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तत्वार्यलोकवार्तिके
जाने के कारण एक शब्दका अर्थ " प्रधान " ऐसा करना अच्छा दीखता है। अतः युगपत् एक जीवमें प्रधान ज्ञान केवलज्ञान हो सकेगा।
द्वेधा मतिश्रुते स्यातां ते चावधियुते कचित् ।
मनापर्ययज्ञाने वा त्रीणि येन युते तथा ॥३॥ - एक आत्मामें एक समय दो प्रकारके ज्ञान मति और श्रुत हो सकेंगे और अवधिसे युक्त हो रहे, वे दोनों ज्ञान किसी आत्मामें युगपत् हो जाते हैं । तथा किसी आत्मामें मनःपर्यय ज्ञानके हो जानेपर उन दोनोंको मिलाकर तीन ज्ञान युगपत् हो जाते हैं। अर्थात्-मति, श्रुत, अवधि, या मति, श्रुत, मनःपर्यय, ये तीन ज्ञान युगपत् सम्भव जाते हैं। तथा जिस अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके द्वय करके सहित वे मति, श्रुत हो जाते हैं। अथवा वे तीन ज्ञान यदि मनःपर्ययज्ञाममें युक्त हो जाय तो मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, इस प्रकार चार ज्ञान एक ही समयमें किसी एक जीवके सम्भव जाते हैं। पांचों ज्ञान युगपत् नहीं हो सकते हैं, असम्भव है।
प्रथमं मतिज्ञानं क्वचिदात्ममि श्रुतभेदस्य सत्र सतोऽप्यपरिपूर्णत्वेनानपेक्षणात् प्रधान केवळमेतेनैकसंख्यावाच्यप्येकशद्रो व्याख्यातः स्खयमिष्टस्यैकस्य परिग्रहात् । पंचानामन्यतमस्यानिष्टस्यासम्भवात् ।
उक्त दोनों वार्तिकोंका विपरीत अर्थ निवारणार्थ विवरण कहते हैं कि किसी एक जात्मामें पहिला एक मतिबान होगा, यद्यपि उस मतिज्ञानी आत्मामें श्रुतज्ञामका भेद भी विद्यमान हो रहा है। फिर भी श्रुतज्ञानके परिपूर्ण नहीं होने के कारण उस श्रुतज्ञानकी अपेक्षा नहीं की गयी है। अर्थात्-जिस एक इन्द्रियवाले या विकलत्रय जीवोंके अकेले मतिज्ञानकी सम्भावना है। उन जीवोंके थोडा मन्द श्रुतज्ञान भी है। किन्तु अनिन्द्रिय ( मन ) की सहायतासे होनेवाले विशिष्ट श्रुतज्ञानकी सम्भावना नहीं होनेसे वह श्रुत ( छोटा श्रुतज्ञान ) विद्यमान हो रहा भी अविद्यमान सदृश है । किसी विशेष विद्वान् या अङ्गबानीके श्रुतज्ञान कहना विशेष शोभता है। तथा एक आत्मामें एक प्रधान ज्ञान केवलज्ञान हो सकता है । इस उक्त कथनसे एकस्य संख्याको कहनेवाले भी " एक " इस शब्दका व्याख्यान कर दिया समझ लेना चाहिये । क्योंकि श्री उमास्वामी महाराजको स्वयं इष्ट हो रहे एकज्ञानका भी संख्यावाची एक शबसे पूरा ग्रहण हो जाता है। और पांच ज्ञानोंमेंसे चाहे कोई भी एक ज्ञानके सद्भावका हो जाना इस अनिष्ट अर्थकी सम्भावना नहीं है। व्यापक अर्थ होनेपर व्याप्य अर्थ आ ही जाता है । अतः संख्यावाची एक शब्दका अभिप्राय करनेपर एक मतिज्ञानका ही सद्भाव रखना चाहिये । अकेले श्रुतज्ञान या अकेले अवधिज्ञान अथवा