SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९६ तत्वार्यश्लोकवार्तिके कोई पण्डित इस प्रकार कह रहे हैं कि वीतरागकथाक समान विजिगीषुओंका वाद भी दो ही वादी प्रतिवादियोंमें प्रवर्त जाता है । उस वादकी प्रवृत्तिके प्रयोजन तो अपनी अपनी प्रजाका परिपाक होना या अन्य विद्यार्थियों के लिये युक्तिओंका संकलन करना अभ्यास बढाना आदिक हैं। मल्ल मी तो अपने अखाडेमें अभ्यास, दाव पेच सीखना आदिका लक्ष्य रखकर कटाकटीसे लडते हैं। इसपर आचार्य कहते हैं कि उन पण्डितोंके यहां भी प्रमाणोंके बिना ही यदि वह दोनोंका प्रज्ञापरिपाक होना भले प्रकार मान लिया है, तब तो उस अवसरपर श्रेष्ठ सभ्योंका या प्राश्निक पुरुपोंका एकत्रित करना व्यर्थ ही होगा । किन्तु उन पण्डितोंकरके यह कैसे माना जा सकता है कि प्रश्नके वशसे ही ज्ञेयपदार्थ व्यवस्थित नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि प्रानिकोंका मिलना तो अच्छा है। तयोरन्यतमस्य स्यादभिमानः कदाचन । तन्निवृत्त्यर्थमेवेष्टं सभ्यापेक्षणमत्र चेत् ॥ ११ ॥ राजापेक्षणमप्यस्तु तथैव चतुरंगता। वादस्य भाविनीमिष्टामपेक्ष्य विजिगीषताम् ॥ १२ ॥ यदि वे यों कहें कि हम वादी प्रदिवादी और प्राश्निक इम तीन अंगोंसे वादके होनेको मानते हैं। उन दो वादी, प्रतिवादियोंमेंसे किसी एकको यदि कभी अमिमान हो जायगा और उस कषायके अनुसार असभ्य आचरण होने लग जाय तो उसकी निवृत्तिके लिए सभ्य प्राश्निकोंकी अपेक्षा करना यहां वादमें इष्ट कर लिया है। " अपक्षपतिता प्राज्ञाः सिद्धान्तद्वयवेदिनः, असद्वादनिषेद्धारः प्राश्निकाः प्रग्रहा इव" जो वादी और प्रतिवादीका पक्षपात करनेसे रहित होवें, अच्छे बिद्वान् होस्, वादी प्रतिवादी दोनोंके सिद्धान्तोंके जाननेवाले होवे, असमीचीनवादकी प्रवृत्ति करने को निषेध करनेवाले हो, वे पुरुष प्रानिक होते हैं, जैसे कि बैलों या घोडोंको लगाम वशमें रखती हुई अनिष्ट मार्गकी ओर नहीं झुकने देती है, उसी प्रकार प्राश्निक पुरुष भी वादी प्रतिवादियोंको मर्यादामें स्थित रखते हैं । इस प्रकार यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि तब तो चौथे अंग राजाकी भी अपेक्षा वादमें हो जाओ और तिस प्रकार होनेपर ही वाद चार अंगोसे सहित हो रहा माना गया है । विजयकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंको इष्ट हो रही भविष्यमें होनेवाली नीतनेकी इच्छाकी अपेक्षा कर वादके चार अंग मानना अच्छा जचता है। भावार्थ-अपने अपने पक्षको दृढ अखण्डनीय मान रहे वादी और प्रतिवादी दोनों इस बातको इष्ट करते हैं कि हमारी जीत राजा और प्रानिक विद्वानोंके समक्षमें होय । अभिमान या अनीतिका निराकरण कर ठीक प्रबन्धको राजा ही कर कर सकता है।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy