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________________ तखार्यचिन्तामणिः ३२१ या अन्य हेत्वाभासोंका उत्थान कर वादीको जीत लेता है । किन्तु इसमें प्रतिवादीके निजपक्षकी सिद्धिकी अपेक्षा आवश्यक है । अर्थात्-केवल समीचीन दोष उठा देनेसे प्रतिवादी जीतको नहीं लूट सकता है । उत्तम बने हुये मोदकोंमें भी त्रुटि बतायी जा सकती है। किन्तु मोदक बनाने बालेको वही जीत सकेगा, जो उनसे भी परम उत्तम मोदक बना सकेगा। अतः प्रतिवादीको उचित है कि वह श्रेष्ठ दूषणोंको उठाते हुये अपने पक्षकी पुष्टि भी करे। अन्यथा वह जय प्राप्त करनेका अधिकारी नहीं है। न चैवमष्टांगो वादः स्यात्तत्साधनतद्वचनयोर्वादिसामर्थ्यरूपत्वात् सहषणतद्वचनयोश्च प्रतिवादिसामर्थ्यरूपत्वादिगंतरत्वायोगात नैवं प्रभुः सभ्यो वा वादिप्रतिवादिनो सामर्थ्य तयोः स्वतंत्रत्वात् । ततो नाभिमानिकोपि वादो यंग एव वीतरागवादवदिति शक्यं वक्तुं, चतुर्णामंगानामन्यतमस्याप्यपाये अर्थापरिसमाप्तेरित्युक्तमायं । यदि यहां कोई यों कहे कि इस प्रकार सिद्धान्त करनेपर तो वाद अष्ट अंगवाला हो जावेगा। अर्थात्-१ सभापति २ सभ्य ३ वादी ४ वादीका समर्थ साधन ५ वादी द्वारा अविनाभावी हेतुका कहा जाना ६ प्रतिवादी ७ प्रतिवादी द्वारा समीचीन दोषका उठाना ८ प्रतिपक्ष विघातक दूषणका कहना, इस प्रकार पहिले चार अंग और " समर्थ " आदि एकतालीसवीं बियासळीसवीं वार्तिकों द्वारा कहे गये चार अंग यों वादके आठ अंग हुये आते हैं। बांठ अंगवाला वाद तो किसीने स्वीकार नहीं किया है। यों कहनेपर आचार्य समझाते हैं कि यह नहीं कहना । क्योंकि उस वादीके समर्थसाधनका आख्यान और अन्यथानुपपनहेतुका कथन, ये दोनों बादीकी सामर्थ्य स्वरूप पदार्थ हैं। अतः षादी नामक बंगमें ये दोनों गर्मित हो जाते हैं। तथा समीचीन दोषका उठाना और उस प्रतिपक्षविघातक दूषणका कथन करना ये दोनों प्रतिवादीकी सामर्थ्य स्वरूप हैं । अतः प्रतिवादी नामक अंगमें ये दोनों गर्मित हो जाते हैं । अतः वादके चार ही अंग हैं । इन चारके अतिरिक्त अन्य अंगोंके उपदेश देने या संकेत फरनेका अभाव है । यदि कोई यों कटाक्ष कर दे कि इस प्रकार तो सभापति अथवा सभ्य भी वादी . प्रतिवादियोंकी सामर्थ्य हो जायंगे । अर्थात्-नैयायिक शक्तिको स्वतंत्र पदार्थ नहीं मानते हैं। किन्तु पृथ्वीकी निजशक्ति पृथ्वीत्व है । और कारणोंकी शक्ति अन्य सहकारी कारणोंका प्राप्त हो जाना है । वनमें या शून्यगृहमें अकेले मनुष्यको भय लगता है । परन्तु अपने पास शस्त्र होनेपर या कई अन्य मनुष्योंका साथ होनेपर भय न्यून लगता है । वे मनुष्य परस्परमें एक दूसरेकी शक्ति हो जाते हैं। ऐसी दशामें मनुष्यकी शक्तियां आयुध या अन्य सहकारी कारण हैं । लोकमें भी धन या कुटुम्ब अथवा राजा या प्रतिष्ठित पुरुषोंकी ओरसे प्राप्त हुआ अधिकार ये मनुष्यकी बलवती शक्तियां मानी जाती हैं । शास्त्रोंका संचय पण्डित की शक्ति है । शास्त्रोंका संविधान योद्धा की शक्ति है। 41
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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