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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
द्वारा समझने योग्य पुरुषके समान सभापति भी पृथक् होना चाहिये । किन्तु वह सभ्य, सभापति, और प्रतिवादीका भिन्न भिन्न होकर स्थित रहना तुमने इष्ट नहीं किया है ।
जिगीषाविरहात्तस्य तत्त्वं बोधयतो जनान् ।
न सभ्यादिप्रतीक्षास्ति यदि वादे क सा भवेत् ॥ २६ ॥ ततो वादो जिगीषायां वादिनोः संप्रवर्तते । सभ्यापेक्षणतो जल्पवितंडावदिति स्फुटं ॥ २७ ॥
यदि आप नैयायिक यों कहें कि श्रोताजनोंके प्रति तत्वों को समझाते हुये उस ईश्वर के जीतने की इच्छा का अभाव है । इस कारण सभ्य, सभापति आदिकी प्रतीक्षा नहीं की जाती है, तब तो हम जैन कहते हैं कि सभ्य, सभापति, आदिक की वह प्रतीक्षा मला वादमें भी कहां होगी ? किन्तु आप नैयायिकोंने वह सभ्य आदिकोंकी अपेक्षा वादमें स्वीकार करली है । तिस कारणसे यह व्यक्त रूपसे सिद्ध हो जाता है कि वाद ( पक्ष ) वादी प्रतिवादियोंकी परस्परमें जीतने की इच्छा होनेपर ही अच्छा प्रवर्तता है ( साध्य ), प्राश्निक या सभ्य पुरुषोंकी अपेक्षा होनेसे ( हेतु ) । जल्प और वितंडा के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात् जल्प वितंडा जैसे जीतको चाहनेवाले ही पुरुषों में प्रवर्तते हैं, उसी प्रकार वाद भी विजिगीषु पुरुषोंमें प्रवर्तता है। वीतराग कथाको वाद नहीं कहना चाहिये ।
तदपेक्षा च तत्रास्ति जयेतरविधानतः । तद्वदेवान्यथान्यत्र सा न स्यादविशेषतः ॥ २८ ॥ सिद्धो जिगीषतोर्वादश्चतुरंगस्तथा सति । स्वाभिप्रेतव्यवस्थानाल्लोक प्रख्यातवादवत् ॥ २९ ॥
उस वाद में ( पक्ष ) उन सभ्योंकी अपेक्षा हो रही है, ( साध्य ), जय और पराजयका विधान होनेसे ( हेतु ) उन जल्प और बितंडा के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । अन्यथा यानी साध्यके विना केवल हेतुका ठहरना मान लिया जायगा तो अन्य अल्प या वितंडामें भी वह सम्बोंकी अपेक्षा नहीं हो सकेगी। क्योंकि जल्प और वितंडासे वादमें कोई अधिक विशेषता नहीं है । अतः तैसा होनेपर यह सिद्धान्त अनुमान द्वारा निर्णीत हो जाता है, कि सभ्य, सभापति, बादी, प्रतिबादी इन चार अंगोंको धारता हुआ बाद ( पक्ष ) जीतने के इच्छा रखनेवाले दो वादियोंमें प्रवर्तता है ( साध्य ) । अपने अपने अभिप्रेत हो रहे विषयकी परिपूर्ण शक्तियों द्वारा व्यवस्था करना होने से