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________________ २९८ तस्वार्थश्लोकवार्तिके स्वयं बुद्धः प्रवक्ता स्यात् बोध्यसंदिग्धधीरिह । तयोः कथं सहैकत्र सद्भाव इति चाकुलं ॥ १९ ॥ जिस प्रकार कि एक ही ईश्वर प्रवक्ता और मध्यस्थ हो रहा तुमने स्वीकार कर लिया है, इस प्रकार वही ईश्वर तुम्हारे यहां तिस प्रकार सभापति और प्रतिपादन करने योग्य शिष्य भी क्यों न हो जावें ! एक ही पुरुष वादके चारों अंगोंको धारनेवाला बन गया। कारण कि सभापतिका कार्य मर्यादाका अतिक्रमण नहीं करा देना है । मर्यादाके व्यतिक्रमके अभावका हेतु हो जानेसे वह ईश्वर समापति हो सकता है । सभापतिपन के लिये उपयोगी हो रहा प्रभाव भी ईश्वरमे प्रसिद्ध है । अथवा आद्य ज्ञानके लिये उत्पत्तिका कारण प्रभाव भी ईश्वरका प्रसिद्ध है । तथा अन्य विनीत शिष्य जनोंके समान बोध प्राप्त करने योग्य शक्ति होनेसे निश्चय कर तिस प्रकारका वह प्रतिपाद्य शिष्य हो जाओ। अनेकान्तवादी तो एक वस्तुमें अनेक धर्मोको मानते हुये अनेकान्तको स्वीकार करते हैं। किन्तु ये नैयायिक एक धर्मी में ही वादी, प्रतिवादो, सभ्य, सभापति, इन चार धर्मियोंकी सत्ताको मान बैठे हैं, यह आश्चर्य है । भला विचारो तो सही कि जो ही यहां स्वयं बुद्ध होता हुआ प्रकृष्ट वक्ता होय और वही बोध कराने योग्य होता हुआ पठनीय विषयमें संदेहको धारनेवाली बुद्धिको रखनेवाला शिष्य होय, उन दोनोंका एक पदार्थमें साथ साथ सद्भाव कैसे पाया जा सकता है ? यह तुम नैयायिकोंके लिये विशेष आकुलताको उत्पन्न करनेवाला काण्ड उपस्थित हुआ। एक ही ईश्वर तो व्याख्यात और शिष्य दो नहीं हो सकता है। प्राश्निकत्वप्रवक्तृत्वसद्धावस्यापि हानितः। स्वपक्षरागौदासीनविरोधस्यानिवारणात् ॥ २०॥ तिस प्रकार ईश्वरमें प्रतिपादकत्व और प्रतिपाद्यत्व दो धर्भ एक साथ नहीं ठहर सकते हैं। उसी प्रकार ईश्वरके प्राश्निकपन और प्रवक्तापनके सद्भावकी भी हानि हो जाती है । क्योंकि प्रवक्ता तो अपने पक्षमें राग रखता है और प्रानिक जन दोनों पक्षमें उदासीन (तटस्थ) रहते हैं । एक ही पुरुषमें स्वपक्ष राम और उदासीनपनके विरोधका तुम निवारण नहीं कर सकते हो। पूर्व वक्ता बुधः पश्चात्सभ्यो न व्याहतो यदि । तदा प्रबोधको बोध्यस्तथैव न विरुध्यते ॥ २१ ॥ यदि आप यों कहें कि वही पण्डित पहिले तो प्रवक्ता होता है और पीछे वह प्राश्निक या मध्यस्थ सभ्य हो जाता है । कोई व्याघात दोष नहीं है । तब तो हम नैयायिकसे कहेंगे कि तिस ही
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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