SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः सभ्यैरनुमतं तत्त्वज्ञानं दृढतरं भवेत् । इति ते वीतरागाभ्यामपेक्ष्यास्तत एव चेत् ॥ १३ ॥ महेश्वरस्यापि स्वशिष्यप्रतिपादने । सभ्यापेक्षणमप्यस्तु व्याख्याने च भवादृशां ॥ १४ ॥ 38 यदि कोई यों कहें कि सभामें बैठे हुए प्रानिकोंकरके अनुमतिको प्राप्त हो रहा तत्वज्ञान अधिक दृढ हो जावेगा । इस कारण वादमें उन तीसरे अंग सम्योंकी अपेक्षा करनी चाहिये । अब आचार्य कहते हैं कि तब तो तिस ही कारणसे यानी तत्रज्ञानकी दृढताके सम्पादनार्थ वीतरागवादी प्रतिवादियों के द्वारा भी उन सभ्योंकी अपेक्षा की जानी चाहिये । सज्जन विद्वानोंका परस्पर में सम्वाद होनेपर यदि सभ्य विद्वानों करके उस तत्त्वबोधकी अनुमति दे दी जायगी तो वह तत्वज्ञान बहुत पक्का होता हुआ सबको ग्राह्य हो जायगा । और इस प्रकार वीतराग कथा में भी सभ्योंकी अपेक्षा यदि मान ली जायगी, तत्र तो नैयायिकोंके महान् ईश्वरको भी अपने शिष्योंके प्रति खोंका प्रतिपादन करनेमें सभ्योंकी अपेक्षा माननी पडेगी । तथा आप सदृश पण्डितोंके व्याख्यानमें भी सम्योंकी अपेक्षा आवश्यक बन बैठेगी । किन्तु ऐसा एकान्त प्रतीत नहीं हो रहा है। स्वयं महेश्वरः सभ्यो मध्यस्थस्तत्त्ववित्त्वतः । प्रवक्ता च विनेयानां तत्त्वख्यापनतो यदि ॥ १५ ॥ तदान्यपि प्रवक्तैवं भवेदिति वृथा तव । प्राश्निकापेक्षणं चापि समुदाऽयमुदाहृतः ॥ १६ ॥ २९७ यदि नैयायिक यों कहें कि महेश्वर तो स्वयं सभ्य है, और तस्वोंका यथार्थबेत्ता होनेसे मध्यस्थ है । तथा विनीत शिष्यों के प्रति तत्त्वों की स्थापना करा देनेसे या प्रसिद्धि करा देनेसे वह ईश्वर प्रकृष्ट वक्ता भी है। तब तो हम जैन कहेंगे कि अन्य विद्वान् भी इसी प्रकार प्रकृष्ट बा हो जावेगा, इस प्रकार तुम्हारा प्राशिनकोंकी अपेक्षा करना कहना भी वृथा ही पडा, जो कि आपने यह बडे हर्ष के साथ कहा है । यथा चैकः प्रवक्ता च मध्यस्थोभ्युपगम्यते । तथा सभापतिः किं न प्रतिपाद्यः स एव ते ॥ १७ ॥ मर्यादातिक्रमाभावहेतुत्वाद्बोध्यशक्तितः । प्रसिद्धप्रभावात्तादृग्विनेयजनवद्ध्रुवम् ॥ १८ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy