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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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प्रकार वह प्रवोध करानेवाला या प्रबंध करनेवाला सभापति और प्रतिपादन करने योग्य प्रतिवादी या शिष्य भी हो जाओ । कोई विरोध नहीं आता है । सर्वत्र अनेकान्तका साम्राज्य है ।
वक्तृवाक्यानुवदिता स्वस्य स्यात्प्रतिपादकः । तदर्थं बुध्यमानस्तु प्रतिपाद्योनुमन्यताम् ॥ २२ ॥
संता अपना प्रतिप्रतिपाद्य मान लिया
वह एक ही पुरुष स्वयं वक्ता हो रहा अपने वाक्योंका अनुवाद करता पादक हो जावेगा और उन वाक्योंके अर्थको समझ रहा संता तो वही स्वयं जाओ । अर्थात् - जैसे एकान्त में गानेवाला पुरुष स्वयं प्रतिपादक है, और उन गेय शब्दों के अर्थको जान रहा प्रतिपाद्य हो जाता है, उसीके समान एक विद्वान् प्रतिपाद्य और प्रतिपादक मान लिया जाय ।
तथैकागोपि वादः स्याच्चतुरंगो विशेषतः ।
पृथक् सभ्यादिभेदानामनपेक्षाच सर्वदा ॥ २३ ॥
और तैसा होनेपर वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति, इन चार अंगों द्वारा हो रहा वाद अब केवल एक अंगवाला भी हो जावेगा । न्यारे न्यारे चार व्यक्तियों में और सभ्य, सभापति, वादी, प्रतिवादी बन रहे एक व्यक्तिमें कोई विशेषता नहीं है । जब कि सभ्य, सभापति, आदि चार भिन्न भिन्न व्यक्तियोंकी पृथक् पृथक् रूपसे सदा अपेक्षा नहीं है, इससे सिद्ध होता है कि चारोंके चार धर्मोसे युक्त हो रहे एक व्यक्तिके होनेपर भी वाद ठन जाना मान लेना चाहिये । यथा वाद्यादयो लोके दृश्यंते तेन्यभेदिनः । तथा न्यायविदामिष्टा व्यवहारेषु ते यदि ॥ २४ ॥ तदाभावान्स्वयं वक्तुः सभ्या भिन्ना भवंतु ते । सभापतिश्च तद्बोध्यजनवत्तच्च नेष्यते ॥ २५ ॥
यदि आप नैयायिक यों कहें कि जैसे लौकिक कार्यों में विवाद कर रहे वे वादी, प्रतिवादी, आदिक लोक में अन्योंका भेद करनेवाले देखे जाते हैं, तिसी प्रकार न्यायशास्त्रको जाननेवाले विद्वा
व्यवहारों में भी वे अन्यका भेद करनेवाले इष्ट कर लिये गये हैं । अर्थात - किसी गृह, खेत, ग्राम, सम्पत्ति, बहिष्कार करना, अपमान करना, परस्त्रीसेवन, द्यूत आदि विषयोंमें टंटा करनेवाले जैसे भेदनीतिको डालकर अन्यको भेद डालते हैं, या लडाई कर बैठते हैं, उसी प्रकार शास्त्रार्थ में भी कदाचित् अन्योंका मेद करना सम्भव जाता है । इस पर आचार्य कहते हैं कि तब तो पदाथका स्वयं बखान करनेवाले वक्तासे सभासद पुरुष तुम्हारे यहां भिन्न ही होवें । और उस वक्ता के