा
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तस्वार्यश्लोकवार्तिके
नास्तित्वरूप माननेपर जो दोष अस्तित्वाभाव स्वरूप आता, वे एकान्तवादियोंके ऊपर आनेवाले दोष अस्तित्वनास्तित्वात्मक अनेकान्तको माननेवाले जैनके यहां भी प्राप्त हो जाते हैं । यह उभय दोष हुआ। तथा जिस स्वभावसे अर्थका अस्तित्व धर्म व्यवस्थित किग है। उस होसे अस्तित्व और नास्तित्व दोनों मान लिये जाय अथवा जिस स्वभावसे नास्तिस्व माना गया है, उससे दोनों धर्म नियत कर लिये जाय, इस प्रकार सम्पूर्ण स्वभावोंकी युगपत् प्राप्ति हो जाना संकर है । तथा जिस अवच्छेदक स्वभावसे अस्तित्व माना गया है, उससे नास्तित्व क्यों न बन बैठे और जिस स्वभावसे नास्तित्व नियत किया है, उससे अस्तित्व व्यवस्थित हो जाय । इस प्रकार परस्परमें व्यवस्थापक धर्मोका विषयगमन करनेसे अनेकान्तपक्षमें व्यतिकर दोष आता है । तथा जिस स्वरूपसे सत्व है, और जिस स्वरूपसे असत्व है, उन धर्मोमें भी पुनः कथंचित् सत्व, असत्वके स्वीकार करत संते भी विश्राम नहीं मिलेगा। उत्तर उत्तर धोंमें अनेकान्तकी कल्पना बढती बढती चली जानेसे अनवस्था दोष हो जायगा । तथा उक्त दोषोंके पड जानेसे उपलम्भ नहीं होनेके कारण अनेकान्त की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती है। जिसकी अप्रतिपत्ति है, उसका अभाव मान लिया जाता है। आचार्य कहते हैं कि सर्वथा अस्तित्व या नास्तित्व अथवा भेद या अभेद इत्यादि धर्मोके मानने वाले एकान्तवादियों के यहां ये दोष अवश्य आते हैं । किन्तु एक धीमें स्यात्कार द्वारा कथंचित् अस्तित्व, नास्तित्व आदि अनेक धर्मोके माननेपर कोई दोष नहीं आ पाता है। देखिये ! कुछ अंधकार कुछ प्रकाश होनेके अवसरपर ऊर्ध्वतामात्र सामान्य धर्मको अवलम्ब लेकर विशेष धर्मकी अनुपलब्धि होनेसे स्थाणु या पुरुष का संशय उपज जाता है। किन्तु अनेकान्तवादमें तो विशेष धर्मोकी उपलब्धि हो रही है । स्वचतुष्टयसे वस्तुमें अस्तित्व और परचतुष्टयसे नास्तित्व ये दोनों धर्म एकत्र स्पष्ट दीख रहे हैं। वस्तुमें अस्तित्व ही माना जाय और नास्तिकत्व नहीं माना जाय तो वस्तु सर्व बात्मक हो जायगी तथा वस्तु नास्तित्व ही माना जाय अस्तित्व नहीं माना जाय तो लाम नहीं करती हुयी वस्तु खरविषाणके समान शून्य बन बैठेगी। नैयायिकोंने भी पृथिवीस्व नामक सामान्य विशेषमें सत्त्व या द्रव्यस्वकी अपेक्षा विशेषपना और घटत्व, पटत्वकी, अपेक्षा सामान्यपना स्वीकार किया है। अतः प्रतीयमान अनेकान्तमें चलितप्रतिपत्ति नहीं होनेसे संशय दोष नहीं आता है। निर्णीत हो चुके में संशय उठाना युक्त नहीं है । अविरुद्ध अनेक कोटियोंको स्पर्शनेवाला ज्ञान संशय नहीं होता है। जैसे आत्मा बानवान् है, सुखी है इसी प्रकार सामान्य विशेष यात्मक वस्तुओंकी प्रतीति हो रही होनेसे संशय दोष बालाग्र भी प्राप्त नहीं होता है। वस्तुका अनेक धर्मों के साथ तदात्मकपना माननेपर दूसरा विरोध दोष भी नहीं आपाता है। विरोध तो अनुपलधिसे साधा जाता है । उष्ण स्पर्शबान्के आजानेपर शीतस्पर्शका अनुपरम्भ हो जाता है। अतः शीतस्पर्श और उग्णस्पर्शका विरोध गढ लिया जाता है । किन्तु यहाँ अनेकान्तात्मक वस्तुमें जब विरुद्ध सदश दीख रहे अस्तित्व नास्तित्व, भेद अभेद, आदि धर्मोका युगपन उपसम्म हो रहा,
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ऐसी दशामें वयचातकभाव, सहामवस्थान ये दो विरोध कैसे भी नहीं पाते हैं। परस्पर परिहाराष. स्थिति स्वरूप विरोध तो अनेकात्मक वस्तुको ही अधिकतया पुष्ट करता है । एक धर्मीमें अनेक धर्मोके साथ रहनेपर ही परस्परमें एक दूसरेका परिहार करते हुये विरोधपना रहना रक्षित हो पाता है। जो ही पहिला उत्तम संहनन शुक्लपान द्वारा मोक्षका हेतु है, वही तीव्र शैद्रध्यान द्वारा सप्तम नरकका कारण बन बैठता है । बौदोंने शापक हेतुमें पक्षवृत्सिव, सपक्षपत्तित्व, विपक्षावृत्तित्व ये तीनों धर्म युगपत् स्वीकार किये हैं। पर्वतो वहिमान् धूमात् यहां नैयायिकोंने धूम हेतुमें अन्य. यव्याप्ति, व्यतिरेकन्याप्ति ये दोनों प्रतिबन्ध युगपत् अभीष्ट किये हैं । विरोधक पदार्थकी ओरसे विरोध्य अर्थमें प्राप्त हो रहा विरोध तो सुलमतासे अनेकान्त मतको पुष्ट कर देता है। तीसरा वैयधिकरण्य दोष भी अनेकान्तसिद्धिका प्रतिषेधक नहीं है। जब कि बाधारहित ज्ञानमें भेद, ममेद, अथवा सत्व, असत्त्व, धर्मोकी एक बाधारमें वृत्तिपने करके प्रतीति हो रही है । अतः विभिन्न धर्मोका अधिकरण भी विभिन्न होगा यह वैयधिकरण्य दोष अनेकान्तमें लागू नहीं होता है। चेतन मात्मामें रूपका रहना जड पुद्ग में बानका ठहरना माननेपर रूप और जानका वैयधिकरण्य दोष समुचित है। किन्तु एक अग्निमें दाहकत्व, पाचकाव, शोषकपन, स्फोटकत्व (चर्मपर फळक उठा देना ) ये अनेक धर्म युगपत् एकाश्रयमें प्रतीत हो रहे हैं। अतः वैयधिकरण्य दोषकी अनेकारतमें सम्भावना नहीं है । चौथा उभयदोष भी प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि परस्पर एक दूसरेकी नहीं अपेक्षा रखनेवाळे भेद, अभेद, अथवा अस्तित्व, नास्तिस्य, दोनों धर्मोका सतुआ या खिचडीके समान एकपना हम जैन स्वीकार नहीं करते हैं। किन्तु दही गुडको मिलाकर मये उपजे तीसरे स्वाद के समान या हल्दी चूनाको मिलाकर हुये तीसरे रंगके समान अनेकान्त वात्मक बस्तुकी जाति न्यारी है। जैनोंके यहां एक धीमें ठहरे हुये अनेक धर्म परस्पर सापेक्ष माने गये है । नीली, हरी, लाल, पीली, अनेक कान्तियोंको धारनेवाले मेचक रनमें कोई उभय दोषकी सम्भावना नहीं है । बढिया चोर कभी परस्त्रीको पुरी दृष्टिसे नहीं देखता है। अच्छा डाकू (गुरुका सिखाया हुआ प्रशंशनीय डॉक) माता, बहिन, कहकर नियोस वस्त्राभूषण छीन लेता है। किन्तु उनके साथ रागचेष्ठा नहीं करता है। तया परदारसेवी (लुच्चा ) पुरुष परस्त्रियों के साथ काम चेष्टा भले ही करे,किन्तु उनके गहनों,कपडोंका अपहरण नहीं करता है। भले ही यह भूका मर जायगा। किन्तु दान देने योग्य नियोंके दम्पका अपहरण नहीं करता है। हां, कोई तुच्छ चोर या जघन्य ज्यभिचारी भले ही दोनों कार्योको करता हुआ उमय दोषका भागी हो जाय । किन्तु जो प्रती मनुष्य है, षा परदारसेवम या चोरी उभय ( दोषों ) से रहित है । इसी प्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तु उभयदोषरहित तिस प्रकार प्रतीत हो रही हैं। बौद्धों द्वारा माने गये एक चित्रज्ञानमें मील, पीत बादि अनेक आकार उभयरूप नहीं होते हुये सुखपूर्वक विश्राम ले रहे हैं। पांचयां दोष संकर भी अनेकान्तारमक वस्तुमें नहीं लगता है। गर्दभ गौर घोडीके संयोगसे उत्पन्न हुये
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तत्वार्थ कोकवार्तिके
खिच्चरके समान सांकर्य दोष यहां संभवनीय नहीं है। प्रतीयमान हो रहे पदार्थमें यदि सांकर्य हो भी जाय तो वह दोष नहीं माना जाकर गुण ही समझा जायगा। एक हाथकी पांच अंगुलियोंमें छोटापन बढापन कोई दोष नहीं है । जब कि वह एकका छोटापन दूसरीका बडापन आंखोंमें बडामारी दोष समझा जाता है । दोष भी क्वचित् गुण हो जाते हैं । पांचोंका अधिक बडा होना दोष है । सिरका समुचित बडापना कोकमें गुण माना गया है। बात यह है, एक बारमा धर्नामें कर्चापन, मोक्कापन, मरमा, जन्म लेना, हिंसकपना, दातापन, एक विषयोंका ज्ञातापन, अन्य विषयका अज्ञान बादिक अनेक धर्म असंकीर्ण होकर ठहर रहे हैं। वस्तुका धर्मोके साथ कथंचिद् भेद, अमेद, माननेपर कथमपि सांकर्य दोषकी सम्मावना नहीं है । एक ही समयमें घटका नाश मुकुटका उत्पाद और सुवर्णकी स्थिति ये तीनों उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तदात्मक होकर वस्तुमें प्रतीत होते हैं। तथा छट्ठा दोष व्यतिकर भी अनेकान्तमें नहीं प्राप्त होता है । भिन्न भिन्न धर्मोंके अवच्छेदक स्वरूप स्वभाव इस वस्तुमें न्यारे न्यारे नियत हैं । एक देवदत्तमें नाना व्यक्तियोंकी अपेक्षा पितापन, भ्रातापन, भतीजापन, भानजापन आदिक धर्म व्यतिकररहित प्रतीत हो रहे हैं । महारोगीको एक रसायन उचित मात्रामें दी गयी नीरोग कर सकती है। वही रसायन यदि नीरोग पुरुषके उपयोगमें आ जाय तो उष्णताको बढाकर उस पुरुषके प्राण ले सकती है । विशेष विष किसीको मारनेकी शक्ति रखता है । साथ ही वह चिर कुष्ठरोगको दूर भी कर सकता है । हारमें जडे हुये न्यारे न्यारे रत्नोंके समान अनेक धर्म भी देश, काका भेद नहीं रखते हुये वस्तुमें अक्षुण्ण विराज रहे हैं तथा अनवस्था दोष होनेका भी प्रसंग नहीं है। क्योंकि हम जैन एक धर्मीको अनेक धर्म आत्मक स्वीकार करते हैं । पुनः धर्मोमेंसे एक एक धर्मको अनेक धर्मात्मक नहीं मानते हैं । धर्मोमें अन्य धर्मोका सद्भाव नहीं है । वृक्षों शाखायें पुष्प फल हैं। शाखाओं में दूसरी वैसे ही शाखायें या फलों में दूसरे फल तथा फलोंमें दूसरे फळ वर्त रहे नहीं माने गये है। एक शानमें वेष वेदक और वित्ति तीन अंश हैं । उन उन एक एक अंशमें पुनः तीन तीन अंश नहीं है । जिससे कि अनवस्था हो सके । वस्तु अमिन ही है । धर्म न्यारे ग्यारे ही , ऐसी दशामें अनवस्था प्राप्त नहीं होती है। शरीरमें अवस्थित रहना हड्डीका गुण है । और अनवस्थित रहना अस्थिका दोष है। किन्तु रक्तका अवस्थित रहना दोष है । अनवस्था गुण है । बीज, अंकुर, मुर्गी, अण्डा, आदिकी धाराके समान कचित् अनवस्था गुण भी हो जाता है । "मूलक्षतिकरीमाहुरनवस्थां हि दूषणं" जड मूलको नष्ट करनेवाली अनवस्था दूषण है । वस्तुके अनादि अनन्तपनको या अनेकान्तपनको पुष्ट कर रही अनवस्था तो भूषण है। धर्मोमें पुनः धर्म और उनमें भी पुनः तीसरे धर्म माननेपर अनवस्था हो सकती थी । अन्यथा नहीं। अप्रतिपत्ति और अमाव दोष तो कथमपि नहीं सम्भवते हैं । जब कि सम्पूर्ण प्राणियोंको विधमान अनेक धर्मात्मक एक अर्थका स्पष्ट अनुभव हो रहा है । जगत्में अनेकान्तात्मक वस्तुका दर्शन इतन,
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
करना
सुलभ हो गया है, जितना कि अपने हाथमें पांचों अंगुलियों का दीखना है । अतः अनेकान्त में दोष उठाना अपनी विचारशालिनी बुद्धिमें दूषण लगाना है। इन आठ, नौ, प्रत्यवस्थानोंके अतिरिक्त भी चक्रक अन्योन्याश्रय आदि इच्छानुसार दोषों करके भी अनेकान्तमें प्रतिषेध उठाना " मिथ्या उत्तर " होता हुआ जाति समझा जायगा । वस्तुतः इन दोषों करके अनेकान्तमें बाधा प्राप्त नहीं हो सकती है । " स्वस्मिन् स्त्रापेक्षत्वमात्माश्रयत्वं " स्वयं अपने लिये अपनी अपेक्षा बने रहना आत्माश्रय है । परस्परमें धारावाही रूपसे एक दूसरेकी अपेक्षा लागू रहना अन्योन्याश्रय है । पुनः पुनः घूमकर वही आजाना चक्रक है। अपने आत्मलाभ में स्वयं अपने आप व्यापार " स्वात्मनि क्रियाविरोध " है । इत्यादिक कोई भी दोष अनेकान्तमें नहीं प्राप्त होते हैं । यदि कथंचित् कोई दोष प्राप्त भी हो जाय तो वह गुणस्वरूप हो जायगा । वस्तुमें द्रव्यत्व धर्मकी व्यवस्था कभी अस्तित्व स्वभावकी अपेक्षा से करते हैं, और किसी दार्शनिक के प्रति अस्तित्व करके द्रव्यत्व समझाया जाता है । दोनोंमेंसे जिस एकको जो समझे हुये हैं, जाने हुये उससे दूसरे अज्ञात बर्मकी ज्ञप्ति करा दी जाती है । अस्तित्व, द्रव्यत्व दोनों धर्मोंको नहीं जानने वाले पुरुषके लिये वस्तुत्व हेतु का प्रयोग कर दोनों धर्मोकी प्रतीति करा दी जाती है । इस ढंगसे ज्ञापक पक्षमें कोई अन्योन्याश्रय नहीं है । हम जैन वस्तुके एक गुणसे दूसरे गुणकी उत्पत्ति होना स्वीकार नहीं करते हैं । जिससे कि कारक पक्षमें अन्योन्याश्रय दोष सम्भव हो सके । किन्हीं किन्हीं वस्तु के स्वभावको मियत करनेके लिये यदि अन्योन्याश्रय हो भी जाय तो भी कोई अनिष्टापत्ति, नहीं है । जो पुरुष वस्तुमें दोष देनेके लिये बैठ जाते हैं, उनको यह भी विचारना चाहिये कि दोषों में भी अनेक दोष प्राप्त हो जाते हैं । अतः कचित् वे गुणका रूप धारण कर लेते हैं। देखिये ! अपनी मोक्ष अपने आप प्रयत्न करने से होती है। समाचार पत्रों में विज्ञापन देनेवाले सचे नहीं होते हैं, इस बातको विज्ञापन देकर समझानेसे आ रहा आत्माश्रय दोष अकिंचित्कर है । अन्योन्याश्रय दोषकी भी यही दशा है । दो लडकी एक दूसरे के अधीन होकर तिरछीं खड़ीं रहती हैं। सौडमें गर्मी शरीरकी गर्मी के अधीन है । और शरीर की गर्मी सोडकी उष्णताके अधीन है । पतिपत्नी सम्बन्धमें स्वामीकी कथंचित् स्वामिनी स्त्री हो जाती है। माताका दुग्ध बढाना वत्सके आधीन है। और बच्चे की वृद्धि मातृदुग्ध के अधीन है। रस्तेपर खडा हुआ नट वांसके अधीन है। और वांस नटके अधीन है । रातको अकेले rha किसी स्थानपर जानेसे छात्रोंको डर लगता है । दोनोंको साथ जानेपर नहीं भय रहता है । यो अन्योन्याश्रय हो रहे कार्य दोषवान् कहने योग्य नहीं है । तथा आकाश स्वयंको अवकाश देता है । प्रदीप स्वयंको प्रकाशता है, ज्ञान आप ही स्वयंको जानता है । निश्चय नयसे सम्पूर्ण पदार्थ अपने में अपना परिणमन करते हैं। यहां स्वात्मनि क्रियाविरोध कोई दोषास्पद नहीं है । प्रायः सभी गृहस्थ सहोदर भगिनीका विवाह हो जानेपर किसी न किसीके साठे बन जातें हैं । इसमें दोषकी कौनसी बात है । अतः जैनोंके अनेकान्तमें उक्त दोष उठाना मिथ्या उत्तर है ।
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रत्यक्ष प्रमाणसे और अनेक युक्तियों द्वारा अनेकान्त प्रसिद्ध हो रहा है । देवदत्त चलती दुई गाडीमें बैठा जा रहा है। यहां बैठना और जाना दोनों विरुद्ध सारिखे हो रहे धर्म एक समय देवदत्त में दीख रहे हैं । तभी तो चलती हुई गाडीसे गिर जानेपर दौडते हुये पुरुषके पतनके समान अस्यधिक चोट लग जाती है । मीठे चिकने दूधमें भी खार है, तभी तो उससे खांड स्वच्छकर दी जाती है। रेमे भी क्षार भाग होनेमे आंखका कीचड उससे निकाल दिया जाता है । सुन्दर गहने, कपडे या खाद्य पदार्थ समी सम्पत्तियां काल अनुसार कूडा रूप हो जाती हैं। कूडा भी खातरूपसे लाखों मन अन्न, फल, घास तरकारी आदिको उपजाकर महती सम्पत्ति बन जाता है। सभी स्थान दूर देशवतीकी अपेक्षा दूर है और निकट देशवत्तीकी अपेक्षा समीप हैं । " अणो. रणीयान् महतो महीयान् उघोबीयान् गुरुतो गरीयान् " इस वैदिक वाक्यसे भी अनेकान्तकी पुष्टि होती है । नदीकी उरली पार भी पर ली पार और परळीपार भी उरली पार है । " बोस चाटने प्यास महीं बुझती है । "" डूबतेको तिनकेका सहारा अच्छा है।" इन दोनों लौकिक परिभाषाजोंका यथायोग्य उपयोग हो रहा है । इसी प्रकार "विन मागे मोती मिलें मांगे मिले न भीख"
और " रोये ( मागे ) विना माता मी बच्चों को दूध नहीं पिलाती है।" इन दो गैकिक न्यायोंका मी समुचित सदुपयोग हो रहा है । सुरेंद्र बंगाली द्वारा सभी बंगालियोंके झूठ बोलनेवाला ठहराने का विज्ञापन करनेपर उसका अर्थ बंगाली सब सच बोलनेवाले सिद्ध हो जाते हैं। क्योंकि सब बंगाछियोंको असत्यवक्ता कहमेवाला सुरंद्र मी तो बंगाली है । मेरुकी प्रदक्षिणा देनेवाळे सूर्यके उदय अनुसार पूर्व दिशाको नियत करनेवालों के यहाँ सूर्यका उदय पश्चिम दिशामें हो जाता है । अग्नि, जल, कदाचित् यथाक्रमसे शीत उष्ण उत्पादक संभव जाते हैं । इन लौकिक युक्तियोंसे और असंख्य शास्त्रीय युक्तियों से प्रत्येक पदार्थमें अनेक धर्मोका सद्भाव प्रसिद्ध हो रहा है। अतः अनेकान्तमें दोष उठाना सूर्यपर थूकने के समान स्वयं दोष उठानेवाले पुरुषका दूषण बनकर मिथ्या उत्तर है। अतः प्रकरणमें यही कहना है कि श्री अकलंक देवके मन्तव्य अनुसार नैयायिकोंको जातिका बक्षण " मिया उत्तर ही " स्वीकार कर लेना चाहिये । इसमें कोई बव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोष नहीं पाते हैं।
न चैवं परलक्षणस्याव्याप्तिदोषाभाव इत्याह ।
जिस प्रकार श्री अकलंक देव द्वारा बनाये गये लक्षणमें कोई बव्याप्ति दोष नहीं आता है, इसी प्रकार दूसरे नैयायिकों द्वारा माने गये साधर्म वैध द्वारा प्रत्यवस्थान देना इस लक्षणमें अव्याप्ति दोषका अभाव है, यह नहीं कह सकते हो । अर्थात्-नैयायिकों द्वारा किये गये जातिके लक्षणमें अव्याप्ति दोष आता है । इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा कहते हैं।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
परोक्तं पुनरव्या प्रोक्तेष्वेतेष्वसंभवात् ।
ततो न निग्रहस्थानं युक्तमेतदिति स्थितम् ॥ ७६१॥
दूसरे नैयायिक विद्वानों करके कहा गया जातिका लक्षण तो फिर अव्याप्ति दोष युक्त है। क्योंकि मळे प्रकार कह दिये गये इन साकर्य, व्यतिकर, आदि द्वारा दिये गये प्रत्यवस्थानों में लक्षण घटना होनेका असंभव है। तिस कारणसे अबतक यह व्यवस्तित हुआ कि तिस जातिका उत्थापन करनेसे निग्रहस्थान देना उचित नहीं है। स्वपक्षसिद्धि और परपक्षनिराकरणसे ही दूसरेका निग्रह होना न्यायसंगत है । जो कि पहिले प्रकरणोंमें सिद्ध कर दिया गया है।
परोक्तं पुनर्जातिसामान्यलक्षणमयुक्तमेव, संकव्यतिकरविरोधानवस्थावैयधिकरण्योभयदोषसंशयाप्रतीत्यभावादिभिः प्रत्यवस्थानेषु तस्यासंभवात् । ततोन निग्रहस्थानमेतयुक्तं तारिखके बादे, प्रतिज्ञाहान्यादिवच्छलवदसाधनांगदोषोद्भावनवच्चेति ।
दूसरे नैयायिकों द्वारा कहा गया जातिका लक्षण तो फिर अव्याप्तिदोष युक्त होनेसे अनु. चित ही है। क्योंकि भळे प्रकार कह दिये गये संकर, व्यतिकर, विरोध, अनवस्था, वैयधिकरण्य, उमय, दोष, संशय, अप्रतिपत्ति, अमाव, सर्वका एकास्वापादन आदि करके उठाये गये प्रत्यवस्थानों में जातिके उस लक्षणकी घटनाका असंभव है। तिस कारण तस्वोंका निर्णय करानेवाले वादमें उक्त प्रकारोंकी जाति द्वारा निग्रहस्थान हुआ, यह मानना समुचित नहीं है। जैसे कि प्रतिज्ञाहानि, प्रतिशान्तर बादि करके निग्रहस्थान उठाना युक्त नहीं है । अथवा वाक्छल, सामान्यछल, उपचारछल इन छोंका उत्थान कर देनेसे किसीका निग्रह नहीं हो जाता है । तथा बौद्ध मत अनुसार साध्य साधक अंगोंका कथन नहीं करना वादीका और दोषोंका नहीं उठाना प्रतिवादीका निग्रहस्थान नहीं हो जाता है। प्रतिमाहानि आदि और छल तथा असाधनांग वचन, अदोषोद्भावन, इन तीन दृष्टान्तोसे जाति द्वारा निग्रह हो जानेका खण्डन कर दिया गया है। " स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोs भ्यस्य वादिनः " परपक्ष निराकरण पूर्वक स्वपक्षको साध देना ही सभ्य पुरुषोंमें दूसरेका निग्रह हो जाना माना जाता है । यहांतक " असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः न युक्तं निग्रहस्थानं संधाहान्यादिवत्ततः " इस पूर्वमें कही जा चुकी कारिकाका उपसंहार कर दिया गया है।
तथा च तात्त्विको वादः स्वेष्टसिध्यवसानभाक् । पक्षेयत्वात्वयुक्तैव नियमानुपपत्तितः ॥ ४६२ ॥
बोर तिस प्रकार व्यवस्था करनेपर तत्वोंको विषय करनेवाला वाद अपने अभीष्ट सिद्धिके पर्यन्तको धारनेवाला है । जगत्में अनेक वादी प्रतिवादियों के विवादापन्न हो रहे पक्ष असंख्य हैं।
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तस्वार्थलोकवार्तिके
दश, सौ, सहस्त्र या लक्ष इतने पक्ष हैं, इत्यादिक रूपसे उन पक्षोंका यह नियत परिमाण करना अयुक्त ही है । क्योंकि संख्याका परिमाण करनेके नियमकी असिद्धि है। अतः उसी अवसरपर प्रकरण प्राप्त हो रहे एक ही पक्षकी सिद्धि कर देने पर्यन्त तात्विक शास्त्रार्थ होता है । " स्वपक्षसिद्धिपर्यन्ता शास्त्रीयार्थविचारणा" कहा गया था। इसमें " तत्रेह तात्त्विके वादेऽकलंकैः कथितो जयः, स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिनः " यह जयपराजयन्यवस्थाका अकलंक सिद्धान्त निर्णीत किया जा चुका है।
एवं तावत्चाविको वादः स्वाभिप्रेतपक्षसिद्धिपर्यंतभावावस्थितः पक्षेयत्तायाः कर्तु मशक्तेनियमानुपपत्तितश्च न सकळपक्षसिद्धिपर्यतः कस्यचिज्जयोः व्यवस्थितः ।
जिस प्रकार विवादप्राप्त वस्तुको प्राप्तितक लौकिक वाद ( झगडा ) प्रवर्तता है, इसी प्रकार तस्वनिर्णयसम्बन्धी वाद भी तो अपने अभीष्ट पक्षकी सिद्धिका पर्यन्त होनेतक व्यवस्थित हो रहा है । कोई नियम बना हुआ नहीं होनेसे पक्षोंकी इयत्ताका निर्णय नहीं किया जा सकता है, शब्द नित्य है ! या अनित्य है ! व्यापक है, या अव्यापक ! एक है ? या अनेक है ! शब्द बाकाश का गुण है ! या पौद्गलिक है ! जलकी लहरोंके समान चारों ओर फैलता है ! अथवा क्या कदम्बपुष्प या धत्तूर पुष्पके समान शब्दका प्रसार होता है ! । अनादिकालीन योग्यता द्वारा अर्थ प्रतिपादक है ! अथवा क्या सादिकालीन योग्यतावश वाच्यार्थप्रतिपादक है ! इत्यादिक विवादापन्न अनेक पक्ष सम्भव रहे हैं। इनमेंसे विचारणीय प्रकरण प्राप्त किसी एक पक्षकी सिद्धि हो जाने पर्यंत ही किसी विद्वान् का जय और अन्य पुरुषका पराजय व्यवस्थित कर दिया जाता है । सम्पूर्ण पक्षोंकी सिद्धि कर चुके तहांतक किसीका जय होय, यह व्यवस्था नहीं की गयी है। यहांतक महापण्डित श्रीदत्तके " जल्पनिर्णय " नामक ग्रन्थ अनुसार और श्री अकलंकदेव महाराजके सिद्धान्त अनुसार श्री विद्यानन्द आचार्य अभिमानप्रयुक्त हुये तात्त्विक वादके प्रकरणका उपसंहार कर चुके हैं।
सांपतं प्रातिभे वादे निग्रहव्यवस्थां दर्शयति ।
अब जिगीषु वादीप्रतिवादियोंमें प्रवर्त रहे प्रतिभाबुद्धि सम्बन्धी वादमें होनेवाली निग्रहम्यवस्थाको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकोंद्वारा दिखलाते हैं । प्रतिभाद्वारा जान लिये गये पदार्थोंमें होनेवाला शास्त्रार्थ " प्रातिभवाद " होता है । साहित्यवालोंने तो प्रतिभाका लक्षण यों किया है कि " प्रसन्नपदनव्यार्थयुक्त्युबोधविधायिनी, स्फुरन्ती सत्कवेर्बुदिः प्रतिभा सर्वतोमुखी " प्रसादगुणयुक्त पदोंद्वारा नवीन अर्थोकी योजनाके प्रबोधका विधान करानेवाली श्रेष्ठ कविकी बुद्धि प्रतिभा है। उस प्रतिभाका प्राकट्य दिखलानेके लिये हुये शास्त्रार्थमें निग्रहकी व्यवस्था इस प्रकार है, सो सुनिये ।
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
यस्तूक्तः प्रातिभो वादः संप्रातिभपरीक्षणः । निग्रहस्तत्र विज्ञेयः स्वप्रतिज्ञाव्यतिक्रमः॥४६३ ॥
प्रतिभासम्बन्धी चातुर्यकी भले प्रकार परीक्षणा करनेवाला तो जो वाद प्रातिम कहा गया है। उस प्रतिभागोचर वादमें अपनी की गयी प्रतिज्ञाका उल्लंघन कर देना निग्रह हुआ समझ लेना चाहिये।
यथा पद्यं मया वाच्यमाप्रस्तुतविनिश्चयात् । सालंकारं तथा गद्यमस्खलद्रूपमित्यपि ॥ ४६४ ॥ पंचावयववाक्यं वा त्रिरूपं वान्यथापि वा। निर्दोषमिति वा संधास्थलभेदं मयोद्यते ॥ ४६५॥ यथा संगरहान्यादिनिग्रहस्थानतोप्यसौ । छलोक्त्या जातिवाच्यत्वात्तथा संधाव्यतिक्रमा ॥ ४६६ ॥ यथा द्यूतविशेषादौ स्वप्रतिज्ञाक्षतेर्जयः। लोके तथैव शास्त्रेषु वादे प्रातिभगोचरे ॥ ४६७॥
प्रातिभ शास्त्रार्थके पहिले यह प्रतिज्ञा कर ली जाती है कि जिस प्रकारका पद्य, इन्द्रवत्रा, उपेन्द्रवजा शिखरिणी आदि छन्द प्रस्ताव प्राप्त अर्थका विशेष निश्चय होनेतक मुझ करके कहने योग्य हैं, उसी प्रकार अलंकारसहित छन्द तुमको भी कहने होंगे । तथा जिस प्रकार में अस्वलित स्वरूप धारावाही रूपसे ध्वनि, लक्षणा, व्यंजना, रस, रीति, अलंकार आदिसे युक्त हो रहे गयको कहूंगा,इसी प्रकार तुमको भी वैसा गध कहना पडेगा । अथवा प्रतिज्ञा,हेतु,उदाहरण,उपनय, निगमन, इन पांच अवयव युक्त वाक्योंको में कहूंगा, वैसे ही तुमको भी अनुमानवाक्य कहने पडेंगे अथवा पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति इन तीन रूपवाळे हेतुके वाक्यको जैसे मैं कई, उसी प्रकार तुमको भी वैसा हेतु कहना चाहिये अथवा जैसे दूसरे प्रकारोंसे दोषरहित प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, स्वरूप वाक्य मुझ करके कहे जाय, उसी प्रकार प्रतिज्ञावाक्य स्थळके भेदको लिये हुये निर्दोष वाक्य तुमको कहने पडेंगे । जिस प्रकार कि प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थानोंसे भी वह निग्रह माना जाता है, अथका छळ पूर्वक कथन करनेसे या जातिद्वारा वाच्यता प्राप्त हो जानेसे निग्रह प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार अपनी की गयी प्रतिज्ञाका व्यतिक्रमण कर देनेसे भी निग्रह हो जावेगा । जिस प्रकार कि लोकमें छूतविशेष ( जूजा ) फाटिका, सदा आदिमें अपनी ठहरी हुई
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तत्वार्थश्वाकवार्तिके
प्रतिज्ञाकी क्षति हो जानेसे दूसरे वादीका जय हो जाता है,तिस ही प्रकार शास्त्रों में भी प्रतिमाप्राप्त पदार्यको विषय करनेवाले वादमें अपनी प्रतिज्ञाकी हानि कर देनेसे पराजय और दूसरेकी जीत हो जाती है।
द्विप्रकारस्ततो जल्पस्तत्त्वप्रातिभगोचरात् ।
नान्यभेदप्रतिष्ठानं प्रक्रियामात्रघोषणात् ॥ ४६८ ॥ तिस कारण पूर्वमें कही गयी " द्विप्रकारं जगी जल्पं तत्वप्रातिभगोचरम्, त्रिषष्टेर्वादिना जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये " इस कारिकाके अनुसार तत्त्व और प्रतिभामें प्राप्त हो रहे पदार्थको विषय करनेवाला होनेसे जल्प नामका शास्त्रार्थ दो प्रकारका ही है । न्यारे न्यारे प्रकारों करके केवळ प्रकियाकी घोषणा कर देने मात्रसे अन्य भेदोंकी प्रतिष्ठा नहीं हो जाती है। अर्थात्-" यथोक्तोपपत्रश्वलजातिमिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जस्पः " यह नैयायिकोंका किया हुआ जल्पका कक्षण ठीक नहीं पडता है। तात्विक और प्रातिम दो ही प्रकारका जल्प यथार्थ है।
सोऽयं जिगीषुबोधाय वादन्यायः सतां मतः । प्रकर्तव्यो ब्रुवाणेन नयवाक्यैर्यथोदितैः ॥ ४६८ ॥
अब श्रीविद्यानन्द आचार्य प्रारम्भ किये गये तत्वार्थाविगमप्रकरणका उपसंहार करते हैं कि यह उक्त प्रकारका कहा गया न्यायपूर्वक वाद तो जीतनेकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंके प्रबोधके लिये सज्जन पुरुषों के द्वारा मान्य हो चुका है । सर्वज्ञकी आम्नाय अनुसार यथायोग्य पूर्वमें कह दिये गये नयप्रतिपादक वाक्यों द्वारा कथन कर रहे विद्वान् करके यह जल्पस्वरूप शास्त्रार्थ भळे प्रकार करना चाहिये, तभी स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष निराकरण कर देनेसे श्री अकलंक महाराजके कथनानुसार जय व्यवस्था प्राप्त हो सकेगी। यहांतक श्री विद्यानन्द आचार्यने नय प्रतिपादक सूत्रका विवरण करते हुये नय और नय वाक्यों की प्रवृत्ति तथा तस्वार्थाधिगम भेद इन प्रकरणों की संगति जोड दी है।
एवं प्रपंचेन प्रथमाध्यायं व्याख्याय संगृहमा ।
इस प्रकार परिपूर्ण विद्वत्तापूर्वक अधिक विस्तार करके प्रथम अध्यायका व्याख्यान कर इस प्रथम अध्यायमें कहे गये मूलतत्त्वोंका संग्रह करते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य शिखरिणीछन्दको कह रहे हैं।
समुद्दिष्टो मार्गस्त्रिवपुरभवत्वस्य नियमा-। द्विनिर्दिष्टा दृष्टिनिखिलविधिना ज्ञानममलम् । प्रमाणं संक्षेपाद्विविधनयसंपञ्च मुनिना । सुगृह्याद्येऽध्यायेऽधिगमनपथः स्वान्यविषयः ॥ ४७०॥
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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नमस्करणीय आचार्योंके भी अभिवन्दनीय श्री उमास्वामी मुनि महाराजने इस प्रथम अध्यायमें सबसे पहिले संसाररहितपन यानी मोक्षका मार्ग नियमसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र, इन तीनस्वरूप शरीरको घारनेवाला भळे प्रकार कहा है । पश्चात् शब्दनिरुक्तिद्वारा अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति नहीं होने से दो प्रकार सम्पूर्ण मेदोंके साथ सम्यग्दर्शनका विशेष रूपसे निर्देश ( लक्षण ) किया है । उसके पीछे निर्दोष ज्ञानको प्रमाण कहते हुये सम्पूर्ण भेद प्रभेदोंके साथ संक्षेपसे सम्यग्ज्ञानका विधिपूर्वक निरूपण किया है। तथा उसके अनन्तर संक्षेपसे द्रव्यार्थ और पर्यायार्थ दो प्रकारकी नय सम्पत्तिका विस्तार से सात प्रकार प्ररूपण किया है । इस प्रकार आदिके अध्याय में रत्नत्रय और प्रमाण नयोंका भले प्रकार ग्रहण कर सूत्रण किया है । जगत् में समीचीन ज्ञप्ति करानेका मार्ग स्वयंको और उसी समय अन्यको विषय करनेवाला प्रमाण ज्ञान ही है । अथवा वन्धचरण श्री उमास्वामी महाराज द्वारा प्रतिपादित किया गया रत्नत्रय स्व और अन्य पुरुषों में इप्ति करानेका मार्गभूत होवे, इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्य आशीर्वादवचन या वस्तुनिर्देश आत्मक मंगलाचरण करते हैं । "आदौ मध्येऽवसाने च मंगळं भाषितं बुधैः । तज्जिनेन्द्र गुणस्तोत्रं तदविघ्नप्रसिद्धये " इस नियमके अनुसार अन्तमें या मध्यमें मंगळाचारण किया जाता है । रत्नत्रय और प्रमाण मंगलस्वरूप हैं । इति प्रथमाध्यायस्य पंचममान्हिकं समाप्तम् ।। ५ ।
इस प्रकार पहिले अध्यायका श्री विद्यानन्द स्वामी द्वारा निर्माण किया गया पांचवा आन्हिक ( प्रकरणसमुदाय ) समाप्त हुआ ।
इस प्रकरणका सारांश |
इस तत्रार्थाधिगम के प्रकरणोंकी सूची संक्षेपसे इस प्रकार है कि नयोंका व्याख्यान करते हुये विद्वानोंके लिये नय वाक्यकी प्रवृत्तिको समझाकर अधिगमके उपायभूत प्रमाण नयोंका व्याख्यान पूर्व सूत्रों में कर दिया गया था। यहां तत्वोंका यथार्थनिर्णय करानेके लिये दुर्ग ( किला के ) समान विशेष कथन किया है। ज्ञान आत्मक प्रमाण और नय तो अपने लिये होनेवाले तत्त्वार्थाधिगमके उपयोगी हैं। तथा शद्ब आत्मक हो रहे प्रमाण और नय तो दूसरोंको प्रबोध करानेके लिये उपयोगी हैं । रागद्वेषरहित वीतराग पुरुषों में जो बच्चों द्वारा परार्थाधिगम कराया जाता है, वह संवाद माना जाता है। और जो परस्पर जीतने की इच्छा रखनेवालों में परार्थ अधिगम प्रवर्तता है, वह वाद कहा जाता है । सम्वादमें चतुरंगी आवश्यकता नहीं है। किन्तु बादमें वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति, इन चार arthi aataar पड जाती है। श्री विद्यानन्द आचार्यने उक्त चतुरंगके लक्षणोंका और आवश्यकता के बीजका निरूपण कर नैयायिकों द्वारा माने गये वीतरागों में होनेवाले वादका प्रत्याख्यान क्रिया है । नैयायिकों के अभीष्ट हो रहे बादके कक्षणका विचार कर अपनी ओर कुछ विशेषणों को
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तत्वार्थ छोकवार्तिके
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मिलाकर उसका सुधार कर दिया है। नैयायिकोंके जल्प और वितण्डा तो तत्रका निर्णय नहीं करा सकते हैं । वितण्डावादीका तो स्वयं गठिका कोई पक्ष होता ही नहीं है । वह तो परपक्षका निराकरण ही करता रहता है । इस प्रकरण में नैयायिकोंको बहुत बडी मुंह की खानी पडी है । जल्प और वितण्डाद्वारा तस्त्रोंके निश्वयका संरक्षण मानना नैयायिकोंकी नीतिका नग्नमुत्य है । डोळा ले जानेवाले छिनरा चोट्टा पुरुषों को ही उसमें बैठी हुई सुन्दरी सालंकारा युवतिका रक्षाभार सौंपना भारी मूल है । दूसरोंको चुप करने मात्रमें प्रवर्त रहे जल्प बितण्डा, वादियों द्वारा तस्वाध्यवसाय नहीं हो पाता है। जहां दूसरोंके निग्रह करनेके लिये सतत प्रयत्न किया जाता है, छठ और जातियोंका उत्थापन किया जाता है, वहां तस्वनिर्णय की रक्षा नहीं हो सकती है । इसका अच्छा विचार किया गया है। वादी, प्रतिवादी, सभ्य, समापति इनकी सामर्थ्यका प्रतिपादन कर उनकी स्थिति और कर्त्तव्योंका दिग्दर्शन करा दिया है। प्रतिपक्ष के विधात का लक्षण कर अभिमान प्रयुक्त होनेवाले वाद में चारों अंगों की आवश्यकता बतलायी है। श्री दत्त महाराज के " जल्पनिर्णय ग्रन्थका प्रमाण देते हुये अभिमानिकवाद के तात्विक और प्रातिभ दो भेद किये हैं । तात्रिक वादमें श्री अकळंक भगवानके कथनानुसार एकके स्वपक्षकी सिद्धिका होना दूसरे वादीका निग्रह हो जाना माना गया है। अपने पक्षकी सिद्धि होनेतक शास्त्रार्थ रुका रहता है । पश्चात् शास्त्रार्थका भंग कर दिया जाता है। यहां स्वपक्षका विचार कर उसकी सिद्धिका विवेचन किया है । वादी पक्षकी मळे प्रकार सिद्धि हो जाना ही प्रतिवादीका निग्रह है । अथवा प्रतिवादीके पक्षी निर्दोषसिद्धि हो जाना ही वादीका निग्रह है । बौद्धोंके माने हुये असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावन तो वादी प्रतिवादियोंके निग्रहस्थान नहीं हैं । उक्त रूपसे निग्रहस्थान उठाने पर गमारूपन आा जाता है । यहां बौद्धोंके आग्रहको विद्वत्तापूर्वक घर दबाया गया है। कई ढंगोंसे किये गये असाधनाङ्गवचनके व्याख्यानोंका प्रत्याख्यान कर दिया है। अदोषोद्भावनकी भी यही दशा हुई है । श्री विधानन्दी स्वामीका यह पाण्डित्य प्रशंसनीय है । बौद्धोंके इष्ट निग्रहस्थानोंके समान नैयायिकों के निग्रहस्थानोंकी भी दुर्गति की गयी है । प्रतिज्ञाहानि आदिक निग्रहस्थान उठाना भी सभ्य पुरुषों में होनेवाला समीचीन व्यवहार नहीं है । वह अपाण्डित्य या ग्रामीणपनका प्रदर्शन मात्र है | साहित्यवा कवि तो सभी वचनोंमें " वक्रोक्तिः काव्यजीवितं " अभीष्ट करते हैं । किन्तु शान्तिके अभिलाषुक दार्शनिक पुरुष दूसरेकी निन्दा, तिरस्कार, निग्रहव्यवस्था करनेमें साक्षात् अनिष्ट वचनोंके कथन के लिये संकोच करते हैं। रहस्य यह है कि अन्तमें सभी विचारशीकों को
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मिमानिक वादका परिश्याग कर वीतरागों में होनेवाले सम्वाद द्वारा तत्वनिर्णयको शरण पकडना आवश्यक पड जाता है । एक धर्मशाळा या रेलगाडीमें आश्रय लेनेवाले यात्रियोंको परिशेषमें प्रेम सद्भाव अथवा शाश्वतशान्तिकी प्राप्ति करना अपरिहार्य है, तो प्रथमसे ही तदनुकूल व्यवहार अक्षुण्ण बना रहे यही सर्वोत्तम मार्ग है। हां, निर्दोष सत्पक्षका ग्रहण नहीं करनेवाळे आम्ही पुरुषकी
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तत्वार्यचिन्तामणिः
कुत्सित मार्गसे परावृत्ति करानेके लिये मीठे तिरस्कारोंका अवलम्ब लेना आवश्यक पड जाता है । हम तो उसको भी एक जघन्य पदका ग्रहण करना समझते हैं । अतः नैयायिकों का यदि तस्व निर्णयकी संरक्षणा करना कक्ष्य है, तो परस्पर एक दूसरेको प्रतिज्ञाहानि आदि द्वारा निग्रहस्थान प्राप्त करा देनेका प्रयत्न नहीं करना चाहिये । इसके पश्चात् श्री विद्यानन्द स्वामीने नैयायिकों द्वारा माने गये प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थानोंका विचार किया है । निग्रहस्थानका सामान्य लक्षण विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति ही करना ठीक नहीं दीखता है । इसमें अतिव्याप्ति दोष है तथा प्रतिज्ञाहानि आदिकके विशेष लक्षण भी परीक्षा करनेपर सुघटित नहीं बैठते हैं । प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध और प्रतिज्ञासंन्यास इनमें अत्यल्प अन्तर होनेसे मूलभेद करके भिन्न भिन्न कथन करना उचित नहीं है । प्रतिज्ञाहानि या प्रतिज्ञान्तर करमेके जो कारण नियत किये हैं, उनसे म्यारे अन्य कारणोंसे भी प्रतिज्ञाहानि आदि होना सम्भव जाता है। इनके अनुचितपनका प्रन्थकार मे स्वयं निर्देश किया है । जिस प्रकार हेत्वन्तर न्यारा निग्रहस्थान माना है, उसी प्रकार दृष्टान्तान्तर उपनयान्तर भी न्यारे निग्रहस्थान मान लेने चाहिये । स्वपक्षसिद्धि कर देनेपर अर्थान्तरका कथन करना वादीका निग्रहक नहीं हो सकता है । अपने कार्यको पूरा कर भले ही कोई नाचे तो भी वह दोषास्पद नहीं है । वर्णक्रम निर्देशके समान निरर्थकको यदि निग्रहस्थान माना जाय तो वादके अनुपयोगी हो रहीं खखारना, हाथ फट करना आदि क्रियायें भी निप्रहहेतु बन बैठेंगी । अविज्ञातार्थ भी विश्वारनेपर निग्रह हेतु नहीं है । मिरर्थकसे इसका भेद करना अनुचित है । पूर्वापरका सम्बन्ध नहीं होनेसे अपार्थकका स्वीकार किया जाना भी निरर्थकसे पृथक् नहीं होना चाहिये । वहाँ बर्ण निरर्थक हैं। यहां पद निरर्थक है । अन्यथा वाक्य निरर्थकको न्यारा निग्रहस्थान मानना पडेगा, जैसे कि छोटी लडकियां यों कह कर हाथोंपर क्रमवार अङ्गुली रखती हुई खेळा करती हैं कि "अटकन वटकन दही चटाके, वर फूले बैरागिन सागिंन, तुरईको फूल मकोईको डंका, जाउंका में सूभा सुपारी, उठोराय तुम देड नगारी उण्डी घुंडी टूट पडी मुरगण्डी ” इत्यादिक अनेक वाक्य पूर्वापर सम्बन्धरहित हैं । अप्राप्तकाल तो कथमपि निग्रहस्थान नहीं हो सकता है। जो प्रकाण्ड विद्वताका समर्थक है, वह उसका विघातक नहीं है। संस्कृत शद्वसे पुण्य और असंस्कृत शब्द के उच्चारणसे पाप होता है ऐसा नियम मानना अनुचित है । यदि आत्मामें विशुद्धि है तो सभी शुद्ध अशुद्ध शुद्ध बोलना पुण्यहेतु है। आत्मामें संक्केशका कारण उपस्थित होनेपर पापास्स्रव होता है। होन और अधिक ये दो निग्रहस्थान भी ठीक नहीं हैं । प्रतिपाचके अनुसार अनुमान बाक्यका प्रयोग किया जाता है। कहीं केवल हेतुका प्रयोग कर देनेसे ही साध्यसिद्धि हो जाती है । और कहीं प्रतिपत्ति दृढ करनेके लिये दो हेतु दो दृष्टान्त भी कह दिये जाते हैं। प्रमाणसंप्लव माननेवालेके यहां कोई दोष नहीं आता है । पुनरुकोंमें अर्थपुनरुक ही मानना ठीक है, जो कि निरर्थकमें ही गतार्थ हो सकता है। सच पूछो तो यह पुनरुक्त भी कोई भारी दोष नहीं है । उद्देश, लक्षण, और परीक्षाओंके अवसरोंपर एक
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तत्वार्थ लोकवार्तिक
प्रमेयको कई बार कहा जाता है। देखिये, श्री उमास्वामी महाराजने जो सूत्रोंमें गंभीर अर्थ कहा है, उसीकी श्री विद्यानन्द आचार्यने वार्तिकोंमें बखाना है । पुनः वार्तिकोंका भी अनेक स्थलोंपर विव. रण करना पड़ा है। देशमाषा करनेवालको भाषानुवादमें अर्थ, भावार्थ दिखाते हुये पांच पांच छह छह वार एक ही प्रमेयका कई भंगियोंसे निरूपण हो गया दिखलाना पडा है । मन्दक्षयोपशम वालों के लिये श्री वीर भगवान के उपदेशकी लम्बी आम्नाय रक्षित रहनेका अन्य क्या उपाय हो सकता है ! अननुभाषणकी भी यही दशा है । बज्ञान निग्रहस्थान तो अकेला ही मान लिया जाय तो कहीं अच्छा है । प्रतिज्ञाहानि आदिक भी तो अज्ञान ही है। इसी प्रकार पर्यनुयोज्योपेक्षण, अप्रतिमा, विक्षेप आदि निग्रहस्थानोंका ढंग भी अच्छा नहीं है। स्वपक्षकी सिद्धि करना ही दूसरेका निप्रह हो जाना है । यह अकलंक रीति ही प्रशस्त है । अन्यथा इन प्रतिज्ञाहानि बादिकसे कई गुने अधिक निग्रहस्थान माननेपर पूर्णता हो पाती है । और इनमेंसे पांच छरके स्वीकार कर लेनेसे ही नैयायिकोंका अभीष्ट प्रयोजन सध सकता है। देखो, बौद्धोंने एक वादीका दूसरा प्रतिवादीका यों इस ढंगसे असावनाङ्ग वचन और अदोषोद्भावन, इन दो ही निग्रहस्थानोंसे निर्वाह कर लिया है, विचार करनेपर बद्धोंके दो निग्रहस्थान भी ठीक नहीं बैठते हैं। श्री माणिक्यनन्दी आचार्यने जो व्यवस्था दी है, वह निरवद्य है । "प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भाबितौ परिद्रतापरिहतदोषौ वादिनः साधनतदामासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च "। वादीने अपने पक्षको सिरिके लिये स्वसिद्धान्त अनुसार प्रमाण वाक्य कहा, पुनः प्रतिवादीने उस प्रमाणवाक्यमें दोषयुक्तपना उठा दिया। पश्चात् बादीने उस दोषका परिहार कर दिया। ऐसी दशामें वादीका हेतु स्वपक्षसाधक होता हुषा जयका प्रयोजक है और प्रतिवादीका कथन दूषणरूप होता हुआ पराजयका नियामक है। तथा वादीने हेत्वामासका प्रयोग किया है। प्रतिवादीने उसके ऊपर असिद्ध,विरुद्ध आदि हेत्वामागेको उठा दिया । यदि वादी उन दोषोंका परिहार नहीं करता है तो ऐसी दशामें वादीका उक्त हेतु हेत्वाभास होता हुआ पराजयका व्यवस्थापक है, और स्वपक्षसिद्धिको करते हुये प्रतिवादीका दूषण उठाना भूषण होता हुआ जयदायक है। इसी प्रकार छलको उठा देनेसे भी कोई जीत नहीं सकता है, जैसा कि नैयायिकोने मान रक्खा है। प्रथम तो चतुरंगवादमें कोई पण्डिस छलपूर्वक प्रयोग नहीं करता है । और कषायवश यदि कोई कपटव्यवहार भी करे तो अग्रिम विद्वान्को उसके छलवक्तव्यको ज्ञात कर अपने पेटमें डाल लेना चाहिये । प्रायः उपस्थित हो रहे सभी विचारशाळियोंको उसकी कपटनीतिका परिज्ञान हो जाता है। ऐसी बातको मुखसे उच्चारण करनेसे गम्भीर विद्वात्तामें बहा लग जाता है। तत्वज्ञान के विशेष अंशोंमें विचार करनेवाले विद्वानोंको अपने सम्यकरके अंग उपगूहन और वात्सल्य भावोंकी रक्षा करना अत्यावश्यक है। लौकिकसभ्यता और शास्त्रीय सभ्यता दोनों ही के गालिका प्रदानसदृश छळ उद्भावन बादि व्यवहार अनुकूल नहीं है । अतः " प्रमाणतदामासौ दुष्टतयोद्भावितो" इस सिद्धान्तके अनुसार ही
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तत्वार्थचिन्तामणिः
जय पराजय व्यवस्था माननी चाहिये । नैयायिकोंने अर्थके विकल्पोंकी उपपत्ति करके वचनका विधात करना छल कहा है। न्यायभाष्यकारने छलके सामान्य लक्षणका उदाहरण दिखलाने के लिये अशक्यता प्रकट की है। किसी मद्र वैश्यने ज्योतिषीसे पूंछा कि मेरे घरमें लडका होगा या लडकी जन्मेगी ! घूर्त ज्योतिषाने उत्तर लिख दिया कि "कन्या न पुत्रः" । उसमे मनमें विचार लिया कि यदि इसके कन्या उत्पन्न होगी तब तो नकारको पुत्र शब्द के साथ जोर दूंगा और पदि पुत्र हुमा तो न अव्ययको कन्याके साथ जोडकर कह दूंगा कि पुत्र उत्पन्न होगा,कन्या नहीं। किन्तु यह छल व्यवहार करना अनुचित है । नैयायिकोंने छळके वाक् छळ, सामान्यछल, उपचार छह ये तीन भेद स्वीकार किये हैं। इनपर अच्छा विवेचन किया गया है। बात यह है कि न्यायपूर्वक कहनेवालोंको तस्वपरीक्षाके अवसरपर छलका प्रयोग नहीं करना चाहिये । अन्यथा पत्रवाक्योंके प्रयोगमें या शून्यवादीके प्रति प्रमाण बादिकी सिद्धि करानेमें भी नैयायिकोंका छल समझा जाकर पराजय हो जायगा । वस्तुतः स्वपक्षसिद्धिकरके ही स्वजय और परनिग्रह मानना चाहिये । तुच्छ व्यवहार करना उचित नहीं है । बागे चलकर चौवीस जातियोंका विचार चलाया है। गौतम न्यायमूत्र और न्यायमाष्य अनुसार साधर्म्यसमा भादि जातियोंका दूषणामासपना भी नैयायिकोंने साधा है, जो कि वहां प्रेक्षणीय है । विचारनेपर जातिके सामान्य लक्षणमें अतिव्याप्ति दोष आता है। स्वाभासमें भी जातिका लक्षण चला जाना इष्ट करनेपर तो नैयायिकोंको मारी मुइकी खानी पड़ी है । न्यायभाष्यकार और न्यायवृत्तिकारके विमर्श अनुसार पूर्वपक्ष करनेपर प्रमेयकमलमार्तडमें नैयायिकोंका अनैयायिकपन प्रकट कर दिया है। जातिके लक्षण अव्याप्ति दोष भी आता है। जैसे कि पढा दुआपन ब्राह्मणका कक्षण कर देमेसे अव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोनों बाती । बहुतसे प्रामीण कृषकब्राह्मण कुछ मी पढे हुये नहीं है। अन्य क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र भी बहुत पढे हुये मिलते हैं। अथवा धौले रंगवाली,यों गायका लक्षण कर देनेसे दोनों दोष पा जाते हैं। दो दोष तो एकत्र संभव जाते हैं। अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव इन तीनों दोषोंका एकत्र संभवना बलीक है । अतः तस्व. निर्णय करनेके लिये किये गये वादमें प्रतिज्ञाहानि आदि या छळ अथवा असाधनाङ्ग वचन बदोषोदावन इनसे जैसे निग्रह नहीं हो पाता है, उसी प्रकार मिथ्या उत्तर स्वरूप सैकडों जातियोंसे मी निग्रह नहीं होता है। स्वपक्षकी सिद्धि और उसकी प्रसिद्धि करके ही जय, पराजय, म्यवस्था नियत है। छळ, जाति, निग्रहस्थानों करके जिन जल्प, वितण्डा,नामक शास्त्रोंमें साधन चोर उछाहने दिये जाते हैं। उनसे तत्वनिर्णयकी रक्षा नहीं हो पाती है । इसके अनन्तर श्री विद्यानन्दस्वामीने संक्षेपसे प्रातिम वादका निरूपण कर तत्त्वार्थाधिगम भेदके प्रकरणका पूर्वोक्त नयवाक्योंके साथ सन्दर्भ दिया है। यद्यपि मूल सूत्रकारने स्वयं " प्रमाणनयैरधिगमः " " निर्देशस्वामित्व, ससंख्या " इन सूत्रोप्ने तत्वार्थीका अधिगम होना कह दिया है। किन्तु आग्रहपूर्वक एकान्तों को बखान रहे नैयायिक
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तत्वार्य कोकवार्तिके
मादि वादियों के साथ शास्त्रार्थ कर भिन्न भिन्न रूपसे उनको स्याद्वादियोंद्वारा तस्यार्थीका अधिगम कराने के लिये उपयोगी हो रहा यह तरवार्याधिगम नामका प्रकरण श्री विद्यानन्द स्वामीने रचा है। प्रथम अध्यायमें किये गये श्री उमास्वामी महाराजके तस्वनिरूपणका प्रदर्शन कर स्वपरप्रबोधार्थ उसके विमर्षणकी सम्मति देते हुये श्री विद्यानन्द आचार्यने प्रथम अध्यायके विवरणकी समाप्ति कर पंचम वाहिकको परिपूर्ण किया है।
वीरोमास्वाम्पुपनाध्वगमुनिपसमन्तादिभद्राकलंक-। विद्यानन्दोक्तिभिर्द्राक् छळवितथवची निग्रहस्थान् परीक्ष्य । तस्वार्थज्ञप्तिभेदे जितविजितदशामाकळय्याप्तशास्त्र-। चन्द्रार्कावध्यमिनोनुभवतु शिवदा न्यायसाम्राज्यलक्ष्मीम् ॥
इति श्रीविधानंदि-आचार्यविरचिते तस्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कारे
प्रथमोऽध्यायः समाप्तः॥१॥ इस प्रकार सम्पूर्ण दर्शनशास्त्रोंकी ज्ञप्तिको धारनेवाळे श्रीविद्यानन्द आचार्य द्वारा विशेषरूपसे रचे गये " तत्वार्थश्लोकवार्तिक-अलंकार" टीका ग्रन्थमें
प्रथम अध्यायका विवरण समाप्त किया गया ।
नम्रामरेन्द्रमुकुटममाः समुद्योतयज्जिनश्चन्द्रः।
निर्दोषो विकलङ्कोऽज्ञानतमोभित प्रबोधयेत्कुमुदं ॥ इस प्रकार सर्वदर्शनाचूडामणि श्री विद्यानन्द स्वामीविरचित तरवार्थ श्लोकवातिकाकार
पाद पन्थकी चावली (आगरा) निवासी माणिकचन्द्र [न्यायाचार्य ] कत हिंदी भाषामय "तवार्यचिन्तामणि" टीकामें प्रथम-अध्याय पूर्ण हुआ ।
भद्रं भूयात्
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तत्वार्षचिन्तामणिः
५६७
न्यायशास्त्राणा महत्त्वं शास्यन्ते शिष्या येन तच्छासमिति निरुक्त्या सिद्धान्तव्याकरणसाहित्यज्योतिषगणितप्रभृतिप्रकरणेषु सदृशपरिणामात्मकसामान्यतया शास्त्रत्वे प्रसिद्धेऽपि स्वमतव्यवस्थापनपरपक्षनिराकरणातिशयप्रपनानां न्यायशास्त्राणां विशेषरूपेण दीप्यमानं प्रतिभासते शासनपटुत्वं विलक्षणविचक्षात्मवित्या न केषाचित् प्रवादिनां विप्रतिपत्तिः ।
चरमफलनिःश्रेयप्तप्रापकाथ्यात्मतस्विकी प्ररूपणामभिदधानानां राधान्तशास्त्राणां मोक्षोपयोगिस्वेऽपि पारमार्थिकनिषयनयविषयतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मावच्छिमरत्नभण्डारपरिरक्षकदुर्गायमाणतर्कप्रन्याध्यवसायमन्तरान्वीक्षिकी व्यवस्था नास्थीयते विचारचतुरचेतसां प्रामाणिकानां पुरस्तात् । सादिकः सार्वत्रिकश्चायमन्वयव्यतिरेकी नियमश्चकास्ति यदितरानभीष्टमन्तव्यप्रत्याख्यानपुरस्सरत्षेन स्वकीयेष्ठसिद्धान्तपुष्टिमातन्वता पण्डिता एव विष्टपेऽस्मिम् शिरोमणीयन्ते वाग्मिनां संसदि । वस्तुमितिमवलम्ब्य पदार्थान्तस्तलप्रवेशे व्याचिख्यासः-श्रीनिष्ठाधेयतानिरूपिताधारतावन्तोऽकलंकदेवा अपि स्वपरादानापोहनव्यवस्थापायं हि खल वस्तुनो वस्तुत्वमिति त्रिलोक त्रिकालाबाधितरहस्यमूधिरे धीमद्धृतिकरम् ।
- जगत्रितयोद्धारकाईवस्तुतिपरायणो जिष्णुरपि अष्टाविकसहस्रनामसु "न्यायशास्त्रकृदि ". स्यमिधया साष्टसहस्रशुमलक्षणन्यजनभूषितं कलशसाष्टसहस्राभिषिक्त श्रीजिनेन्द्रमभिष्टौति स्म । दाईनिकेवतीव वावदूकतया प्रसिद्धिं हममानाः गौतमीया नव्यन्यायनिर्वृत्तिनिपुणा जगदीशमथुरामाथगदाधरप्रभृतयः प्राज्ञा अवच्छेदकावछिनप्रतियोगितानुयोगिताधारतादि निःसाराल्पसारकटुकाठिन्यसम्पादकाभिधायकैः प्रमेयाल्पीयस्त्वं प्रकपन्तो नैव शान्तिसुखविधायनी शास्वतसिद्धपदवी प्रापयितुमळ. माकर्ण्यताम् तावदेकं वृत्तमुपहासास्पदं तदनुयायिषु पण्डितगदाधरप्रशंसायां किंवदन्ती श्रूयते ।
कस्त्वं ब्राह्मणवंशजः कृत इह श्री गौडभूमण्डलाज् । जाने यत्र गदाधरो निवसति ब्रूते स मां कीरशम् ॥ इत्येतद्वचनं बृहस्पतिमुखाच्छ्रीवर्कबादीश्वरो।
सज्जा नम्र उदम्पति प्रपतितो नाचापि विश्रामति ॥ ___ यत् सुरगुरुरपि गदाधरविदुषो भृशं बिभेतीति चित्रम् ! सरस्वतीवरप्रसादतुष्टादपि वाग्देवी जिदेति इति कोऽन्यो भूयात् अन्यत्र काव्यकलोण्ठितोकिम्यो रागद्वेषसंकलितदेवतोपासिम्यो मकालीनभगवषादिभ्यच पाचोयुक्तिपाभ्यः ।
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५६८
तत्वार्यलोकवार्तिके
एतेनालंकारप्वनिलक्षणाव्यञ्जनावक्रोक्तिसंचारिष्यमिचारिभावापन्तःशून्यपरिग्रहप्रहलाभिकाषगुम्फितसाहित्यग्रन्थानामपि न ताडक् मुमुक्षुविद्वन्मनस्सु हृदयोल्लास्यादर इति चिन्तितम् बोद्धव्यम् । शद्वार्थान्यतरनिष्ठचमत्कृतिजनकतावच्छेदकस्योपपत्तिमधिरूढुर्नायिकाभेदपरिगणनपटीयोभिः कविमिर्न पार्यते वस्तूदरान्तर्निहितानन्तानन्तस्वभावदिमावनम् । कवि कालिदासभकेन तत्संस्तवनपरेण केनचित् कविनाऽमाणि यत् -
काव्येषु नाटकं प्रोक्तं नाटकेषु शकुन्तला ।
तत्रापि च चतुर्थोऽङ्कस्तत्र श्लोकचतुष्टयम् ।। वस्तुतस्त्वनयैव रीत्यैवं वक्तुं शक्नुयाम्-। ..
विश्वशास्त्रेषु सम्यञ्चि न्यायशास्त्राणि भान्ति नः।
तत्र स्याद्वादलक्ष्माणि तत्रापि लोकवार्तिकम् ॥ मनु न चान्तरा केवळमध्यात्मसिद्धान्तप्रमेयधृतिकुशलाना, सुदृढतत्वप्रतिपादकानां नैनन्याय शास्त्राणां हिताहितप्राप्तिपरिहारव्यवस्थानुष्ठाने छायमानत्वं प्रतीतिभूधरशिखराख्ढतामियाद । यर. समन्तभद्रपूज्यपादजिनसेनवादिराजप्रमृतिमहर्षीणां शद्वन्यायसाहित्यायनेकविषयकशास्त्रपारगामित्वं दरीदृश्यते । तत्रापि पारमार्षिकपदार्थप्ररूपणं न्यायवित्त्वमेवोच्चैरोरुच्यते खयोततारकप्रमामिभावकभास्करप्रकाशवत् । अतो बुद्धिविषयतावच्छेदकस्बोपलक्षितधर्मावच्छिन्नतर्कशास्त्राणामेव निरपवाद प्रमितिजनकतावच्छेदकावन्छिनस्वमुररीकर्तव्यं निरारेकं परममहत्वप्रयोजकम् ।।
अमीषामध्यापकाध्येतृव्यापारापन्नप्रमेयकाठिन्यगाम्भीर्योदार्याण्यतिशेरतेऽखिळशास्त्रविभ्यासमिति सर्वतांत्रिकतन्त्रस्वतन्त्रवामी । स्थूळमतिकुतीर्थहृदयमस्तकोन्मथिनी,सूक्ष्मार्थगवेषकाममंदमतिविद्वदाल्हादपर्धिनी, परमोपादेयमोक्षशास्त्रप्ररूपणां व्याख्यातुपनसः श्रावर्द्धमानमनुस्वामिसमन्तभद्र न्याय्यपरमगुरुस्वेन मन्यमानाः परमपूज्यविधानन्याचार्याः प्रमाणनययुक्तिनिदर्शनपूर्वकमुमास्वाम्युपञ्चतत्वार्थशास्त्रालंकारभू. तश्लोकवार्तिकमहामन्यं प्रतिवादिमयंकरं नानाप्रमेयरस्नपरिपूर्णमहोदधिमिव व्यधुः ।
___श्रीजिनेद्र, निनवाणी, सद्गुरु, सपर्यानुरक्तचेतसाल्पमेधसा मया आगरामण्डलान्तर्गत चाषलाप्रामनिवासि माणिक्यचन्द्रेण श्लोकवार्तिकीय हिंदीभाषामाण्यं विन्यस्यता तदादिमध्यवसानेषु सुखशान्तिसम्पादकानि विनवसविधानदक्षाणि मंगलाचरणरूपेणोपन्यस्तानि कतिपयपथानि निबद्वानि संति।
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[अ]
अक्रमं करणातीतं अत्र द्यक्ष विज्ञानं
अत्र प्रचक्ष्म ज्ञान
त्रोत्पादव्ययौor
अत्रान्ये प्राहुरिष्टं नः
ज्ञान
ar ज्ञानानि पंचापि
अयानित्येन नित्येन
अर्थापत्तिपरिच्छेद्य
पर्यायस्तावत्
अर्थ व्यंजन पर्यायौ
तत्वार्थश्लोकवर्तिकालंकारांतर्गत श्लोकसूची
- चतुर्थ खंड
पृष्ठ नं.
अर्थादापद्यमानस्य
अनिवर्तितकायादि
तात्मकं वस्तु
अनयोः कारणं तस्मात
अनुमानांतद्धेतु
अनुस्यूतमनीषादि अन्योन्यशक्तिनिर्घाता
अनेकांतिकतेवैवं
अनित्येन घटेनास्य
अनित्यः शद्व इत्युक्ते
अनित्यत्वप्रतिज्ञाने
मनैकातिकता हेतोः
अप्राप्य साधयेत्वाभ्यं
अमिनं व्यक्तिभेदेभ्यः
८४
८३
८५
१२७
३३८
३९
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५०८
१४७
२३४
२३६
४०८
२४
५३
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१४६
१४९
३३९
४१७
५३३
५३८
५३९
५४४
४८५
२४१
लोक
अमुष्यानंतभागेषु अवस्थितोऽवधिः शुद्धेः,
अविशेषस्तयोः सद्भिः
अविशेषोदिते तौ
अव्याख्याने तु तस्यास्तु
अविशेषः प्रसंगः स्यात्
असंख्यातैः क्षणैः पद्म
असाधनांगवचनं
असाधनांगवचनं
असमर्थे तु तन्न स्यात्
अस्तु मिथ्योत्तरं जातिः
अक्षज्ञानं बहिर्वस्तु
अज्ञातं च किलाज्ञानं
[आ]
चतुर्भ्य इति व्याप्त
आत्मप्रसत्तिरत्रोता
आत्मद्रव्यं ज्ञ एवेष्टः
आढ्यो वै देवदत्तोयं
[3]
इत्ययुक्तविशेषस्य
इत्येवच्च व्यवच्छिन्नं
इति मोहाभिभूतानां
इति साध्यमनिच्छंतं
इति व्याचक्षते तु
इत्याश्रयोपयोगायाः
पृष्ठ नं.
२०
१२७
३७७
१८६
५१७
१०८
३२९
३४.४
३८१
५४६
५२
४ १३
९७
३१
७४
४३२
३२
७५
७८
८५
१०१
११०
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________________
५७०
श्लोक
इत्यचाद्यं दृशस्तत्र इत्यत्र ज्ञापकं हेतु
इति केचित्तदयुक्तं
इति प्रमाणात्मविबोध संविधौ
इत्यद्वहिरर्थेषु
इंद्रः पुरन्दरः शक्रः इत्याभिमानिकः प्रोक्तः इत्ययुक्तं द्वयोरेक
दिग्
इत्येतच्च न युक्तं स्यात् इति साधर्म्यवैधर्म्य -
इत्यप्राप्यावबोद्धव्यं
इत्य तु समत्वेन
इत्येष नियुक्त
इत्यनित्येन या नाम
[3]
उक्तं दूषयतावश्यं
उत्पादव्ययवाद व
उत्तराप्रतिपत्तिर्या
उत्तराप्रतिपत्ति हि
उत्पन्नस्यैव शद्वस्य
उदाहरणसामर्थ्यात्
उदाहरणचैधर्म्यात् उपेक्षणीयतत्वस्य
उपेक्ष्यं तु पुनः सर्व
[ऋ]
ऋजुसूत्र क्षणसि
[]
एकश्रात्मनि विज्ञानं एकत्वेन विशेषाणां
पृष्ठ नं.
१११
१२६
१५४
२०७
२३१
२६४
३२२
३३०
३३९
३५०
४७०
४८५
५१२
१२२
५३३
४११
१३२
४ १४
४१५
४९९
४५७
४७
७६
७८
२४८
परिशिष्ट
९४
२४०
श्लोक
कतः कारयेत्सम्यान
एक एव महान् नित्यः
एतयोर्मातिशद्वेन
एते सर्व पर्याये -
तस्यानं मागे स्यात् ऐतेन्योन्यमपेक्षायां
एतेनापि निगृह्येत
एवं मत्यादिबोधानां
एवं व्याख्यातनिःशेषः
एवं
प्रत्यवस्थानं
एवं भेदेन निर्देश
एहि मन्ये रथेनेति
[क]
कयिंजन पर्याय
कल्पनारोपितद्रव्य
कल्पनार्था तरका
करोति क्रियते पुष्यः
कस्यचित्तत्वसंसिद्धिः
कस्यचिद्वचनं नेष्ट
कश्चिदावरणादीनां
कानिचिद्वा तथा पुंसो
कारणत्रपूत्
कालात्ययापदिष्टोपि
कामी यंत्र यः कश्चित्
कार्यस्य सिद्धो जातायां
कार्यकारणता चेति
काळादिभेदतीर्थस्य
कान्तस्यैव
काळादिभेदतोय
कामं घटोपि नित्योस्तु
पृष्ठ नं.
३१७
३७५
२४
४ ३
६६
२६८
४३५
१८
१६२
४८८
५४९
२५६
२३१
२४४
४४९
२५६
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५२९
११४
१५२
१५६
१६८
१६९
२४८
२५५
२६१
२७१
३४६
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परिशिष्ट
५७१
पृष्ठ नं.
लेक
पृष्ठ नं.
[ख]
१११
४९९ ११२ ५२१ ५२१ ५२५
४७६
३५३
४७७ २७२ १७०
२२० १५७
ख्याप्यते प्रतिभान्यस्य ख्यापनीयो मतो वर्ण[ग] गम्यमाना प्रतिज्ञानगुणहेतुः स केषां स्यात् गुणः पर्याय एवात्र गृहीतग्रहणात्तस्य गोदर्शनोपयोगेन गोचरीकुरुते शुद्धगोवादिना स्वसिद्धन गौणं शद्वार्थमाश्रित्य प्रावगो घनस्य पातः स्यात् [घ घटो सर्वगतो यद्वत
११० २३८
. ३६७
१८२
लोक कारणाभावतः पूर्व कार्येषु कुंभकारस्य कारणस्योपपत्तेः स्यात् कारणं यद्यनित्यत्वे कारणान्तरतोप्यत्र किन्न क्षीणावृतिः सूक्ष्मान् किंचित्तदेव युज्येत क्रियाभेदेपि चामिना क्रियावानेव लोष्ठादिः क्रियाहेतुगुणासंगी क्रियाहेतुगुणोपेतं क्रियाहेतुगुणोपेतः क्रियाहेतुगुणोपेतं कुतोवर्विशेषः स्यात् कुमारनंदिनचाहुः कुतविदाकुळीभावात कृतकस्वादिना साम्य केवळ सकलनेयः केनाप्युक्त यथैवंस कचिदेति तथात्येति केनानैकांतिको हेतुः कैश्चिन्मन्येत तवानं कमजन्म कचिदृष्ट्वा क मनःपर्ययस्यार्थे । कचिसाध्यविशेषं हि कंचित्किचिदपि न्यस्य कचिदेकस्य धर्मस्य कंवं पराजयः सिध्येत
४४८
५१६
३६५
३५० ५३२
४४२
चशद्वारसंग्रहात्तस्य चित्राद्वैतप्रवादश्च
३
११४
१०७
२९५
जयेतरव्यवस्थायां जानतोपि सभामोतः जिगीषद्भ्यां विना तावत् जिगीषाविरहात्तस्य जिज्ञासितविशेषोत्र जिज्ञापयिषितामह जैनस्य सर्वथैकांत
३२४ ३८. ५१७ १३६
ở
३२४ ३२५
।
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५७२
परिशिष्ट
श्लोक
पृष्ठ नं.
पृष्ठ नं. ४३१ ४३५ ४५९
०
my
१६०
५०४ ५०८ ५३९ ५१३ ५४५
२६५
३५८ ३९२
२९३
५२२
लोक तत्राविशेषदिष्टेर्थे तत्र स्वयमभिप्रेतं तत्र ह्यप्रतिभा ज्ञानतत्रैव प्रत्यवस्थान तत्रैव साधने प्रोक्त तत्रानित्येन साधाव तत्रानित्येप्ययं दोषः तत्रोत्तरमिदं शब्दः तत्रेदं दुर्घटं तावत् तत्वश्रद्धान संज्ञानतत्वार्थाधिगमस्तावत् तत्वार्थनिश्चयो हेतोः तत्वापर्यवसानायां तस्वावधारणे चैतत् तथा चारित्रमोहस्य तथा तत्रोपयुक्तस्य तथात्मनोपि मिथ्याव तथानध्यवसायोपि तथैकत्वेपि सादृश्य तथा द्रव्यगुणादीनां तथैवावांतरान भेदान् तथा कालादि नानावं तथैकांगोपि वादः स्यात् तथानुष्णोग्निरित्यादिः तथा चैकस्य युगपत् तथा दृष्टांतहानिः स्यात् तथा सति विरोधोयं तथान्यस्यात्र तेनैव
तच्च सर्वार्थविज्ञानं तच्चेन्महेश्वरस्यापि ततोऽनावरण स्पष्टं ततः सातिशया दृष्टाः ततः समन्ततश्चक्षुः ततः सर्वप्रमाणानां तक्रियापरिणामोर्य ततो वादो जिगीषायां ततोऽनेनैव मार्गेण ततो वाक्यार्थनिर्णीतिः ततोऽर्थानिश्चयो येन ततो नित्योप्यसावस्तु तेषामेवेति निर्णीतेः ततश्चावरणादीनां ततो सिद्धिर्यथा पक्षे ततो नानित्यता शद्वे तत्र त्रिधापि मिथ्यात्वं तत्र स्वरूपतोऽसिद्धो तत्र कात्स्येन निर्णीतः तत्रापि केवलज्ञान तत्र संकल्पमात्रस्य तत्र पर्यायगस्त्रेधा तत्रर्जुसूत्रपर्यंता तत्रेह तात्विके वादे तत्रेदं चिंत्यते तावत् तत्रापि साधने शक्ते. तत्राद्यमेव मन्यते तत्राभ्युपेत्य शब्दादि
५३.
५४० ११७ ११३ १५३ १६१
१.९ १२३ १३८ १११ २२५ २४१ २६१
२३०
२३४ २६९ ३२३
२९९ ३२९
३४१
४०५ ४२३
३६४
७०
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परिशिष्ट
५७३
emaintainment
-
-
पृष्ठ नं.
पृष्ठ नं.
११८ ४२३
२५६
३१२
११३ ४५८
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१४३ २३५
५०५
५५७
२९६
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३३५ २७३
mm
०
०
श्लोक तथा निदर्शनादौ च तथोत्तरा प्रतीतिः स्यात् तथैव शून्यमास्थाय तथैवास्पर्शवत्वादि तयोदाहृतिवैधात तथा साध्यप्रसिध्यर्थ तथा प्रयत्नजस्वेन तथात्र तात्विको वादः तदसत् सर्वशून्यत्वातदसद्वीतरागाणां तदवश्य परिक्षेयं तदशौ द्रव्यपर्यायतद्भेदैकांतवादस्तु सदा तत्र भवेद्यर्थः वदान्योपि प्रवक्तवं तदामावास्वयं वक्तुः तदपेक्षा च तत्रास्ति तदा तत्समुदायस्य तद्विशेषोपि सोन्येन तदा वास्तवपक्षः स्यात् तकस्य परेणेह तदसर्वगतत्वेन तदा साध्यविनामावि..तदेवमेव संभाव्यं तदानकांतिकवादि तदप्रत्यायि शब्दस्य तदेव स्यात्तदा तस्य तदेतत्न छळं युक्त तदेतस्मिन् प्रयुक्त स्यात्
२१९ २३७ २९५ २९० २९९ ३.०
.: श्लोक तदसंबंधमेवास्य तबुद्धिरक्षणात्पूर्व तन श्रेयः परीक्षायां ... तन्निराकृतिसामर्थ्यतनिमित्तप्रकाराणां तनभस्येति नित्यत्व तयोरत्यंतमेदोक्तिः तयोरन्यतमस्य स्यात तस्यासिद्धत्वविच्छित्तिः तस्मात्प्रयुज्यमानस्य तत्सर्वथार्थशून्यत्वात तस्मानेदं पृथग्युक्तं तस्माघदृश्यते यत्तत् तस्करोयं नरत्वादेः तत्सामान्याच्छदं प्राहुः तस्मादनुष्ठेयगतं तस्य तस्मृतयः किन्न तस्येंद्रियमनोहेतु तस्माक्रियाभूदित्येवं तस्य साध्यसमा जातिः तस्य नित्येन गोत्वादि तस्याः साध्यविनाभाव सस्मान विद्यमानस्य तस्य केनचिदर्थेन ताभ्यां विशेषमाणत्वं तादृशेनेति संदेहो त्रिविधोऽधावसिद्धादि त्रिदिनोदितस्यापि त्रैकाल्यानुपपत्तेस्तु
३८३ ११० ४१९ ४४२
११.
३२६ ३३०
४६९
३४१
३५६
4
.
.
३७१
३७८ ४०६ ४१. ४४२ ४५४
५२६ ५३६
३१ ५०५ ११३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५७४
लोक
तूष्णींभावो वा दोषतेनेह प्राच्यविज्ञाने
तेष्वेव नियमोsa
से विपर्यय एवेति
तेनासाधारणो नान्यो
तेषामनेकदोषस्य
तेषामेतत्प्रभेदस्वे
[द]
द्रव्येष्विति पदेनास्य
द्रव्येति बहुत्वस्य
द्रव्ये पर्यायमात्रस्य
द्रव्यपर्यायसामान्य
द्रव्यत्वं सकलद्रव्य
द्रव्यं भिन्नं गुणात्स्वस्मात्
द्वयोरेवं सदोषत्वं
दृष्टेष्टबाधनं तस्या
दृष्टिचारित्र मोहस्य
दृष्टद्रिवकं नित्यं
दृष्टांतस्य परित्यागात्
दृष्टति स्थितश्चायं
दृष्टांतस्य च यो नाम
दृष्टधर्म साध्यार्थे
दृष्टतिपि च यो धर्म
द्वित्वप्रसंगतस्तत्र
द्विप्रकारं जगी जल्पं
द्वितीय कल्पनार्या तु
द्वितीय कल्पना तु
द्विप्रकारस्ततो बसः
पृष्ठ नं.
३४३
१३
६२
११६
१५१
१७०
४१३
४२
७४
१३१
२२३
२४१
३६•
४१७
७२
११५
३४६
३४७
३४९
३६५
४७४
५३५
२४
३२२
३४२
३८३
५६०
परिशिष्ट
श्लोक
दाडिमा दशेत्यादि
दूषणांतरमुद्भाव्यं
दूषणामासता स्व
तोच्चारादितस्त्वतो
द्वेषो हानमुपादानं
द्वेषा मतिश्रुते स्यातां
दोषानुद्भावनेतु स्यात्
दोषानुद्भावनाख्यानात्
दोषानुद्भावनादेकं
दातुमभिगम्य
[घ]
धर्मादन्यत्परिज्ञानं
धर्माध्यारोपनिर्देशे
धर्मिणीति स्वयं साध्या
धर्मिणानामात्
[न]
न मतिज्ञानतापत्तिः
ननूत्तरत्र तद्भेद
चैवं संभवेदिष्ट
साध्यसाधनत्वाद
नयेन व्यभिचारश्चेत्
न सिद्धसाध्यतेवं स्यात्
नन्वश्व कल्पना काळे
न चेदं परिणामिव
न निर्विकल्पकाध्यक्षात्
नयो नयो नयाश्चेति
नयानां लक्षणं वक्ष्यं
नन्वयं भाविनीं संज्ञां
पृष्ठ नं.
२८७
३३२
४८०
३८६
७८
९६
३३९
३४०
३४०
४१९
८०
४४८
१५५
३२७
२७
३२
४७
११
१३
८५
१०९
१२४
१४६
२१६
२१८
२३१
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________________
श्लोक नर्जुसूत्रादिषु प्रोक्त
नत्रधा नैगमस्यैवं
नसूत्रप्रभूतार्थो
नार्थेषु प्रमाणस्य
न धर्मी केवः साध्यो
न प्रतिज्ञांतरं तस्य निग्रहस्थानसंख्यानन प्रतिज्ञाविरोधेंत
ननु चाज्ञानमात्रेपि
नत्र कंबल शद्वेदि
न चेदं वाक्छ युक्तं
न सर्वस्याविशेषः स्यात्
नामायुरुदयापेक्ष नावधिज्ञानवृकर्म
नाशेषपर्ययाकां
नाश्रयस्यान्यथाभाव
नामादयोपि चत्वारः
नानादिकल्पना युक्ता
नात्रेदं युज्यते पूर्वनाश्रयाश्रयिभावोपि
निर्वर्तित शरीरादि
निःश्रेयसं परं तावत्
नियमेन तयोः सम्यक्
नित्यो ध्वनिरमूर्तस्वात
नियोगो भावनैकांतात् निर्देशाधिगमोपायं
निराकृत विशेषस्तु
निराकरोति य द्रव्यं निगमस्य परित्यागः
पृष्ठ नं.
२३३
२३९
{s{
२९०
३२६
३५६
३६६
३६७
४१८
४३२
४४९
५१८
२
५
५८
१२२
२२५
३४२
३१६
५४०
२३
७७
११४
१५४
१६३
२१०
२४१
२४८
१४७
परिशिष्ट
लोक
निदर्शनादिबाधा च निराकृतो परेणास्य
निर्दोष साधनो कौतु
निर्वक्तव्यास्तथाशेषा
निषेधस्य तथोक्तस्य
निग्रहाय प्रकल्प्यते
नगमाप्रतिकूल्येन
नैगमध्यवहाराम्यां
नर्थक्यं हि वर्णानां
नैवमात्मा ततो नायं
नैवोपलब्ध्यभावेन
नताभिर्निग्रह वादे
नोपयोगी सह स्थाताम्
[(प)
परतोयमपेक्षस्या
पर्याय मात्र नेते
परमावधिनिणीत
पर्यायेष्विति निर्देशात्
पंचभिर्व्यवधानं तु
पंचषस्तमयैस्तेषां
पररूप्रादितोऽशेषे
पक्षत्रियहानिस्तु
परापरेण कालेन
परस्पराविना भूतं
पर्याय देन
परार्थाधिगमस्तत्र
पक्षसिध्यत्रनामा
पंचावयवस्यि
पक्षसिद्धिविहीनत्वात्
५७५
पृष्ठ नं.
३६६
३६७
४१६
४६१
१३४
५४५
२७२
२७३
१८८
४७०
५३०
१४५
१००
२६
४१
६६
७४
१०७
१०८
१३३
११२
१६१
.१६७
२६३
२९३
३३१
३३३
३४१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५७६
श्लोक
पराजयप्रतिष्ठान
पक्षत्यागात् प्रतिज्ञायः
परेण साधिते स्वार्थे
पक्षस्य प्रतिषेधे
परिषद्प्रतिवादिभ्यां
पत्रवाक्यं स्वयंवादि
पदानां क्रमनियम
पश्च चेत् किंनु तत्साध्यं
पक्षस्य हि निषेध्यस्य
परोक्तं पुनरव्या
पंचावयवाक्यं वा
प्रत्ययस्यांतरस्यातः
प्रत्यक्षस्यावधेः केषु
प्रकृष्यमाणतात्वक्ष
प्रतिपत्तिरमिप्राय •
प्रत्यक्षं तु फलज्ञानं
प्रधानपरिणामत्वात्
प्रतिज्ञायैकदेशस्तु
प्रमेयत्वादिरेतेन
प्रमाणबाधनं नाम
प्रयोजनविशेषस्य
प्रमाणसं प्लवत्वेवं
प्रमाण संपवे चैव
प्रत्ययार्थी नियोगश्च
प्रमाणं किं नियोगः स्यात्
प्रमाणगोचराशा
प्रमाणात्मक एवायं
प्रत्येया प्रतिपर्ययाः
प्रवक्त्रा ज्ञाप्यमानस्य
पृष्ठ नं.
३४१
३४८
३५२
३७६
३८५
३८६
३९१
५११
५३५
५५७
५५९
७
६२
ܐ
१२८
१४७
१४७
१४८
१५१
१५७
१५८
१५८
१६०
१६४
१६९
२२३
२३२
२७४
२९४
परिशिष्ट
श्लोक
प्रभु सामर्थ्यतो वापि प्रतिवादी च तस्यैव प्रतिज्ञातोर्थसिद्धौ स्यात्
प्रतिदृष्टांत
प्रतिज्ञाहानिरित्येव
प्रतिज्ञाहानि सूत्रस्य
प्रतिदृष्टांत एवेति
प्रतिषेधे प्रतिज्ञातः
प्रतिज्ञातार्थसिध्यर्थं
प्रतिज्ञाहानितश्चास्य प्रतिदृष्टांत स्
प्रतिज्ञाया विरोधो यो
प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञा
प्रतिज्ञा च स्वयं यत्र
प्रतिज्ञादिषु तस्यापि
प्रतिज्ञानेन दृष्टांते
प्रत्यक्षादिप्रमाणेन
प्रमाणेन प्रसिद्धौ तु
प्रतिज्ञावचनेनैव
प्रतिपक्षाविनाभावि
प्रतिज्ञार्थीपनयनं
प्रतिज्ञाहानिरेवैतैः
प्रतिसंबंध शून्यानाम्
प्राविकल्पे कथं युक्तं
प्रतिसंबंधहीनानां
पुनर्वचनमर्थस्य
प्रत्युच्चारासमर्थत्वं
प्रधानं चैवमाश्रित्य
प्रत्यवस्थातुरन्याय
पृष्ठ नं.
३१५
३२४
३३६
३४५
३४६
३४९
३४९
३५४
३५७
३५८
३१८
३५९
३६०
३६१
३६९
३६९
३६६
३३८
३७०
३७१
३७४
३७५
३८०
३८५
३८७
४०१
४११
४२३
४३२
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
श्लोक
पृष्ठ नं. ४५७
पृष्ठ नं. २६९ २९८
५११
६०४
१६४
पूर्वः पूर्वो नयो भूम पूर्व वक्ता बुधः पश्चात् पूर्व वा साधनात्स ध्यं प्रेरकत्वं तु यत्तस्य प्रेरणैव नियोगोत्र प्रेर्यते पुरुषो नैव प्रेरणा विषयः कार्य प्रेरणा हि विना कार्य प्रोक्तः स प्रतिपातो वा
५१०
१६७ .
५१८
५४२
३४७
१०४
९५
प्रसंगः प्रत्यवस्थान प्रयुक्त स्थापना हेतो प्रतिदृष्टांतरूपेण प्रयत्नानंतरोत्थेपि प्रक्रियांतनिवृत्या च प्रतिपक्षोपपत्तौ हि प्रयत्नानंतरोत्थत्वात प्रयत्नानंतरीयत्वप्रयत्मानंतरीयत्वे प्रतिज्ञानादियोगस्तु प्रयत्नानेककार्यत्व प्रवस्नानंतरं तावत् पारंपर्येण तु त्यागो प्राच्यमेकं मतिज्ञान प्रादुर्भवत्करोत्याशु प्रादुर्भूतिक्षणादूध प्राधान्येनोभयात्मानं प्राश्निकत्व प्रवक्तृत्व प्राच्ये पक्षे कलंकोक्तिः प्राज्ञोपि विभ्रमाव्यात् प्रागुपन्यस्य निःशेषं प्राप्या यत्प्रत्यवस्थानं प्राप्तयोः कथमेकस्य प्राप्तस्यापि राह दंडादेः प्रागुत्पत्तेरनुत्पन्ने पुद्गळेषु तथाकाशापूर्वसूत्रोदितधात्र पूर्वत्र नोत्तरा संख्या
सर
बह्वाद्यवग्रहादीनां बहुवर्येषु तत्रैको बहिरंतश्च वस्तूना बहाधवग्रहाद्यष्ट अझ त्माद्वैतमप्येवं बाह्यौ हि प्रत्ययावत्र बोया द्रव्येषु सर्वेषु योध्योऽनकातिको हेतु
४२४
१५०
२३२ २९८ ३३८ ३५७ ४१० १८५
[भ]
२०६
२२५
भवप्रत्यय इत्यादि भवप्रत्यय एवेति भवं प्रतीत्य यो जातो भवान्विता न पंचते भाज्यानि प्रविमागेन भावशब्दसमूह हि भिन्ने तु सुखजीवित्वे . भिदा भिदामिरत्यंत
४९९
६४
३६३
२३६
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७८
श्लोक मिनाधारतयो माम्यां मूयः सूक्ष्मार्थपर्याय
[य]
मन:पर्ययविज्ञान मनोकिंगजतापत्तेः
मनमोहक
मतिश्रुते समाख्याते
मत्यादिप्रत्ययो नैव
मतिपूर्व श्रुतं यद्वव
ममः पर्ययविज्ञानं
मत्यादयः समाख्याताः
विधिज्ञान
मध्यादयो वर्तते
मध्यज्ञानं विभंगध
ममेदं कार्यमित्येवं
ममेदं भोग्यमित्येवं
ममेदं कार्यमित्येवं
मर्यादातिक्रमाभाव
मर्यादातिक्रमे कोके
मंत्रशक्त्या प्रस्तावस्
मंचाक्रोशति गामंति
मानेनैकेन सिद्धेथें
मिथ्यादृग्गोचारित्र
मिथ्याज्ञानविशेषः स्यात्
मिथ्यात्वं त्रिषु बोधेषु
मिथ्यात्वोदयावे
मुख्यरूपतर्या शून्य
पृष्ठ नं.
११०
३६
२२
२७
२९
४०
४३
७१
७१
११४
११५
१२८
१३०
१६९
१६८
१६९
२९७
३१५
३१५
४४५
१५९
७९
ܦ ܐ ܐ
१२०
१२२
४१४
परिशिष्ट
श्लोक
[य]
यदन्य पदार्थों स्तः तात्मनां हि मेदाम
या वरमनः प्राप्तः यथाद्रियनान
यदोपवते ह्यात्मा
यदा मत्यादयः पुंसः
यथा सर
यतो विपर्ययो म स्थान यस्तान्यविपरीतार्थो
यथा हि बुद्धिपूर्व
यतः साध्वे शरीरे स्त्रे
यत्रार्थे साधयेदेको
यः स्वपचविपचान्य
यद्वा नैगमो यत्र
यथा प्रतिक्षण ध्वंसि
यस्तु पर्यावद्द्रव्यं
यत्र प्रवर्तते स्वार्थे
यथा चैकः प्रवक्ता बाधादयो छो
. यथोपात्तापरिज्ञानं
वादिनो पक्ष
यस्त्वाद्रियत्वस्य
यथात्र प्रकृते देती
यदि त्वंतरेणैव
यथा चोदो
यदा मंदमते तावत्
यंदा तु तो महाप्राज्ञो
यथापशद्वतः शङ्ख
यथा च संस्कृताच्छ यथा चार्याप्रतीति स्यात्
पृष्ठ नं.
२४
१५२
२८
७०
१०९
:- १२०
१२३
१२४
१४८
१९०
१५०
१५४
१९६
२३२
२३४
-२३६
२८९
२९७
२९९
३३८
३४३
३५२
३७७
३७८
३७८
३८५
३८५
३९२
.१९३
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिधि
पृष्ठ नं.
पृष्ठ नं. ११०
लोक योर्यारोपोपपत्या स्यात योयं क्रियार्थमाचष्टे यो धसिद्धतया साध्यं .. योर्थसंभावयन्नर्थः योगेन निग्रहः प्राप्यः या प्रत्यवस्थितिः सात्र
१९० ४२७ ४३२ ४३६ १४२ १४४
४२७ ४३५
..
राजापेक्षणमप्यस्तु रागद्वेषविहीनत्वं रूपं पुद्गलसामान्य .
२९६ ३१६
१५९
१८५
लोक यन्नांतरीयकासिद्धिः यः पुनर्निग्रहप्राप्ते यदात्वनिप्रास्थाने यथैकलक्षणो हेतुः यस्मादाढ्यत्व सिद्धिः यत्र पक्षे विवादेन यत्र संभवतोर्थस्य यस्येष्ठं प्रकते वाक्ये यथा वियर्ययज्ञान यत्राविशिष्यमाणेन यथा क्रियामृदात्मायं यथा छोष्ठो न चात्मैवं यथायं साधयेदे॒तुः • यथा रूपं दिदृक्षगां यथा पुंसि विनिर्णीते यदि प्रयत्नजत्वेन यथैवास्पर्शवत्वं खे यथा च प्रत्यवस्थान यथा न विद्यमानस्य : यस्तूतः प्रातिभो वादः यथा पचं मया वाच्य यथा गरहान्यादि यथा धूतविशेषादी या वैधर्म्यसमा जातिः येऽप्रतोत्र प्रवक्ष्यते ये प्रमाणादयो भावाः पंग प्रयोगयोपास्ति पेन हेतुईतस्तेन
बघुत्तेन विच्छेदः कंचनादिकदृष्टोतः लिंगागमादिविज्ञानं लिंगात्साधयितुं शक्यो लिंगं येनाविनाभावि
कम्पचित्यं च नोट: स्यात्सक्रियाबारमा कौकिकार्थविचारेषु
२४९
५१६
३१७
५५९
[१]
५५९
५५९
२९९
बर्द्धमानोवधिः कश्चित वक्ष्यमाणस्वतश्चास्य वक्तृवाक्यानुवदिता वस्तुम्पेकत्र वर्तेते वर्णक्रमस्य निर्देशो वर्णक्रमादिशद्वस्य वक्तुः प्रलापमात्रे तु वः संभाव्यते तस्मात्
Mmmm orm
३३० ३८१
२२६
३८६ ४३२
Page #592
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८.
परिशिष्टः
श्लोक
पृष्ठ नं.
श्लोक
पृष्ठ नं. ३२७
४७१
४८७
سم
३४६ ३५६ ३६४ ३७१
२९५
ه
२६८ ४१५
४४४ ४६९
१९
ه
वर्णावयेविकल्पैश्च वक्तव्यं साधनस्यपि वस्तुतस्तादृशषिः वाद्यसिद्धौ प्रसिद्धौ च वादिनः स्पर्धया वृद्धिः वादिनोदिनं वादः . वादीतरप्रतानेन वादेप्युद्भावयनैतत् वाचो युक्तिप्रकारणाम् विशुध्यनुपमात्पुंसो. विशुध्यनन्वयादेषो विशुद्धरनवस्थानात् विषयेण च निःशेष विषयेषु निबंधोस्ति विनेयापेक्षया हेयं विशेषापेक्षया ह्येषा विपर्ययो यथा लोके विरुद्धान्न च भिन्नोऽसौ विवादाध्यासितं धीमत् विना सपक्षसत्वेन विश्ववेदश्विरः सर्व विपक्षे बाधके वृत्ति विशेषणं तु यत्तस्य विस्तरणेति स्प्तते विद्यते चापरो शुद्ध विश्वदृश्वास्य जनिता विशेषैरुत्तरैः सर्वैः . विश्रुतः सकलाभ्यासात्
विनापि तेन लिंगस्य विरुद्धसाधनोद्भावी विनश्वरस्वभावोयं विरुद्धादिप्रयोगस्तु विरुद्धसाधनाद्वाय विरुद्धोद्भावनं हेतोः विमागेनोदितस्यास्य विद्याचरणसंपत्ति विभुस्वरहितं दृष्टं विपर्यासनतो जातिः विधाविव निषेधेपि वीयांतरायविच्छेद वीतरागाः पुनः स्वार्थान वृद्धप्रसिद्धितस्त्वेष वृत्याधभावससिद्धेः वैसादृश्यविवर्तस्य वैनीयमानवस्त्वंशाः वैधय॒णोपसंहारे वैधयेणेव सा तावत् . व्यवसायात्मकं चक्षुः व्युत्क्रमादर्थनिर्णीति व्योम तथा न विज्ञातो
G७
५४४
९१ १५९ ३९४ ५२९ २२४ २८८ ४६९ ४६९
१४९
१५३
१५३
३९२. ४६.
१५७
१६४ २१५ २३९ २५५ २७३
शद्वसंसृष्टविज्ञानाशक्त्यर्पणात्तु तद्भावः शष्कुलीभक्षणादौ तु शद्वाद्विनश्वराद्धेतु. शद्वादौ चाक्षुषत्वादि
१४३
२९४
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
१८१
पृष्ठ नं.
पृष्ठ नं.
१७० २४१ २६२ २७२
११६ १२६ १३० १३०
३५८ ३९३ ४९९
श्लोक शद्वत्वश्रावणत्वादि शब्दव्यापाररूपो वा शब्रह्मेति चान्येषां शद्वकालादिभिर्मिना शद्वात्पर्यायमेदेन शद्बो सर्वगतस्तावत् शदानित्यवासिध्यर्थ शद्वन्वाख्यानवैयर्थ्य शब्दो विनश्चरो मर्त्यः शद्वोऽनित्योस्तु तत्रैव शद्वान्नित्यत्वसिद्धिश्च शद्वस्यावरणादीनि शद्वाश्रयमनित्यत्वं शाश्वतस्य च शद्वस्य शुद्धद्रव्यमशुद्धं च शुद्धद्रव्यार्थपर्याय शुद्धद्रव्यमभिप्रेति श्रुतेनार्थ परिच्छिद्य श्रुतस्यावस्तुवेदित्वे शेषा मनुष्यतिर्यचो शेषा विप्रतिपत्तित्वं
५२२
११५
१४५
५३९ १९९
लेक सर्वघातिक्षयेऽत्यंत स च सामान्यतो मिथ्या समुच्चिनोति चस्तेषां समानोर्यपरिच्छेदः स चाहार्यो विनिर्दिष्टः सति स्वरूपतोऽशेषे सत्यसत्वविपर्यासाद् सोपयोगं पुनश्चक्षु. सति त्रिविप्रकृष्टार्थे सत्वादिः सर्वथा साध्ये संदेहविषयः सर्वः . सनप्यज्ञायमानोत्र सत्वादिः क्षणिकत्वादौ संशीत्यालिंगितांगस्तु सति ह्यशेषेवेदित्वे सर्वथकोतवादे तु स च सत्प्रतिपक्षोत्र संवादित्वात्प्रमाणत्वं सगगप्रतिपत्तणां सवमेव विजानीयात् . सत्संयमविशेषोत्यो संक्षेपाद् द्वौ विशेषण संकल्पो निगमस्तत्र संग्रहे व्यवहारे वा सप्तैते नियन युक्ता संवेदनार्थपर्यायो सर्वथा सुखसंवित्यो सच्चैतन्यं नरीत्येवं . सद्व्य॑ सकलं वस्तु
१९८ १५१
१५४
'२४०
५२
१५८
१९९ १६९
१६०
षड्विकल्पः समस्ताना [स] सर्वपर्यायमुक्तानि सर्वानतींद्रियान वेत्ति सर्वस्य सर्वदात्वे तत् समोपयुक्तता तत्र संस्कारस्मृतिहेतुर्या
२३५
१०६ १०९
२३५ २३६
१२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५८२
श्लोक
सत्वं सुखार्थपर्ययात् समेकीमावसम्यक्त्वे
संग्रहेण गृहीतानां
स चानेकप्रकारः स्यात्
संयोगो विप्रयोगो वा
समुदायः क च प्रेत्य
सन्मात्रविषयत्वेन
व्यवहारोप
संग्रहादेव शेषेण
सर्वे शद्वनयास्तेन
सहस्रेष्टशती यद्वत्
संक्षेपेण नयास्तावत् सत्यवाग्भिर्विधातव्यः
सभ्यैरनुमतं तत्व . सत्यसाधनसामध्ये
समर्थ साधनाख्यानं
सदोषोद्भावनं वापि
सभ्यप्रत्यायनं तस्य
साधनवचः पक्षो सत्ये च साधने प्रो
सर्वं पृथक् समुदाये
सर्वथा मेदिनो नाना
संवाद्यवयवान्यायात् सभ्यप्रत्यायनं यावत्
सकृद्वादे पुनर्वादो सर्वेषु हि प्रतिज्ञान
संभवत्युत्तरं त्र
संक्षेपतोन्यथा कार्य
सत्यमेतदभिप्रेत
पृष्ठ नं.
२३८
२४०
२४४
२४४
२१०
२५०
२७०
२७१
२७३
२८८
२८९
२९१
२९४
२९७
३१७
३१७
३१७
३२८
३३०
३३८
३६३
३६४
३९१
४०६
४०७
४१३
४१५
४१८
४१८
परिशिष्ट
श्लोक
A
सहस्त्रपक्ष प्रसिध्यव
" प्राप्तस्य रास्य स्यात्
स्वयं नियत सिद्धांतो
सर्वथा शून्यतावादे
वविधत्व
संस्कारापेक्षणो यद्वत्
सत एव तु शदस्य
संदेत्यंत संदेहः
सर्वार्थविशेषस्य
सत्वेन च सत्वात्
सर्वदा किमनित्यस्व
सत्वाभावाद भूत्वा स्य
समुद्दिष्टो मार्ग:
सामानाधिकरण्यं च
साध्ये सत्येव सद्भावात्
सामर्थ्यं चक्षुरादीनां
साध्ये च तदभावे च
साध्याभावे प्रवृत्तो हिं
साध्याभावे प्रवृत्तेन
साध्यस्याभावएवायं
साध्यरूपतया येन
सामान्यादेशतस्तावत्
सामान्यस्य पृथक्त्वेन
सामानाधिकरण्यं क
साशद्वान्निगमादन्यः त्
साभिमाननारम्या
सामध्ये पुनरीशस्य
सा पक्षांतर सिद्धिर्वा
पृष्ठ नं.
816
४२२
४२२
४५५
४५९
४८९
५००
५०५
११८
५३६
५४०
५४३
५६०
२३
७१
१४९
१५३
१५६
१९७
१५७
१६८
२११
२२४
२४९
१७३
२९५
३१५
३२०
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
सामर्थ्याद्गम्यमानस्य सा तत्र वादिना सम्यक् साध्यधर्मविरुद्धेन
सामान्यर्मेंद्रियं नित्यं साहेत्यादिपरिख्यागात् सास्त्येव हि प्रतिज्ञानसामान्येनैयित्वस्य
साधनावयवस्यापि
'साधनावयवोsनेकः
साध
साधर्म्येणोपसंहारे
सारसाधनो
साध्यदृष्टांतयोर्धर्म
साध्यधर्मिणि धर्मस्य
साध्यधर्मविवतु
साध्यदृष्टांतयोर्धर्म
सारातिदेशमात्रेण
साधकः प्रतिदृष्टांतो
सामान्य घटयोस्तुल्य
साधनादिति नैवासौ साध्यधर्मनिमित्तस्य
साधनाप्रयोगे पि
सकियत्प्रत्यवस्थानं
सिद्धे साध्ये प्रवृत्तोत्र
सिद्धमेकं यतो ब्रह्म
सिद्ध रूपं हि यद्भोग्यं सिद्धौ जिगीषतोर्वाद
सिद्धान्तद्वयवेदित्वं
सिध्यभावः पुनर्दृष्टः
परिशिष्ट
३१६
३४१
५८३
6
पृष्ठ नं. ३३४ ३४३ ३४६ ३४९ ३५० ३५२ ३५४ ३७१ ३७२ ४१८ ४६२ ४६३ ४७१ १७५
लोक सिध्यभावस्तु योगीनां सिद्धसाधनतस्तेषां सुखजीवमिदोक्तिस्तु सोपयोगं पुनश्चक्षुसोप्यनैकांतिका मान्यसोप्यप्रतिमयोक्तः स्यात् सोपि नाप्रतिमा तोस्ति सोप्ययुक्तः स्वपक्षस्य सोपकन्धि समाजातिः - सो जिगीषुबोधाय स्मृतावननुभूतार्थे स्वात्तेषामधिर्बाह्य स्वाद्विरोध इतीदं च
पृष्ठ नं. ३४३ ३५२ २३८ १११ १५६ ४२० ४२२ ४२२ १२४ ५६० १४१ १५ १६८ २५ ४८
स्वपदार्थाच वृत्तिः स्यात स्वतो न तस्य संवित्तिः
४७७
४८०
स्वयं संवेद्यमानस्य
४८ ६४
४८० ४८९
स्त्रशक्तिवशतोऽसर्व स्त्ररूपासिद्धता हेतोः
८४
१०४
१२९
१२२
१५०
५२४
स्वर्णे स्वर्णमिति ज्ञानं स्वशरीरस्य कर्तात्मा स्वव्यक्त्यात्मक कांत स्वप्रमापरिपाकादि स्वयं महेश्वरस्यो
२४२
५४६
२९५ २९७
५५० १५७
स्वयं बुद्धः प्रवक्ता स्यात्
२९८
१६७
स्त्रपक्षसिद्धिपर्यंता स्त्रपक्षं साधयन् तत्र स्वपक्षसिद्धये यद्वत्
३२३ ३२९
१६८ ३००
३१८
स्वयं प्रतिभया हि चेत् स्त्रपक्षदोषमुपयन
४१५
४१७
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१८४
लोक
स्वयं प्रवर्त्तमानाश्व
इत्रसाध्यादविनाभाव
तंत्रयस्याभाव
वज्ञेये परसंताने
स्वाभिमानो ह
स्वार्थानुमाने वाद्ये च
स्वार्थिके केधिके
वि
स्वष्टार्थसिद्धेरंगस्य स्वाभाविक गतिर्न स्वात्
[ह] इंत हेतुविशेघोषि
इस्तास्फालन मार्कपः
इसति इसति स्वामिन्
हा योग्यं मुमुक्षूणां
मानवधिः शुद्धेः
हीनमन्यतमेनापि
हेयोपादेयतत्वस्य
हेत्वाभासबळाज्ज्ञानं
हेत्वाभासस्तु सामान्यात्
तोर्यस्याश्रयो न स्यात्
हेत्वादित्यागतोपि स्यात्
तोर्विरुद्धता वा स्याव
हेतुः प्रतिज्ञया यत्र तुस्तत्र प्रसिद्धेन
पृष्ठ नं.
४२४
४५६
५१२
५१२
१६८
३२५
४०१
१९९
३३३
९१
३६५
३७६
४०५
७८
१९
१९७
७६
१४२
१४२
१४५
३४८
३६०
३६३
३६३
परिशिष्ट
श्लोक
तः वैद्रयकत्वे तु तोद्रियिकत्वस्य
हेतूदाहरणाभ्यां यत्
हेत्वाभासाच योगोक्ताः
मात्र के प
वादिकां सामर्थ्य
हेतुर्विशिष्टसाध
[क्ष]
क्षणमेकं सुखी जीव क्षयहेतुरित्याख्यातः
क्षयोपशमतो जातः
क्षयोपशममाबिभ्रत्
क्षायोपशम इत्यंत
क्षायोपशमिकं ज्ञानं
क्षायोपशमिकं ज्ञानं
क्षेत्रतोवधिरेवातः
क्षेत्रद्रव्येषु भूयेषु
[ज्ञ]
ज्ञानस्यार्थपरिच्छित्तौ
ज्ञानं प्रकर्षमा ति
ज्ञानरूपावरणं यांति
ज्ञानानां सहभावाय
ज्ञानद्वय सकृज्जन्म
ज्ञानं ज्ञानांतराध्यक्षं
समाप्तोऽयं - खंडः
पृष्ठ नं.
३६८
३७५
४०१
४२५
४२७
४७९
५३६
२३८
११
११
२७
१३
६८
९९
३७
६९
५९
८३
૮૮
१००
१०९
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आचार्य कुंथुप्लागर ग्रंथमालाके
प्रकाशन. २६ लघुसुधर्मोपदेश मृतसार २७ मे क्षमार्गप्रदीप ( गुजराती) २८ मोक्षमार्गप्रदीप ( कानडी) २९ स्वरूपदर्शनसूर्य (षड्भाषामक ) ३० मुनिधर्मप्रदीप ३१ सुवर्णसूत्रम् ३२ कुंथुसागर-गुणगायन ३३ भावनयफलप्रदर्शी ३४ मनोनिग्रह-मंत्र ३५ बघुशांतिसुधासिंधु ३६ मनुष्यकृत्य सार ३७ सुधर्मोपदेशामृतसार (गुबराती) ३८ निजात्मशुद्धभावना (सं. अं.टी.) ३९ सत्यार्थदर्शन ४० सार्वधर्मसार ४१ श्लोकवार्तिकालंकार प्रथमखंड ४२ लोकवार्तिकालंकार द्वितीयखंड ४३ श्लोकवार्तिकाळं कार तृतीयखंड ४४ श्लोकवार्तिकालंकार चतुर्थखंड
नोट:-जो सज्जन १०१) प्रदान कर अंथमालाके स्थायी सदस्य बनते हैं, उनको ग्रंथमालासे प्रकाशित उपलरूप सर्व ग्रंथ विमा मूल्य दिये जाते हैं।
वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री. 'ऑ. मंत्री मा. कुंथुसागर ग्रंथमाला सोलापुर
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________________ wood Kalyan Press, DIE SHOLAPUR