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तत्वार्यचिन्तामणिः
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हेतुकी साध्य के साथ व्याप्तिको अव्यभिचार युक्त साधकर पक्ष में वृत्ति दिखादेनारूप समर्थन करके विरहित होता हुआ वह हेतु प्रतिवादी विद्वान् के यहां असिद्ध हेत्वाभास समझा जायगा । अतः वादीको उचित है कि प्रतिवादीके सन्मुख अपने इष्ट हेतुका समर्थन करें । इस प्रकार कई ढंग से स्वरूपासिद्ध हेत्वाभासों का यहां प्रतिपादन किया है। विशेषज्ञ विद्वान् ग्रन्थको शुद्ध करते हुये अधिक प्रमेयकी शप्ति कर लेवें । " न हि सर्वः सर्ववित् " ।
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तोर्यस्याश्रयो न स्यात् आश्रयासिद्ध एव सः । स्वसाध्येनाविनाभावाभावाद्गमको मतः ॥ ३२ ॥ प्रत्यक्षादेः प्रमाणत्वे संवादित्वादयो यथा । शून्योपप्लवशद्वाद्यद्वैतवादावलम्बिनां ॥ ३३ ॥
अब आश्रयासिद्धको कहते हैं कि जिस अनुमानमें पडे हुये हेतुका आधार ही सिद्ध नहीं होवे वह हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास होगा । अपने साध्यके साथ अन्यथानुपपत्ति नहीं होने के कारण वह हेतु अपने साध्यको नहीं समझानेवाला माना गया है। जैसे कि शून्य तत्वोपप्लव, शद्व अद्वैत, ब्रह्म अद्वैत, आदिके पक्ष परिग्रहका अवलम्ब करनेवाले विद्वानों के यहां प्रत्यक्ष, अनुमान आदिको प्रमाणपना साधनेपर सम्वादपिन, प्रवृत्तिजनकपन, आदिक हेतु आश्रयासिद्ध हो जाते हैं । भावार्थ- नैयायिक या ममिांसक विद्वान् यदि शून्यवादी आदिके प्रति प्रत्यक्ष आदिकोंकी प्रमाणताको सम्पादपिन हेतु से साधेंगे तो उनके सम्वादित्व हेतुपर शून्यवादीद्वारा अश्रयासिद्ध हेत्वाभासपने का उपालम्भ दे दिया जायगा । 'पक्षे पक्षतावच्छेदकस्य भाव आश्रयासिद्धि:' । वाश्रयासिद्धका वर्णन हो चुका, अब संदिग्ध सिद्धको कहते हैं।
संदेहविषयः सर्वः संदिग्धासिद्ध उच्यते ।
यथागमप्रमाणत्वे रुद्रोक्तत्वादिरास्थितः ॥ ३४ ॥
संदेहका विषय जो हेतु है, वह सभी संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास कहा जाता है । जैसे कि आगमको प्रमाणपना साधने में दिये गये रुद्रके द्वारा कहा गयापन, बुद्धके द्वारा कहा गयापन, इत्यादिक हेतु संदिग्वासिद्धपने करके व्यवस्थित हो रहे हैं। क्योंकि प्रतिवादीके यहां आगमका रुद्द करके कहा गयापन और रुद्रोपनका प्रमाणपन के साथ अविनाभाव ये निर्णीत नहीं है, संदिग्ध है । अत एव असिद्ध हैं। " पश्चांशवृत्तिहेत्वभावसंशयविषयत्वं संदिग्वासिद्धिः " |
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सन्नप्यन्नायमानोऽत्राज्ञातासिद्धो विभाव्यते ।
सोगतादेर्यथा सर्वः सखादिः स्वेष्टसाधने ॥ ३५ ॥