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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके 1 अतः बहिर्भूत पदार्थ शक्ति हो सकता है । इसी प्रकार वादी और प्रतिवादीके सहकारी कारण हो रहे सभ्य और सभापति भी उनकी शक्तियां हो जायेंगी, तब तो संक्षेप करनेपर या अन्तर्भाव कर ने मार्गका सहरा लेनेपर वादके दो ही अंग ठहरते हैं । इस कटाक्षके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नहीं समझना । क्योंकि सभ्य और सभापति दोनों स्वतंत्र शक्तिशाली पदार्थ हैं । वे वादी प्रतिवादियोंके अधीन नहीं । अतः अभिमानकी प्रेरणासे प्रवर्त हो रहा भी वाद वादी और प्रतिवादी यों दो अंगवाला ही नहीं है । जैसे कि वीतराग पुरुषोंमें हो रहा वाद ( संवाद ) दो अंगवाला ही है । यह वीतराग वाद यहां व्यतिरेक दृष्टांत है । इस प्रकार वादको हम चार ही अंगवाला कह सकते हैं । वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति इन चार अंगों में से किसी भी एक अंगका अभाव हो जानेपर प्रयोजन सिद्धिकी परिपूर्णता नहीं हो सकती है । इस बातको हम प्रायः कई बार कह चुके हैं । 1 ३२२ एवमयमाभिमानिको वादो जिगीषतोर्द्विविध इत्याह । इस प्रकार यह विजिगीषुओं का अभिमानसे प्रयुक्त किया गया वाद दो प्रकारका है । इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य कह रहे हैं। इत्याभिमानिकः प्रोक्तस्तात्त्विकः प्रातिभोपि वा । समर्थवचनं वादश्चतुरंगो जिगीषतोः ॥ ४५ ॥ इस प्रकार जीतने की इच्छा रखनेवाले विद्वानोंका समर्थहेतु या समर्थदूषणका कथन करना द बहुत अच्छा कह दिया है ! वह चार अंगवाला है और अभिमान से प्रयुक्त किया गया है । उस वाद दो भेद हैं । एक वादका प्रयोजन तत्वोंका निर्णय करना है । अतः वह तात्त्विक है और दूसरा वाद अपनी अपनी प्रतिभा बुद्धिको बढानेका प्रयोजन रखकर अथवा किसी भी इष्ट, अनिष्ट, उपेक्षित बातको पकड कर प्रतिभा द्वारा उसको भी सिद्ध कर देना है। ऐसा वाद प्रातिभ है । अर्थात् - तात्विक और प्रातिभ दो प्रकारके वाद होते हैं । पूर्वाचार्योंपि भगवानमुमेव द्विविधं जल्पमावेदितवानित्याह । श्रीमान् परममहात्मा भगवान् पहिले आचार्य भी उस ही जल्प नामक वादको दो प्रकाका निवेदन कर चुके हैं। इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकद्वारा कहते हैं । द्विप्रकारं जग जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् । त्रिषष्टेर्वादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥ ४६ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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