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________________ ९९ तत्वार्थचिन्तामणिः चेतना गुणकी के छज्ञानस्वरूप पर्याय सर्वदा होती रहती है । सम्पूर्ण पदार्थों की सत्ताका आलोचन करनेवाला अनन्तदर्शन उसी ज्ञानमें अन्तर्भाषित हो जाता है। एक गुण नहीं धार सकता है । अतः क्षयोपशमजन्य लब्धिस्वरूप ज्ञान एकसे हैं । किन्तु उपयोगस्वरूप पर्यायसे परिणत हो रहा ज्ञान एक म्यून अधिक नहीं । एक समय में दो पर्यायको लेकर चार तक हो सकते समय में एक ही होगा, सोपयोगयोर्ज्ञानयोः सह प्रतिषेधादिति निवेदयन्ति । उपयोगसहित हो रहे दो ज्ञानोंके साथ साथ हो जानेका निषेध है। इस रहस्यको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्त्तिकद्वारा सबके सन्मुख निवेदन करते हैं । क्षायोपशमिकं ज्ञानं सोपयोगं क्रमादिति । नार्थस्य व्याहतिः काचित्क्रमज्ञानाभिधायिनः ॥ ६॥ ज्ञानावरण कर्मोके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुये ज्ञान यदि उपयोगसहित उपजेंगे तो क्रमसे ही उपजेंगे। ऐसा करने में कमसे ज्ञानों की उत्पत्तिका कथन करनेवाले स्याद्वादी विद्वानके यहाँ कोई अर्थका व्याघात नहीं होता है । अर्थात्- - बद्ध आत्मामें देशघाती प्रकृतियोंके उदयकी अवस्था उपयोगस्वरूप ज्ञान या दर्शनकी एक ही पर्याय एक समयमें हो सकती है। हां, ज्ञानावरण, दर्शमावरणके क्षय हो जानेपर अबद्ध आत्मामें भले ही दो पर्याय हो जानेका व्यपदेश हो जाय तो कोई क्षति नहीं है । संसारी जीव क्रमसे दृष्टा, ज्ञाता, है । और केवली भगवान् युगपत् दृष्टा, ज्ञाता हैं । 1 निरुपयोगस्यानेकस्य ज्ञानस्य सहभाववचनसामर्थ्यात् सोपयोगस्य क्रमभावः क्षायोपशमिकस्येत्युक्तं भवति । तथा च नार्थस्य हानिः क्रमभाविज्ञानावबोधकस्य सम्भाव्यते । उपयोग आत्मक नहीं ऐसे अनेक ज्ञानोंके एक साथ हो जानेके कथनकी सामर्थ्य से यह बात अर्थापत्तिद्वारा कह दी जाती है कि उपयोगसहित हो रहे क्षायोपशमिक ज्ञानोंका क्रम क्रमसे ही उत्पाद होता है । और तिस प्रकार होनेपर क्रमसे होनेवाले ज्ञानोंको समझानेवाले स्याद्वादवादीके 1 यहां किसी प्रयोजनकी हानि नहीं सम्भवती है। अर्थात् अल्पज्ञानी ज्ञाताओंके क्षायोपशमिक ज्ञानोंके क्रमसे उत्पन्न हो जानेमें किसी अर्थकी हानि नहीं हो पाती है । प्रत्युत चेतना गुणकी • वर्तना अनुसार ठीक पर्याय होनेका सिद्धान्त अक्षुण्ण बना रहता है । अत्रापराकृतमनूद्य निराकुर्वन्नाह ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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