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________________ १४० तस्वार्थश्लोकवार्तिके बौद्ध नैयायिक आदि प्रतिवादियों के यहां हेतु द्वारा शद्वका विनश्वरपना साध्य करने में बोले गये अकृतकपन, प्रत्यभिज्ञायमानपन आदिक हेतु असिद्धपनेको प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात्-शब्द के विनश्वरपनकी अपेक्षा कर ( ल्यव् लोपे पञ्चमी ) प्रयुक्त किये गये अकृतकपन आदि हेतु तो प्रतिवादियोंके असिद्ध हेत्वाभास है। शब्द में नित्यपना सिद्ध करनेके लिये बौद्धों के प्रति यदि अकृतकपन हेतु कहा जायगा, तो बौद्ध उस हेतुको स्वरूपासिद्ध ठहरा देवेंगे । जैनस्य सर्वथैकान्तधूमवत्त्वादयोऽभिषु । साध्येषु तवोsसिद्धा पर्वतादौ तथामितः ॥ २९ पर्वत, महानस आदि पक्षोंने अग्नियोंके साध्य करनेपर सर्वथा एकान्तरूप से घूमसहितपन या उष्ण सहितपन आदिक हेतु तो जैनोंके यहां असिद्ध हेत्वाभास हो जाते है। क्योंकि पर्वत सभी अवयवों में एकान्तरूपसे धूमवाला नहीं है। सच पूछो तो अखंड रेखावाला धूम तो पर्वतके ऊपर आकाशमें है । तथा धूमके अतिरिक्त अन्य तृग, तरु, पत्थर भी पर्वत में विद्यमान है। अतः • जैनोंके प्रति कहा गया सर्वया धूमवस्त्र हेतुस्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । तथा पर्वत में अग्निहेतुसे ही अग्निको साम्य करनेपर स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । साध्यसम होनेसे हेतुका अविनाभावी स्वकीयरूप बंद हो रहा है । जब अग्नि नामक साध्य असिद्ध है तो उसका पक्षमें ठहरना भी असिद्ध है । शब्दादौ चाक्षुषत्वादिरुभयासिद्ध इष्यते । निःशेषोऽपि यथा शून्यब्रह्माद्वैतप्रवादिनोः ॥ ३० ॥ शब्द, रस आदि पक्ष अनित्यपनको साध्य करनेपर दिये गये चक्षु इन्द्रियद्वारा प्राय होना या नासिका इन्द्रियकरके विषय हो जाना इत्यादिक हेतु तो वादी, प्रतिवादी दोनोंके यहां असिद्ध त्वामास माने गये हैं। जैसे कि शून्यवादी और ब्रह्मा अद्वैतवादी दोनों वादी प्रतिवादियोंके यहां सभी हेतु दोनोंकी अपेक्षासे असिद्ध है । अर्थात चाहे शून्यवादी अपने अमीष्ट मतको सिद्ध करने के छिए, ब्रह्म अद्वैतवादियोंके प्रति कोई भी हेतु प्रयुक्त करें, ब्रह्म अद्वैतवादी शून्यवादीके ऊपर असिद्ध यामास दोष उठा देखेंगे । तथा शून्यवादी भी ब्रह्म अद्वैतवादीके हेतुको असिद्ध ठहरा देखेंगे । एक ही हेतु दोनों के मत अनुसार स्वरूपासिद्ध हो जायेगा । . वाद्यसिद्धौ प्रसिद्धौ च तत्र साध्यप्रसाधने । समर्थनविहीनः स्यादसिद्धः प्रतिवादिनः ॥ ३१ ॥ प्रकरण में साध्यको मके प्रकार साधनेमें प्रसिद्ध हो जानेपर भी यदि हेतुप्रयोका बादीके द्वारा बिल देतुकी सिद्धि नहीं हुई है तो " हेतोः स्ववाध्येन व्यामि प्रसाध्य पक्षे विप्रदर्शनं समर्थ "
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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